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चतुर्थ अध्याय ॥
५८९ लिये-सफेद चन्दन, अगर, ककोल, नख, छारछवीला, नागकेशर, तेजपात, दालचीनी, कमलगट्टा, हलदी, दारुहल्दी, सारिवा, काली सारिया, लाल कमल, छड़, कूठ, त्रिफला, फालसे, मूर्वी, गठिवन, नलिका, देवदारु, सरलकाष्ठ, पद्माख, खस, धाय के फूल, वेलगिरी, रसोत, मोथा, सिलारस, सुगन्धवाला, वच, मजीठ, लोध, सौंफ, जीवन्ती, प्रियगु, कचूर, इलायची, केसर, खटासी, कमल की केशर, रास्ना, जावित्री, सोंठ और धनिया, ये सब प्रत्येक दो २ तोले लेवे, इस तैल का पाक करे, पाक हो जाने के पश्चात् इस में केशर, कस्तूरी और कपूर थोडे २ मिलाकर उत्तम पात्र में भर के इस तेल को रख छोडे, इस तेल का मर्दन करने से वातपित्तजन्य सब रोग दूर होते है, धातुओं की वृद्धि होती है, घोर राजयक्ष्मा, रक्तपित्त और उरःक्षत रोग का नाश होता है तथा सब प्रकार के क्षीण पुरुषो की क्षीणता को यह तेल शीघ्र ही दूर करता है।
१७-यदि रोगी के उर.क्षत (हृदय में घाव ) हो गया हो तो उसे खिरेटी, अस. गन्ध, अरनी, सतावर और पुनर्नवा, इन का चूर्ण कर दूध के साथ नित्य पिलाना चाहिये।
१८-अथवा-छोटी इलायची, पत्रज और दालचीनी, प्रत्येक छः २ मासे, पीपल दो तोले, मिश्री, मौलेठी, छुहारे और दाख, प्रत्येक चार २ तोले, इन सव का चूर्ण कर शहद के साथ दो २ तोले की गोलिया बनाकर नित्य एक गोली का सेवन करना चाहिये, इस से उरःक्षत, ज्वर, खासी, श्वास, हिचकी, वमन, भ्रम, मूर्छा, मद, प्यास, शोष, पसवाड़े का शूल, अरुचि, तिल्ली, आढयवात, रक्तपित्त और खरभेद, ये सब रोग दूर हो जाते हैं तथा यह एलादि गुटिका वृष्य और इन्द्रियों को तृप्त करने वाली है ॥
आमवात रोग का वर्णन ॥ कारण-परस्पर विरुद्ध आहार और विरुद्ध विहार ( जैसे भोजन करके शीघ्र ही दण्ड कसरत आदि का करना), मन्दामि का होना, निकम्मा बैठे रहना, तथा स्निग्ध (चिकने ) पदार्थों को खाकर दण्ड कसरत करना, इत्यादि कारणों से आम ( कच्चा रस) वायु से प्रेरित होकर कफ के आमाशय आदि स्थानों में जाकर तथा वहा कफ से अत्यन्त ही अपक्क होकर वह आम धमनी नाडियों में प्राप्त हो कर तथा वात पित्त और कफ से दूपित होकर रसवाहिका नाड़ियों के छिद्रो में सञ्चार करता है तथा उन के छिद्रों को बन्द कर भारी कर देता है तथा अग्नि को मन्द और हृदय को अत्यन्त निर्वल कर देता है, यह आमसज्ञक रोग अति दारुण तथा सब रोगों का स्थान माना जाता है।
लक्षण-भोजन किये हुए पदार्थ के अजीर्ण से जो रस उत्पन्न होता है वह क्रमरसे इकट्ठा होकर आम कहलाता है, यह आम रस शिर और सब अगों में पीड़ा को उत्पन्न करता है।
१-आमवात अर्थात् आम के सहित वायु ॥ २-रसवाहिका नाडियों के अर्थात् जिन में रस का प्रवाह होता है उन नाडियों के ॥