________________
चतुर्थ अध्याय ॥
५८७
१६- महाचन्दनादि तैल-तिली का तेल चार सेर, काथ के लिये लाल चन्दन, शालपर्णी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी, गोखुरू, मुद्गपर्णी, विदारीकन्द, असगन्ध, मापपर्णी, ऑवले, सिरस की छाल, पद्माख, खस, सरलकाए, नागकेशर, प्रसारणी, मूर्वा, फूलप्रियगु, कमलगट्टा, नेत्रवाला, खिरेटी, कगही, कमल की नाल और मसीदे, ये सब
सन्निपात, निद्रा, विषम ज्वर, मन के विकार और कृमिरोग में जवपीडन नस्य देना चाहिये तथा अत्यन्त कुपित दोपवाले रोगों में ओर जिन म सक्षा नष्ट हो गई हो ऐसे रोगों में प्रधमननस देना चाहिये । विरेचननस्य -- सोट के चूर्ण को तथा गुट को मिलाकर अथवा संधे निमक और पीपल को पानी में पीसकर नस्य देने से नाक, मस्तक, कान, नेत्र, गर्दन, टोडी और गले के रोग तथा भुजा और पीठ के रोग नष्ट होते हे, महुए का सत, वच, पीपल, काली मिर्च और संधा निमक, इन को थोडे गर्म जल में पीसकर नस्य देने से मृगी, उन्माद, सन्निपात, अपतनक और वायु की मूछी, ये सब दूर होते हैं, संधानिमक, सफेद मिर्च ( सहजने के बीज ), सरसों और कृठ, इन को बकरे के मूत्र मे बारीक पीस कर नस्य देने से तन्द्रा दूर होती है, काली मिर्च, वच और कायफल के चूर्ण को रोहू मछली के पित्ते की भावना देकर नली से प्रधमननस्य देना चाहिये । वृणनस्य के भेद - बृहणनस्य के मर्श और प्रतिमर्श, ये दो भेद है, इन में से शाण से जो स्नेहन नस्य दी जाती है उसे मर्श कहते है, (तर्जनी अलि की आठ बूदों की मात्रा को शाण कहते है ) इस मर्श नस्य में आठ शाण की तर्पणी मात्रा प्रत्येक नथुने में देना उत्तम मात्रा है, चार शाण की मध्यम और एक शाण की मात्रा अधम है, प्रत्येक नथुने मै मात्रा की दो २ वृदो के डालने को अतिमर्श कहते है, दोपो का बलावल विचार कर एक दिन में दो वार, वा तीन वार, अथवा एक दिन के अन्तर से, अथवा दो दिन के अन्तर से मर्श नस्य देनी चाहिये, अथवा तीन, पाँच वा सात दिन तक निरन्तर इस नस्य का उपयोग करना चाहिये, परन्तु उस में यह सावधानता रखनी चाहिये कि रोगी को छीक आदि की व्याकुलता न होने पावे, मर्श नस्य देने से समय पर स्थान से भ्रष्ट हो कर दोप कुपित हो कर मस्तक के मर्म स्थान से विरेचित होने लगता है कि जिस से मस्तक में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है, अथवा दोपों के क्षीण होने से रोग उत्पन्न हो जाते है, यदि दोप के उल्लेश (स्थान से भ्रष्ट ) होने से रोग उत्पन्न हो तो वमनरूप शोधन का उपयोग करना चाहिये और यदि मेद आदि का क्षय होने से रोग उत्पन्न हो तो पूर्वोक्त स्नेह के द्वारा उन्हीं क्षीण दोपों को पुष्ट करे, मस्तक नाक और नेत्र के रोग, सूर्यावर्त्त, आधाशीशी, दॉत के रोग, निर्वलता, गर्दन भुजा और कन्धा के रोग, मुखशोप, कर्णनाद, वातपित्तसम्वधी रोग, विना समय के वालों का श्वेत होना तथा वाल और डाढी मूँछ का झर २ कर गिरना, इन सब रोगो मे स्नेहों से अथवा मधुर पदार्थों के रसो से स्नेहननस्य को देना चाहिये । वृहणनस्य की विधि-साड के साथ केशर को दूध में पीस कर पीछे घी में सेंक कर नस्य देने से वातरक्त की पीडा शान्त होती है, भौंह, कपाल, नेत्र, मस्तक और कान के रोग, सूर्यावर्त्त और आधाशीशी, इन रोगों का भी नाश होता है, यदि स्नेहननस्य देना हो तो अणुतैल ( इस की विधि सुश्रुत मे देखो ), नारायण तैल, मापादि तैल, अथवा योग्य औषधों से देना चाहिये, यदि कफयुक्त वादी का दर्द हो तो तेल की और यदि केवल वादी की नस्य देनी चाहिये, पित्त का दर्द हो तो सर्वदा घी की नस्य देनी चाहिये, उडद, कोच के बीज,
परिपक्क किये हुए घृत से
का ही दर्द हो तो मज्जा