Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hairtel.timuantumkuarius ॐARATONYMS.y SEEG ( J SAMPU0919 - ' - - P4 - . - CRE - साप्राचार्य श्री सुनापों में के शिष्य श्री ज्ञानमन्द्रिजी म. के शिष्य प्रानुग्रीवलन्दनी मलको अोर से सादा अटे জলজী ছিজাঙ্খী এই অঁ না : लेखक उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम जी महाराज पंजाबी - - - - " ni HTTARPRETATIONS स प्रकाशक ला. शिवप्रसाद अमरनाथ जैन अम्बाला शहर SARIA ग्लोव प्रिन्टिग वक्र्स लिमिटेड में प० चन्द्रवल के प्रवन्ध मे छपवा कर प्रकाशित किया। lad वि० सं०, १६६६ , पहलीवार १००० कि CAFE - ॐ - EASYA AGPHEPISPR. si.. .anirelu. ANSKETPR .. undarashtJEANNE .S .. Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || नमः श्री वर्द्धमानाय ॥ प्रथम पाठ । ( ईश्वर स्तुति ) प्रिय वालको ईश्वर 'सिद्ध' परमात्मा 'खुदा' 'रव्व' 'गाड' ( GOD) इत्यादि यह जो नाम हैं सब उस परमेश्वर के ही नाम हैं जो कि ससार के तमाम प्राणियों के मानों को जानता है परमात्मा सर्वज्ञ और अनंत शक्तिमान होने से वह हमारे अन्दर के सब भावों के जानने वाला है हम जो भी पुण्य पाप करते हैं वे सब उसे ज्ञाव हो जाते हैं इसलिये यदि कोई भी बुरा या अच्छा काम हम कितना ही छुपा कर भी करें मगर वह उस से छुपा नहीं रहता वह सब कुछ जानता है इसलिये सदा उसका ही स्मरण करो और कोई भी बुरा काम न करो ताकि तुम्हारी आत्मायें पवित्र हों । हे बालको यह भी याद रक्खो कि परमात्मा न किसी को मारता और न ही जन्म देता है और न ही वह Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप र मय पा और किसी रूप में खुद इस संसार में माता पर वो इन पावों से मिरखेप न ही पसा इन से कोई सम्प रेवा मरमास्या गे सस रूप हमेशा सत पिच भामन्द है। __मो खोग पार किया सम्म खेता या भर वार मारण पर इस संसार में भाकर दुरों का माय करवापर सब स से मनावरपर का पया भाष श्पकता है कि पर इम झगड़ों में पड़े इस निये पर काना कि यदि काई मरमारे किरे पर तू ने पा रिया पाइसको मार दिया पामरा पाप भन्म मरण मादि भो भो मन दुख संसार में भीग मागत र पासम अपन २ माँ कापीम इस में रिसी का कोई चारा मारे इस सिय ईश्वर से एसे कामों में दोप दना सलग पाप का मागी पमना। सो पसा मत का कि दुस्स म पर ही दारे मुस स तो अपना पब रम्प की पा सपमरपालो मिस्प पति साकी पनन पर रहो बारिमे सपा मुख मित स माप रन से विनर रोमाव र शान्ति माहिती। भेठ प्रापार में पात्मा ग भावार Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस से उसको श्रात्म ज्ञान की प्राप्ति होजाती है सो इस लिये सिद्ध परमात्मा का ध्यान अवश्य करना चाहिये। द्वितीय पाठ [ गुरु भक्ति ] प्रियवर ! शान्तिपुर नगर के उपाश्रय में प्रातःकाल और सायंकाल में दोनों समय नगर निवासी प्रायः सब श्रावक लोग एकहे होकर संवर, और सामायिक बा स्वाध्याय श्रादि धर्म क्रियाएं करते हैं जिम मेरे उन लोगों को धर्म परिचय विशेप होरहा है स्वाध्याय के द्वारा हर. एक पदाथ का यथार्थ ज्ञान होजाता है यथार्थ ज्ञान के होने पर धर्म पर दृढ़ता विशेष बढ़ जाती है स्वाध्याय करने वाला आत्मा उपयोग पूर्वक हर एक पदार्थ के स्वरूप को भली प्रकार से जान लेता है जब यथार्थ ज्ञान होगया तब उस श्रात्मा ने हेय, ज्ञेप, और उपादेय, के स्वरूप को भी मान लिया मर्याद त्यागने चोग्य, जानने योग्य. और ग्रहण करने योग्य, पदार्थों को जब जान गया Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम मास्मा सम्बरिम में मी मासा सस्ता है। भवः साम्पाय मारय करना चाहिये। मान पात:काल का समय और पर अपने पास अपने २ भासन पर बैठे हुए नित्यकर्म पर रोई सामायिक कर सारसोई सम्पर पाठ को पारा, कोई बाध्याय दाग अपन मा पम्प भात्मानों के संग्रयों काप पर हो। इसने में पाय पूरपदमी अन पी ए. अपन किए हुए सामापिका का पूगणमानकर मायामिक की पाखाचमा करके शीघ्र ही भासन का बोध कर तप्पा मा पन लगे प पाय-हमपदमी न पूरा f-माप माम इतनी योग्रवा क्यों कर रहे सवार पूपमा न मति पघम में फराहि-माम क्या भोप मलूप नी कि भीए पाराम पपारने गर। पन्द्र ! मप गुरुपदाराम पपारन पास गे फिर पाप इवगे शीमा पर्पो र दो या परीरिपे। निस स गुरु माराम भी कपशन भी पाभाएं। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूरचन्द्र ! गुरु महाराज के दर्शनों के लिए ही शीघ्रता कर रहा हूं। - हेमचंन्द्र ! जब गुरु महाराज के दर्शनों की उत्कण्ठा है तो फिर शीघ्रता क्यों करते हो । कपूरचन्द्र ! गुरु महाराज की भक्ति के लिए । हेमचन्द्र ! गुरु महाराज की भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए। कपूरचन्द्र ! जब गुरु महाराज पधारें तव मागे उनको लेने जाना चाहिए । जव वह पधार जाए वर फया व्याख्यान भादि कृत्यों में पुरुषार्थ करना चाहिए । जव वह भाहार पानी के लिये कृपा करें तव उनको निर्दोष माहार देकर वा दिलवा कर लाभ लेना चापिये। जब तक वह विराजमान रहें तब तक सांसारिक कार्यों को छोड़ कर उन से हर एक प्रकार के प्रश्नों को पूछ कर संशयों से निवृत्त हो जाना चाहिये। क्योंकि जव गुरुमहाराज जी से प्रश्नों के उत्तर न पूछे जाएं तो भला और कौन सा पवित्र स्थान है जिस से सन्देह दूर होसके। हेमचन्द्र ! गुरु से क्या होता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूषन्द्र ! मिपार ! गुरु मक्ति से-पर्म प्रचार पासारे परस्पर संप की पृदि रोग पहुव सी भात्माएं गर भक्ति में खग भावी पिस से पर भक्ति की प्रथा बनी राती है और वो भी मा निर्भरा होमाती है भवएष ! गुरु भक्ति प्रश्पपेप करनी चाहिये । हेमचन्द्र । ससे ! नब गुरु इस पाप में पवार माएगे तप पूर्पोक बाग सकतीफिर वाहिर माने की पपा भापरयफवा।। पाद ! वपस्प ! नप एरु पपारे र उनका भाग सुने माना पा या विकार बरे तब उनका मक मनुसार पाव दूर पहुंचाने माना इस मार मक्ति परने से नगर में पर्म पषार पहावारे फिर पाव से साग एकमों को पपार हर भान पर पर्मा वाम वगत इस जिपे ! मा स्वामी श्री . पपारने का समप निकट रोराइम सब भापकों को पमपी पति लिए भागे माना पारिए दर पार ऐमपन्द्रमी ने सब भारत का पित कर दिया कि-स्पामी मी मागम पपारने वाले मना हम सर मामकों को पनी पति के लिए मागे माना पाहिये। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 0 ) हेमचन्द्र जी के ऐसे कहे जाने पर सब श्रावक इकले प्रोफर गुरु महाराज जी के लेने को आगे चले तब जो जो श्रावक मार्ग में मिलते जाते थे वह सब साथ होते जाते ये जव मुनि महाराज बहुत ही निकट पधार गये तब लोगों ने गुरु महाराज जी के दर्शनों से अपनी आँखों को पवित्र किया । तव बड़े समारोह के साथ गुरु महाराज बहुत से अपने शिष्यों के साथ जैन उपाश्रय में पधारगये । वहां पीठ (चौकी) पर विराजमान हाकर लोगों को एक बड़ी ही रमणीय जिनेन्द्र स्तुति सुनाई उसके पश्चात् अनित्य भावना के प्रतिपादन करने वाला एक मनोहर पद पढ़कर सुनाया गया जिसको सुन कर लोग संसार की अनित्यता देख कर धम ध्यान की ओर रुचि करने लगे तब मुनि महाराज जी ने मंगली सुनाकर लोगों को प्रत्याख्यान करने का उपदेश किया तब लोगों ने स्वामी जी के उपदेश को सुनकर बहुत से नियम प्रत्याख्यान किये ! 1 - फिर दूसरे दिन उपाश्रय में जव श्रावक लोग वा जैनेचर लोग इकट हुए तब मुनि महाराजजी ने धर्म Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विएप पर एपदा मनोहर म्यासपान दिया मिसको पुमरि लोग भरपन्त मसभ हए क्योंकिपा मापान पया भी पामी प्रमूव को पी पी सब सपाभय में लोगों और पिचार पारियदि इस प्रसारक म्यास्पाम पविक में रो मायें तब मैन पर्म को ममापना भी पी सकती है और साथ ही ना खाग पर्ग पर नहीं भवि नको पर्म का सोम मी हो सकता है। मैन पपरत मे इस सम्मतिको सीपर से नगर में पो दाग धित किया लिमिप भावगण । हमारे रामोदय से स्वामी श्री . महाराम पदापर पपारे हुए और मानदिन २ बजे से लेकर पार बसे र स्वामी पी का "मनुष्य औषम परेय क्या है। इस विपप पर पाम्पाम रामा- प्रवर भाप सर्ने सम्बन मन म्पासपान में पपार र पर्मा बाप पगापे और हम चागों का कार्य कीमिये । बा पोखरे पत्र मगर में रिवीणे पिगमेवर सेगहों नर मारियें विपक्ष समप परम्परूिपान में उपस्पिवगए। पस समय सापी भी में अपन ग्पाम्पान में मनुष्य नोपन रे मुरूप रो गरेप पक्षापे-एकबो "सदापरि। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ')' दूसरे " (रोपकार" इन दोनों शब्दों की पूर्ण रीति से व्याख्या की" तव लोग बड़े प्रसन्न होते हुए स्वामी जी को चतुर्मास की विज्ञप्ति करने लगे परन्तु स्वामीजी ने ईस विज्ञप्ति को स्वीकार नहीं किया तब लोगों ने कुछ व्याख्यानों के लिये अत्यन्त विज्ञप्ति की । स्वामीजी ने पांच व्याख्यान देने की विज्ञप्ति स्वीकार करली फिर उन्होंने धर्म विषय, अहिंसा विषय, स्त्री शिक्षा, विद्या विषय, कुरीति निवारण विषय, इन पांचों विषयों पर पृथक् २ दिन दो २ घंटे प्रमाण व्याख्यान दिये जिन को सुनकर लोग मुग्ध होगये बहुत से लोगों ने उन व्याख्यानों से अतीव लाभ उठाया । बहुत से लोगों ने स्वामी जी से अनेक प्रकार के प्रश्नों को पूछ कर अपने २ शंशयों को दूर किया । जव स्वामी जी के विहार करने का समय निकट आगया तब स्वामी जी ने विहार कर दिया उस समय सैंकड़ों लोग भक्ति के वश होते हुए खॉमोजी को पहुंचाने के वास्ते दूर तक गये। फिर स्वामीजी ने वहाँ पर भी उन लोगों को अपने मधुर वाक्यों से "प्रेम" विषय पर एक उत्तम उपदेश सुनाया और उसका फलादेश भी वणन किया. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.) मिसको मुमार बोग प्रत्सन्त गसम त येस्वामी बीको मंदना मस्कार कर अपमे २ स्पामों में वे भाए। मित्र परो ! एक मकि इसी 7 माय है जिसके परने से धर्म ममागमा और माँ की निर्भरा होगा। भनेक भास्पा पर्म से परिचित होना । सो पर भक्ति सदेव समी गरिये गरमों का पान मी अपने मन में सदैप रसमा पाहिये जैसेरिनिस दिम परदेणे मे जिस नगर से बिहार विपा हो रसी दिन से ध्यान सममा दिपार पर्या पार पायेगे। पदि किसी कारण पण से पानिपत समझे हुये समय पर न पपार सप किसी द्वारा मा समाचार खेना उसके अनुसार गुरु देव की फिर सेवा भक्ति करनी पर नियम मस्पेस मास्पोमा पारिपे। यपपि ! पर देव अपभी चिके विरुदासपी म नही रखावे ति परस्पों सदा मार पनके वर्गगें पमे राने पाहिये । पौर ,एमके मस मिम पापी मुमने मी माग सदैव होमे पारि। सो यही पर मकि । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) तृतीय पाठ (जैन सभा विषय बयान नगर के एक विशाल चौक में गदा ऊंचा एक भवन बना हुया है जो कि उस बाजार में पहिले वही दृष्टि गांचा होता है उस समय "शालि प्रशाद" श्रावक नगर में भ्रमण करता हुया वहां पर ही श्रा निकलो जव उस स्थान के पास गया तब उसने एक मोटे अक्षरों में लिखा हुआ साइनबोर्ड (Sign- 10rd)दग्दा जब उसने उसको पढ़ा सव उसको गलुप होगया - यह जैन सभा का स्थान है क्योंकि-"साइट पर लिखा हुआ था कि"श्री श्वेताम्बर (स्थानक वासी जैन सभा)" "उसी समय शान्ति प्रशाद ने विचार किया कि चलें ऊपर चल कर देखें कि इस नगर की जन सपा की क्या व्यवस्था है इस प्रकार विचार करके वह छपर चला गया तब वह क्या देखता है. कि जैन सपा के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) समासद पेठे हुपेरे और पारस खाग मैन बा प्रमेय मी भार समारदिणी मी प्रपन नियत स्याम पर पेठ पो। ममा पड़ी समसग्नित ऐसी है 'मेगा और हरमी' मी लगी हुई है और “पेज पर पाव मी पुस्तकें रक्सी । तप शान्ति प्रशद ने पूजा वि-इस समा के निपम क्या २१और समासद का पापिपारी लिने हैं। उस समय समापति न उतर मेरा पिपासमा साप्तारिना प्रस्पर रविवार के दिन कामे छगवीर और समापति "पसमा पवि "मम्मी “पमम्मो "काशाप्पा प्रमागार मदावा स्पादि सभी पापिपारी और दो सौ. मनपान समासदर सपा की भोर से एक "भैर पाग्शाया मी सखीभौर पर "पदेशकास मी मिसमें भमर पारा तय्यार कर पारिर धर्म प्रचार के सिपे मेने नाव गोरे पर्म प्रचार के प्राये ये पत्र मस्यैरविवार को सर्व सम्यगे से ममाय मावे १ भीर समा का माप (बाम) भौर म्पम (म) मी धनापा मावा सपा में भने विषयों पर पाम्पान हिच भावे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं इतनी बातें होते ही सभा का काम भारम्भ किया ___ गया सभा की भजन मण्डली ने बड़े मुन्दर भजन गाने भारम्भ कर दिये जिनको सुनकर प्रत्येक जन हर्पित होता था। भजनों के पश्चात् सभापति अपने नियत किये हुये भासन पर बैठ गये। तब मंत्री जी ने वाहिर से भाये हुये पत्रों को पढ़कर सुनाया जिनमें दो पत्र अवीव उपणेगी थे वह इस प्रकार सुनाये गये। श्रीमान् मन्त्री जी जय जिनेन्द्र देव ! विनय पूर्वक सेवा में निवेदन है कि आप नी सभा के उपदेशक पण्डित ...................... साहिब कल दिन यहां पर पधारे उन का एक पाम (प्रकट) व्याख्यान करवाया गया अन्यमतावलम्बियों के साथ ईश्वर कर्तृत्व विषय पर एक बडा भारी संवाद हुआ नियम विपय पूर्वक प्रवन्ध किया हुआ था उन की ओर से दो सन्यासी पूर्व पक्ष में खड़े हुए थे हमारे पण्डित जी उत्तर पक्ष में खड़े हुए ये सात दिन तक नियम बद्ध शास्त्रार्थ होता रहा अंत में उन सन्यासियों ने इस पूर्व पक्ष को उपस्थित किया कि फल प्रदाता ईश्वर . . . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) - अवश्य है " क्योंकि उसको फल देने की स्वी स्फुरणा उत्पन होजाती है " इसके उत्तर में हमारे पेडिय भी ने कहा कि जब इश्वर को आप सर्वव्यापक मानते है तब आप यह भी बताइस कि स्फुरण बस ईश्वर क एक अंश में होती है या सर्व अंशों में " यदि एक अंश में स्फुरणा होती है तब स्वतः न ही " पदि सर्व शो में राइमाती है तब फक् तो एक जीव का देना या परन्तु मिल गया सब लोगों का यह अध्या पथवा ईश्वरीय म्याय हुआ" और फर्मों का फल ( डर ) या इसलिए देना होता है कि और लोग दुष्ट कर्म करन छोड़ दें परम्तु जब हम एक बश्या की पुत्री का देखते है ना कि एक बड़े सुन्दर रूप धारण किए होती है तब इस इस बाव का विचार करन जगते हैं कि यदि इसको परमात्मा नही - अम्म दिया है व या परमात्मा ने अपन भार होम्यमि चार का कक्षाना चाहा क्योंकि यदि वह ऐसा रूप म दवा वा फिर खाम क्यों व्यभिचार करते पदि बस ने अपने किए हुए कर्मो कारण से ऐसा रूप स्वपमेन माप्त किया है तो फिर परमात्मा का फल माता मामन को क्या भवश्यकता है सा व सन्यासी इस एच Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) पक्ष के खंडन करने में असमर्थ हो गए। सभापति ने नय की ध्वजा हमारे हाथ में दी-अनेक लोगों ने ईश्वर कर न भ्रम को छोड़ दिया। अव यहां पर जैन सभा की स्थापना हो गई है । प्रति रविवार समा लगती है जिस से धर्म प्रचार खूब ही हो रहा है। भवदीय____ "मन्त्री-जिनेश्वरदास-सिंहल द्वीप श्रीयुत मन्त्री जी जय जिनेन्द्र ! __ प्रार्थना है कि-माप की सभा के उपदेशक पण्डित श्रीयुत.................."। यहां पर पधारे उन्हों का एक सार्वजनिक व्याख्यान "जैन संस्कार विधि" पर कराया गया सभा में लोगों की सख्या अतीव थी लोगों ने जैन संस्कार विधि को सुन कर अति हर्ष प्रकट किया । और आनंद का विषय यह हुआ कि लाला "प्रमोदचंद्र" जी ने अपने मुपुत्र “शान्ति कुमार का जैन संस्कार विधि के अनुसार विवाह किया है और १००० सहस Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५११) सपे माप के सपदेश फरको दाम किये है मामेभे भादे है पपा पहुंच से कार्य करें। - मरदीप मत्री-पणि दीपभप मन्त्री जी ने इन दोनों पत्रों को समा दिपा र दोगों में प्रति वर्ष मात किया तब समापति मे धर्म प्रचार विषय पर पर मनाहर म्पास्पान दिपा भिप्त को सुन कर लोग प्रति मसम हुप । दस सभा की भजन मंग्सी मे एक मनगार मिन स्तुति गार समा का साप्ताहिक महोत्सव समाप्त किया इस मास्सप काम कर शान्ति मशार भी बड़े मसम्न हुए मौर पर मन में निपप रिपा -म मी प्रपन नगर में इसी प्रकार मनुर्ण रहसे पर्म प्रपार करेंगे। चतुथे पाठ ( भवन जैन कन्या पाठ शाला) मानन्द पुर नगर के एक परे पवित्र मौना में मैन न्पा पाठ शाखा का स्थान है यहाँ चौकिक या पार्षिक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती हैं साथ ही शिल्पकला भी योग्यता पूर्वक सिखलाई जाती है इस पाठशाला में मुयोग्य अध्यापकाऐं काम करती है कणों की संख्या १०० सौ की प्रति दिन हो जाती हैं। __ नगर में इस पाठ शाला की शिक्षा विषय चर्चा फैली हुई है कि-जैसी इस पाठ शाला की पढ़ाई वा प्रवन्ध है ऐसा और किसी पाठ शाला का प्रवन्ध नहीं प्रायः हर एक कन्या वार्षिक महोत्सव में पारितोषिक लेती है और विदुषी बन कर यहां से निकलती है। श्राज पाठशाला के वार्षिक महोत्सव का दिन है प्रत्येक कन्या अपने पवित्र वेप को धारण करके आ रही है चारों ओर झंडियें लगी हुई हैं पाठ शाला में "दयां सूचक" वैराग्य प्रदर्शक 'मनोरंजका अनेक मनोहर चित्र लटक रहे है पाठ शाला के कर्मचारी-समा पति मादि भी बैठे हुए हैं तब उसी समय "जिनेन्द्रकुमार और "देवकुमार दोनों मित्र भी वहां पहुंच गए आपने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीयत, मुम्बी भी की मार पाठ, साना में मग किया सामाप, मे, पस पान को देसा का मावि गए मोर जज पामोडी, पोसवा देग पर परकी मसम्म इमे सेकड़ों पम्पापं निनस्वदि ,मनोहर सर से गा रही पत सी कन्याएं पर्म शास्त्र की पाई। पारितोपिक खेसी है भी मामान मापीर स्वामी की भय मोख ही है। माठ समाप्त होने के पीछे एक "रस्वती नाम पानी पम्मा ने मिनेन्द्र स्तुति पही। परन्त मसी स्तदि म मनप्प मापन के पोश पर फोह (पिष) सीप दिया मिस स पसन का पारितोपिक मी प्राप्त मिपास पमात् एक कन्या पप्रापती मे सहार स्त्री समाज दीभार पश्य र निम्न पकार 'से' भपमे सस से जगार निकाशे, मैमे कि प्पारापमाप मोपामसी मासि मातम ही है-माम एफ मरा शुग दाभो पति पर्व में या तीन पा पार माया इसतमारी पार्पि, परीचा की नली समान को पवेपन में माया Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होरही है वह अवश्य शोचनीय है कारण कि हमारी स्त्री समाज अशिक्षित प्रायः बहुत है इसी कारण से वा अवनति दशा को प्राप्त हो रही है जो पूर्व समय में जिस स्त्री को रत्न कहा जाताथा आज वह स्त्रीस्त्रीसमाज में भार रूप हो रही है उसका मूल कारण यह है किमेरी बहनें ! अपने कर्तव्यों को भूल गई है केवल 'शेप 'पति से लड़ाई 'अति दृष्णा सासू से विरोध' तथा जो पडोसी हैं उनमे अनमेल सदा रखनी है -सारा दिन घर के काम काज को छोड़ कर व्यर्थ निंदा, चुगली, हर एक बात में छल व झूठ इत्यादि व्यर्थ वातों में दिन व्यतीत करती हैं। जो शास्त्रीय शिक्षाओं से जीवन पचित्र बनाना था सन को छोड़ ही दिया है भला पति से कलह तो रहता ही या साय हो जो सतान उत्पन्न हुई है उस के साय भी पाव अच्छा देखने में कम साता है जैसे-पुत्रों को प्रोग्य, गालिये देना, कन्याओं को मन वचन बोलने, गर्भ रक्षा की यह दशा देखने में आती है शिचुल्ले की मिट्टी, कोपले, स्वाहा, कारक, पवित्र पदार्थों Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के स्थान पर पा साने में मावे , सारा दिन मैंस की पर खेटे राना पदि शिक्षा दी पाये वा खाईरन में पीवी माहै। कमी पा समय मा बिनपारी पाने पदिसाय देवी वी । सास ससरे का देश की नई प्रमवी भी। पर भी बयी खावी पी, पुस दुरस में सहायक बनण' पी, जनही रुपा से पर एक स्पर्ग की उपमा को पारण पिए रवा था । परि पविलिसी कारण से पगार में मी मा माता या तापा घर में माफर सीप मानन्द मानता पा। माब पदि पर्व पर में शान्ति पारण लिए हुए मी भावारे शो पर में भावे ही माट की भाग + पमान वस हो पाता है। तारण रि-पारी पा! भाम स सान पान की भूमी है । बस्मों की भूलो है। मामुपों की भूलो रे । एमन्द ने । भूती है। मान से भूखी है। इतना ही नही किम्त लड़ाई की भूसी पो पर हो है। बिस से पर पाय पा साम्य पान सपम मामाद पाप कारण हमारा मानक पति की। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) , ___ जब लौकिक कार्यों में ऐसी दशा है सो भखा धर्म विषय तो कहना ही क्या है। जैसे कि-घर के काम काज, हमें विना देखे न करने चाहिएँ । खान पान के पदार्थ भी विना देखे ग्रहण न करने चाहिएं । जैसे कि-शरी बहुत सी बातें ! दाल, शाक, वा चुन्म, शादि के पकाते समय, कोड़ी, मुसी, आदि जीवों को न देखती हुई उन्हें भी शाक धादि पदार्थों के सायही प्राणों से विमुक्त करदेती हैं। जिससे खाना टीक नहीं हता पौर कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। घर मेरी प्यारी वानो ! हमें हर एक कार्य में प्रावधान रहना चाहिये । हमारा पतिव्रत धर्म सकिष्ट है जैसे हम एक प्राणी को अपने जोन की इच्छा रहती है। उसी प्रकार हम को अपना जीवन भी पवित्र बनाना चाहिये । जिससे जिहम औरों के लिये श्रादर्श रूप वन जायें। पवित्र जीवन धर्म से ही 'चन सकता है सा हम को धर्म कार्यों में मालस्य न करना चाहिये। वलकि-सम्बर, सामायिक, पतिक्रमण पौषध, दया, भादि शुम क्रियाएँ करनी चाहिये मुनि महाराजों के वा साध्वियों के. नित्यप्रति दर्शन करने वाहिये और उन के व्याख्यान नियम Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२२) ) पूर्व पुनम पारिप-मी पिभ्यास र कम रे जैसे-शीयता पूजन, देवो पूमन, मरिया मम, पार पर्म, इत्यादि धर्मो म विच इवाना चाहिये । पुध मा, निशा धादि शुभ +ों में जो पार्मिक सस्यामों का दान दिय भावे है साथ ही जो रण, पा रमोरी , मुस पस्त्रिका, मासन, मान, इत्यादि पार्मिक उपकरणों का मन भी परमा चादि मिम से पार्मिक काप मुल कि हो सफें । फिरपापिहाधिा समप सापाय पा- में गाना चाहिये । मुझे शोग पहना पटवा है -मरी यस मी दम ! नपकार मा पा पाठ भी नहीं मानती है। और साधु भार्या में २ दर्शन - पी नहीं फती सरिया में और हम कामोदर अपनी पारी पानी में घविप परी मायना र पैरती -पाप अपना परिप्रमीपन शास्त्रीप शिक्षामों में मकर रें। मिस मेस भोगे के लिये पादर्श पन नायें बोरि-भी भगवान ने म को पmt सीवान पावा म्प पतलापा १ मेसे कि-साप. सापी, मावा, मोर मापिका, सो म को ही बनना पाहिपे। .. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) जपचापती देवी का भाषण हो चुका व श्रीमती विद्यावती देवी ने इस भाषण का अनुमोदन किया हनु मोदन क्या था वह एक प्रकार की पवित्र पुष्पों का हार गुंथा हुधा था । उस के पश्चात् "शान्ति देवी" उठ कर इस प्रकार करने लगी। कि-मेरी प्यारी बहनों वा माताश्रो !'मैं आप का अधिक समय न लूंगी मैं अपनी वक्तृता को शीघ्र पूण करूंगी-योंकि-श्रीमती "पद्मावती देवी ने जो कुछ स्त्री समाज का दिग्दर्शन फैशाया है वट' बड़े ही उत्तम शब्दों में और संक्षेप में वर्णन किया है जिस का सारांश ना ही है कि-हमें गृहस्था वास में रहते हुए प्रेम से जीवन निर्वाह करना चाहिये जैसे एक राजा ने अपनी मुशीला कुमारी से. पूछा। कि-हे पुत्री ! मैं तुम्हारा विवाह संस्कार करना चाहता हूं किन्तु मुझे तीन प्रकार के वर मिलते हैं जैसे फि-रूपवान् ! विद्वान् ! और धनवान् ! इन तीनों में में जिस पर तेरा विचार हो सो तू कह तव कन्या ने इस के उत्तर में कहा कि हे पिता जी मुझे तीनों की इच्छा नहीं है । तब पिता ने फिर कहा कि है पुत्री ! तेरी इच्छा किसपर है। उसने फिर प्रतिवन में Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((२), पिता को ! मा परे से "प्रेम करे मुझे दो पसी की इपा सो इस हामी का सोरांय इवनाही किएएफका मेम से गेकपन सम्वाद-4 से ही या संस्था मार्य कर रही है इस का हिसाबकिताव इस मार से इसवह सस्थाका पूर्ण मुशाम्ब का पुरूने पर शान्ति देवी ने गा मी का फि-रमै भो स्त्रियाब्सिो मघा, का दान पुष पत्तम होने पर पा पिार प्रपा मक्ष मादि सरकारों पा समरसरो प्रादि पर देवी नाम जनसे समापिसारने की “पापिपा भानु पूर्णिमा जप्रासन रनाहरनिया, "सवक्षिका पाखामादि मंगपार स्त्रयों में ही पोट सारपोर मा मैन विका, पार्ने मा डि-दरवरा से मकर मनोसापतापम दे देवीरें इस मकार पर सस्था काम पर सीसा मिप्त बान को चाहिये यह पर्व पुस मौर सामापिकरने का सामान जे सपती रमौर मे मैन रिया स्त्रो मापवा के पेप हो सका पावडर सो समापवा पहुंचा प्रस्ती इस मार ग्रान्ति देवी स पने पर फिर समापति म पया पोग्य सर पायों को पारिवानिदेशबार्पिक मदरसर समाप्त Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५. ), किया जय ध्वनि के साथ पहात्मष मनाया गया हस दृश्य को देखकर जिनेन्द्र कुमार वा" देव कुमार बड़ेही प्रसन्न हुए और उन्हों ने निश्चय किया कि हम भी अपने नगर में इसी पकार जैन मन्या पाठशाला स्थापन करके धर्मोन्नति करें क्योंकि धर्मोन्नति करने का यह वडा ही उत्तम मार्ग है इस के द्वारा धर्म प्रचार भली भांसि से हो __ सकता है। पांचवा पाठ (जैन सूत्रानुसार मुहूर्तादि के नाम ) प्रियवरो ! समय विभाग करने के लिये गणित विद्या की आवश्यकता पड़ती है सो गणित विद्या का नाम ही ज्योतिषः शास्त्र है यधपि गणित एक साधारण शब्द है किन्तु जब खगोल विद्या की ओर ध्यान दिया जाता है तव चांद सूय ग्रहयादि-की गमन क्रिया की गणित द्वारा काल सख्या मानी जाती है फिर उन ग्रहों की राशिए भादि के देखने से गणित के द्वारा शुभाशुभ फल का ज्ञान भी हो जाता है परन्तु यह बड़ा गहन विषय है किन्तु यहां पर तो केवल मुहूत्रे आदि केही सूत्रानुसार निाम Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) दिए जाते है जिससे जग मासादि के नाम विद्यार्थियों के पास्य हो भाएं। दिन शेव के तीस महूर्च होते हैं (दो घटी के कालका नाम है) उनके निर्मिम खिसिया धार नाम बताए गए है। जैसे कि रौद्र १ श्रेयॉन २ मिश्र ३ बायु ४ सुपी ५ मचिन्द्र ६ माहेन्द्र बज्राम् ८ बहुस्प १० ईशान ११ वटा १२ पांनिवामा १३ पेभरण १४ बारा १५ ध्यानन्द १६ नि १७ विश्वमन १८ माथापस्य १६ प २० गर्ष २१ व्यग्निमेश्य २३ शवपन २२ मा २४ प्रम २५ समास २६ भौम २७ ग्रूपम २८ समायरा रास ३० इस प्रकार तीस चों के नाम बताए गए एक पक्ष के पंचदा दिन हो है सो पद दिवसों के नाम यह है जैसे कि पूर्णाङ्ग १ सिद्धमनोरम २ममोहर ३ पो भद्र ४ यशोपर ५ सर्वकाम समृद्ध ६ सूर्याभिपिक ७ सौमनस ८ पनम्मय पर्वसिद्ध १० अभिभाव ११ अस्पाम १२ शवजय १३ भग्नीपेरमा १४ उपथम १५ जब दिवसों नाव पंच देशे रात्रियों के नाम मीराने चाहिए या कोपवल करके बने रात्रियों के नाम इसे कार से पता है Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " रखें )) जैसे कि - पंत्तमा १ सुत्र २ एलापत्या ३ यशोधरा ४ सौमनसी ५' श्री सम्भूता ६ विजया' ७ वैजयन्ती ८ जयन्ति अपराजिता १० इच्छा ११ समाही १२ तेजा १३ वि तेजा १४ देवानन्द्रा १५ इस प्रकार वर्णन करते हुए साथ में यह भी वर्णन कर दिया है कि दिन और रात्रियों की तिथीयें भी होती है वह इस प्रकार से हैं जैसे कि दिवसों को तिथियें यह हैं ! नन्दा १ भद्रा २ जया ६ तुच्छा ४ पूर्ण ५ इन को तीन वार गिनने से यही पंच दश दिवस विथिय होती हैं । 10% पच दश रात्रि विधियें यह है जैसे कि अग्रवती १ भोगवती २ यशोमंत्री ३ सर्वसिद्धा ४ शुभनामा ५ इन को तीन वार गिनने से यही पच दशं रात्रि तिथियें कही जाती है। और एक वर्ष के बारह मास होते हैं उनके नाम दो प्रकार से कथन किए गए हैं जैसे कि -लौकिकऔर लोकोत्तर - जो लोक में सुप्रसिद्ध हो उन्हें लौकिक नाम कहते हैं जो केवल शस्त्रों में ही प्रसिद्ध हैं। उन्हीं का नाम “लाकोत्तर, नाम है । सेा लौकिक नाम वारह Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) पासोंपा से कि-आपन १ भाद्रप २ मास्थित ३ कि । मृगयी । पोप ६ पाप फाय एण ८ चैत्र पेशाल, १० पैठ ११ मापार १२ पपिद छोकोचर नाम पा से रिभामिनन्द १ एमविष्ट २ विमय ३ मीविवर्मन १ मेपान ५ शिष ६ शिशिर ७ मनाम् ८ परम्त मास इसम सपप १. निदाप ११ पन पिरोपी (पन पिरोप) १२ पर पाग पास खाकोचर परमावे रे भपित सूर्य प्रालि इन दस मामा के सरनोसमें मास्व मामृत की टीम में लिखा है कि-"मपमा भापणरूपामासा अमिनदा इस्पादि इम म स वा सिर होता है Eि-मिस ने खाक पत्र में भाषण मास का सो को मैम मय में "ममिम माम में हिस्सा है इसी क्रम से हर एक माप्त के पिप में मानना चाहिये । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) 'जो कि नीचे दिये हुये कोष्ठक से जान लीजिये . लौकिक मास | जैन मास' १ श्रावण १ अभिनन्द २ भाद्रवपद २ सुप्रविष्ट ३ आश्विन ३ विजय ४ कार्तिक - ४. प्रीतिवर्द्धन ५ मृगशीर्ष ५ श्रेयान् ६ पौष ६ शिव ७ माघ ७ शिशिर ८ फाल्गुण ८ मवान् ९ चैत्र ६ वसन्त मास १० कुसुम समव ११ निदाघ १२ भाषाढ़ १२ वनविरोधी वा वन विरोध और जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में-"भिनन्दा के स्थान में भिनन्दिता कहा गया है "चमविराधी के स्थान १० वैशाख Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर मननिरोगहनविरोफारमसमर सखिसा गमा है परन्तु “ममिनन्दिका भाषण मात काही जोकोचर माप वर्णन किया हमारे जैसे कि-"पमा भाषणो अभिनन्दिता दितीया प्रतिष्ठिवः स्यादि भाषण मास को ही अमिनन्द वा ममि मिव करते हैं इसी प्रकार मार पोपा बापा पारा मासों के नाम इसी प्रकार घाममे चाहिये । सौकिक मास नषों के मापार पर मेर है मैमेधि-भाषण नपारण से "भरमा भाषपद " "माद्रमा स्पादि निम्तु बोचरमास अतो भाभार पर फोइए? मैमे मास्ट पो मास इसी प्रकार प्रम्प चतुओं के दो दे। भास गिम पर पारा मास हो पाये। पपपि माम व सम्पस्सर का प्रारम्भ चैत्र मास से रिपो जाता है परन्तु माचीन समय में समस्सा प्र भारम्म भाषण मास से सेवा पा इस पा कारण पा पा कि-माचीन समय सापम मद के अनुसार कार्य होवा वा मैस कि- मप ए दधिणापस रास येवरही सम्बस्सर का भारम्प सजावा मा और "रवि सोपा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . ३१ ) - मंगल" बुध" बृहस्पति" शुक्र" शनैश्चर" इन वारों का प्राचीन ज्योति शास्त्रों में नाम नहीं पाया जाता परन्तु .जो. अर्वाचीन काल के ग्रन्थ बने हुये हैं उन्हों में इन बारों का उल्लेख अवश्य किया हुआ है इस का कारण 2 विद्वान्, जो यह बताते है कि जब से हिन्दुस्तान में " -यवन लोगों का आगमन हुआ है तथा से इन चारों का इस देश में प्रचार हुआ है। १ , ་་ 1 Why ( पहिले से लोग दिनों वा तिथियों से ही काम लिया करते थे! और जे चांद वा सूय को ग्रहण लगता है ऐसका कारण यह है जैन शास्त्रों में दो प्रकार के सहू वर्णन किए गए हैं जैसे कि - नित्यं राहु" और पर्व राहु नित्यराहु तो चांद के साथ सदैव काल रहता है जो कृष्ण पक्ष में चंद की कला को आवरण करता जाता हे शुक्ल पक्ष में क्लाओं को छोड़ देता है उसी के कारण से कृष्ण पक्ष वा शुक्ल पक्ष कड़े जाते हैं । पर्व गहू चांद वा सूर्य दोनों को ही लग जाते हैं राहु का दिमान कृष्ण रंग का है इस विष उस की छाया उन्हों पर जो पड़ती हैं लोग कहते हैं चदि वा सूर्य को ग्रहण लग गया है किंतु 1 J 1 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((६२') , लोग माषा में प्राण "का बागरे पाम्नलिई में राह के विमान की प्रविषाणही होती है और मी मा मो जोन पर वो कि! बाद भणी रे इस लिए मास का पकरता है पृषी की बापा चांद पा र्प पर पड़ती है इस लिए पाद मा सूर्पको जोग पर में प्राण लग गपा ऐसा मामा सो पा पन मैम समा सार प्रमाणिक ही सर्षों में हो रकी पमका स्वीकार किपा मा पिपापियों को पोग्य बि-योपैन मासादिको मरण करकेमोमपने पतोष में बात रण कि-अब इप्रेम पा पवन जोगों २ मासों के नाम काम में बाए बात है तो महा अपमे भी मिनेन्द्र देव क मति पावम दिए इए मैम पासों के नाम क्यों न म्पबहार में सामे पाहिए ! भपितु भपरप में पही बामे पाहिए। पौर परि सम्पूर्ण मोविप ना पा सरप मानमा होमे गन्द्रमाप्ति समय प्राप्ति महीपमाप्तिा, मविवार म्पारपामाप्ति स्पादि शामों का नियमपूर्ण स्वाप्पाय करना माहिए । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. (३३) छटा पाठ साधु वृत्ति . सज्जनों तुम भली प्रकार जैन धर्म शिक्षावली के चौथे भाग में गृहम्द सम्बन्धी गृहस्थों का धर्म क्या है पठन कर चुके हो मगर अब तुम्हें हम यहाँ पर चंद वातें मुनियों के धर्म के बारे में बतलायेंगे यद्यपि मुनियों की भी कुछ वृत्ति उसी भाग में दरशा चुके हैं, वोभी मोटी २ आवश्यक वातें मुनियों सम्बन्धी जानने योग्य फिर यहां पर लिखते हैं। ___यह बात तो ससा में नि-विवाद प्राय: सिद्ध ही है __कि जैन मुनियों जैसी अपिन्स और सच्ची साधु वृत्ति अन्य साधुषों में नहीं है जैन साधु जब से जैन मुनि का वेष धारण करते हैं तब से ही हर प्रकार के कष्टों को सहन करते हुये केवल धम क्रिया और संसार के उपकार के लिये ही अपने जीवन को व्यतीत करते हैं लोग अक. सर उन्हें मत द्वेष के कारण से तरह तरह के निरमूल दोष देते और उन्हें अप शब्द भी कहते हैं परन्त यह शांत: Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( )) रखे हुपे सरें मी धर्म का ही पपदेश देते हुये अपने । महाप्रब रूप पर्म न पासन करते है मोशमारे लिये मैन सूत्रों में बनाये गये हैं क्योंकि र ९ मोर शान्ति सोम में लगा हुमा 'भपनी समापि को इहा रस्सा रेजिना पूर्ण पान न न कारण से पेड़ पृपा २ मार्ग की मम्मपणा करते हैं। मैस किसी मे शान्ति पा "समापि पन की प्राप्ति होन मे ही समझो हमी दिप पा मदेव पन इकडे करने में होगा हमारे किसी ने समापि विपय रिकार में पानी इस चिप "राम मागों में मासक्त हो रा किसी ने समाधि प्रपन परिवार का दि में मानसीभवः पाइमा धुन में लगा हुमा है "किसान समापि सांसारिक जामों मामन में मामी । सो पारमी कलाप्पाम लगा समारे तपा cिसी म 'गप जूमा मांस मदिरा शिन परपासगा पर भी सपना पारादि पोमा पुस पार शिपा रेम सिप पर प्रोत कमो नमवार से घोगों न ममार्प Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) क्रियाओं के करने में ही वास्तविक में शान्ति समझी है इसी लिये वेह अनार्य कर्मों में ही लगी रहते हैं। वास्तव में उन लोगों ने पूर्ण प्रकार से शान्ति के पा को जाना नहीं इस लिये वेइ शान्ति की खोज में भटकते फिरते हैं क्योंकि-साशावान् को समाथि कभी भी नहीं प्राप्त हो सक्ती रे जब समाधि की प्राप्ति होगी "निराश को होगी। क्योंकि-संसार में आशा का ही । दुःख है जब किसी पदार्थ की आशा ही नहीं तो भला दुःल कहां से उत्पन्न हो सकता है। निराश प्रात्मा ही शान्ति को सानन्द का अनुभव कर सकते हैं, अपितु संसार पक्ष से निराश होना चाहिए धम पक्ष से नहीं किन्तु धर्म पक्ष में वह सदैव कटिवद्ध रहता है सर्व संसार के बन्धनों से छूटा हुमा भिक्षु जिस श्रानन्द का अनुभष कर सकता है उस अानन्द के शतांशवें भांग का चक्रवर्ती राजा भी अनुभव नहीं कर सकता। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयोंदिया मिठ योग मुद्रा दाग अपनी पास्मा का भनुमा या दर्शन करता भास्मा के दर्शन करने के लिए पस ममि को पाम समिति तीन एप्निये भी सापन रूप धारण करमी परती।। पाप महानव निम्न मास ॥ अहिंसा महावत पाणी मान मे मोस ( मैत्री ) रन के लिए मौर सरनी की चाके वास्ते भी मगराम् न पाणातिपाव पिरमण, मानव मवि पादन किया औरसफा पाप या किसाधु न बचन मोर कापस हिसा परे नहीं मांगे से रिसा फाये नही पिकान पासोकी भनुपोदना मी न कर या परिसा F1 सोस्कृष्ट मात्र सिन इस मा ठार पाणन किया पापा अपना मकार र सकता है। सागतिपा है रिसा माथी माप को मावास की पा मनन गरमा म गए? पर्सपान में बहुत म पास्मा सात मकर रेरे मरिष्यत पान में प्रनत प्रात्मा मास माप्त करेंगे मिस शुभा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) मित्र परसमय भाव होता है अहिंसा धर्म पालन करने वाले पाणी की यही पूर्ण परीक्षा है कि-यदि हिसक जीव भी उसके पार चले जावे तो वेह सपने स्वभाव को छोड़ क दशालू भाव धारण र लेते हैं। सत्य महाव्रत-- अहिंसा महावत को पारद र रसे हुए द्वितीय सत्य महावा भी पालन किया जाता है जिस पाल्मा ने इस महाव्रत का पाश्रय ले लिया है वह सर्व कार्यों में सिद्धि कर सकता है क्योंकि लत्य में सर्व विद्या प्रतिष्ठित हैं सत्य शात्मा का प्रदर्शक है तथा प्रात्मा का अद्वितीय मित्र है उसकी रक्षा के लिए ! क्रोध-भय-तोभ-हास्य इन कारणों को छोड देना चाहिए । साधु मन बचन फाय से मृपा वाद को न वोले न औरों के घोलप जो मृपावाद (झूल) चोलते हैं उनकी अनुमोदना भी न करे. क्योंकि अश्त्य वादी जीव विश्वास का पात्र भी नहीं रहता अतएव ! इल महाव्रत का धारण करना महान् मात्माओं का तेव्य है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) दत्त महात्रत सत्य को पाखन करते हुए चौर्य परित्याग तृतीयमहा व्रत का पाखममी सुख पूर्वक हो सकता है यह महाव्रत शूर वीर मात्मा ही पाचन कर सकते है विना भड़ा किसी वस्तु का म उठाना यही इस महावत का मुख्य कार्य है किसी स्थान पर कोई भी साधु के होने योग्य पदार्थ पड़ा हो उसे बिना आमा म प्राण करना इस महामठ का यही मुस्योपदेश है मन वचन काप से व्याप चोरी करे नहीं औरों से चोरी कराए नहीं घारी करमे माल की भतु मोदमा भी न करे तथा चारी ने माकों की मोद शाक में होता है यह सब के मस्पच है इस लिए साधु महात्मा इस पद्दा प्रत का विधि पूर्वक पालन करते हैं । ब्रह्मचर्य महाव्रत | दच महा प्रत का पालन मह्मचारी ही पूर्णतया कर है इस लिये चतुर्थ वर्य महामत रूपम किया स्थिर हो सकता है स अपने मामा को ant क्षमा 17 सकवा गया है ब्रह्मचारी का ही मन बारी ही ध्यान अवस्था में सकता है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) सर्व अधर्मों का मूल मैथुन ही है इसका त्याग करना शूरवीर भोत्माओं का ही काप है इस से हर एक प्रकार की शक्तियें ( लब्धियें ) प्राप्त हो सकती है यह एक अमून्य रल है। । सब नियमों का सारभूत है ब्रह्मचारी को देव गण भी नमस्कार करते हैं जगत् में यह महाव्रत पूजनीय पाना जाता है। अतएव ! मन वाणी और काय से इस को धारण करना चाहिये क्यों कि-चारित्र धर्म का यह महानत पाण भूत है निरोगता देने वाला है चित्त की स्थिरता का मुख्य कारण है इस के धारण करने से हर एक गुण धारण किये जा सकते हैं। ___इस लिये ! मुनियों के लिये यह चतुर्थ महाव्रत धारण करना बावश्यकीय बतलाया गया है सो मुनि जन-माप-तो मैथुन सेवन करें नहीं औरों को इस क्रिया का उपदेश न करें। जो मैथुन क्रिया करने वाले जीव हैं उन के मैथुन की भनुमोदना न करे मनुष्य-देव-पशु-इन तीनों के Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैथुन कीप्यम में पी माया मारे काहीयमान शुद पर सम्वा । । अपरिग्रह महाबत। 11 सापी प्रभारी अपरिग्रा महामना भी पालन रेक्योरि-पन पान मा मुख से गीत मा पो अपरिग्रा महामवरे माम पान गर भादि में ना पात पढ़ो हो रस पमस्व माप फ ना हो, परिमा महानव वा साधु मम मन नघन गौर फाप से पन का सपन । कर पाएप ! भाप पन' पास रखरखे नही मागे का रसने का उपदेश दवे मी मा पन में ही मर्दित व उनकी पतुपादना मा म र म मा ग्रत के पारण फरन मे मपिन पाता । माता है। मिस मामय पर पिचरमा र अपरिग्रह पात मनप्प का मापन उप दारा बन पा मन परापसार रन प समर्थ और समापियफगर पाबमात्र संसार पस में मेप उत्पन्न होन कारण एन ये मुरुप कारण परिवार संपपरामपत्य माप सोनि अपरिया पाचार भपने मात्मा की सामना कर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T .( ४१ ) रात्रि भोजन परित्याग। फिर जीव रक्षा के लिये वा संताप वृत्ति के लिये रात्रि भोजन कदापि न करे रात्रि दोजन विचार शोलों के लिये अयोग्य वतलाया गया है गात्रि भोजन करने में हिंसा व्रत पूर्ण प्रकार से नहीं पन्त ममता श्यतः दया 'वास्ते निश भोजन त्यागना चाहिये तथा मुनि अन्न श्री 'जाति, पानी की जाति, मिठाई यादि की जाति, चूर्ण आदि जाति, इन चारों अपारों में से कोई भी पाहार 'न करें। इना ही नहीं किन्तु सूर्य की एक कता दब जाने से भी सात्रि भोजन के त्याग में दोप लग जाता है यदि रात्रि भोजन परित्याग वान्ते जीव को गत्रि . में पुख में पानी भी आजावे फिर बह--उस पानी को वाहिर न निकाले फिर भी उसको दोष लग जाता है इरा लि शनि भोजन में विवेक भली मीर से रखना चाहिये । " मिनु रात्रि भोजन भाप न करें, औरों से न कराये, स्रो रात्रि में भोजन करते हैं उन की अनुमोदनी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( e) बी म रे या व पी मन पम पौराय से एक पाखन करे पोरि- पा सप सापन पास्मा की छवि विपे दी है। ईर्या समिति। हिर पस्मा र साय गमन क्रिया में प्रवृत होना पाहिये पोरि-परन मिपा ी संबम के सापन हारी है दिम को बिना देसे मही पतमा पनि मो हरण पिना भूमि प्रमान लिए नही पा स्योंकि-पर्म र मुख परन ही है इस लिपे अपने परीर प्रमाण मागे मि को देस पर पैर रसना पारिपे । और पसवे इप पान करनी पारिपे। मान पाम फरमान पारिये। साप्याप भी म भरमा चाहिये।ऐसे करने से पस्न पूर्ण प्रकार से नहीं रामकता पपपि ममम क्रिया का निपेष नहीं किया गया किन्तु प्रपत्र का विपेप भपरप रिया भाषा समिति । नप गपम क्रिया में अपस्न का मिषेप दिया गया गे पोपने का मी पस्न प्रवरप होगा पारिये । पनि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा समिति के पालन करने वाला विना विचार किये कभी भी न बोले तथा जिस शब्द के बोलने में पाप लगता होवे और दसग दुःख पानसा होवे इस प्रकार की भाषा मुनि न बोले यद्यपि भाषा सत्य भी है किन्तु उस के बोलने से यदि दसरा दुःख मानता होवे तो वह भाषा मुख से न निकालनी चाहिये जैसे काणे को काणा काना इत्यादि भाषाएं न पालनी चाहिये । . क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, हास्प, भय, मोह, इन के वश होकर वाणी न वोलनी चाहिये कारण कि जब भात्मा पूर्वोक्त कारणों के बश होकर पोलता है तब उस का सत्य व्रत पलना कठिन हो जाता है। इस लिये सत्यव्रत की रक्षा के लिये भाषा समिति का पालन अवश्य ही करना चाहिये । निस भारमा के माषा वोवने का विवेक होता है वह क्लेशों का नाश कर देता है जब बोलने का विवेक हो गया तो फिर एषणा समिति । भोजन का विवेक भी अवश्य होना चाहिए ! जैसे कि: मुनि निर्दोष भिना दोरा जीवन व्यतीत करे शास्त्रों में Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिमा पिपिपरे पिम्वार से प्रतिपादन की गई है उसी के भनुमार मिश का किन्तु वास्पर्य यारे-मिस मकार किसी भीष को दुस म पहुंचे उसी प्रकार मित्रा लाषे शास्त्रों में लिखा है मैस भमर फूलों में रस लेने को माने १ बिन्तु रस से अपने भास्मा की सप्ति यो पर जेवे है फूलों से पोरित नहीं भरते उसी प्रकार मिम उस चि मे भाार लाये जिस पकार किमी भास्मा,को दुस न पहुंचे इसना की - विन्त फिरभी प्रापार रक्ष मारा मी परिमाण म पषि साया एमा हानिकारक हो पाता है जैसे परेपन से भाग पोर मा पर रूप पारण कर खमीर दर शुप्फ भार मी मिनु क लिए मुख फारफ नहीं होया पथा गैस फोटे स्फाटफ भापषि का माग किया मावा है फेषत गग शमन F लिए ी हावा घरीर की मुन्दरमा लिए नी । रसी मझार मितु माणों की रमा रेखिए पा सयप निर्वाह लिपी मार पर अपितु पय मादिदी दिलिर नमरे पस्न पूर्व माहार मामा फिर मिस मोठारे पा रफ स में भी परोना परिप Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ि५".): श्रादान निक्षेपण समिति जैसे कि जो वस्त्र पात्र उपकरण आदि नठाना पड़े। वा रखना पड़े उसमें यत्न अवश्य होना चाहिए ! __ यत्न से दो लाभ दी माप्ति होती है एक तो जीव रक्षा द्वितीय वस्तु वा स्थान मुश्ता रहता है। श्रालस्य के द्वारा उक्त द में कार्य ठीक नहीं हो सकते इस वार ने इस समिति में पान विशेष नन्दना चाहिए। यद्यपि चलनादि क्रियाओं में यत्न पहिले भी कथन किया गया है किन्तु इस समिति में वस्तु का उठाना वा रखना इत्यादि कार्यों में यत्न प्रति पादन दिया गया है जब इस प्रकार यत्न किया गया तो फिर ___ परिष्टापना समिति। जो वस्तु गेरने में आदी हैं जैसे मल मूत्र थूक-श्लेष्म भादि वा पानी सादि जो जो पदार्थ गेरने चाग्य हा नो उस समय भी यत्न अवश्य ही होना चाहिये क्योंकि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( () यदि इन क्रियाओं में पस्न न किया गया वो भीव हिंसा और घुसा उत्पादक स्थान बन जाता है अतरण 1 परि टापना समिति में पस्न करना आवश्यकीप है तथा जिस स्थान पर मद्य मूत्र आदि अशुभ पदार्थ पिना पश्म गेरे, हुये हाते हैं वह स्थान भी घृणा स्पर्ष हो भाया लोग बी इस प्रकार की क्रियाओं के करने बार्थों का घृणा की टि से देखते है मल मूत्र आदि पदार्थों में भीब पचि विशेष हो भावी है इसलिये भी हिंमा भी बहुत खो है तथा दुर्ग के विशेष बढ़ जाने से रागों की उत्पचि की भी समापना का जा सकती है अतरन ! परिष्ठापना समिति विषय विशेष सावधान रहना चाहिये । सूत्रों में निम्बा है कि नगर के सुन्दर स्थानों में वा आराम (बागों) में फस युक्त वृक्षों के पास ममादि के बनों में वा मृतक हों (ब) व पूर्वोक क्रियाएं न करमी पाहिये । तथा मत भूषादि क्रियाऐं भ्रष्ट में होनी चाहिये यह समिति व पल सकती है मनोप्ति ठीक की भई मनागुप्ति । मन के सम्पों का पा करना धर्म ध्यान वा शुक्र क्यान में मास्माकम लगामा तब ही मनात पण कधी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (/४७), है। जैसे कि - जिस का मन वश में नहीं है उस को चिस की एकाग्रता कभी भी नहीं हो सक्ती चित्त की एकाग्रता विना शान्ति की प्राप्ति नहीं होती जब चित्त को शान्ति ही नहीं है तत्र क्रियाकलाप केवल' कष्टदायक श्री हो . जाता है अतएव ! सिद्ध हुआ एकाग्रता के कारण से ही शान्ति की प्राप्ति मानी गई है। t - कल्पना कीजिये ! एक बड़ा पुरुष है उसको लौकिक पक्ष में हर एक प्रकार की सामग्री की प्राप्ति हुई २ है जैसे धन, परिवार, प्रविष्ठा, व्यापार, लौकिक सुख, किंतु मन उस का किसी मानसिक व्यथा से पीडित रहता है जब उससे पूछो तब वह यही उत्तर प्रदान करेगा कि मेरे समान कोई भी दुःखी नहीं है, अब देखना इस वास का है - यदि धन, परिवारादि के मिलने से ही शान्ति होती तो वह पदार्थ उस को प्राप्त हो रहे थे। तो फिर उसे क्यों दुःख मानना पड़ा, इस का उत्तर यह है कि - चित्त की शान्ति प्रवृत्ति में नहीं है, निवृत्ति में ही चित्त की शान्ति हो सकती है इस लिये जव चित्त की शान्ति होगी तब ही सयम का जीव आराधक हो सकता है, यद्यपि सयम Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((011)) शम्द को हर पर्फ मकार से पासपा की परत सपापमर्ग-और “पमा पाव "प्रथा मत्सय से ही संपर्य शम पनवा है सा मिस का पर्प पहो ।झान पूर्वक निति राहामा पप सम्यग् मान से ऐणा का निराप किया आयेगा ना ती भात्या अपने संपम की मारापा म सस्ता सपा ममोरप्ति दाग हर एक प्रकार की शक्तियें भी सस्पनर सपना है। पेस्मेरेशम रिचा एक मन की शक्ति का ही फल है सोनप समाप्ति होगी स्पषन एप्ति का सना स्थापाविक बात है। पचन गुप्ति। पन पा करने से सब महार पसेप मिर मावे हमाप कमेपों की उत्पत्ति पपन केही परण पे हो जान क्यों -अब बिना रिवार किए बचन पाया जा। पर वपन दूसर रे मनुष्य न न स पलेप जन्य बन मारे शास्त्रों में सिमा गया कि-शम्मा के मार गए विस्मृत समाव भिम्सु पगन रूपी शप पा महार लगा पा विस्मृत होना फठिन पाता। शस्त्रों मावे सपप समरे टासने सिय पने मकार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उपाय किये जा सकते हैं उन उपायों से कदाचित् शस्त्र के प्रहारों से बचाव हो भी सकता है, किन्तु वचन रूपी शस्त्र विना रोक टोक से कानों में प्रविष्ट हो जाता है, फिर श्रवण में गया हुमा वह प्रहार मन पर विजय पाता है जिस के कारण से मन औदासीन दशा को प्राप्त हो जाता है। अबएव ! सिद्ध हुआ कि वचन के समान कोई भी भौर शस्त्र नहीं है। इस लिये पचन गुप्ति का धारण फरना आवश्यनीय है एव वचन गुप्ति ठीक की जायेगी सघ बचन के विकार से जीव रहित होता हुया अध्यात्म वृत्ति में प्रविष्ट हो जाता है। अर्थात् आध्यात्मिक दशा में चला जाता है जिसके कारण से वह अपने आप को वा अनेक शक्तियों को देखने लगता है। यदि उस के मुख से अकस्मात् वचन भी निकल जावे तो वह वचन उसका मिथ्या नहीं होवार पर और शाप की शक्ति उस को हो जाती है इस सिये वचन गप्ति का होना बहुत ही भाक्श्यकीय है। तथा जो बहु भाषी होते हैं उनकी सत्यता पर लोगों का विश्वास वन्प हो जाता है। साथ ही वह भनेक प्रकार के कष्टों के मुंह को देखता है सो जब वचन सप्ति होगई व काप गुप्ति का होना भी मगम पाव है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ( ) ) काय गुप्ति कामशुद्धि के पिना मारण किए लौकिक पक्ष में भी बीब पशु प्राप्त नहीं करसकते देखिये कि काम बामें नहीं है मेही चोरी और न्यमिवार में प्रवृध होते है जिनका फल मत्पक्ष खोगों के दृष्टिगोचर हारा है परि रमक काय वश में होता तो फिर क्यों बेड नाना मकारक मागत । भिया ! काय के बिना बा फि शाम और ध्यान दानों से नहीं प्राप्त होस । क्योंकिबिना हड़ आसनबारे काही कार्य सिद्ध नहीं इसके । हे पद्यपि ममक मार्गे से आरंमा नाना प्रकार तन्तु कौफिक पक्ष में का का पाप वक्षणाम् माया गया है क्योंकि पथ और अप यश काप के द्वारा ही प्रत है। काय का दशकमा परमावश्यक है। सो जब कॉप देश में होगयावया संपर बो में होता है किंग पूर्ण मंदरा पेपरआत्मा धार णपा में २ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आत्मा प्राधव से छूटगया और उसके पुण्य पाप तय होगए तो वही समय उस आत्मा के मोक्ष का माना जाता है यदि किंचित् मात्र पुण्य पाप की प्रकृर्तिय रहगई हों तब वे जीवन मुक्त की दशा को प्राप्त हो। जाता है अतएव ! सिद्ध हुआ काय का वश करना प्रावश्यकीय है। . यर्याप साधु वृत्ति के सहसो सुरुण वर्णन किए हुए है किन्तु गुख्य गुण यही है जो पूर्व सहेल चुके हैं इन्हीं गुणों में शन्य गुण भी आ जाले हैं इसलिए साधु वृत्ति के द्वारा जीवन व्यतील करमा पवित्र आत्माओं का सुरुष कर्तव्य है और शाति की प्राप्ति इसी जीवन के हाथ में है और किमी स्थान पर शान्यि नहीं मिल सकती-त्यों कि-क्षमा, दमिन इन्द्रिय-और निग रंभ रूप पती पूर्वोक्त वृत्ति कथन की गई है। হন না" দ্বাস্তু (नियम करने के भांगे विषय) fr: मुज्ञ पुरुषों ! इस सार सभार में केवल धर्म की सा पदार्थ है जिसने करने से प्राणी हर एक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( प्रकार के मस पा सकता है जैसे पपड़ा पिणास प्रकृमिव इमा बाग देखने में माता है और उसको देस र प्रत्येक भास्मा का रित मानंदित हो नावा पर उस पागदी खचमी पर विचार पिया माता तर या निमपाइप पिना मही रावा किस माग का मन मा पिन सुधार पसी कारण से इसकी सचमी प्रतीच पा गई है। इसी हेतु मे मामा भावा पि-मिस मारमा के पन के मनोरथ पूरे हा भावे । मौर पर सर्व स्थानों पर मतिप्ठा मी पावा रे पसका मखोरण पर पर्म ही है। जैसे भावों स रसन पर्म किया या पैसरी फस उस भारमा को ग गये । इस थिए ! पर्म का करना पस्पापरपसीप है। मा परन पा खड़ा रावा है कि-फौनसा पर्म प्राण किपा माए ! वप इसका पत्तर पहरे रि-ग्रास्त्रों मे दीन प्रग पर्म रूपम किए रे मैसे लिप, घमा, और दया, सो पप इण निराप का मामा कों का पान करने को भी पीकावेरेनर को का सपप मा नाप तर पन करों को शान्ति पूर्पक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहन करना यही क्षमा धर्म है तथा जिन आत्माओं ने कष्ट दिया है उन्हों पर मन से भी द्वेष न करना यह " दया'" धर्म है परन्तु क्षमा और दया का भी मूल कारण सपहा है अतएव ! सिद्ध हुशा तप कर्म अवश्य ही करना चाहिए। संसार भर में हर एक पदार्थ की प्राप्ति हो सकती है जैसे कि-धन, परिवार, जाम, मन इच्छित सुख परन्तु तप करने का समप प्राप्त होना भति कठिन है क्यों कि-तप कर्म उस दशा में हो सकता है जब शरीर पूर्ण निरोम दशा में हो और पांचों इन्द्रिये अपना २ काम ठीक करती हों फिर तप कर्म करते हुए इस विचार की भी आवश्यकता हाती है कि-जिस प्रकार 'तप (मत्पाख्यान ) नपण किया गया हा र को उसी प्रकार से पालन किया जाए। इस विषय में मत्याख्यान करते समय ४९ मांगे फयन किए गए है-मांगे शब्द का यह अर्थ है कि एक प्रकार में मत्यारुपान, किया हुआ है दूसरे प्रकार से प्रत्याख्यान नहीं है। जैसे कल्पना करो किसी ने प्रत्याख्यान किया कि-माम मैं मन से कंदमुख नहीं खाऊंगा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप पर अपने हायों से पनपति का स्पर्शवा भौर पपन में पौरों को सपश्य दवा है कि-नुम भा पर मा यो परन्तु स्वयं पसा मन सामे का नहीं इसी मार पदि पपन स मस्पारुपान पिया हमारे व एस मन और भाप से प्रत्यारूपान महीने वा माप प्रमुफ कार्य नही कस्गा तब हमके पौरों मे ार्य रामे पापोरोपिए हुए रोंदी पनु मोदना परना इन पावों पा स्पाग मही रेस में सिदामा लिमिस मकार मे मस्यास्पाम कर शिया है फिर पसको सी प्रकार पालन करमा पारिए । पदि फरव समप सयं मान मी १ वा एरु को पित रि-मत्पासपान परने पाछे को मत्साम्पाम २ भदों का समभन देपे पर इस प्रकार से पार्य किया माएमा वा धर्म में दोप नहीं लगेगा पस इसी क्रम का पांगे कासरे। पागों जान पर एक व्यक्ति को होना चाहि मिस म पर इस पूर्वक कप प्ररण करने में समर्थ नाए। