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जिस रूप में इन चारों अन्तक्रियात्रों का वर्गान स्थानांग सूत्र में किया गया है, उसे देखते हुए तो यही प्रतीत होता है कि इन सभी ग्रंत-क्रियाओं के उदाहरण तदुभव की अपेक्षा वतलाये गये हैं । जव प्रथम द्वितीय एवं चतुर्थ अंत-क्रिया में उदाहृत भरत, गजसुकुमाल और मरुदेवी तीनों उसी नव में सिद्ध हुए माने गये हैं तो तीसरी अंत-क्रिया के उदाहरण में निर्दिष्ट सनत्कुमार को भी उसी भंव में सिद्ध हुप्रा मानना उचित प्रतीत होता है क्यों कि तीसरी संत-क्रिया और साधुपर्याय सनत्कुमार चक्रवर्ती की बताई गई है न कि ग्राचार्य अभय देव एवं हेमचन्द्राचार्य द्वारा वरिणत सनत्कुमार देव लोक की देवायु भोगने के पश्चात् महा विदेह क्षेत्र में साधुपर्याय पाल कर सिद्ध होने वाले किसी साधक की ।
'सूत्रों के अर्थ विचित्र होते हैं - इस प्रसिद्ध एवं प्राचीन उक्ति के अनुसार प्राचार्य अभय देव जैसे आगम निष्णात टीकाकार के समक्ष क्या इस प्रकार का कोई परम्परागत प्राचीन उल्लेख रहा है, जिसके आधार पर उन्होंने सनत्कुमार चकी का तद्भव में मोक्ष न मान कर तीसरे देव लोक की देवायु पूर्ण कर महाविदेह में जन्म लेने तथा वहां दीर्घ काल तक श्रमरणपर्याय से सिद्ध होने का उल्लेख किया ? यह प्रश्न भी निष्पक्ष विचारक के मस्तिष्क में सहज ही उद्भूत हो सकता है । पर इस प्रकार के निर्णायक प्रमारण के अभाव में स्थानांग सूत्र के एतद्विषयक मूल पाठ की शब्द रचना और पूर्वापर सम्बन्ध को दृष्टि में रखते हुए सनत्कुमार का तद्भव में मोक्ष मानना ही उचित प्रतीत होता है ।
दिगम्बर परम्परा में भी चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार का उसी भव में मुक्त होना माना गया है । '
चौथी शंका महाबल मुनि द्वारा स्त्री नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किये जाने के सम्बन्ध में उठाई गई है। प्रथम भाग, भगवान् मल्लिनाथ के प्रकरण में उनके पूर्वभव का परिचय देते हुए पृष्ठ १२६ पर लिखा है :
" इस प्रकार छद्मपूर्वक तप करने से उन्होंने स्त्रीवेद का और बीस स्थानों की आराधना करने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया ।"
यहां यह शंका उपस्थित की जाती है कि भगवान् मल्लिनाथ के जीव ने अपने तीसरे, महाबल के पूर्व भव में जो स्त्रीवेद का उपार्जन किया वह तीर्थकर नामगोत्र कर्म के उपार्जन से पूर्व किया अथवा पश्चात् ।
ज्ञाताधर्मकयांग सूत्र के एतद्विषयक मूल पाठ का सम्यगुरूपेरण अवलोकन करते ही स्वतः इस शंका का समाधान हो जाता है। मूल पाठ में स्पष्ट उल्लेख है कि राजा महाबल अपने छः बालसखात्रों के साथ श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर एकादशांगी का अध्ययन और विविध तपश्चररण से श्रात्मा को भावित
क्षपकश्रेणिमारुह्य, ध्यानद्वय सुसाधनः ।
घातिकर्मारिण निक्षू य, कंवल्यमुदपादयन् ।। १२७ ।।
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- सर्वकर्मक्षया वाप्यमावापन्मोक्षमक्षयम् ।। १२६ ।। [ उत्तर पुराण, पर्व ६१, पृ. १३७ ]
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