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बैनसम्प्रदायविया ॥ इस के मति सेनन से यह-चन्तार्प (दाँतों का जान बाना), नेत्रमन्भ (मॉलोपा मिषना), रोमहर्प (रोंगटों का सड़ा होना), कफ का नाच समा शरीरगिस्य (शरीर का ढीला होना) को करता है, एन फण्ठ छाती तथा हवम में वाह को करता है।
सारा रस-मरुशुद्धि को करता है, खराब प्रण (गुमड़े) को साफ करता है, सराफ को पचाता है, शरीर में विधिस्ता रता है, गर्मी करता तथा भाययों को कोमल (मुलायम) रखता है।
इसके मति सेवन से यह सुबळी, फोड, कोप तथा बेपरको करता है, पमी के रग को बिगाड़ता है, पुरुषार्थ का नाश करता है, माल आदि इन्द्रियों के व्यवहार को मम्द करता है, मुखपाक (मुँह का परवाना) को करता है, नेप्रम्यथा, रफपित्त, वासरफ सभा सही सकार भावि दुष्ठ रोगों को उस्पन करता है ॥
तीसा रस-भमि दीपन, पाचन तमा मन और मस का खोपक (शुद्ध करने वाग) है, शरीर की स्यून्ता (मोठापन ),मामल, कफ, कमि, विपमन्य (बहर से पैदा होनेगाते) रोग, कोद तमा सुबळी मावि रोगों को नष्ट करता है, सांपों को म फरता है, उस्साह को कम करता है तमा सन का दूप, वीर्य और मेव इन का नाटक है ।
इसके अति सेवन से यह-अम, मद, कण्ठचोप ( गते की सूसना), वाढतोष (पाठ का सूखना), भोष्ठसोप (मोठों का सूखना), शरीर में गर्मी, पम्मम, कम्प मौर पीडा आदि रोगों को उत्पम करता है तमाम पैर भौर पीठ में बादी को करके शुरु को उत्पन करता है।
फा रस-सुमती, साम, पिस, तूपा, मूर्णा तमा स्वर भादि रोगों को शान्त करता है, खन के वूपको ठीक रखता है वमा मग, मूत्र, मेव, भरपी मौर मपविधर (पीप) भादि को साता है।
इसके मति सेवन से यह-गर्वन की नसों का पाना, नारियों का सिंचना, श्रीर में म्पका का होना, प्रम का होना, भरीर का टना, कम्पन का होना समा मूस में रुचि फा कम होना भाषि विकारों को करता है।
कपैला रसवस को रोकता है, शरीर के गानों को रख करता है, प्रण तमा प्रमेह भावि का चोपन (शुदि) करता है, प्रम भावि में प्रवेश कर उस के होप को निन मता सभा क्षेत्र अर्थात् गारे पदार्थ पके हुए पीपका शोषण करता है।
इस के भति सेवन से यह-वय पीडा, मुसशोष ( मुसका सूसना), आध्मान (भफरा), नसों का बकाना, घरीर स्फुरण (शरीर त्र फरकना), कम्पन तमा सरीरका संकोप भादि विकारोको करता है ।।