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५.), । और यह- भागे अंक और करण तथा योगों के भाधार पर कथन किए गए हैं जिसमें करण तीन होते हैं, नमे हि-रना, कराना, अन मोदना इन्हीं को करण करते हैं मन, वचन, सौर काय को योग कहते हैं। ' सुगम वोष के लिए एक इन के विषय का यंत्र दिया जाता है। यथा अंक ११ १२ १३ २१ २२ E मांगा है. ३ ६ ३ ३ ३ १ करण १ १ १: २ २ २ ३ ३ ३. योग १ २ ३ १ २ ३ १ २ ३ । भांगा वा १८ वर्ग २१ वा ३० वा ३६ वों ४२ वा ४४ वा ४८ वा ४६वां यही इन मांगे को जानने स यन्त्र है अब इनके सच्चारण करने की शजी लिखो, नाती है जैसे कि--- , अंक ११ का १ करण १ योग से कहना चाहियेपया करूं नहीं मनसा १ करूं नहीं वयसा ( वचसा) or | m | | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Ant २मी कापसा (पायेन) शराब नींना रामही पपसा (पषसा) ५ राक महीसा (सापेम) ६ अनुमोदं नही परसा ७ अनुमोद मही पसा (घसा)८ मनमाद मही कायसा (कापेन ) है। इस प्रकार एकादयामंक के मब मांगे पनवे। पिम्त इनको इसी प्रकार कएठ करने की शेखी बसी पावी इस लिए (पपसा) महापसा या दामों शम मार मापा के पारस्पी रखने गये। मिपाठ को पारिये पावकों को इन समझा कि-"वयसाग पचन से "पस पाप से मस्यास्पान मादि करवाई मागे पी सर्व मांगों के विषय इसी मकार भानमा पारित ___२ मा १२ मा मांगे मा एकारण दो पोग से पाने चाहिये। मेले कि-4 महीं मनसा पपसा मी मनसा कापसा नी पयप्ता कापसा बराक नहीं पनसा अपसा कराई ,मही पनसा कापसा राई नी पपसा पपसा मनपाई। मी मरसा पापसा मनमो नी मनसा कापसा इमनुपाद नही पता कापसा ३- प १३- पांगे ३ ए करण पोग सेपाने चाहिए-से किस मी मनसा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५)) क्यसा कायसा १ कराऊं नहीं मनसा वयसा कायसा २ अनुमाद, नहीं मनसा वयसा कायसा ३॥ ४-अंक-एक-२१ का भांगे है। दो फरण एक योग से कहने चाहिए-जैसे कि-फरूं नहीं कराऊं नहीं मनसा १ करूं नहीं कराऊनहीं वयसा २ करूं नहीं कराऊं नहीं पायसा ३ करू नहीं अनुमोद नहीं मनसा ४ करूं नहीं अनुमोदं नहीं वयसा ५ करू नहीं अनुमोदं नहीं कायसा ६ कराऊं नहीं अनुमादं नहीं मनसा ७ कराऊं नहीं अनुमोदं नहीं वयसा ८ कराऊं नहीं अनुमोदं नहीं कायसा ह॥ 3. ५-अक एक २२ का भांगे है। दो करण दो योग से करने चाहिए । करूं नहीं कराऊं नहीं मनसा वयसा १ करू नहीं कराऊं नहीं मनसा कायसा २ करू नहीं कराऊ नहीं वयसा कोयसा ३.करू नहीं अनुमोदं नहीं मनसा वयसा ४ करू नही अनुपादं नहीं-मनसा कायसा ५ करू नहीं अनुमोदं नहीं वयसा काय तो ६ करा नहीं भनुमोदं नहीं मनसा वयप्ता ७ कराऊ नहीं अनुमोव नहीं मनसा कायसा ८ कराऊं नहीं अनमोर्ट नहीं वयमा कायसाग-1 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ( 1 ) ) ६ Τ चाहिये। जैसे। फिरू नहीं करा एक २३ दो करण ३ योग से कहने नहीं मनसा वयसा कायसा १ फर्क नहीं अनुमोदन बबसा वयसा कापसा २ प्रराऊ मा अनुमो नहीं मनसा वयसा कापसा ३|| " ७- अंक एक ३१ का भांगे थे । तीन कर एक योग से कहने चाहिये । क नहीं कराफ़ नहीं मतु मोई नहीं मनसा १ क नहीं कराके नहीं अनुमोदं पढ़ीवयसा २ करू नहीं कराक नहीं अनुमोद नहीं कायसा - एक ३२ की मांगे कहना चाहिये करू नहीं करा मनसा वयसा १ फर्क नहीं कराए मनसा कामसा र कह नहीं कराऊ नहीं अनुमोद प वीन करा दो योग से नहीं अनुमोद नहीं नहीं अनुमों म वयसा कामसा ३ । ३३ का महा १ धीन करणा चीन योग प्र नहीं कराई नहीं 8का चाहिये। जैसे कि मोद, नहीं बनता वयसा कावसा १ ॥ I Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस प्रकार ४६ भांगों का विवरन किया गया है। र एक नियम करने छाले को इनका ध्यान रखना पाहिये । जैसे कि-नव भांगों के अनुसार नियम किया जायगा । वष नियम का पलना बहुत ही मम होगा मोरं उसके पालने का झान भी ठीक रहेमा अब प्रत्याख्यान की विधि को मानता ही नहीं घब उमके शुद्ध पालने की क्या प्राशा झी जासकती है अतएव ! इनको कण्ठस्थ अवश्य ही करना चाहिये। इनका पूर्ण विवरण देखना होवे तो मेरे लिखे हुए पच्चीस बोल के थोड़े के २४ वे चोल में देखना चाहिये। वथा श्री भगवती सूत्र में इनका विस्तार पूर्वक कयन किया गया है जब कोई मात्मा प्रत्याख्यान करता है सब उसको देश वा सर्व चारित्री कहा जाता है सो, चारित्र ५ प्रकार से प्रतिपादन किये गए हैं जैसे किसामायिक चारित्र १ छेदोपस्थापनीय चारित्र २ परिहारविशुदि चारित्र ३ सूक्ष्म संपराय चारित्र ४ ययाख्यात चारित्र ५ प्रामायिक चारित्र सावध कर्म का निवृति रूप होता है। पूर्व दीक्षा का छेद रूप वेदोपस्थापचीय चारित्र Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता.२ दोषी करने के वास्ते पतिार पियदि (वप ) चारित्र करा गया है ३ सचम पापम्प सपम संपराय पारिग पन किया गया है। मिस मगर पता है पसी प्रकार रखा है उसे दो यपाल्पाव पारित कावेरे ५ इन पारियों का पूर्ण पृताम्य विकार मिव मादि सूत्रों से भाग खेना पारिप। पाप में पारिभ का भर्प मापरण करना हो। मा भप बफ भोप एमाधरण नहीं करवा तप तक समार्ग में नहीं भासवा सापार शम्न पी इसी पर्याय का पापी है। किन्तु पारिष दो प्रकार से प्रतिपादन रिया नपारे जैसे गि-द्रव्य पारिष और पाप पारिप-द्रम्प चालिसे एय स प पौद्धविर मुख परम्प होभावे रे माप पारिन से मोन की माक्षिोमाची रेपित पायों पारोमादि सामायिक पारिषदीपोंकिमा सारप ( पाप मप) यांगों का स्पाम किया गया है। वर रचरापर गणे की प्रापिधरूप पम्प पारिनों का वर्णन किरा भाव इस खिए ! सापावित पारिश में Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पुरुषार्थ अवश्य ही करना चाहिये और इस चारित्र के दो भेद किए गये हैं जैसे देश चारित्र वा सर्व पारित्र सो देश चारित्र गृहस्थ सुख पूर्वक ग्रहण कर सकते हैं सवे चारित्र मुनि जन धारण करते हैं सो गृहस्थों को देश चारित्र में विशेष परिश्रम करना चाहिये जिस से वह सुगवि के अधिकारी वर्ने । पाठ आठवां। (संयतराजर्षि का परिचय ) पूर्व समय में काम्पिलपुर नामक एक नगर था जो नागरिक गुणों से मण्डित था, सुन्दरता में इतना प्रसिद्ध था, कि-दूरदेशान्तरों से दर्शक जन देखने की तीव्र इच्छा से वहां पर आये थे, और नगर की मनोहरवा को देखकर अपने २ आगमन के परिश्रम को सफल मानते थे, उस नगर के वाहिर एक अद्यान या, जिसका नाम "केशरी बन" ऐसा प्रसिद्ध था, नाना पकार के सुन्दर वृत्तों का मालप या, विविध प्रकार बतायें जिसकी प्रभा को उत्तेजित कररही थीं, जिनमें Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15 (२ )) * पट्तुओं के पुष्प विद्यमान रहते थे, अनेक प्रकार पक्षीगण अपने २ मनोरुषक राग मान रहे थे, मृगों की पछि ये मातीमाती मुस्लाकृति को खिए श्वस्ववः भावन कर रही थीं, जिनके मिप लोचन चलते हुए पक्षिकों के हृदयों को पयस्कान्त के समान आकर्षण करके पे selan उस बन की उपमा दिने ! पाप जो पुरुष उसका एकबार देख लेता था, पर अपने जन्म को उस दिन से ही फल समझता था । सो पूर्वोक्त नगर में जैसि मभावशाली पुएब प्रेम परम विख्यात “संयत" नामक राम्रा राज्य अनु शासन करता था जिसका पूर्व भाग्योन्य से घम, याम्प, मन वाहन पश्व गमादि राज्य के योग्य सर्व सामग्री पूण्णतया प्राप्त थी, एकदा या राजा च मकार की सभा का साथ शंकर मास्नेवक निमित्त अर्थात् शिकार स्पेटने के लिए दशरी पन च गया, मर्दा एक म श्याम मर्णीय मृग दृष्टिगोचर हुमा, और कर + प्हाने की चष्टा करक भागगया, स्ि 4 मारता की आपण शक्ति का 1722101 या फिर पापा महुआ बान राम के हृदय में सुमित Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ६३ ) 1 राजाजी के मुख में शीघ्र पानी भर आया, और चाहा कि इस मृग का बंध करूं, रसों के लोलुपी राजा ने , सेना को वहां ही खड़े रहने की आज्ञा दी, केनल दो दासों को ही लेकर उसके पीछे अपने पवन जीत अश्व को दौड़ाना प्रारंभ किया, और बड़े दल से एक ऐसा धनुप मारा जो मृग के हृदय को विदीर्ण करता "हुआ उसकी दूसरी छोर जानिकता वब मृग, घाव से दुःखित हो र मृत्यु के भय में भाग कर एक अफव (( लताओं के ) मडप में जा गिरा, राजा अपने नशाने पर विश्वास करके घर्थात् मेरे धनुप महार से मृग प्रवश्यमेव हा घायल दोगया होगा, यतः वह कदापि 'जीवित नही रह सकेगा, ऐसा विचार करके उसके पीछे २ भागा हुआ पर ही गया, और उस घावयुक्त वह हरिण को देख अपने परिश्रम की सफलता का विचारही कररहा था, हि, व्यकम्मात् उसकी दृष्टि एक जैन सांधु पर पड़ी, जोकि धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्या रहे थे, स्वाध्याय में प्रवृत्त तथा पोष क्षमा (शान्ति) नाथा पाचन (अहिंसा, 1 か । सत्यं, अवीर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) करके विभूषित ये ६ سیا Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त साहु " और उस फोन मंडप में पर्यात् । नागपट्टी द्राची, यावर मुखादि करके माकीर्ण स्थान में इकेले ही ध्यान कररहे थे, तदनम्बर, राधा सुनि को देखकर भयभीत होमपा, और विचार करमे लगा कि मंदमामी ने पांस फे' स्वाद के वास्ते इस मुनि के मृग को मार दिया, सेा पह महत् यकाय हुआ, परि पर सुनि क्रोमित होगए वो फिर मेरे दुःख की सीमा न रहेगी, ऐसा सोच कर अश्व पर विसर्जन करके (स्पाम करके ) सुमि महाराज के समय आया, और सविनय बदना नमस्कार (प्रणाम) की मुख से ऐसे बोला कि हे भगवन् ! मेरे अपराध कोमा करा, मुनि मौन वृद्धि में ध्यान कररहे थे, इस कारण सम्मान राजा को हम भी बत्तर न दिपा, भतः अपने ध्यान में बैठे रहे, मुनि के न पाकने से रामा भयभीत होगया, तथा ममभ्रान्त होकर इस मकार भापण करन मा कि-हे भगवन् ! मैं कॉम्पिम्बपुर का संपत नामक राजा है, इसलिए ! आप मेरे मे मार्यादाप करें, हे स्वामिन् । भाप जैसा साधु कुद्ध होने पर अपने वप के पथ से सहस्रों, लयों, करोड़ों, पुरुषों का दा करने में समर्थ है, या आपको कुछ न होना चाहिए । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ___ राणा के इस प्रकार वचनों को श्रवण करके मुनि मे विचार किया कि मेरी यह धर्म है कि-किसी पाणी को। मी पय न उपजाऊं तथा जो मेरे से भय करें, उनका भय दूर करूं, इसी प्रकार शास्त्रों का उल्लेख है। (निर्भय करना परम धर्म है) ऐसा विचार कर मुनि पोले,-हे गजन् ! भय मतफर ! मैं तुझे अभय दान देता हूं, तूभी जीवों को अभय दान प्रदान कर, किसी पाणी को दुःखित करना मनुष्य का कर्तव्य नहीं है। हे पार्थिव ! इस क्षणभंगुर, अनित्य, संसार में स्वल्प जीवन के वास्ते क्यों प्राणी वध करता है। हे नृप ! एकदिन सर्वराष्ट्र मन्तःपुरादिक, भाण्डागारादिक त्यागने पड़ेंगे, और परवश होकर परलोक को जाना पड़ेगा, फिर ऐसे अनित्य ससार को देखकर भी क्यों गज्य में मृच्छित होकर जीलों को पीड़ित करने से स्वयात्मा को पापों से बोझल कररहा है। महीपते ! जिस जीवित तया रूप में तू इतना मुग्ध हो रहा है, और परलोक के भय से निर्मय होरहा है, वह भायु तथा शरीर की सौन्दर्य विद्युत् के समान Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( a)) hat, पौरन नदीमकी उपमा पाला रोपन पणाग्नि के समान सपकाला मोग शरम्यान के मेपों की वापा सरण , मित्र, एम, बम, सत्यवर्ग, सम्पम्मी प्रमादि सर्व सम हुम्य है। पित ! गरा, पुत्र, पाम्पस, 'भ्राणरि प्रमुख सप अपने २ स्वार्य के सापीरे और नीरित राने तो भीत . मस्य के समय का पी माप नहीं बावा, नम पुरुष के पीछे उसी रेपन से भपन सम्म पिपोका पासम पोपण परते, मानम्द से ऐप भायु का पान करता, और उस पतक पुरुप का स्मरण भी मरी रत-इसलिए । रामन् ! स्तन दाग, सम्पादि में भ्पर्य सम्पा मरमा पाप रसिय संसार की कैसी सापनीय रण -मस्पन्त शाकारिख पुम अपन मुवा पिवा हो पर म बार रन, ससी मार पिया भी मार हाबी हा दुधा मुखर को रमगाम भूमिका में माकर स्वार स ससा दावा, पाम्पर, का, मृत्यु संसाररवार। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) , हे राजन् ! ऐसे विचार कर तप को ग्राण, पर्म का भाचरण, करना आवश्यक है। हे पृथिवीपते ! जिस जीपने जैसे शुभ अथवा अशुभ कर्मवथा मुख दुःख उपार्जित न किए होते हैं, ननीं के प्रभाव से पर लोक को चला जाता है, और वेह कर्म ही उसके साथ जाते हैं, अन्य कोई भी जीव का साथी नहीं बनता। हे महीपते ! इस प्रकार की व्यवस्था को देख कर भी क्यों वैराग्य को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इन सांसा. रिफ विनाशी, क्षणिक, अध्रव सुखों के ममत्त्व मा को त्याग कर कैपल्य रूपी नित्य ध्रुव मुखों की प्राप्ति का प्रयत्न कर। इस प्रकार मुनि के परम वैराग्य उत्पादन, स्वल्पापार, बहुव अर्थ सूचक, शराव (प्याले ) में सागर को भरने की कहावत को चरितार्थ करने वावा, सत्योपदेश श्रवल करके, पए संयत राजा अत्यन्त संवेग को प्राप्त , और गर्दै मालि नामक प्रनगार के समीप वीतराम धमे में दीवा के लिए उपस्थित होगए, राज्य को त्याग Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a )) प, पौरन नदीम की सपमा पाबारे जीवन दयाग्नि समान सम्पकाल का भोग शरमा के मेपों की बाया सरण है, मित्र, न, काम, मुस्पपर्ग, सम्मम्मी ममादि सर्षे सम सम्परे। रेपो । दारा, पुन, पाम्पम, भ्रातादि प्रमुख सप अपन २ स्वार्थ के साथी "भौर सीरिख राने को जीत पुस्प + समय कोई भी साप नही बाता, नम पुरुप पीछे एसीपन से अपम सम्प पिपों का पाचन पापण हरवे , मानन्द स शप भापु को म्पतील रत रे, मोर पस सतक पुरुप का स्मरण भी नही रस, इसलिए । गमन् । रुवन दाग, म्यादि में म्पर्य सपना नरमा नारिए दलिय संसार की मी सापनीय एमालभरपन्त शाकरिव पून प्रपन मुवा पिता हा पर म गार परमर, इसी मार पिया मी मा सनी पवा दुमा मुबर को रमगाम भूमिका में समार मार एसा दावा, पाम्पर, पन्यु का, मृम्प संसार मा है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६ 'हे राजन् | ऐसे विचार कर तप को ग्रहण, श्राचरण, करना घ्यावश्यक है । हे पृथिवीपते ! जिस जीवने जैसे शुभ अथवा अशुभ कर्म तथा सुख दुःख उपार्जित न किए होते हैं, उन्हीं के प्रभाव से पर लोक को चला जाता है, कर्म ही उसके साथ जाते हैं, अन्य कोई भी साथी नहीं बनता । और वेह जीव का धर्म का हे महीपते ! इस प्रकार की व्यवस्था को देख कर श्री क्यों वैराग्य को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इन सांसारिफ विनाशी, क्षणिक, ध्रुव सुखों के ममत्त्व भाष को त्याग कर कैवल्यरूपी नित्य ध्रुव सुखों की प्राप्ति का प्रयत्न कर । इस प्रकार मुनि के परम वैराग्य उत्पादक, स्वम्पातर, वहुत अर्थ सूचक, शराब (प्याले ) में सागर को मरने की कहावत को चरितार्थ करने वाळा, सत्योपदेश श्रवण करके, वह संयत राजा अत्यन्त संवेग को प्राप्त हुए, और गर्द भालि नामक अनगार के समीपं वीतराम धर्म में दीक्षा के लिए उपस्थित होगए, राज्य को त्याग Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( दिया, वा मनि के पास दीधित होकर नमी के शिष होगए। प्रपिस् साप्पापांगरिया वस साम को भर पास से पप्पपा पारंम किया। पुदि की प्रगम्यता से सम्पराल में ही बत्तान मे कठिन विपम के पारगापी हगए। पादा रुकी पास शिरोपारस रके पाप भरे से ही विकार करगर, पार्ग में पापको एक अनिय मनि मिले माकि पान निदान घे एनसे पिरकाख मा वार्तालाप मा, वा पमान भापको मापीन गमों, महाराणी, पक्रातिपो है इतिहास प्रतीम मिस्वार पर्व मनाए, और संपम मार्ग में पूर्व में मी पपिक र रिया, मिनरा विस्तीर्ण नियर मैन मूत्र भीपतगप्पपन के भाव मप्पाय में पूषवा पिपमान मिस हाशप को भपिक अचान दसम की अभिणपा हो, पूरॉक सून के पक्क मापाप की साप्याप रे, पा रेप परिषय मात्री भिसा गार। तपा पीस पिका परिरप। मार -समय यर्षि वरिप परिचय नाम लेप पीय जैनमामि .पानम्म भी महायमा लिया मा पामोकि समनी सचिका में स्यूत्यू पापा भौर पर विस्त मिचित एक माचीन मरारेस उपसम्पमा पा। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न ( ६६ ) नवाँ पाठ। (जैन सिद्धान्त विषय) उत्तर ससार अनादि है या अनादि भी है आदि मादि। ..मला या दोनों बातें । प्रियवर ! संसार दोनों कैसे होसक्ती हैं, या तो | स्वरूपों का धारण करने धनादी कहना चाहिये या | वाला है अतएव । संसार मादि । शनादि भी है और आदि भी है। अनादी किस प्रकार से प्रवाह से। प्रवाह किसे कहते हैं। ___ सो क्रम से कार्य चला ठा हो। इसमें कोई दृष्टान्त दो। जैसे पिता और पुत्र का अनादि सम्बन्ध चलाभाता है तया जैसे कुक्कड़ी से भएडा, और अएटा से कुक्कड़ो-इसी क्रम को | मनांह कहते हैं। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (00) ? ᄏᄏ पहिले इनकी म मानक्षी जाए। यदि पिमा अपा से झक्कड़ी नहीं होकी सो फिर पहिले चाही | कभी होसकता है। मानसेवा चाए । मिस समय परमात्मा सृद्धि की रचना करता है उस समन अपनी शक्ति द्वारा पिया मासा, पिता के पुत्र उत्पन्न होजाते है । गया कार भी कई मकार के होते हैं। चर 27 A क्या बिना अपरा से नकटी होसकी है। मियबर ! क्या-कुक्कड़ी क बिना अया उत्पन्न उपादान कारण का क्या धर्म है । मित्रवर्य ] कारण के बिमा कार्य की पत्पची कभी भी नहीं होसकीजैसे मिट्टी के पिता पर नहीं बन सकता, उसी मकार पण परमात्मा मे मनुष्य बनाए, तब पहिले किस कारण से बनाए, और तुम कौनसा कारणा मानवे हो । - कारण दो मकार फे होवे है-जैसे पादाम का रया, और निमित कारया । अपनी शक्ति से कार्य फरमा । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमिच - कहते हैं । 耳餅 उत्तर कारया किसे | जैसे- कुंभकार घट के बनाने में निमित्त मान होता है किन्तु मिट्टी यदि हन्ष पहिले ष्ठी विद्यमान होते हैं । उपादान कारण 'निमित कारण बिना सफलता प्राप्त नहीं करसकता, जैसे कुभकार- घट बनाने का वेत्ता तो है किन्तु मिट्टी श्रादि द्रव्य उसके पास नहीं है तो भला ! वह किस प्रकार घट बना सकता है । क्या - ईश्वर के इच्छा भी है । 1 1 ( ७१ ) • हम तो सृष्टिकर्ता परमात्मा को उपादान कारण से मानते हैं । ' । परमात्मा अपनी शक्ति द्वारा सब कुछ करसकता है ईश्वर इच्छा से रहित है इसलिए ! उसको इच्छा नहीं होती । वह सर्वशक्तिमान् है । जो चाहे सो करसकता है । I जब ! ईश्वर "इच्छा से रहित है तो फिर बिना इच्छा शक्ति का स्फुरणा कैसे संभव होसकता है । क्या - ईश्वर अपने स्थान में दूसरे ईश्वर को बना सकता है । और अपना नाश कर सकता है । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) मम यह दोनों असम्मन कार्य है इन्हें ईश्वर क्यों करे । असम्भव कार्य ईश्वर नहीं करता । पचर पियबर 1 जब सर्वशकि मानू मानते हो फिर पह असंभव क्यों होसकते है । पया बिना माता पिया के सृष्टि की रचना करना यह सभ कार्य नहीं है। माता पिता के बिना सृष्टि का उत्पन्न करना कोई असम्भब बात नहीं है क्यों कि-महुवसी सृष्टि बिना मख 1 में सृष्टि । वर्षा निमित से उत्पन्न होती क्योंकि मिस पृथिवी में मेंडक बत्पन्न हान क पर माता केदारपन्न होती | माणु होत है उसी में वर्षा के दिख पड़ती है जैस बैंक सृष्टि बिना माता पिता के भावी है । कारण स पूर्व क कारण सद्रयनि बावे जीव परपम्न होगाव है-यदि एसेम धाना भायगाव वर्षा के सम्प किसीम वाली आदि पर्चन ( मामन ) रसदिए फिर वह जल से मग्गए किन्तु मेंटकों की उत्पति इस ब में मही दसीभाषी भवः Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न ( ३ ) उत्तर | सिद्ध हुमा-वर्षा केवल निपित मात्र होती है वास्तव में उन जीवों की योनि वही है। जैसे वनस्पति समछिप मित्रवर | वनस्पति आदि उत्पन्न होजाती है उसी | जीवों की जैसे योनि होती मकार सृष्टि के विषय में मी है वेह उसी प्रकार उस जानना चाहिए। योनि में पानी आदि नि. मित्तों के द्वारा उत्पन्न हो. माते हैं किन्तु विना माता पिता के पुत्र उत्पन्न कमी भी नहीं होसकता। मनुष्यों की सृष्टि के जैन सूत्रों में लिखा है कि विषय में जैन शास्त्र क्या अनादिकाल से यह नियम पतलाते हैं। - चला आता है-स्त्री पुरुष के परस्पर संयोग (मैथुन) से गर्मजन्य मनुष्य सृष्टि उत्पन्न होती चली रही है और भागे को भी यही | नियम चला जायगा । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) प्रभ सखे ! आदि सष्टि पैनी नहीं होती प्रदतु । मैथुनी सृष्टि हो जाती है । तो फिर हमको क्या मानमा चाहिए ! वो बा आदि संसार किस प्रकार माना जासकता है। पर्याय किसे कहते है । पचर गणस्य ! भव ! मैथुनी ष्टि उत्पन्न होदी नहीं सकती तो गया सृष्टि कसे मो मापने व सृष्टि मैसुनी होती है ऐस मानलिया है, तो बचा पहिची सृष्टि में परमात्मा मे क्या दोप देखा जिससे उसको प्रथम मियम बदलना पड़ा । हमको मार से संसार अनादि माममा पाहिए । पर्याय से ! 1 पदार्थों की दशा परिवर्तन हो मामा जैसे शुभ पदार्थ से प्रथम दोषावे है और पदार्थों से शुभ बन जाते हैं भूयम से पुरावम, मौर माघीण से फिर सूक्ष्म जैसे मादि पदार्थ बक्षण करने Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) प्रभ के पचात् मल मूत्र की पपाय को प्राप्त हो जाते हैं फिर वही मल मूत्र खेत भादि स्थानों में पड़ कर फिर अन्नादि पर्याय को प्राप्त होजाते हैं। मनुष्पों का पर्याय किस मनुष्यों का पर्याय समयर प्रकार परिवर्तन होता है। परिवर्तन होता रहता है,भोर स्थूल पर्याय-यह है जैसे वाल, युवा, और वृद्ध । मनुष्य आदि क्या अनादि| मनुष्य आदि भी है और अनादि भी है। किस प्रकार अनादि और जीव अनादि है मनुष्य की आदि है। पर्याय आदि है जैसे जब मनुष्य उत्पन्न हुमा उस समय उसकी प्रादिहुई और जव मृत्यु होगपा तब मनुष्प. की पर्याय का अंत होगया। क्या हर-एक जीव इसी हा-हर एक-जीव इसी मकार से माने जाते हैं। मकार माने जाते हैं जैसे-देव पोनि के जीव भादि भी हैं भोर भनादि भी-आदि । वो ह इस लिए हैं कि-देव Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( of) अमादि अनन्य कौन २ से इम्प है। अनादि साम्य क्या है पचर योनि में उत्पन्न होने कारण से क्योंकि जिसकी स्पति है उसकी भाषि और भय आदि सिद्ध हुई as देह वाले भी सिज होगए। भवष ! बेर सादि धान्य है किन्तु नीम द्रव्य की अपेक्षा से अनादि भ है इस प्रकार पर एक के विषय में जानना चाहिये । धर्म-अधर्म, आकाश, का जीव और पुल, पह ग्रम्प अनादि अगम्य है । भष्म भीमों के कर्म अनादि साम्व है अर्थात् नो मात्र जाने गावे साथ भो कर्मों का सम्बन् वह पनादि साम्य है क्योंकि कर्मों को प करके बोच जाएंगे । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर प्रश्न सादि मनन्त पदार्थ कौन | जिस समय ! जो जीव मोक्ष में जाता है उस समय उसकी भादि होती है परन्तु वह अपुनग त्ति वासा सोता है इस लिये उसे सादि अनन्त कहा जाता है। सादिसान्त पदार्थ कौन २ चारों जातियों क जीवों श पर्याय स्मादि सान्त हैं तथा पुदगल द्रव्य का पपाय सादि सान्त है। चारों जातियों के जीवों| नारकीप १ देव २ मनुष्य की पर्याय सादि सान्त कैसे | ३ और तियक ४ इन जीवों के उत्पन्न शो मृत्यु धम के देखने से यही निश्चय होता है कि-इनका पर्याय सादि सान्त है और जीव की अपेक्षा अनादि अनन्त है। ..शुदगल द्रव्य किसे कहते | जिसके मिलने भोर विछरने का स्वभाव है यावन्मात्र पदार्थ हैं वे सर्व पुदगल द्रव्य हैं और यह रूप है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (or) प्राण रिसे है। | भो म अंश प्राही हो प्रमोद सर्व मार से पदापों का पोन परे । प्रयास किया है। । दो। मक माप पवाभो। | मस्पर ममाण १ और | परोर पपास २ । मत्पत्तपमाण कितने प्रकार | दो प्रकार से। से पर्णम दिया गया है। पनक नाप पक्षाभो। इन्द्रिय मस्पक्ष ममास १ मार नो इन्द्रिम प्रस्पन पमाण । इन्द्रिप प्रस्पर प्रपाण किस] पो पचिोइन्द्रियों पर पावे-मैम को शम मुनम माते हैं भवेम्ब्रिम में अस्पता , मारूप के मन देखने में माते है,पा परिन्द्रिय के सी मबार पापों इमियों पिपप में बामना चाहिये। भर्वात मम पदार्यों से पापों इमियों द्वारा निर्णय रिपानागपणेही पनि मस्परा है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a)) पन उधर' नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष किसे| नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष त, करते हैं। - - कहते है जो इन्द्रियों के विना | सहारे केवल धात्मा द्वारा ही पदार्थों का निर्णय किया जाए। नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार से। कितने प्रकार से वर्णन-किया। गया है। -उनके नाम वतलामो ! | देश प्रत्यक्ष १ और सर्प -प्रत्यक्ष २ देश प्रत्यक्ष किसे कहते हैं। जिस आत्मा के शाना बर. णीय और दर्शना वरणीय कर्म के सर्वया भावरण दूर नहीं हुए हैं किन्तु देश मात्र भावरण दूर होगया है सो बह पात्मा जिन पदार्थों का निर्णय करता है या अपने श्रात्मा द्वारा उन पदार्थों को | देखता है उसे ही देश प्रत्यक्ष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( )) मा--- उचरदेय परपस के विधने | मेद । कौन २ से है। प्राधि शाम ना इर्षि देश मत्पन और मना पा बाम मो इन्द्रियदरा प्रत्यक्षा भवपि पान देश प्रस्पर नीपि पदार्यमा उनको पिस कावे । अपने मान में मस्पस वसा १ किमत ना पर्मादि पर सना पर मपम जान | मत्पन्न नही देखा। पना पर्याप हान देश मा-मम पर्यागें सभी प्रस्पन किसे पावरे। मान सेवा र पर्यावों का (भाषा) भामता है। मा इन्द्रिय म मस्पर शान ना इन्द्रिय सर्व मस्पष बिसेबारे। शान चल ज्ञान का नाम है क्योंकि- पल शान |पापि मार में सवार इसी गान पासा | भोर सर्पदी जाये। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्पर शान कैसा होता है। यह प्रति निर्मल और विशद तारे केवमास्मा पर ही इसकी निर्भरतो है इन्द्रियों की सहायता की यह ज्ञान इच्छा नहीं रखवा इसी लिए ! इस ज्ञान को प्रतीन्द्रिय ज्ञान भी कहते है बाना वरणीय १ दर्शना वर. णीय २ कर्मों के क्षयम इसकी उत्पत्ति मानी जाती है। परोक्ष शान किसे कहते हैं। जो इन्द्रियादि के सहारे से प्रादुर्भूत हो और फिर मात्मा द्वारा उस का प्रमाण सहि निर्णय किया जाए। परोक्ष ज्ञान के कितने भेदरें पांच-५ वे कौन २ से हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, मौर भागम । (शास्त्र) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गम 7 1 राक्ष स्मृति ज्ञान किसे कहते हैं है। TE T (()) fr f 1 T L 7 मपमि ज्ञान विसे करते वर्क ज्ञान किस कहते है । पचर T परिछे संस्कार से जो ज्ञान उत्पन्न होता है बसे स्पति ज्ञान कहते है यह वही देववच है इत्यादि, नो-मस्पक्ष और स्मृति की महापक्ष से उत्पन्न हावा है समान को प्रत्य विज्ञान कहते है जैसे कोई पुरुष किसी के पास खा या उसको देखने वा कहा कि मह वही पुरुष है जिसका पैन नही पर देखा या मा गौ क सर यह है इत्यादि । लगाय मा अपम-भर म्यतिरेक की सहायता से उत्पन्न हो उसी "वर्क" ज्ञान कहते है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ), एतर अचय किसे कहते हैं। जिसके होने में दूसरे पु दाथे की सिद्धि पाई जावे, | जैसे आग होने से धूत्रा | होता है उसे अचय कावे । __ व्यतिरेक किसे कहते हैं। जिसके न होने से दूसरे पदार्थ की भी सिद्धि होजावे-जैसे आग के न होने से धूम भी नहीं होता। अचय का दूसरा नाम क्या है | उपलब्धि। व्यतिरेक का दूसरा नाम अनुपलब्धि। __ अनुमान किसे कहते हैं। साधन के द्वारा जो साध्य का ज्ञान होना है उसे ही भनुमान करते हैं। ___ हेतु किये कहते हैं। जो साध्य के साथ अवि नाभावापल से निश्चित हा, अर्थात् साध्य के बिना होही न सके उसेही हेतु कहते हैं। अविना भाव किसे कहते। जो सप भाव नियम को और क्रम भाव को नियम को | धारण किये हुए हो। क्या है। । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहभाग नियम किसे कहते है। क्रम भाग नियम दिस कहते है । पचर जो सदैव साथ २ ही र पदार्थ सी का नाम सह माग नियम होता है । जैस रूप में रस गरम डीवा है वा “याप्प और व्यापक पदार्थों में अविना भाष सम्बम्प होता है जैसे वृचस्व "ध्यापक और दिश पास्व म्याप्प है। पूर्व पर और उतर पदार्थों में तथा कार्य कारणों में क्रम भाग नियम होता है जैसे कविका पद पहले हवा है और उसके से गेरियसी का पदम होता है वया अग्नि के बाद का है इस प्रकार के पाकात से निप किया जाता है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) पश्न साध्य किसे कहते हैं। श्रागम किसे कहते हैं। उत्तर जो पक्षवादी का माना हुमा को और पत्यतादि प्रमाणों से प्रसिद्धि न किया गया हो । वही साध्य कहा जाता है । अर्यात् जोसिद्ध फरला है वही साध्यहोता है। जो शास्त्र आप्त प्रणीत है वही आगम है तथा प्राप्त के वचन आदि से हाने वाले पदार्थों के ज्ञान को भागम कहते हैं। जो यथार्य वक्ता हो और राग द्वेष से रहित हो वह प्राप्त होता है क्योंकि जो जीव राग द्वेष से युक्त है वह कभी भी यथार्थ वक्ता नहीं हो सकता । किन्तु जिसका राग द्वेष नष्ट होगया है वास्तव में वही प्राप्त है और जो उसके वचन होते हैं उन्हें ही । प्राप्त वात्य करते है। __ भात किसे कहते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम पाराय मान का उपर । जिसमें तीन पा पाईमा |मैसे-माकाधा-योगमा-- और सम्निपि-- मााम्पा किस कावेरे।। एक पद का पदावर में म्पविरेक (विशेप) पयोम रिये इये प्रमय (सम्पग्म) पा भजमय (वमरया) बोनामाचा कालावी है। पोग्यता लिन पाते है। चर्य के प्रमाप (सार म रोना) का माम योग्यता है। सनिपि रिसे करते। पापा मरिकम (पीप) से पधारण करमा । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ==0) मन इसमें कोई दृष्टान्त दो । अभाव किसे कहते हैं । र जैसे- किसी ने कहा किशास्त्र शीघ्र पढ़ो। इस वाक्य में आकांक्षा योग्यता- मौर सन्निधि तीनों का प्रस्तिस है तब ही शास्त्र शीघ्र पढ़ो ! इस वाक्य से बोध हो सकता है- यदि इन तीनों पदों को भिन्न २ ता से पढ़ें। जैसेशास्त्र - फिर कुछ समय के पश्चात् " शीघ्र " कह दिया तदनु बहुत समय के पीछे "पढ़ो " इस क्रिया पद का प्रयोग कर दिया इस प्रकार पढ़ने से वाक्य से यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती अतः उक्त पथ वाला ही वाक्य प्रमाण हो सकता है । भाव कान होना नही अभाव होता है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भभ अमाप विपने कपन दिये पार । गये हैं। पम माम पक्षाभो। भाग भाग, पर्मसाबार, अस्पम्ता पाष, अन्याध्या पाप, माग माष किस पर है। मै पानीपतविरे परिल पिको में पट कामान मारा मावा रे भाद कारण म मिही वो पोती है निसर्प रूम राममार की मामा मागहै। मर्षमा पाप दिसे गाव है। मार्य रूप पर बनाया तो फिर पस पा विमारा मी मारप होगा माविमार समासा मारावे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( = 8 ) प्रश्न अत्यन्ताभाव किसे कहते 1 अन्योऽन्या भाव किसे कहते हैं । प्रतिज्ञा किसे कहते हैं... हेतु किसे कहते है । उत्तर जैसे जीव से अजीव नहीं होता अजीव से जीव नहीं बनसकता यह दोनों पदार्थ परस्पर अत्यन्ता भाव में रहते हैं इन्हींका नाम अत्यन्ता भाव है । जैसे घोडा बैल नहीं होसकता, बैल घोड़ा नहीं हो सकता - जो जिसका वर्तमान में पर्याय है उसका भावपर्यन्त वही रहता है । अन्य नहींइसी का नाम अन्योन्या भाव है । है जैसे यह पर्वत अग्नि वाखा इस बात की अनुभूति को प्रतिज्ञा कहते हैं । जैसे यह पर्वत अग्नि वाला इस लिये है कि इस से धू निकलता है - इसको हेतु केहते है 1 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( **) पद्म दारा किसे करते हैं। उपमय किसे कहते है । निगमम किसे कहते है। अनुमान माया के मुख्य किसने भेद है। पनके नाम बतायो । अचर जैसे जो जो घूम पाया होता है सा सो भाम बाबा होता है। यही पदावरण है। जो उदाहरण का प्रमाण है यही विशद पनय क जाता है। जैसे मो यो भूम पाया होता है सो सो भाग पाखा हावा है उसी प्रकार यह पर्मव भी हुएं के देखम से निषिध होगया है कि यह भी भाग पाता है। धीम । पूर्वपद साभवत् १ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन पूर्ववत् किसे कहते हैं। | जैसे किसी स्त्री का पुत्र वाल्यावस्था में कहीं चला गया जब फिर वह अपने नगर में भागया तब उसकी माता ने उसके पूर्व चिन्हों को देख कर निश्चय किया कि-यह पेरा ही पुत्र है तथा बाढ़ का ज्ञान धूम के चिन्ह देखने से आग का ज्ञान इत्यादि को पूर्ववत् कहते हैं। शेषग्न के कितने भेद हैं। पांच । उनके नाम बतलाओं। | कार्य, कारण, गुण,अवयव, भाभय, कार्य किसे कहते हैं। कारण से कार्य का ज्ञान होना जैसे शख के शन्द से शंख का ज्ञान इत्यादि , कारण किसे कहते हैं। | कारण से कार्य की उत्पचि होना-जसे-तंतुओं से वस्त्र, ।मृपिएट से घट इत्यादि, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TH गुण किसे कहते है। (ER) अवयवज्ञान किसे कहते है। सचर मुवर्ण विष से जाना भाता है अर्थात् कसोटी पर सुवर्ण गुण देते माये रे पुष्प गंध से भामा माता है, पण रस से इत्यादि । अवथम से अपनी का ज्ञान होता है जैसे-भूमसे मी का ज्ञान, दावों से हाथी का ग्राम, मोर पिच्छी से मार का ग्राम, सुर से भाड़े का ज्ञान, दो पद से मनुष्प का ज्ञान, केशरसे सिंह ज्ञान एक सिन्य मात्र के देखने से भागोंके पकनका ज्ञान, कवि का एक माया के बोलने से कमिषने का ज्ञान, इस्पादि भगवव स भगवत्री का शाम होता है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१३ ) प्रश्न भाभयेशान किसे कहते हैं। जैसे-धूम से भाग काहान पगलों से जल का शान, बादलों से दृष्टि का शान, . शीलाचार से कुछ पुत्र का ज्ञान इत्यादि को भाश्रय ज्ञान कहते हैं। __षि सापर्यवत् किसे | दृष्टि साधर्म्य के दो भेद करते हैं। है-जैसे सामान्य दृष्ट और विशेष दृष्ट २ सामान्य दृष्ट किसे कहते हैं। जैसे-एक पुरुष है उसी प्रकार और पुरुष भी होते है तथा जैसे एक मुद्रा होती है उसी प्रकार और मुद्रा भी होती हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम विशेषष्ट सेवा है। जैसे किसी न किसी से किसी स्थान पर सावा ससने पर निपप फिया रिमैंन इस को अक्षर स्पान पर देसा पा पापी पुस इस्पादि प्रत्पमिशान की विशेष रष्ट पारे। जब तुम मबार स संसार प्रियार । म इम्प रे प्रमादि मानते हो तो पर्याय में सादि सान्न भोमा बर-माप्रासादादि पाहबसाया गया हैमा जा से अनादिमों नहीं। मैन शास्त्र ही इन गे को सादि साम्त पावर, at फिर इम पासावादि को भार से मनाारसमाए देस माने-तपा या मासा दादि मा म पनाम अनादिगो पात पिस पाप से मार है-मैसेप्रबार से मनुष्य भन,दि माते । वदत् । उन पीति निपाएं मी प्रसार से मनादिर। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2) प्रश्न उत्तरे हमारे विचार में बिना | प्रियवर- जर्व तुम, जीव पनाये वो कोई पस्तु नहीं ईश्वर और प्रकृति को बन सकती। . अनादि मानते , हो तो बत लाईये यह बिना वनाये कैसे बन गये। जैन धर्म का मन्तव्य क्या 'जैन धर्म का मन्तव्य यही है कि इस अनादि संसार चक्र में अनादि काल से जीव अपने किये हुये कर्मों द्वारा जन्म मरण करते चले आये हैं अपितु वेद कर्म प्रवाह से अनादि हैं पर्याय से धर्म श्रादि हैं उन फर्मों को सम्पग- ज्ञान, सम्यग दर्शन, सम्यग चारित्र, द्वारा क्षय करके मोक्ष प्राप्ति करना ..सम्यगू ज्ञान किसे कहते उच्चा ज्ञान- यथार्थ ज्ञान। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्म बक्षण भास किसे पाते है।। मो स्वरि तो माही परन्तु आपण सरीसा पाल्म पड़े उस से सवस पास भावे मष्यामिदोष बिसे करी मोरे एक देश में हे उसको अम्बान करते हैं।" मेस गौशासषण शापवाना मात म्याप्ति दोप किसे बोलप मात्र में मकर भवाप्प में मी उसको प्रति मावि सण कावेरे मैसे-गो पायाण "प पमा पपि-गो भी पथरी परम पावरण मैंमादि में मी पापा मावा इसीलिए! या प्रति म्माधि दोपका नावा॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YO ( 8 ) मन उत्तर असंभव दोष किसे कहते। जिस का लक्ष्य में रहना | किसी प्रकार से भी सिद्ध न हो, जैसे मनुष्य का लक्षण सींग" यह मनुष्य का लक्षण किसी भी मनुप्य में घटित नहीं होता इस लिये इस लक्षण को असम्भवी लक्षण कहते हैं। स्याद्वादशब्द का क्या यह पदार्थ इस प्रकार से है और इस प्रकार से नहीं है,जैसे जो पदार्थ है वह अपने गुण में सद्रूप है पर गुण में । अझ द्रूप है इस को स्याद्वाद -कहते हैं। __था यह पदार्थ ऐसे भी है और ऐसे भी हैं इसप्रकार के . कथन को स्याद्वाद कहते हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नभ पा सम्यग् दर्शन किसे कहते । सामान "बॉ है। निष t (( 4 )) सम्यग् चारित्र किसे कहते सम्यग् शब्द किस दिये गया है। संशय ज्ञान किसे कहते है। विपर्ययज्ञान किसे व ti अनम्यवसाय ग्राम किसे कहते है। सुवावा पारिश संग्रम, विपर्यय, साप, इम दापों के दूर करने Form 1 बिस ज्ञान में संशप प हो जाये, जैसे गमाव स्वाथ्यु देषा पुरुष है" विपराध काम जैसे- सीप में पदों की बुद्धि तथा मृग शुष्णा का स जैसे मार्ग द पकते हुए, पाद में (पैर) में फटक लग गया था फिर पह विचार करमा कि-पाद में पण बगा ? इस प्रकार संशय को धनपर साब कहत है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) ( मश्न लक्षण किसे कहते हैं । अक्षरण कितने प्रकार का होता है । उनके नाम बतलाओ । श्रात्म भूत लक्षण किसे कहते हैं । अनात्मभूत लक्षण किमे कहते हैं । उत्तर निधारित वस्तु समूह में से किसी एक विवक्षित वस्तु का निर्धार कराने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं । दो प्रकार का । आत्मभूत लक्षण और अनात्म भूत लक्षण,, जो वस्तु के स्वरूप से भिन्न न हो उस को आत्म भूत लक्षण कहते हैं, जैसे अनि का लक्षण उष्णता "यह लक्षण अग्नि का आत्म भूव कहा जाता है । जो श्रात्म स्वरूप से भिन्न हा उसी को अनात्मभूत लक्षण कहते है- जैसे, दण्डे -वाले को लाओ "यह दण्ड लक्षण” “श्रनात्म भूत कही जाता है" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण मास किसे करते है।। मो गस्तविक पण को मी परत खपण सरीसा मालूम पड़े नस को बस पास फाते है मम्यामि दोप रिसेदार नो परे एक देश परपस भेष्यात पाते हैं। जैसे गौशसण शापळपना! भात म्याप्ति दोष किसे| भो गल्प मात्र में पर कावे। पशप में भी रेस प्रति म्पाप्तिपणकाते। मैसे-गो का स्म "पशु पना" पाप-गो भी पथ है परम पार पत्रण #सादिमें मी पापा मावासीलिए। या मवि पाति रोप का जाता॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) प्रश्न उत्तर असंभव दोष किसे कहते । जिस का लक्ष्य में रहना किसी प्रकार से भी सिद्धन हो, जैसे मनुप्य का लक्षण सींग। यह मनुष्य का लक्षण किसी भी मनुष्य में घटित नहीं होता इस लिये इस | बक्षण को असम्भवी लक्षण कहते हैं। स्पाद्वादशब्द का क्या| यह पदार्थ इस प्रकार से है और इस प्रकार से नहीं है,जैसे जो पदार्थ है वह अपने गुण में सद्रप है पर गुरण में नाम द्रूप है इस को स्याद्वाद कहते हैं। सथा यह पदार्थ ऐसे भोरे और ऐसे भी हैं इसप्रकार के | कथन को स्याद्वाद कहते हैं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा है। (10) मम मास्मा का,मास्मस्व क्षक्ष । पैतम्पवा-उपयोग और ण कौनसा है। बसवीर्य या दोमों सघण पास्मा के मात्म सूत है मनास्म भून लपण फोन | जैस u मापी मास्मा पादि ऎकि माप के परमाणु भात्मा स्म भूत में मही पोटे पिन पास्वप में प्रसास्सिाप भाद्रम्प है गग परे कारण से पा परमाणु मारमा में मातेर-परिपन का पारम मन का माए वो पारमी मी मारमा से पृपफ् म रोप परम्न मारमा रम परमाणुगों को बाहर मापा मावा पानीपम एकामावा। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवां पाठ। (श्रमणो पासक विषय )। प्रिय सुज्ञ पुरुषो ! इस भसार संसार में सदा चार ही जीवन है सदा चार से ही सर्व गुणां की प्राप्ति हो सकती है जिस जोव ने सदा चार को मित्र नहीं बनाया उस का जीवन इस संसार में भार रूप ही होता है,, क्योकि-यदि सदा चार से रहित जीवन है तो उस का जीवन पशु के समान ही होता है। खान, पान, भोग, शीत, उष्ण इत्यादि जा पशु कष्ट सहन करते हैं वही कारण सदा चार स पतित जीव को मिल जाते हैं आदर्श रूप वही जीव बन सकता है जो सदा चार से अलंकृत हो, जिस का जीवन पवित्र नहीं है, उस का प्रभाव किसी पर पड़ नहीं सकता, धर्म पथ से भी वह गिर जाता है, लोग उस को मुष्टि स नहीं देखते हैं। . . अतएव ! मनुष्यों के जीवन का सार सदा चार ही * संसार पक्ष में अनेक प्रकार के सदा चार होने पर भी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) मुनियों की संगति पना और प्रन को यथोचित सरा परना पर परम सरप दोति का सदा पार का भंग है, पाव से मारपा प्रमाबार बा रोमे पर पी साधु संगवि से पशिनी हवे प्रकार से सदा पार रेफर को अपरम्प नहीं कर सकते मान और विज्ञान से रे पपक्का र नाते।। इस लिये ! भो साधु पणों से युक सनि है पमी माम भमण है सदा पारियों के लिये मा "सपास्पm हैसहा पारी उसके उपासक बाइसी लिपे ! सदा पारिपों का नाप, “भमणो पासकर का नाता है, मपितु सदा पार की प्राप्ति गणों पर ही निर्भर है। गणे की प्राप्ति करमा पस्पेक पछि अरूप पम्पहै पा एण कही म प्राप्त हानाएं पर्स से ही खे लेने चाहिये। सबनो । गण हो बीवन का सार है एणों से भीर सरकार का बन समवेद, पण्ठिा मी पणों से मित साती मेन प्रन्पों में अपणो पासा " राण पर्सम किए गपे। मेसे fr Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) ___ १ जुद्र वृत्तिवाला न होना और अन्याय से धन उत्पम न करना क्यों कि- जो अन्याय से धन उत्पन्न करते हैं वे सदा चारियों का पंक्ति में नहीं गिने जाते न वे धन्यबाद के पात्र ही हैं मित्रो ! अन्याय करने का फल कभी, भी अच्छा नहीं होता इसलिये अन्याय न करना चाहिये, और क्षुद्र वृत्तिवाला पुरुष सभ्यता से गिर जाता है सदैव पिशुनता (चुगली) में ही लगा रहता है और धर्म कर्म से गिर जाता है उस लिए ! पहिला गुण यही है किअनुद्र होना । २ रूपवान्-जैसे कोकिला का स्वरूप है कुरूपों का विद्या रूप है उसी प्रकार मनुष्यों का शील रूप हैं जो पुरुष शोल से रष्ठित होता है वह शरीर के छन्दर होने पर भी असुन्दर ही गिना जाता है लोगों में माननीय नहीं रहता-यदि उसके पास धन भी है तो भी वह सभ्य पुरुषों में निंदनीय ही होता है जैसे-रावणअतिसुन्दर होने पर भी लोगों में उस की सुन्दरता नहीं गिनी जातो अपितु जिन पुरुषों ने अपने शोल को नहीं नोटा और प्रतिज्ञा में दृढ़ रहे हैं वे संसार की दृष्टि में पूजनीय हैं। अतएव ! सदाचारियों का रूपशील है यद्यपि की इन्द्रिय पूर्ण, शरीर निरोग्यता यहभी गुण रूपवान, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1 ) केमिने भावे और इनी मणों से रूपपान का बाणा है परन्तु वास्तव में सीव मण ही प्रमाम मामा मावा । माएर ! या गुण भपरप ही धारण करने चाहिये। ३मकृवि सौम्प-स्वमाष से शुभ दप पाता होमे-पोजिमा प्रापार ( भागम )ीक होगा तप ही उस में मुम निराम पर सकते हैं-मिन की प्रकृति कठिन मा कठिन है ये कदापि धर्म के पाग्य नहीं है। सम्वे-मण भूमि में । शुद्ध पीन की उत्पत्ति हो सती है जो भूमि मशयो रस में गुदमीम भी मेकर मरोंद सकता इसी प्रकार मिस भारमा र दप शुद मावि सोम्य है यही गुणों का मामन हो साचार मैस पराभों में मो-पय-मादि बीर टिच मावि पान नाकारण लामों मेम २ पाप न माव? और गिस (श्यास ) बापड़ी पिचा प्रादि भोप सरल भौर सौम्प पति पाखे म हाने से पेरिसास पात्र नरीत भए । प्रकृति सौम्प मारप ही मी पाए। हारिप-अपन गणों द्वारा बोर में मिपमा वीर पोंरि-पिप अप परने वाला और मित्र Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.५ ) बोलने वाता किसी को भी अप्रिय नहीं लगता जो उक्त गुणों से गिरे हुए हैं वे किसी को भी पिय नहीं लगत क्यों कि लोक तो जिस प्रकार देखते हैं उसी प्रकार कष्ट देत है अतएव लोक प्रिय वनना अपने स्वाधान हो है जब अवगुणों को छोड़ दिया तब अपने आप सब का प्रिय लगने लग जाता है-जैसे क्रोध,माया, लोय, छल, चुगली, धूर्तयना, हठ, इत्यादि जव अवगुणों को छोडदिया तद लोक प्रिय वनना कोई कठिन नहीं है फिर उत्तम वही होता है जो अपने गुणों से सुप्रसिद्ध हो-किन्तु जो पिता के नाम से प्रसिद्ध है वह मध्यम है इस लिये ! उत्तम गुणों द्वारा लोक में सुप्रतिष्ठित होना चाहिये। इसी से लोक में वा रानादि की सभा में माननीय पुरुष बन जाता है। ५-अकरचित्त-चित्त क्रूर न होना चाहिए-जिन मात्माओं का चित्त क्रूर होता है वह निर्दयी कहलाते है क्रूर चित्त वाले प्रात्मा किसी पर भी परोपकार नहीं कर सकते वे सदैव औरों को छलने के भावों में लगे - रहते हैं उन के सामने यदि कोई हिंसादि क्रियाएँ करते Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( n) मैं फिर भी पा पाई रिच नही होवे क्या र विष पाचे पीप पार्मिक कार्यों में भी माग नहीं नेत नसे पार्मिक मनों को भेष्ठ सी, समझो रे भपितु उन से सदैव कर दी गर्म होता है बिन फल उनके लिए पय पोनि पा नरक महि है। सम्मों । इस पखपण पाना मीप पदापि मेप पर्म में पपिए नो दोवा मैम साप का दिप पगलने व समाप होता है ठोसमी प्रसार प्रापिच का जीरा ससमाप मी निर्दए माग में दीपावएप सदापारी नीय का प्रपर विच पाता दी हाना चाहिए । -मीर-पाप कर्म करने से मप मानना पी भीरशमा पराव पापकर्म से सदैव मप मानता रोम खो-साप मामिलादि पशुओं से परवपाशन से म मानत परामादि म भप मानकर पसी मकार पापधर्मामी मप मामना चाहिए क्योंकि नार्म किपा गपापा फल प्रपरपमेव देगा भाष! पाप करत मप साना पाहिए, फिम्नु पमेपर एनिमी बन जाना पारिय-माता पिता का रामारि यी परि पर्म से प्रति Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) कूल उपदेश दें तो उसे भी न मानना चाहिए किन्तु यदि देवते भी धर्म से गिगना चाहे तो भी न गिरना पाहिये, अतएव सिद्ध हश्रा शिपाप कर्म करते समय भय मुक्त और धर्म करते समय निर्भीक बनना मुपुरुषों का मुख्य कर्तव्य है। . ७-अशठ-धर्त न होना-जो पुरुष मायावी होते हैं वह भी धर्म के योग्य नहीं होते क्योंकि-माया (छल ) नाम एक मकार श्राभ्यन्तरिक मल है जब तक वह श्रात्मा से निकल न जाये तव तक आत्मा शुद्धि के मार्ग पर नहीं धासकता जैसे किसी रोगी के उदर में मल विकार विशेष स, फिर उस को बल प्रट औषधी भी फलदायक नहीं हो सकती जब तक कि-पल र निकल जाये। जव मल निकल जाता है तब उस का औषधियों का मेवन मुख भद हो जाता है उसी प्रकार जव आत्मा के अन्तामरण से माया रूप मल निकल जाता है तब उसमें भी ज्ञानादि ठीक रह सकते है, इस लिये! सदा चारी पुरुष धृतना से रहित होने चाहिये। -दाक्षिण्य-निपुणता होनी चाहिये-क्योंकि-जो पुरुष निपुण होते हैं वही धर्मादि क्रियाएं कर सकते हैं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) चिन्तु मो मृहमादि गुणों से युक रेन से पार्मिक भादि किनाएं होमी भसम्मर प्रतीत होती है क्योंकिशास्त्रों में लिखा है कि-तीम भास्माएं शिवारेमपोग्प मैस शि-दुष्ट, मूर्ख, और पी, या वीनों पात्मा शिक्षा के प्रपोग्प से हैं यपाप मुख किसी माम पीरिनु मो अपने हित की माता नहीं सुनवा stो उस को मामा नहीं है उसी का माम दिमो मुले का ज्वर भावेश है। गया सिस के फिर वोप पर माम लग गपा हा सस्टर सार में पूषा दिवस पर निस्प मति माता सन पर में निपदन ।पा हिमता सानि नहीं पाता किन्तु एकदिन मावा पनि गोमाता तो फिर रास्टर सार सा का मकान है निगम वारी परवा समेत हिनी साप पामर तो समेत सामगे, कि भाई, इसापा पस नखे न का किवा इस पारी मी सकता फिर राग सार ने माननादासनगरम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) साहब मैं चारी उस को मानता हूँ, यदि एषः दिन ज्वर आप को चढ़ जाए और एक दिन मुझे च: जाए, जब ऐसे हो जाए तो मैं वारी मानंगा, इतनी बात सुन कर डाक्टर साहव हंस पड़े, इससे सिद्ध हुषा कि मूर्ख किसी का नाम नहीं है जो हित की बात नहीं समझता वही मूर्ख है-गृहस्थ को दाक्षिणए होना चाहिये। 