Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain

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Page 732
________________ मेनसम्पदामशिक्षा || भाचरण) के द्वारा नियत किये हुए तमा चिरकाल सेवित अपने मार्ग पर गमन करा हुआ वह कालान्तर में ज्ञानविशेष के बल से उस मार्ग का परित्याग न करे, परन्तु नाह बहुत दूर की बात है। यस इसी नियम के अनुसार सत्पुरुषों की सति पा कर भर्थात् सत्पुरुपों के सदाचार को देख वा सुन कर आप भी उसी माग पर मनुष्य जाने लगता है, इसी का नाम सुभरना है, इस के विरुद्ध वह कस्सित पुरुषों की सम्रति को पा कर अर्थात् कुत्सित पुरुषों के दुराचार को देख वा सुन कर भाप भी उसी माग में आने लगता है, इसी क नाम विगड़ना है । ७०० उफ सेल से सब साधारण भी अम अच्छे प्रकार से समझ गये होंगे कि सुसंगठि तथा कुसङ्गति से मनुष्य का सुधार वा विगाड़ क्यों होता है, इस लिये अब इस विषय में विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं है। के अब ऊपर के खेल से पाठकगण अच्छे प्रकार से समझ ही गये होंगे कि मनुष्य सुधार या विगाड़ का द्वार केवल दूसरों के सदाचार वा दुराचार के अवलम्बन पर निर्भर है, क्योंकि दूसरों के व्यवहारों को देख वा सुन कर मनुष्य के अन्त करण की चारों वृधियों क्रम से अपने भी सदस् ( दूसरों के समान ) कर्धम्म वा अकर्तव्य के विषम में अपना २ कार्य करने लगती है । हाँ इस विषय में इतनी विशेषता अवश्य है कि-बब दूसरे सत्पुरूषों के सदाचार अनुकरण करते हुए मनुष्य के अन्त करण में सतोगुण का पूरा उद्भास हो जाता है तथा उस के द्वारा उत्कृष्ट ( उत्तम ) ज्ञान की माठि हो जाती है तब उस की वृषि कुत्सित पुरुषों के व्यवहार की ओर नहीं झुकती है भर्थात् उस पर कुसम का ममान नहीं होता है ( क्योंकि सतोगुण के प्रकाश के भागे समोगुण का जन्मकार उच्छिमा हो जाता है) इसी प्रकार जब दूसरे कुत्सित पुरुषों के कुत्सिताचार का अनुकरण करते हुए मनुष्य के अन्त करण में तमोगुण का पूरा उद्मास हो जाता है तथा उस के द्वारा उस्कृष्ट भन्ज्ञान की माठि हो जाती है तब उस की वृद्धि सत्पुरुपों के व्यवहार की मोर नहीं झुकती है भर्षात् ससंग और सदुपदेश का उस पर प्रभाव नहीं होता है ( क्योंकि तमोगुण की अधिकता से सतोगुण उच्छिन्नमाम हो जाता है ) । इस फमन स सिद्ध हो गया कि प्रारम्भ से ही मनुष्य को दूसरे सत्पुरुषों के स रित्रों के देखने सुनने तथा अनुभम करने की आवश्यकता है कि जिस से वह भी उन के सपरित्रों का अनुकरण कर सतोगुण की वृद्धि द्वारा उत्कृष्ट ज्ञान को अपने जीवन के वास्तविक प्रक्ष्य को समझ कर निरन्तर उसी मार्ग पर चला मनुष्यजन्म के धर्म, अथ, काम और मोक्षरूपी चारों पों को प्राप्त होने प्राप्त हो कर जाने और ।

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