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जैनसम्मवामशिक्षा ||
अपने भीतरी नेत्र खोलने चाहिये, क्योंकि अब तक उक्त वाक्य को हृदय में स्थान न दिया जायगा तब तक उन्नति स्थान को पहुँचाने वाला एकतारूपी शुद्ध मार्ग हमारी समझ में स्वम में भी नहीं मिल सकता है, इस लिये कान्फ्रेंस के सभ्पों से तथा सम्पूर्ण भार्यावर्त्तनिवासी वैश्य बमों से हमारी सविनय प्रार्थना है कि "मेरी सब मूर्तीों से मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर नहीं है" इस भगवद्वाक्य को सधे भाव से वय में अवि करें कि जिस से पूर्ववत् पुन इस आर्यावर्त देश की उन्नति हो कर सर्वत्र पूर्म धानना मङ्गल होने मगे ॥
यह पश्चम अध्याय का चौरासी न्यासवर्णन नामक छठा प्रकरण समाप्त हुआ ||
सातवाँ प्रकरण — ऐतिहासिक व पदार्थविज्ञानवर्णन ॥
ऐतिहासिक तथा पदार्थविज्ञान की आवश्यकता ॥
सम्पूर्ण प्रमाणों और महज्जनों के अनुमन से यह बात मछी भाँति सिद्ध हो है कि मनुष्य के सदाचारी वा दुराचारी बनने में केवल ज्ञान मौर भज्ञान ही कारण होते हैं अर्थात् अन्तकरण के सतोगुण के उद्भासक ( प्रकाशित करने वाले ) तथा तमोगुण के माच्छादक ( डाँकने वाले ) मधेष्ठ साधनों से ज्ञान की प्राप्ति होने से मनुष्य सदाचारी होता है तथा मन्त करण के तमोगुण के उद्मासक और सतोगुण के माध्यम दुत यषेष्ठ साधनों से भज्ञान की प्राप्ति होने से मनुष्य दुराचारी (दुए व्यवहार बाम्म ) हो जाता है ।
माय सब दी इस बात को जानते होगे कि मनुष्य सुसंगति में पढ़ कर सुधर जाता है तथा कुसङ्गति में पड़ कर बिगड़ जाता है, परन्तु कभी किसी ने इस के हेतु का भी विचार किया है कि ऐसा क्यों होता है ? देखिये ! इस का हेतु विद्वानों ने इस निश्चित किया है
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अन्तकरण की - मन, बुद्धि, पित्त और अहंकार, ये भार वृठियों है, इन में से मन पा फार्य संक्रस्प और विकल्प करना है, बुद्धि का कार्य उस में हानि समम विखजाना है, विश्व का कार्य किसी एक कदम्य का निश्श्रम करा देना है वा सहकार का कार्य
मई (मैं) पद का प्रकट करना है।
यह भी स्मरण रहे कि अन्य करण सतोगुण, रजोगुण सभा तमोगुप्त रूप है, भर्गात् ये तीनों गुण उस में समानावस्था में विद्यमान है, परन्तु इन ( गुणों) में कारणसा ममी को पा कर न्यूनाधिक होने की स्वाभाविक शक्ति दे।