8-लज्जालु-अकार्यों से लज्जा करने वाला, पाप कर्म करते समय लज्जा करनी चाहिये, लज्जा से ही गुणों की पाप्ति हो सकती है जो पुरुष निर्लज्ज होते हैं वे पाप कर्मों में प्रवेश कर जाते हैं, इस लिए! माता, पिता, गुरु, स्थविर (बृद्ध) इत्यादि की लज्जा करनी चाहिये, पापों से वचनी चाहिए, पुरुषों और स्त्रियों की लज्जा ही प्राभूषण है इसी के द्वारा धर्म पंक्ति में आसकते हैं काम विगडते हुओं को लज्जा वाला पुरुष ठीक कर सकता है अतएव सिद्ध हुमा लज्जा करना सुपुरुषों का मुख्य कर्तव्य है। १०-दयालु-दया करने वाला त्रस और स्थावरों की सदैव रक्षा करने वाला इतना ही नहीं किन्तु जो Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) किन्तु मो मुलादि गुणों से युफ रेपन से पार्षिक भारि विमाएं होनी असम्भव प्रतीत होती है क्योकि मानों में लिखा है कि-तीम भास्पाएं शिक्षाभियोग्य २ मैसे कि-दुष्ट, मूर्ख, और केसी, या वीनो माया शिक्षा अपाय हा है यापे मूस किसी पनाम नहीं है किन्तु भो अपने दिल की पानी नहीं धनवा पनि सुरक्षा तो उसको पामता नही है पसीना पार मर्स है स किमो मूर्ख का पर भाषण हो गया कित पसके। फिर वोप पर मान ग गण म सक्टर साहब मे पूषा रि-में सर मिस्स प्रवि भावा हैवा अस ने उत्तर में निवेदन दिया रि-गटा साल मिल पति तो नहीं पाता किन्तु एक दिम भाता है और परिन मीभावा वो फिर सापटर साप में का नाग में गारी पर है वो उस ने पचर में का मी साप, पानी का मर वो मुझे नी गटर मापकाने शगे, कि, भाई, इसी का पाकाचो HAमर्स ने करा दिम वो इस पारी मरी मान सकता. फिर राष्टर साहब ने का हि-तम पारीसे मानवे हा हा सनसपटा पाप से का रि-गार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) साहन में बारी रस को मानता हूं, यदि एक दिन ज्वर आप को चढ़ जाए और एक दिन मुझे च जाए, जब ऐसे हो जाए तो मैं वारी मानूंगा, इतनी वत सुन कर डाक्टर साहब हंस पड़े, इससे सिद्ध हुआ कि मूर्ख किसी का नाम नहीं है जो हित की बात नहीं समझता वही मूर्ख है - गृहस्थ को दाक्षिण्प होना चाहिये । 1 लज्जालु - श्रकार्यों से लज्जा करने वाला, पाप कर्म करते समय लज्जा करनी चाहिये, लज्जा से ही गुणों की प्राप्ति है। सकती है जो पुरुष निर्लज्ज होते है वे पाप कर्मों में प्रवेश कर जाते हैं, इस लिए ! माता, पिता, गुरु, स्वर (बुद्ध) इत्यादि की लज्जा करनी चाहिये, पापों वचना चाहिए, पुरुषों और स्त्रियों की लज्जा ही भूषण है इसी के द्वारा धर्म पंक्ति में आ सकते हैं काम विगड़ते हुओं को लज्जा वाला पुरुष ठीक कर सकता है अतएव सिद्ध हुमा लज्जा करना सुपुरुषों का मुख्य कर्तव्य है । से 1 १० - दयालु - दया करने वाला त्रस और स्थावरों की सदैव रक्षा करने वाला इतना ही नहीं किन्तु जो ५· ' Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.) अपने उपर भपकार करने पाछे है पनों पर मी का माप करने वाला रे-क्योंकि महाँ पर दया के मारे पहा ही पर्म र सातामा दया मारहो मी वो फिर यहाँ पर इष भी यही है इसलिया पनीरों पर क्या करना पी अपुरुषों का सपण रिम विसा चीन मार से क्या की गई है जैसे मन, पाणी और कांग, मन से किसी रेशनिकारक मार न रमे पाहिये पाणी से पडा पवन म पोजना पारिये, पाय में किसी को पीड़ा न देवी पारिये, निस के वीनों पोगों से पारे भाषा सर्व प्रकार से स्यानु का जा सकता है प्रतएव यापान री एणों का मामन बन पाता है। ११-पापस्व-माप्पस्प भाष को प्रगमन गर्ने वाला परि कोई कार्य विपरीव किसी ने पर दिया है तो स को शिक्षा परमी वा मारपीपलसर पर ग प म करना चाहिये, पोरि मिसन सिमरियारेसा पर पो सिमे पोगा ।' पान उसके ऊपर रागोप करके अपने पर्म नपने पारिय, शिक्षा करमा पुरनों का पर्म है मानना में मामला Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } ( १११ ) इस की इच्छा पर निर्भर है इस लिए ! जो श्रेष्ठ गृहस्थ हैं वे सदैव मध्यस्थ भाव का अवलम्बन किया करते हैं जो पुरुष माध्यस्थ भाव का अवलम्वन नहीं कर सकते हैं वे धर्म में भी स्थिर भाव नहीं रख सकते है, अगव सिद्ध हुआ कि पाव्यस्थ भाव अवश्य ही अवलम्वन करना चाहिये । १२- सौम्य दृष्टि-दर्शन मात्र से ही मानन्दित करने बाला, जिस की दृष्टि सौम्प होती है उस के मस्तक पर क्रोध के नहीं दिखाई पढ़ते इस लिए ! जो उसके दर्शन कर लेता है उस का मन प्रफुल्लित हो जाता हैक्रोध, मान, माया, और लोभ के कारण से ही क्रूरदृष्टि हुमा करती है जब उस के चारों रूपायों मन्द हो जाती 1 हैं तब उस आत्मा को दृष्टि भी सौम्य दृष्टि वन जाती है इसलिए ! यह गुंछ प्रवश्य ही धारण करना चाहिये । ↑ १३- गुण पक्षपाधी - गुणों का पक्ष पाव करना चाहिए किन्तु जो कुल क्रम में कोई व्यवहार भा रहा हो किन्तु वह व्यवहार सभ्यता से रहित है तो उस के छोड़ने में पक्ष पात न करना चाहिए तथा यदि मित्र , Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) 11 अपने ऊपर भपकार करने पाते है पर भी बाँ भाव करने वाला हो-बयोंकि जहां पर दया के भार है वहाँ ही धर्म रह सकता है दया के मान ही नहीं है वो फिर वहाँ पर कुछ भी नहीं है इसलिय 1 सब भीबों पर दया करना ही पुरुषों का लक्षण है किन्तु हिंसा तीन मकार से कपन की मई है जैसे मन, बाछी और कार्य, मन से किसी के हानिकारक मा न करने चाहिये पास से कटुक वचन न बोलना चाहिये, काय मे किसी को बीड़ा न देनी चाहिये जिस के वीमों योगों मे दया माब है वह सर्व प्रकार से दयालु कहा जा सकता है अव दयावान् ही गुणों का भाजन बन गया है। ११ - माध्यस्य- माध्यस्व मार्ग को भरकम्पन करने माला यदि कोई कार्य विपरीत किसी न कर दिया इस को शिक्षा करीता आवश्यक है किन्तु उस ऊपर राग द्वेप न करना चाहिये, क्योंकि मिस नै धनु चित कर्म किया है उसका तो उसन भोगना लेने परन्तु उस के ऊपर रागद्वेष करके अपने कर्म न चाहिय, शिक्षा करना पुरुषों का धर्म है मानना में माना 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर किन्तु यथार्थ ही कहने वाला होवे । तथा--जो हर मत वाले असत्कथा करने वाले हैं उन के संग को छोड़ दव या असत्यकथा करने वालों की प्रशंसा भी न गरे पोषि-उन की प्रशंसा करने से अज्ञात जन उन्हों पर विश्वास करने लग जाते हैं तब उसका परिणाम अच्छा नहीं निकलता अतएव ! सिद्ध हासि-सत्कथा "स्वपक्ष युक्त होना यावश्यकीय है तभी गुण आ सकते हैं। १५-दीर्घ दर्शी- जो कार्य करना हो, पहिले उस को फला फल जान लेना चाहिए जब विचार से काम किया जायगा तब उस में विकृतिपणा उत्पन्न नहीं होता पदि हर एक कार्य में औत्सुक्य ही किया जायगा तो फिर न तो कार्य ही प्रायः मुधरता है और नहीं लोगों में प्रतिष्ठा मिलती है तथा बहुत से कार्य ऐसे होते हैं जिनके करते समय तो अच्छे लगते हैं किन्तु उन का परिणाम अच्छा नहीं निकलता और बहुत से कार्य ऐसे भी हैं जो करते समय तो यश विशेष नहीं मिलता परन्तु परिणाम में उस का नाम सदा के लिए स्थिर हो जाता है क्योंकि जो बुदि काम बिगाड़ करउत्पन्न होती है यदि वह इद्धि पहिले ही उत्पन्न हो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपप में खड़ा हमारे और शरीर मार्म पर सिव वो रस समय गुणों का पक्ष पाव भरमा पारिए। भपित र परमा मध्यामही है-मो पुटप एसों में पर पादिया सबको ही मिन, चिन्तु पह किसी का मी शनी प्रचएए । सो का पत्र पाव करना सम्प पुरुषों का सम्म पर्वम्परेनो गणों के पत्र पाती नहीं है किन्तु राग पप रो दिसा गरे पम के योग्य महीं गिने बासे-मता एणों का ही पस पात करना चाहिये। १५-सस्कया सुपर एक-सरमा करने गया और सपर से पुल मर्याद-पपा पाने पाखा, घय मावि पाता मा अपने निर्णय लिए हुए सिदाम्त में रहता रसन पाला हामा पारिए-ससियाम्स में पूर्ण हवा जोमाने हो फिर प्रसतरारापि म फरमी पाहिपे, पदि ऐसे का नाप कि-अप ग्स का सिद्धान्त पर तो फिरपा मसलपा से हर सातारको रसा सापान इस पर रिया भाषा -सस्प सामा नमा नपरास्पादि प्रिपामा कमी ममत्यापारिन Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) करे किन्तु यथार्थ ही कहने वाला होवे । तथा जेः हर 1 मत वाले असत्कथा करने वाले हैं उन के संग को छोड़ देवे या rear ear की प्रशंसा भी न करे क्योंकि वन की मशंसा करने से अज्ञात जन उन्हों पर विश्वास करने लग जाते है तब उसका परिणाम अच्छा नहीं निकलता श्रतएव ! सिद्ध हुआ कि सत्कथा "स्वपक्ष युक्त" होना श्रावश्यकीय है तभी गुण आ सकते है । - १५ - दीर्घ दर्शी - जो कार्य करना हो, पहिले उस का फला फल जान लेना चाहिए जब विचार से काम किया जायगा तब उस में विकृतिपणा उत्पन्न नहीं होता यदि हर एक कार्य में औत्सुक्य ही किया जायगा तो फिर न तो कार्य ही प्राय: सुधरता है और. नहीं लोगों में प्रतिष्ठा मिलती है तथा बहुत से कार्य ऐसे होते हैं जिनके करते समय तो अच्छे लगते हैं किन्तु उन या परिणाम अच्छा नहीं निकलता और बहुत से कार्य ऐसे भी हैं जो करते समय तो यश विशेष नहीं मिलता परन्तु परिणाम में उल का नाम सदा के लिए स्थिर हो जाता है क्योंकि जो बुद्धि काम बिगाड़ करउत्पन्न होती है यदि वह बुद्धि पहिले ही उत्पन्न हो - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('{{62)) मा म वो लोग ही ऐसे और नहीं काम बिगड़े व जो कार्य करना हो उस के फक्षा फेल जानने के लिए दीर्घदर्शी होना चाहिये यदि दीर्घ दश गुण उत्पन्न म किया जाएगा या हर एक काम में प्रायः इसी काही होना बना रहेगा। १६ - विशेष गुण और भय के मानने पा होना चाहिये। क्योकि -मास भरे गुण की परीक्षां नहीं कर सकता वह कदापि धर्म की परीक्षा भी नहीं कर सकता जिस की बुद्धि में पद्मपाद नहीं है वही गुण और अबगुण को स्वाम में लग जाता है जिसकी बुद्धि पक्षपात से पक्षीमस हा रही है तो मला फिर वह गुण और भगुण की परीक्षा कैम कर सकता है जहाँ पर हाउस का राग है पर यदि गुण भी पड़े माँ हवा उसका ता वह गुस्साई देते हैं यदि उसका राग नहीं है वहाँ गुण होन पर मा चरण प्ट गोबर होते अप होना आवश्यकोप सिद्ध हो गया विशपक हे ना हा छों की परीक्षा करना है। १० दानुगःदों की शेश पर पलने वालामाता पिता गुरु यादि निमय करने में हर एक प Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) ૨૨૫ की प्राप्ति हो सकती है यदि विनय न किया गया तो हर एक गुण भी अवगुण हो जाता है, जैसे जल के सिंचन करने मे वृत्त प्रफुल्लित हो जाता है उसी प्रकार विनय से हर एक गुण की हो जाती है वृद्धों के पथ पर चलने से लोकापवाद भी मिट जाता है अपितु वृद्धों का मार्ग यदि मार्ग हे। वे वो, यदि वृद्धों का मार्ग धर्म से प्रतिकू है। वे तो उस के त्याग देने में किंचित् मात्र भी संकुचित भाव न करने चाहिए जैसे- बहुत से लोगों की कुल क्रम से मांस भक्षण और मदिरा पान की प्रथा चली आतीहै तो उस के त्यागने में विलम्ब न होना चाहिये, और बहुत से कुलों में वार्मिक नियम कुल क्रम से चले आते हो जैसे- “ जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या संग, परनारी सेवन, चोरा. शिकार" इन का त्याग चला भाग है तो इन नियमों को ताड़ना न चाहिये चा-सम्बर, सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, के करने की जो प्रथा चली आती हो वा उसे भग न करना चाहिये और विनय धर्म का परित्याग भी न करना चाहिये यही “वृद्धानुग" है । १८ - विनीत- विनयवान् होना चाहिये - विनय से विगडे हुए फाम सुधर जाते हैं विनय धर्म का मूल 'है F Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिनप करने से शान की मी शीत पाक्षि मानी पिनय से सस्पप में मामो भाता है, जैसे पुपर्म और रोपीहर पकाया रहती हैमी प्रकार मिनपवान् की पी इचा सम का लगी वीसी प्रतिष्ठापा भावी पास के लिए भापार रूप रोमावा है-शापों में पीसा के पारण से पा सप मानों पर पादर पावारेमाएप! सब भीबो को गिनपान होना पाहिये। १४-कम-कवा मा पाहिये-मिस म किसी समय सपकार कर दिया है सस सो विमत न करना पार-~अपितु उस किए इए पकार । स्मरण पर उसका सपकार रिशेप मामना पारिये, पपीकिशास्त्रों में लिसा कि-पार कारणों से मास्मा अपमे एणों का नाश पर पैठन (मैसे हि-अपरम से, और इसों की पा करम से २, पिणाम ३, सन ऐम स सवा सपामाई भी पापमही बवाया गया इस सिप ! तमामा पारिप । पपिण मोकवान हो र पिरणास पात्र मी राये मोर मैस सी पनि बोड़ भागे पासपहुये सराबर का पषि मारमा पसी पकार मान पुरस वा सम्मन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) पुरुष भी छोड़ देते हैं । सा कृतज्ञ भी बनना चाहिये । २०-परहितार्थ भारी-सब जीनें का हितैपो होना श्रावक का मुख्य धर्म है-वा-जिस प्रकार उन जीवों को शान्ति पहुंचे थवा घन्य जीवों के कष्ट दूर होवे उसी मकार श्रावक को करना चाहिए । परोपकार ही मुख्य धम है जो परापकार नहीं कर सकता उस का जीवन संग्गर में भारं रूप ही माना जाता है-ज्ञान में माथ परोपकार करना यह परम शुरवीरता का लक्षण है। परोपकारी सर्व स्थानों पर पूजनीय वन जाता है । तीर्थकरों का नाम आज कल इस लिये लिया जा रहा है कि-उन्होंने असीम भर संसार भर में उपार किया. लाखों जीवों को सन्मार्ग चे स्थापन किया उसी कारण से वह मदा अमर हैं और सब जीवों के आश्रय भूत हैं मतः परहितार्थकारी बनना गृहस्थ का मुख्य धर्म है। - २१-मुघलत-माता पिता-गुरु आदि की चेतना देख कर उनकी इच्छानुसार कार्य करने और धनको प्रसन्न रखना यही लन्धन नठा है तया धर्म दानादि में भग्रणीय बनना इतना से नहीं किन्तु धर्म कार्यों में Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपिड भाग लेना और बोगों से पर्म गणेम सारित करना पा सहिपायें जम्पक्षता में गिमी बावीरे तास्पर्प-या -पारम्पान श्रेष्ठ र रेम में बिना रोप्टोकरे भागे रोमाना, इसमें कोई पी सामी कि संसारी कार्यों में बाग पाणीप हो हो मोपामिार्यों में अग्रणीय पनना है यहो पशूपीर वारा सम्रण है पर्म दान भोर भपर्म वाम त पर स्पर इसाना भवर है जैसे पागम्या पोर पौर्णमासी का पर पा अन्तर है, इसी मकार मो पर्मदान रिया मावा है माता पार्समासी / समान है और मो अपर्यशान है पा मावस्या की भी फ तुम्प है। यदि ऐसे पता मार रिपमदाम कौनसा है और मपम ममा हैदो इम पता हनना ही है कि-मित दान रन से धर्म तार्यों में सरापमा पप पा पर्मियों को राशनाये पसे ही पमेरान कावे । तपा निस दान करने से अपर्म डी पोपण सेरिसद हो सो अपमें रान खावारे मेस सि पुरुषों की सहायता करना पौर पनर ए Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०.११६ ) गये कार्यों की अनुमोदन करना यही अधर्म दान है। सो-धर्मदान करना सस्थों को मुख्य धर्म है शत्पुव! सम्पलक्ष गुण पाला गृहस्य को अवश्य ही हाना और गृहस्थों का यह भी नियम शास्त्रों में वर्णन किया गया है कि-न्याय से लक्ष्मी उत्पन्न करते हुए गृहस्यों के योग्य है कि-पदि वे अपने समान कुल में विवाह करते है तब तो वे शान्ति से जीवन व्यतीत कर सकते हैं नहीं सो प्रायः अशान्ति उनकी बनी रहती है 'वथा देशाचार को जो नहीं छोड़ता है वह भी धर्म से पराकमुख नहीं हो सकता---यह बात मानी हुई है किजिस देश की भाषा पा वेष ठीक रहता है वह देश उन्नति के शिखर पर जा पहुंचता है, जिसकी भाषा और देष विगढ़ जाता है इस देश की उन्नति के दिन पीछे पड़ जाते हैं, जो गृहस्थ देश धर्म को ठीक प्रकार से समझते हैं धे भुत बा चारित्र धर्म को भी पालन कर सकते हैं। फिर किसी के भी अवगणवाद नबोलने चाहिए Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९." किन्तु मो प्रम्पप पुस २ रनपा अपएस पाद विशेष पन पोग्य सापही जो गास्प माप (नाम)मा (सरप) साविक गम है ये कमी मी माविष्ठापी हानि वाला मनुमय मी करत मो इन बातो काविचार कम रमने हैमस्विम दासों की मनमारते। पौर पम से मा रमकी रषि कम हो जाती है प्रव एष ! ममणोंप सी के पास साथ ही अनेक मौर गुणों के पारस रन की पावरकवा है। नर एसो ा समा इमारो पाएमा, वारे पपेर मुसों दी पाप्ति कर सकेंगे, पापप ! सिर इमा -रा, प्रावि, मोर पर्मी , पडी सेवा कर सकता जो परिसे अपन एणो (सम्पा) से मानवा हो-मा सपनवेम्पों का भाम र परिकी प्रवरपको सेवा करनी पाए। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) ग्यारहवाँ पाठ। (श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी जी) - 'प्रिय पाठका ! जिस महान् आत्मा हा आज हम पाप को कुछ परिचय देना चाहते हैं वे परम पूज्य जगत् मसिद्ध श्री भगवान् महावीर स्वामी जी हैं जिन का कि दसरा नाम श्री वर्दमान भा है-यह भगवान् जैन धर्म के अंतिम चौवीसवें वोर्थ कर थे इन का समय बौद्ध सम कालीन का था जिस को आज २५२० वर्ष के लगभग होते हैं या महात्मा इस्खो-५६६ वर्ष पहिले इस भारत चप के क्षत्रिय कलपुर नामक नगर में जा उस समय परय रमणीय रूप गणा से पूर्ण या पानी के अतीव होने के कारण स दुमिन का तो वहां पर अ'भार ही था किन्तु राजा के पुण्य के प्रभाव से सवे प्रकार के उपद्रव वहां शान्त हो रहे थे, मरी मादि रागों से भी लोग शान्त ये फिन्तु नई से नई कलाओं का भाविष्कार करने ये -जिस के कारण से वा "क्षत्रिय कुण्ड पुरा ग्राम ग्राम की अवस्था को छोड़ कर राजधानो की दशा को प्राप्त . हो गया था। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९९) पारों मोर जाममर मारामों और मसालों से पशोभित होगाचा पीर पापार लिये पर नगर "वैद्रस्थानमागमा मासमाव भीति में प्रशख "शास्त्र पिसारदा सर्प रामाभों के पुखों से मकव-मावशीय मिदार्प पाराम प्रशासम बरसे ये मिन के न्याय से पमा पत्यम्त समतो इसी कारण से प्रमा मार से मरे मकार से प्रपद्रों की याम्सि मी काला राबता की प्रत्यन्त पृदि होती माती की महागमा सिदा सपछोटा भाई मी याबो "सपा सा माम से समसिद पा महागमा के भनारंग कार्यों में महापरपा भार पहागमा सियार्य की गणी नाम मिशक्षा प्राणी पाना स्त्री एणी (बसपा) समकव पी। पतिमा प्रग्वः करण से पालन करतीपी "सतिमों में निरोपणी पी मवएपमारामा साप मिस पा पापम्प स्नेहपा मिस से गा मी "दिम दो पनी राव पोपनीपाप से पदि मात पर सीपी। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) महाराजा के एक "नन्दि बर्द्धन" नाम वाला कुमार 'बामा ७२ कलाओं में निपुण और राज्य की धुरा को मेम से उठाए हुए था इसी कारण वह "युवराज" 'पदवी का भी धारक था और उस की एक कनिष्ठा भगिणी "सुदर्शना” नामा थी' जो शीलवती और सुशीला थी, “महाराजा सिद्धार्थ" श्री भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु के मुनियों के श्रावक थे, और श्रावक वृत्ति को ममता पूर्वक पालन करते थे । 1 एक समय की बात है कि महाराणी " त्रिशला " जब अपने पवित्र राज्य भवन के वास भवन में सुखशय्या में सांई पड़ी थी, तब अर्धरात्रि के समय पर महाराणी ने १४ स्वम देखे जैसे कि ,,हाथी १ वृषभ २ सिंह ३ लक्ष्मी देवी ४ पुष्पों की माला ५ चन्द्रमा ६ सूर्य ७ ध्वजा फल सरोवर १० चोर समुद्र ११ देव विमान १२ रत्नों की राशि ९३ अग्नि शिखा १४" । जब राणी जी ने इन चतुर्दश स्वप्नों को देख लिया तब उसकी भांख खुल गई फिर वह अपनी शय्या से उठकर महाराजा सिद्धार्थ के पास गई Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (" १२४) / फल पवार क्यतिथियों के रात्रा को मधुर बायों से जगा कर अपने माप हुए चैदः स्वमों को विनय पूर्वक निवेदन किया? जिनकर सुन कर महाराणा भरवन्द प्रसान हुए और राणी' से कहने लगे कि 1 हे दबी तूने मट्टे पत्रों को देखा है जिसका फल यह होगा कि हमारी सर्व प्रकार की सृष्टि त हुए चक्रवर्ती कुमार उत्पन्न हमा | इस प्रकार राणी के स्वम राजा ने अपन नगर चौदह स्वमों के फलादेश को पूछा व पर्यो न कहा कि हे राजन् ! इन स्वप्न फवा देश से यह निश्चय होता है कि आप के घर में एक ऐसे राज कुर का जन्म हे गा मा कि चक्रवर्ती या वीर्यर देव होगा जिनकी मोडमा का विवरण हम नहीं कर सकसे व श्री महाराज ने उन स्वम पाठकों का सरकार और पारितोषिक देकर विसर्जन किया किन्तु धर्मी दिन स महाराणी भी शास्त्रोक विधि के अनुसार गर्भ रचा करने लगी फिर सवा नौ बोस के पश्चात् चैत्रा १३ प्रवादशी के दिन इस्य परा फार मन के बाग में भाषो रात्रि के समय में भी भ्रमण गाम् माव सुखा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) महाबीर स्वामी का शुभजन्म हुआ, जन्मदिन बड़े समारोह के साथ मनाया गया राजा के यह आप का जन्म होते ही हर प्रकार से सुख बढ़ने लगा और राजा ने उत्साह पूर्वक बहुत सा दान भी किया और प्रजा को पहले की भांति उस से भी बढ़ कर हर प्रकार से सुख देने लगा इस प्रकार दिन व्यतीत होने लगे और आप के धन्य संस्कार भी समय २ पर बड़े समारोह से होते हुये पाचना होती रही मगर आप का चित्त इस बान्यावस्था से ही ले कर संसार से उदास रहता था सदैव यही भाव उत्पन्न रहते थे कि मैं अपनी आत्मा का सुधार करके परो कार करूं परोपकार ही सत्पुरुषों का धर्म है। P इस प्रकार के भाव होने पर मा माता पिता के अत्यन्त श्राग्रह से "यशोदा" राज कुमारी से विवाह किया गया फिर आप के गृह में कुमारी का जन्म हुधा जिसका नाम, प्रिय सुदर्शना कुमारी रक्खा गया परन्तु वैराग्य भाव में जव अत्यन्त भाव उत्कृष्टता में आ गये तत्र माता पिता के स्वर्ग वास होजाने के पश्चात् ३० वर्ष की अवस्था में आप बड़े भाई " नन्दिवर्द्धन" J - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) राणा को मधुर' पापों से भगा र अपने मार ए पैदा समों को बिनय पूर्ण निवेदन किया। मिना पुन कर पहारामा परपम्व प्रसन्न हुए भो। राणी से पाने सगे कि देवी मूमे पड़े पवित्र समों को देखा मिमका फल पा होगा कि-मारी सर्व प्रकार की पटिने हुए पारी कुमार सस्पन समा। . - इस प्रकार गमी । स्वम के फल पवना र मातः 5 में रामा मे अपन नगर ज्योतिषियों को दुला क. पोदर समों के फलादेश को पूजा कर पानि पयों न का किरे राषन् ! इन सनों फसा सशसे यह निश्चप होवारे रिमाप पर में एक ऐसे राम हार का सम्म रे गा ना कि पपीं पा वीपर रोमा मिमी ममा का विवरण हम नहीं र मोप भी माराम ने चन स्वम पाठ 'सरकार और पारितोपि देकर विसर्जन किया किन्तु पी दिम मागणी बी गास्त्रोक मिनि के भनुमार मर्म रखा पानगी फिर सा नो मोसरे परपाद पैर प अगदशी के दिम रस्त पसरा फासणीमा २ in में भापो राधि के सबप में भो भमण भमान Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने उत्साह पूर्व ( १२५ ) र स्वामी का शुभजन्म हुआ, जन्म दिन पड़े साह के साथ मनाया गया गजा के यहाँ आप का म होते ही हर प्रकार से सूख बढ़ने लगा और राजा उत्साह पूर्वक बहुत सा दान भी किया और प्रजा को ." की भांति उस से भी पढ कर हर प्रकार से मुख देने लगा इस प्रकार दिन व्यतीत होने लगे और थाप धन्य संस्कार पी समय २ पर बड़े समारोह से होते इये पालना होती रही मगर आप का चित्त इस बाल्यावस्था से ही ले कर संसार से उदास रहना था सदैव यही भाव उत्पन्न रहते थे कि मैं अपनी प्रास्मा का सुधार करके परो"कार करूं परेपिकार ही सत्पुरुषों का धर्म है। - इस प्रकार के भाव होने पर भी माता पिता के 'यत्पन्न आग्रह से "यशोदा राज कुमारी से विवाह किया - गया फिर भाप के गृह में कुमारी का जन्म हुधा जिसका नाम, प्रिय सुदर्शना कुमारी रक्खा गया परन्तु वैराग्य भाव में जव अत्यन्त भाव उत्कृष्टया में आ गये तब माता पिता के स्वर्ग वास होजाने के पश्चात ३० वर्षे की अवस्था में भाप बड़े भाई "नन्दिप Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) 1 की अनुमति से दीचिव हो गये दीक्षा लेते समय ही भाप ने यह प्रविशा कर की कि बारह वर्ष पर्यन्त में मोर से पार कष्टों को सहन करूंगा और अपने शरीर की रक्षा श्री म करूंगा इवने फाल में बाप को अनेक का सामना करना पड़ा । मिन का कि हम इस कदर भयानक है कि उसे लिखना तो दूर रहा उस के सुमने से भी हृदय है परन्तु यह भावकी ही महान् मात्मा और महान् शक्ति बी कि आप मे उसे सहन किया इममिव पाठकों के किये पर्श पर हम के इस जीवन की चन्द घटमायें देवे है जिससे कि तुम को ज्ञात होगा कि श्री भगवान् महा बीर दब स्वामी किस कदर व आस्मा और हट्ट सम शीखता होने के अतिरिक महान तपस्त्रो मे यही कारण था कि उन्हों ने महान से महान तपस्या करके अपने कर्मों का नाश करते हुये केवल ज्ञान को प्राप्त किया । महात्मा महावीर जी त्यागी के जीवन की चन्द घटनायें । P १- पाठको जिस समय भगवान महावीर भी न गृहस्थ आश्रम को स्याम कर सन्यास क्षम का a वा 4 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७) ) ) 1 ५ किया तो उस समय भाप के बड़े भाई ने आपको ध्याना नहीं दी और आप अपने बड़े भाई का हुक्म मानते हुये दो साथ और ठहरे जब आप की अवस्था ३० साल की हो गई तो आप ने अपना राजपाट अपने बड़े भाई को सौंप दिया और अपनी तमाय धन दौलत दान करते हुये अपनी मामा के साधन और पर उपकार के लिये चित्त में ठानी तो यह महानात्मा ने इस प्रकार की वृत्ति धारण की अपने चिच में इस बात को सोचा कि पहले इस से कि मैं किसी और कार्य में लगे यह वेहतर मालूम होता है कि अपनी श्रात्मा को इस तरह साधन करूं कि वह तपस्या रूपी अग्नि से कुन्दन हो जावे इस पर विचार करते हुये उन्होंने कड़ी से कड़ी तपस्या की जो यहां तक थी कि अपने जीवन के १२ वर्ष इस तपस्या रूपी मनजिल के तैं करने में आप को लगाने पड़े दो बार तो आप ने छः मास पर्यन्त अन्न जल नहीं किया चार चार मास तो बाप ने कई वार किये . एक बार जब कि आप ध्यान में खड़े थे तो बाप को एक- संगम- नाम वाला भ्रमन्य देव मिल गया उस ने ६ मास, पर्यन्त आप को भयङ्कर से भयङ्कर कष्ट दिये किंतु > 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( " पापा मार ऐसा शाम्स मप पा किस पर रोम माग मी झोप मही, पिया पम्हि पर पिचारा पिपा मेरे हो बों फहरो जब भी पार गारे समे इस से पसायमाम नही रोमा चाहिये इसका प्रम समे गिराना है और मेरा पम्प अपने प्यान में बने राना पेमा स्पास करते हुये मरिग अपमे जाम में ही भर पाप के पन मेसोपासी प्रमार भी दिवा नही सका तो रदास सा रोकर बाम गा इसने में भगवान् का पान पूसे हो गया पमात् भाप ने इस देव से पा किदा तुम राम को ऐराशन में बोया दसर कि मेरे पास माया भौर पर माती ही नही बनिक पोम पोर मा सादर मे इन शब्दों को मना और मन पर कहा कि मगबन् या से मगन् न कालिदा सम मा मेरे पास माया पापम कम उपदेश को मम पर खाम ग वारे निस से पा सति का अधिकारी पर बावा है परन्तु मेरे पास में माप्त पन्त हर महान् भएम मों सम्पन दिपा मिसका फल मे पिरावास मोममा होगा इस प्रकार भाप इस देवरे व विव Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१२), करते हुये भाप के दया भाव से नेत्र आर्ट हो गये। २-श्री महावीर भगवान् ने जो तपस्या धारण कर रखी थी उस का समय अभी पूरा न होने के कारण माप अपने कर्मों के तय करने के वास्ते भनार्य भूमि में चले गये वहां पर भी अनार्य लोगों ने आप को असीम अष्ट दिये जिन के सुनने से रोमांच खड़े हो जाते हैं एक समय जव कि आप पर्वत पर ध्यानावस्था में बैठे हुये थे उन लोगों ने आप को पहाड से नीचे गेर दिया परन्तु पाप अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए । लर कभी पाप भिक्षा के लिये ग्राम में जाते तो कुत्ते पाप के पीछे लोग लगाते थे । केश लुंचन किए मनिमावि मे प्रहार किए परन्तु श्राप का मन ऐसा दृढ या जो कि देवों से भी चल एमान गहीं हो सकता था इस प्रकार के कष्ट होने पर भी भाप ने उन लोगों पर मन से भी द्वेष नहीं किया लदेव काज यही विचार करते हो ये कि जैसे प्राणो कम करते हैं उन्हीं के अनुपार फल भोगवे हैं प्रतः जैसे मैंने कर्म किये हैं वैसे ही मैंने Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल भोगना पदिप मैने देष दिपावो मागे रे चिपे और मयेर्मों का पंप हा भायमा ! प्रवर ! मप समा शान्ति से निपटने योगना चाहिये इस प्रकार तफ पस्ते इये भौर बाना मपर के गों को साम पर इसे मी पापमपमे पाल प्पान में ही बागे रे। इस प्रकार पान् पप बहुपे नाना प्रकार के कठों का सान फर माप विहार करते हुये नृमि नमः ममर बाहर अज् पावित्रा नदो के सचर इख पर स्यामानामक या पवि र्पण समोपस्म अव्यक्त पेत्य (पान) की शान में शाम एसके समीप बिराममाम हा गये वा पाप का पैसास एक दरावी दिन विबप नाम: पर्व में स्वाचरा मात्र के पाम् सपा में वा उपपास क साप राम पाम में अपश ये दुमों का फेस शान मोर पख दर्शन की माप्ति ॥ गई। समाप का का माम मात्र दो पुत्र तप मापन पिपार किया कि अब एमे संसार में पा पर्म निस Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३१) कि मैंने अपने ज्ञान में अनुभव किया है जिस का कि फल निर्वाण (याने सच्चा मुख) हासिल करना है उस को इस संसार के दुःखों से पोड़ित हुये हुये माणियों को भी अनुभव करवा देना चाहिये इस उद्देश को सामने रखते हुये आप अनु क्रम से विहार करते हुये सव से पहले आपापा पुरी ( पावापुरी) में पधारे। (भगवान् का उपदेश) जब भगवान महावीर स्वामी जी केवल ज्ञान को माप्त कर पावा पुरी में पधारे तो पहला उपदेश भगवान् का यहां पर हुमा चौमठ इन्द्रों ने समव सरण को रचा आपने यहां सिंहासन पर विराजमान हो कर सार्वजनिक हितैषी धर्म उपदेश किया जिस को सुन कर प्रत्येक जन "ह प्रगट करता था। उसी समय नसा नगरी में सामन ब्राह्मण ने एक यज्ञ ग्चा हुअा था जिस में उस समय के बड़े २ विद्व न् ब्राह्मण इन्द्र भूति, अग्नि भूमि, वाय भूति, व्यक्त सुधर्मा मडो पुत्र, मौर्य पुत्र, अकंपित अचल भ्रावा मैनायं प्रभास या ११ विद्वान् अपनी २ शिष्य Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) tea के साथ उस पत्र में आये हुये थे अब उन्होंने भी भगबान महशमीर स्वामी के धर्म उपदेश की महिमा को आम लोगों के मुख से भरा किया तब म एस को सरन न कर सके और आपस में विचार करने लगे कि हमें महाबीर स्वामी के साथ शास्त्रार्थ कर उन के धर्म को और उम्र की कीर्ति को सपक्ष में होने देना चाहिये जिससे कि हमारे ग्रास धर्म को हानि न हो ऐसा सोच कर पर महावीर स्वामी के पास गये और धर्म सम्बन्धी उन्होंने प्रभार कियेजा भगवान् मे अपने केबल शान के पत्र से पन के मनों को जमते हुये उन के प्रश्नों के उदय को वह मत्य प उत्तर को पाकर वहीं सपम सर (पापान संप में ही दक्षित हमपे भी भगवान न एक ही दिन में पोतासीस सौ का दीक्षित कि इन में सब से बड़े इन्द्र भूति जी महाराभ थे जिन का गौतम गोत्र या इस किये पर गौतम स्वामी के नाम से मुनसिद्ध है यही " श्री भगवान् के मुख्य शिष्य वे इन पूर्व र जैन धर्म का स्थान २ पर प्रचार किया वाबों लोगों का साथ म मासु किया भोर स्थान २ पर शास्त्रार्थ कर मन पम का मंटा फहराया Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) और श्री भगवान् ने अनेक राजों और रान कुमारों को दीक्षित किया अपने पद् उपदेश से चौदह हजार साधु ३६ हजार भार्याय वनाई लाखों श्रावक बनाये और महाराजा 'श्रेणिका कुणिका चेटक, जिनशत्रु, उदायन, इत्यादि महाराजों की आप पर असीम भक्ति थी एक समय की बात है आप विचरते हुये चपा नगरी के वाहिर पूर्ण भद्र उद्यान (वाग) में पधार गये तय मह गजा कुणिक बड़े समारोह के साथ भाप के दर्शनों को आये मौर उनके साथ सहसों नर नारिये थीं उस मण्य प्राप ने "अर्द्ध मागधी भाषा में सार्व जन उपदेश किया जिसका सागंश यह था कि हे प्रार्यो में जोव का मानता और अनींव को भी मानता हूं इसी प्रकार पुण्य, पाप. पाश्रव, संवर, निजेरा, वध, और मोक्ष को भी मानता है और प्रवाह से संसार अनादि है पर्याय से प्रादि है सो इस ससार मे छूटने का मार्ग केवल माया दर्शन, सम्यग् ज्ञान, और सम्पग चारित्र ही है मत - इसी के द्वारा जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है। हे भार्पो शुभ कर्मों के शुभ ही फल होते हैं। और Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५॥ भशुम कर्मों के भाभी फल होते, मिस प्रकार मामी धर्म करते है मापकों के फल मी ससी पकार मागते हैं। हे मम्प जीवों ! तुम कभी भी पर्म कार्यों में भावस मव फगे। पर समय मा पुनः मिखा पति कठिम हैमार्प देश, पार्य सत्तम सानन, शरीर निरोम, पापों इम्पि पूर्ण, पए की संगति इस्पाहि मो माप गों मामग्री प्राप्त होइस पे पर्म वाम सो भोर राम पमे पहील-किसी में भी प्रम्पार्य में पौष न दिया माये ममा पर न्याय प्रदेश मनपा परमा पही राणों का मुरुप पर्म है परन्तु ममा पर तब पाप से पर्मान हो सपना रेप राम लोग अपने सार्य, पौर म्पसनों को मार दवें। रे देगनु पयो ! मनुष्प मम्म, शास्त्र माण, पर्म पर विश्वास-भीर शम्मानुसार प्रापरण, भर पा पारों मर पीर का माप्त हो मा । तरो भाष मोसमावि र सकता है। इस बार परिष पदेश सम पर समा सम्पन्न मसमा फिर यपा राकिमिपमारिलोगों मेंपारण रिपे । रामा कार्पित वा मा ममाम् पंदना करके अपने रायं परमों में पा गया। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५) भगवान महावीर स्वामी और अहिंसा का प्रचार। जिस समय भगवान् महावीर व स्वामी का सत्यप्रयी और संसार में शान्ति लाने वाला सच्चा अहिंसक धर्म फैलने लगा तब उस समय के ब्राह्मण लाग जो हिंसा में ही धर्म मानते थे जिन के यहां यज्ञ काना ही केवल महान् धर्म सब के लिये वताया गया था भोर उन यज्ञों में घोर हिंसा यानी पशु वध जो होता था का धर्मानुकूल समझा जाता या धौर देश में उस समय जिधर भी देखो यज्ञों ही यज्ञों का जोर होने से हिंसा ही हिंसा की इतनी प्रबलता थी कि मानो खून की नदिया वा रही थीं इस अवस्था को देख का भगवान महावीर स्वामी का हृदय कांप उठा और उन्हों ने इस का विराध अति लोर शोर से फरना प्रारंभ किया और उन शाजाओं ने भी जिनको कि आपने धर्म उपदेशामुना कर अपने अनुयायी कर लिये थे उन्होंने भी हिंसा प्रचार बहुत ही किया किन्तु आपने उन यज्ञों में होम होते हुये लासों पशुओं को बचाया जिस को फल यह हुमा कि Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ (1) इस संसार से प्रामण धर्म या सापपी पास नये भौर परिसा पर्म का मान पधार डिया मा इस मकार पहिंसा पर्म का तार पान खगा और पहावीर सामी की मप नपार मे लगी वो फिर मामलों में मैन मम स मोर मी इप करना प्रारम्भ पर किया पही कारण पान पर्म पानी का मास्विर निद मानिसमा २के दोष बगाये मगर उसके ऐसा करम पर भी जैन धर्म की गेम पाखेकी मोवि और भी न्यादा हवी गई। भर पगान् महापीर सामी ने एन सि पयों का देश सदा देने में सपना माप्त रवी वर दो मस समय मो गौतम पुदम अफ पावा मव सहा दिया था मोर गौशामा न सानहार रेसिदात काही सतत पवखापा पा पाप पूरक पक्तियों से सब सानों सवो का सपन्न भी किया। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) __ शिष्य निम्नप्रकार से प्रश्न पूछने लगे और मापने उनके संशय र किये-जैसे कि । । पभ-हे मगवन् ! प्रथम लोक है किम्वा अलोक है। उत्तर-हे रोह ! यह दोनों पदार्थ अनादि हैं क्योंकि-यह दोनों किसी के बनाये हुए नहीं हैं यदि इन का कोई निर्माता माना जाये तब यह पूर्व वा पश्चात् सिद्ध होसकते हैं सो जब निर्माता का अभाव है तब इनका मनादित्व स्वतः ही सिद्ध है अनादि होनेसे इनको प्रथम वा अप्रथम नहीं कर सकते हैं। प्रश्न-प्रथम जीव है पा अजीव है ? उत्तर-हे भद्र ! जीव और अजीव दोनों अनादि हैं स्यांकि जब इनकी उत्पत्ति मानी जाए तव कार्यरूप जीव का नाश अवश्य ही होगा जब नाश सिद्ध होगया वर नास्तिक वाद का प्रसंग आजाएगा फिर पुण्य पाप पंध मोक्षादि आकाश के पुष्पवत् सिद्ध होंगे तथा दोनों का कारण क्या है । इस प्रकारको शंका होनेपर सकर वा अनवस्था दोष की भी प्राप्ति सिद्ध होगी इसलिये ! यह दोनों वस्तुएँ स्वतः सिद्ध होने से अनादि हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) इस संसार से प्रामण पर्म के मा सायपी पास नये मौर महिंसा धर्म माम् पार किया पास मकार परिसा धर्म का पार पाने लगा और मापीर __सामी की जप मय भार मे सगी वो फिर मामलों पे मैन धर्म से भोर भी इस करना प्रारम्भ कर लिया पही कारण था कि मैन धर्म पापों का मास्विकर निदा मावि स २२ दाप जमाये मगर परे ऐसा परम पर मी मैन पर्म की गंम पालेकी मोवि और मी पारा शेती मई। नव पगवान् महावीर स्वामी ने न सिर पों का देश स स्वा देने में सफलता मात रबी वर रमों स समयमो गौवम पुदन प्रफल पारा मन लहा रिया या भोर गौशाला में मार सियात काही सष पवाया पाम्पाप पूर्वक पुझिनों से पुछ रानों पदों का सपाम भी किया। पर समपो बारे रि-भीमगरान् पदमा सापीमी से पिनप रोरा मामक मापके एपोग्य Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) शिष्प निम्नप्रकार से प्रश्न पूछने लगे और आपने उनके संशय दूर किये-जैसे कि । प्रश्न - हे भगवन् ! प्रथम लोक है किम्वा अलोक है ! उत्तर - हे रोह ! यह दोनों पदार्थ अनादि हैं क्योंकि यह दोनों किसी के बनाये हुए नहीं है यदि इन का कोई निर्माता माना जाये तब यह पूर्व वा पश्चात् सिद्ध हो सकते है सो जब निर्माता का अभाव है तब इनका अनादित्व स्वतः ही सिद्ध है अनादि होनेसे इनको प्रथम वा अप्रथम नहीं कह सकते हैं 1 प्रश्न- प्रथम जीव है वा अजीव है ? उत्तर - हे भद्र ! जीव और प्रजीव दोनों अनादि है क्योंकि जब इनकी उत्पत्ति मानी जाए तव कार्यरूप जीव का नाश अवश्य ही होगा जब नाश सिद्ध होगया तब नास्तिक वाद का प्रसंग आजाएगा फिर पुण्य पाप मंत्र मोक्षादि श्राकाश के पुष्पवत् सिद्ध होंगे तथा दोनों का कारण क्या है ! इस प्रकार को शंका होने पर संकर वा अनवस्था दोष की भी प्राप्ति सिद्ध होगी इसलिये ! यह दोनों वस्तुएँ स्वतः सिद्ध होने से अनादि हैं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (NE) मन- मगान् । पपम मम्म नाम ( मोच पाने पाखे ) रामसम्म पोष ( मोचन माने पा) । रचर- मोरगमन पोम्प का अपम्प या 'मी दानों प्रकार के बीच भवादि । मम-रे भगान् ! अपम मोहम्मा संसार है। पचर-गेह! दोनों ही मनादिर। प्रम-रे मगन् । मपम सिद्र (प्रमर भमर )* पा ससार। पचर-रेगो संसार भास्मा पा मार मास्मा पा दोनों मादिरे निको पथमा अापम मी का मासकला-क्योंकि-मादि महीं है इसलिये पोष मास्मा और संमार मास्मा यादोनो भनादिर (सिद मास्मामी का नाम सिर) प्रम- मगान् ! मयप महा और पीये गाड़ी पा प्रथम डी पी भटा। उत्तर-रे गोर! अंग कहां से प्रसन्न पाता भगवन् । कड़ी से, फिर हड़ी से उत्पन्न होवी पगन् । मंगस रे! बरस मार से दोनी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६) का सम्बन्ध है तव सिद्ध हुआ कि-यह दोनों प्रवाह से मनादि हैं प्रथम कौन है । इस प्रकार नहीं कह सकते। इस प्रकार रोह अनगार ने अनेक प्रश्नों को पूछा श्रीमगंवान् ने उनके सर्व सशयों को दूर किया । एक समय श्री गौतम स्वामी ने श्रीभगवान से प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! गर्भावास में जीव इन्द्रिय लेकर भाता है वा इन्द्रिय छोड़ कर गर्भावास में जीव प्रविष्ट होता है तब श्रीभगवान् ने प्रतिउत्तर में प्रतिपादन किया कि-हे गौतम ! इन्द्रियों को लेकर भी आता है छोड़ कर श्री माता है तव श्री गौतम प्रभुजो ने फिर- शंका की बिहे भगवन् ! यह कथन किस प्रकार से है तब श्रीभगवान् ने फिर उत्तर दिया कि-हे गौतम द्रव्य पटियों को जीव छोड़ कर पाता है और भावेन्द्रियों को तारूप ) को जीव लेकर भ्राता है जिसके द्वारा फिर ज्य इन्द्रियों की निष्पत्ति होजाती है गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया कि-हे भगवन् । जीव शरीर को छोड़ कर गर्भावास में आता है वा शरीर को लेकर गर्भावास में भाता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम श्रीमगवान् ने सचर में मविपादन दिया किहे गौतम ! मास्मा शरीर मे बोरकर मी भावा है भौर पर मो भाता है जैसे हि मौदारिफ शरीर, पैकिप शरीर, भागरिक शरीर, इन तीनों ग्रीरों को शेरपर वैवस, भौर पपप शरीरों को शेर भीर गर्मागास में प्रवेश करता है क्योंकि-माँ मार से बीच इस प्रकार से पारी दोरहे।मैसे कि-मणो पुरुष, पण के पार से मारी होता है पपपि भणी सिम्पर मस्पर में रोई मी भार मरी दीसता तपापि पसी मास्मा मार स पुक्क तीरे पनी कार चीयो कर्मों का भार है। इस प्रहार भीम को माँ 7 मार है। इस पार से भीमगगाम् मे ३० मविरापयुक और पाणी से पियूपिच पेश २ में पर्मोदपापणा कर ए मनक मीना रे संगों का पदम लिया । और सर्व प्रकार से परिसा पर्म का देश में अपार या लालो पन एंट मेमो पशुओं का पप दोरा पास निरोप विपा, करोड़ो पाभी से भगवान Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) मिलगया, क्योंकि-जो लोग दया से पराडमुख हेरहे थे, उनको दपा धर्म में स्थापना करदिया। सायरी मापके प्रति वचनों में न्याय धर्म ऐसे टपकता था जैसे कि-अमृत की वर्षा में कल्पवृक्ष प्रफुल्लित होजाता है। एक समय की बात है दि-आप देश में दया धर्म का प्रचार करते हुए-कौशाम्बी नगरी के वाहिर एक पाग में विराजमान होगए-तव वहाँ पर "उदायन" नामी राजा भी व्याख्यान सुनने को आगया और गणी मादि अन्तःपुर भी वहां पहुंच गया, व्याख्यान होने के पश्चात् एक जगन्ती राजकुमारो ने श्राप से निम्नलिखित पन्न किये, और आपने न्यायपूर्वक उनका निम्नलिखितानुसार उत्तर प्रदान किए । जैसे किजयन्ती-हे भगवन् ! भव्य आत्मा स्वभाव में है वा विमाष से । भगवन्-हे जयन्ती ! स्वभाव से है विभाव से नहीं है। जयन्ती-हे भगवन् ! यदि भव्य प्रारमा स्वभाव से है तो क्या सर्वे भव्य पात्मा मोक्ष हो जायेंगे। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((.) ममपन्-रे भारि । सर्व धम्म मात्मा पोध प्राप्त महौं रेंगे क्योंकि-यामनन्त है जैसे माकाश की भेपिएँ प्रमन्त र सीमार पीर मी अनन्तरे मिस पपार पन भेणियों का अन्त महीं मावा एसी मार लोगों का मन्त्र भी नाही? अपम्तीने ममबन् ! समन्व शुमा म क्या है। मगमन्-रे म्यन्ती ! मिस मन्व न हो असेही भनम्न पाते हैं प्रप उसका अन्वरेब पह ममन्त नही सा ना सकता । प्रमएको भयम्वी । धमादि ससार में मादि कान पनम्न भास्मा निवास करके प्रबन्ध तीन मे सन का भरत नहीं पाया भावा । प्रयन्त -हे भगवन् ! मीन पनवान् भने होत रेका नियन अछे है। भमनन् हे मपम्ता ! पन में भारया परवान् मध्ये रोता बहुन प नियम भ रावे है। मी- पगवन् ! या पन डिस पहार H मानो नाए । म प्रस्मा म पाम् अच्छे तौर पार : निर्व Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान्-हे जयन्वी! न्याय पत्ती, धर्मात्मा, धर्म से भीनन व्यतीत करने वाले, धर्म-के उपदेशक वा सन्यपथ के उपदेशक इस प्रकार के प्रात्मा बलवान् अच्छे होते हैं क्योंकि-धर्मात्माभों के बल से अन्याय नहीं होने पाता, जीवों की हिंसा नहीं होती पाप कर्म घट जाता है लोग भ्याय पक्ष में पा धर्म पक्ष में आरूढ़ हो जाते हैं श्रतएव ! पर्मात्मा जन तो वलवान् ही अच्छे होते हैं। किन्तु जो पापात्मा हैं वे निर्बल ही अच्छे होते हैं क्योंकि-जब पापियों का वत्त निर्बल होगा तव श्रेष्ट कमे बढ़ जायेंगे किन्तु जब पापी बल पकड़ेंगे वव अन्याय बढ़ जाएगा। पाप वढ़ जाएगा। हिंसा, झूठ, चोरी-मैथुन, और परिप्रह, यह पाचों ही पाश्रव वहनाएंगे, अतएव ! पापियों का निर्बल ही होना अच्छा है। जयती-हे भगवन् ! जीद सोए हुए अच्छे होते हैं पा जागते हुए । भगवान् ! हे जयंती ! वश्त से आत्मा सोए हुए अच्छे है और बहुत से जागवे हुए अच्छे हैं। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यती ! भगन् । पाता किस प्रकार मानी भाए कि-पान से मारमा सोए हुए मच्चे। पौर बहुत मे मामले पर परे। मगवान् । रेनम्ति ! मत्पपाती, पाप सरनेवाले, सर्प नीनों रेरितेपी समया, मर्प नीयों से अपने समान मानने वाले इत्यादि गण मासे मीच मागवे भच्चे होने है। पाप कर्मों करने ।ने, सई भीषों से पैर करने पाचे मगलादो अपर्म स मोर म्पवीत रमे पाये इस्पारि भरण पाने की मोए पहेही मोरे मोंकि उनके पोमे मे पचसी मात्मामों को शान्ति गती है। इस प्रकार अनेक प्रकार सभी से पा एचर पार जयदी समामारी वीषित होपर भीमची पन्दन पाखा भार्या के पास भएर मोप मास होर्मा। भी भगवान ने अपन पवित्र परणामसों में इस परास पवित्र किया और अनेक भास्पामों को ससार पा स पार रिण। इस प्रकार भीमनपान् परोपकार रखए पग्विन पास भीममान में प्रपाणपुरी (पारापुर) मगरी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( -१४५ ) में के हस्तीपात राजा की शुक्रशाला में किया इस चतुर्मास बहुत विषयों पर उपदेश किये 1 कार्तिक कृष्ण - १५ पंचदशी - की रात्रि में १५५ अध्याय कर्मविपाक के और ३६ अध्याय उत्तराध्ययन सूत्र के वर्णन करके श्रीभगवान् निर्वाण होगए । उसी समय १८ देशों के राजे श्रीभगवान् के पास पौषध करके बैठे हुए थे जब उन्होंने श्रीभगवान् निर्वाण हुए जानलिए ! तब उन्होंने रत्नों का द्रव्य उद्योन किया तब ही श्रीभगवान् महावीर स्वामी की स्मृति में "ढीपमाला " पर्व स्थापन किया गया जो आज पर्यन्त अव्यवच्छिन्नता से चला आता है । श्रीभगवान् ७२ वर्ष पर्यन्त इस धरातल का सुशोभित करते रहे ! उन्हों का इन्द्रों वा मनुष्यों ने मृत्यु सस्कार बड़े समारोह के साथ श्रग्नि द्वारा किया सो हरएक भव्य आत्माओं योग्य है कि - श्रीभगवान् की शिक्षाओं से पवित्र बनाएँ और सबके हितैषी बनें श्रीभगवान् सव जीवों के हित के लिए निम्नलिखित आठ शिक्षाएँ करगए हैं। जैसे कि अपने जीवन को क्योंकि - शास्त्रों में Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) १ जिस शास्त्र को भवण नहीं किया उसको I भषस करमा चाहिए ।' २ सुने हुए शाम को बिस्सूद न करना चाहिए । करदेने चाहिए । ३ संयम के द्वारा प्राचीन कर्म क्ष ४ नूम फर्मो का सम्पर करना चाहिए। ५ जिसका कोई मरदा हो उसको रक्षा करनी चाहिय - ( अमायों को पासमा ) ६ नव शिष्यों का शिक्षको द्वारा शिक्षित करदेना चाहिय । ७ रोगियों को घृणा छोड़ के समा करनी चाहिये । ८ परम्पर उत्पन्न होया हो तो स कतह से माध्यस्य मात्र भरज्ञम्बन करके और मि क्योंकि-कसद में अनेक पुण - + करना की हानी हो चलन में है। इन शिक्षा म द्वारा करना चाहिए। यह सब कला स अपना जीवन पवित्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) बारहवाँ पाठ। (श्राविका विषय ) पिय मुज्ञ पुरुषो ! जैसे जैनमत में श्रावक को धर्माधिकारी बतलाया है वा श्रावक को चारों तीर्थों में एक तीर्थ माना गया है तथा जैसे द्रव्य तीर्थ के स्नान से शारीरिक मल दूर होजाता है उसी प्रकार श्रावक वा श्राविका रूप तीर्थ के सग करने से जीव पापों से छुट जाते हैं। जब श्रावक बारह व्रतों का धारी होता है कि की धर्मपत्नी भी बारह व्रत ही धारण करने तब धर्म की साम्यता होने पर उनके दिन आनन्द पूर्व व्यतीत श्राव और श्राविकाओं को अन्य द्रव्य तीर्थों की यात्रा करने की बावश्यकता नहीं है चिन्तु उनसे वडे जो और दो तीर्थ हैं वे आनन्द पूर्वक उनकी यात्रा कर हते है जैसे कि-साधु और साध्वी-इनके दर्शनों से Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) धर्म की प्राप्ति हो सकती है भयों को निर्णय शनाया है और ज्ञान से विज्ञान बहलाता है जब विनाम होगा तब संघमा है संपम का ही है कि भभव स रहित हलाना, मग भाभन से रहित हो गया तब उसका परिणाम माह होता है । 1 मित्रा ! भाषिकाओं को जैन सूत्रों ने धर्म विषय नही अधिका दिये है जो भाविकों का दिए गये हैं। मन ! सिद्ध हुआ कि मोर भाषिकाको 'बर्म एक ही हाना चाहिये। धर्म की साम्पता होने पर हर एक कार्य में फिर शान्ति र पकती है अत्र पर्व में पिता हावी है तब माय काय में पिता हा भावी है। स भाविकाओं का योग्य है कि-पर सम्बन्धि कामकता दुई यस्न को न छोड़े-नसे स्त्रियों मूत्र कलाप वर्णन की गई है उनमें यह भी कहा तलग है कि जो पर काम हो उनका भी स्मो यस्म मिना न कर | - प्रेम-चुरसा, पोका, की, इत्यादि कार्यों में परन बिना काम न करना चाहिये । पुरखादि की Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) क्रिया करते समय यदि विवेक न किया जाएगा तब भनेक जीवों की हिंसा होने की संभावना की जाती है. तया चक्की की क्रिया में भी सावधान रहने को अत्यन्त भावश्यकता है यदि विना यत्न काम किया जायेगा तब हिंसा होने की संभावना हो जाती है और साथ ही अपनी रक्षा भी नहीं हो सकती क्योंकि-यदि विना यन से काम करते हुए कोई विप वाला जीवः चक्की द्वारा पीसा गया तब उस के परमाणुओं से रोग उत्पन्न हो. जाते हैं जिम से वैद्यों वा डाक्टरों के मुंह देखने पड़ते हैं क्या इस समय जो अधिक रोग उत्पन्न हो रहे हैं उसका मूल कारण यही प्रतीत होता दे कि-खान, पान, में विवेक नहीं रहा है इसी वास्ते मशीन द्वारा चुन्न पीमा हुमा विवेकी पुरुषों को त्याज्य है क्योंकि-मशीनों में प्रायः यत्न नहीं रह सकता फिर अनय दण्ड का भी पाप अतीव लगता है जो घरों में अपनी, चक्की द्वारा काम, किया जाता है उस में मनथे दण्ड का पाप वो टत्ताही जाता है परन्तु रत्न भी हो सकता है और वह अतः भोखिच्छ होता है क्या स्वच्छता के कारण से, रोगों से भी-निवृत्ति हो जाती है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( t५० ) और धर्म में भी भाव बने रथ है इसलिए 1 स्त्रियों को याग्य है कि-पर के काम पिया यस्न न करें जिन घरों में पस्न से काम नहीं किया जाता और प्रमाद बहुत ही बाबा हुआ रहता है उन घरों की वी की वृद्धि नहीं है। सकती इस क्षिप [ भाविकामों को यार है कि घर के काम बिना यह कथा न करें य चुरा काम जैसे बिना दस्व लकड़िये न मनायें, I भाग मय (पाथिय मा थापियां ) मा जकाना पड़ता हैम देख सुन्या में मदें क्योंकि गा मय में बहुत सूत्रमा उत्पन्ना है गा गीस ईधन में बहुत सतावत है इस लिए इन कार्यों में विशेष म कार और मन शाला की दम पर म बादन े पर का अत्यावश्यकता ૐ मान बहुत जीव रम्न जामसी (मी) हुई हामी जब वह भामनादि क्रिपाएं म पर करत समय मोष गिर जाती है करन हावा मामन का बिगाड़न बाकी दादी भ फिर रोग के पम्पम -- Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) पर ! सिद्ध हुमा कि-भोजन शाला (मंडप) में अत्यन्त या की पावश्यकता है। वया चारपाई वा वस्त्रादि भी बिना यत्न से न रखने चाहिये, विना यत्न ने इन में भी जीवोत्पत्ति हो जाती है और जो खांड यादि पदार्थ घरों में होते हैं वा घृम तलादि होते हैं उन के वर्तन को विना आच्छादन किये न रग्यने चाहिये अपितु सावधानी से इन कार्यों के करने से जीव रक्षा हो सकती है और घर के सामान्न को ठीक रखते हुये, स्वभाव कटु कभी न होना चाहियेस्वभाव सुन्दर होने से हो हर एक कार्य ठीक रह सकता है-सन्तान रक्षा, पशु सेवा, स्वामी आशा पालन, इत्यादि कार्य श्राविकाओं को विना विवेक न करने चाहिये। कारण कि-पत्नियों का देव शास्त्रकारों ने पति ही चत. नाया जा -स्त्रो अपने प्रिय पति की धाज्ञा पालन नहीं करती अपितु बाज्ञा के अतिरिक्त पति का सामना ती है और असभ्य वताव करती है वह पतिव्रत धर्म से गिरी हुई होती है। और मर कर भी मुगति में नहीं जाती किन्तु श्राविकाओं, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) से एक पर्वा न करना पारिये, धर्म में सहायक परस्पर मेम, मित्र के समान पर्वाय एस दास में सान शीबवा' सम्, मेठामी, भादि से नीतिमान, पौर अपने परिवार धर्म में समाना, निस्प प्रियायों में बगा गाता मी-पीव राम मस के पर्म का पावन परमा पही मापिकामों का हम्म पर्वम्प ,गों के पास ही पर्म शिक्षामों से मसंकत करमा और न मानी भाषिके देने से राफना इस्पादि निवामों परने में नर स्त्री की स्मता पा भाती है व मी भाने मन पर मी निमय पा सकती है। ति मिस की क्रियाए मनुपित होती पा स्त्री अपने धन पर विप नहीं पा सम्वो बिनु म्पमिवार में माति रमे खग मावो मवएव । सिद्ध हुमा, जि पापम पप में अपने माख पारे पति के साथ सयप पतीव करना पारिय। मिस में पवि सेवा माती जोर दिया उसने अपने पर्म कर्म को भी विचाबी दे. पी.