Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain

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Page 768
________________ ७३४ जैनसम्मवामक्षिक्षा ॥ २- यदि सूर्य का वार हो तभा सूप स्वर चलता हो तो चलते समय पहिले तीन पैर ( कदम ) दाहिने पैर से चखना चाहिये । ३ - जो मनुष्य तत्त्व को पहिचान कर अपने सब कामों को करेगा उस के सफ अवश्य सिद्ध होगे । ४–पश्चिम विद्या व तत्त्वरूप है, दक्षिण दिशा पृथिवी तत्त्वरूप है, उत्तर विषा ममि समरूप है, पूर्व दिशा वायु तत्त्व रूप है तथा भकाल की स्थिर विधा है। ५ – बम, तुष्टि, पुष्टि, रवि, स्पेस्रकूद और हास्य, ये छ ममस्थायें चन्द्र तर की है। ६ - ज्वर, निद्रा, परिश्रम और कम्पन, ये चार अवस्थायें जब चन्द्र स्वर में बायु तत्व तथा भमि तत्त्व ठसा हो उस समय शरीर में होती हैं। ७–बब चन्द्र खर में आकाश तस्य भसता है तब मायुका श्रम तथा मृत्यु होती है। ८-पाँचों पों के मिलने से चन्द्र खर की उक्त बारह अवस्थायें होती हैं। ९-मदि पूनिमी तत्त्व अस्सा हो तो जान लेना चाहिये कि पूछने वाले के मन में मूल की भिन्या है। १० - यदि मल सत्त्व और वायु वस्त्र चलते हो तो जान लेना चाहिये कि पूछने वाले के मन में बीसम्बन्धी चिन्ता है । ११- भमि तत्त्व में धातु की चिन्ता जाननी चाहिये । १२ - माका तत्व में शुभ कार्य की चिन्ता माननी चाहिये । १३ मिमी तत्व में बहुत पैर बालों की चिन्ता माननी चाहिये । १४ - मल और वायु तत्व में दो पैर वासों की चिन्ता जाननी चाहिये । १५ - मिस्व में चार पैर वालों (चौपायों) की चिन्ता माननी चाहिये। १६ - भाका तस्य में बिना पैर के पदार्थ की चिन्ता जाननी चाहिये | १७ - रवि, राहु, मङ्गल और शनि, भे चार सूर्य स्वर के पाँचों तत्वों के स्वामी है। १८- न्द्र स्वर में पृथिवी तत्त्व का स्वामी बुम, वछ तत्व का लाभी चन्द्र, अमि सत्त्व का स्वामी शुक्र और ig वस्त्र का स्वामी गुरु है, इस लिये अपने २ सत्त्वों ने ये मह भवमा बार शुभफलदायक होते हैं । चार १९-टमिमी आदि नारों वत्त्वों के क्रम से मीठा, कपैम्म, सारा और खड्डा, रस हैं, इस छिपे जिस समय बिस रस के खाने की इच्छा हो उस समय उसी तत्त्व नासमझ लेना चाहिये । २० - अभितप्त्व में कोष, वायु सस्य में इच्छा तथा मल और पृथिवी तत्त्व में क्षमा और नम्रता भादि यतिधर्मरूप वष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं ।

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