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चतुर्थ अध्याय ॥
५७५ उतराफाल्गुनी नक्षत्र में उखाड कर उसे कमर में बाँधने से रक्तप्रदर अवश्य मिट जाता है ।
५- रसोत और चौलाई की जड को वारीक पीस कर चावलो के जल में इसे तथा शहद को मिला कर पीने से त्रिदोष जन्य प्रदर नष्ट हो जाता है।
६-अशोक वृक्ष की चार तोले छाल को बत्तीस पल जलमें औटावे, जब आठ पल शेप रहे तब उस में उतना ही ( आठ पल) दूध मिला कर उसे पुनः औटावे, जब केवल दूध शेष रह जावे तब उसे उतार कर शीतल करे, इस में से चार पल दूध प्रातःकाल पीना चाहिये, अथवा जठराग्नि का बलावल विचार न्यूनाधिक मात्रा का सेवन करे, इस से अति कठिन भी रक्तप्रदर शीघ्र ही दूर हो जाता है। ___७-~-कुश की जड को चावलो के धोवन में पीस कर तीन दिन तक पीने से प्रदर रोग शान्त हो जाता है।
८-दारुहलदी, रसोत, चिरायता, अडूसा, नागरमोया, वेलगिरी, लाल चन्दन और कमोदिनी के फूल, इन के काथ को शहद डाल कर पीना चाहिये, इस के पीने से सब प्रकार का प्रदर अर्थात् लाल सफेद और पीडा युक्त भी शान्त हो जाता है ।
राजयक्ष्मा रोग का वर्णन ॥ कारण-अधोवायु तथा मल और मूत्रादि वेगो के रोकने से, क्षीणता को उत्पन्न करने वाले मैथुन, लघन और ईर्ष्या आदि के अतिसेवन से, बलवान् के साथ युद्ध करने से तथा विषम भोजन से सन्निपातजन्य यह राजयक्ष्मा रोग उत्पन्न होता है ।
लक्षण-कन्ये और पसवाडो में पीडा, हाथ पैरो में जलन और सब अगों में ज्वर, ये तीन लक्षण इस रोग में अवश्य होते हैं, इस प्रकार के यक्ष्मा को त्रिरूप यक्ष्मा कहते है। __ अन्न में अरुचि, ज्वर, श्वास, खासी, रुधिर का निकलना और खरंभग, ये छः लक्षण जिस यक्ष्मा में होते है उस को पप राजयक्ष्मा कहते है।
वायु की अधिकता वाले यक्ष्मा में-खरभेद, शूल, कन्वे और पसवाडों का सूखना, ये लक्षण होते हैं।
पित्त की अधिकता वाले यक्ष्मा में-ज्वर, दाह, अतीसार और थूक के साथ में रुधिर का गिरना, ये लक्षण होते हैं।
कफ की अविकता वाले यक्ष्मा में-मस्तक का कफ से भरा रहना, भोजन पर अरुचि, खासी और कण्ठ का विगडना, ये लक्षण होते है । सन्निपातजन्य राजयक्ष्मा में-सव दोपों के मिश्रित लक्षण होते है। १-खरभङ्ग अर्थात् आवाज का टूट जाना, अर्थात् वैठ जाना ॥ २-मिश्रित अर्थात् मिले हुए ॥