पिन पवि का पो पारिये, कि अपनी पर्म पत्नी यो प मार्ग में मातम मोर पिया ममिनीपस Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) को न वनावे किन्तु भाप श्रावक धर्म में प्रवृत्ति करता हमा उस को मुशिक्षा से अलंकृत करे। और परस्पर प्रेम सम्बन्धि वार्तालाप में धर्म चर्चा भी करते रहें सदैव काल प्रसन्न मुस्व से परस्पर निरीक्षण करें क्यों कि-जिस घर में सदैव अलह ही रहता है उस घर की लक्ष्मी ली जाती है, इस लिए ! धम: पूर्वक, प्रेम पालन के लिए जा कुछ स्त्री की न्याय पूर्वक मांग होतो, है यदि उसको पालन (पूर्ण) न किया जाए तब अनुचित वर्ताव होने की शंका की जाती है सो उसकी मांग पूरी करने से उसका वित्त अनुचित्त वर्ताव से दूर करना ही है परन्तु स्त्रियों को भी उचित है कि-अपने घर की व्यवस्था ठीक देख,कर पदार्थों को याञ्चा करनी चाहिए । - वह- मी.ए. सकोमल, और मृद, वाक्यों से करनी, चाहिए। . - क्योंकि-कठिन वाक्यों के परस्पर प्रयोग करने में प्रेम टूट जाता है मसभ्य वर्ताव बढ़ जाता है ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) साथ ही अपनी भावी होनहार संधान के सम्मुख कोई भी अनुचित पर्याय न होना चाहिए क्यों किन बच्चे अपने मां और बाप के अमुषित पर्या को देव है तब बनके मन से अपने मां और बाप का पूज्य मान इट भावा है फिर वह बनके साथ अनुचित गर्वान करनें यम जावई इतना ही नहीं किन्तु इसंग में पट ये है अपन मां और बाप की शिक्षा को पी प्रवाह नहीं रखते मिसका कि परिणाम आगे क लिए सुम्बद नहीं रहता " अत एष ! सिद्ध हुआ कि बरहार अनुचित पर्वाण कवि होना चाहिए, { और जो घर में स्वधर्मी माई मा जाए तो उसके साथ सभ्यता पूर्वक बर्ताव करना चाहिए। जैसे शंस्त्र मायके पर पुष्प की भावक के पधारने पर ल च आब की धर्म पत्नी" at after or पाठे दुओं का दम कर साधी माठ पाद (१९) उनके सामने धनके उन वास्ते गई थी। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) और उनको बन्दना नमस्कार किया फिर उनको आसन की आमंत्रणा की, जब वह शान्ति पूर्वक वैठ गए फिर उन से प्रेम पूर्वक पूछा कि आप कैसे पधारे आप का क्या पयोजन है इत्यादि तब उन्हों ने उत्तर में प्रतिपादन किया कि मैं शख जी के मिलने के वास्ते माया हूं, वह कहां पर हैं t तव " उत्पल |" ने उत्तर में कहा कि उन्होंने आज पाक्षिक पौषध शाला में पौषध की हुई है वह आज ब्रह्मचारी और उपवास में अकेले ही बैठे हुये हैं इत्यादि, ' * इस कथन से - यह स्वतः ही सिद्ध हो गया किश्राविकाओं का स्वचार्मियों के साथ कैसा पवित्र वर्ताव होना चाहिये । श्राविकाए - चारों तीर्थों में से एक तीर्थ रूप है इन का धार्मिक जीवन बड़े ऊंच कोटिका होना चाहिये, साधु वा साध्वियों की सगति शास्त्रों का स्वाध्याय, पति सेवा गृह कार्यों में कुशलता - धार्मिक पुरुषों वा स्त्रियों से प्रेम अनुकंपा युक्त ईर्ष्या- श्रसूया, कलह, I Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमती, पर भराणद, अम्मारपान (ई) सादि दुर्गों को स्पाग देना पारिये । इस का मम्बिम परिणाम यह होगा हि-स वाक में मुख पूर्वक जीवन म्पतीत होया पौर परलोक में-पल पा मोच के पुस पपक्षम्म होंगे। तेरहवां पाठ। ( देव गुरु और धर्म विषय) समापा ! इस प्रसार संमार में माणी मानो एक पर्मी का मारा है पित्र, पुत्र, सम्मम्पि इत्यादि मग पप का समय निट मावावर सप पार कर उस से पृपा हो मावे तर माणी अकेला तो परलोक की पात्रा में मरिण हो पाता है। से रिसी ने-किसी ग्राम में जाना रोदर पा बारावा माने पर पर-समनिये पमेकमकारक पायों सापवा र मसो मना र एस पाणी,ने। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ,१५७ ) परलोम की यात्रा करनी है वहां पर अपने किये हुये ही कर्म काम आने हैं इस लिये ! परलोक के लिये तोनों की परीक्षा अवश्य ही करनी चाहिए जैसे कि-देव,-गुरु और धर्म। सारा ससार विश्वास पर काम कर रहा है लाखों वा कगहों रुपयों का व्यापार मो विश्वास पर हो चल 'रहाकन्या दान भी विश्वात पर हो लोग करते हैं। उसी प्रकार जब परीक्षा द्वारा "देव सिद्ध हो जाए तव उस ए पूर्ण विश्वास होना चाहिये । ___ जैसे कि-जिप्त देव के पास स्त्री हैं वह झामी अवश्य है क्योंकि-स्त्री का पास रहना ही उसका कामी पना सिज कर रहा है. तथा जिस देव के पास शस्त्र हैं वह भी इतका देव पना नहीं सिद्ध कर सकते क्योंकिशस्त्र वदी लता है जिस को किसी क्षेत्र का तया जिस देव के हाथ में जय माला है वह भी देव नहीं होता है, जय माला वरी रखता है जिस ने किसी का जाप करना हो तथा स्मृति न रहती हो लव वह स्वयं ही देवरे तब व किस देव का जप कर रहा है तथा स्मृति Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( <= ) आदि के न रहने से सर्वज्ञता का व्यवच्छेद हो भाता है और कर्म आदि के रखने से अपमित्रता सिद्ध होती है सिंह आदि पशुओं की सवारी करने से दयालु पना नहीं रहता इत्यादि चिन्हों द्वारा देव के लक्षण संघटत नहीं होत इसी शिमर्षे देव नहीं माना जाता । - जो शुरू हो कर कनक कामनी के त्यागा नहीं है अपितु विषमा नदि हो रहे है तर बोक ज़मीन झगड़े में फंसे हुए है और मांग- परस, मुम्फा तपास्य, अफीम, गोमा, इत्यादि उपमानों में फंसे हुए है फिर इसी के कारण से वे जूमा-मांस-मदिरा परस्त्री- पश्यादि के गामी बन जाते है। राम द्वार में सदस्यों की तरह उन के मी स्वाय (फ) गुरु पद योग्य नहीं (1 भाब ! किन्तु बन गुरुओं से बहुत स सदस्यमा व्यसनों से बचत है। फिर वह हर तरह की सवारियों में भी घड़ जावे - लागा आमंत्रणा का स्वीकार फरत है महारे बा - मंदारों के नाम पर हजारों रूप धागों से एक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) करते हैं-सो यह कृत्य साधु वृचि से बाहर है इसलिये ! ऐसे पुरुष भी गुरु होने के योग्य नहीं हैं। . जिस धर्म में हिंसा की प्रधानता है और असत्य, मैथुन मादि क्रियाएं की जाती हैं देवों के नाम पर पशु पष होते हैं वह धर्म भी मानने योग्य नहीं है क्योंकिजैसे उन के देव हैं वैसे ही उन देवों के उपासक हैं जैसेकवि ने कहा है कि फरमाणां विवाहेतु गसभास्तत्र गायकाः परस्परं प्रशंसंति अहोरूप महो ध्वनिः १ अर्थ-ऊंटों के विवाह में गधे बन गये गाने वाले, फिर वह परस्पर प्रशंसा करते हैं कि-पाश्चर्य है ऐसे रूप पर और वह कहते हैं आश्चर्य है ऐसे गाने वालों पर क्योंकि-जैसे बर का रूप हे वैम ही गाने वालों का'मधर खर हैं। उसी प्रकार, जैसे हिंसक देव हैं उसी प्रकार के हिंसक उन के उपासक है अतएव ! सिद्ध हुया कि-जिस धर्म में व्यभिचारही व्यभिचार पाया ज ho Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8. भी पिहालों के पादेयाना निवासनों को ऐसे पर्मों से मी पृयतामा माहिये। Mr. ____ा पुरुषों को चाहिये कि-देव पन मा पो १८ दोपों से रहित रे, भीमन्मुक्त और सर्पस सदर्शी है पोग मद्रा में ही देसे भाव है-सर्प भीगों निप परने बारेमाणी मात्र सार, ३४ भविगप और २५ पाणी के पारकर जो अपर सम देशों के शस्त्रादि चिग पर्णन किए गए है उन पियों में से कोई मी पिन चन में नही है ऐम भी पान मस देव मानन पाहिये । पौर गुरु पीस नो ग्रास्त्रानुसार अपना मापन पतीत करन पास है, सरपापा और मर्द जीना बलिपी रे भिसा धिरे द्वारा पा अपना भीवन म्यतीत + ने जम भ्रमर की धितो रे रसी प्रकार जनक पजन पोतिरेर एक मकार से पा स्पागी कागाम्भर्ग में सदा जग गते रिजिन का सहा हम मानर से पमहाना नप्ती मार रिसे निन का पम।। पाप पहावत पशपति पर्म इत्यादि २ मा पारमे रेपी गुरु सचे। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) __धर्म नही होना चाहिये-जिस में जीव दया हो। क्योंकि-जिस धर्म में जोव दया नही है वह र्म ही क्या है कारण कि-जीव रक्षा ही धर्म का मुख्य अङ्ग है इसी से अन्य गुणों की प्राप्ति हो सकती है। मित्रो ! जैन धर्म का यहत्व इपी वात का, है किइस धर्म में अहिंसा यम का अजीम प्रचार किया। अनन्त आत्माओं के प्राण बचाये हिंमा को दूर किया . यद्यपि-अन्यमताव तुम्बी लोगों ने भी "अहिंसा परमो धर्म इस महा वाक्य का अति प्रचार किया किंतु वह प्रचार स्वार्थ कोटी में रह गया क्योंकि-उन लोगों ने वति, यज्ञ, देवादि के वास्ते पहिमा को विहरीत पान लिया इसी कारण से वेह लाग इस महा वाक्य का पालन न कर सके। तथा अपने स्वार्थ के वास्ते, वा शरीरादि रक्षा वास्ते भी उन लोगों ने हिंसा विहीत मान लिया । नया-एकेन्द्रियादि कार्यों में कतिपय जनों ने जोव अशा ही नहीं खोकार की जैसे-मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) और मनस्पति काय में जैन शास्त्रों में संस्पृाव, भरूपात, या अनन्य आस्मा स्वीकार किये है किन्तु उन लोगों ये मन में जीव सचाही नहीं स्वीकार की तो मला फिर धनको रक्षा में वे कटिवद्ध फेस खड़े हो जाएं f F अतएव । जैन शास्त्रों ने एकत्रियादि से लकर पामि वर्यम्य भीशे पर अहिंसा धर्म का प्रचार किया, सो धर्म महाक्रता है मासिक सर्व प्रकार से पालन करता भर मी रक्षा पर्म ही दान, शीख, वप, और भावना रूप मे साम्य नहीं । म क्याशक-अहिमा बम मापन हुये ही दान दिया भा सकता किया जाता है, श स पावन होता है, भक्त पर्यो मपलता की नाटो है। सानप पी कर लिया किन्तु भावना समनतोनों ही पम सफल नहीं नए ! ना द्वारा क्रायों को सफल करन | | Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५३ ) , वैनपुरुषो-जैन धर्म ने अहिंसा धर्म कासेतु, रामेश्वर से लेकर विंध्याचल पर्वत पर्यन्त तोपचार किया हो था, किन्तु अन्य देशों में भी हिंसा धर्म का नाद बनाया-समय की विचित्रता है कि अब यह पवित्र धर्म का-मंचार स्वल्प-हेने के कारण वे केवल-गुजगत (जर) पारवाड़, मालवा अच्छ, पंजाब, आदि देशों मही यह धर्म रह गया है किन्तु इम धर्म के अमूल्य सिद्धान्त विद्वानों के स्वन्म होने के कारण से -छिरे पड़े ___ विद्वान् वर्ग को योग्य है कि सर के हितैषी भाव को अवलम्बन करके इस पवित्र जैर धर्म के अहिंस, धर्म का प्रचार करना चाहियो जिसके द्वारा अनंत अत्यामों के प्राणों की रक्षा हो जाये । परन्तु यह प्रभार तर हो सकता है जब परस्पर सम्य (प्रेम) हाँ-जहाँ प्रेम भाव रहता है वहां पर हर एक प्रकार की सम्पदाएं मिल जाती हैं जैसे डि . किसी नगर में एक शेठ रहता था वे बढ़ा लक्ष्मी पात्र था एक समय भी दाव है कि-वह रात्रि के सपर्य, सोया पदात्या उसको लक्ष्मी देवा ने दर्शन देकर फी किं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) शेर भी मैंने बहुत चिरकाल पर्यन्त आपके घर में निवास किया किन्तु भव में भावी हूं, परन्तु आप एक सुभाग्य पुरुष है मेरे से कोई वर मांग को समय मांगना क्योंकि मैं भव रहना नहीं चाहती, तब शेठ की मे मी दषी से विमय पूर्वक हाथ मोड़ कर निषेव म किया कि हे मातः ! मैं का अपने परिवार की सम्पति के अनुसर आप स पर विषय याचना करूंगा, मातः काल हवे ही शेड मो न अपने परिवार से सम्पति श्री, किन्तु उनकी सम्मधियों से शेठ भी की सही नहीं हुई तब शेठ भी की बाटा कम्पा जो पाठशाला में पड़ती भी जब बस से पूछा तब उसने बिनय पूर्वक शेठ भी के चरणों में निषेदन किया कि पिता भी आप चमी 1 माता में सम्य (प्रेम) का वर मांगो जिस से उसके बान के पात्र फूट और कम हो जायेगा, वह न हो शेठ भी न इस बात को स्वीकार कर लिया, फिर रात्री के समय देवी ने दर्शन दिये या फिर शेठ भी मे नही प्रेम कर पर मांगा तब देवी मे चर में कहा कि हे शेठ भी जब तुम परस्पर प्रेम रखने की याचना करते हो तो फिर मैंने कह जाना है क्योंकि यहां 'प्रेम' Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) वहां ही मैं-फिर लक्ष्मी शेठ जी के घर में स्थिर से कर रहने लगी इस दृष्टान्त से यह सिद्ध हुआ कि-जहाँ प्रेम होता है वहां सब कुछ होजाता है इस लिये ! देव, गुरु, भौर धर्म की पूर्ण प्रकार से परीक्षा करके फिर इस के प्रचार में कटि वध हो जाना चाहिये । जब अहिंसा धर्म का सर्वत्र प्रचार किया जाएगा तब सदा चार का प्रचार भी साय ही हो जाएगा। जो कि-सदा चार सत् पुरुषों का जीवन है। मोक्ष के अक्षय मुख के देने वाला है। चौदहवाँ पाठ। (श्रीपूज्य अमरसिंह जी महाराज का जीवन चरित् ) प्रिय सुज्ञपुरुपो ! एक महर्षि की जीवनी से अनेक मात्माओं का लाम पहुंचता है फिर जनता उसीका अनुकरण करने लगमाती है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) कामों को मीननी एक स्वर्गीय सोपान कमान बनमाधी है परन्तु जीवमी किसी धर्म को खती > IT यष्टि जीवनी सच्चरिश्रमयी हावेगी ५ मह फिर भगत् में पूजनीय बनाएगी पफीम के पड़ने से पठकों का तीन पका ज्ञान दोश है, उस समय सहारा या गति थी छाफ अपना बीपन निनाई उन महर्षि नकिम उद्देश के लिए - किस कर अनेकों का सामना किया इतना नहीं कटक शान्ति पूर्व सहन किया, अन्त में सि प्रकार यह सफल मन्यथ हुए । supe gra एक ऐममा के पवित्र जीवन को कफन करें कि- जिन्होंने पेमाप देश में दिस प्रकार स जैन धर्मो व किया और अपना अमूल्य जोवन संघ सच में गा दिया । वर प्राचार्य श्री पूण्य अमर सिंह भी मद्दाराम है। आप का जन्म पंजाब देश के सुप्रसिद्ध ममृतसर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) आपके पिता जी जवाहरात की दुकान करते थे F उस समय पंजाब देश में महाराजा " रणजीत सिंह‍ जी " के राज्य तेज से बहुतो जातिया में सिंह नाम की चली हुई थी। बाल्यावस्था के अति क्रम हा जाने पर अति निपुण हो गये विद्या में भी अति प्रवीण हुये । नामक शहर में १८६२ वैशाख कृष्णो द्वितीया के दिन' ताला बुद्ध सिंह ओसवाल ( भावड़े ) सत्तड गोत्री की धर्मपत्नी श्रीमती फर्मो देवों की कुति में हुआ था । लाला मोहर सिंह, और ताला मेहर चन्द्र, यह दोनों आप के बड़े भाई थे आप का परस्पर प्रेम भाव उन्हों के साथ अधिक था, जब यौवनावस्था के आये तब आपको पूर्व कर्मों के क्षयों पशम भाव से राय उत्पन्न हो गया, सदैव काल यही भाव आप अपने म में भावने लगे कि मैं जैन दीक्षा लेकर धर्म का प्रचार हरू जो लोग अन्ध श्रद्धा में जा रहे हैं उन को सुपथ में f लाऊ । 1 T 1 जब आप के भाव यति उत्कट हो गये तब आप के माता पिता ने आपके इस प्रकार के भावों को जान कर J Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) मापके सिवाहा सपना रदिया भी कि पापको बिना पण मावा विवा की मासा का पालन करना पड़ा, मर्याद ग्नों न माप का शियाख कोट में बाबा हीरा ताब (संह पाले) मोसपास की पर्म पस्मी भी मवी भास्पा देवी भी दी पुषी भी मवो गाला देगसाब पाणी ग्राण रवा दिया। नप माप का पियाा संस्कार भी हो गया परन्तु पर्म में माप माप मोर मी पड़वे गोबिन्त भागापसी दो माप से भाप का संसार में ही एए समपर गाना पड़ा मार बागियों में एक परिव बोरी पे. मापापुष उत्पम । रगों का माप ने दिपार संस्कार किया फिर पाप मार संपम में प्रदीप बह गये। तर सम समप पंसार देश में भी रामजात बी महाराम धर्म प्रचार कर रो पे माप के भाष ग्नरे पास सपा ने कहा मये । मावा पिता का सर्ग पास हो हो चुका पा, तब भाप में अपनी दुकान पर पाप गुमास्त विठसार, भौर पम पम नियम Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) पूर्वक उनको दे दिया क्योंकि आपका पारवार बहुत बढ़ चुका था - सब आप दीक्षा के लिए देहली में श्रीरामबाल जी महाराज के चरणों में उपस्थित होगए किन्तु रामरत्न भी और जयन्तीदास जी यह भी दोनों आपके साथ ही दीक्षा के लिए तय्यार हुए तब आपको श्रीगुरु महाराज ने संयम वृत्ति की दुष्करता सिद्ध करके दिखखाई किन्तु मापने संयम वृति के सर्व कष्टों को सहन करना स्वीकार कर लिया क्योंकि - भाप पहिले ही ससार से विरक्त होरहे थे, और परोपकार करने के भाव उत्कटता में आए हुए थे। तब देहली निवासी लोगों ने दीक्षा महोत्सव रचदिया तब आपने १८६८ वैशास्त्र कृष्णा द्वितीया के दिन उन दोनों के साथ दीक्षा धारण की, गुरुजी के साथ ही प्रथम चतुर्मास दिल्ली में किया । काल की बड़ी विचित्र गति है यह किसी के भी समय को नहीं देखना अकस्मात् श्रीमान् पण्डित - श्री रामलाल जी महाराज का दीक्षा के षट्मास के पश्चात् स्वर्गवास हो गया, तब आपने शान्ति पूर्वक अपने गुरु भाइयों के साथ देश में विचरना भारंभ किया, और 1 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापसे मिपायपन परने में मेरमापर्ने भतापपन करनिया के पास बनेन दीक्षित ने मग १६.३ पिऊमाग मण्ली में भापको भाप पे प्राप्त मा-फिर धान नाग परन मापार में कम पापा ममर्गमा नी पागल इस IT सिम मग । समागम मी फिरेश मानो गिय पा । तप पोत नग 1 प पार पा, मारगोमा पास पर्मत प्र + 4 गौ। म गापदे पर ' Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) श्याम ऐसे उच कोटी के विद्वान् वा श्राचार्य होते हुए भी प्राप तपस्वी भी थे- एक वार आप ने ३३-ब्रत (उपवास) लगातार किए पाना के शिवा (सिवा) आ ने और कुछ भी नही खान पान किया, '८ वा १५ दिन पर्यन्त तो शापने कई वार तप ( उपवास) झिये। सहन शक्ति आपकी ऐसी असीम यी फि-विपक्षियों की नीर से श्राप को अनेक प्रकार के कष्ट 'हुए उनका हर्ष पूर्वक श्राप ने सदन किए । । । ', पनेरू सुयोग्य पुरुषों ने श्राप के पास दीक्षाएँ धारण की-जो आप के अमृतमयं व्याख्यान को सुन लेता था वह एक बार तो वैराग्य से भीग जाता था, ग्राम २.वा-नगर-२ में आप ने फिरका जैन ध्वजा फहगई और नागों को सुपथ में प्रारूढ़ किया. पनी गच्छ. मोदा के ई-नियम भी आपने नियन-किए, जन धम पर माप.की अलीम-श्रद्धा-यो-जैसे कि- . . उन दिनों में भापके हाथों के दीक्षित किए हुएश्री. श्री श्री १०८ स्वामी जीवन रामजी महाराज के शिष्य आत्मा राम जी की, श्रद्धा मूचि पूजा की होजाने के Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोपान पmrrim मारपा re भाप .. परलिपा ता में इनों में १९१३ विक्र मापसाप बाहर इमा-फि ने प्रपन सप । पार पूज्य मनीमाव मिल र बागमप। शिष्य म' परीपा मी रिप पर मापा म किसी मम्न में स्वोस्सागर, अस्पर सर्वम हातीमापारा शिवार पग्राम्यों में रमनपर्मा र ' या भाप पा? मैसेमोस्वामी स्वागमती माराम मोने भापको माता Frt पा RTRE एवापरापनो प. २ श्रीस्वामी विवासराय मायामी गबरधनी म मा सामा महापासामी मोवीएमसी भीसाया पानीमाराम भी स्वामी समजो या सभी मामी नेपाली मा भीमापन सामोर लोमा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) इस प्रकार आप और आप के सुयोग्य शिष्य धर्म प्रचार करते हुए आप ने १६३७ का चतुर्मास अमृतसर में किया, चतुर्मास के पश्चात् जंघावल क्षीण हो जाने के कारण से श्रावक समुदाय की विज्ञप्ति अत्यन्त होने पर आप ने फिर बिहार नहीं किया आप के विराजमान होने से अमृतसर में अनेक धार्मिक कार्य होने लगे किन्तु, काल की ऐसी विचित्र गवि हैं कि यह महात्मा वा सामान्यात्मा को एक ही दृष्टि से देखना है किसी ना किसी निमित्त को सनमुख रख कर शीघ्र ही माणी को था घेरता है, १६३८ आषाढ़ कृष्णा १५ का आपने उपवास किया परन्तु उस उपवास का पारणा ठीक न हुआ, तव अपने अपने ज्ञान वल से आयु को निकट आया जान कर जैन सूत्रानुसार आलोचनादि क्रियाएँ करके सब जीवों से क्षमापन ( स्वमावना ) ध्यादि करके दिनके तीन बजे के अनुमान में श्री संघ के सन्मुख शास्त्रविधि के अनुसार अनशन व्रत करलिया फिर परम सुन्दर भावों के साथ मुख से भर्हन् अर्हन् का जाप करते भाषाढ़ शुक्ला द्वितीया दिन के १ बजे के अनुमान माप हुए का स्वर्गवास हो गया । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) कारण से पमों मे भापके पारा शिव पाए मोर परभाप रे साप बस से छिपा कर रो भविप भार ने पदों को भपन गप स पृया कर दिया -प्रामा राम बी के साप मिश पर वप गण में पझे गए। पनोंने भापको प्रसार के मनश्च वा भविष्य परीपर भी दिए परम्प मापडी ऐसा मान गधि की कि-बी मम्त में स्वोत्साह रोगप, भापकी मप विवर सर्वत्र पातीगो पाप पागप पर मिमोंने देश देशाम्वरों में फिरार मैनपम का प्रचार किपा, उनके एप नाम पर मैसे रि भी स्वामी सस्वाकगयनी महाराष १ भी सामी एखापरापमो प. २ श्रीस्वामी पिशासायनी माराम भीसामी गपपतनी मापन १ मा स्वामी प्रसदेखमी पहागन ५ म सामी माचोराममो ६ भीसम्मो मोन वाम भी मारा ७ श्री स्वामी राधम्मको माराम ८ श्री पापी मेचाराप जी महारान ६ श्री सूपपम्जो मागन १.भी स्थापी पा राम बीमाराम" मा स्थापी गपाकृष्ण भी माराज १२ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) इस प्रकार आप और आप के सुयोग्य शिष्य धर्म प्रचार करते हुए आप ने १६३७ का चतुर्मास अमृतसर में किया, चतुर्मास के पश्चात् जंघावल क्षीण हेजाने के कारण से श्रावक समुदाय की विज्ञप्ति अत्यन्त होने पर माप ने फिर विहार नहीं किया आप के विगजमान होने से अमनसर में अनेक धार्मिक कार्य होने लगे किन्तु, काल की ऐसी विचित्र गसि है कि-यह महात्मा वा सामान्यात्मा को एक ही दृष्टि से देखता है किसी ना किसी निमित्त को सन मुख रख कर शीघ्र ही पाणी को श्रा घेरता है, १६३८ भाषाड़ कृष्णा १५ का मापने उपवास किया परन्तु उस उपवास का पारणा ठीक न हुआ, तव अपने अपने ज्ञान बल से आयु को निकट आया जान कर जैन सूत्रानुसार आलोचनादि क्रियाएँ करके हीनों से समापन (खमावना) श्रादि करके दिनके तीन बजे के अनुमान में श्री संघ के सन्मुख शास्त्रविधि के अनुसार अनशन व्रत करलिया फिर परम सुन्दर मावों के साथ मुख से महेन् महेन् का जाप करते हुए प्रापाड़ शुक्ला द्वितीया दिन के १ बजे के अनुमान माप का स्वर्गवास होगया। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) तब भाषक संघ ने वारों द्वारा आपका हृदय विदीर्ण करने पाळा शाक समाचार नगर २ देदिश जिससे' अमृतसर में बहुतसा भाग वा भविका संघ होगया तय चापक शरीर का बड़े समारोह के साथ चन्दन द्वारा मम संस्कार किया गया आपके मिमीन पर लोगों ने ६४ दुशाले पाए थे । 1 अब पैमाम दश में आपके भाषकों ने आपके नाम पर अमक संस्थाएँ म्यापन की उई है जैस-अमर मैन पुस्तकासन अन्य जन यात्रा (बोरिंग ) इत्यादि२ पंज में अपशिष्यों के शिष्य तन मेमर या पग का नाम सारी गज आप अन्य देशों में सुपसिद्ध हो ह पाठक जनो का आपके पवित्र जोवन मे प्रकार का शिक्षाएँ कभी चाहिए। व्यापन मिसनका जैनधर्म का हा किया । इन पान का अनुकरण अस्पेक करना चाहिए । ! प्रचार कॉ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) पन्द्रवां पाठ । प्र ނ (- धन्ना शेठ की कथा ) Ja -- प्रिय सुज्ञ - पुरुपो ! प्राचीन समय में एक राज गृह नगर वसला था उसके बाद एक सुभूमि भाग नाम वाला बाग था जो अति मनोहर या उस नगर में एक धन्ना शेठ पसता था. जो वंडर धनवान् था उस की भद्रा नाम-वली धर्म पत्नी थी, धन्ना शेठ के चार पुत्र थे उन नाम: शेठ जी ने इस प्रकार स्थापन किये थे जैसे किधनपाल १ धन देव २ वन- गोप ३ और धन-क्षत ४ उन चारों पुत्रों की चारों बधुएँ यो-जैसे कि - उज्झिया १ भोग वर्त्तिका २ उक्षिका ३ और रोहिणी ४ । के F एक समय की बात है कि-घन्ना शेठ आधी रात के समय अपने कुटम्ब की विचारणा कर रहे थे साथ ही इस बात को भी विचार करने लग गये, कि मैं इस समय इस नगर में बढ़ा माननीय शेठ हूं, मेरी सर्व प्रकार से उन्नति हो रही है किन्तु मेरे विदेश जाने पर वा रुग्णावस्था के आने पर तथा मृत्यु के प्राप्त होने पर मेरे, } Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१ ) पीछे मेरे पर के पास पलामे बाला कौन होगा इस बात की परीक्षा करनी चाहिये। पेसा विचार करते.इवे पनों ने नामाको सयाम्प रे गा मगे मकार म पता लेंगे परन्द पर समान्पी नदी स्त्रियों की माप करनी चाहिये किया पर के सामने किस योग्यता से पसा सकती मा मठ प्री प्रातः काल रन ही अपने सपनों को दुशापा और उन से कहा कि पुषो । तुम पा र मकार से साम्प सम्मम्पी मरने से पाग्या में हम से सहए है परन्तु मम इजा विभपने पर भी स्थिरों का परीक्षा में तुम सा नामो दब गी ने अपनी प्रपनी स्त्री का अपने पिता के सम्मुख शिषा और परीक्षा के लिये उपस्थित रिया मिस पर पठ भी मे अपनी पार्टी पभों को पाप २ पाम दे दिप और रम से बारि-रे पक्षियो! पर पांच पाप मैंने तुम रिये रे म ने इन दी रचा करनी अपित नप में हमारे से पागंगा पर तुम ने पही पाप सझे दे ने इस प्रकार की शिक्षा अपनी पारों पभों को रसित पर दिपा। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) जब पहिलो वधु ने शेठ जी के हाथों से पांच धान्पों को ले लिया और वाहिर आने पर उम ने विचार किया कि-शेठ जी बृद्ध हैं न जाने इन के कैसे २ संकाय उत्पन्न होते रहते हैं क्या हमारे घर में धान्यों की कमी है। जिस समय शेठ जी मेरे से धान्य पांगेंगे तन में अपने कोठों से निकाच कर पांच ही धान्य शेठ जी को दे दनी फिर उप ने ऐसा विचार करके उन पांचों धान्यों को वहां ही गेर दिया। जो दूसरी वधु को पांच धान्य दिये थे उस ने भी पहिली की तरह उन पर विचार किया, किन्तु वह धान्य गेरे तो नहीं अपितु छील कर खा लिये। . तीसरी वधु ने सोचा कि जब इन धान्यों के वास्ते इस प्रकार हमें शेठ जी ने पुला कर दिये हैं तो इस से सिद्ध होता है कि-इस में कोई न कोई कारण अवश्य इस लिये इन की रक्षा करनी चाहिये । तव उस ने अपने रत्नों की पेटो में उन पांचों धान्यों को रख दिया इतना ही नहीं किन्तु पन की दोनों समय 'रता करने लग गई। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) नप पोपी मधु ने पांच पाप , चिपे पं उस ने भी वासरो को परिवार दिया, किन्तु बन पान्यों को अपने इस पर पुरुषों को पुचकर परमिप ! इन पापा पापों को रुप में मामों और बाया एक क्यारा बना फर रिति पूर्णरु पर्पा अनुमाने पर इनका पीन दो, फिर पा लिपि क्रियाएं से नामों भवन में हमारे से पाम्प म मांगन-पान इस में से यापन्मान पाम्प होने म एसप बीमते मामा ! दास पुलों ने इस मा सनर पर रिया फिर से उसी प्रकार पपिवई पर्यन्वं परते गए। पनि उन पनि पाम्यों की पुदि ती मई पान्यों रेठे परनए। रे दसरा प्रवियप पर्व समाचार भीमती गरिको देवी को देते है। ना पाप प्रतीत हागर-ब मामाद रोठ मो पीसप अपने माम में सोए पहेपे मापीराव समयसमी नींद सुबई व समरे मन में पर मार पमापरिमैने मत पचि पप में अपनी पसनों में परीक्षा पास्ते नको पाप २ शाप दिए थे, प्रदेश Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७8 ) उन्होंने पांच धान्यों ने क्या लाभ उठाया | उन से वृद्धि की या नहीं तब प्रातः काल होनेही शेठजी ने फिर एकबड़े विशाल भोजन मंडप तय्यार करवाया उसमें नाना मकार के भोजन तय्यार करवाए गए । 1 ताम्बूलादि पदार्थों का भी संग्रह किया गया फिर शेठजी ने अपनी जातिवाले पुरुषों को वा अपनी वधु प के सम्बन्धि पुरुषों को विधिपूर्वक श्रीमंत्रित किया जब भोजनशाला में सर्व जनवर्ग इक' होगया '' उनको भोजन दियागया सत्कार करने के' पर्थात् उनके सामने अपनी चारों वधुओं को बुलाया गया । फिर शेठ जी ने पहली वधु मे पांच धान्य मांगे तब बढी वधु ने अपने धान्यों के फाटों से पांच धान्लाकश शेठ जी के हाथ में रख दियो तव शेठ जी के उसे शपथ देकर कहा कि तुम्हें अमुक शर्म है कि क्या ये वी धान्य है। दधु ने कहा कि हे विता भी! यह धान्य वह तो नहीं है किन्तु मैंने अपने धान्य के कोठों में मे लोकान् दिये है । तब शेठ जी ने उस बंधु को विशेष सत्कार तो नहीं दिया और नहीं कुछ कहा परन्तु Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) जब चौपी रघु ने पाप पाप लिये तब उस ने मी वासरी मी वर विचार रिया, भिन्तु पन पापों में अपने इस पर पुरुषों को पता कर पा मिप ! इन पापी पापों से तुप ने मामो मोर बोयसा एर क्यारा पना र रिषि कप मुतु माने पर इत्तफा गीन दो, फिर पवा पिपि त्रिपाएं पर बामो भवता में हमारे से पाम्प न मांगल- इस जमे से पापन्मान पाम्प हो जाएं ये सप बीमवे मामा ! दास पुग्मों ने इस मामी को मनार मन स्पिा फिर से उसी पार पाप पर्यन्त परवे मर।, पांच वर्ष उन पांचों पायों की मुवि ची मर्मा मान्यों मरनए। ये दास प्रामविणे पर्व समाचार भीमती राहिण देषी " भब पांच वर्ष मवीव होगप-ब मामात रोठयो शादी समय अपने मन में सोए पके पे मापारावरे सपी नीद सुधर्मा र ग्न: मम में पा भाष समाइए रि-मैंने गत पाप में अपनी पर पास्वे नको पांच २ पाप दिए थे, अब देने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) उन्होंने पांच धान्यों में क्या लाभ उठाया । उन से वृद्धि की या नहीं- तब प्रातःकाल होनेही शेठजी ने फिर एक बड़ी विशाल भोजन मंडप तय्यार करवाया उसमें नाना मझोर के भोजन तय्यार करवाए गए। ताम्बूलार्टि पदार्थों का भी संग्रह किया गया फिर शेठजी ने अपनी जातिवाले पुरुषों को वा अपनी वधु पों' के सम्बन्धि पुरुषों को विधिपूर्वक आमंत्रित किया जब भोजनशाला में सर्वस्वनेनवर्ग इकट्ठा होगया 'ई' उनको भोजन दियागया सत्कार करने के पश्चात् उनके सामने अपनी चारों वधुओं को बुलाया गया । फिर शेठ जी ने पहली वधु से पांच धान्य मांगे तब बढी वधु ने अपने धान्यों के काठों से पांच धान्य साना शेठ जी के साथ में रख दियो तव शेठ जी ने उसे शपथ देकर कहा कि तुम्हें अमुक शपया है कि क्या ये वी घान्य है। सब धु ने कहा कि हे पिता बी! यह धान वातनिहीं है किन्तु मैंने अपने धान्य के कोठों से धान्य दिये । तराशेठ जी ने सबंध विशेष सत्कार तो नहीं दिया भार नहीं कुछ कर पर Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) उस के सस्प गोकन कीमा करके चुप है। रहे और उस का बैठन की आता बी, वदतु शेठ भी ने दूसरी बहु ने मुखापा उस से भी नही मान्य योगे उस न मौ पहनी की तरह सब कुछ कह दिया राम शेठ भी मे इस को भी बैठने की भाशा दी, उस कपमा वीसरी बघु को आमंत्रित किया गया उसने भाकर सर्व चान्य कर सुना और पह भी कह दिया कि मैं कोई कारण मकर दोनों समय इन मान्यों की रक्षा करती रही तब शे भी म वोसरी बहु का सहकार करके अपने पास उसे भी पैठा दिया । फर शेठ भी मे चौबी बघु को पुलापा इस से भी वही धान्य माम लिये गये पस में सब के सामने पह कहा कि-पिया भी न पायों के थाने के लिये ! भेश मिलने चाहिये तब शेठ भी पुभि पर कैसे 1 वर्ष उस मे जिस प्रकार थे। और उन का बना गया था। पांच वर्ष में प मे कहा कि मान्य विदे बुद्ध हा इत्यादि चान्त को सुन कर शेठ की ६६ ख हुए भार चौथी बघु को बहुत ही सत्कार Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) देते हुये उस की अत्यन्त प्रशसा को और उस को पूर्ण आदर दिया । तत्र शेठ जी ने उन चारों वधुओं की परीक्षा बेली, तद लोगों के सामने यह कहा कि देखो ! मेरी पहली पुत्र वधु ने मेरे दिये पांचों धान्यों को गेर दिया. इस लिये ! मैं अपने घर की शुद्धि करने के काम में नियुक्त करता हूं। जो घर में रज, मल, आदि पदार्थ हों यह उनको घर से बाहर गेरसी रहे," दूसरी पुत्र वधु को में भोजन शाला में नियुक्त करता हू क्योंकि इसने मेरे दिये हुये धान्य खा लिये हैं सा मैं खाने पकाने के काम में स्थापन करता हूं । तीसरी वघु ने मेरे दिये हुये पांचों धान्यों की सावधानता पूर्वक रक्षा की है इस लिये ! इसको मैं कोशाधिपत्नी बनाता हू । जो मेरे घर में जवाहरात आदि पदार्थ हैं उन की कुंची इस के पास रहेगी । चौथी पुत्र वधु ने मेरे दिये हुये पांचों धान्यों को · Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) हरि की है इस लिय ! सो सर कायों में पहले पाम्प और हरएक कार्य में प्रमाण भूत स्थापन करवाई। इस प्रकार शेठ भी मे पाप करके समा पिसमम पर दी। पासको इस स्टाम्प से पूर्ण समप जैसा भमाठ मून म्पाप सिब होता है और सुमो शिक्षा मिक्षती -पूर्व समय की स्त्रिया र दापि मह का मन न परवी पी-का-तम को योग्प है कितम मर्द मए सो झूठ म पोजा और पपगी म.सा पिता मामामारी पनो पुरको निर्मव से एप विचार वान् हाने का पुरपाय करा और अपनी रिपयाँ पार कामो मुदिमता पनामो पी इस कहानी का पार सोलहवा पाठ। ( जैन धर्म) मैन पर्व पर पापीन पमरे पिम्स्पान बड़े बड़े शार्गे ( मगर्गे) पम्मा काचा में मैमियों की पार २ पस्ति यमराव पाठिपारा माकपा मेपार दामन Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) मारवार मदरास पञ्जाव आदि में जैन लोग बहुत से बसते हैं जैन जाति विशेष करके व्यापार करने बाली जाति है यही कारण है कि जैन जाति में विद्या की T 4 न्यूनता है और इस न्यूनता के होने से जैन धर्म को चार वर्तमान समय में इस प्रकार नहीं जैसा कि होना चाहिये अपितु फिर भी जैन लोगों की संख्या देश में १० - ११ लाख गणना की जाति जैन धर्म की तीन बड़ी शाखाएं हैं " श्वेताम्बर स्थानक बासी" दिगम्बर" श्वेताम्बर - पुजेरे' या मन्दिर मार्गी" परन्तु इन में सब से अधिक संख्या श्वेताम्बर स्थानक वासियों की ही है दिगम्बर श्वेताम्बर स्थानक वासी इन में परस्पर भेद वो थोड़ा सा ही है परन्तु विशेष भेद इस बात का हैकि श्वेताम्बर स्थानक वासी मूर्तिका पूजन नहीं मानने और अन्य मानते हैं जैन धर्म वालों के बड़े समाचीन हिन्दी गुजशवी प्राकृत संस्कृत मागधी आदि भाषाओं की पुस्तकों के भंडार हैं जो जैसलमेर मादि स्थानों में हैं इन की बहुत सी पुस्तकें हस्त लिखित होने के कारण बड़े २ पुराने पुस्तकालयों और अंदारों में होने से प्रकट रूप संसार में नहीं फैलीं परन्तु अब इन का प्रकाश 'देश की 5 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ER) वृद्धि की है इस किये ! इस को सब कार्यों याग्य और हरएक कार्य में माधून स्थापन करता है। मे सा इस प्रकार शेठ भी मे पाप करके सभा विसमन कर दी। हे बालको इससे पूर्व समय प्रमाणभूत म्याय सिद्ध होता है और तुम के शिवा मिलती है कि पूर्व समय की स्त्रियों तक कदापि कूट का समन करती थी वो तुमको योग्य है कि तुम मर्द हो कर कभी झूलन गोसा और अपनी माता के करीबन बुद्धि को मिल करते हुए निर्मार मान होने का पुरुषार्य करा और भवनी मियों व बा कार्यों का बुद्धिमता बनाओ यही इस फहामी का धार है सोलहवां पाठ । ( जैन धर्म ) जैन धर्म एक माधीन पम है हिदुस्थान के बड़े बड़े ग्रह (नगरी) पम्प कलकता में जैमियों की बहुत २ बस्ति है गुजरात काठियावाड़ माकपा मेमाड़ दलम Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) मारवाह मदरास-पञ्जाब आदि में जैन लोग बहुत से बसते हैं जैन जाति विशेष करके व्यापार करने वाली जाति है यही कारण है कि जैन जाति में विद्या की न्यूनता है और इस न्यूनता के होने से जैन वर्ष का मजार वर्तमान समय में इस प्रकार नहीं जैसा कि होना चाहिये अपितु फिर भी जैन लोगों की संख्या देश में ० - ११ लाख गिना की जांति जैन धर्म की तीन बड़ी शाखाएं हैं “श्वेताम्बर स्थानक बासी" दिगम्ब२११ वे॒तम्बर - पुंजेरे' या मन्दिर मार्गी" परन्तु इन में सब से अधिक संख्या श्वेताम्बर स्थानक वासियों की ही है दिगम्बर श्वेताम्बर स्थानक वासी इनमें परस्पर भेद तो गोड़ा सा ही है परन्तु विशेष भेद इस बात का हैकि श्वेताम्बर स्थानक वासी मूर्ति का पूजन नहीं मानने और अन्य मानते हैं जैन धर्म वाली के बड़े लमाची हिंदी गुजरावी माकृत संस्कृत मागधी. आदि भाषाओं की पुस्तकों के भंडार हैं जो जैसलमेर भादि स्थानों में हैं इनकी बहुत सी पुस्तकें हस्त लिखित होने के कारण बड़े २ पुराने पुस्तकालयों और भंडारों में होने से प्रकट रूप संसार में नहीं फैली परन्तु अब इन का प्रकाश देश की T t Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) स से मैन सब ही भाषाओं में हो रहा है महाव पति दिन बढ़ रहा है जैन धर्म ने बहुव उपकार के बड़े २ काय किये है वह सब धर्मों से रस्कृष्ट महान् कामरूप यह माँ किया है कि इस धर्म ने से ( हिंसा का सच्चा आदर्श ) - देश के सामन रस्त हुये इसका स्वयमेव पूर्ण पाचन ही नहीं किया किन्तु हिंसा को देश निकाला देते हुवे बोगों को पूर्ण अहिंसक बनाया यही कारण था कि इस चर्म पर बड़ी आपत्तियां भाई परन्तु वह फिर मी मात्र तक बीवित और भावही २ जैन कुमार की प्रेमभरी भावना १ T १ ये सर्व देव तुम मेरा यह इसतिमा है । इस संसार पारबन में बो दुःख भरा हुआ उस दुःख क मटने की गुखशाना बना है। परशों में हा मेमरी यह भावना है ।। का वहां मौर संसार में " Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उस दवा से मेट दुःख जग के प्राणियों का । और भ्रम सब मिटादं दिल से प्रयानियों का ।। रा करके ब्रह्मचारी विद्या करूं मैं हासिल । मालिम वनं मैं पूरा हरएक फन में कामिल ॥ होकर धर्म का माहिर हरइक अमल का पामिल । पक्खू चक्खाऊ सबको गुण ज्ञान के सरस फल ।। रक्षा करू मैं अपने वन वीर्य की निमा कर । सेवा करूं धर्म की मैं जिस्मो र्जा लगा कर ॥ अर्जन सा बल हो मुझ में और भीम सी हो ताकत । अकलङ्क सी हो हिम्मत निकलङ्क सी शजायत ।। भीपाल जैसी स्थिरता और राम जैसी इज्जत । विष्णु सा प्रम मुझ में लक्ष्मण सी हो महब्बत ॥ उस करण जैसी मुझ में हां दानवीरता हो । गज मुख माल जैसी हां ध्यान धीरता हो ॥ सादी गिज़ा हो मेरी सादा चदन हो मेरा । मैं हूं बतन का प्यारा प्यारा पतन हो मेरा ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ सपी मापामों में रो गाई पिस से मैन पर्मा पास पवि दिन सारे पैन पर्प मचा मौर एव से सपनर के बड़े २म रिपेरेंपो संसार में पर पर्मों से पतष माम् काम सुरूप पर मी हिराई कास पर्म ने (पहिंसा का सघा भादर्श) पण सामन रस्सत हुप इसका सपमेर पूर्ण पालन मी किण िfiसाश निवास बोगी । पूर्ण मासिक पगया यही कारण पाकिस बम पर पड़ी २ मापत्तियो भाई पातु पा फिर मी प्राम सानीविन पोर माएर त - जैन कुमार की प्रेमभरी भावना ऐ सपा मममी पाखविमा । इस संसार पार पन में बादास मरा उमारे॥ स स क पटन डी गण गान मामार। पापोमा मर परी पर मारना॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) यह अनादि कर्म मल से संसार चतुर्गति में परि भ्रमण करनेवाला अशुद्ध और दुखी मात्मा निज परमास्मसरूप को माप्त कर सदैव मानन्द में मग्न रहा करता है (३) स्मरण रक्सो.कि. मोक्ष मांगने और किसी के देने से नहीं-मिजावी उमकी माप्ति समारी पूर्ण बीताता और पुरुषार्थ से कम्म मल और उनके कारण नष्ट पर ही अवलम्बित (४) स्याद्वाद-सत्यता का स्वरूप है और वस्तु के अनन्त धर्मों का यथार्थ कथन करसक्ता है (५) जैनधर्म ही परमात्मा का उपदेश है क्योंकि पूर्वापर विरोध और पक्षपात रहित सब जीवों को उनके कल्याण का उपदेश देता है और उसी के अरमात्मा की सिद्धि और छाप इस संसार में है (६) एकमात्र ही' और 'भी' यही भन्य वर्मा और जैनधम्म का-मेद है यदि-वन सब के भाव मोर उपदेश की इयता की '0' 'भी' से पदल दी जाय तो सनदी सरका समुदाय जैनधर्म है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) 7 } मामसुन हो मेरा पक्का भय हो मेरा । बादर्श जिंदगीहा मास्म मे ॥ दुनिया के पाणिमऐसा मेरा निबाह हो । सुफ का भी इनकी चाह हो उनका भी मेरी चाह हो !! पू दुनिया की और दूर सब मगाई मज्ञान का मैं सब का एक क भारत का बाणी पवित्र मम का महावीर को सुनाकर || पाति पर करूंगा म मन लगाके अपना । सवा कई धर्म का सब हद का अपना ॥ ज्ञान का मारा | पेरा ॥ सोचना कर भावरमक सूचनायें | (१) मैन पर आत्मा हामि समासार एक पात्र उमी द्वारा सुख सम्सादन किया घासका - (२) बम में ही है जिसका कि माठ करके । म प्रति नार मन विद्यार्थियों को इससे कस्य पड़ना चाहिय । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २५) सत्रहवां पाठ। (धर्म प्रचार विषय) पिय मज्जनों ! जब तक धर्म प्रचार नहीं होता तर वक लोग सदाचारी नहीं बन सकते थनएक मदाचार की प्रवृत्ति के लिये धर्म प्रचार की अत्यन्त मारसकता है। विटान पुरुषों को योग्य है कि देश कालम हो कर वर्म शिक्षामों द्वारा प्राणियों को सदाचार में प्रवात कराते रहें यावन्मात्र संसार भर में अन्याय व्यभिचार की प्रवृचि रष्टि गाचर हो रही है यह सब धर्म प्रचार के न होने के ही कारण से है जर धर्म प्रचार न्याय पूर्वक किया जाये सब उक्त प्रवृचिये अन्पतर हो जायें अपितु धर्म प्रचार के जिन २साधनों की भावश्यकता रे वे साधन देश काहान नुसार प्रयुक्त करने से सफलता को प्राप्त हो जाते हैं। और उन साधनों के विषय में यत्किंचित लिखते हैं शक सदाचार में रत धर्मात्मा पूर्ण Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मत सपमो कि जैनपम्म पिसी समुबाप पिरोपकाही पर्म पा सका है मनुष्यों 7 वा सेन मीषमाग इसको सात्यानुसार पारस र वदरूप निम पास कर सकता है (E) मैनपर्म के समस्त सप पौर परेश रस्त पसरूप मानिक नियम म्पापशास्त्र शरगनाम भोर विकारा सिदान्त के अनुसार रोनारण सत्य है___(8) सा दीवगम मौर हितोपदसा देव निप्रेम गुर और जीसा मापा शाम्ब ही नीया पार्य पपदेय दसावे । भोर रन स रखने का सौभाग्य पान मैनपर्म को ही मात्र है (१.) सपम्त दालो से पदार रमे पासी नन्दी As पति सी शक्तिनदा मी साप रस भन्याय पोर पमपा स्पाग र साम्प मार्ग पारा क्रमा पर पाण करत राना पाहिये। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) सत्रहवां पाठ । ( धर्म प्रचार विषय ) प्रिय सज्जनों ! जब तक धर्म प्रचार नहीं होता तब तक लोग सदाचारी नहीं बन सकते श्रतएव सदाचार की प्रवृत्ति के लिये धर्म प्रचार की । अत्यन्त भावश्वकता है। विद्वान् पुरुषों को योग्य है कि देश कालन हो कर धर्म शिक्षाओं द्वारा प्राणियों को सदाचार में मात कराते रहें यावन्मात्र संसार भर में अन्धार्य व्यभिचार की प्रवृति दृष्टि गोचर हो रही है यह सब धर्म प्रचार के न होने के ही कारण से है जब धर्म प्रवार न्याय पूर्वक किया जाये तब उक्त मतृचियें अन्तर हो जायें अपितु धर्म प्रचार के जिन २ साधनों की आवश्यकता है वे साधन देश कालानुसार प्रयुक्त करने से सफलता को प्राप्त हो जाते हैं । अब उन साधनों के विषय में यत्किचित् लिखते हैं जैसे कि- “उपदेशक" सदाचार में रत वर्मात्मा पूर्ण Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( 8 ) विदाम् ममपा समत भौर पर मन पर्स पेचा परख दी सूद मापी मस्पे पाणी में प्रेम माप से बर्वाद फरने पाते भापतिमा मातो पर मोधर्मी में प मिस मापा भी समा हो एसी मापा में पपदेश करने पाठे इस्पादिगण पुक्क पपदेशों द्वारा मन पर्म पर र पाया जाये तप सफतवा शोघ्र रो भाती है पर या म्पाप मावि शास्त्रों में उपदेश में अनेक गुणवर्णन दिये गये वितु एन सों व मो दो एप सम्मान रावेरमैसेडि-"सस्मा मौरा "शोवा पो एण प्रस्पेसपदेश में होमे पारिपावरकालापदेश प्रमर सत्यवादी पौरममचारी मागे वापरताना पवारमा का एफ्पेश भोतामों पिचों को प्राप्ति मही परेर सध्या पक्षपर पपपरशमा प्रम अपने मारपी विनयापा नेपमावस काम में मनोरमामा पापिये। माम मो पुमय पदेश के होने पर भी पह सफरवा होती रष्टि गोपर नीरावीपसमा पारण परेशान दर्शन परि पारितकी म्पस Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) ही है जब यह वीनों गुण उपदेशकों में ठीक हो जायें तव उपदेश की सफलता भी. शीघ्र हो जायगी समाजको उपदेशकों के चारित्र पर अवश्य ध्यान देना चाहिये । ___ पुस्तक द्विर्तीय साधन धर्म पचार का पुस्तकों द्वारा होता है बहुत से सज्जन जन 'पुस्तकों के पठन से धर्म माप्ति कर सकते हैं जैसे कि-जैन 'सूत्रों में भी लिम्बा है। सूत्र रुचि श्रुत के अध्यन करने से हो जाती है। जव विधा पूर्वक श्रतका ध्यन व खाध्याय दिया जायेगा व भी धर्म की प्राप्ति हो सकती है जैसे जब श्री देवद्धिमा श्रमण जी महाराज जी ने १८० मे सूत्रों को पत्रकार आरुिद्ध किया माज घुसी का फल हैं कि जैन मत का मस्तित्व पाया जाता है और उन्दी सूत्रों के अाधारसे। जैन प्राचार्यों ने लाखों जैन प्रन्यों को निर्माण किया जोकि आज कल प्रखर विद्वानों के मान मर्दन करने और जैन तत्त्व को भली प्रकार से प्रदर्शित करें रहे हैं प्रतश्व देश कालानुसार पुस्तकों और धार्मिक समाचार 'परों द्वारा भी धर्म मंचार पली भांति है किन्तु पुस्तकों और समाचार पत्रों के सम्पादक पूर्ण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदान समपा समय और पर मव के पूर्ण पेवा परख पी मृदु मापी मस्पे मार्गी से मर्म भाप से पाय परने पासे भापतिमा बानो पर मौष में एनिस मापा की सभा दो पसी मापा में उपदेश फरने पाये इत्यादि एक युक्त उपदेश द्वारा पर धर्म मार पर पापा भाये तर सफसवा शोध हो मावा रे पाप म्याय भादि शास्त्रों में प्रदेश है भनेक पण वर्णन रिपे गये । किन्तु उन पणों में मो दो एष मम्मन में राते सेरिर-"सत्या भोर "शोमा पर रो पण मतपेपदेश में रोमे पारिपावसातापदेशनमः सहमपाती पोरममपारीनगे वापस्मांझा मपम्ता पमी हा पक्ष भोवाभों पिचों से भारपिव पहीं पर सामवएपमारापरेशमबामपनपने ममापी बिनपापा ने पाया इस काका प्रमोरपान पाहिये। माम परो पुपर परेशान होने पर भी पर। सवाला रपिं गोपर मीनापत समस सजास्पदेशनपर्यन और पारिन की पर Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) की है जब यह वीनों देशों में ही हो नायें सव. पर हो जायगी समाज का रय ध्यान देना चाहिये। व पचौर का पुस्तकों द्वारा का के पठन से धर्म पत्रों में भी लिम्बा है जाती है। जव विष! प्राप्ति हो सकता है जैसे नानायगा तभी ___ उपदेश की सफलता या उपदेशकों के चारित्र पर ___ पुस्तको द्विीप सायन होता है बहुत से सज्जन मन माप्ति करें समते हैं जैसे किलो सूत्र रुचि श्रुत' के अध्यन कर पूर्वक' श्रुत' का 'अध्यन वा खोजी धर्म की प्राप्ति हो सकती है श्रमण जो महाराज 'जी' ने " प्रारूढ़ किया माजे इसी का फल भस्तित्व पाया जाता है और उनी जैन प्राचार्यों में लाखों जैन प्रन्यो । जोकि आज कल प्रखर विद्वानों के पाते हैं और जैन तत्व को भली ॥ से हैं प्रतश्व देश कालानुसार पुस्तके समाचार पत्रों द्वारा भी धर्म प्रचार पक्षी है किन्तु पुस्तकों और समाचार पत्रों में 'जीने ६८० देवद्धिा जापसी का फल को पत्रों पर जाता है मारना शान मत को Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) विद्वान् सम्परिण पारे रोने पाहियें पोंकि पुम्मों और समाचार पो द्वारा विस मार धर्म पार हो सकता है सीपहार इन से अपर्म प्रचार भी हो सकता इस चिपे इन के समावक पिहान् मोर सर पारिन पास होने चाहियें साथ ही ये अपनी वृदि में पपाव सेतिमालमा रेकर इस सब में परि माच रोमे नारे परेप काम ही माति र सम्वे । पदि ने परापार में बने रहेंगे वर मा परिभम समाचार मारिकापार की माधि पर गोमा भपित यदि एक प्रवास पाये सम्पारको हाराई खेल पिपियो पाने में माघाये वारिपार्पियो र योग्य रे अपमी पुदि में रेप (स्पामने पारप) प । पानने योग्य ) पाप (प्राणाने पाप) पापी जपान पसे मा किमो पर उस का पमार तीन परम भवरण मिद मा दिपावर इसस और पर्मिक समाचार पत्र नही गे पर पर्मोमवि सापनों म्यूनवा भवरप नी रहेगी इनहारा पा समारो सकती है अपित पुस्तकामपार देश में होने से बागों को पर्म दोष शीम हो पावा? Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) जैसे श्रीभगवत् की पाणी अर्द्ध मागधी भाषा में होने पर भी जो श्रोताओं की भाषा होती है वह उसी में परिणत हो जाती है इस कथन से स्वतः ही सिद्ध होगया कि जो श्रोताओं व देशियों को वाणी हो उसी में पुस्तकें और धार्मिक समाचार पत्रों से लाभ विशेष हो जाता है अतएव सिद्ध हुआ कि धर्म प्रचार के लिये शुद्ध पुस्तकों और धार्मिक समाचार पत्रों की अत्यन्त आवश्यकता है इनके न होने से धर्म प्रचार में वापा अत्यन्त हो रही है। व्यवसाय सभा, धर्म प्रचार के लिये प्रसिद्ध नगरों में पुस्तकों की अत्यन्त भावश्यकता है क्योंकि जव पुस्तक संग्रह ही नहीं है व जिज्ञासु जन किस प्रकार से लाभ उठा सकते हैं धयः यत्न और विनय पूर्वक शास्त्रों का संग्रह वा अन्य पुस्तकों का संग्रह जब तक नहीं होता तवठक धर्म प्रचार में विघ्न उपस्थिर होते रहते हैं बहुत से मुमुनु जन इस प्रकार के भी हैं जो निज व्यय सस्तक मंगवाने में प्रमाद करते है वा भसपर्थ हैं तथा अपने मन से भिन्न मतों को पुस्तकें मगवाने में उनके Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) पिदान् सम्परिक पासे होने पाीि क्योंकि पुमचे और समाचार पों द्वारा मिस मन्चर पर्म मपारो सवारसी पर इन से मपर्म मपार मी हो सकता इस खिये इन रे सम्मादक दिन मौर शुद पारित पा शेमे पारिप सारी मपनी पदि में पपाव को सिमाजवा देश इस भाग में परि महध मे नारे पपेष ज्ञाम दी माति पर सम्ने रे पदि रे परापार में गेरोगे वरना पीमम सराचार भागरिक पराबार की माचि र गोगा अपिल पदिक अपगप पाले सम्पादों द्वारा ईस रिपापियो पाने में मागाये व रिपार्पियों पोग्य पपनी बुदि में रेप (स्पागने पारप) अप (मानने योग्प) पादेय (प्राण रमे याप) पार्षी पप्पान र मालिगों पर उस स का मार सीम परपरे भवरण मिरमा किनावा और पार्मिक समाचार पत्र नहीं लगे व पर्मोमवि सापनों म्यूमवा भवरयी रहेगी इनारा पर सारो पच्ची भपित प्रस्व प्रसार देश पाहोने से लागों को पर्म दोष ग्रीम से भावा? Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) जैसे श्री भगवत् की पाणी अर्द्ध मागधी भाषा में होने पर भी जो श्रोताओं की भाषा होती है वह उसी में परिणत हो जाती है इस कथन से स्वतः ही सिद्ध होगया कि जो श्रोताओं व देशियों को वाणी हो उसी में पुस्तकें और धार्मिक समाचार पूत्रों से लाभ विशेष हो जाता है अतएव सिद्ध हुआ कि धर्म प्रचार के लिये शुद्ध पुस्तकों और धार्मिक समाचार पत्रों की अत्यन्त आवश्यकता है इनके न होने से धपे प्रचार में चाया अत्यन्त हो रही है। व्यवसाय प्रभा, धर्म प्रचार के लिये प्रति में पुस्तकों की अत्यन्त भावश्यकता है क्योंकि संग्रह ही नहीं है व जिज्ञासु जन किस प्रकार लाम उठा सकते हैं धयः यत्न थोर विनय पर का संग्रह वा अन्य पुस्तकों का संग्रह जा होता तवठक धर्म प्रचार में विघ्न उपस्थित बहुत से मुमुनु जन इस प्रकार के पास से पुस्तक मंगवाने में प्रमाद सरते अपने मन से भिन्न मतों को पुस्तकों का संग्रह जब तक नहीं र में विघ्न उपस्थित होते रहते है मी है जो निज व्यय भिन्न मतों को पुस्तक मंगवाने में उनके Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) मम में संकोष रासारे विस्तु जर जमको रिसी पुस्तकालय का सहारा मिशनाप तो थे पठन करने में मगाद मही करते उनम पाव से भद्र मन ऐसे भी होत रेमो धन सूत्रों का प्रन्पों का पार पर्म से परिचित रोनावे या पदि किसी कारण से किसी उपदेशक का शास्त्रार्य नियतो बाप दब उस सपय उस पुस्त पाप से पोप्त सापमा मिल सकती है स्वाप्याप मेपियों को दो पुस्तकालय एक स्वर्गीय भूमि प्रतीस होतो किन्तु इसका प्रवन्ध ऐस पुयाग्प विहान् पुरुषों दाग होना पारिये भो कि इस कार्य के पूर्ण पेचाहों शास्त्रोदार से नोष कर्मों की निर्मरा रफ मोघ हक भी पहुंच महता प्रवरष सिय हुमा कि पर्म अपार के लिय पुस्ताक्षप भा एक मुख्य मापन रे। "म्यास्पान ममता में ममापशाची म्पाख्यानों का हाना भी पम प्रचार का सम्यांग योनिमा म्पामपान ओली निम स्पानों में प्रचलित है। ही है ससमें नित्य के भावागण ही काम रठा सकवेत् किम्त भो पुरुप सस स्याम से सममिारा पिसी कारण से उस स्थान Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) में आना नही चाहते वे धर्म लाभ नहीं उठा सकते इस लिये सब लोगों में धर्म प्रचार हो इस श्राशा से प्रेरित हो कर व्याख्यान का प्रवन्ध ऐसे स्थान में होना चाहिये जहां पर विना रोक टोक के जनता श्री संके और उन में धर्म प्रचार भली प्रकार हो सके श्रपितु साधुयों वा उपदेशकों को ऐसे ग्रामों वा नगरों में जाना योग्य है जहां पर धर्म प्रचार की अत्यन्त आवश्यकता हो क्योंकि वर्तमानकाल में ऐसा देखा जाता है कि श्रोतागणों की उपदेशक जनही प्रायः प्रतीचा करते रहते हैं किन्तु श्रोता गया उपदेशकों की प्रतिक्षा विशेष नहीं करते जब ऐसे क्षेत्रों में धर्म प्रचार करना चाहें तो यथेष्ट फल की 1 माप्ति होनी दुसाध्य प्रतीत होती है अतएव जिन क्षेत्रों में धर्म प्रचार की आवश्यकता हा उन्हीं क्षेत्रों में धर्म प्रचार के लिये विशेष प्रबन्ध करना चाहिये तब ही धर्मोन्नति हो सकती है। “पाठशालाएं" धर्म प्रचार के लिये धार्मिक संस्थाओं की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि जबतक बच्चों को धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती तबतक वे धर्म से अपरि Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) मन में संकोच रहता है किन्तु अप उनको किसी पुस्वकारूप का सहारा मिलमाय तो वे पहन करने में माद नहीं करते उनमें बहुत से भद्र भन ऐसे भी होत है जो बन सूत्रों या प्रन्थों का पड़कर धर्म से परिचित हो जाते हैं क्या यदि किसी कारण से किसी उपदेशक का शास्त्रार्थ नियत हो माय तब उस समय उस पुस्त कालय से पर्याप्त सहायता मिल सकती है स्वाप्पाम मेमियों को तो पुस्तकालय एक स्वर्गीय भूमि प्रतीत होती है किन्तु इसका प्रबन्ध ऐसे सुयाम्प विद्वान् पुरुषों द्वारा होना चाहिये जो कि इस कार्य के पूर्ण बेचा शास्त्रोद्धार से जोब कर्मों की निर्भरा करके मोच वक भी पहुंच सकता है अवएष सिद्ध हुआ कि धर्म प्रचार के क्षिप पुस्तकात म। एक मुख्य साधन है । "म्यरूपान” भगवा में प्रभावशाली व्याख्यानों का हाना भी मम प्रचार का मुरूयोग है क्योंकि भो व्यायाम वीमि स्थानों में प्रचलित हो रही है उसमें मिस्य के श्रोतागण ही काम पठा सकते हैं किन्तु जो पुरुष स स्थान से धमभि है या किसी कारण से उस स्थान Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) में आना नही चाहते वे धर्म लाभ नहीं उठा सकते इस लिये सब लोगों में धर्म प्रचार हो इस आशा से प्रेरित हो कर व्याख्यान का प्रवन्ध ऐसे स्थान में होना चाहिये जहां पर विना रोक टोक के जनता आ सके और उन में धर्म प्रचार भली प्रकार हो सके श्रपितु साधुयों वा उपदेशकों को ऐसे ग्रामों वा नगरों में जाना योग्य है जहां पर धर्म प्रचार की अत्यन्त आवश्यकता हो क्योंकि वर्तमानकाल में ऐसा देखा जाता है कि श्रोतागणों की उपदेशक जनही प्रायः मतीचा करते रहते हैं किन्तु श्रोतागण उपदेशकों की प्रतिक्षा विशेष नहीं करते जब ऐसे क्षेत्रों में धर्म प्रचार करना चाहें तो यथेष्ट फल को माप्ति होनी दुसाध्य प्रतीत होती है अतएव जिन क्षेत्रों में धर्म प्रचार की आवश्यकता हा उन्हीं क्षेत्रों में धर्म प्रचार के लिये विशेष प्रग्रन्ध करना चाहिये तब ही धर्मोन्नति हो सकती है " 1 " पाठशालाएं" वर्म प्रचार के लिये धार्मिक संस्थाओं ' की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि जबतक बच्चों की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती तबतक वे धर्म से अपरि Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) पिव ही रेखमा ही नहीं कि ये समय पादर नास्विचा में फंस जाते है इसलिये पच्चों के पोपव हवयों पर पहले से ही पम शिष भों के बीम मंडर उस्सम करदेन पाहिय ना मावा पिवा अपम मिप पुष त्रियों पर्म शिक्षामों से पंपिय रसवेरे से वास्तविक में अपनी संतान विपी नहीं है न पे माता पिता पाखाने से पोम्प की पोंकि सोंने अपने पिय पुष और पुषयों भीषम को पपरोटि बनाने का पपस्न नहीं किपा निससे ये अपने जीवन में उमविरे फा दसने में प्रमान्प ही रामापौर धर्म शिक्षा के नरोने कारण से ही उनकी प्यारी मेवान जमा मस मरिरा शिमर परस्मी संग वेश्या गमम चोरी पातिकमा में फसीह भगरे देखते है पर परम हासिव होवे हैं और संसाम मी अपने माता पिता के माय भसभ्य पर्वा करने हम पाती है मिस म्पहार सोग देश मी नहीं सकते पा सब पार्मिक गितान नही देत अाएष सिर हुथा हि पर्म प्रचार के पार्मिक संस्थानों की मस्पन्त पावरवाता है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ बैनसम्प्रदापनिक्षा। भारी मम यह है कि प्रत्येक मनुष्प प्रत्येक पदार्थ के गुण मौर उस में सित तस्वों को चान कर उस पदार्थ की मुसकारिणी योजना को दूसरे पदायों के साथ कर सकता है। गुप के अनुसार सुराक के दो मेव है-मात् पुष्टिकारक और गर्मी मनेवाली, इन में से जो खुराक घरीर के नष्ट हुए परमाणुमों की कमी को पूरा करती है उसको पुष्टि फारक करते हैं । तया यो सराफ शरीर की गर्मी को ठीक रीवि से कायम रखती है उस को गर्मी छानेवाली कहते हैं, यपपि पुष्टिकारक स्वराक के पदार्थ महुत से हैं तपापि उन का प्रस्पेक का भीतरी पौष्टिक रस्मों भ गुण एक दूसरे से मिस्सा हुमा ही होता है, रसायनिक प्रयोगके वेवा विद्वानों ने यह निमम किया है कि पौष्टिक स्वराक में नाइटो जन नामक एक विशेष तस्व है और गर्मी सानेपाली सुराक में पार्मन नामक एक लिसेप वस्त्र है, गर्मी लानेराती सुराक से शरीर की गर्मी कायम रहती है मर्यास् वायु तमा मासु आदि का परिवर्तन होने पर भी उक्क सुराक से शरीर की गर्मी का परिवर्घन नहीं होताहै भीत् गर्मी प्राम समान ही रहती है और शरीर में गर्मी के ठीक रीति से फारम रहने से ही भीवन के सब कार्यों का निर्वाह होता है, यदि शरीर में ठीक रीति से गर्मी कायम न रहे वो चीवन का एक कार्य भी सिद्ध न हो सके, वेसो । बाहरी हवा में पारें असा परिवर्चन होबावे समापि गमी लानेमाती खुराक के लेने से शरीर की गर्मी परावर बनी रहती है, ठरे देशों में (जहाँ मपिक टीसके कारण पानी का बर्फ जम बाता है भोर पारेकी पड़ी में पारा १२ रिमी से भी नीचे पग भाता है वहां) भोर गर्म देशों में (यहाँ अधिक गर्मी के कारण उक परी का पारा १२५ मिमी से भी उँमा पर माता हैवां) भी अंग की गर्मी ९० से १०० किमी तक सदा रहा करती है। शरीर में गर्मी को कायम रसनेवारी सराफ में मुस्त्यतया पर्यन भौर हारोजन नामक दो सुस्व है मौर से दोनों सस्व माणवायु (माक्सिजन) साग रसायनिक संयोग के द्वारा मिस्ते हैं भर्षात् गर्मी उसम होती है तथा यह संयोग प्रत्येक पलमें मारी रहता है, परन्तु अब किसी पाभि के होने पर इस संमोग में फर्क मा बावा है सन घरीर की गर्मी भी न्यूनापित हो माती है। पौष्टिक सराक के भषिक साने से लोई में खाभाविक कि न रहकर विशेष शकि उत्तम हो जाती है भौर ऐसा होने से उस (सोह) परमार कठेने भौर मगम भादि मायनों में बात हो जातार इस सिप ये सर भरपर मोटे हो आसे हैं इसठिये पुष्टि कारक सुराको भपित सानेगाठे मोगों को पाहिये कि उस पुष्टिकारक खुराक के 1-पग प्रमसियार होने से भी प्रोपोगावा । और भी । मबर पर भी पोप्रोपप गावासले भपि परिप्रस गरारे पानेकाले मेमो प्रेम भर में पिरा पratu - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १९९ अनुकूल ही शरीर को श्रम देवें क्योंकि ऐसा करने से अधिक हानि का संभव नहीं रहता है, परन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिये कि-सदा एक ही प्रकार की खुराक को खाते रहना भी अति हानिकारक होता है। खुराक ऐसी खानी चाहिये कि-जिस में शरीर के पोषण के सव तत्व यथायोग्य मौजूद हो, अपने लोगों की खुराक सामान्य रीति से इन सब तत्वो से युक्त होती है क्योंकि शुद्ध अन्न और दाल आदि पदार्थों में शरीर के पोषण के आवश्यक तत्व मौजूद रहते हैं, परन्तु प्राणिजन्य खुराक अर्थात् घी मक्खन और मास आदि पदार्थों में आटे के सत्ववाला तत्व अर्थात् गर्मी को कायम रखनेवाला तत्व बिलकुल नहीं होता है, हां इस प्रकार की (प्राणिजन्य ) खुराक में केवल दूध ही सब तत्वो से युक्त है, इसी लिये अकेले दूध से भी बहुत दिनों तक मनुष्य का निर्वाह होसकता है। घी में केवल चरवीवाला तत्व है, परन्तु उस में पौष्टिक आटे के सत्ववाला तथा क्षार का तत्व बिलकुल नहीं है, चावलों में बहुत सा भाग आटे के सत्वका है और पौष्टिक तत्व प्रति सैकड़े पाच रुपये भर ही है, इसी लिये अपने लोगों में भात के साथ दाल तथा घी खाने का आम ( सामान्यतया) प्रचार है । ___वालकों के लिये चरवीवाले तत्व से युक्त तथा अति पौष्टिक तत्व से युक्त खुराक उपयोगी नहीं है, किन्तु उन के लिये तो चॉवल दूध और मिश्री आदि की खुराक बहुत अनुकूल हो सकती है, क्योंकि इन सब पदार्थों में पौष्टिक तत्व बहुत कम है और गर्मी लानेवाला तत्व विशेष है और बालकों को ऐसी ही खुराक की आवश्यकता है, गेहूँ में चरबी का भाग बहुत कम हैं इस लिये गेहूं की रोटी में अच्छी तरह घी डाल कर खाना चाहिये, बाजरी तथा ज्वार में यद्यपि चरबी का भाग आवश्यकता के अनुसार मौजूद है तथा पौष्टिक तत्व गेहूं की अपेक्षा कम है तथापि इन दोनो पदार्थों से पोषण का काम चल सकता है, अन्नों में उड़द सब से अधिक पौष्टिक है इसलिये शीत ऋतु में पौष्टिक तत्ववाले उड़द के आटे के साथ गर्मी देनेवाला घी तथा मिश्री का योग कर खाना बहुत गुणकारक है, गर्म देश में ताज़ी शाक तरकारी फायदा करती है, अपना देश गर्म है इस लिये यहा के निवासियों को ताजी वनस्पति फायदा करती है, इसी कारण से शीत ऋतु की अपेक्षा उष्ण ऋतु में उस ( ताजी वनस्पति) के विशेष सेवन करने की आवश्यकता होती है, चरबीवाले और चिकनासवाले भोजन में नींबू की खटाई और थोड़ा बहुत मसाला अवश्य डालना चाहिये ।। १-यह बहुत ही उत्तम प्रचार है क्योंकि-दाल से पौष्टिक तत्व पूरा हो जाता है और दाल मे नमक के होने से चॉवलों में क्षार की जो न्यूनता है वह भी पूरी हो जाती है और घी से चरवीवाला तत्व भी मिल सकता है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.० बैनसम्प्रदायशिक्षा । मपपि देश, काल, समान, मम, शरीर की रचना और भवसा आदि के अनेक मेदों से पराक के मी भनेक भेद हो सकते हैं समापि इन सब का वर्णन करने में अन्नविसार का मम पिपार कर उनका वर्णन नहीं करते हैं किन्तु मुख्यतया यही समझना चाहिये जिराफ का भेद केवल एक ही है मर्मात् विस से भूख और प्यास की निवृधि हो उसे खुराक करते हैं, उस चुराक की उत्पचि के मुस्म को हेतु हैं-सारर भौर चाम, साबरों में तमाम बनस्पति और बजाम में मापियन्म दूप, दही, मसन और छाछ (मा) भावि सुराक बान लेनी चाहिये। नसूमों में उस माहार वा खुराफ पार भेद मिखे हैं-मसन, पान, सादिम मौर साविम, इनमें से खाने के पदा मशन, पीने के पदार्थ पान, पाव कर खाने के पदार्थ साविम मोर पाट पर लाने के पदार्थ लादिम कागते हैं। अपपि भाहार के बहुत से प्रकार अर्थात् भेद है तथापि गुणों के अनुसार उक माहार के मुरूम पाठ मेव --मारी, चिकना, ठंग, फोमन, हलका, रूस (ससा), गर्म मौर तीक्ष्म (सेम), इन में से पहिसे चार गुणोंगाम महार श्रीववीर्य है और पिछले पार गुणोपाला माहार उप्मवीर्य है । माहार में सित जो रस है उसके छ मेव हैं-मधुर ( मीठा ), सम्म (सहा), मम (सारा), रुद्ध (तीसा), सिक ( मा) और कपास (कला), इन छ' रसों के प्रमा पसे माहार के २ मेव-पथ्य, अपम्प भौर पस्यापम्प, इन में से हितकारक भागार ने परम, महितकारक (एनिकारक) को मपम मौर हिस सपा महित (दोनों) के करने वाले बाहार को पथ्यापथ्य कहते हैं, इन तीनों प्रकारों के बाहर का वर्णन विस्तार पूर्मक भागे फिमा बेगा। इस प्रकार भादार के पदार्थों के अनेक सूक्ष्म मेद हैं परन्तु सर्व सापारम के लिये रे विशेप उपयोगी नहीं है, इस म्मेि सूक्ष्म मेदों प्रविचन कर उनका पर्यन रना बना बश्यकते, ही मेधक छ. रस मोर पथ्यापथ्य पदार्थ सम्पपी मावश्यक विपमका मान सेना सर्व सामारण केम्मेि हितकारक है, क्योंकि जिस सुराकको हम सम साते पीवे है उसकेजदे २ पदायों में जवा २ रस होने से कौन २ सा रस मा २ गुण रसता है, क्मा २ किया करतारेभोर मात्रा से भमिक खाने से फिस २ विकार को उत्पन करता है भीर हमारी सराफ के पवायों में न २ से पदार्थ पम्पसमा कोन २ से पपम्म इन सब बातों का जानना सर्व सापारण को मावश्यक है, इसटिये इनके विषय में रितारपूर्वक वर्णन किया जाता है १-देषो । पमापन पर्पननामा म्म प्रारम। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २०१ छः रेस ॥ पहिले कह चुके है कि-आहार में स्थित जो रस है उस के छः मेद है-अर्थात् मीठा, खट्टा, खारा, तीखा, कडुआ और कषैला, इनकी उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है कि-पृथ्वी तथा पानी के गुण की अधिकता से मीठा रस उत्पन्न होता है, पृथ्वी तथा अग्नि के गुण की अधिकता से खट्टा रस उत्पन्न होता है, पानी तथा अग्नि के गुण की अधिकता से खारा रस उत्पन्न होता है, वायु तथा अग्नि के गुण की अधिकता से तीखा रस उत्पन्न होता है, वायु तथा आकाश के गुण की अधिकता से कडुआ रस उत्पन्न होता है और पृथ्वी तथा वायु के गुण की अधिकता से कषैला रस उत्पन्न होता है ॥ छओं रसों के मिश्रित गुण ॥ मीठा खट्टा और खारा, ये तीनों रस वातनाशक है ।। मीठा कडुआ और कषैला, ये तीनों रस पित्तनाशक हैं । तीखा कडुआ और कषैला, ये तीनों रस कफनाशक है ॥ कषैला रस वायु के समान गुण और लक्षणवाला है ।। तीखा रस पित्त के समान गुण और लक्षणवाला है ॥ मीठा रस कफ के समान गुण और लक्षणवाला है | छओं रसों के पृथक् २ गुण ॥ मीठा रस-लोहू, मांस, मेद, अस्थि (हाड़) मज्जा,. ओज, वीर्य तथा स्तनों के दूध को बढ़ाताहै, आँख के लिये हितकारी है, बालों तथा वर्ण को स्वच्छ करता है, बलवर्धक है, इंटे हुए हाड़ों को जोड़ता है, बालक वृद्ध तथा जखम से क्षीण हुओं के लिये हितकारी है, तृषा मूर्छा तथा दाह को शान्त करता है सब इन्द्रियों को प्रसन्न करता है और कृमि तथा कफ को बढाता है। ___ इस के अति सेवन से यह-खासी, श्वास, आलस्य, वमन, मुखमाधुर्य (मुख की मिठास ), कण्ठविकार, कृमिरोग, कण्ठमाला, अर्बुद, लीपद, बस्तिरोग (मधुप्रमेह आदि मूत्र के रोग) तथा अभिष्यन्द आदि रोगों को उत्पन्न करता है ॥ खट्टा रस-आहार, वातादि दोष, शोथ तथा आम को पचाता है, वादी का नाश करता है, वायु मल तथा मूत्र को छुड़ाता है, पेटमें अमिको करता है, लेप करने से ठंढक करता है तथा हृदयको हितकारी है। १-दोहा-मधुर अम्ल अरु लवण पुनि, कटुक कषैला जोय ॥ और तिक जग कहत है, पट् रस जानो सोय ॥१॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ बैनसम्प्रदायविया ॥ इस के मति सेनन से यह-चन्तार्प (दाँतों का जान बाना), नेत्रमन्भ (मॉलोपा मिषना), रोमहर्प (रोंगटों का सड़ा होना), कफ का नाच समा शरीरगिस्य (शरीर का ढीला होना) को करता है, एन फण्ठ छाती तथा हवम में वाह को करता है। सारा रस-मरुशुद्धि को करता है, खराब प्रण (गुमड़े) को साफ करता है, सराफ को पचाता है, शरीर में विधिस्ता रता है, गर्मी करता तथा भाययों को कोमल (मुलायम) रखता है। इसके मति सेवन से यह सुबळी, फोड, कोप तथा बेपरको करता है, पमी के रग को बिगाड़ता है, पुरुषार्थ का नाश करता है, माल आदि इन्द्रियों के व्यवहार को मम्द करता है, मुखपाक (मुँह का परवाना) को करता है, नेप्रम्यथा, रफपित्त, वासरफ सभा सही सकार भावि दुष्ठ रोगों को उस्पन करता है ॥ तीसा रस-भमि दीपन, पाचन तमा मन और मस का खोपक (शुद्ध करने वाग) है, शरीर की स्यून्ता (मोठापन ),मामल, कफ, कमि, विपमन्य (बहर से पैदा होनेगाते) रोग, कोद तमा सुबळी मावि रोगों को नष्ट करता है, सांपों को म फरता है, उस्साह को कम करता है तमा सन का दूप, वीर्य और मेव इन का नाटक है । इसके अति सेवन से यह-अम, मद, कण्ठचोप ( गते की सूसना), वाढतोष (पाठ का सूखना), भोष्ठसोप (मोठों का सूखना), शरीर में गर्मी, पम्मम, कम्प मौर पीडा आदि रोगों को उत्पम करता है तमाम पैर भौर पीठ में बादी को करके शुरु को उत्पन करता है। फा रस-सुमती, साम, पिस, तूपा, मूर्णा तमा स्वर भादि रोगों को शान्त करता है, खन के वूपको ठीक रखता है वमा मग, मूत्र, मेव, भरपी मौर मपविधर (पीप) भादि को साता है। इसके मति सेवन से यह-गर्वन की नसों का पाना, नारियों का सिंचना, श्रीर में म्पका का होना, प्रम का होना, भरीर का टना, कम्पन का होना समा मूस में रुचि फा कम होना भाषि विकारों को करता है। कपैला रसवस को रोकता है, शरीर के गानों को रख करता है, प्रण तमा प्रमेह भावि का चोपन (शुदि) करता है, प्रम भावि में प्रवेश कर उस के होप को निन मता सभा क्षेत्र अर्थात् गारे पदार्थ पके हुए पीपका शोषण करता है। इस के भति सेवन से यह-वय पीडा, मुसशोष ( मुसका सूसना), आध्मान (भफरा), नसों का बकाना, घरीर स्फुरण (शरीर त्र फरकना), कम्पन तमा सरीरका संकोप भादि विकारोको करता है ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २०३ यद्यपि खाने के पदार्थों में प्रायः छओं रसोंका प्रतिदिन उपयोग होता है तथापि कडुआ और कषैला रस खानेके पदार्थों में स्पष्टतया ( साफ तौर से) देखने में नहीं आता है, क्योंकि ये दोनों रस बहुत से पदार्थों में अव्यक्त ( छिपे हुए) रहते है, शेष चार रस (मीठा, खट्टा, खारा और तीखा) प्रतिदिन विशेष उपयोग में आते है ॥ यह चतुर्थ अध्यायका आहारवर्णन नामक चतुर्थ प्रकरण समाप्त हुआ | पाँचवां प्रकरण-वैद्यक भाग निघण्टु ॥ धान्यवर्ग ॥ चावल-मधुर, अमिदीपक, बलवर्धक, कान्तिकर, धातुवर्धक, त्रिदोषहर और पेशाव लानेवाला है ॥ __ उपयोग-यद्यपि चावलों की बहुत सी जातियां है तथापि सामान्य रीति से कमोद के चावल खाद में उत्तम होते हैं और उस में भी दाऊदखानी चावल बहुत ही तारीफ के लायक हैं, गुण में सव चावलों में सौठी चावल उत्तम होते है, परन्तु वे वहुत लाल तथा मोटे होने से काम में बहुत नहीं लाये जाते है, प्रायः देखा गया है कि-शौकीन लोग खाने में भी गुणको न देख कर शौक को ही पसन्द करते हैं, बस चावलों के विषय में भी यही हाल है। चावलों में पौष्टिक और चरवीवाला अर्थात् चिकना तत्व बहुत ही कम है, इस लिये चावल पचने में बहुत ही हलका है, इसी लिये बालकों और रोगियों के लिये चावलों की खुराक विशेष अनुकूल होती है। साबूदाना यद्यपि चावलों की जाति में नहीं है परन्तु गुण में चावलों से भी हलका है, इसलिये छोटे बालकों और रोगियों को साबूदाने की ही खुराक प्रायः दी जाती है।। यद्यपि डाक्टर लोग कई समयों में चावलों की खुराक का निषेध ( मनाई ) करते है परन्तु उसका कारण यही मालूम होता है कि हमारे यहा के लोग चावलों को ठीक रीति से पकाना नहीं जानते है, क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि बहुतसे लोग चावलों को अधिक आच देकर जल्दी ही उतार लेते है, ऐसा करने से चावल ठीक तौर मे नहीं पक १-स्मरण रहना चाहिये कि-यद्यपि ये सव रस प्रतिदिन भोजन में उपयोग में आते हैं परन्तु इनके अत्यन्त सेवन से तो हानि ही होती है, जिस को पाठक गण ऊपर के लेखसे जान सकते हैं, देखो ! इन सव रसों में मीठा रस यद्यपि विशेष उपयोगी है तथापि अत्यन्त सेवन से वह भी बहुत हानि करता है, इसलिये इन के अत्यन्त सेवन से सदैव वचना चाहिये । २-इन को गुजरात में वरीना चोखा भी कहते है ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनसम्प्रदायशिक्षा || सकते हैं और इस प्रकार पके हुए चावल हानि ही करते हैं, घासों क पकाने की सर्वोचमरीति यह है कि-पतीठी में पहिले अधिक पानी पटाया जाये, जब पानी गर्म होजावे तब उस में चावलों को धोकर डाल दिया जावे तथा भीमी २ भांग जलाई जाये, अब श्रावसों के दो कण सीम बायें तब पतीली के मुँह पर कपड़ा बाँध कर पतीनीको औषा कर (उरूट कर ) सब मांड़ निकाल दिया जावे, पीछे उस में बोड़ा सा घी डाल कर पीसी को अंगारों पर रख कर ढक दिया जाने, बोड़ी देर में ही माफ के द्वारा वीसरा कण भी सीन वायगा तथा चावल फूल कर भात तैयार हो मानेगा, इस के टीक २ पक जाने की परीक्षा यह है कि बाकी में डालते समय उनाउन भावान करने के पवसे फूल के समान इसके होकर गिरे और हाथ से मसलने पर मक्खन के समान मुकायम मासूम हो सो जान लेना चाहिये कि घायल ठीक पक गये हैं, इस के सिवाम यह भी परीक्षा है कि यदि चावल खाते समय जितने दमा २ कर खाने पड़ें उतना ही उनको कथा सम शना चाहिये । बहुत से लोग चावकों को बहुत वादी करमेवाला समझ कर उन के खाने से डरते हैं परन्तु जिवना मे लोग चावलों को वादी करनेवाले समझते हैं चावल उतने बादी करने माले नहीं है, हां वेशक यह बात ठीक है कि-पटिया चावल कुछ बादी करनेवाले होते हैं किन्तु दूसरे चामल तो पकने की कमी के कारण विशेष बादी करते हैं, सो यह दोष सम ही मन्नों में है अर्थात् ठीक रीति से न पके हुए सब ही अन्न वादी करते हैं। नमे चावलों की अपेक्षा वो एक वर्ष के पुराने चावल विशेष वास के साथ भाषसों के स्वानेसे उन का वायु गुण कम हो जाता है जाता है, चावल और दास को अलग २ पका कर पीछे साथ मिला कर जस्वी पाचन हो जाता है किन्तु दोनों को मिलाकर पकाने से भिड़ी भारी हो जाती है, खिचड़ी प्राय चागलों के साथ मूंग और मिलाकर बनाई जाती है ॥ गुणकारी होते हैं समा और पौष्टिक गुण बढ़ खाने से उन का होती है वह कुछ अरहर (तुर ) की वाक गेहूँ — पुष्टिकारक, भातुमर्धक, बलवर्धक, मधुर, ठंडा, मारी, रुचिकर, टूटे हुए हाम्रो को जोड़नेवाला, मप्प को मिटानेवाला तथा दस्त को साफखानेवाला है । उपयोग – हूँ की मुख्य दो जाति है- काठा और बानिया, इन में पुनः दो भेद हैं- श्वेत और लाल, श्वेत गेहूँ से बाल अधिक पुष्ट होता है, गेहूं में पौष्टिक तथा गर्मी नेपाल मौजूद है, इस लिये दूसरे अमों की अपेक्षा यह विशेष उपयोगी और उत्तम पोषण की एक अपूर्व वस्तु है । गेहूं में सार तथा चरबी का भाग बहुत कम है इसी कारण गेहूं के आटे में नमक डाल कर रोटी बनाई जाती है, जन्मानुसार भी मक्खन और मव्मर मादि पदार्थों के साथ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्यायः॥ २०५ गेहूँ का यथायोग्य खाना अधिक लाभदायक है, गेहूँ की मैदा पचने में भारी होती है इसलिये मन्दाग्निवाले लोगों को मैदे की रोटी तथा पूडी नहीं खानी चाहिये, गेहूँ के आटे से बहुत से पदार्थ बनते है, गेहूँ की राव तथा पतली घाट पचने में हलकी होती है अर्थात् घाट की अपेक्षा रोटी भारी होती है, एवं पूडी, हलुआ (शीरा), लड्डु, मगध और गुलपपडी, इन पदार्थों में पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तर पचने में भारी होते है, घी के साथ खाने से गेहूँ वादी नहीं करता है ॥ बाजरी-गर्म, रूक्ष, पुष्ट, हृदय को हितकारी, स्त्रियो के काम को बढ़ानेवाली, पचने में भारी और वीर्य को हानि पहुँचानेवाली है ॥ उपयोगबाजरी गर्म होने से पित्त को खराब करती है, इसलिये पित्त प्रकृतिवाले लोगो को इससे बचना चाहिये, रूक्ष होने से यह कुछ वायु को भी करती है, जिन २ देशों में बाजरी की उत्पत्ति अधिक होती है तथा दूसरे अन्न कम पैदा होते हैं वहा के लोगों को नित्य के अभ्यास से बाजरी ही पथ्य हो जाती है। ___ यद्यपि पोषण का तत्त्व बाजरी में भी गेहूँ के ही लगभग है तथापि गेहूँ की अपेक्षा चरबी का तत्व इस में विशेष है इस लिये घी के विना इस का खाना हानि करता है । ज्वार-ठढी, मीठी, हलकी, रूक्ष और पुष्ट है ॥ उपयोग-ज्वार में बाजरी के समान ही पोषण का तत्व है तथा चरबी का भाग भी बाजरी के ही समान है, ज्वार करड़ी और रूक्ष है इस लिये वह वायु करती है परन्तु नित्य का अभ्यास होने से मरहठे, कुणबी तथा गुजरात और काठियावाड़ आदि देशों के निवासी गरीब लोग प्रायः ज्वार और अरहर (तूर ) की दाल से ही अपना निर्वाह करते है ॥ मूंग-ठंढा, ग्राही, हलका, खादिष्ट, कफ पित्त को मिटानेवाला और आखों को हितकारी है परन्तु कुछ वायु करता है । उपयोग-दाल की सब जातियों में मूग की दाल उत्तम होती है, क्योंकि मूंग की दाल तथा उस का जल प्रायः सब ही रोगों में पथ्य है और दूध की गर्ज ( आवश्यकता) को पूर्ण करता है किन्तु विचार कर देखा जावे तो यह दूध की अपेक्षा भी- अधिक गुण १-मुर्शिदावादी ओसवाल लोगों के यहा प्रतिदिन खुराक में मैदा का उपयोग होता है और दाल तथा शाकादिमें वहा वाले अमचुर वहुत डालते हैं जिस से पित्त बढता है-सत्य तो यह है कि ये दोनो खुराके निर्वलता की हेतु हैं परन्तु उन लोगों में प्रात काल प्राय दूध और वादाम की कतली के खाने की चाल है इस लिये उन के जीवन का आवश्यक तत्व कायम रहता है तथापि ऊपर कही हुई दोनों वस्तुयें अपना प्रभाव दिखलाती रहती हैं। २-जैसे बीकानेर के राज्य में वाजरी की ही विशेष खपत है, मौठ, वाजरी और मतीरे जैसे इस जमीन में होते हैं वैसे और कहीं भी नहीं होते हैं । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनसम्प्रदामशिक्षा || कारक है, क्योंकि नये सन्निपात ज्मर में दूध की मनाई है परन्तु उस में भी मूंग की दाल का पानी हितकारी है, एवं बहुत दिनों के उपवास के पारने में भी यही पानी हिटकारी दे साबस मूंग वायु करता है, यदि मूग की दाल को कोरे तने पर कुछ सेक कर फिर विधिपूर्वक सिखा कर यनाया जावे तो वह बिलकुल निर्दोष होजाती है यहां तक कि पूर्व और दक्षिण के देशों में तथा किसी भी बीमारी में वह बायु नहीं करती है, यद्यपि मूंग की बहुत सी जातियां हैं परन्तु उन सब में हरे रंग का मूंग गुणकारी है ॥ अरहर — मीठी, भारी, रुचिकर, माही, ठंडी और त्रिदोषहर है, परन्तु कुछ वायु करती है | उपयोग – रक्तविकार, भर्थ ( मस्सा), ज्वर और गोले के रोग में फायदेमन्द है । दक्षिण और पूर्व के देशों में इस की वास का बहुत उपयोग होता है और उन्हीं देशों में इस की उत्पत्ति भी होती है, अरहर की दाल और भी मिलाकर चावलों के खाने से वे वायु नहीं करते हैं, गुजरातवाले इस की दाल में कोकम और इसकी आदि की खटाई डाल कर बनाते हैं तथा कोई लोग वही और गर्म मसाला भी डालते हैं इस से बइ बायु को नहीं करती है, वाल से बनी हुई वस्तु में कथा वही और छाछ मिठा कर खाने से थूक के स्पर्धसे वो इन्द्रियाले जीव उत्पन्न होते हैं इसलिये वह अभक्ष्य है और अभक्ष्य बस्तु रोग फर्चा होती है, इस लिये द्विर्दल पदार्थों की कढ़ी और राइता मावि बनाना हो तो पहिले गोरस (दही वा छाछ आवि) को बाफ निकलने तक गर्म कर के फिर उस में बेसन आदि द्विवल अन्न मिळाना चाहिये समा दही भिड़ी भी इसी प्रकार से बना कर स्वानी चाहिये जिस से कि वह रोगकर्ता न हो । पाकविद्या का ज्ञान न होने से बहुत से लोग गर्म किये बिना ही वही और छाछ के साथ स्लिपड़ी तथा स्वी बड़ा वा ऐसे हैं वह उन के शरीर को बहुत हानि पहुँचाता है, इस लिये चैनामायने रोग कर्ता होने के कारण २२ बहुत बड़े अभक्ष्य बता कर उन का निषेध किया है तथा उन का नाम मतीचार सूत्र में लिख बतलाया है उसका हेतु केवल मही प्रतीत होता है कि उन का स्मरण सदा सब को बना रहे, परन्तु बड़े छोक का विषय है कि इस समय में हमारे बहुत से भिम जैन बन्धु इस बातको बिरुकुल नहीं समझते हैं ॥ उड़द - भस्यन्त पुष्ठ, मीर्यवर्धक, मधुर, भूमिकारक, मूत्रल (पेद्यान कानेवाला ), Hans (मको सोड़नेवाला ), स्वनों में दूध को बढ़ानेवाला, मांस और मेवे की उसकते है, ऐसे मन को मोरस धर्षात् दही और छ आदि के ग्राम मम किये विधवाना वैन्यमम में निषिद्ध है अर्थात् कम किया है की हो Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ चतुर्थ अध्याय ॥ वृद्धि करनेवाला, शक्तिप्रद (ताकत देनेवाला), वायुनाशक और पित्त कफ को बढ़ानेबोला है ।। उपयोग-श्वास, श्रान्ति, अर्दित वायु ( जिस में मुँह टेढ़ा हो जाता है) तथा अन्य भी कई वायु के रोगों में यह पथ्य है, शीत ऋतु में तथा वादी की तासीरवाले पुरुषों के लिये यह फायदेमन्द है, पचने के बाद उड़द गर्म और खट्टे रस को उत्पन्न करता है इस लिये पित्त और कफ की प्रकृतिवालों को तथा इन दोनों दोषों से उत्पन्न हुए रोगवालों को हानि पहुँचाता है । चना-हलका, ठढा, रूक्ष, रुचिकर, वर्णशोधक (रग को सुधारनेवाला) और शक्तिदायक ( ताकत देनेवाला) है ॥ ___ उपयोग कफ तथा पित्त के रोगों में फायदेमन्द है, कुछ ज्वर को भी मिटाता है परन्तु वादी कर्ता, कबजी करनेवाला अथवा अधिक दस्त लगानेवाला है, खुराक में काम देनेवाली चने की बहुत सी चीजें बनती है क्योंकि यह साबत, आटा (बेसन) और दाल, इन तीनों तरह से काम में लाया जाता है, मोतीचूर का ताजा लड्डु पित्ती के रोग को शीघ्र ही मिटाता है, चने में चरबी का भाग कम है इस लिये इस में घी और तेल आदि स्निग्ध पदार्थ अधिक डालना चाहिये, यह तासीर के अनुसार परिमित खाने से हानि नही करता है, धी के कम डालने से चने के सब पदार्थ हानि करते हैं । मौठ-रुचिकर, पुष्टिकारक, मीठा, रूक्ष, ग्राही, बलवर्धक, हलका, कफ तथा पित्त को मिटानेवाला और वायुकारक है। उपयोग-यह रक्तपित्त के रोग, ज्वर, दाह, कृमि और उन्माद रोग में पथ्य है । चवला-मीठा, भारी, दस्त लानेवाला, रूक्ष, वायुकर्ता, रुचिकर, स्तन में दूध को बढ़ानेवाला, वीर्य को बिगाड़नेवाला और गर्म है ॥ उपयोग यह अत्यन्त वायुका है इस लिये इस को अधिक कभी नहीं खाना चाहिये, यह खाने में मीठा तथा पचने के बाद खट्टे रस को उत्पन्न करता है, शक्तिदायक है परन्तु रूक्ष और भारी होने से पेट में गुरुता को उत्पन्न कर वायु को करता है, गर्म, दाहकारी और शरीरशोषक (शरीर को सुखानेवाला) है, शरीर के विष का तथा आखो के तेज का नाशक है ।। १-दिल्ली के चारो तरफ पजाव तक इस की दाल को हमेशा खाते हैं तथा काठियावाडवाले इस के ला शीत काल मे पुष्टि के लिये बहुत खाते हैं । २-गुजरातवाले तेल के साथ चने का उपयोग करते है ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैनसम्पदामा || मटर - रुचिकर, मीठा, पुष्टिकर, रूक्ष, माही, शक्तिवर्धक ( ताकत को भानेवाला), हलका, पिच कफ को मिटानेवाला और वायकर्ता है। कलिकाल सर्वच श्री हेमचन्द्राचार्य ने निषण्टुराजमें पदार्थों के गुण और भवगुण लिखे हैं वे सब मुख्यतमा बनाने की क्रिया में तो रहते ही है यह तो एक सामान्य नात है परन्तु सस्कार के अदल बदल ( फेरफार ) से भी गुणों में अदल बदल हो बाता है, उदाहरण के लिये पाठक गण समझ सकते हैं कि पुराने घावों का पकाया हुआ भाव का होता है परन्तु उन्हीं के मुरमुरे मादि बहुत भारी हो जाते हैं, इसी प्रकार उन्हीं की बनी हुई खिचड़ी मारी, कफ पित्त को उत्पन्न करनेवाली, कठिनता से पचनेवाली, बुद्धि में बाधा डालनेवाली तथा दस्त और पेचाम को बढानेवाली है, एव थोड़े चल में उन्हीं भावकों का पकाया हुआ भात शीघ्र नहीं पचता है किन्तु उन्हीं चावकों का अच्छी सरह भोकर पंचगुने पानीमें स्यून सिद्धा फर तथा मांड निकाल कर भाव बनाने से वह बहुत ही गुणकारी होता है, इसी प्रकार खिचड़ी भी धीमी २ भांप से बहुत बेरक पका कर बनाई जाने से ऊपर लिखे दोषों से रहित हो जाती है। मौर मोठ भादि ओ २ भन्न बातकर्ता है सभा ओ २ दूसरे मन दुप्पाक (कठिनता से पचनेवाले ) है वे भी घी के साथ स्वामे जाने से उक्त घोपों से रहित हो जाते हैं अर्थात् वायु को कम उत्पन्न करते और जल्दी पच आते हैं । मारवाड़ देश के बीकानेर और फलोभी आदि नगरों में सब लोग आस्थातीय ( भक्षय तृतीया अर्थात् पैशास्त्रमुदि तीम) के दिन ज्वार का खीचड़ा और उस के साथ बहुत भी स्वाकर ऊपर से इमली का प्रेर्बत पीते हैं क्योंकि भास्वातीय को नया दिन समझ कर उस दिन मे लोग इसी खुराक का खाना शुभ और लाभदायक समझते हैं, सो यद्यपि यह खुराक प्रत्यक्ष में हानिकारक ही मतीत होती है तथापि वह मछति और देश की धासीर के अनुकूल होने से भीष्म ऋतु में भी उन को पचजाती है परन्तु इस में मह एक बड़ी खराबी की वास है कि बहुत से अन कोग इस दिन को नया विन समझ कर रोगी मनुष्य को भी नही खुराक स्वाने को दे देते हैं जिस से उस बेचारे रोगी को बहुत हानि पहुँचती है इस लिये उन लोगों को उचित है कि रोगी मनुष्य को वह (उक) सुराक भूल कर भी न देवें ॥ १- इस माम्यधर्म मे बहुत बोरे व्यावश्यक भान्यों का वर्णन किया गया है, शेवयों का तथा उसे बने हुए पदों का वर्णन मिषण्ड एलाकर मारि भन्यों में देख लेना चाहिये ॥ २- इस को बीकानेर निवासी धामी ते रे । ३-श्रीदेवी ने तो इस दिन घठेि अर्थात् य रस पिया था जिस रस को बांस नामक पपीते में वर्ष भर के भूखे को सुन दान देकर मक्षण सुख का उपार्जन किया था उसी दिन से इस प मास गतीमा हुमा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ शाक वर्ग ॥ २०९ करनेवाले, इसी लिये नित्य की खुराक के लिये शाक (तरकारी) बहुत कम उपयोगी है, क्योंकि - सब शाक दस्त को रोकनेवाले, पचने में भारी, रूक्ष, अधिक मल को पैदा करनेवाले, पवन को बढ़ानेवाले, शरीर के हाडों के भेदक, आख के तेज को घटानेवाले, शरीर के रग खून तथा कान्ति को घटानेवाले, बुद्धि का क्षय वालो को श्वेत करनेवाले तथा स्मरणशक्ति और गति को कम करनेवाले है, वैद्यकशास्त्रो का सिद्धान्त है कि-सब शाकों में रोग का निवास है और रोग ही शरीर का नाश करता है, इसलिये विवेकी लोगों को उचित है कि - प्रतिदिन खुराक में शाक का भक्षण न केरें, जो २ दोप खट्टे पदार्थों में कह चुके हैं प्रायः उन्ही के समान सब दोष शाको में भी है, यह तो सामान्यतया शास्त्र का अभिप्राय कहा गया है परन्तु पाश्चात्य विद्वानो ने तो यह निश्चय किया है कि-ताजे फल और शाक तरकारी बिलकुल न खाने से स्कर्वी अर्थात् रक्तपित्त का रोग हो जाता है । संसार से विदा होगये ग्रस्त होगये थे, इस यह रोग पहिले फौज में, जेलों में, जहाजों में तथा दूसरे लोगों में भी बहुत बढ गया था, सुना जाता है कि - आतसन नामक एक अग्रेज ने ९०० आदमियों को साथ लेकर जहाज़ पर सवार होकर सब पृथिवी की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ किया था, उस यात्रा में ९०० आदमियों में से ६०० आदमी इसी स्कर्वी के रोग से इस तथा शेष बचे हुए ३०० में से भी आधे ( १५० ) उसी रोग से का कारण यही था कि वनस्पति की खुराक का उपयोग उन में नहीं था, इस के पश्चात् केप्टिन कुके ने पृथ्वी की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ कर उसी में तीन वर्ष के साथ ११८ आदमी थे परन्तु उन में से एक भी स्कर्वी के रोग से केप्टिन को मालूम था कि खुराक में वनस्पति का उपयोग करने से खाने से यह रोग नहीं होता है, आखिरकार धीरे २ यह बात कई होगई और इसके मालूम हो जाने से यह नियम कर दिया गया कि - जितने जहाज़ यात्रा के लिये निकलें उन में मनुष्यों की सख्या के परिमाण से नींबू का रस साथ रखना चाहिये और उस का सेवन प्रतिदिन करना चाहिये, तब से लेकर यही नियम सर्कारी फौज तथा जेलखानों के लिये भी सर्कार के द्वारा कर दिया गया अर्थात् उन लोगों को भी महीने में एक दो वार वनस्पति की खुराक दी जाती है, ऐसा होने से इस स्कर्वी ( रक्तपित्त ) रोग से जो हानि होती थी वह बहुत कम हो गई है । व्यतीत किये, उन नहीं मरा, क्योंकि तथा नीबू का रस विद्वानों को मालूम १- जैसा कि लिखा है कि- "सर्वेषु शाकेषु वसन्ति रोगा" इत्यादि ॥ २ - परन्तु मेरी सम्मति मे उत्तम फलादि का विलकुल त्याग भी नहीं कर देना चाहिये ॥ २७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० चैनसम्प्रदामशिक्षा || ऊपर के लेख को पर कर पाठकों को यह नहीं समझ लेना चाहिये कि इस ( रक्क पित्त ) रोग के कारण को डाक्टरों ने ही खोज कर मतलाया है क्योंकि पूर्व समय के जैन भावक लोग भी इस बात को अच्छी तरह से मानते थे, देखो । उपासकदासूत्र में मानन्द मानक के बारह मतों के ग्रहण करने के अधिकार में यह वर्जन है कि -भानन्य भावक ने एक क्षीरामल फल (स्वीरा ककड़ी) को रखकर और सब वनस्पतियों का त्याग किया, इस वजन से यह सिद्ध होता है कि--आनन्द भावक को इस विद्या की निशता भी, क्योंकि उस ने श्रीरामल फल को मही विचार कर खुला रक्खा था कि यदि एक भी उधम फल को मैं खुला न रक्स्यूगा तो स्कर्वी ( रक्तपित) का रोग हो जायेगा और सरीर मैं रोग के होजाने से धर्मध्यानादि कुछ भी न बन सकेगा । - परन्तु बड़े ही शोक का विषय है कि बत्तमान समय में हमारे बहुत से भोले जैन एकदम मुक्ति में जाने के लिये बिलकुल ही वनस्पति की खुराक का स्याग कर देत है, जिसका फल उन को इसी भव में मिलजाता है कि वे वनस्पति की खुराक का मिल कुछ त्याग करने से अनेक रोगों में फँस जाते हैं तथापि मे जरा भी उन ( रोगों ) के कारणीभोर ध्यान नहीं देते हैं। इस मिया का यथार्थ ज्ञान होने से मनुष्य अपना कस्माण अच्छी तरह से कर सकता है, इस लिये सब जेन बधुओं को इस विधा का ज्ञान कराने के लिये यहां पर संक्षेप से हमने इस को लिखा है, इस बात का निश्धम करने के लिये यदि प्रयम किया जाये वो से प्रत्यक्ष उदाहरण मिल सकते है जिन से यही सिद्ध होता है कि वनस्पति की खुराक का बिलकुल त्याग कर देने से अनक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, देखो ! जिन छार्गो ने एकदम बनस्पति की गुराक को मन्द कर दिया है उनकी गुदा भर मुख से माय सून गिरने लगता है समात् किसी २ क मद्दीन में दो बार बार गिरता हूँ और किसी २ कदाचार यार से भी अधिक गिरता है तथा मुख में छाडे आदि भी हो जाते इत्यादिमा जनों से दीखती है तो उन के लिये दूसरे ममाण की क्या आप यकता है। डाक्टर का कथन है कि उपयोग के लिये धाक भार फल आदि उत्तम होने पाहिये पापा भी मिलें और विपार कर हमने यह बात बिलकुल ठीक भी माम दाती है, क्योंकि भाभी कभार फल आदि हो परन्तु उसमा उन सान होता है भार बाजार में कई दिन तक पड़ रहन र भर ग तु १ अनुसार भरी नाम में भी कहाँ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २११ और फल आदि चाहें अधिक भी हो तो भी उन से कुछ लाभ नहीं होता है किन्तु उनसे अनेक प्रकार की हानियां ही होती है, तात्पर्य यह है कि हरी चीजो का बहुत ही सावधानी के साथ यथाशक्य थोडा ही उपयोग करना परन्तु उत्तमो का उपयोग करना बुद्धिमानो का काम है और यही अभिप्राय सब वैद्यक ग्रन्थों का भी है, परन्तु वर्तमान समय में हमारे देश के जिहालोलुप लोगो में शाकादि का उपयोग बहुत ही देखा जाता है और उस में भी गुजराती, भाटिये, वैष्णव और शैव सम्प्रदायी आदि बहुत से लोगों में तो इस का वेपरिमाण उपयोग देखा जाता है तथा वस्तु की उत्तमता और अधमता पर एव उस के गुण और दोष पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है, इस से बड़ी हानिया हो रही है, इसलिये बुद्धिमानों का यह कर्तव्य है कि इस हानिकारक वर्ताव से स्वयं बचने का उद्योग कर अपने देशके अन्य सब भ्राताओं को भी इस से अवश्य बचावें । वनस्पति की खुराक के विषय में शास्त्रीय सिद्धान्त यह है कि जिस वनस्पति में शक्तिदायक तथा उष्णताप्रद (गर्मी लानेवाला) भाग थोड़ा हो और पानी का भाग विशेष हो इस प्रकार की ताज़ी वनस्पति थोडी ही खानी चाहिये । पत्ते, फूल, फल और कन्द आदि कई प्रकार के शाक होते है-इन में अनुक्रम से पूर्व २ की अपेक्षा उत्तर २ का भारी होता है अर्थात् पत्तों का शाक सब से हलका है और कन्द का शाक सब से भारी है । हमारे देश के बहुत से लोग वैद्यकविद्या और पाकशास्त्र के न जानने से शाकादि पदार्थों के गुण दोष तथा उन की गुरुता लघुता आदि को भी बिलकुल नहीं जानते हैं, इसलिये वे अपने शरीर के लिये उपयोगी और अनुपयोगी शाकादि को नहीं जानते हैं अतः कुछ शाकों के गुण आदि का वर्णन करते है:-~~ चदलिया (चौलाई)-हलका, ठढा, सूक्ष, मल मूत्र को उतारनेवाला, रुचि. कर्ता, अमिदीपक, विषनाशक और पित्त कफ तथा रक्त के विकारको मिटानेवाला है, इस का शाक प्रायः सब रोगों में पथ्य और सबों की प्रकृति के अनुकूल है, यह जैसे सव शाकों में पथ्य है उसी प्रकार स्त्रीके प्रदर में इस की जड़, बालकों के दस्त और अजीर्णता में इस के उवाले हुए पत्ते और जड़ पथ्य है, कोढ़, वातरक्त, रक्तविकार, रक्तपित्त और खाज दाद तथा फुनसी आदि चर्म रोगों में भी विना लाल मिर्चका इस का शाक खाने से बहुत लाभ होता है, यद्यपि यह ठढा है तथापि वात पित्त और कफ इन तीनों दोषो को शान्त करता है, दस्त और पेशाव को साफ लाता है, पेशाव की गर्मी को शान्त करता है, खून को शुद्ध करता है, पित्त के विकार को मिटाता है, यदि किसी विकृत दवा की गर्मी १-जिस शाक को जैन सूत्रों में जगह २ पर 'अनन्तकाय' के नाम से लिखा है वह शाक महागरिष्ट, रोगकर्ता और कष्ट से पचनेवाला समझना चाहिये । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. जैनसम्प्रदायनिक्षा ॥ अमवा किसी विप का प्रभाव हो रहा हो तो इस परों को उबाल कर सभा उन रस निकाल कर उस रस को शहद मा मिमी राठ कर पीने से सपा इस कशा साने से दया की गर्मी मौर विप का मसर बस्न और पेशाब के मार्गसे निकल जाता है, इसको जिस कार भषिक सिवाया जावे उसी कदर यह अधिक स्वादिष्ठ और गुणकारी हो जाता है, मद, रक्तपिस, पीनस, त्रिदोपपर, फफ, सांसी मौर बस की बीमारी में भी यह बहुत फायदेमन्द है॥ __ पालक-ममिदीपक, पाचक, मलशुद्धिकारक, रुचिकर तथा धीवत है, सोच, विप योप, हरस तथा मन्वामि में हितकारक है॥ . पधुआ-भुए का वाक पाचक, रुचिकर, हलका भौर वख को साफ मनेवाला है, सापसिठी, रक्तविकार, पित, इरस, कृमि मौर त्रिदोप में फायोमन्द है ।। पानगोभी- गोभी की चार किस्मों से यह (पामगामी) मग होती है, यह मारी, पाही, मधुर और रुचिकर , मासादि तीनों दोषोंमें पप्य, सन के दूध मौर वीर्य को बसानेवाली है ॥ पानमधी-पर पित्तकारक तथा पाही है, परन्तु कफ, मायु और कमि का नाश करती है, रुचिकर और पापक होती है। के पत्ते-भई के पत्तों का साक रकपित्त में अच्छा है, परन्तु वस्त्र की फन्नी कर वायु को कुपित करता है, इस से मरो वस हाने लगते हैं। मोगरी-सीक्ष्ण तभा उम्म है भोर कफ वायु की महठिवाने के सिप भष्ठी हैं। मूली के पत्ते-मूठी के सामे पचों न छार-पाचक, हवन, रुचिकर और गमे है, मूसी के पत्रों को बीकानेर गुमराव और प्रठिमागाह के होग छ में पकाते हैं तमा उन के चाफ को सीनों वोपों में गमदामक समझते हैं, इसके ये पत्ते पिस और कफ को विगारते हैं ॥ परवल वय को हिसकर, पम्पक, पापक, तप्ण, रुचिकर, समयका भोर चिकना है, सांसी रपित, पर, विदोपज सनिपात भौर कृमि भादि रोगों में बहुत फायदेमन्द है, फलों के सब सा में समतिम साक परपस पा ही है। मीठा तूंपा–मीठा, पातुरक, मम्मक, पौष्टिक, धीतर और रुपिफर है, परन्तु पचने में भारी, कफकारक, दस्त को बन्द करनेगाश भोर गर्भ को मुसानेवाला है, इस कोम्, सपा और दूधी भी करत रेसमा इस का धीरा भी बनाया जाता है १-पूर्वगो में भरवाया तो नपनि असममा 4 एमा पा - मूबर ये मुप पापीर परम मापन एकापी गरी मूमे भी बाहुन म रामों में पम माम् गा . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २१३ कोला, पेठा - इस की दो किस्मे है- एक तो पीला और लाल होता है उस को कोला कहते है, उस का शाक बनाया जाता है और दूसरा सफेद होता है उस को पेठा, कहते है, उस का मुरब्बा बनता है, यह बहुत मीठा, ठंढा, रुचिकर, तृप्तिकर, पुष्टिकारक और वीर्यवर्धक है, भ्रान्ति और थकावट को दूर करता है, पित्त, रक्तविकार, दाह और वायु को मिटाता है, छोटा कोला ठढा होता है इस लिये वह पित्त को शान्त करता है, मध्यम कद का कोला कफ करता है और बड़े कद का कोला बहुत ठंढा नहीं है, मीठा है, खारवाला, अग्निदीपक, हलका, मूत्राशय का शोधक और पित्त के रोगों को मिटानेबाली है ॥ बैंगन - बैगन की दो किस्में हैं - काला और सफेद, इन में से काला बैगन नींद लाने वाला, रुचिकारक, भारी तथा पौष्टिक है, और सफेद बैगन दाह तथा चमड़ी के रोग को उत्पन्न करता है, सामान्यतया दोनो प्रकार के बैंगन गर्म, वायुहर तथा पाचक होते है, एक दूसरी तरह का भी नीबू जैसा बैगन होता है तथा उसे गोल काचर कहते है, वह कफ तथा वायु की प्रकृतिवाले के लिये अच्छा है तथा खुजली, वातरक्त, ज्वर, कामला और अरुचि रोगवाले के लिये भी हितकारी है, परंतु जैनसूत्रों में बैगन को बहुत सूक्ष्म बीज होने से अभक्ष्य लिखा है ॥ घिया तोरई - खादिष्ट, मीठी, वात पित्त को मिटानेवाली और ज्वर के रोगी के लिये भी अच्छी है ॥ तोरी - वातल, ठढी और मीठी है, कफ करती है, परन्तु पित्त, दमा, श्वास, कास, ज्वर और कृमिरोगो में हितकारक है | करेला - कडुआ, गर्म, रुचिकारक, हलका और अग्निदीपक है, यदि यह परिमित ( परिमाण से ) खाया जावे तो सब प्रकृतिवालो के लिये अनुकूल है, अरुचि, कृमि और ज्वर आदि रोगो में भी पथ्य है ॥ ककड़ी - इस की बहुत सी किस्में है - उन में से खीरी नाम की जो ककडी है वह कच्ची ठढी, रूक्ष, दस्त को रोकनेवाली, मीठी, भारी, रुचिकर और पित्तनाशक है, तथा १ - इसे पूर्व मे काशीफल, सीताफल, गंगाफल और लोका भी कहते हैं ॥ २ - इस को कुम्हेडा भी कहते हैं ॥ ३- इसका आगरे में पेठाभी बहुत उमदा वनता है जिसको मुर्शिदावादवाले हेसमी कहते है और व्यवाह आदि मे बहुत उमदा वनायी जाती है ॥ ४-किसी अनुभवी वैद्य ने कहा है कि - "बैंगन कोमल पथ्य है, कोला कच्चा जहर है, दरडें कच्ची और पक्की सदा पथ्य हैं, वोर (वेर) कच्चा पक्का सदा कुपथ्य है" ॥ ५- इस को आनन्द श्रावक ने खुला रक्खाया, यह पहिले कह चुके हैं, यह धर्मात्मा श्रावक महावीर स्वामी के समय में हुआ है, (देखो - उपासक दशा सूत्र ) ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनसम्प्रदामशिक्षा || घट्टी पक्की ककड़ी मि और पिच को बढाती है, मारवाड़ की ककैड़ी तीनों दोषों को कुपित करती है इसलिये वह स्वाने और शाक के लायक निरुकुल नहीं है, हां यदि खून पकी हुई हो और उस की एक या दो फार्के काली मिर्च और सैंधानमक लगा कर स्वाई जायें तो वह अधिक नुकसान नहीं करती है परन्तु इस का अधिक उपयोग करने से हानि ही होती है। कलिन्द ( मतीरा ) - कफकारक और वायुकारक है, लोग कहते हैं कि यह पिच की प्रकृति वाले के लिये अच्छा है परन्तु इस का अधिक सेवन करने से क्षम की बीमारी हो बाती है, वास्तव में तो ककड़ी और मदीरा तीनों दोषों में भवस्य विकार को पैदा करते हैं इस लिये ये उपयोग के मोग्म नहीं है। बीकानेर के निवासी लोग कधे मधीरे का चाक करते हैं सभा पके हुए मतीरे को हेमस ऋतु में स्वाते हैं सो यह अत्यन्स हानिकारक है, मारवाड़ के जाट लोग भौर किसान आदि कवी मामरी के मोरड़ को स्वाकर ऊपर से मतीरे को खा लेते हैं इस से उन को अभ्यास होने से यद्यपि किसी अंध में कम नुकसान होता है तथापि महिनों तक उस का सेवन करने से छीत वाह ज्वर का स्वाद उन्हें भी चलना ही पड़ता है ॥ सेम की फली - मीटी है, ठडी और भारी होने से घातक है, पिच को मिटाती है सभा ताकत देती है | गुधार फलीरूक्ष, भारी, कफकारक, अमिदीपक, सारक (दस्तावर ) और पित हर है, परन्तु वायु को बहुत फरती है । सहजने की फली - मीठी, कफहर, पित्तहर भौर अत्यन्त अभिदीपक है, शूल, कोड, क्षम, श्वास तथा गोले के रोग में बहुत परम है, सहचने की फली के सिनाम बाकी सब फलियां बात है ॥ सूरण केन्द्र-अमिदीपक, रूस, हलका, पाचक, पित्तकर्त्ता, तीक्ष्ण, और रुचिकर है, हरस, शूल, गोला, कमि, कफ, मेद, बापु, अरुचि, श्वास, मांसी, इन सब रोगों में फायदेमन्द है, परन्तु दाय, फोन और रक्तपित के अपथ्य है, इरस की बीमारी में इस का था तथा इसी की रोटी पूड़ी और बनाकर लाने से दवा का काम करता है, कन्याकों में सूरण का शाफ परन्तु इस को अछीतरह पका कर तथा पूरा डालकर खाना चाहिये | १ इस को गुजरात में इसी का नाम संस्कृत में है इनमें भर का तरह मस्तम्भक तिल्ली और रोगी के लिये वीरा भावि सब से श्रेष्ठ है उपम Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २१५ आलू - ठंढा, मीठा, रूक्ष, मूत्र तथा मल को रोकनेवाला, पोषणकारक, बलवर्धक, स्तन के दूध तथा वीर्य को बढानेवाला, रक्तपित्त का नाशक और कुछ वायुकर्त्ता है परन्तु अधिक घी के साथ खाने से वायु नही करता हैं, अगार में भून कर अथवा घी में तलकर छोटे बालकों को खिलाने से उन का अच्छी तरह पोषण करता है तथा हाडों को बढाता है | ✓ - रतालू तथा सकरकन्द —— पुष्टिकारक, मीठा, मलको रोकने वाला और कफकारी है ॥ मूली-भारी मल को रोकने वाली, तीखी, उष्णताकारक, अभिदीपक और रुचिकर है, हरस, गुल्म, श्वास, कफ, ज्वर, वायु और नाक के रोगों में हितकारी है, कच्ची मूली तीनो प्रकृति वाले लोगों के लिये हितकारक है, पकी हुई तथा बड़ी मूलियों को मूले कहते हैं - वे (मूले) रूक्ष, अति गर्म और कुपथ्य हैं, मूले के ऊपर के छिलके भारी और तीखे होते है इसलिये वे अच्छे नहीं है, मूले को गर्म जल में अच्छी तरह से सिजा कर पीछे अधिक घी या तेल में तल कर खाने से वह तीनों प्रकृति वालों के लिये अनुकूल हो जाता है | गाजर-मीठी, रुचिकर तथा ग्राही है, खुजली और रक्तविकार के रोगों में हानि करती है, परन्तु अन्य बहुत से रोगों में हितकारी है, यह वीर्य को विगाडती है इसलिये इस को समझदार लोग नहीं खोते हैं || काँदा - बलवर्धक, तीखा, भारी, मीठा, रुचिकर, वीर्यवर्धक तथा कफ और नींद को पैदा करने वाला है, क्षय, क्षीणता, रक्तपित्त, वमन, विचिका (हैजा ), कृमि, अरुचि, पसीना, शोथ और खून के सब रोगों में हितकारी है, इस का शाक मुरब्बा और पाक आदि भी बनता है || राधने की युक्ति और दूसरे पदार्थों के सयोग से शाक तरकारी के गुणों में भी अन्तर हो जाता है अर्थात् जो शाक वायुकर्त्ता होता है वह भी बहुत घी तथा तेल के सयोग से बनाने पर वायुकर्त्ता नहीं रहता है, इसी प्रकार सूरण और आलू आदि जो शाक पचने में भारी है उस को पहिले खूब जल में सिजाकर फिर घी या तेल में छौका जावे तो वह हानि नहीं करता है क्योंकि ऐसा करने से उस का भारीपन नष्ट हो जाता है । १- इसीलिये - जैन शास्त्रों में जगह २ कन्द के खाने का निषेध किया है तथा अन्यत्र भी इस का सर्वत्र निषेध ही किया है, इस लिये कन्द का कोई भी शाक दवा के सिवाय जैनी तथा वैष्णवों को भी नहीं खाना चाहिये, क्योंकि - जैन सूत्रों में वन्द को 'अनन्तकाय, के नाम से बतलाकर इस के खाने का निषेध किया है तथा वैष्णव और शैव सम्प्रदाय वालों के धर्मप्रन्थों में भी कन्दमूल का खाना निषिद्ध है, इस का प्रमाण सात व्यसन तथा रात्रिभोजन के वर्णन में आगे लिखेंगे ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ बैनसम्प्रवामशिक्षा ॥ शाकों के विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि शार्को में बहुत लाल मिर्च तथा दूसरे मसाले डाल कर नहीं स्वाने चाहिये, क्योंकि अधिक लाल मिर्च और मसाले डा कर शाकों के खाने से पाचनशक्ति कम होकर दस्त, संग्रहणी, अम्लपित्त, रकपित्त और कुष्ठ आदि रकमकारजन्य रोग हो जाते हैं । दुग्ध वर्ग ॥ दूध का सामान्य गुण यह है कि-तून मीठा, ठडा, पिचहर, पोषण कर्ता, दख साफ ठाने वाला, वीर्य को जल्दी उत्पन्न करने वाला, गम्बुद्धि वर्धक, मैथुन शक्तिवर्धक, अवस्था को स्थिर करने वाला, ममोवर्धक ( भायु को बनाने वाला), रसायन रूप, टूटे हुए हाड़ों को मोड़ने वाम, भूखे को बालक को और बुद्ध को तृति वेनेवासा, सीमोगादि से क्षीण को तथा मस्लम वाले को हित है, एन जीर्णज्वर, अम, मूछो, मन सम्बन्धी रोग, शोप, दरस, गुल्म, उदररोग, पाण्डु, मूत्ररोग, रक्तपित, भान्ति, सूषा, दाइ, उरोरोग ( छाती के रोग, ) शुरू, आध्मान ( अफरा ), भतीसार और गर्भस्राव में दूब भत्यन्त पथ्य है, न केवळ इन्हीं में किन्तु प्राय सब ही रोगों में दूध पथ्य है, परन्तु सन्निपात, नवीन उबर, वातरफ और कुछ आदि कई एक रोगों में दूष का निषेध है, यद्यपि नवीन ज्वर में तो फोनैन पर डाक्टर लोग दूध पिया भी देते हैं परन्तु सनिपाठकी ममस्था में तो दूध के तुरूप है यह निश्चित सिद्धान्त है, एवं सुजाक ( फिरग ) रोग की तह जाम्बा में भी दूभ हानिकारक है, जो लोग दूष की सस्सी बना कर पीते हैं वह गठिया हो जाने का मूल कारण है, दूध में यह एक बड़ा ही अपूर्व गुण है कि यह अति धीम धातु की वृद्धि करता है अर्थात् जितनी जल्दी दूप से भातु की वृद्धि होती है उसनी जस्वी अन्य किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती है, देखो । किसी ने कहा भी है कि"वीर्य वरायन मलकरण, जो मोहि पूछो कोय ॥ पय समान सिहुँ छोड़ में, अपर न भोष होम " ॥ १ ॥ गाय के दूध मे ऊपर विस्ख मनुसार सब गुण हैं परन्तु गाय के बणभेद से दूध के गुणों में भी कुछ भन्तर होता है विस का सक्षेप से वर्णन यह है कि - फाली गाय का दूध-वायुहर्त्ता और अधिक गुणकारी है ॥ लाल गाय का दूध-वहर और पिछहर होता है ॥ सफेद गाय का दूध-कुछ कफकारी होता है ॥ तुरत की पाई हुई गाय का दूध — तीनों दोषों को उत्पन्न करवा दे || १ મમો 4 થવા પતિને ઘ मे वमन किया यहा है क्षेत्रा का परमादि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २१७ विना बछड़े की गाय का दूध-यह भी तीनों दोषो को उत्पन्न करता है ॥ भैंस का दूध यद्यपि भैंस का दूध गुण मे कई दर्जे गाय के दूध से मिलता हुआ ही है तथापि गाय के दूध की अपेक्षा इस का दूध अधिक मीठा, अधिक गाढ़ा, भारी, अधिक वीर्यवर्धक, कफकारी और नीद को बढ़ानेवाला है, बीमार के लिये गाय का दूध जितना पथ्य है उतना भैंस का दूध पथ्य नही है || बकरी का दूध - मीठा, ठंढा और हलका है, रक्तपित्त, अतीसार, क्षय, कास और ज्वर की जीर्णावस्था आदि रोगो में पथ्य है | भेड़ का दूध-खारा, मीठा, गर्म, पथरी को मिटानेवाला, वीर्य, पित्त और कफ को पैदा करनेवाला, वायु को मिटानेवाला, खट्टा और हलका है ॥ ऊँटनी का दूध -- हलका, मीठा, खारा, अग्निदीपक और दस्त लानेवाला है, कृमि, कोढ़, कफ, पेटका अफरा, शोथ और जलोदर आदि पेट के रोगो को मिटाता है ॥ स्त्री का दूध - हलका, ठढा और अग्निदीपक है, वायु, पित्त, नेत्ररोग, शूल और वमन को मिटाता है || धारोष्ण दूध - शक्तिप्रद, हलका, ठंढा, अग्निदीपक और त्रिदोपहर है । इस की वैद्यक शास्त्र में बहुत ही प्रशसा लिखी है तथा बहुत से अनुभवी पुरुष भी इस की अत्यन्त प्रशसा करते है - इस लिये यदि इस की प्राप्ति हो सके तो इस के सेवन का अभ्यास अवश्य रखना चाहिये क्योंकि यह दूध वालक से लेकर वृद्धतक के लिये हितकारी है तथा सब अवस्थाओं में पथ्य है । गर्म करके उपयोग में लाना नहीं पीना चाहिये, गाय तथा दुहने के पीछे जब दूध ठढा पड़ जावे तो उस को चाहिये, क्योंकि कच्चा दूध वादी करता है इस लिये कच्चा भैस के दूध के सिवाय और सब पशुओ का कच्चा दूध शर्दी तथा आम को उत्पन्न करता है, इस लिये कुपथ्य है, गर्म किया हुआ दूध वायु कफ की प्रकृतिवाले को सुहाता हुआ गर्म पीने से फायदा करता है, अधिक गर्म दूध का पीना पित्तप्रकृतिवाले को हानि पहुँचाता है तथा गर्म दूध के पीने से मुख में छाले भी पड़ जाते है इस लिये गर्म दूध को ठढा कर के पीना चाहिये, दूध के बज़न से आधा वजन पानी डाल कर उस को औटाना चाहिये जब पानी जल जावे केवल दूध मात्र शेष रह जावे तब उस को उतार कर ठंढा करके कुछ मिश्री आदि मीठा डाल कर पीना चाहिये । यह दूध बहुत हलका तीनों प्रकृतिवालों के लिये अनुकूल तथा बीमार के लिये भी पथ्य है, औंटाने के द्वारा बहुत गाढ़ा १ - सामान्यतया बाखडी गाय का ( जिस को व्याये हुए दो चार महीने बीत गये हैं उस गाय का ) दूध उत्तम होता है, इस के सिवाय जैसी खुराक गाय को खाने को दी जावे उसी के अनुसार उस के दूध में भी गुण और दोष रहा करता है ॥ २८ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ हुआ दूध भारी हो जाता है इसलिये यह दूध नहीं पीना चाहिये किन्तु वीमारों में तमा मन्दपाचन शक्तिवासों को दूध में गले हुए पानी के तीन हिस्से बळ मावे तमा एक हिस्सा रह मावे उस दूप का पीना फायदेमन्द होता है, मौटाने के द्वारा भधिक गाा किमा हुभा दूप महुत ही भारी तमा सकिमद है परन्तु यह फेनर पूरी पाचनपछि मालों को तबा फसरती बवानों को ही पच सकता है। सराप दूध–विस दूप का रंग और खाद बदल गया हो, सा पर गया हो, दुर्गन्धि माने जगी हो और उसके ऊपर फेन सा मैंष गया हो उस वूष को सरान हो गमा समझ लेना चाहिये, ऐसा दूध कमी नहीं पीना चाहिये क्योंकि ऐसा खूप हानि करता है, वुहने के तीन पड़ी के पीछे भी यदि दूध को गर्म म किया जाने वो पा शनि कारक हो जाता है इस दूम को मासा वूप मी माना गया है, यदि वुहा हुमा दूध दुहने के पीछे पांच पड़ी तक का ही पड़ा रहे और पीछे सामा जाने तो वा अवश्य विकार करता है मर्मात् वह भनेक प्रकार के रोगों का हेतु हो जाता है, वूष के विषय में एक आचार्य का पर भी कथन है कि-'गर्म किया हुमा भी दूप दश पड़ी के माव बिगर जाता है, इसी प्रकार बैन भक्ष्माभक्ष्य निर्णयकार ने भी कहा है कि-'दुइने के सात घण्टे के बाद दूप (चाहे बह गर्म भी कर लिया गया हो समापि) ममक्ष्म हो माता है, और विचार कर देखने से यह माव ठीक भी प्रतीत होती है क्योंकि सात घण्टे के बाद वूष भवन सहा हो जाता है, इस स्पेि दाने के पीछे या गर्म करने के पीछे बहुत देर तक वूम को नहीं पड़ा रमना चाहिये। प्रात कार का दूध सार्यकास के पूप से कुछ मारी होता है, इस का कारण यह है कि रात को पशु पस्ते फिरते नहीं है इस लिये उनको परिभम नहीं मिला है और रात ठढी होती है इसलिये मात काल का दूप मारी होता है तथा सार्यकाल का वूम मात ग्रह के दूध से हसका होने का कारण यह है कि दिन को सूर्य की गर्मी के होने से भौर पशुभौ को पम्ने फिरने के द्वारा परिमम माप्त होने से सायंकासम वूम हलका होता है, इस से यह मी सिद्ध होता है कि-मदा पि एनेपाछे पशुभों का वूप मारी भौर पतने फिरनेवाले पशुमों का दूप सफा सपा फामदेमन्द होता है, इसके सिवाय दिन की बायु तथा कफ की प्राप्ति के उन गंगों ने तो सामकारका दूपही मषिक भनुस भाता है। 1- स पनायत सिमान्त में पुराने से परीके पार करेपरप्रेममा पापा मि मरस गम, सार भर कर बस गया से पनी साने पीने समदी ने मा इसलिये मार मा भगवास पब मालमते में रपम चाहिये बोल ऐसा भमस्स पर भास ही रोक पानाम रोधी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २१९ - पोषण के सब पदार्थों में दूध बहुत उत्तम पदार्थ है क्योंकि उस में पोषण के सब तत्त्व मौजूद हैं, केवल यही हेतु है कि बीमार सिद्ध और योगी लोग बरसों तक दूध के द्वारा ही अपना निर्वाह कर आरोग्यता के साथ अपना जीवन विताते है, बहुत से लोगों को दूध पीने से दस्त लग जाते हैं और बहुतों को कब्जी हो जाती है, इस का हेतु केवल यही है कि-उन को दूध पीने का अभ्यास नही होता है परन्तु ऐसा होने पर भी उन के लिये दूध हानिकारक कभी नही समझना चाहिये, क्योंकि केवल पांच सात दिनतक उक्त अडचल रह कर पीछे वह आप ही शान्त हो जाती है और उन का दूध पीने का अभ्यास पड़ जाता है जिस से आगे को उन की आरोग्यता कायम रह सकती है, यह बिलकुल परीक्षा की हुई बात है इस लिये जहातक हो सके दूध का सेवन सदा करते रहना चाहिये, देखो । पारसी और अग्रेज आदि श्रीमान् लोग दूध और उस में से निकाले हुए मक्खन मलाई और पनीर आदि पदार्थों का प्रतिदिन उपयोग करते है परन्तु आर्य जाति के श्रीमान् और भाग्यवान् लोग तो शाक राइता और लाल मिर्च आदि के मसालों आदि के शौक में पड़े हुए हैं, अब साधारण गरीब लोगों की तो बात ही क्या कहें ! इस का असली कारण सिर्फ यही है कि-आर्य जातिके लोग इस विद्या को बिलकुल नही समझते हैं इसी प्रकार से दूध की खुराक के विषय में मारवाड़ी प्रजा भी बिलकुल जब यह दशा है तो कहिये शरीर की स्थिति कैसे सुधर सकती है ? इस लिये के भाग्यवानों को उचित है कि - किस्से कहानी की पुस्तकों के पढ़ने तथा इधर उधर की निकम्मी गप्पों के द्वारा अपने समय को व्यर्थ में न गवा कर उत्तमोत्तम वैद्यक शास्त्र और पाकविद्या के ग्रन्थों को घण्टे दो घण्टे सदा पढ़ा करें तथा घर में रसोइया भी उसी को रक्खे जो इस विद्या का जाननेवाला हो तथा जिस प्रकार गाड़ी घोड़े आदि सब सामान रखते हैं उसी प्रकार गाय और भैस आदि उपयोगी पशुओं को रखना उचित है, बल्कि गाडी घोडे आदि के खर्च को कम करके इन उपयोगी पशुओं के रखने में अधिक खर्च करना चाहिये, क्योंकि गाड़ी घोड़ों से उतनी भाग्यवानी नही ठहर सकती है जितनी कि गायो और भैसो से ठहर सकती है, क्योंकि इन पशुओं की पालना कर इन के दूध घी और मक्खन आदि बुद्धिवर्धक उत्तमोत्तम पदार्थों के खाने से उन की और उन के लड़कों की बुद्धि स्थिर होकर बढ़ेगी तथा बुद्धि के बढ़ने से भाग्यवानी) अवश्य बनी रहेगी, इस के सिवाय यह भी बात है भैंसें पृथिवी पर अधिक होंगी उतना ही दूध और घी अधिक सस्ता होगा | श्रीमत्त्व ( श्रीमन्ताई वा कि - जितनी गायें और भूली हुई है, इस देश १ - देखो उपासक दशा सूत्र में दश वडे श्रीमान् श्रावकों का अधिकार है, उस में यह लिखा है किकामदेव जी के ८० हजार गायें थीं तथा आनन्द जी के ४० हजार गायें थीं, इस प्रकार से दशों के गोकुलभा ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनसम्प्रदायशिक्षा । विचार कर देखने से प्रतीत होता है कि-इन पशुओं से देस को बहुत ही मम परे चता है अर्थात् क्या गरीब और क्या भमीर सम का निर्गह इन्ही पशुभों से होता है, इस लिये इन पशुभों की पूरी सार सम्भाळ मौर रक्षा कर अपनी भारोग्यता को कसम रखना और देश का हित करना सर्व साधारण का मुख्य काव्य है, देसो ! बन या भार्यावर्त पेश पूर्णतया उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुस्मा पा सब इस देश में इन पशु मोंकी असंख्य कोटिमा यी परन्तु पय से दुर्माम्प पश्च इस पवित्र देश की या दशा न रही और मांसाहारी यवनों का इस पर अधिकार हुमा तब से मांसाहारियों ने इन पशुओं को मार २ फर इस देश को सब तरह से लाचार और निःसत्व कर दिया परन्तु सन चानते हैं कि वर्षमान समय श्रीमती टिष्ठ गवर्नमेंट के भपिकार में है और इस समय कोई किसी के साथ मस्पाचार और अनुचित पर्याय नहीं कर सकता है और मोई किसी पर किसी तरह का दमाव ही गल मकता है इस लिये इस सुपरे हुए समय में सो भार्य श्रीमन्तों को भपने हिताहित का विचार कर प्राचीन सन्मार्ग पर मान देना ही। पाहिये। दूप में सार तमा सटाई का मितना सत्व मौजूद है उस से मपिक वन खार मौर । सटाई का योग हो जाता है तब वह हानि करता है भर्यात् उस का गुणकारी धर्म ना होवाता है इसलिये रिवेक के साप दूम का उपयोग करना चाहिये । दूप के विषय में भोर मी की बातें समझने की मिन कम समझ सेना सर्व साधारण को उचित है, वे ये हैं कि-बैसे दूध में सार समा सटाई के मिलने से पह फट गाना है (इस बात को प्राय सब ही बानते हैं) उसी प्रकार यदि सार बा लाई के साथ दूम साया बारे सो वह अवश्य हानि करता है, वैयक प्रन्यों का कपन है कि-बदि दूध को भोजन के समय साना हो तो भोमन के सन पदार्थों को सा पर पीछे से दूध पीना पादिये अपना मोचन के पीछे भात के साथ दूप को साना पाहिये, हो यदि भोजन में दूप के विरोधी सटाई, मिर्प, सेल, पापड़ मौर गुड मावि पदार्य न हो तो मोबन के साथ ही में दूभ को भी सा देना पाहिये । दूप के साथ साने में बहुत से पदार्थ मित्र का काम करते हैं भौर बहुत से पदार्थ वधु का काम करते हैं, इस का कुछ संविधा वर्णन किया जाता है सूप के मित्र-म में छा रस है-सलिमे इन छ ों रसों के समान तभानवाले (ो रसों के समाव के मुत्म समापनासे) पदार्थ म के भनुहठ भर्षात् मित्रवत् होते हैं, देसो। दूध में सहा रस उस सटाई का मित्र भानमा, यूप में मीन रस उस मीठे रस घ मित्र मूरा या मिभी है, दूप में पाभा रस है उस पाए रस का मित्र परक्ठ , दूप में सीमा रस है उस तीसे रस पमित्र सोठ तथा भररस, जूप में Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' चतुर्थ अध्याय ॥ २२१ कपैला रस है उस कषैले रस का मित्र हरड है तथा दूध में खारा रस है उस खारे रस का मित्र सेंधानमक है, इन के सिवाय गेहूं के पदार्थ अर्थात् पूरी और रोटी आदि, चावल, घी, मक्खन, दाख, शहद, मीठे आम के फल, पीपल, काली मिर्च, तथा पाकों में जिन का उपयोग होता है वे पुष्टि और दीपन के सब पदार्थ भी दूध के मित्र वर्ग में है । दूध के अमित्र (शत्रु)-सेंधे नमक को छोड़ कर बाकी के सब प्रकार के खार दूध के गुण को विगाड डालते हैं, इसी प्रकार आँवले के सिवाय सब तरह की खटाई, गुड़, मूंग, मूली, शाक, मद्य, मछली, और मास दूध के सङ्ग मिल कर शत्रु का काम करते है, देखो ! दूध के सङ्ग नमक वा खार, गुड, मूग, मौठ, मछली और मास के खाने से कोढ़ आदि चर्मरोग हो जाते है, दूध के साथ शाक, मद्य और आसव के खाने से पित्त के रोग होकर मरण हो जाता है । ऊपर लिखी हुई वस्तुओं को दूध के साथ खाने पीने से जो अवगुण होता है यद्यपि उस की खबर खानेवाले को शीघ्र ही नहीं मालूम पडती है तथापि कालान्तर में तो वह अवगुण प्रबलरूप से प्रकट होता ही है, क्योंकि सर्वज्ञ परमात्मा ने भक्ष्याभक्ष्य निर्णय में जो कुछ कथन किया है तथा उन्हीं के कथन के अनुसार जैनाचार्य उमाखाति वाचक आदि के बनाये हुए ग्रन्थों में तथा जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज के बनाये हए 'विवेकविलास, चर्चरी, आदि ग्रन्थो में जो कुछ लिखा है वह अन्यथा कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि उक्त महात्माओं का कयन तीन काल में भी अबाधित तथा युक्ति और प्रमाणों से सिद्ध है, इस लिये ऐसे महानुभाव और परम परोपकारी विद्वानों के वचनों पर सदा प्रतीति रख कर सर्व जीवहितकारक परम पुरुष की आज्ञा के अनुसार चलना ही मनुष्य के लिये कल्याणकारी है, क्योंकि उन का सत्य वचन सदा पथ्य और सब के लिये हितकारी है। देखो ! सैकड़ों मनुष्य ऊपर लिखे खान पान को ठीक तौर से न समझ कर जब अनेक रोगों के झपाटे में आ जाते हैं तब उन को आश्चर्य होता है कि अरे यह क्या हो गया ! हम ने तो कोई कुपथ्य नहीं किया था फिर यह रोग कैसे उत्पन्न हो गया ! इस प्रकार से आश्चर्य में पड़ कर वे रोग के कारण की खोज करते हैं तो भी उन को रोग का कारण नहीं मालूम पडता है, क्योंकि रोग के दूरवर्ती कारण का पता लगाना बहुत कठिन बात है, तात्पर्य यह है कि बहुत दिनों पहिले जो इस प्रकार के विरुद्ध खान पान किये हुए होते हैं वे ही अनेक रोगों के दूरवर्ती कारण होते है अर्थात् उन का असर शरीर में विष के तुल्य होता है और उन का पता लगना भी कठिन होता है, इस लिये मनुष्यों को जन्मभर दु.ख में ही निर्वाह करना पड़ता है, इस लिये सर्व साधारण को उचित है कि-सयोगविरुद्ध भोजनों को जान कर उन का विप के तुल्य त्याग कर देवें, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ क्योंकि लो ! सदा पथ्य और परिमित (परिमाण के अनुकूल) माहार करनेवाओं में भी जो अकस्मात् रोग हो आता है उस का कारण मी नही महानता के कारण पूर्व समय में फिया हुमा संयोग विरुद्ध आहार दी होता है, क्योंकि वही (पूर्व समयमें किया हुमा संयोगविरुद्ध आहार ही) समय पाकर अपने समषामों के साथ मिळफर भट मनुष्याने रोगी कर देता है, संयोगविरुद्ध माहार के बहुत से मेद हैं-उन में से कुछ मेदों का वर्णन समयानुसार क्रम से भागे किया नामंगा ।। घृत वर्ग ॥ घी के सामान्य गुण-घी रसायन, मधुर, नेत्रों को हितकर, भमिदीपक, शीत वीर्यबाग, मुदिपर्षक, जीवनदाता, चरीर को कोमल करनेराग, बम कान्ति भौर वीर्य को मानेवाला, मानि सारक (मस को निकाम्नेवाग), भोजन में मिठास देनेवाला, वायुगाले पदार्थों के साथ खाने से उन (पदाओं) के वायु को मिटानेपाम, गुमनों मिटानेवासा, जखमी को बल देनेवाग, कण्ठ तमा खर का बोधक (शुद्ध करनेवाला), मेव मौर कफ को पढ़ानेवाला तथा अमिदग्ध (आग बने हुए) को सामदापक है, मातरक, अमीर्म, नसा, शूल, गोसा, दाह, सोम (सूखन), क्षय भौर कर्ण (कान) तपा मस्तक के रक्तविकार भावि रोगों में फायदेमन्द है, परन्तु साम ज्वर (माम के सहित वुसार) में और सनिपात के ज्वर में पथ्य (हानिकारक) है, सादे भर में पारा दिन वीवने के बाद कुपथ्य नहीं है, पाक और पद के लिये प्रति है, मड़ा हुमा क्ष्य रोग, कफ का रोग, मामबात का रोग, ज्वर, हेमा, मम्मन्म, महुत मदिरा पीने से उत्पन्न हुआ भवास्पय रोग भौर मन्दामि, इन रोगों में भूत हानि करता है, सापारण मनुष्यों के प्रतिदिन के मोबन में, मकाबट में, क्षीणता में, पाणरोग में और मौत के रोग में साना भी फायदेमन्य रे, मो, कोर, मिष, उन्माद, बादी तमा तिमिर रोग में एक वर्ष का पुराना पी पदेमन्द है। भास रोग बासे को बकरी का पुराना भी अधिक फायदेमन्द है। गाय भौर मैंस मावि के दूध के गुणों में गो २ अन्तर कह चुके हैं यही भन्सर उन केपी में भी समझ मेना चाहिये। पापापा संयोगविर महार(प्रसमाय) जसपा फिनावमा जान संग्रेफसम्म भागार प (सर मिली प्रतिका अनुसार ) भागे बिगा पावणा इस गोरो प्रशेप पन मेरा मम्मी म सा नाहिये। रोपण कर मामा रसाने रफ्मोप में ममा चाहिये। 1- शिधम रिस १ पये पमें जो गुण को ही मुष उम पष्ठ पी में भी बाम्मे पारिय॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २२३ सब तरह के मल्हमों में पुराना धी गुण करता है किन्तु केवल पुराने घी में भी मल्हम सब गुण है । विचार कर देखा जावे शुद्ध और उत्तम घी घी को शास्त्रकारों ने रत्न कहा है किन्तु अधिक गुणकारी है परन्तु वर्त्तमान समय में साधारण पुरुषों को मिलना कठिन सा होगया है, इस का कारण केवल उपकारी गाय भैस आदि पशुओं की न्यूनता ही है ॥ तो यह रत्न से भी भाग्यवानों के सिवाय - गाय का मक्खन – नवीन निकाला हुआ गाय का मक्खन है, रंग को सुधारता है, अभि का दीपन करता है तथा दस्त को रक्तविकार, क्षय, हरस, अर्दित वायु तथा खासी के रोग में फायदा करता है, प्रातःकाल मिश्री के साथ खाने से यह विशेष कर शिर और नेत्रों को लाभ देता है तथा बालकों के लिये तो यह अमृतरूप है ॥ हितकारी है, बलवर्धक रोकता है, वायु, पित्त, भैंस का मक्खन --- भैस का मक्खन वायु तथा कफ को करता है, भारी है, दाह पित्त और श्रम को मिटाता है, मेद तथा वीर्य को बढाता है || वासा मक्खन खारा तीखा और खट्टा होजानेसे वमन, हरस, कोढ़, कफ तथा मेद को उत्पन्न करता है | ――― दधिवर्ग ॥ दही के सामान्य गुण - दही - गर्म, अग्निदीपक, भारी, पचनेपर खट्टा तथा दस्त को रोकनेवाला है, पित्त, रक्तविकार, शोथ, मेद और कफ को उत्पन्न करता है, पीनस, जुखाम, विषम ज्वर ( ठढ का तप ), अतीसार, अरुचि, ( दुर्बलता ) को दूर करता है, इस को सदा युक्ति के साथ खाना चाहिये । मूत्रकृच्छ्र और कृशता दही मुख्यतया पाच प्रकार का होता है - मन्द, खादु, स्वाद्वम्ल, अम्ल और अत्यम्ल, इन के स्वरूप और गुणों का सक्षेप से वर्णन किया जाता है' मन्द - जो दही कुछ गाढ़ा हो तथा मिश्रित ( कुछ दूध की तरह तथा कुछ दही की तरह ) स्वादवाला हो उस को मन्द दही कहते है, यह - मल मूत्र की प्रवृत्ति को, तीनो दोषों को और दाह को उत्पन्न करता है | स्वादु जो दही खूब जम गया हो, जिस का खाद अच्छी तरह मालूम होता हो, मीठे रसवाला हो तथा अव्यक्त अम्ल रसवाला ( जिस का अम्ल रस प्रकट में न मालम १ - शेष पशुओं के मक्खन के गुणों का वर्णन अनावश्यक समझ कर नहीं किया ॥ २- यह घृत का सक्षेप से वर्णन किया गया है, इस का विशेष वर्णन दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देखना चाहिये ॥ ३-वैसे देखा जावे तो मीठा और खट्टा, ये दो ही भेद प्रतीत होते हैं | Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ जैनसम्प्रदायशिक्षा॥ पाता हो) हो यह स्वादु वही कहलाता है, यह-श्री मेद मा फफको पैदा पसार परन्तु वायु को हरता है, रकपिच में भी फायदा करता है ।। स्वामम्ल-जो दही सवा और मीठा हो, खून जमा हुमा हो, साने में मोदी सी तुर्सी वेसा हो उस को सादम्ल वही कहते हैं, यह-मध्यम गुणवाग है ॥ अम्ल-मिस यही में मिठास मिठकर न हो समा सट्टा लाव प्रकट मासूम देता हो उस को अम्ल वही कहते हैं, मा-यपपि ममि को तो मदीप्त करता है परन्त पित कफ और खून को बढ़ाता है मौर निगारसा है ॥ ___ अत्यम्ल-निस दही के खाने से दात प से सावें (सो पर जाने के परम जिन से रोटी आदि भी ठीक रीति से न साई जा सके ऐसे हो बा), रोमाय होने मगे (रोंगटे खड़े हो जानें, ) अत्यन्त ही सघ हो, कण्ठ में बस्न हो नाने उसको मत्यम्स यही कहते हैं, यह वही मी पपपि अमि में प्रदीप्त करता है परन्तु पित्त भोर रक्त को बहुत ही विगारता है। इन पांचों प्रकार के पहियों में से सावम्म वही सब से भच्छा होता है ।। उपयोग-गर्म किये हुए वूप में ऑपन देकर बो वही मनसा है पाको परे जमाये हुए वही की अपेक्षा अधिक गुणकारी है, क्योंकि वह वही सचिफ पिच बोर वायु को मिटानेवाला सया पातुओं को ताकत देनेवाला है। ___ मई निकाय हुमा दही पसको रोकता है, ठंग है, वायु को उत्पल करता, हलका है, माही है और ममि को प्रदीप्त करता है, इससिमे ऐसा वही पुराने मरोगे, महणी मौर दस्त रोग में हितकारी है। परे से मना हुमा वही बहुत खिग्ध, वायुदर्ता, कफ का उत्पन्न करनेवाला, भारी, शशिवायफ पुरिभरफ मौर रुनिकारक है सबा मीठा होने से या पित्त को मी अधिक नहीं बढ़ाता है, यह गुण उस दही कहे मिसे कपड़े में पाप कर उस का पानी टपा दिया गया हो, ऐसे (पानी टपकामे हुए) दही को मिमी मिसा कर खाने से पर प्यास, पित, रकविधर तया वाह को मिटाणारे। गुरु गएकर साया हुषा दही भायु को मिटाता है, पुतिकर्ण तथा मारी है। वैषक शास्त्र और धर्मशास्त्र रात्रि को सपपि सब ही मोजनों की मनाई करते हैं परन्तु उस में भी वही साने की तो पिसकरही मनाई की है क्योकि उपयोगी पवायों को साथ में मिल कर मी रात्रि को पही के खाने से जनक प्रकार के महा मयंकर रोग उत्पन होते है, इस म्मेि रात्रि को वही का मोबन कमी नहीं करना चाहिमे तमा निम २ मतभों में दही का सामा निषिद्ध है उम २ भातुमा में भी वही नहीं सामा पाहिये । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ चतुर्थ अध्याय ॥ हेमन्त शिशिर और वर्षा ऋतु में दही का खाना उत्तम है तथा शरद् ( आश्विन और कार्त्तिक) ग्रीष्म (ज्येष्ठ और आषाढ) और बसन्त ( चैत्र और वैशाख ) ऋतु में दही का खाना मना है । बहुत से लोग ऋतु आदि का भी कुछ विचार न करके प्रतिदिन दही का सेवन करते है यह महा हानिकारक बात है, क्योंकि ऐसा करने मे रक्तविकार, पित्त, वातरक्त, कोढ, पाण्डु, भ्रम, भयकर कामला (पीलिये का रोग ), आलस्य, शोथ, बुढ़ापे में खासी, निद्रा का नाश, पुरुषार्थ का नाश और अल्पायु का होना आदि बहुत सी हानिया हो जाती है । क्षय, वादी, पीनस और कफ के रोगियों को खाली दही मूल कर भी कभी नही खाना चाहिये, हा यदि उपयोगी पदार्थों को मिलाकर खाया जाये तो कोई हानि की बात नही है किन्तु उपयोगी पदार्थों को मिलाकर खाने से लाभ होता है, जैसे-गुड और काली मिर्च को दही में मिला कर खाने से प्रायः पीनस रोग मिट जाता है इत्यादि || दही के मित्र --- नमक, खार, घी, शक्कर, वूरा, मिश्री, शहद, जीरा, काली मिर्च, आँवले, ये सब दही के मित्र है इस लिये इन में से किसी चीज के साथ दही को खाना उचित है, हा इस विषय में यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि दोप तथा प्रकृति को विचार कर इन वस्तुओं का योग करना चाहिये, इन वस्तुओं के योग का कुछ वर्णन भी करते है-घी के साथ दही वायु को हरता है, आवले के साथ कफ को हरता है, शहद के साथ पाचनशक्ति को बढाता है परन्तु ऐसा करने से कुछ विगाड भी करता है, मिश्री बूरा और कद के साथ दाह, खून, पित्त तथा प्यास को मिटाता है, गुड के साथ ताकत को देता है, वायु को दूर करता है, तृप्ति करता है, नमक जीरा और जल डाल कर खाने से विशेष हानि नहीं करता है परन्तु जिन रोगो मे दही का खाना मना है उन रोगों में तो नमक जीरा और जल मिला कर भी खाने से हानि ही करती है | तवर्ग ॥ छ की जाति और गुण निम्न लिखित है: - १ - घोल - विना पानी डाले तथा दही की थर (मलाई ) विना निकाले जो विलोया १- बीकानेर के ओसवाल लोग अपनी इच्छानुसार प्रतिदिन मनमाना दही का सेवन करते है ओसवाल लोग ही क्या किन्तु उक्त नगर के प्राय सव ही लोग प्रात काल दही मोल लेकर उस के साथ ठढी रोटी से सिरावणी हमेशा किया करते हैं, यह उन के लिये अति हानिकारक वात है ॥ २- परन्तु स्मरण रहे कि बहुत गर्म करके दही को खाना विप के समान असर करता है ॥ ३-यह दही का सक्षेप से वर्णन किया गया, इस का विशेष वर्णन दूसरे वैद्यक प्रन्थों में देख लेना चाहिये ॥ ४ - इसे छाछ, मठा, महा तथा तक भी कहते हैं ॥ ५- अधिक पानी डाली हुई, कम पानी डाली हुई तथा विना पानी की छाछ के गुणों में अन्तर होता है ॥ २९ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ मावे उसे घोल कहते हैं, इस में मीठा गल कर खाने से यह को पाम के रस के समान गुण करता है। २-मधित-भर निकारकर जो विलोया पाये उसे मपित कहते हैं, यह गायु पिए मौर फफ का हरनेवालग समा इप (इदम को प्यारा सगनेवाला) है ॥ ३-उदस्थित्-~भाषा वही तमा भाषा म गल कर दो विगेमा चापे उसे उद सित् कहते हैं, यह फफ करता है, साकत को पगता है और माम को मिटाता है ॥ -षिका (छाए) विस में पानी भपिक गग पावे समा पिठो र बिस का मक्खन विसफुल निकाल लिया जाये उसे छछिका या छाछ करते हैं, यह हमी , पित, यकाबट और प्यास को मिटाती है, वातनाशक ठगा कफ को रनेवारी ७ नमक राक कर इस का उपयोग करने से यो भमि को मवीट करती है तथा कफ में फम करती है। ५-तक-दही के सेर भर परिमाण में पाव भर पानी रात कर जो विगेया जाये। उसे तझ करते हैं, यह वस को रोकता है, पचने के समय मीठा है इसम्मेि पिच को नहीं करता है, कुछ सट्टा होने से यह उष्णवीर्य है समा स्व होने से कफ को नए करता है, योगपिन्तामणि सभा भीभायुर्शनार्णव महासंहिसा में श्री हेमपन्द्रापार्य ने म्लिा । किसक का ममायोम्म सेवन करनेवाला पुरुष कभी म्यवहार नय से रोगी नहीं होता। मोर तक से दग्ध हुए (बले हुए वा नष्ट हुप) रोग फिर कभी नहीं होते हैं, से सम देवतामों को भमत सुस देता है उसी प्रकार मृत्युलोक में मनुष्यों के रिसे तक भमृत के समान मुसदाय है। तक में मितने गुण होते हैं ये सब उस के आषार रुप दही में से ही भाते है अपात् विस २ प्रकार के वही में बो २ गुण परे है उस २ प्रकार के वही से उत्पन हुए तक में भी पे ही गुण समझने पोहियें ॥ तक्रसेषनषिषि-वायु की महसिमाले को तमा गायु के रोगी को सही छाछ में सपा नमक ग र पीने से काम होता है, पित्त की प्रतिमा को सपा पित के रोगी को मिनी गस कर मीठी छाछ पीने से काम होता है तथा कफ की प्रकृतिमासे को और कफ के रोगी को सपा ममफ, सोंठ, मिर्च भौर पीपक म पूर्ण मिम कर छाछ के पीने से पहुत काम होता है। -या मोष्ट-न वासेषी मपते परावि बनायाः प्रभवन्ति रोगमा मुराणमस्त पुबार पा मरापो मुनि परमाहुः 1 ॥ इस प्रमई कपर किये भासार दtta २-वि पर राप हो तो उस समाजवषमी होवाta Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २२७ शीतकाल, अग्निमान्य (अमि की मन्दता), कफसम्बन्धी रोग, मलमूत्र का साफ न उतरना, जठराग्नि के विकार, उदररोग, गुल्म और हरस, इन रोगों में छाछ बहुत ही लाभदायक है। ___ अकेली छाछ का ही ऐसा प्रयोग है कि उस से असाध्य संग्रहणी तथा हरस जैसे भयंकर रोग भी अच्छे हो जाते है, परन्तु पूर्ण विद्वान् वैद्य की सम्मति से इन रोगों में छाछ लेने की युक्ति को समझ कर उस का उपयोग करना चाहिये, क्योंकि अम्लपित्त और संग्रहणी ये दोनों रोग प्रायः समान ही मालूम पड़ते हैं तथा इन दोनों को अलग २ पहिचान लेना मूर्ख वैद्य को तो क्या किन्तु साधारण शास्त्रज्ञानवाले चैद्य को भी कठिन पडता है, तात्पर्य यह है कि इन दोनों की ठीक तौर से परीक्षा तो पूर्ण वैद्य ही कर सकता है, इस लिये पूर्ण वैद्य के द्वारा रोग की परीक्षा होकर यदि सग्रहणी का रोग सिद्ध हो जावे तो छाछ को पीना चाहिये, परन्तु यदि अम्लपित्त रोग का निश्चय हो तो छाछ को कदापि नहीं पीना चाहिये, क्योंकि सग्रहणी रोग में छाछ अमृत के तुल्य और अम्ल- . पित्त रोग में विष के तुल्य असर करती है ॥ तक्रसेवननिषेध-जिस के चोट लगी हो उसे, घाववाले को, मल से उत्पन्न हुए शोथ रोगवाले को, श्वास के रोगी को, जिस का शरीर सूख कर दुर्वल हो गया हो उस को, मूर्छा भ्रम उन्माद और प्यास के रोगी को, रक्तपित्तवाले को, राजयक्ष्मा तथा उरःक्षत के रोगी को, तरुण ज्वर और सन्निपात ज्वरवाले को तथा वैशाख जेठ आश्विन और कार्तिक मास में छाछ नहीं पीनी चाहिये, क्योंकि उक्त रोगों में छाछ के पीने से दूसरे अनेक रोगों के उत्पन्न होने का सभव होता है तथा उक्त मासों में भी छाछ के पीने से रोगोत्पत्ति की सम्भावना रहती है ।। १-प्रिय पाठकगण ! वैद्य की पूरी बुद्धिमत्ता रोग की पूरी परीक्षा कर लेने में ही जानी जाती है, परन्तु वर्तमान समय में उदरार्थी अपठित तथा अर्धदग्व मूर्ख वैद्य बहुत से देखे जाते हैं, ऐसे लोग रोग की परीक्षा कभी नहीं कर सकते हैं, ऐसे लोग तो प्रतिदिन के अभ्यास से केवल दो चार ही रोगों को तथा उन की ओषधि को जाना करते हैं, इसलिये समान लक्षणवाले अथवा कठिन रोगों का अवसर आ पड़ने पर इन लोगों से अनर्थ के सिवाय और कुछ भी नहीं वन पडता है, देखो । ऊपर लिखे अनुसार अम्लपित्त और सग्रहणी प्राय समान लक्षणवाले रोग हैं, अव विचारिये कि-सग्रहणी के लिये तो छाछ अद्वितीय ओषधि है और अम्लपित्त पर वह घोर विष के तुल्य है, यदि लक्षणो का ठीक निश्चय न कर अम्लपित्त पर छाछ दे दी जावे तो रोगी की क्या दशा होगी, इसी प्रकार से समान लक्षणवाले बहुत से रोग हैं जिनका वर्णन प्रन्ध के विस्तार के भय से नहीं करना चाहते हैं और न उन के वर्णन का यहा प्रसग ही है, केवल छाछ के प्रसग से यह एक उदाहरण पाठकों को बतलाया है, इस लिये प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि-प्रथम योग्य उपायों से वैद्य की पूरी परीक्षा करके फिर उससे रोग की परीक्षा कराधे ॥ २-यह तक का सक्षेप से वर्णन किया गया, इस का विशेष वर्णन दूसरे वैद्यक प्रन्यो मे देखना चाहिये। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ नैनसम्प्रदायशिक्षा । फलवर्ग ॥ इस देश के निवासी सोग बिन २ फलों का उपयोग करते हैं उन सब में मुस्त भान (मोम) का फल है तथा मह फस मन्य फलों की अपेक्षा प्राय हितकारी मी है। इस के सिवाय और भी बहुत से फल है जो कि भनेक देशों में प्रस्तु के अनुसार उत्सव होते तथा लोगों के उपयोग में भाते हैं परन्तु फलों के उपयोग के विषय में भी हमारे बहुत से प्रिय बन्धु उन के (फलों से) गुण और अवगुण से बिलकुछ भनभिज्ञ हैं, इस लिये कुछ मावश्यक उपयोग में आनेवाले फलों के गुणों को लिखते हैं कचे ओम-गर्म, सहे, रुचिकर समा माही हैं, पित्त, वायु, कफ तभा सुन म विकार उत्पन करते हैं, परन्तु कण्ठ के रोग, पायु के प्रमेर, योनिदोप, मण (पाप) और अतीसार में लाभदायक ( फायदेमन्द) हैं। __ पके आम बीर्यवर्षक, कान्तिकारक, तृप्तिकारक तथा मांस और बल को गाने पाते हैं, कुछ कफकारी हैं इस सिमे इन फे रस में थोड़ी सी सौंठ डालकर उपयोग में माना चाहिये। भामों की बहुत सी वातियाँ हैं सभा जाति मेद से इनके पाव भौर गुणों में भी थोड़ा महुत अन्सर होता है किन्तु सामान्य गुण तो (मो कि उपर लिखे हैं) मायः सब में समान ही हैं। जामुन-पाही ( मल को रोकनेवाले), मीठे, कफनाशक, रुचिका, पायुनाशक भौर प्रमेह को मिटानेवाले हैं, उवर विपर में इन का रस मगमा सिरका कामदापको अर्थात् अजीर्ण भीर मन्दामि को मिटाता है । पेर-फेर यपपि भनेक जाति के होते हैं परन्तु मुसतया उन के वोही भेदरें भर्थात् मीठे भौर सहे, पेर कफकारी सभा नुसार मौर सांसी को उस्पम करत हैं, पेपर शासमें कहा है कि-'हरीसकी सदा पर्य, सुपथ्र्य पदरीफसम्" भर्थात् हरर सदा पप्प है और मेर सना फुपथ्य है,। इस साल में भाप रसाप यापर अतिसारम भार कामाग भारि भनक नाम भाम में माम परेवा मारणा में भाग प्रato -न पो मारपार मरी भपरा थी करीम -मपिराबाद में एक प्रसर रे मोर भाग vatanनपा पारेभाय पते सपनारग में एप्ररपा भाम बाहुन उत्तम मारा गाद में पाम भने प्रमर मि-पपई, मामर, रिपरी पा मारणतमा बनाई, अनमानी पर प्रेमभष भी किये साल में Bउत्तम निम्नुपिया र मम्भोग प्रथम जति प्रयच पर में मामलामत उत्तम नानासा भी बहुत मिन्दार॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २२९ बेरों में प्रायः जन्तु भी पड़ जाते है इसलिये इस प्रकार के तुच्छ फलों को जैनसूत्रकारने अभक्ष्य लिखा है, अतः इन का खाना उचित नही है | अनार - यह सर्वोत्तम फल है, इस की मुख्य दो जातियां है-मीठी और खट्टी, इन में से मीठी जाति का अनार त्रिदोषनाशक है तथा अतीसार के रोग में फायदेमन्द है, खट्टी जाति का अनार वादी तथा कफ को दूर करता है, काबुल का अनार सब से उत्तम होता है तथा कन्धार पेशावर जोधपुर और पूना आदि के भी अनार खाने में अच्छे होते हैं, इस के शर्वत का उष्णकाल में सेवन करने से बहुत लाभ होता है | केला - स्वादु, कला, कुछ ठढा, बलदायक, रुचिकर, वीर्यवर्धक, तृप्तिकारक, मांसवर्धक, पित्तनाशक तथा कफकर्त्ता है, परन्तु दुर्जर अर्थात् पचने में भारी होता है, प्यास, ग्लानि, पित्त, रक्तविकार, प्रमेह, भूख, रक्तपित्त और नेत्ररोग को मिटाता है, भस्मैकरोग में इस का फल बहुत ही फायदेमन्द है ॥ आँवला – ईषन्मधुर (कुछ मीठा), खट्टा, चरपरा, कषैला, कडुआ, दस्तावर, नेत्रों को हितकारी, बलबुद्धिदायक, वीर्यशोधक, स्मृतिदाता, पुष्टिकारक तथा त्रिदोषनाशक है, सब फलों में ऑवले का फल सर्वोत्तम तथा रसायन है - अर्थात् खट्टा होने के कारण वादी को दूर करता है, मीठा तथा ठढा होने से पित्तनाशक है, रूक्ष तथा कषैला होने से कफ को दूर करता है । ये जो गुण है वे गीले (हरे ) ऑवले के हैं, क्योंकि - सूखे ऑवले में इतने गुण नही होते है, इसलिये जहातक हरा आँवला मिल सके वहातक बाजार में बिकता हुआ सूखा ऑवला नहीं लेना चाहिये । दिल्ली तथा बनारस आदि नगरों में इस का मुरब्बा और अचार भी बनता है परन्तु मुरब्बा जैसा अच्छा बनारस में बनता है वैसा और जगह का नहीं होता हैं, वहा के ऑवले बहुत बडे होते है जो कि सेर भर में आठ तुलते है । सूखे आँवले में काली मिर्च मिलाकर चैत्र तथा आश्विन मास में भोजन के पीछे उस की फँकी बीकानेर आदि के निवासी मारवाडी लोग प्रायः हरेक रोग में लेते हैं परन्तु उन लोगों को वह अधिक गुण नहीं करता है इस का कारण यह है कि उन लोगों में तेल और लाल मिर्चका उपयोगे बहुत ही है किन्तु कभी २ उलटी हानि हो जाती है, यदि हरे अथवा सूखे आँवलों का सेवन युक्ति से किया जावे तो इस के समान दूसरी कोई १ - जिस में मनुष्य कितना ही खावे परन्तु उसकी भोजन से तृप्ति नहीं होती हैं उस को भरमक रोग कहते हैं ॥ २- वहा के लोग मिर्च इतनी डालते हैं कि शाक और दालमे केवल मिर्च ही दृष्टिगत होती है तथा कभी २ मिर्चकाही शाक बना लेते है ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० बैनसम्प्रदायविया ॥ मोपधि नहीं है, आँवले के सेमन की यधपि अनेक युक्तिमा है परन्तु उन में से केवर एक युक्ति को मिलते हैं, वह युति यह है फिस्से ऑपरे को हरे भारले के रस की अगवा सूले भाँग के कार्यकी एक सौ पार भावना धेफर मुखाते रहना चाहिये, इसके बाद उस का सेवन कर ऊपर से दूध पीना चाहिये, ऐसा करने से यह भकमनीय माम करता है अर्मात् इस के गुणों की संख्या का वर्णन करने में सेखनी भी समर्थ नहीं है, इसके सेवन से सप रोग नष्ट हो जाते हैं तथा बुढ़ापा बिलकुल नहीं सताता है, इस का सेवन करने के समय में गे, पी, पूरा, पावस मौर मूग की दाल को साना चाहिये । इस के को फल भी हानि नहीं करते हैं तमा इस का मुरम्मा मावि सदा सामा बारे सो भी मति लामकारी ही है ।। नारङ्गी (सन्तरा)-मधुर, रुचिकर, शीतर, पुतिकारक, वृष्य, वठरामिम दीपक, इवय को हितभरी, त्रिवोपनाशक और शूल तथा कमि का नाशक है, मन्दापि, खास, वायु, पित्त, कफ, क्षय, शोप, भरवि भौर वमन मादि रोगों में पथ्य है, इसका सर्वत गर्मी में मास काल पीने से तरावट पनी रहसी है समा अधिक प्यास नहीं मावी है। नारंगी की मुख्य दो मातियो ?--सही सौर मीठी, उन में से सट्टी नारंगी को नहीं साना पाहिले, इस के सिवाय इस की नमीरी भादि भी कई वातियां हैं, नागपुर (पक्षिण) का सन्तरा अस्सुधम होता है । दास या अंगर-गीली वास सष्टी और मीठी होसी । सबा इस की काली मोर सफेद दो जातिमा है, मम्बई नगर के काफर मारेंट में या हमेशा मनों मिक्ती हे तथा भौर मी सानों में मंगूर की पेटिया सिटी है, सही वास साने से मवगुण करती है, इस रिये उसे नहीं साना पाहिले, हरी दाल कफ करती है इस रिसे बोरा सा संपानमक ज्गा कर उसे साना चाहिये, सब मेवामों में पास मी एक उत्सम मेवा है, सूली मुनका अर्थात् कासी वाल सब प्रकार की प्रहविवाले पुरुषों के अनुकर भौर सम रोगों में पथ्य है, पेच लोग पीमार को इस के साने का निषेप नहीं करते हैं, या मीठी, प्रति कारक, नेत्रों को हितकारी, 3री अमनाशक, सारक (दखानर ) मा पुष्टिकारक है, रकविकार, वाइ, घोष, मूळ, ज्वर, भास, सांसी, मप पीने से उत्पन हुए रोग, बमन, घोष भार पातरफ भादि रोगों में फायदेमन्द है।। नीमू-नीम् सहे भोर मीठे दो प्रकार के होते हैनन में से मीटा नाच पूर्व में बहुत होता है, जिस में मो को पकोसरा कहते हैं, एफ्रीका देश वगवहार सहर में भी मीठे नीम होत है उन को यहाँबासे मपूंगा करते हैं, वहाँ के ये मीठे मी पहुत ही मीठे साठे 1-जातक ऐसारे मासे रप पोरी भाना एकमे चाहिये कि सूपे भाग में मारमा पपया या ( भारी भाषा) मभिक प्रमाणात Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २३१ है जिनके सामने नागपुर के सन्तरे भी कुछ नहीं है, इन के अधिक मीठे गुण के कारण ही डाक्टर लोग पित्तज्वर में वहा बहुत देते है, फलों में मीठे नीबू की ही गिनती है किन्तु खट्टे नींबू की नहीं है क्योंकि खट्टे नीबू को वैसे ( केवल ) कोई नही खाता है किन्तु शाक और दाल आदि में इस का रस डाल कर खाया जाता है तथा डाक्टर लोग सूजन में मसूड़े के दर्द में तथा मुख से खून गिरने में इसे चुसाया करते हैं तथा इस की सिकञ्जिवी को भी जल में डालकर पिलाते है, इस के सिवाय यह अचार और चटनी आदि के भी काम में आता है ॥ नीबू में बहुत से गुण है परन्तु इस के गुणों को लोग बहुत ही कम जानते है अन्य पदार्थों के साथ सयोग कर खाने से यह (खट्टा नींबू ) बहुत फायदा करता है || मीठा नींबू-खादु, मीठा, तृप्तिकर्ता, अतिरुचिकारक और हलका है, कफ, वायु, वमन, खासी, कण्ठरोग, क्षय, पित्त, शूल, त्रिदोष, मलस्तम्भ (मलका रुकना), हैज़ा, आमवात, गुल्म (गोला ), कृमि और उदरस्थ कीडों का नाशक है, पेट के जकड़ जानेपर, दस्त बद होकर बद्ध गुदोदर होने पर, खाने पीनेकी अरुचि होनेपर, पेट में वायु तथा शूल का रोग होने पर, शरीर में किसी प्रकार के विष के चढ़ जाने पर तथा मूछो होने पर नींबू बहुत फायदा करता है । बहुत से लोग नीबू के खट्टेपन से डर कर उस को काम में नहीं लाते है परन्तु यह अज्ञानता की बात है, क्योंकि नीबू बहुत गुणकारक पदार्थ है, उस का सेवन खट्टेपन से डर कर न करना बहुत भूल की बात है, देखो ! ज्वर जैसे तीव्ररोग में भी युक्ति से सेवन करने से यह कुछ भी हानि नहीं करता है किन्तु फायदा ही करता है । नींबू की चार फांकें कर के एक फाक में सोंठ और सेंधानमक, दूसरी में काली मिर्च, तीसरी में मिश्री और चौथी फाक में डीका माली भर कर चुसाने से जी मचलाना, वमन, वदहजमी और ज्वर आदि रोग मिट जाते है, यदि प्रातःकाल में सदा गर्म पानी में एक नींबू का रस डालकर पीने का अभ्यास किया जावे तो आरोग्यता बनी रहती है तथा उस में बूरा या मिश्री मिला कर पीने से यकृत् अर्थात् लीवर भी अच्छा बना रहता है। बहुत से लोग प्रातःकाल चाह (चाय) आदि पीते हैं उस के स्थान में यदि इस के पीने का अभ्यास किया जावे तो बहुत लाभ हो सकता है, क्योंकि चाह आदि की अपेक्षा यह सौ गुणा फायदा पहुंचाता है । नींबू का बाहिरी उपयोग नहाने के पानी में दो तीन नीवुओं का रस निचोड़ कर उस पानी से नहाने से शरीर अच्छा रहता है अर्थात् चमडी के छिद्र मैल से बद Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ मैनसम्प्रदामशिक्षा || नहीं होते हैं, यदि मन्द भी हों तो मैल दूर होकर छिद्र खुल जाते है तथा ऐसा करने से वाद स्वाम और फुन्सी आदि चमड़ी के रोग भी नहीं होते हैं । प्रत्येक मनुष्यको उचित है कि दाल और चाक यादि नित्म की खुराक में तथा उस के अतिरिक्त भी नींबू को काम में लामा करे, क्योंकि यह अधिक गुणकारी पदार्थ है मौर सेवन करने से आरोम्यता को रखता है । म्बजुर — पुष्टिकारक, खाविष्ठ, मीठी, ठड्डी, माही, रकशोषक, इदम को हितकारी और त्रिदोपहर है, श्वास, थकावट, क्षम, विप, प्यास, झोप ( शरीर का सूखना) और अम्लपित्त बैसे महाभयंकर रोगों में पथ्य और हितकारक है, इस में अवगुण केवल इतना है कि यह पचने में भारी है और क्रमि को पैदा करती है इस लिये छोटे बाल को को किसी प्रकार की भी खजूर को नहीं खाने देना चाहिये । खजूर को घी में तसकर खाने से उक्त दोनों दोष कुछ फम हो जाते हैं। गर्मी की ऋतु में खजूर का पानी कर सभा उस में थोड़ा सा अमिनी ( इमली ) का खड्डा पानी डाल कर धर्म की तरह बनाकर यदि पिया बागे तो फायदा करता है। fluor खजूर और सूखी खारक ( छुहारा ) भी एक प्रकार की खजूर ही है परन्तु उस के गुण में घोड़ासा फर्क है | फालसा, पीलू और करोंदे के फल – ये तीनों पित तथा भामास के नाशक है, सब प्रकार के प्रमेह रोग में फायदेमन्द है, उप्म काल में फासे का शर्बत सेवन करने से बहुत लाभ होता है, कचे फालसे को नहीं खाना चाहिये क्योंकि वह पित्त को उत्पन्न करता है ॥ सीताफल -- मधुर, ठका मौर पुष्टिकारक है परन्तु कफ और वायु को उत्पन्न करता है ॥ जामफल- स्वादिष्ठ, ठठा, पृप्य, रुचिकर, मीर्यवर्धक और त्रिदोपहर है परन्तु तीक्ष्ण और भारी है, कफ और वायु को उत्पन्न करता है किन्तु उन्माद रोगी (पागम ) के लिये भष्म है ॥ सकरकन्द - मधुर, रुचिकर, हृदय को हितकारी, श्रीवर, माही और पिसहर है, भवीसार रोगी को फायदेमन्द है, इस का मुरब्बा भी उत्तम होता है | अञ्जीर-ठंडी और भारी है, रफविकार, वाद, बायु तथा पित को नष्ट करती है, १- बस को पूर्व में तफरी वच्य भ्रमर भी कहते हैं, सब से अच्छा अपत्र प्राय ( महाबाज) प होता क्योंकि वहाँ का भ्रम मीना चरित्र मल बीजार बहुत बड़ा होता Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २३३ देशी अञ्जीर को गूलर कहते है, यह प्रमेह को मिटाता है परन्तु इस में छोटे २ जीव होते हैं इस लिये इस को नही खाना चाहिये || असली अञ्जीर काबुल में होती है तथा उस को मुसलमान हकीम वीमारों को बहुत खिलाया करते है | इमली - कच्ची इमली के फल अभक्ष्य है इसलिये उन को कभी उपयोग में नही लाना चाहिये क्योंकि उपयोग में लाने से वे पेट में दाह रक्तपित्त और आम आदि अनेक रोगों को उत्पन्न करते है । पकी इमली - वायु रोग में और शूल रोग में फायदेमन्द है, यह बहुत ठंढी होने के कारण शरीर के साधों ( सन्धियों ) को जकड देती है, नसो को ढीला कर देती है इस लिये इस को सदा नहीं खाना चाहिये । चीनापट्टन, द्रविड, कर्णाटक तथा तैलग देशवासी लोग इस के रस में मिर्च, मसाला, अरहर (तूर ) की दाल का पानी और चावलों का माड डाल कर उस को गर्म कर ( उबाल कर ) भात के साथ नित्य दोनों वक्त खाते है, इसी प्रकार अभ्यास पड़ जाने से गर्म देशो में और गर्म ऋतु में भी बहुत से लोग तथा गुजराती लोग भी दाल और शाकादि में इस को डाल कर खाते है तथा गुजराती लोग गुड़ डाल कर हमेशा इस की कढ़ी बना कर भी खाते है, हैदरावाद आदि नगरो में बीमार लोग भी इमली का कट्ट खाते हैं, इसी प्रकार पूर्व देशवाले लोग अमचुर की खटाई डाल कर माडिया बना कर सलोनी दाल और भात के साथ खाते है परन्तु निर्भय होकर अधिक इमली और अमचुर आदि खटाई खाना अच्छा नहीं है किन्तु ऋतु तासीर रोग और अनुपान का विचार कर इस का उपयोग करना उचित है क्योंकि अधिक खटाई हानि करती है । नई इमली की अपेक्षा एक वर्ष की पुरानी इमली अच्छी होती है उस के नमक लगा कर रखना चाहिये जिस से वह खराब न हो । इमली के शर्वत को मारवाड़ आदि देशों में अक्षयतृतीया के दिन बहुत से लोग बनाकर काम में लाते है यह ऋतु के अनुकूल है । इमली को भिगोकर उस के गूदे में नमक डाल कर पैरो के तलवों और हथेलियों में मसलने से लगी हुई लू शीघ्र ही मिट जाती है । १ - इसी प्रकार वड और पीपल आदि वृक्षों फल भी जैन सिद्धान्त मे अभक्ष्य लिसे है, क्योंकि इन के फलों में भी जन्तु होते हैं, यदि इस प्रकार के फलों का सेवन किया जावे तो वे पेट में जाकर अनेक रोगों के कारण हो जाते हैं | २ - इस को अमली, ऑवली तथा पूर्व में चिया और ककोना भी कहते हैं ॥ ३- देखो किसी का वचन है कि - "गया मर्द जो खाय खटाई । गई नारि जो साय मिठाई ॥ गई हाट जॅह मँडी हवाई, गया वृक्ष जँह बगुला बैठा, गया गेह जॅह मोडा ( वर्त्त साधु ) पैठा ॥ १ ॥ ३० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० बैनसम्प्रदायविक्षा ॥ नारियल-पहुत मीठा, पिकना, हदय को हितकारी, पुष्ट, पम्तिशोपक भोर रस। पित्तनाशक है, पारेभादि की गर्मी में तथा भम्सपिच में इस का पानी उमा नासिकर खण्डपाय बहुत फायदेमन्द है मौर बीयबफ है। कर देशों में बहुत से लोग नारिमठ के पानी को उप्ण फतु में पीते हैं यह पेठक फायदेमन्द होता है परन्तु इतना अवश्य लयाल रखना चाहिये कि निरस (निजे, साठी भर्थात् भन्न साये पिना) फलेमे तमा दिन फो निद्रा लेफर उठने के पीछे एक पटेवा इस को नहीं पीना चाहिये भो इस बात का सपास नहीं रमलेगा उस को जन्म भर प. वाना पड़ेगा ॥ स्वरनूजा तथा मीठे म्बहे कापर—ये भी कही ही की एक बाति है, जो नदी की मात्र में पकता है उस को सरयूमा कहते हैं, यह स्वाद में मीठा होता है, सस नऊ के स्वरयूने रस मीठे होते है लोग इस का पना बना कर भी खाते हैं, यह गर्म होता हे जिन दिनो में हेमा पम्ता हो उन दिनों में सरममा निलकुल नहीं खाना चाहिये। मो नमीन तमा खेतों में पके उसे किसी भौर कापर कहते हैं, ककनी मोर कापर मारपार मावि देशों में पहुच उस्पन होते है, ककसी को मुला कर उस का सूखा साफ भी बनाते हैं उस को खेलरा कहते हैं तमा कापर को सुखाकर उस का जो सूसा साफ मनाते हैं उसको कारी कहते हैं, इस को वास या शाक मैं गम्ते हैं, यह साने में साविष्ठ तो होता है सबा लोग इसे प्राय गाते मी हैं परन्तु गुणों में तो सब फमें की अपेक्षा हलके दर्व के (आत्म गुपगाले) तथा हानिकारक फल ये ही (कली मार फापर) है, क्योंकि ये तीनों दोषों को विगारवे, ये पे-बायु मौर कफ को करते हैं किन्तु पकने के मात्र तो विक्षेप (पहिले की अपेक्षा अधिक) फ तथा वायु को बिगाड़ते हैं । फलिन्द (मतीरा या तरपूज)-स के गुण शाकवर्ग में पूर्व म्सियुके । विशेष कर मह भी गुणों में ककसी और कापर समान ही है। भप्रक, पारदमस्म (पारे की भस्म ) और स्वर्णमस्म, इन तीनों की मात्रा सेते समम कफाराम (ककारादि नामवासे भाठ पदार्थ) वधि, क्योंकि उक्त मात्रामों के ते समय ककाराठक का सेवन करने से वे उक मात्रामों के गुणों को सराप कर देते, कमाराठफ ये हैं--कोठा, केसे पन्द, करोंदा, कामी, र, फरेम, कमी भौर काकिन्य (मतीरा ), इस लिये इन भाठों वस्तुओं का उपयोग उस पातुओं की मात्रा को साने पाठे को नहीं करना चाहिये ।। १-मुना है कि यरसूचे प्रपना भौर पाबत वावे समय बपि गुमान मा चार तो प्राची मान मर ही पाता है कि वह भी मन नहीं है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २३५ वादाम, चिरोंजी और पिस्ता-ये तीनों मेवे वहुत हितकारी है, इन को सब प्रकार के पाकों और लड्डु आदि में डाल कर भाग्यवान् लोग खाते है।। बादाम-मगज को तरावट देता और उसे पुष्ट करता है, इस का तेल सूघने से भी मगज़ में तरावट पहुंचती है और पीनसरोग मिट जाता है । ये गुण मीठे बादाम के है किन्तु कड़आ बादाम तो विष के समान असर करता है, यदि किसी प्रकार वालक तीन चार कडए वादामों को खालेवे तो उस के शरीर में विपके तुल्य पूरा असर होकर प्राणों की हानि हो जा सकती है, इस लिये चाख २ कर बादामों का खय उपयोग करना और बालकों को कराना चाहिये, वादाम पचने में भारी है तथा कोरा (केवल ) बादाम खाने से वह बहुत गर्मी करता है ॥ इक्षुवर्ग ॥ इक्षु (ईख)-रक्तपित्तनाशक, बलकारक, वृष्य, कफजनक, खादुपाकी, स्निग्ध, भारी, मूत्रकारक और शीतल है । ईख मुख्यतया बारह जाति की होती है-पौड़क, भीरुक, वंशक, शतपोरक, कान्तार, तापसेक्षु, काण्डेक्षु, सूचीपत्र, नेपाल, दीर्घपत्र, नीलपोर और कोशक, अब इन के गुणों को क्रम से कहते हैं: पौंड्रक तथा भीरुक-सफेद पौडा और भीरुक पौडा वातपित्तनाशक, रस और पाक में मधुर, शीतल, बृहण और बलकता है | कोशक-कोशक सज्ञक पौडा-भारी, शीतल, रक्तपित्तनाशक तथा क्षयनाशक है । कान्तार-कान्तार ( काले रंग का पौंडा ) भारी, वृष्य, कफकारी, बृहण और दस्तावर है ॥ दीर्घ पौर तथा वंशक-दीर्घ पौर सज्ञक ईख कठिन और वर्क ईख क्षारयुक्त होती है। १-फल और वनस्पति की यद्यपि अनेक जातिया हैं परन्तु यहा पर प्रसिद्ध और विशेष खान पान में आनेवाले आवश्यक पदार्थों के ही गुणदोष सक्षेप से बतलाये हैं, क्योंकि इतने पदार्थों के भी गुणदोष को जो पुरुप अच्छे प्रकार से जान लेगा उस की बुद्धि अन्य भी अनेक पदार्थों के गुण दोषों को जान सकेगी, सव फल और वनस्पतियों के विपय में यह एक वात भी अवश्य ध्यानमें रखनी चाहिये किअचात, कीडों से खाया हुआ, जिस के पकने का समय बीत गया हो, विना काल में उत्पन्न हुआ हो, जिस का रस नष्ट हो (सूख) गया हो, जिस में किंचित् भी दुर्गन्धि आती हो और अपक्क ( विना पका हुआ), इन सव फलों को कभी नहीं खाना चाहिये ॥ २-इस को गन्ना साठा तथा ऊख भी कहते हैं । ३-दीर्घ पौरसज्ञक अर्थात् घडी २ गाठोंवाला पौंडा ॥ ४-इस को वम्बई ईख कहते हैं । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ शतपोरक - इस के गुप कोशक ईल के समान है, विशेषता इस में केवल इतनी है कि-पह किश्चित् उप्प क्षारयुक और बावनाशक है ॥ तापसेक्षु-मृदु, मधुर, कफ को कुपित करनेवाला, तृष्टिकारक, रुचिप्रद, वृष्य और बलकारक है | काण्डे -- इस के गुण सापसेक्षु के समान हैं, केवल इस में इतनी विशेषता है कि यह वायु को कुपित करता है ॥ २१३ सूचीपत्र, नीeपौर, नेपाल और दीर्घपत्रक - ये चारों प्रकार के पौठे याव कर्चा, कफपिधनाशक, कपैछे और दाहकारी हैं ॥ इस के सिवाय भवस्वाभेद से भी ईस के गुणों में मेत्र होता है अर्थात् मात (छोटी) ईस - कफकारी, मेदवर्धक तथा प्रमेहनाशक है, युमा ( जवान ) ईस - वायुनाशक, खावु, कुछ सीम और पिसनाशक है, तथा वृद्ध (पुरानी) ईल- रुधिरनाशक, घणनाशक, बल कर्ता और वीर्यात्पादक है । ईस का मूलभाग अत्यन्त मधुर रसयुक्त, मध्यभाग मीठा तथा ऊपरी भाग नुनस्वरा ( नमकीनरस से युक्त ) होता है । दाँतों से बना कर चूसी हुई इस का रकपित्तनाशक, स्रोड़ के समान वीर्याचा, अविवाही (वाह को न करनेवाला ) समा कफकारी है । सर्वभाग से युक्त कोल्हू में दबाई हुई ईख का रस बन्तु और मैल आदि के संसर्ग से बित होता है, एम उक्क रस बहुत काल पर्यन्त रक्खा रहने से अत्यन्त विकृत हो जाता है इस किये उस को उपयोगमें नहीं खाना चाहिये क्योंकि उपयोग में लाया हुआ वह रस वाह करता है, मन और मूत्र को रोकता है तथा पचने में भी भारी होता है । ईस्ल का मासा रस भी बिगड़ जाता है, यह रस स्वाद में खट्टा, वातनाशक, भारी, पित्त कफकारक, सुखानेवासा, दखावर तथा सूत्रकारक होता है । } ममिपर पकाया हुआ ईख का रस भारी, सिम्म सीक्ष्ण, वातकफनाश्चक, गोला नाशक और कुछ पिचकारक होता है । इक्षुविकार अर्थात् गुड़ भावि पदार्थ भारी मधुर, वकारक, विग्ध, पावनाचक, वस्त्रावर, वृष्य, मोहनाचक, श्रीतक, बृंहण और विषनाशक होते हैं, इक्षुविकारों का सेवन करने से पूषा, दाह मूर्च्छा भौर रतपित्त नष्ट हो जाते हैं | १- पोरकर्षात् ॥ २६ कोई करते है । -सूचीपत्र उसको कहते है जिसके पत्ते बहुत बारीक होते है, भीखपौर उस को केएम की होती है, तैपाक उसको कहते है को पेपाल देव में उत्पन्न क्षेता है तथा है जिसके पत्ते बहुत होते है है जिसकी पत्र Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ चतुर्थ अध्याय ॥ अब इक्षुविकारों का पृथक् र सक्षेप से वर्णन करते है: फाणित -- कुछ २ गाढा और अधिक भाग जिस का पतला हो ऐसे ईख के पके हुए रस को फाणित अर्थात् राव कहते है, यह भारी, अभिष्यन्दी, बृंहण, कफकर्त्ता तथा शुक्र को उत्पन्न करता है, इस का सेवन करने से वात, पित्त, आम, मूत्र के विकार और वस्तिदोष शान्त हो जाते है ॥ मत्स्यण्डी - किञ्चित् द्रवयुक्त पक तथा गाढे ईखके रस को मत्स्यण्डी कहते है, यह-भेदक, चलकारक, हलकी, वातपित्तनाशक, मधुर, बृहण, वृप्य और रक्तदोपनाशक है || गुड़े - नया गुड गर्म तथा भारी होता है, रक्तविकार तथा पित्तविकार में हानि करता है, पुराना गुड ( एक वर्ष के पीछे से तीने वर्ष तक का ) बहुत अच्छा होता है, क्योंकि यह हलका अग्निदीपक और रसायनरूप है, फीकेपन, पाण्डुरोग, पित्त, त्रिदोष और प्रमेह को मिटाता है तथा बलकारक है, दवाओं में पुराना गुड ही काम में आता है, शहद के न होने पर उस के बदले में पुराना गुड़ ही काम दे जाता है, तीन वर्ष के पुराने गुड के साथ अदरख के खाने से कफ का रोग मिट जाता है, हरड़ के साथ इसे खाने से पित्त का रोग मिटता है, सोठ के साथ खाने से वायु का नाश करता है । तीन वर्ष का पुराना गुड़ गुल्म ( गीला ), बवासीर, अरुचि, क्षय, कास ( खासी ), छाती का घाव, क्षीणता और पाण्डु आदि रोगों में भिन्न २ अनुपानो के साथ सेवन करने से फायदा करता है, परन्तु ऊपर लिखे रोगों पर नये गुड का सेवन करने से वह कफ, श्वास, खासी, कृमि तथा दाह को पैदा करता है । पित्त की प्रकृतिवाले को नया गुड कभी नहीं खाना चाहिये । चूरमा लापसी और सीरा आदि के बनाने में ग्रामीण लोग गुड़ का बहुत उपयोग करते हैं, एव मजूर लोग भी अपनी थकावट उतारने के लिये रोटी आदि के साथ हमेशा गुड खाया करते है, परन्तु यह गुड़ कम से कम एक वर्ष का तो पुराना चाहिये नही तो आरोग्यता में बाधा पहुँचाये विना कदापि न रहेगा । अवश्य होना ही गुड़ के चुरमा और लापसी आदि पदार्थों में घी के अधिक होने से गुड अधिक गर्मी नही करता है । १-देखो इस भारतभूमि मे ईख (साठा ) भी एक अतिश्रेष्ठ पदार्थ है-जिस के रस से हृदयविकार दूर होकर तथा यकृत् का सशोधन होकर पाचनशक्ति की वृद्धि होती है, फिर देसो ! इसी के रस से गुड वनता है जो कि अत्यन्त उपयोगी पदार्थ है, क्योकि गुड ही के सहारे से सव प्रकार के मधुर पदार्थ बनाये जाते हैं | २ - तीन वर्ष के पीछे गुड का गुण कम हो जाता है ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनसम्पदामशिक्षा॥ तुल शरीरबाला, शोप रोगी, जिस के नतम हो वा चोट लगी हो, बवासीर श्वास और मछा का रोगी, माग में बसने से मन हुआ, विस ने बहुत परिमम का काम किया हो, जो गिरने से व्याकुल हो, जिस को किसी ने किसी प्रकार का उपालम्म (उसाहना पा ताना आदि) दिमा हो इस से उसके मन में चिन्दा हो, जिस को किसी प्रकार का नशा मा विप चना हो, जिस को मूत्रान् वा पपरी का रोग हो, इन मनुष्यों के लिये पुराना गर अति छामदापकरे, इसी प्रकार वीर्ण ज्वर से क्षीण वा विपम परवाले परुप को पीपल र सौंठ और मनमोद, इन पारों के साथ अपवा इन में से किसी एक के साथ पुराने गा को देन से उठ दोनो प्रभर के उपर मिट जाते है, रकपिप और शाह के रोमी को इस का वर्मत कर पिलाना चाहिये, क्षम भौर रफविकार में गिलोय को पोट कर उस के रस के साथ पुराना गुरु मिग कर देने से बहुत साम पहुँचाता है। पाटन में तो पुराना गुा पर रिसे रोगों में तथा इन के सिवाय दूसरे भी बहुत से रोगों में पड़ा ही गुणकारी है मौर अन्य मोपविमों के साथ इस का मनुपान बस्दी ही मसर करता है। गर के समान एफ पर्प के पीछे से तीन वर्ष तक का पुराना वरद मी गुणकारी सम भना पाहिमे ॥ स्मार-पिपनाशक टरी मौर बल देनेवाती है, बनारसी सार मासों के म्मेि बात फायदेमन्द भोर वीमेवर्षक है, सांर कफ को करती है इसलिये कफ के रोगों में, रसारिकार से उत्पन्न हुए योग में, ज्वर में पौर भाममात भादि कई रोगों में हानि करती है. साने के उपयोग में खोड को न लेकर भूरा को देना चाहिये । मिश्री और कन्द नेत्रों को हितकारी, मिग्म, पासुबर्मष, मुम्लपिन, मधुर, शीसछ, मीर्मवर्षक, बलकारक, सारक (पखावर ) इन्द्रियों को तप्त पर्ण, इसमे भौर सपानाशक है, पर क्षस, क्षम, रफपिप, मोह, मूछो, कफ, वात, पित्त, वाह और शोप को मिटाते हैं। दोनो पदार्भ पास ही साफ किये बाते है भर्थात् इन में मैक मिल नहीं रहता इस मिमे समझदार लोगों को दूप मावि पदार्मों में सवा इन्हीं का उपयोग करना चाहिये। अपपि कापी की मिधी को लोग भच्छी बतलाया करते हैं परन्तु मरुसस देश के पनेर भगर में हलवाई लोग मति उबल (उमली, साफ) मिमी का मा पनासे इस लिये हमारी समझ में ऐसी मिधी मन्यन कहीं भी नहीं बनती है ।। लोप पकग्य-प्रिय मित्रो ! पूर्वप्रम में शर्करा (पीनी) इस वेष्ट में इतनी पाहतायत से पनती थी कि मारतरासी लोग उस मनमामा उपभोग करते थे तो भी. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ ___चतुर्थ अध्याय ॥ रदेशों में हजारो मन जाती थी, देखो ! सन् १८२६ ई० तक प्रतिवर्ष दो करोड़ रुपये की चीनी यहा से परदेश को गई है, ईसवी चौदहवी शताब्दी (शदी) तक युरोप में इस नाम निशान तक नहीं था इस के पीछे गुड चीनी और मिश्री यहा से वहां को गाने लगी। ___ पूर्व समय में यहा हजारो ईख के खेत बोये जाते थे, लकडी के चरखे से ईख का रस निकाला जाता था और पवित्रता से उस का पाक बन कर मधुर शर्करा बनती थी, ठौर २ शर्करा बनाने के कारखाने थे तथा भोले भाले किसान अत्यन्त श्रमपूर्वक शर्करा चना कर अपने २ इष्ट देव को प्रथम अर्पण कर पीछे उस का विक्रय करते थे, अहाहा ! क्या ही सुन्दर वह समय था कि जिस में इस देश के निवासी उस पवित्र मधुर और रसमयी शर्करा का सुखाद यथेच्छ लूटते ये और क्या ही अनुकूल वह समय था कि जिस में इस देश की लक्ष्मी खरूप स्त्रिया उस पवित्र मधुर और रसमयी शर्करा के उत्तमोत्तम पदार्थ बना कर अपने पति और पुत्रो आदि को आदर सहित अर्पण करती थी, परन्तु हा । अब तो न वह शुभ समय ही रहा और न वह पवित्र मधुर रसमयी आयुवर्धक और पौष्टिक शर्करा ही रही! ।। आज से हजार बारह सौ वर्ष पहिले इस अभागे भारत पर यद्यपि यवनादिकों का असह्य आक्रमण होता रहा तथापि अपवित्र परदेशी वस्तुओं का यहा प्रचार नहीं हुआ, यद्यपि यवन लोग यहां से करोड़ों का धन लेगये परन्तु अपने देश की वस्तुओ की यहा भरभार नहीं कर गये किन्तु यही से अच्छी २ चीजें बनवा कर अपने देश को लेगये परन्तु जब से यह देश खातव्य प्रिय न्यायशील बृटिश गवर्नमेंट के हाथ में गया तब से उन के देशों की तथा अन्य देशों की असख्य मनोहर सुन्दर और सस्ती चीजें यहा आकर यह देश उन से व्याप्त होगया, बनी बनाई सुन्दर और सस्ती चीज़ों के मिलते ही हमारे देश के लोग अधिकता से उन को खरीदने लगे और धीरे २ अपने देश की चीजों का अनादर होने लगा, जिस को देख कर वेचारे किसान कारीगर और व्यापारी लोग हतोत्साह होकर उद्योगहीन होगये और देशभर में परदेशी वस्तुओं का प्रचार होगया । यद्यपि हमारी न्यायशीला बृटिश गवर्नमेंट ने ऐसी दशा में इस देश के कारीगरों को उत्तेजन देने के लिये तथा देश का व्यापार बढ़ने के लिये सर्कारी दफ्तरों में और प्रत्येक सर्कारी काम में देशी वस्तु के प्रचार करने की आज्ञा देकर इस देश के सौभाग्य को पुनः बढ़ाना चाहा जिस के लिये हम सबों को उक्त न्यायशीला गवर्नमेंट को अनेकानेक धन्यवाद शुद्ध अन्तःकरण से देने चाहियें, परन्तु क्या किया जावे हमारे देश के लोग दारिद्य से व्याप्त होकर हतोत्साह बनने के कारण उस से कुछ भी लाभ न उठा सके। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० बैनसम्प्रदायश्चिया ॥ कारीगरी मौर व्यापार की वस्तुयें तो दूर रही फिन्तु हमारे सानपान की पीने मी पर देव कीही पसन्द होने लगी और बना पनाया पास दुग्ध और शर्करा भी परदेश की मेन सब लोग निर्वाह करने लगे, देखो ! जन मोरस की खार प्रपम यहाँ भोड़ी २ माने उमी सप उस को देशी चीनी से स्वच्छ और सस्ती देख कर लोग उस पर मोहित होने म्ये, मासिरकार समस्त देश उस से व्याप्त हो गया भौर देखी सकर झम २ से नाममा होती गई, नतीजा यह हुआ कि-अप केयस ओषधिमात्र के लिये ही उस का प्रचार होता है। इस पात को प्राय सब ही मान सकते हैं कि-विमयती सार ईस के रस से नहीं पनती है, क्योंकि वहां ईस की सेसी ही नहीं है किन्तु पीट नामद और जुवार 4 जाति के टटेलों से भगषा इसी प्रकार के भन्य पदामों में से उन का सत्व निभा कर वहाँ सांड बनाई जाती है, उस को साफ करने की रीति “पन्साकोपेरिया नियनिका रे ५२७ पृष्ठ में इस प्रकार सिसी है एक सौ पाठीस या एक सौ अड़सठ मन पीनी लोहे की एक बड़ी रंग में रातभर गाई जाती है, पीनी गाने के लिये रंग में एक यन्त्र लगा रहता है, सामही गर्म माफ के कुछ पाइप भी डेग में लगे रहते हैं, मिस से निरन्तर गर्म पानी रंग में गिरता है, यह रस का धीरा नियमित व तक औटाया जाता है, नर बहुत मैली पीनी साफ की बाती है तब वह खून से साफ शेती है, गर्म वीरा स भौर सन की जालीवार येलियों से छाना जाता है, ये भैलियां बीच २ में साफ की जाती है, फिर वह भीरा जान परों की हड़ियों की रास की २० से १० पुटतक गहरी तर से छन कर नीचे रक्से हुए बर्सन में माता है, इस तरह छनने से धीरेन रग मत साफ मौर सफेद हो माता ऊपर मिले भनुसार शीरा बनकर तथा साफ होने के मनन्तर उस की दूसरी पार सफाई इस तरह से की जाती है कि एफ पसुप्फोम (चौकोनी) तपि फी रंग में कुछ पूने पानी के साथ पीनी रक्सी माती (निस में भोग साठ का खुन राम माता है) और प्रति सैफो में ५ से २० तक ही के कोयलों प पूरा राग जाता है इस्पानि, देसो! यह सब विषय भप्रेमों ने भपनी बनाई गई किताबों में हिस्सा है, पास से राक्टर गोग मिलते हैं फिनस पीनी के साने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं इस पर यदि कोई पुरुष या वका परे कि-विगपत के लोग इसी पीनी को साते हैं फिर उन को कोई बीमारी क्यों नहीं होती है। और पहा प्लेग जैसे भयंकर रोग क्यों नहीं उत्पन होते हैं ! तो इस उपर यह है कि- बमान समय में विणत के लोग संसारमर में सम से भविक विधान वेचा भौर अभिकसर विद्वान् है (यह मात मायः सबने विदित ही है) ये लोग इस घर को पूवे भी नहीं है किन्तु वहां के लोगों के लिये तो स्वनी Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ चतुर्थ अध्याय ॥ उमदा और सफाई के साथ चीनी बनाई जाती है कि उस का यहा एक दाना भी नहीं आता है क्योंकि वह एक प्रकार की मिश्री होती है और वहां पर वह इतनी महंगी विकती है कि उस के यहां आने में गुञ्जाइश ही नहीं है, इस के सिवाय यह बात भी है कि यदि वहा के लोग इस चीनी का सेवन भी करें तो भी उन को इस से कुछ भी हानि नहीं पहुँच सकती है, क्योंकि-विलायत की हवा इतनी शर्द है कि वहा मद्य आदि अत्युप्ण पदार्थों का विशेष सेवन करने पर भी उन (मद्य आदि) की गर्मी का कुछ भी असर नहीं होता है तो भला वहा चीनी की गर्मी का क्या अमर हो सकता है, किन्तु भारत वर्ष के समान तो वहा चीनी का सेवन लोग करते भी नहीं है, केवल चाय आदि में ही उस का उपयोग होता है, खाली चीनी का या उस के बने हुए पदार्थों का जिसप्रकार भारतवर्षीय लोग सेवन करते है उस प्रकार वहां के लोग नही करते है और न उन का यह प्रतिदिन का खाद्य और पौष्टिक पदार्थ ही है, इसलिये इस का वहा कोई परिणाम नहीं होता है, यदि भारतवर्ष के समान इस का बुरा परिणाम वहा भी होता तो अवश्य अबतक वहा इस के कारखाने बद हो गये होते, वहा प्लेग भी इसी लिये नहीं होता है कि वह देश यहा के शहर और गाँव की अपेक्षा बहुत स्वच्छ और हवादार है, वहा के लोग एकचित्त है, परस्पर सहायक है, देशहितैपी है तथा श्रीमान् है । इस बात का अनुभव तो प्राय. सब को होही चुका है कि-हिन्दुस्तान में प्लेग से दूषित स्थान में रहने पर भी कोई भी यूरोपियन आजतक नही मरा, इसी प्रकार श्रीमान् लोग भी प्रायः नहीं मरते है, परन्तु हिन्दुस्थान के सामान्य लोग विविधचित्त, परस्पर निःसहाय और देश के अहित हैं, इसलिये आजकल जितने बुरे पदार्थ, बुरे प्रचार और बुरी बातें हैं उन सबों ने ही इस अभागे भारत पर ही आक्रमण किया है। __ अब अन्त में हम को सिर्फ इतना ही कहना है कि अपने हित का विचार प्रत्येक भारतवासी को करके अपने धर्म और शरीर का सरक्षण करना चाहिये, यह अपवित्र चीनी आर्यों के खाने योग्य नहीं है, इसलिये इस का त्याग करना चाहिये, देखो! सरल स्वभाव और मास मद्य के त्यागी को आर्य कहते है तथा उन ( आर्यों ) के रहने के स्थान को आर्यावर्च कहते हैं, इस भरतक्षेत्र में साढ़े पच्चीस देश आर्यों के हैं, गगा सिन्धुके बीच में-उत्तर में पिशोर, दक्षिण में समुद्र काठा तक २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ वलदेव, ९ प्रतिनारायण, ११ रुद्र और ९ नारद आदि उत्तम पुरुष इसी आर्यावर्त में जन्म लेते है, इसलिये ऐसे पवित्र देश के निवासी महर्षियों के सन्तान आर्य १-मुक्ति को तो सव ही मनुष्य क्षेत्रों से प्राणी जाता है, लन्दन और अमेरिका तक सूत्रकार के कथन से भरतक्षेत्र माना जा सकता है, देखो । अमेरिका जैन सस्कृत रामायण (रामचरित्र) के कथनानुसार पाताल लका ही है, यह विद्याधरों की वस्ती थी तथा रावण ने वहीं जन्म लिया था ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनसम्पवारशिक्षा । छोगों को सदा उसी मार्ग पर पम्ना उपित है विसपर चलने से उनके धर्म, यश, सुख, __ भारोम्पता, पवित्रता मोर मापीन मर्यादा का नाश न हो, क्योंकि इन सब का संरक्षण फर मनुष्य जन्म के फल को माप्त करना ही वास्तवमें मनुप्पस्व है ।। तैलवर्ग ॥ वैस यपपि कई प्रकार का होता है परन्तु विशेषकर मारवार में विली का और पगाल तथा गुजरात मादि में सरसों का तेल साने भावि के काम में आता है, सेल साने की भपेक्षा नसाने में तमा शरीर के मर्दन मादि में विशेष उपयोग में माता है, क्योंकि उसम खान पान के करने वाले लोग तेल को वितफुल नहीं खाते हैं और वास्तव में मृत बैसे उत्तम पदार्थ को छोड़कर बुद्धि को कम करनेवाले सेल को खाना भी उचित नहीं है, हो यह दूसरी बात है कि सेस सचा है समा मौठ गुवारफी और चना बादि पावस (वातफारक) पदार्थ मिर्ष मसाम गठ कर तेल में तैरने से मुम्बार (रजतदार)ो जाते हैं वषा वादी मी नहीं करते हैं, इसने भष्ट में यदि वैत साया नावे तो यह मिल बात है परन्तु प्रवादि के समान इस का उपयोग करना उपिस नहीं है जैसा कि गुमराव में लोग मिठाई तक सेल की बनी हुई साते हैं और नगारियों का तो सेन जीवन ही वन रहा है, हा अठवण जोपपुर मेवार नागौर और मेड़ता आदि कई एक राज्यसानों में लोग तेल को बहुत कम लाते हैं। गस के प्रतिदिन के आवश्यक पदार्थों में से वेस भी एक पदार्थ है सपा इस का उपयोग भी माप प्रत्येक मनुष्य को करना पाता है इस लिये इसकी जातियों समा गुण वोपों का पान सेना प्रत्येक मनुष्य को मस्पापश्पक हे भवः इसकी जातियों वमा गुण दोपों का संक्षेप से वर्णन करते हैं तिल का तेल---यह तेल भरीर को करनेवास्म, बमक, स्वा के पर्व को मचा करनेवाला, वातनासक, पुष्टिकारक, ममिदीपवरीर में सीघ्र ही प्रवेश करने पासा भार कृमि में दूर करनबाग है, मन की योनि की मौर सिर की पूल को मिटाता है, घरीर को इसका फरवा है, इटे हुए, ऊपरे हुए, दम हुए भीर कटे हुए हा तमा ममि से मळे दुप को फायदेमन्द है। व मदन में जो २ गुण कससूत्र में सिसे है ये किसी भोपभि के साथ पाए वेठ के समक्षन चाहि फिन्त सामी सेस में उतने गुण नहीं है। -Rमार पाये (र)ीमनर में हम में तनार हुनो गणवीर पोप होप से पार मोसा ग्राम की में वन मरीमरीर उग्दै मसिमीर प्रायः परात. - - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय॥ २४३ जिन औषधों के साथ तेल पकाया जाये उन औषधों का उपयोग इस प्रकार करना चाहिये कि-गर्मी अर्थात् पित्त की प्रकृतिवाले के लिये ठंढी और खून को साफ करनेवाली औषधों का तथा कफ और वायु की प्रकृतिवाले के लिये उष्ण और कफ को काटनेवाली औपधों का उपयोग करना चाहिये, नारायण, लक्ष्मीविलास, पड्विन्दु, चन्दनादि, लाक्षादि, शतपक और सहस्रपक्क आदि अनेक प्रकार के तैल इसी तिल के तेल से बनाये जाते है जो प्रायः अनेक रोगो को नष्ट करते हैं, तथा बहुत ही गुणकारक होते है। ___ यह तैल पिचकारी लगाने के और पीने के काम में भी आता है तथा गरीब लोग इस को खाने तलने और बघारने आदि अनेक कार्यों में वर्चते है, यह कान तथा नाक में भी डाला जाता है। परन्तु इस में ये अवगुण है कि-यह सन्धियों को ढीला कर धातुओं को नर्म कर डालता है, रक्तपित्त रोग को उत्पन्न करता है किन्तु शरीर में मर्दन करने से फायदा करता है, इस के सिवाय शरीर, बाल, चमडी तथा आंखों के लिये भी फायदेमन्द है, परन्तु तिली का या सरसों का खाली तेल खाने से इन चारों को ( शरीर आदि को ) हानि पहुंचाता है, हेमन्त और शिशिर ऋतु में वायु की प्रकृति वाले को यह सदा पथ्य है॥ सरसों का तेल-दीपन तथा पाक में कटु है, इस का रस हलका है, लेखन, स्पर्श और वीर्य में उप्ण, तीक्ष्ण, पित्त और रुधिर को दूषित करनेवाला, कफ, मेदा, वादी, बवासीर, शिर.पीडा, कान के रोग, खुजली, कोढ़, कृमि, श्वेत कुष्ठ और दुष्ट कृमि को नष्ट करता है । राई का तेल-काली और लाल राई के तेल में भी सरसो के तेल के समान ही गुण है किन्तु इस में केवल इतनी विशेषता है कि यह मूत्रकृच्छू को उत्पन्न करता है ।। तुवरी का तेल-तुवरी अर्थात् तोरई के बीजों का तेल-तीक्ष्ण, उष्ण, हलका, ग्राही, कफ और रुधिर का नाशक तथा अग्निकर्ता है, एव विष, खुजली, कोढ़, चकते और कृमि को नष्ट करता है, मेददोष और व्रण की सूजन में भी फायदेमन्द है ॥ अलसी का तेल-अग्निकर्ता, स्निग्ध, उष्ण, कफपित्तकारक, कटुपाकी, नेत्रों को अहित, वलका, वायुहर्ता, भारी, मलकारक, रस में खादिष्ठ, ग्राही, त्वचा के दोषों का नाशक तथा गाढ़ा है, इसे वस्तिकर्म, तैलपान, मालिस, नस्य, कर्णपूरण और अनुपान विधि में वायु की शान्ति के लिये देना चाहिये । कुसुम्भ का तेल-कसूम के बीजों का तेल-खट्टा, उष्ण, भारी, दाहकारक, नेत्रों को अहित, बलकारी, रक्तपित्तकारक तथा कफकारी है ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनसम्प्रदामशिक्षा | स्वसवस का तेल-पलकर्ता, वृष्य, मारी, बासकफहरणकर्ता, क्षीतल तथा रस और पाक में स्वादिष्ठ है ॥ f अण्डी का तेल - तीक्ष्ण, उष्ण, दीपन, गिलगिला, भारी, गुप्य, त्वचा को सुधारने थाला, भवस्था का स्थापक, मेधाकारक, कान्तिमद, बर्द्धक, पैसे रसवाला, सूक्ष्म, योनि तथा शुक्र का शोषक, आमगन्धवाला, रस और पाक में खादिछ, हुमा, चरपरा तथा दस्तावर है, विषमज्वर, इयरोग, गुरुम, पृष्ठशूल, गुडशूल, यावी, उवररोग, अफरा, व्यष्ठीळा, कमर का रद्द बाना, वातरक, मलसंमद, मद, सूजन, और निधि को दूर करता है, शरीर रूपी यन में विचरनेवाले मामबाव रूपी गजेन्द्र के लिये तो मह ते सिंहरूप ही है | राख का तेल - बिस्फोटक, पान, फोड, खुबती, कृमि और वातकफज रोगों को दूर करती है ॥ २४४ क्षार वर्ग ॥ सानो या अमीन में पैदा हुए स्वार को छोग सदा खाते हैं, दक्षिण मान्स देश तक के योग जिस नमक को खाते हैं यह समुद्र के स्वारी जब से बनाया जाता है, राजपूताने की सांभर झील में भी कास्बों मन नमक पैदा होता है, उस सीख की मद्द खासीर है किजो वस्तु उस में पड़ जाती है वही नमक वन बासी है, उक क्षीर में क्यारियां जमाई जाती हैं, पंचभवरे में भी नमक उत्पन्न होता है तथा वह दूसरे सब नमक से श्रेष्ठ होता है, बीकानेर की रियासत खूणकरणसर में भी नमक होता है, इस के भतिरिक्त अन्य मी कई स्थान मारवाड़ में हैं जिन में नमक की उत्पति होती है परन्तु सिन्ध आदि देशों में ममीन में नमक की खाने है बिन में से स्वोद कर नमक को निकालते हैं वह सेषा नमक खाता है स्वाद और गुप्त में यह नमक प्रायः सब ही नमकों से उत्तम होता है इसीखिये वैध लोग बीमारों को इसी का सेवन कराते हैं तथा भातु मावि रसों के व्यवहार में भी माम इसी का प्रयोग किया खसा है, इस के गुणों को समझनेवाले बुद्धिमान् कोग सदा स्वानपान के पदार्थों में इसी नमक को स्वावे हैं, इंग्लैंड से लीवर पुछ सॉस्ट नामक यो नमक भाता है उस को डाक्टर लोग बहुत मच्छा बताते हैं, खुराक की चीजों में नमक बड़ा ही मरूरी पदार्थ है इस के डालने से तो बढ़ ही जाता है तथा भोजन पचमी बल्दी जाता है किन्तु इस के नियम हो चुका है कि नमक के बिना स्थाने भावमी का जीवन बहुत समय तक नहीं रह भोजन का स्वाद अतिरिक्त यह भी १ संक्षेप से कुछ देने के गुणों का वर्णन किया गया है, क्षेत्रों के पुत्र उनकी योनि के समान जानने चाहिये भवत् भोक पदार्थ से उत्पन्न होता है उस बैंक में उसी पदार्थ के समान शुभ रहते २, इनका विस्तार से गर्म दूसरे मैच में दखना चाहिये ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २४५ सकता है, देखो ! जो लोग दूध से वर्षों तक निर्वाह कर लेते है उस का कारण यही है कि-दूध में यथावश्यक खार का भाग मौजूद है, खान पान में नमक स्वाद और रुचि को पैदा करता है तथा हाड़ों को मज़बूत करता है । नमक में यह अवगुण भी है कि नमक तथा खार का स्वभाव वस्तु के सड़ाने अथवा गलाने का है, इसलिये परिमाण से अधिक नमक का सेवन करने से वह शरीर के धातुओंको गला कर विगाड देता है, बहुत से मनुष्यो को यह शौक पड जाता है कि वे भोजन की सब चीजो में नमक अधिक खाते है परन्तु अन्त में इस से हानि होती है । गहू बाजरी और दूध आदि चीजो में यथावश्यक थोड़ा २ खार कुदरती होता है और दाल तथा शाक आदि पदार्थों में ऊपर से डालने से नमक का यथावश्यक भाग पूरा होता है । हम सब लोगो में क्षार वाले पदार्थ सदा अधिक खाये जाते है जैसे- दाल, शाक, चटनी, राइता, पापड़, खीचिया और अचार आदि, इन सब पदार्थों में नमक होता है इस लिये सब का थोडा २ भाग मिल कर यथावश्यक भाग पूरा हो जाता है, खार वा नमक के अधिक खाने से शरीरमें गर्मी, शरीर का टूटना और धातु का गिरना आदि वि कार मालूम होने लगते हैं । नमक वा खार को भेदक ( तोडनेवाला ) जानकर बहुत से मूर्ख वैद्य तापतिल्ली आदि पेट की गाठ को मिटाने के लिये बीमारो को अधिक खार खिला देते है उस का नतीजा आगे बहुत बुरा होता है, प्रायः पुरुषों का पुरुषत्व जो नष्ट होता है उस में मुख्य हेतु बहुधा खार का अधिक सेवन ही सिद्ध होता है, इस लिये यह बात सदा खयाल में रखनी चाहिये कि अधिक खार का सेवन वीर्य को नष्ट कर देता है, अतः सब को परिमित ही खार का सेवन करना चाहिये || अब संक्षेप से सब प्रकार के खार और नमकों के गुण दिखलाये जाते है: सेंधा नमक -मीठा, अग्निदीपक, पाचन, लघु, स्निग्ध, रोचक, शीतल, बलकारक, सूक्ष्म, नेत्रों को हितकारी और त्रिदोषनाशक है ॥ सांभर नमक - इलका, वातनाशक, अतिउष्ण, भेदक, पित्तकारक, तीक्ष्णोष्ण, सूक्ष्म और अभिष्यन्दी है तथा पचने के समय चरपरा है ॥ समुद्र नमक --- पाक में मधुर, कुछ कटु, मधुर, भारी, दीपन, भेदी अविदाही, कफवर्धक, वायुनाशक, तिक्त, अरूक्ष और अत्यन्त शीतोष्ण नही है | १ - अत्यन्त सेवन करने नमक मनुष्य को अन्धा कर देता है | २- यह राजपूताने की साभर झील से पैदा होता है इसी लिये इस का यह नाम पड़ा है | ३ - यह नमक समुद्र के जल से बनाया जाता है ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ मैनसम्प्रदायक्षिसा ॥ विस नमफ-क्षारगुणयुक्त, दीपन, इनका, तीक्ष्ण, उष्ण, सक्ष, रोचक मौर म्पपायी है, यह कफ और बादी के मनुहोमन है मर्मात् कफ को ऊपर की तरफ से समा बादी को नीचे की तरफ से निकालता है, एर्ष विवन्ध, भफरा, मिटम भौर शरीर गौरप (देह के भारीपन) को मिटाता है | सौषर्षल (फाला) नर्मक-रोचक, मेवफ, अमिदीपक, मत्सन्तपाचक, सह युक्त, वायुनाशक, विश्व, इम्फा, सूक्ष्म, रकार की शुद्धि करनेवाग तपा पिस को कम बढ़ानेवाण है, एवं विष, अफरा और शूम रोग का नाशक है ।। रेह का नर्मक-क्षारगुण युक, मारी, फटु, मिग्म, शीतल और वायुनाशक है। कधिया नमक-रुधिकारी, कुछ सारा, पित्तकर्ता, दाइकारी, कफवासनाचक, दीपन, गुस्मनाशक सपा शूलहर्म है ।। मोणी नमक-पाक में कमगर्म, कमदाहारी, भेदन, कुछ खिम्भ, धूलनायक सपा मम्स पिसकती है ॥ __ औपर नमक-सारी, फजुमा, वातकफनाशक, दाहकर्घा, पित्तकारी, प्राही समा मूत्रशोपक (मूत्र का मुसानेवाला) है ॥ पनावार--अत्यन्त उष्ण, ममिदीपक तमा वासों में हर्ष करनेवाम है, इसस साद खट्टा मौर नमकीन है तथा यह शून भगीर्ण और विमन्म को नष्ट करता है। जयाम्बार-हनका, लिग्ष, असिसूक्ष्म तथा ममिदीपक है, मह शून, मादी, आम, कफ, श्वास, गुरुम, गरेका रोग, पाण्डुरोग, बनासीर, समहणी, अफरा, प्लीहा भौर इवय रोग को दूर करता है। सजीवार-सज्जीसार भवासार की भपेक्षा भम्प गुणवाग है, परन्तु घूस, और गुस्मरोग में भषिक गुण करता है ।। सोर्रा-स में मामः सजी के समान गुण है, परन्तु इस में इतनी विशेषता है कि यह मूत्रकृच्छू को दूर करता है भा मन को शीतन करता है ।। नौसादर- यह भी एक प्रमर का सीम सार है तथा इस में सारों के समान ही माम सब गुण ॥ नाममा हिमालय पर्वत सपा (मार सहित) अस से बनाया व -यह ममरारी धमीन में से ही प्रार १-पाममा पार सपने से मिरे पत्तों में भर पेवा। ४ाममा का भूमि में रत्तप पता ५-समी भी पर प्रभर पारस व में खबम प्रपोव और मुखर -भाभी सीधसभर - प प मोगरमस्म को प्राविपि रे साप पपाने से प्रसार प्रारी परमा एकर मनुम भीरबर द्वारा पशाब में समिमता ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ चतुर्थ अध्याय ॥ सुहागा - अग्निकर्ता, रूक्ष कफनाशक, वातपित्तकर्त्ता, कासनाशक, बलवर्धक, स्त्रियों के पुष्प को प्रकट करनेवाला, व्रणनाशक, रेचक तथा मूढ़ गर्भ को निकालने वाली है ॥ मिश्रवर्ग ॥ दाल और शाक के मसाले - कुसग दोष तथा अविद्या से ज्यों २ प्राणियों की विषयवासना बढ़ती गई त्यों २ उस ( विषयवासना ) को शान्त करने के लिये धातुपुष्टि तथा वीर्यस्तम्भन की औषधों का अन्वेषण करते हुए मूर्ख वैद्यों आदि के पक्ष में फँस कर अनेक हानिकारक तथा परिणाम में दुःखदायक औषधो का ग्रहण कर मन माने उलटे सीधेमार्ग पर चलने लगे, यह व्यवहार यहा तक बढ़ा और बढ़ता जाता है कि लोग मद्य, अफीम, भाग, माजूम, गॉजा और चरस आदि अनेक महाहानिकारक विषैली चीजों को खाने लगे और खाते जाते है परन्तु विचार कर देखा जावे तो यह सब व्यवहार जीवन की खराबी का ही चिह्न है । ऊपर कहे हुए पदार्थों के सिवाय लोगों ने उसी आशा से प्रतिदिन की खुराक में भी कई प्रकार के उत्तेजक स्वादिष्ठ मसालों का भी अत्यन्त सेवन करना प्रारम्भ कर दिया कि जिस से भी अनेक प्रकार की हानिया होचुकी है तथा होती जाती हैं । प्राचीन समय के विचारवाले लोग कहते हैं कि जगत् के वार्त्तमानिक सुधार और कला कौशल्य ने लोगों को दुर्बल, निःसत्व और बिलकुल गरीब कर डाला है, देशान्तर के लोग द्रव्य लिये जा रहे हैं, प्राणियों का शारीरिक बल अत्यत घट गया, इत्यादि, विचार कर देखने से यह बात सत्य भी मालूम होती है । वर्तमान समय के खानपान की तरफ ही दृष्टि डाल कर देखो कि खानपान में खादिgal का विचार और वेहद शौकीनपन आदि कितनी खराबियों को कर रहा है और कर चुको है, यद्यपि प्राचीन विद्वानों तथा आधुनिक वैद्य और डाक्टरों ने भी साधारण खुराक की प्रशंसा की है परन्तु उन के कथन पर बहुत ही कमलोगों का ध्यान है, देखो । मनुष्यों की प्रतिदिन की साधारण खुराक यही है कि - चावल, घी, गेहूँ, बाजरी और ज्वार आदि की रोटी, मूग, मौठ और अरहर आदि की दाल, १ - जहा क्षारद्वय कहे गये हैं वहा सज्जीखार और जवाखार लेने चाहियें, इन में सुहागा के मिलने से क्षारत्रय कहाते हैं, ये मिले हुए भी अपने २ गुण को करते हैं किन्तु निलने से गुल्म रोग को शीघ्र ही नष्ट करते हैं, पलाश, थूहर, आँगा ( चिरचिरा), इमली, आक और तिलनालका खार तथा सज्जीखार और जवारखार ये आठों मिलने से क्षाराष्ट्रक कहलाते हैं, ये आठों खार अनि के तुल्य दाहक हैं तथा शूल और गुल्मरोगको समूल नष्ट करते हैं ॥ २-जव नैत्यिक तथा सामान्य खानपान में अत्यन्त शौकीनी वढ रही है तो भला नैमित्तिक तथा विशेष व्यवहारों में तो कहना ही क्या है 11 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैनसम्प्रदायशिक्षा || सामान्य और उपयोगी चाक तथा पनियां, हल्दी, जीरा और नमक आदि मसाले, इन सब पदार्थों का परिमित उपयोग किया जावे, परन्तु व्यसन स्वाद मौर चौक मोड़ा सा सहारा मिसने से बेहद बन कर परिणाम में अनेक दानियों को करते हैं अर्थात् उपसनी और चौकीन को सब तरह से नष्ट अष्ट कर देते हैं, देखो । इन से चार बातों की हानि वो प्रत्यक्ष ही दीखती है अर्थात् धन का नाश होता है, शरीर बिगड़ता है, प्रतिष्ठा याती रहती है और अमूल्य समय नष्ट होता है । उक्त व्यसन स्वाद और चौक वर्तमान समय में मसालों के सेवन में भी अत्यन्त बढे हुए हैं अर्थात् योग वाक और चाक आदि में वेपरिमाण मसाले डाल कर खाते हैं तथा रस से यह साम समझते हैं कि ये मसाले गर्म होने के कारण जठरामि को प्रदीप्त करेंगे जिस से पाघनद्यक्ति बढ़ेगी और खुराक अच्छी तरह से सभा अधिक स्वाई खायेगी सभा बीय में भी गर्मी पहुँचने से उत्तेजन शक्ति बनेगी इत्यादि, परन्तु यह सब उन लोगों का अत्यन्त अम है, क्योंकि प्रथम तो मसालों में बितनी बस्तुयें डाली जाती हैं व सब ही सय मतिनाली के लिये तथा सर्वदा अनुकूल होकर शरीर की मारोम्पता को बनायें रक्खें यह कभी नहीं हो सकता है, दूसरे मसालों में बहुत से पदार्थ एसे हैं यो कि इन्द्रियों को महकानेवाले सभा इन्द्रियों के उतेजक होकर भी शरीर के कई भनमयों में बाधा पहुँचाते हैं, तीसरे मसालो में बहुत से ऐसे पदार्थ है जो कि शरीर की बीमारी में दबा के तोर पर दिये जाते हैं, जैसे-छोटी बड़ी इलायची, लौंग, सफेद बीरा, स्पाह वीरा, वादश्रीनी, तेजपात भर काली मिर्च मादि, मग यदि प्रतिदिन उन्हीं पदार्थों का अधिक सेवन किया जावे तो वे दमा के समय अपना असर नहीं करते हैं, पौधे- -खुराक में सदा गर्म मसालों का स्वाना अच्छा भी नहीं है, क्योंकि स्वाभाविक अठरामिको दूसरे मसालों की बनावटी गर्मी से बढ़ा कर अधिक खुराक का खाना अच्छा नहीं है क्योंकि यह परिणाम में हानि करता है, देखो ! एक विद्वान् का कमन है कि- "इलाज और खुराफ वे ही अच्छे है जिन का परिणाम अच्छा हो अर्थात् जिन से परियम में किसी प्रकार की हानि न हो ' आहा ! यह कैसा मच्छा उपदेशवाक वाक्य है, क्या यह वाक्य सामान्य मजा क सदा याद रखने का नहीं है ! इसलिये गर्म मसालों तथा मत्यन्त धीरम मसालार चटनी आदि सब पदार्थों को प्रतिदिन नहीं खाना चाहिये, क्योंकि इन का सदा सेवन करना सब मनुष्यों के लिय कभी एक सहा दिवम्बर नहीं होसकता है, यद्यपि यह ठीक है कि गर्म मसाले वा मसालेवार पदाथ रुमि को अधिक जागृत करते हैं तभा जठराम को भी अधिक तेज करते है जिस से सपना अधिक वाया जाता है परन्तु स्मरणरम्पना चाहिये कि स्वाभाविक जठरामि के समान मसालों की गर्म से उस हुइ तर पर दो है Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २४९ कृत्रिम अग्नि पदार्थों को यथावस्थित (ठीक तौर से ) कभी नहीं पचा सकती है, जैसे एजिन में वायलर को अधिक जोर मिलने से वह गाडियों को जोर से तो चलाता है परन्तु वायलर के माप और परिमाण से गर्मी के अधिक बढ़ जाने से अधिक भार को खीचता हुआ वह कभी फट भी जाता है, जैसे अधिक भार को खीचने के लिये वायलर को अधिक गर्मी की आवश्यकता हो यह नियम नहीं है किन्तु अधिक भार को खीचने के लिये बडे एजिन और बड़े ही वायलर की आवश्यकता है इसीप्रकार जन्म से छोटे कद वाला आदमी दिल में यदि ऐसा विचार करे कि मै गर्म मसालों या गर्म दवा से अग्नि को तीत्र कर अधिक खुराक को खाकर कद और ताकत में बढ जाऊ तो यह उसकी महाभूल है, क्योंकि ऐसा विचार कर यदि वह तदनुसार वर्चाच करेगा तो अपनी असली ताकत को भी खो बैठेगा, क्योकि जैसे अधिक जोर के काम करने के लिये बड़े एजिन और बड़े वायलर को बनाना पडता है उसीप्रकार अविक ताकत के बढ़ाने के लिये भी सर्वोत्तम दवा के उपयोग, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन और उचित वाव से चलने आदि की आवश्यकता है अर्थात् इस व्यवहार से खाभाविक शक्ति उत्पन्न होती है और स्वाभाविक शक्तिवाला पुरुप महाशक्ति सम्पन्न तथा बड़े कदवाले सन्तान को उत्पन्न कर सकता है, ऐसे मनुप्यको नकली उपचार करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। प्रिय पाठकगण ! क्या आपने इतिहास में नहीं पढ़ा है कि-हमारे इस देश के राठौर आदि राजा लोग बारह २ वर्ष तक दिल्ली में बादशाह के पास रह कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे और जब वे लोग ऋतु के समय अपनी पत्नी में गमन करते थे तब उन के अमोघ (निष्फल न जानेवाले) वीर्य से केशरीसिंह, पद्मसिंह, जयसिंह कच्छावा और प्रतापसिंह सिसोदिया जैसे पुरुप सिंह उत्पन्न होतेथे, यद्यपि खुराक उन की साधारण ही थी परन्तु वोव अत्युत्तम था। बहुत से अज्ञ लोग इस कथनसे यह न समझ जावे कि शास्त्रकारो ने गर्म मसालो की अत्यन्त निन्दा की है इसलिये इन को कभी नहीं खाना चाहिये, इस लेख का तात्पर्य केवल यही है कि देश काल और प्रकृति के द्वारा अपने हिताहित का विचार कर प्रत्येक वस्तु का उपयोग करना चाहिये, क्योंकि जिस को अपने हिताहित का विचार हो जाता है वह पुरुप कमी धोखे में नहीं आता है, तात्पर्य यह है कि गर्म मसालो का निषेध जिस विषय में किया है उसी विषय में उन का निपेध समझना चाहिये तथा जिस विषय में उन का अगीकार करना लिखा है उसी विषय में उन का अंगीकार करना चाहिये, जैसे-- देखो ! जिस मनुष्य की अत्यन्त वायु की तासीर हो तो वायु को शरीर में बराबर रखने के लिये खुराक के साथ उस को परिमित गर्म मसाला लेना चाहिये, इसीप्रकार जब मिठाई १-स्याद्वादपक्षन्याय के देखने से मनुष्य को किसी प्रकार की शङ्का नहीं प्राप्त होती है । ३२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० मैनसम्प्रदायशिक्षा मादि गरिष्ठ पदार्थ खाने हो तब उन के साथ भी गर्म मसारे भौर पटनी भावि साने पाहिये, किन्तु साधारण खुराक में गर्म मसालों का विशेप उपयोग करना भावश्यक नहीं है, यह मी मरण रखना चाहिये कि-गरिष्ठ पदार्थों के पचाने के सिमे भो गर्म मसारे मिर्म मौर चटनी मावि खासे बायें वे भी परिमित ही लाये जानें, किन्तु उपित तो यह है कि यभाशक्य गरिष्ठ पदाभों का सेवन ही न किया जाने भौर मवि फिमा भी जाने तो नुराफ की मात्रा से कम किया जाये। __वर्षमान समय में इस देश में शाक और दाल मादि में बहुत मिर्च, इमली, अचार, चटनी भोर गर्म मसागे के साने का रिवान बहुत ही परवा आता है, मह परी हानि कारक वास है, इस लिये इस को सीन ही रोकना चाहिये, देसो | इस हानिकारक व्यय हार का उपयोग करने से शरीर का रस विगरता है, खून गर्म हो पाता है मौर पित सिंगर पर भपना मार्ग छोड़ देता है, इसी से तरा २२ रोगों का भन्म होता है जिन का वर्मन पहां तक किया नावे।। ___ गर्म प्रकृतिवाले पुरुष को गर्म मसा का सेवन कमी नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से उस को बहुत हानि पहुँचेगी, यदि गम मसालों की मोर पिच पगरमान भी हो सो पनियां मीरा और समानमक, इस मसाले का उपभोग करके क्योकि यह साधारण मसाला है समा सब के लिये अनुसून आ सकता है, मवि घरपरी परत के खाने की इच्छा हो तो काली मिर्च का सेवन कर सेना पाहिये किन्तु लाल मिर्च को कमी नहीं साना चाहिये । वर्तमान समय में लोगों में गळ मिर्च के खाने का भी प्रभार बहुत बढ़ गया है, यह १-पात से भुक्षित मामो भार पय मिद्यात पाने को मिस्वारे भोपगे माति पर में सबा राममपेक्षा दुगुमा तथा सिगुमा माछा पाते और मर से बमबमाइट करते हुए पार पाड भचार भौर परनी भारि पापोप्रेमी उपर री में पसरावेगा बड़ा भूसी बात, मो-ससे गत हानि होतीमात् ऐसा करने से पाचनधिसयान पना मविपटिम पर ई पेमी ऐसा रिसाव गाये कि मैं भाव सेर मह भपया तर मागबानेशाम मैं एक रुपये भर गर्म माम सार र मर मात्र बनम र एप तमा रो रपे मर गर्म मसाम पाकर दो छेर मामाजम पर एगा इसी प्रकार पचिसये भर पमै मसा से पाल सेर महतोवीम पर दो अपार स्म पर गा वो उस पार पधिक (निराशि दिय) परा विपर में प्रम में मी मारेगा भौर बरिमा सपरिमाप सम्परा रैमा तो भणी होकर उसे ममम मरमा पड़ेगा। १-बीभनेर के मोसपास और तेग देशमा मेप मिनी मा मिर्ष सातमी मिपावर ही भीगे पता गा गपी इमपत्र भोसपा यहाँ मिर्ष पव (पी) भी पिक समर पाते । रिस से मिर्षमा कम हो जाती है परन्तु पत्तमान में इस बीचमेर) नमर में भोसपाल में सामानमा सिकरी (प)ीका तल गुत सी प्रकार वैश्य मेम बारम भौर मम पिर्ष की पत्नी स्त्री (पिमा पत)ी पाव, ममारमारेगको मारियम भार पेशी सीमा सीबमा पर मात साप प्प पीमिपमा साम्त करने वाग।परम्पर्तमान में परपस में तो यह पाव पार्न होने समीर पीप्रमौर रारतिय ने मेवा। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २५१ के भी अत्यन्त हानिकारक है, बहुत से लोग यह कहते है कि - जितना चरपरापन लाल मिर्च में है उतना दूसरी किसी चीज़ में नहीं है इस लिये चरपरी चीज खाने की इच्छा से यह (लाल मिर्च ) खानी ही पडती है इत्यादि, यह उन लोगों का कथन बिलकुल मूल का है, क्योंकि चरपरी चीज के खाने की इच्छावाले लोगो के लिये लाल मिर्च के सिवाय बहुत सी ऐसी चीजें है कि जिन से उन की इच्छा पूर्ण हो सकती है, देखो ! अदरख काली मिर्च, सोंठ और पीपल आदि बहुत से चरपरे पदार्थ है तथा गुणकारक भी है इस लिये जब चरपरे पदार्थ के खाने की इच्छा हो तब इन ( अदरख आदि ) वस्तुओं का सेवन कर लेना चाहिये, यदि विशेष अभ्यास पड जाने के कारण किसी से लाल मिर्च के विना रहा ही न जावे अथवा लाल मिर्च का जिन को बहुत ही शौक पड़ गया हो उन लोगों को चाहिये कि जयपुर जिले की लाल मिर्च के वीजो को निकाल कर रात को एक वा दो मिर्चें जल में भिगो कर प्रातः काल पीसकर तथा घी मे सेक कर थोड़ी सी खा लेवें । यह भी स्मरण रखना चाहिये कि खट्टे रस का तोड़ ( दाउन या उतार ) नमक है और नमक का तोड खट्टा रसे है । बधार देने के लिये जीरा, हींग, राई और मेथी मुख्य वस्तुयें है तथा वायु और कफ की प्रकृतिवालो के लिये ये लाभदायक भी है ॥ अचार और राइता - अचार और राइता पाचनशक्ति को तेज़ करता है परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि जो २ पदार्थ पाचनशक्ति को बढाते है और तेज है यदि उन का परिमाण बढ़ जावे तो वे पाचनशक्ति को उलटा विगाड़ देते है, बहुत से लोग अचार, राइता, तेल, राई, नमक और मिर्च आदि तेज पदार्थों से जीभ को तहडून कर देते हैं सो यह ठीक नहीं है, ये चीजें हमेशह कम खानी चाहियें, यदि ये खाई भी जायें तो मिठाई आदि तर माल के साथ खानी चाहियें अर्थात् सदा नही खानी चाहियें क्योकि इन चीजों के सेवन से खून बिगड़ जाता है और खून के बिगड़ने से मन्दाग्नि होकर शरीर में अनेक रोग हो जाते है, इस लिये इन चीजों से सदा बचकर रहना चाहिये, देखो ! मारवाड़ के निवासी और गुजराती आदि लोग इन्ही के कारण प्रायः बीमार होते १-लाल मिर्च के वीजों को खानेसे वीर्य को वडा भारी नुकसान पहुँचता है, इसलिये वीजों को विलकुल नहीं खाना चाहिये ॥ २--खट्टे रस में नींबू अमचुर और कोकम खाने के योग्य हैं, परन्तु यदि प्रकृतिके अनुकूल हों तो खाना चाहिये ॥ ३-अचार और रायता कई प्रकार का वनता है-उस के गुण उस के उत्पादक पदार्थ के समान जानने चाहिये तथा इन में मसालों के होने से उन के तीक्ष्णता आदि गुण तो रहते ही हैं ॥ ४ - विवेकहीन लोग इस बात को नहीं समझते हैं, देखो ! इन्हीं चीजों से तो पाचनशक्ति विगडती है और इन्हीं चीजों का सेवन पाचनशक्ति के सुधार के लिये लोग करते हें ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ बैनसम्प्रदायशिक्षा || है, मागरे तथा विल्ली से लेकर प्रणा के देश तक छोग घार मिर्ष को नहीं लाते हैं यदि साते भी हैं सो पदुत ही युकि के साग साते हैं । चार्य-वर्तमान समय में घाम मा बहुस ही प्रचार है मर्मात् पर २ में लोग इस को पीते हैं, हमारे देश में पहिले पीन से चाय मासी थी परन्तु भव बहुत वर्षों से नीलगिरि मौर भासाम के निले में भी चाय पैदा होकर यहां आने लगी है, इस देश में वो पाप पानारों में विकती है पर पहुत ही पटिया होती है, चीन जैसी राय किसी मुक्त में नहीं पैदा होती है अर्थात् माठ माने से लेकर सौ रुपये तक वहां एक रसठ की कीमत होती है किन्तु इस से भी मधिक होती है, वैसी अमल दर्दे की चाय पानारों में निम्ती हुई यहां कभी नहीं देखी गई और न उस पाप का यहाँ कोई प्राहक ही वीस पड़ता है क्योंकि यहाँ सो 'सस्ता दाम और पोसा माल, का विचार प्रत्येक केहदय में पस रहा है। चाय पक्ष के सुस्साये हुए पसे है, सूस बाने के पाव इन पदों को कराहों में गर्म करते हैं तब उन में सुगन्नि भौर साद अच्छा हो मावा है, यह एक गोरे ही नसे की पीन है इस लिये सदा पीने से भफीम, गोमा, मुलफा, समासू, मप, मांग मोर पतूरे मादि दूसरी नसीगी पीनों की तरह अधिक हानि नहीं करती है। चाय में प्रतिसैको के हिसाब से गुण करनेवाग माग एक से छ'भाग तक होता है पर्षात् सर से हरफी (पटिया) पाम में एक भौर सब से बरिया चार में प्रति सेको में छ गुण कारी माग हैं, इस में पौधिक तस्व प्रतिसैको में १५ भाग में भोर कम्नी फरनेमासा दरप बहुत ही बोरा है। काली भौर हरी चाय एकही दक्ष की होती है मौर पीछे बनाबट के वारा इस रग में परिवर्तन होता है, पाय के साम पों को गर्म कमाई में पढ़ाने से भषया पानी की भाफ से मुसाकर गर्म करने से पद रंग में काली भवना हरी हो जाती है परन्तु हरी पाय को रंग देने के लिये नीग बोमा भषमा प्रश्पनत्यू नामक जहरीली वस्तु का नो कुछ भश डिसी समय लोग देते हैं उस का भसर बहुत सरान होता है। पाय ममन में बहुत पोटी सी पीने से शरीर में सुस्ती पैदा करती है मौर थोड़ी मीद पासी परन्तु पनन में अपिक पीने से मंग में गर्मी और फुसी आती हे तमा नीदा माना बंद हो पाता। __महुव से लोग नींद को रोकने के लिये राव को पाय पीते है उस से यपपि नीद हो नही भाती है परन्तु ये नी पैदा होती है, जो छोग नीद में रोकने लिये रात को मार २ पाप पीते है और नींद को रोकते हैं इस से उनके मगन को बहुत हानि पहुँ पती है, जो भारमी भण्ठा और पुष्टिकारक एराक ठीक समय पर साते ₹से गेग यदि स र पार भी प्रते। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २५३ परिमाण के अनुसार चाय पीयें तो कुछ हानि नहीं है परन्तु हलका और थोडा भोजनकरने वाले तथा गरीब आदमियों को थोड़ीसी तेज़ चाय पीनी चाहिये क्योंकि हलकी खुराक खानेवाले लोगों को थोडी सी तेज़ चाय नुकसान नहीं करती है, बहुत चाय के पीने से मगज में तथा मगज़ के तन्तुओं में शिथिलता हो जाती है, निर्बलता में अधिक चाय के पीने से भ्रान्ति और मूलने का रोग हो जाता है, लोग यह भी कहते है कि-चाय खून को जला देती है यह बात कुछ सत्यभी मालूम होती है, क्योंकि-चाय अत्यन्त गर्म होती है इसलिये उस से खून का जलना सभव है, चाय को सदा दूध के साथ ही पीना चाहिये क्योंकि दूधके साथ पीनेसे चाय का नशा कम होताहै, पोषण मिलता है तथा वह गर्मी भी कम करती है, बहुत से लोग भोजन के साथ चाय को पीते है सो यह हानिकारक है, क्योंकि उससे पाचनशक्ति में अत्यन्त बाधा पहुँचती है इसलिये भोजन के पीछे तीन चार घण्टे बीत जानेपर चाय को पीना चाहिये, देखो ! चाय पित्त को बढानेवाली है इसलिये भोजन से तीन चार घण्टे के बाद जो भोजन का भाग पचना बाकी रह गया हो वह भी उस चाय के द्वारा उत्पन्न हुए पित्त से पचकर नीचे उतर जाता है, चाय में थोडा सा गुण यह भी है कि वह पक्काशय (होजरी ) को तेज करती है, पाचनशक्ति तथा रुचि को पैदा करती है, चमड़ी तथा मूत्राशय पर असर कर पसीने तथा पेशाव को खुलासा लाती है जिस से खून पर कुछ अच्छा असर होता है, शरीर के भागों की शिथिलता और थकावट को दूर कर उन में चेतनता लाती है, परन्तु चाय में नशा होता है इससे वह तनदुरुस्ती मे बाधा पहुँचाती है, ज्यों २ चाय को अधिक देर तक उबाल कर पत्तों का अधिक कस निकाल कर पिया जावे त्यो २ वह अधिक हानि करती है, इस लिये चाय को इस प्रकार बनाना चाहिये कि पतीली में जल को चूल्हे पर चढादिया जावे जब वह (पानी) खूब गर्म होकर उबलने लगे तव चाय के पत्तों को डाल कर कलईदार ढक्कन से ढक देना चाहिये और सिर्फ दो तीन मिनट तक उसे चूल्हेपर चढाये रखना चाहिये, पीछे उतार कर छान कर दूध तथा मीठा मिलाकर पीना चाहिये, अधिक देर तक उबालने से चाय का खाद और गुण दोनों जाते रहते हैं, चाय में खाड़ या मिश्री आदि मीठा भी परिमाण से ही डालना चाहिये क्योंकि अधिक मीठा डालने से पेट विगडता है, बहुत लोग चाय में नीबू का भी कुछ स्वाद देते है उस की रीति यह है कि-कलई या काचके वर्तन में नींबू की फाक रख कर ऊपर से चाय का गर्म पानी डाल देना चाहिये, चार पाच मिनट तक वैसा ही रख कर पीछे दूसरे वर्तन में छान लेना चाहिये । ___ चाय में यद्यपि बहुत फायदा नहीं है परन्तु ससार में शौकीनपने की हवा घर २ में फैलगई है इसलिये चाय का तो सब को एक व्यसन सा होगया है अर्थात् एक दूसरे की देखादेखी सब ही पीने लगे है परन्तु इस से बड़ा नुकसान है क्योंकि लोग चाय में जो Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनसम्मवामशिक्षा ॥ विशेष गुण समझते हैं वे उस में मिछकुल नहीं हैं इसलिये पावश्मकता के समय में दूष मौर दूरा मावि के साम इस को थोड़ा सा पीना चाहिये, प्रतिदिन नाम का पीना तो वर माल खानेवाले अंग्रेज और पारसी भादि लोगों के लिये अनुकूल हो सकता है किन्तु जो योग प्रतिदिन भी का वचन तक नहीं कर सकते हैं सिर्फ स्मौहार आदि को बिन को पी का दर्शन होता है उन के लिये प्रतिदिन चाय का पीना महा हानिकारक है, नाम के पीने की अपेक्षा सो यमाशक्य आरोग्यता को कायम रखने के लिये प्रतिदिन स्वयं दूध पीना चाहिये तथा बच्चों को पिलाना चाहिये || फाफी - चाय के समान एक दूसरी वस्तु काफी है जो कि मरण स्थान से यह भाती है, चाम और काफी दोनों का गुण मायः मिलता हुआ सा है, यह एक वृक्ष का बीच है इस को यूव बाना भी कहते हैं, बहुत से लोग इस के दानों को सेक कर रख छोड़ते हैं और भोजन करने के पीछे सुपारी की तरह जान कर मुँह को साफ करते हैं, इस के दानों को सेकने से उन में सुगन्ध हो बाती है और ये एक मसालेदार भीज के समान वन आते हैं, इस के दानों में सिर्फ एक भाग गुणकारी है, एक माग स्वड्डा है, माड़ी का सबभाग ककुमा और करनी करनेवाला है, इस के कचे दाने बहुत दिनों तक रह सकते हैं अर्थात् बिगड़ते नहीं है परन्तु सेके हुए अथवा दले हुए बानों को बहुत दिनों तक रखने से उन की सुगन्धि तथा स्वाद जाता रहता है। शरीर में गर्मी और व चाम की अपेक्षा काफी अधिक पौष्टिक सभा शक्तिदायक है परन्तु वह मारी है इस किये निर्वस और बीमार आदमी को नहीं पचती है, काफी से नता भाती है शीव धातु में तथा शीत देशों में यात्रा करते समय तो शरीर में गर्मी रहसकती है । यदि काफी पी जाये काफी के चूर्ण की भैसी बना कर पतीली के उगलते हुए जल में डाल कर पोच सात मिनट तक उसी में रख कर पीछे उतारने से काफी तैयार होमाधी है, नाम धमा अफी में बहुत मीठा डाल कर पीने से निर्बल फोटे वाले को भवश्य हानि पहुँचती है इस खिये इन दोनों में थोड़ा सा ही मीठा डाल कर पीना चाहिये । फाफी के पानी में घोषा भाग दूध पीने से पाचनशक्ति कम पदवी दे तथा काफी गर्मी पैदा कर नींद का मात्र किन्तु आवश्यकता हो सब इसे पास काल में ही पीना चाहिये, हो यदि किसी कारण से किसी को रात्रि में निद्रा से बचना हो सो भसे दी उसे शव में फाफी पी लेनी चाहिये, जैसे किसी ने विष खाया हो तो उस को रात्रि में नींद से बचाने के लिये भर्वाद जागूव (जागता तुमा ) रसने के लिये बार २ फाफी पिलाया करते हैं । डालना चाहिये, इन धातु में भी हानि करती है इसलिये इसे दोनों भीखों को बहुत गर्म पहुँचती है। इस गर्म देश में रात को नहीं पीना चाहिये Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २५५ बहुत स्थूल शरीर वाले तथा बहुत खाने वाले के लिये चाय और काफी का पीना अच्छा है, दुबले तथा निर्बल आदमीको यथाशक्य चाय और काफी को नहीं पीना चाहिये तथा बहुत तेज भी नहीं पीना चाहिये किन्तु अच्छीतरह दूध मिलाकर पीना चाहिये, हलकी रूक्ष और सूखी हुई खुराक के खानेवालो को तथा उपवास, आविल, एकाशन और ऊनोदरी आदि तपस्या करने वालो को चाय और काफी को नहीं पीना चाहिये यदि पियें भी तो वहुत ही थोडी सी पीनी चाहिये, प्रात काल में पूड़ी आदि नाश्ते के साथ चाय और काफी का पीना अच्छा है, पेट भर भोजन करने के बाद चार पाच घटे वीते विना इन को नहीं पीना चाहिये, निर्बल कोठे वाले को बहुत मीठी बहुत सख्त उबाली हुई तथा बहुत गर्म नहीं पीनी चाहिये किन्तु थोडा सा मीठा और दूध डालकर कुए के जल के समान गर्म पीनी चाहिये, इन दोनों के पीने में अपनी प्रकृति, देश, काल और आवश्यकता आदि बातो का भी खयाल रखना चाहिये, वास्तव में तो इन दोनों का भी पीना व्यसन के ही तुल्य है इस लिये जहातक हो सके इन से भी मनुष्य को अवश्य वचना चाहिये ॥ अन्नसाधन- - समवाय हेतु में जो २ गुण हैं वे ही गुण उस समवायी कार्य में जानने चाहियें अर्थात् जो २ गुण गेहूं, चना, मूग, उडद, मिश्री, गुड, दूध और वृरा आदि पदार्थों में है वे ही गुण उन पढार्थों से बने हुए लड्ड, पेड़े, पूडी, कचौरी, मठरी, रबड़ी, जलेवी और मालपुए आदि पदार्थों में जानने चाहियें, हा यह बात अवश्य है कि- किसी २ वस्तु में सस्कार भेद से गुण भेद हो जाता है, जैसे पुराने चावलो का भात हलका होता है परन्तु उन्हीं शालि चावलों के बने हुए चिर चे ( सम्कार भेद से ) भारी होते है, इसी प्रकार कोई २ द्रव्य योग प्रभाव से अपने गुणों को त्याग कर दूसरे गुणो को धारण करता है, जैसे- दुष्ट अन्न भारी होता है परन्तु वही घीके योग से बनने से हलका और हितकारी हो जाता } यद्यपि प्रथम कुछ आवश्यक अन्नों के गुण लिख चुके है तथा उन से बने हुए पढ़ाथों में भी प्रायः वे ही गुण होते है तथापि सस्कार भेद आदि के द्वारा बने हुए तज्जन्य पदार्थों के तथा कुछ अन्य भी आवश्यक पदार्थों का वर्णन यहा सक्षेप से करते हैं: भांत - अग्निकर्त्ता, पथ्य, तृप्तिकर्त्ता, रोचक और हलका है, परन्तु विना धुले चावलो का भात और विना औटे हुए जल में चावलों को डाल कर पकाया हुआ भात शीतल, भारी, रुचिकर्त्ता और कफकारी है ॥ दाल --- विष्टभकारी, रूक्ष तथा शीतल है, परन्तु भाड में भुनी हुई दाल के छिलको को दूर करके बनाई जावे तो वह अत्यन्त हलकी हो जाती है ॥ १ - इस के बनाने की विधि पूर्व लिख चुके है | Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनसम्प्रदायशिक्षा। विषड़ी-वीर्यवाठा, पर्सा, मारी, पित्तकफका, घेर में पचनेपारी, मुखिकर्ता, मत्रकारक सभा विटम और मल को उस्पन करने वाली है ।। खीर-देर में पचने पाली, क्षणी तमा पठपक है ।। सेमई-धातुओं की तृप्ति करने वाली, पसकारी, भारी, पित्त भौर षात को नष्ट करने वाली, माही, सन्धि कस सथा रुचिकारी है। पूरी-ग्रहण, वृष्य, बलकारी, रुचिकर्ण, पाक में मधुर, माही और त्रिदोष नाष्टक है ॥ __ लप्सी (सीरा)हण, पृष्य, मसकारक, मातपिचनाचक, निम, कफकारी, भारी, रुपिका और भस्यन्त सृप्ति का है। रोटी-पकारी, रुचिकर्श, महणी (पुष्टि की), रस और रक मावि पातुओं को मदाने पारी, वातनाशक, फफकर्ण, मारी और प्रदीप्त अमिवानों के लिये हित का है। पाटी-महणी, शुकका, हम्की, दीपनकर्सा, कफकारी सपा मम्मा है, एवं पीनस, श्वास मौर कास रोग को दूर करती है । औं की रोटी-हरिकर्ता, मधुर, विशद मौर हलकी है, मस, शुक और यादी को करती है सपा कफ के रोगों को नष्ट करती है ।। असद की रोटी-फपिच नाशक तथा कुछ नायकारक है ॥ चने की रोटी-म, कफ पित्त मौर रुपिर के विकारों को दूर करनेपाली, मारी, पेट को फुमने वाली, नेत्रों के म्मेि महिस सभा स्रोगकरे॥ ई-कारी, पुष्प, रुचिकर्ता, वातनाशक, उप्णता को बढ़ाने वाग, भारी, पाणी पौर शुकको प्रकट करनेवासी है, मूत्र तथा मन का मेदन करती है, खनसबन्धी दूप, मेद, पिप और कफ को करती हे तपा गुदा का मस्सा, सरुवा, मात, भास भौर परिणाम शूस को पूर करती है ॥ पापर--परम रुचिकारी, दीपन, पापन, रूस मौर कुछ २ भारी हैं, परन्तु मूंग के पापर इसके मोर पप्प होते हैं। कचोरी-तेल की चोरी-पिकर, सादु, मारी, निग्ध, पम्पपरी, रफपिच को पित करने बासी, नेत्रों के तेग का भेदन करनेवाली, पाक में गर्म तमामातनाशको परन्तु पी की पनी हुई चोरी नेत्रों को हितकारक सभा रफपिच की नाशक होती है। - पूर येशों में भापक मास में गुप्त मनाई व्यती है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २५७ वरा और मँगोरा-ये दोनो-बलकारक, बृहण, वीर्यवर्धक, वातरोगहर्ता, रुचिकारी, अर्दित वायु (लकवा) के नाशक, मलभेदक, कफकारी तथा प्रदीप्ताग्निवालो के लिये हितकारक है, यदि गाढे दही में भुना हुआ जीरा, हींग, मिर्च और नमक को मिलाकर बरे और मॅगोरो को भिगो दिया जाये तो वे दही बडे और दही की पकोडी कहलाती है, ये दोनो-वीर्यकर्ता, बलकारी, रोचक, भारी, विवन्य को दूर कर्ता, दाहकारी, कफकर्ता और वातनाशक होते है ॥ उड़द की बड़ी-इन में बरे के समान गुण है तथा अत्यन्त रोचक है ॥ पेठे की बड़ी-इन में भी पूर्वोक्त वडियो के समान गुण है परन्तु इन में इतनी विशेषता है कि ये रक्तपित्तनाशक तथा हलकी है ॥ ___ मूंग की बड़ी-~-पथ्य, रुचिकारी, हलकी और मूंग की दाल के तुल्य गुणवाली है ॥ कढ़ी-पाचक, रुचिकारी, हलकी, अग्निदीपक, कफ और वादी के विबंध को तोडनेवाली तथा कुछ २ पित्तकोपक है ।। __ मीठी मठरी-बृहण, वृष्य, बलकारी, मधुर, भारी, पित्तवातनाशक तथा रुचिकारी है, यह प्रदीप्तामिवालो के लिये हितकारक है, इसी प्रकार मैदा खाड़ और घी से बने हुए पदार्थों (बालूसाई, मैदा के लड्डू और मगद तथा सकर पारे आदि) के गुण मीठी मठरी के समान ही जानने चाहिये ।। बूंदी के लड्डु-हलके, ग्राही, त्रिदोषनाशक, स्वादु, शीतल, रुचिदायक, नेत्रों के लिये हितकारक, ज्वरहर्ता, बलकारी तथा धातुओं की तृप्तिकारक है, ये मूग की बूदी वाले लड्डुओं के गुण जानने चाहिये ॥ मोतीचूर के लड्ड-बलकर्ता, हलके, शीतल, किञ्चित् वातकर्ता, विष्टम्भी, ज्वरनाशक, रक्तपित्तनाशक तथा कफहत है । जलेवी-पुष्टिकती, कान्तिकर्ता, बलदायक, रस आदि वातुओं को बढ़ानेवाली, वृष्य, रुचिकारी और तत्काल वातुओं की तृप्तिकारक है ॥ शिखरन (रसाला)-शुक्रकी, बलकारक, रुचिकारी, वातपित्त को जीतनेवाली, दीपनी, बृह्णी, खिग्ध, मधुर, शीतल और दस्तावर है, यह रक्तपित्त, प्यास, दाह और सरेकमा को नष्ट करती है । शर्वत-वीर्य प्रकटकर्ता, शीतल, दस्तावर, बलकारी, रुचिकी, हलका, स्वादिष्ठ, वातपित्तनाशक तथा मूर्छा, वमन, तृषा, दाह और ज्वर का नाशक है ।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૮ जैनसम्पदामशिक्षा ॥ आम का पना--तस्काल रुविकर्ता, याकारी तथा धीन ही इन्द्रियों की सृष्टि कारी है। इमली का पना-वासनाशक, किश्चित् पिएकफकर्ण, रुषिकारी तथा अमि नींबू का पना-अत्यन्त सहा, पावनाधक, पमिदीपक, रुपिकारी सभा सम्पूर्ण किये हुए भाहार का पात्र है॥ पनिये का पना--मह पिस के उपद्रों ने शान्त करता है ।। जों का स -धीसम, दीपन, इसका, पखावर, कफपिसनावक, सम भौर मेसन (दुर्वग्रनेवाला) है, इस का पीना बलवायफ, प्य, पंहण, मेवक, तृप्तिका, मधुर, रुपिकारी तथा अन्त में पम्नाक्षक है, यह कफ, पित्त, परिभम, भूस, प्मास, भयादि थोर नेत्ररोग को नष्ट करता है तथा वाह से व्याकुल मौर व्यायाम से मान्त (बके हुए ) पुरुषों के लिये हितकारी है ।। घना और जौ का सत्त-यह कुछ बातभारक है इसलिये इस में पूरा धोर पी गर कर इसे साना पाहिमे ॥ शालिसत्तू-ममिमर्षक, एका, श्रीसन, मधुर, ग्राही, सपिका, पथ्य, बरु कारक, शुक्रमनक भौर एप्तिकारक है ॥ पहुरी-दुर्नर (कठिनता से पभनेवाला), लक्ष, रुपा गामवाली बमा मारी है, परन्तु प्रमेह का मौर बमन को नष्ट करती है ।। स्त्रील (लाजा)-मभुर, धीतस, हम्की, भमिदीपक, मस्पम्मका, स्था, बफर्ण उमा पिचनायक, मह, कफ, ममम, पठीसार, पार, पिरविकार, प्रमेह, मेव रोग मोर सूपा को दूर करती है । चिउरा (चिरमुरा)-भारी, वातनाशक तथा फफा है, यदि इन ने दूप के साम साया जाये तो ये पूरण, पप्प, बलकारी भौर दस्त को गनेवाले होते॥ 1-समारपार में सामत, इस पाने में प्रवामियों ने प्यान में रपमा यि :मोगमर म वा राव से पप्रम पर रात्रि में पाये तब पापे एक गम में सरे प्रभर पपस मिमर पाप मिमी भान मि (बेरा ) न पाये मर्म र पा पसाय म खा - पूर्व में मुनिसा पपत्त प्रतेरे पापाशिवाप प्रपया माता २-पररित भुए बानो बारीमा -माधानों के भूनने से मनवी ५-गुरव र पनि पापनों में भूय पर बिना कि मुझे प्रेपर्म ही भोपस्म में गतार मेरे बार व Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय॥ २५९ तिलकुटी-मलका, वृष्य, वातनाशक, कफपित्तकर्ता, बृंहण, भारी, सिग्ध तथा अधिक मूत्र के उतरने का नाशक है । होला-जिस धान (अन्न) का होला हो उस में उसी धान के समान गुण होते हैं, जैसे-चने के होले चने के समान गुणवाले है, इसी प्रकार से अन्य धान्यों के होलों का भी गुण जान लेना चाहिये ॥ उम्बी-कफकर्ता, बलकारी, हलकी और पित्तकफनाशक है ॥ जॉली-जीभ के जकड़ने को दूर करनेवाली तथा कण्ठ को शुद्ध करनेवाली है, यदि इस को धीरे २ पिया जावे तो यह रुचि को करती है तथा अग्नि को प्रदीप्त करती है ।। __ दुग्ध कूपिका-बलकारी, वातपित्तनाशक, वृष्य, शीतल, भारी, वीर्यकर्ता, बृंहणी, रुचिकारी, देहपोषक तथा नेत्रतेजोवर्धक है ।। ताहरी बलकारी, वृष्य, कफकारी, बृहणी, तृप्तिकर्ता, रुचिकारी और पित्तनाशक है ।। नारियल की खीर-स्निग्ध, शीतल, अतिपुष्टिकर्ता, भारी, मधुर और वृष्य है तथा रक्तपित्त और वादी को दूर करती है ।। मण्डक-बृहण, वृष्य, बलकारी, अतिरुचिकारक, पाक में मधुर, ग्राही, हलके और त्रिदोष नाशक हैं ॥ १-तिलों में गुड या शक्कर डालकर कूट डालने से यह तयार होता है, पूर्व के देशों में यह सकटचतुर्थी (सकट चौथ ) को प्राय प्रतिगृह में बनाया जाता है । २-फलियों के धान्य आधे भुने हुए हों तथा उन का तृण जल गया हो उन को होला कहते हैं। ३-गेहूँ की अधपकी वाल को जो तिनकों की अग्निमें भून लेवे, उसे उम्बी कहते है।। ४-कच्चे आमो को पीस कर उन मे राई सेंधानमक और भुनी हींग को मिला कर जल में घोर देवे इस को जाली कहते हैं। ५-चावलों का चूर्ण कर उस में गाढा मावा (खोहा) मिला कर कुप्पी से बना लेवे, फिर उन को घी में छोड कर पकावें, फिर उन को निकाल कर बीच में छेद कर मिश्री मिला हुआ गाढा दूध भर देवे और शाहकसे मुख वद करके फिर घी मे पकावे, जव पीले रंग की होजावें तव धीमे से निकालकर कपूर मिली चासनी मे तल लेवे, इसको दुग्धकूपिका कहते हैं । ६-हलदी मिले घी मे प्रथम उडद की वडियों को तथा इन्हीं के साथ धुले हुए स्वच्छ चावलों को लेवे, फिर जितने मे ये दोनों सिद्ध हो जावें उतना जल चढाकर पकावे तथा नमक अदरख और हींग को अनुमान माफिक डाले तो यह ताहरी सिद्ध होती है । ____७-नारियल की गिरी को चाकू से वारीक कतर कर अथवा घियाकस पर वारीक रगड कर दूध मे खाड और गाय का घी डाल कर मन्दाग्नि से औंटावे तो नारियल की खीर तैयार हो जाती है । ___८-सफेद गेहुओं को जल मे धोकर ओखली में डालकर मूसल से कूट डाले, फिर इन को धूप में सुखाकर चक्की से पीसकर मैंदा छानने की चालनी में छानकर मैदा कर लेवे, फिर इस मैदा को जल मे कोमल उसन कर खूब मर्दन करे, फिर हाय से लोई को वढा कर पूडी के समान वेल लेवे, फिर चूल्हे पर औंधे मुख के खपडे पर इस को डाल कर मन्दानि से सेके, ये सिके हुए मण्डक कहलाते हैं । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदायशिक्षा || काजी परो- -रुचिकारी, वासनाशक, कफकारक, झीवल तथा शुमनाक है, पूर्व वाह और अजीर्ण को दूर करते हैं, परन्तु नेत्ररोगी के मिये अहित है । २६० - इमली के परे – रुचिकारी, अभिदीपक तथा पूर्व कहे हुए नरों के समान गुणवाले हैं ॥ मूंग परा-मूग के बरे (बड़े) छाछ में परिपक करके तैयार किये जायें तो वे इसके और वीवछ है तथा ये संस्कार के प्रभाव से त्रिदोषनाशक और पथ्य हो जाते है । अलीक मत्स्य --- खाने में स्वादिष्ठ सभा रुचिकारी हैं, इन को मथुआ के शाक से अभमा रायते से खाना चाहिये || मूग अवरस्य की बड़ी - रुचिकारक, हलकी, यलकारी, दीपन, धातुभों की तृषि करनेवाली, पथ्य और त्रिदोषनाश्चक हैं | पकोरी - रुपिकारी, विष्टम्भकर्ता, बलकारी और पुष्टिकारक हैं । गुझा या गुशिर्या --वलकारक, वृंहण तथा रुचिकारी है ॥ १-एक मित्री का बडा कर उस के भीतर का चुप बगे फिर उस में उसमें राई, जीरा नमक हींग साठ और इसी इन का चूर्ण काम कर जब के बड़ों को भयो देने और उस भर के सुध को बंद कर किसी एकान्त स्थान में भर बंगे बस ३ दिन के होने पर उन्हें काम में सा जब मर कर उस नम में बाद ये इसी काटा कर जल में ही उसे खूब भीजे फिर किसी कपडे में डालकर उसे छान तथा उसमें पमक मिर्च जीरा आदि समायोग्य मिम्ाकर भयोगियों को मिले देव मे हम के बरे सा उड़द की पड़ी बड़े सम्बत पानों को कपेट कर बुद्धि से कई में के फिर उन को उतार कर चाकू से कदर छे पीछे उनको समेत मे इनको ठीक मस्य ४-मूम से बनी हुई बडियों को वेस में तलकर हाथ से मिर्च जीरा कींबू का रस और अजमायन चूम पर डाले इसमें मुनी पोट भर रक इन सब को बुद्धि से भिष्म कर उस पिको बडाई में अपना वर्ष पर फिर इस पो बनाउन भीतर माम् भर के उन पोलोको तम में सिद्ध करे जब सिक जाने तप उतार कर कड़ी में बाम देन ५न की मिनी छनी बाब को बड़ी से पीस कर बसन बना जय बेसन को उसन कर तथा चमक आदि डालकर बडियो बनाकर घी या तेम में कई में है, इस को में भी डाव -मदार पी को मिलाकर पापडी बनाकर भी में ब्रेक लेने जब मित्र जाकिर कूट डा फिर बारीक बावनी में इस में सफेद बूरा मिम्म कर एकजीव करायची गामि नारियल की गिरी भार निरोजी आदि काल से फिर मोसम ( मोबन ) दी दुई मैदा मात्र भर न कर उस के भीतर इस क्रूर से भरे र फिर इसकी शुचिमा बना कर वो पर फिराई में भी इनको सदन को गुम्रा या गुडिया न हो * भीदार पर प्रायः पूर्व में बना Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २६१ कपूरनाली-इस में गुझिया वा गूझा के समान गुण है ॥ फेनी-बृहण, वृष्य, बलकारी, अत्यन्त रुचिकारी, पाक में भी मधुर, ग्राही, और त्रिदोषनाशक है तथा हलकी भी हैं । मैदा की पूड़ी-इन में भी फेनी के समान सब गुण है ॥ सेव के लड्डे-इन में भी सब गुण फेनी के समान ही हैं । यह सक्षेपे से मिश्रवर्ग का कथन किया गया है, बुद्धिमान् तथा श्रीमानों को उचित है कि-निकम्मे तथा हानिकारक पदार्थों का सेवन न कर के इस वर्ग में कहे हुए उपयोगी पदार्थों का सदैव सेवन किया करें जिस से उन का सदैव शारीरिक और मानसिक बल बढता रहे ॥ यह चतुर्थ अध्याय का वैद्यकभाग निघण्टुनामक पाचवा प्रकरण समाप्त हुआ। १-मोवन दी हुई मैदा को उसन कर लम्वा सम्पुट वनावे, उस में लोग भीमसेनी कपूर तथा खाड को मिला कर भर देवे, फिर मुख को वद करके घी मे सेक लेवे, इस को कर्पूरनालिका कहते हैं । __ २-प्रथम मैदा को सान कर उस में घी डालकर लम्बी २ बत्ती सी वनावे, फिर उन को लपेट कर पुन लम्बी वत्ती करे, इस के बाद उन को बेलन से बेलकर पापडी बना लेवे, फिर इन को चाकू से कतर पुन. वेले, फिर इन पर सट्टक का लेपकरे (चावलों का चून घी और जल, इन सब को मिला कर हथेली से मथ डाले, इस को सहक कहते हैं ) अर्थात् सट्टक से लोई को लपेट कर बेल लेवे अर्थात् उसे गोल चन्द्रमा के आकार कर लेवे, फिर इनको घी मे सेके, घी में सेकने से उन में अनेक तार २ से हो जावेंगे, फिर उनको चासनी में पाग लेवे, अथवा सुगन्धित वूरे में लपेट लेवे इन को फेनी कहते हैं । ३-मोवन डाली हुई मैदा को उसन के लोई करे, फिर उन को पतली २ वेलकर घी मे छोड देवे, जव सिक जावे तव उतार ले॥ ४-मोवन डाली हुई मैदा के सेव तैयार करके घी मे सेक लेवे, फिर इन के टुकडे कर के खाड मे पाग कर लडू वनालेवे ॥ ५-इस मिश्रवर्ग में कुछ आवश्यक योडे से ही पदार्थों का वर्णन किया गया है तथा उन्हीं में से कुछ पदार्थों के बनाने की विधि भी नोट में लिखी गई है, शेप पदार्थों का वर्णन तथा उन के वनाने आदि की विधि, एव उन के गुण दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में तथा पाकशास्त्र में देखना चाहिये, यहा विस्तार के भय से उन सव का वर्णन नहीं किया गया है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ बैनसम्प्रदायशिक्षा । छठा प्रकरण-पथ्यापथ्यवर्णन पथ्यापथ्य का विवरण ॥ १-सानपान के कुछ पदार्थ ऐसे हैं जो कि नीरोग मनुष्यों के म्येि सर्व प्रमों और सब देशों में अनुसून आते हैं। २-कुछ पदार्थ ऐसे भी हैं मों कि कुछ मनुष्यों के अनुकूल और कुछ मनुष्यों के प्रतिकूल भाते हैं, एन एक ऋतु में मनु मौर दूसरी पातु में प्रतिकूल माते हैं, इसी मकार एक देश में मनुकूल और दूसरे देश में प्रतिकूल होते हैं। ३-कुछ पदार्य ऐसे भी हैं जो कि सब प्रकार की प्रकृविवागे के म्मेि सब प्रातुओं में मौर सम देशों में सदा हानि ही करते हैं। इन तीनों प्रकार के पदायों में से प्रमम संस्मा में कहे हुए पदार्थ पम्प ( सब के रिये हितकारी) दूसरी संस्था में को हुए पदार्य पथ्यापथ्य (हितका तमा महितकर्ता पास् किसी के लिये हितकारी और किसी के लिये अहितकारी) और तीसरी सस्मा में कहे हुए पदार्थ कुपथ्य ममना भपम्य (सब के लिये महितकारी) कालाते हैं। ___ मब इन (तीनों प्रकार के पदायों) का क्रम से वर्मन पूर्वापायों के मेस तथा अपने अनुभव के विचारों के अनुसार सक्षेप से करते हैं पथ्यपदार्थ ॥ अनाज मं-पायम, गेर, औं, मूंग, मरहर (तूर), पना, मोठ, मसूर और मटर, ये सब सापारणतया सब के हितकारी हैं भर्षात् वे सब सवा साये वावें वो किसी प्रकार की मी हानि नहीं करते है, हो इस बात का स्मरण भवम रसना चाहिये किइन सब मनायों में जुटे २ गुण है इस म्येि इन के गुणों का भौर अपनी प्रति का विचार कर इन का यथायोम्प उपयोग करना पाहिये। पनों को यहां पर यपपि पथ्य पदार्थों में गिमाया है समापि इन के मभिक साने से पेट में वायु भर कर पेट फूस माता है इस सिये इन को कम साना चाहिये, पावर एक पर्व के पुराने मच्छे होते हैं, मगर (तूर) की दाल को पीसकर सान से मिलकर मायु को महीं करती है, मूंग यपपि वायु को करसी है परन्तु उस की दास का पानी त्रिदोपहर मौर मयंकर रोग में भी पप्प है, इस के सिवाय मिन २ पेक्षवावे लोगों को मारम्भ से ही मिन पदार्थों का अभ्यास हो जाता है उनके लिये ये ही पदार्म पथ्य हो जाते हैं। पदा सिप रिवी मिशा परिवारको तगममा ध में पर्सी। "साय । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २६३ शाकों में-चॅदलिये के पत्ते, परवल, पालक, वथुआ, पोथी की भाजी, सूरणकन्द, मेथी के पत्ते, तोरई, भिण्डी और कद्दू आदि पथ्य है । दूसरे आवश्यक पदार्थों में-गाय का दूध, गाय का घी, गाय की मीठी छाछ, मिश्री, अदरख, ऑवले, सेंधानमक, मीठा अनार, मुनक्का, मीठी दाख और बादाम, ये भी सब पथ्य पदार्थ है। दूसरी रीति से पदार्थों की उत्तमता इस प्रकार समझनी चाहिये कि-चावलों में लाल, साठी तथा कमोद पथ्य है, अनाजों में गेहूँ और जौ, दालो में मूग और अरहर की दाल, मीठे में मिश्री, पत्तों के शाक में चॅदलिया, फलो के शाक में परवल, कन्दशाक में सूरण, नमकों में सेंधा नमक, खटाई में ऑवले, दूधो में गाय का दूध, पानी में बरसात का अधर लिया हुआ पानी, फलों में विलायती अनार तथा मीठी दाख, मसाले में अदरख, धनिया और जीरा पथ्य है, अर्थात् ये सव पदार्थ साधारण प्रकृतिवालों के लिये सब ऋतुओं में और सब देशों में सदा पथ्य है किन्तु किसी २ ही रोग में इन में की कोई २ ही वस्तु कुपथ्य होती है, जैसे-नये ज्वर में बारह दिन तक घी, और इक्कीस दिन तक दूध कुपथ्य होता है इत्यादि, ये सव वात पूर्वाचार्यों के बनाये हए ग्रन्थों से विदित हो सकती है किन्तु जो लोग अज्ञानता के कारण उन (पूर्वाचार्यों) के कथन पर ध्यान न देकर निषिद्ध वस्तुओं का सेवन कर बैठते है उन को महाकष्ट होता है तथा प्राणान्त भी हो जाता है, देखो ! केवल वातज्वर के पूर्वरूप में घृतपान करना लिखा है परन्तु पूर्णतया निदान कर सकने वाला वैद्य वर्तमान समय में पुण्यवानों को ही मिलता है, साधारण वैद्य रोग का ठीक निदान नहीं कर सकते है, प्रायः देखा गया है कि-वातज्वर का पूर्वरूप समझ कर नवीन ज्वर वालों को घृत पिलाया गया है और वे बेचारे इस व्यवहार से पानीझरा और मोतीझरा जैसे महाभयकर रोगों में फंस चुके हैं, क्योकि उक्त रोग ऐसे ही व्यवहार से होते है, इसलिये वैद्यों और प्रजा के सामान्य लोगों को चाहिये कि-कम से कम मुख्य २ रोगों में तो विहित और निषिद्ध पदार्थों का सदा ध्यान रक्खे । ___ साधारण लोगों के जानने के लिये उन में से कुछ मुख्य २ बातें यहा सूचित करते है.__ नये ज्वर में चिकने पदार्थ का खाना, आते हुए पसीने में और ज्वर में ठंढी तथा मलीन हवा का लेना, मैला पानी पीना तथा मलीन खुराक का खाना, मलज्वर के सिवाय नये ज्वर में बारह दिन से पहिले जुलाब सम्बन्धी हरड़ आदि दवा वा कुटकी चिरायता आदि कडुई कषैली दवा का देना निषिद्ध है, यदि उक्त समय में उक्त निषिद्ध १-इस को पूर्व में अलता कहते है, यह एक प्रकार का रंग होता है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ चैनसम्प्रवामशिक्षा ॥ पदार्थों का सेवन किया जाये तो सलिपात तथा मरमवक हानि पहुँचती है, रोग समय में निपित पदार्थों का सेवन फर के मी पर जाना तो अमि विप भार सत्र से पर जाने के तुल्य देवाधीन ही समझना चाहिये । वैपक श्वास में निषेभ होने पर भी नये वर में जो पश्चिमीय विद्वान् (गररर ठोग) खूप पिगते हैं इस पात का निधय भपापपि (मानवक) ठीक तौर से नहीं हुमा हे, हमारी समझ में नह (दूध का पिठाना) मोपप विशेप कर (बिस का वे लोग प्रयोग करते है) अनुपान समझना चाहिये, परन्तु यह एक विचारणीय विपप है। इसी प्रकार से कफ के रोगी को तभा प्रसता सी को मिश्री मादि पदार्थ हानि पहुँचाते हैं । पथ्यापथ्य पदार्थ ॥ बामरी, उड़द, वा, कुम्भी, गुरु, सोर, मक्खन, दही, छाछ, भैंस का दूध, पी, माल, तोरई, कांदा, फोग, ककोरा, गुवार फली, वूमी, सवा, कोला, मेभी, मोगरी, मूसा, गायर, काचर, काजी, गोभी, पिमा, सोई, फेसा, अनन्नास, माम, जामुन, करोंदे, भमीर, नारगी, नी, अमहद, सकरकन्द, पील, गंदा और तरबूज आदि बहुत से पदायों का लोग प्राय उपयोग करते हैं परन्तु महति भौर पातु मावि का विचार कर इन का सेवन करना चाहिये, क्योंकि ये पदार्थ फिसी मरुति मा सिमे भनुम तमा किसी प्रातिबाले के लिये प्रतिमन एष किसी मन में मनुज और किसी मन में पतिकूल होते हैं, इसलिये प्रति भावि का विचार किये बिना इन का उपयोग करने से हानि होती है, वैसे वही भर भातु में शत्रु काम करता है, पर्मा भौर हेमन्त भाव में हित फर है, गर्मी में भर्यात् मेठ पैशास्त्र के महीने में मिभी के साथ लाने से ही फायदा करता है, पर ज्वर वासे को ऊपभ्य है और मतीसार वाले को पप्प है, इस प्रकार प्रत्येक मस्त के स्वभाव को तमा सतु के अनुसार पथ्यापथ्य को समझ पर भोर समसदार पूर्ण पेप की या इसी प्रन्थ की सम्मति मेकर मत्येक वस्तु का सेवन करने से कभी हानि नहीं रो सकती है। पम्मापप्प के विषय में इस चौपाई को सदा म्मान में रसना पाहिये-- से गुरुदेशाले तेल । मेठे फल भपाते बल॥ सापन दूप न मावों मही । फार फरेला न कातिक दही ॥ मगहन जीरो से पना । माहे मिमी फागुन पना ॥ जो यह बारह देस बपाय । वा पर पैप सहुँ न चापै ॥ १ ॥ पवम सामने नहीं nि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २६५ कुपथ्य पदार्थ ॥ दाह करनेवाले, जलानेवाले, गलानेवाले, सडाने के स्वभाववाले और ज़हर का गुण करनेवाले पदार्थ को कुपथ्य कहते हैं, यद्यपि इन पांचों प्रकार के पदार्थों में से कोई पदार्थ बुद्धिपूर्वक उपयोग में लाने से सम्भव है कि कुछ फायदा भी करे तथापि ये सब पदार्थ सामान्यतया शरीर को हानि पहुँचानेवाले ही है, क्योकि ऐसी चीजें जब कभी किसी एक रोग को मिटाती भी है तो दूसरे रोग को पैदा कर देती हैं, जैसे देखो । खार अर्थात् नमक के अधिक खाने से वह पेट की वायु गोला और गाठ को गला देता है परन्तु शरीर के धातु को विगाड कर पौरुप में बावा पहुंचाता है। ___ इन पाचों प्रकार के पदार्थों में से दाहकारक पदार्थ पित्त को विगाड कर अनेक प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते है, इमली आदि अति खट्टे पदार्थ शरीर को गला कर सन्धियों को ढीला कर पौरुष को कम कर देते है । ___ इस प्रकार के पदार्थों से यद्यपि एक दम हानि नहीं देखी जाती है परन्तु बहुत दिनोंतक निरन्तर सेवन करने से ये पदार्थ प्रकृतिको इस प्रकार विकृत कर देते है कि यह शरीर अनेक रोगों का गृह बन जाता है इस लिये पहले पथ्य पदार्थों में जो २ पदार्थ लिख चुके है उन्ही का सदा सेवन करना चाहिये तथा जो पदार्थ पथ्यापथ्य में लिखे हैं उन का ऋतु और प्रकृति के अनुसार कम वर्त्ताव रखना चाहिये और जो कुपथ्य पदार्थ कहे हैं उन का उपयोग तो बहुत ही आवश्यकता होने पर रोगविशेष में औषध के समान फरना चाहिये अर्थात् प्रतिदिन की खुराक में उन ( कुपथ्य ) पदार्थों का कभी उपयोग नहीं करना चाहिये, इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जो पथ्यापथ्य पदार्थ है वे भी उन पुरुषो को कभी हानि नही पहुँचाते हैं जिन का प्रतिदिन का अभ्यास जन्म से ही उन पदार्थों के खाने का पड जाता है, जैसे-बाजरी, गुड़, उड़द, छाछ और दही आदि पदार्थ, क्योंकि ये चीजें ऋतु और प्रकृति के अनुसार जैसे पथ्य है वैसे कुपथ्य भी है परन्तु मारवाड़ देश में इन चारो चीजों का उपयोग प्राय. वहा के लोग सदा करते हैं और उन को कुछ नुकसान नहीं होता है, इसी प्रकार पञ्जाबवाले उडद का उपयोग सदा करते है परन्तु उन को कुछ नुकसान नहीं करता है, इस का कारण सिर्फ अभ्यास ही है, इसी प्रकार हानिकारक पदार्थ भी अल्प परिमाण में खाये जाने से कम हानि करते है तथा नहीं भी करते हैं, दूध यद्यपि पय्य है तो भी किसी २ के अनुकूल नहीं आता है अर्थात् दस्त लग जाते है इस से यही सिद्ध होता है कि-खान पान के पदार्य अपनी प्रकृति, शरीर का बन्धान, नित्य का अभ्यास, ऋतु और रोग की परीक्षा ३५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनसम्प्रदायभिक्षा ।। मादि सम बातों का विचार कर उपयोग में आने से हानि नहीं करते हैं, क्मोकि देसो ! एकही पदार्थ में प्ररुति और त के भेद से पय्य मौर कुपथ्य दोनों गुण रहते हैं, इस के सिवाय मह देसा पाता है कि एक ही पदार्थ रसायनिक सयोग के द्वारा अर्थात् दूसरी धीनों के मिलने से ( जिस को तन्त्र कहते हैं उस से ) मिन गुणवाला हो बासा है भत्ि उफ समोग से पदार्थों का धम पक्रू कर पय्य और कुपप्प के सिगास एक तीसरा ही गुण मफट हो जाता है इसलिये बिन लोगों को पदार्थों के हानिकारक होने वा न होने का ठीक धान नहीं है उन के लिये सीमा मौर पच्छा मार्ग यही है कि वैपक विषा की माशा के मनुसार चल कर पवार्थों को उपयोग में छावे, देसो ! शरद पच्छा पदार्थ है भर्यात् त्रिदोष को हरता है परन्तु वही गर्म पानी के साथ या किसी भस्युप्म वस्तु के साथ मा गर्म सासीरवासी वस्तु के साम अषया सनिपात जर में देने से हानि करता है, एष समान परिमाण में धृत के साथ मिलने से निप फे समान मसर करता है, दूध पथ्य पदार्थ है तो भी मूली, मग, क्षार, नमक वा एरण के सिवाय बाकी तेलों के साम वाया याने से अवश्य नुक्सान करता है। वनों के योग से भी वस्तुओं के गुणों में मन्तर हो जाता है, मैसे-सामे और पीतल के वर्जन में सटाई तथा सीर का गुण बदस नावा है, कांसे के बर्तन में घी का गुण बदस मासा है मर्यास् थोड़ी देर तक ही श्रसे के वर्जन में राने से भी नुकसान करता है, यदि सात दिन तक भी कांसे के यर्डन में पा रहे और पह लाया चा तो वा प्राणी को प्राणान्ततफ कर पहुंचाता है। दूम के साप सहे फल, गुरु, वही और सिनही मादि के साने से भी नुक्सान होता है। प्रिय पाठक गण | थोड़ा सा विचार करो ! सर्वश भगरान् ने संयोगी विपों का वर्णन पक धाम में किया है उस (शाम) के पाने और सुनने के विना मनुष्यों को इन सब माती का शान कैसे हो सकता है। यही पणन सूत्र प्रकीणों में भी किया गया है समा मा कुपप्य पदार्थों को ही भभक्ष्य ठहराया है। उपर करे हुए ऊपप्पा का फस टीम नहीं मिसता किन्तु वम अपने २ कारमा को पाकर पहुत स दोप इससे हो जाते हैं उन बह पप्प दूसरे ही रूप में दिखाई देता है ममात् पूर्णमल मुपध्य से उत्तम हुए फर के कारण को उस समय लोग नहीं समझ सस्ते हैं, इस सिप फुपथ्य सभा संमोग विरुद्ध पदार्थों से सदा परना पाहिये, क्योकि इनके सपन से अमर प्रकार के रोग उत्पम होते है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २६७ सामान्य पथ्यापथ्य आहार ॥ पथ्यआहार ॥ कुपथ्यआहार ॥ पुराने चावल, जौ, गेहूँ, मूंग, अरहर उडद, चवला, वाल, मोठ, मटर, ज्वार, (तूर) चना और देशी बाजरी, (गर्म मका, ककड़ी, काचर, खरबूजा, गुवारफली, बाजरी थोड़ी ), घी, दूध, मक्खन, छाछ, कोला, मूली के पत्ते, अमरूद, सीताफल, शहद, मिश्री, बूरा, बतासा, सरसो का तेल, कटहल, करोदा, गूंदा, गरमर, अञ्जीर, गोमूत्र, आकाश का पानी, कुए का पानी जामुन, बेर, इमली और तरबूज ॥ और हँसोदक जल, परवल, सरण, चॅदलिया, भैंस का दूध, दही, तेल, नयागुड, वृक्षा बथुआ, मेथी, मामालणी. मली. मोगरी के झुण्ड का पानी, एकदम अधिक पानी कद्दू, धियातोरई, तोरई, करेला, कॅकेड़ा; . का पीना, निराहार ठढा पानी पीना और । मैथुन कर के पानी पीना ॥ भिण्डी, गोभी, (वालोल थोड़ी) और कच्चे वासा अन्न, छाछ और दही के साथ केले का शाक ॥ खिचडी और खीचडा आदि दाल मिले हुए टाख, अनार, अदरख, ऑवला, नीबू, पदार्थों का खाना, सूर्य के प्रकाश के हुए बिजौरा, कवीठ, हलदी, धनिये के पत्ते. विनाखाना, अचार, समयविरुद्ध भोजन कपोदीना, हींग, सोठ, काली मिर्च, पीपर, ध. रना और सब प्रकार के विषो का सेवन ॥ निया, जीरा और सेंधा नमक ॥ ठढी खीर चासनी और खोवे (मावे )के पदार्थों के सिवाय दूध के सब वासे पदार्थ, हड़, लायची, केशर, जायफल, तज, गुजरात के चोटिया लड्डु, केले के लड्डु, रासौंफ, नागरवेल के पान, कत्थे की गोली, यण के लड्डु, गुलपपडी, तीन मिलावटो की धनिया, गेहूँ के आटे की रोटी, पूडी, भात, तथा पाच मिलावटों की दालें, कडे कच्चे मीठाभात, बूदिया, मोतीचूर के लड्डु, जले- और गरिष्ठ पदार्थ, मैदे की पूडी, सत्तू, बी, चूरमा, दिलखुशाल, पूरणपूडी, रबडी, पेडा, वरफी, चावलों का चिडवा, रात्रि का दूधपाक (खीर), श्रीखण्ड (शिखरन ), भोजन, दस्त को बन्द करनेवाली चीज, मैंदेका सीरा, दाल के लड्ड, घेवर, सकर- अत्युप्ण अन्नपान, वमन, पिचकारी दे दे पारे, बादाम की कतली, घी में तले हुए कर दस्त कराना, चवेने का चावना, पाच मौठ के मुजिये ( थोड़े ), दूध और घी डाले घण्टेसे पूर्व ही भोजनपर भोजन करना, हुए सेव, रसगुल्ला, गुलाबजामुन, कलाकन्द, बहुत भूखे रहना, मूंख के समय में जलका १-यद्यपि इस बात को आधुनिक डाक्टर लोग पसन्द करते हैं तथापि हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने सलाई से पेशाव तथा वस्ती (पिचकारी) से दस्त कराना पसन्द नहीं किया है और इसका अभ्यास भी अच्छा नहीं है, हा कोई खास करणा हो तो दूसरी बात है ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चैनसम्मकामशिक्षा ॥ हेसमी (को लेका पेठा), गुलकन्द, अवत, पीना, प्यास के समय में मोसन करना, मुरमा, चिरोजी, पिस्ता, दाखों का मीठा मात्रा से भषिक भोजन करना, विषमासन तथा चरपरा राइता, पापड, भूग और मौठ से मेठ कर भोजन करना, निद्रा से उठकर की पड़ी और सन प्रकार की दाल । तत्काल मोमन करना या अलका पीना, व्यायाम के पीछे धीमही बठका पीना, मा प्रकृति मत और देश मादि को वि घर से भाकर शीघही नल का पीना, मो पार कर फिमा हुमा मोचन तमा रुभि के अन के मन्त में मपिक नर का पीना, भो भनुसार फिमा हुमा भोजन प्राया पय्प अन तथा प्यास की इच्छा का रोकना, स् (हितकारी) होता है इसलिये प्रकृति आदि र्योदय से ३ घण्टे पूर्व ही मोबन करना का रिपार रखना चाहिये इत्यादि ॥ तमा अरुपि के पदार्थों का खाना भावि ॥ पथ्यविहार ॥ १-पोये हुए साफ वनों का पहरना और शक्ति के मनुसार अप्सर गुणा जल और के पहरा बङ भादि से वनों को सुपासित रखना, उप्प पातु में पनड़ी और सस मावि के अतर का तमा नीताल में हिना और मसाले मादि का उपयोग करना चाहिये । २-विछोना और परंग भावि सामनो को साफ भौर सुपर रखना पाहिये । २-पक्षिण की हवा का सेवन करना चाहिये । ५-हाम, पैर, कान, नाक, मुख और गुरसान आदि भरीर के मस्ययों में मैल का चमार नहीं होने देना चाहिये । ५.नार्मी की सत में महीन कपड़े पहरना समा शीतकास में गर्म कपड़े पहरना पारिये । ६-पनि २ दिन के बाद क्षौर फर्म (हमामत) कराना चाहिये। ७-प्रतिदिन पति के अनुसार वण मैठक और मोड़े की सवारी भावि फर कुन कस कसरत करना तमा साफ हसा को साना पाहिये । ८-सके बनन के हार कुणत और अंगूठी भादि गहनों को पहरना चाहिये । ९-मसमत्र फे वेग को नहीं रोकना चाहिमे समा महपूर्वक उन के वेग को उस्पन नहीं करमा पाहिये। १-रविष पाप भोग्यताको पर रखती है इसप्रिये इसीम सेरम मना पाईपेम १-पेपर पसर में ग्यौ म हो मा भण्ठेरो. -नगमत पाने से पर भीर मेमाप में मन न समारोवार वा राय रखर र पित प्रसप पेय -दि पोरे की प्यारी प्रभाभ्यास हो तो उसे परना चाहिये । ५-यी! भानम भार म स भीर भंगी इन दो से भूपोंम पारमा रस्यामा। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २६९ १०-मूत्र तथा दस्तआदि का वेग होनेपर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये । ११-स्वी सग का बहुत नियम रखना चाहिये ।। १२-चित्त की वृत्ति में सतोगुण और आनंद के रखने के लिये सतोगुणवाला भोजन क रना चाहिये । १३-दो घडी प्रभात में तथा दो घडी सन्ध्या समय में सब जीवोंपर समता परिणाम रखना चाहिये। १४-यथायोग्य समय निकालकर घडी दो घड़ी सद्गुणियों की मण्डली में बैठकर निर्दोप बातो को तथा व्याख्यानो को सुनना चाहिये। १५-यह संसार अनित्य है अर्थात् इस के समस्त धनादि पदार्थ क्षणभङ्गुर है इत्यादि वै राग्य का विचार करना चाहिये । १६-जिस वर्ताव से रोग हो, प्रतिष्ठा और धन का नाश हो तथा आगामी में धन की आमद रुक जावे, ऐसे वर्तावको कुपथ्य (हानिकारक) समझ कर छोड देना चाहिये, क्योंकि ऐसे ही निपिद्ध वर्ताव के करने से यह भव और परभव भी विगडता है। १७-परनिन्दा तथा देवगुरु द्वेष से सदैव बचना चाहिये । १८-उस व्यवहार को कदापि नहीं करना चाहिये जो दूसरे के लिये हानि करे । १९-देव, गुरु, विद्वान् , माता, पिता तथा वर्म में सदैव भक्ति रखनी चाहिये । २०-यथाशक्य क्रोध, मान, माया और लोभआदि दुर्गुणोसे बचना चाहिये । यह पथ्यापथ्य का विचार विवेक विलास आदि ग्रन्थों से उद्धृत कर सक्षेप मात्र में दिखलाया गया है, जो मनुष्य इसपर ध्यान देकर इसी के अनुसार वर्ताव करेगा वह इस भव और परभव में सदा सुखी रहेगा ।।। ___ दुर्बल मनुष्य के खाने योग्य खुराक ॥ बहुत से मनुष्य देखने में यद्यपि पतले और इकहरी हड्डी के दीखते है परन्तु शक्तिमान् होते हैं तथा बहुत से मनुष्य पुष्ट और स्थूल होकर मी शक्तिहीन होते है, शरीर की प्रशंसा प्रायः सामान्य (न अति दुर्बल और न अति स्थूल ) की की गई है, क्योकि शरीर का जो अत्यन्त स्थूलपन तथा दुर्बलपन है उसे आरोग्यता नहीं समझनी चाहिये, क्योंकि बहुत दुर्बलपन और बहुत स्थूलपन प्रायः नाताकती का चिन्ह है और इन दोनो के होने से शरीर वेडौल भी दीखता है, इस लिये सब मनुष्यों को उचित है कि-योग्य आहार विहार और यथोचित उपायो के द्वारा शरीर को मध्यम दशा में रक्खें, क्योंकि योग्य आहार विहार और यथोचित उपायों के द्वारा दुर्वल मनुष्य भी मोटे ताजे और Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जेनसम्प्रदायशिक्षा || पुष्ट हो सकते हैं तथा चरवी के बढ़ जाने से स्थूल हुए पुरुष भी पतले हो सकते हैं, अब इस विषय में संक्षेप से कुछ वर्णन किया बाता है - दुर्बल मनुष्यों की पुष्टि के वास्ते उपाय - दुर्बक मनुष्य को अपनी पुष्टि के वास्ते ये उपाय करने चाहिये कि मिश्री मिला कर थोड़ा २ दूप दिन में कई बार पीना चाहिये, माव काल सभा सायंकाल में शक्ति के अनुसार वण्ड बैठक और मुद्गर ( भोगरी ) फेरना आदि कसरत कर पाचन शक्ति के अनुकूल परिमित वूम पीना चाहिये, यदि कसरत का निर्माद न हो सके तो प्रात काल तथा सध्या कोठडे समय में कुछ न कुछ परि श्रम का काम करना चाहिये अथवा स्वच्छ हया में दो चार मील तक घूमना चाहिये कि जिससे कसरत हो कर खूष इमम हो जाये तथा हमारे विवेकलम्भि श्रीलसौमाग्म कार्या लम का शुद्ध वनस्पतियों का बना हुआ पुष्टिकारक चूर्ण दो महीनेतक सेवन करना चाहिये क्योंकि इस के सेवन करने से शरीर में पुष्टि और बहुत शक्ति उत्पन्न होती है, इसके अतिरिक-गेहूं, जौ, मका, चावल और दाल आदि पदार्थों में अधिक पुष्टिकारक तत्व मौजूद है इसलिये ये सन पदार्थ दुर्बक मनुष्य के लिये उपयोगी हैं, एवं भाव, केळा, भाम, सकरकन्द और पनीर, इन सब पुष्टिकारक वस्तुओं का भी सेवन समयानु सार बोड़ा २ करना योग्य है । ऊपर लिखे हुए पुष्टिकारक पदार्थ दुर्बल मनुष्य को यद्यपि बलवान् कर देते हैं परन्तु इन के सेवन के समय इन के पचाने के लिये परिश्रम पवश्य करना चाहिये क्योंकि पुष्टि कारक पदार्थों के सेवन के समय उन के पचाने के लिये यदि परिश्रम अथवा व्यायाम न किया जावे तो भरणी पढ़ कर घरीर स्थूल पड़ जाता है और भक्षक हो जाता है। जब ऊपर किस्से पदार्थों के सेवन से शरीर ढक और पुष्ट हो जाने तब खुराक को धीरे २ व देना चाहिये अर्थात् शरीर की सिर्फ भारोग्मता बनी रहे ऐसी खुराक खाते रहना चाहिये, इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि इतनी पुष्टिकारक खुराक भी नहीं स्थानी पाहिये कि बिस से पाचनशक्ति मन्द पर कर रोग उत्पन्न हो जाने और म इसना परिश्रम ही करना चाहिये कि मिस से शरीर शिविक पर कर रोगों का भाभम मन मागे । यदि श्वरीर में कोई रोग हो तो उस समय में पुष्टिकारक खुराक नहीं खानी चाहिये किन्तु औषध आदि के द्वारा जब रोग मिट जाये सभा मन्यामि भी न रहे तम पुष्टिकारक खुराक स्वानी चाहिये ॥ १स के सेवन की विधि का पत्र इस के साथ में ही भेजा जाता है तथा दो महीनों तक सेवन करमे बोम्पस (पुरक) पूर्ण मूल्य ५) पात्र है Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ चतुर्थ अध्याय ॥ स्थूल मनुष्य के खाने योग्य खुराक ॥ सब स्थूल मनुष्य प्रायः शक्तिमान् नहीं होते है किन्तु अधिक रुधिर वाला पुष्ट मनुष्य दृढ़ शरीरवाला तथा बलवान् होता है और केवल मेद चरवी तथा मेद वायु से जिन का शरीर फूल जाता है वे मनुष्य अशक्त होते हैं, जो मनुष्य घी दूध मक्खन मलाई मीठा और मिश्री आदि बहुत पुष्टिकारक खुराक सदा खाते है और परिश्रम बिलकुल नही करते हैं अर्थात् गद्दी तकियो के दास बन कर एक जगह बैठे रहते है वे लोग ऐसे वृथा ( शक्तिहीन ) पुष्ट होजाते है । घी और मक्खन आदि पुष्टिकारक पदार्थ जो शरीर की गर्मी कायम रखने और पुष्टि के लिये खाये जाते है वे परिमित ही खाने चाहियें क्योंकि अधिक खाने से वे पदार्थ पचते नही है और शरीर में चरवी इकठ्ठी हो जाती है, शरीर बेडौल हो जाता है, स्नायु आदि चरवी से रुक कर शरीर अशक्त हो जाता है और चर वी के पड़त पर पड़त चढ़ जाता है । स्थूल होकर जो शक्तिमान् हो उस की परीक्षा यह है कि ऐसे पुरुष का शरीर ( रक्त के विशेष होने के कारण ) लाल, दृढ़, कठिन, गॅठा हुआ और स्थितिस्थापक स्नायुओं के टुकडों से युक्त होता है तथा उस पर चरवी का बहुत हलका अस्तर लगा रहता है, किन्तु जो पुरुष स्थूल होकर भी शक्ति हीन होते है उन में ये लक्षण नहीं दीखते है, उन में थोथी चरवी का भाग अधिक बढ़ जाता है जिस से उन को परिश्रम करने में बड़ी कठिनता पड़ती है, वह बढ़ी हुई चरवी तब काम देती है जब कि वह खुराक की तगी अथवा उपवास के द्वारा न्यून हो जाती है, सत्य तो यह है कि शरीर को खूब सूरत और सुडौल रखना चरवी ही का काम है, बढ़ी हुई चरवी से बहुत स्थूलता और श्वास का रोग हो जाता है तथा आखिर कार इस से प्राणान्त तक भी हो जाता है । मीठा और आटे के सत्व वाला पदार्थ भी परिश्रम न करने वाले मनुष्य के शरीर में चरवी के भाग को बढाता है, इस में बड़ी हानि की बात यह है कि अधिक मेद और चरबी वाले पुरुष को रोग के समय दवा भी बहुत ही कम फायदा करती है और करती भी है तो भाग्ययोग से ही करती है । साधारण खुराक के उपयोग और शक्त्यनुसार कसरत के अभ्यास से शरीर की स्थूलता मिट जाती है अर्थात् चरबी का वजन कम हो जाता है । अति स्थूल शरीर वाले मनुष्य को खाने आदि के विषय में जिन २ बातो का खयाल रखना चाहिये उन का सक्षेप से वर्णन करते हैं - - Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ " स्थूल मनुष्यों के पतले होने के उपाय --स्थूल मनुष्यों को भी मक्खन योर स्वांड भावि चरबी वाले पदार्थ तथा माटे के सत्य माछे पदार्थ बहुत ही भोटे खाने चाहिये, पुष्टिवाले पदार्थ अधिक लाने चाहियें, गेहूं सलगम और नारंगी आदि पल खाने चाहियें, भी, मक्खन, मलाई, तेल, खांद, घरवी भाले मन, साबूदाना, चावल, मन, पूरणपोळी, कोकम, आम, दाल, केला, बादाम, पिस्ता, नेवा और चिरौभी आदि मेवे, भाव, सुरण, सकरकन्द और अरबी आदि पदार्थ नहीं खाने चाहियें, मथना बहुत ही कम स्वाने चाहियें दूष भोटा खाना चाहिये, यदि चाय और फाफी के पीने का सम्पास हो तो उस में दूब बहुत ही भोड़ा सा डालना चाहिये अथवा नींबू से सुवासित कर के पीना चाहिये ॥ मगज के मज्जा तन्तुओं को दृढ़ करने वाली खुराक ॥ जिस खुराक में आमूल्युमीन नामक सत्व अधिक होता है यह मगज के मज्जा तन्तुम का पोपण करती है, पौष्टिक तत्ववाली खुराक में माम्युमीन का कुछ २ भक्ष होता है परन्तु सखावर आदि कई एक वनस्पतियों में इस का अंत बहुत ही होता है इस छिपे सवार भादि वनस्पतियों का पाक तथा मुरब्बा बना कर खाना चाहिये, मगम सभा वीर्य की दृढ़ता के खिमे वैद्यकशास्त्र में बहुत सी उत्तम वनस्पतियों का खाना वतलाया है उनका उचित विधि से उपयोग करने पर वे पूरा गुण करती है, उन में से कुछ घन म्पतियां ये हैं—मूकोसा, शतावर, असगँम, गोखरू, कोच के बीज, आँवला और सा हुली, इन के सिवाय और भी बहुत सी वनस्पतियां हैं जो कि अत्यन्त गुणवाली है, जिन का मुरम्बा अथवा ल्यू बना कर खाने से मभषा अबछेद बनाकर पाटने से मगन के मासन्तु और पुष्ट होते हैं, बल बुद्धि और बीर्य बढ़ता है तथा मनसम्बधी म्भता और अस्थिरता दूर होती है, इन के सिवाय हमारे विवेकसम्म श्रीवसौभाग्य कार्याम का बना हुआ पुष्टिकारक चूर्ण दूप के साथ सने से गर्मी भावि मगम के विकारों को घूर कर साकत देता है तथा बीमे के बढ़ाने में यह सर्वोतम बस्तु है । मगम की निर्बलता के समय गेहूँ, चना, मटर, प्याम, करेला, अरवी, सफरबन्ध, अनार और माम मावि पदार्थ पम्प है ॥ स्मरणशक्ति तथा बुद्ध को बढ़ाने वाली खुराक ॥ स्मरणशक्ति तथा बुद्धि मगम से सम्बंध रखती है और उस की क्षति का मुख्य आधार मन का मफुलित होना सभा नीरोगता ही है, इसलिये सब से मथम तो स्मरण क्षति तथा बुद्धि के गाने का यही उपाय है कि सदा मन को प्रसन्न रखना चाहिये तथा यथायोम्प लाहार और बिहार के द्वारा नीरोगता को कायम रखना चाहिये, इन Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २७३ दोनों के होते हुए स्मरणशक्ति तथा बुद्धि के बढ़ाने के लिये दूसरा उपाय करने की कोई आवश्यकता नही है, हा दूसरा उपाय तब अवश्य करना चाहिये जब कि रोग आदि किसी कारण से इन में त्रुटि पड गई हो तथा वह उपाय भी तभी होना चाहिये कि जब शरीर से रोग बिलकुल निवृत्त हो गया हो, इस के लिये कुछ सतावर आदि बुद्धिवर्धक पदार्थों का वर्णन प्रथम कर चुके है तथा कुछ यहां भी करते है. - दूध, घी, मक्खन, मलाई और ऑवले के पाक वा मुरव्ये को दवा की रीति से थोड़ा २ खाना चाहिये, अथवा बादाम, पिस्ता, जायफल और चोपचीनी, इन चीजों में मे किसी चीज का पाक बना कर घी वूरे के साथ थोड़ा २ खाना चाहिये, अथवा बादाम की कतली लड्डू और शीरा आदि बनाकर भी पाचनशक्ति के अनुसार प्रातः वा सन्ध्या को खाना चाहिये, इन का सेवन करने से बुद्धि तथा स्मरणशक्ति अत्यन्त बढती है, अथवा हमारा बनाया हुआ पुष्टिकारक चूर्ण बुद्धिशक्ति को बहुत ही बढ़ाता है उस का सेवन करना चाहिये, अथवा ब्राह्मी १ मासा, पीपल १ मासा, मिश्री ४ मासे और आँवला १ मासा, इन को पीस तथा छान कर दोनों समय खाना चाहिये, ३१ वा ४१ दिन तक इस का सेवन करना चाहिये तथा पथ्य के लिये दूध भात और मिश्री का भोजन करना चाहिये, इन के सिवाय दो देशी साधारण दवायें वैद्यक में कही है जो कि मगज की शक्ति, स्मरणशक्ति तथा बुद्धि के बढ़ाने के लिये अत्यन्त उपयोगी प्रतीत होती है, वे ये है : १ - एक तोला ब्राह्मी का दूध के साथ प्रतिदिन सेवन करना चाहिये या घी के ब्राह्मी का घी बना कर पान में या खुराक के साथ खाना साथ चाटना चाहिये अथवा चाहिये । २ - कोरी मालकागनी को वा उस के तेल को ऊपर लिखे अनुसार लेना चाहिये, मालकागनी के तेल के निकालने की यह रीति है कि -२ ॥ रुपये भर मालकागनी को लेकर उस को ऐसा कूटना चाहिये कि एक एक बीज के दो दो वा तीन तीन फाड़ हो जावें, पीछे एक या दो मिनटतक तवेपर सेकना ( भूनना) चाहिये, इस के बाद शीघ्र ही सन के कपड़े में डालकर दबाने के साचे में देकर दबाना चाहिये, बस तेल निकल आवेगा, इस तेल की दो तीन बूंदें नागरवेल के कोरे ( कत्थे और चूने के विना ) पान पर रखकर खानी चाहियें, इस का सेवन दिन में तीन वार करना चाहिये, यदि तेल न निकल सके तो पाच २ बीज ही पान के साथ खाने चाहियें । डाक्टरी दवा भी बुद्धि तथा मगज़ के लिये फायदे फासफर्स से मिली हुई हर एक मन्द होती है ॥ ३५ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा || रोगी के खाने योग्य खुराक ॥ पश्चिमीम विद्वानों ने इस सिद्धान्त का निश्चय किया है कि सब प्रकार की खुराक की अपेक्षा साबूदाना, मारारूट और टापीओ का, ये तीन चीजें सब से इसकी और सहव में पचनेवाली हैं अर्थात् जिस रोगमें पाचनशक्ति बिगड़ गई हो उस में इन तीनों वस्तुओं में से किसी वस्तु का खाना बहुत ही फायदेमन्द है । साबूदाना को पानी ना दूष में सिखा कर तथा भावश्यकता हो तो गोड़ी सी मिश्री खास कर रोगी को पिलाना चाहिये, इस के बनाने की उत्तम रीवि यह है कि - बावे वूम और पानी को पतीकी या किसी काईदार बर्तन में डाल कर चूल्हे पर चढ़ा देना चाहिये, जब वह अवहन के समान उबलने लगे तब उस में साबूदाना को डालकर डक देना चाहिये, स्वग पानी का भाग जल आवे सिर्फ खूप मात्र क्षेष रह जाने तब उतार कर जोड़ी सी मिश्री डालकर खाना चहिये । २७४ साबूदाना की अपेक्षा चामल मद्यपि पचने में दूसरे दर्जे परे है परन्तु साबूदाना की अपेक्षा पोषण का सत्य पावलों में अधिक है इसलिये रुचि के अनुसार बीमार को वर्ष के पीछे से तीन वर्ष के भीतर का पुराना चावल देना चाहिये धर्मात् वर्षभर के भीतर का मौर तीन वर्ष के बाद का ( पांच छ वर्षो का ) भी चाबल नहीं देना बाहिये । माघे दूष तथा भाषे पानी में सिबाया हुआ भात बहुत देव दूप में सिखाया हुआ भास पूर्व की अपेक्षा भी अधिक मह बीमार और निर्व आदमी को पचता नहीं है इस किये बीमार को दूध में सिजामा हुआ मात नहीं देना चाहिये, मुखार, दस्त, मरोड़ा और अमीर्ष में प्रावल देना चाहिये, क्योंकि इन रोगों में भाबल फायदा करता है, बहुत पानी में राधे हुए भावस सभा उन का निकाला हुआ मांड ठेका भौर पोपण कारक होता है। इड आदि दूसरे देशों में हैजे की बीमारी में सूप और ग्राम देते हैं, उस की भपेक्षा इस देव में उक्त रोगी के लिये अनुकूल होने से चावलों का मांड बहुत फायदा करता है, इस भाव का निश्चय ठीक रीति से हो चुका है, इस के सिवाय भवीसार वर्षात् दस्तों की सामान्य बीमारी में घायलों का मोसामप्प दवा का काम देता है अर्थात् दस्तों को बंद कर देता है । रोगी के लिये विधिपूर्वक बनाई हुई दाल भी बहुत फायदा करती है तथा दालों की १-अप सापूदाना को अपया चापम देर में हजम होते है आर्यों की नलिका भावपुरा है, न १भी है, नसिकन्तु यह भूमिक ऐसा भी जीममवार (ज्योनार) धायद ही कोई होता होगा जिस में बाक न होती से निवार कर देगन से यह भी तनाव का उपयोग प्रभार भी बहुत है, बि सरकार इम में तत्व अधिक है महांतक कि कई एक दलों में माथ अभी भ पुष्टिकारक होता है, यद्यपि पुष्टिकारक तो होता है परन्तु Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २७५ यद्यपि अनेक जातियां है परन्तु उन सब में मुख्य मूंग की दाल है, क्योंकि-यह रोगी तथा साधारण प्रकृतिवाले पुरुषों के लिये प्रायः अनुकूल होती है, मसूर की दाल भी हलकी होने से प्रायः पथ्य है, इसलिये इन दोनों में से किसी दाल को अच्छी तरह सिजा कर तथा उस में सेंधानमक, हींग, धनिया, जीरा और धनिये के पत्ते डाल कर पतली दाल अथवा उसका नितरा हुआ जल रोगी तथा अत्यन्त निर्बल मनुष्य को देना चाहिये, क्योंकि उक्त दाल अथवा उस का नितरा हुआ जल पुष्टि करता है तथा दवा का काम देता है। वीमार के लिये दूध भी अच्छी खुराक है, क्योंकि वह पुष्टि करता है तथा पेट में बहुत भार भी नहीं करता है परन्तु दूध को बहुत उबाल कर रोगी को नहीं देना चाहिये, क्योंकि-बहुत उबालने से वह पचने में भारी हो जाता है तथा उस के भीतर का पौष्टिक तत्त्व भी कम हो जाता है, इसलिये दुहे हुए दूध में से वायु को निकालने के लिये अथवा दूध में कोई हानिकारक वस्तु हो उस को निकालने के लिये अनुमान ५ मिनट तक थोड़ासा गर्म कर रोगी को दे देना चाहिये, परन्तु मन्दाग्निवाले को दूध से आधा पानी दूध में डालकर उसे गर्म करना चाहिये, जब जल का तीसरा भाग शेष रह जावे तब ही उतार कर पिलाना चाहिये, बहुतसे लोग जलमिश्रित दूध के पीने में हानि होना समझते है परन्तु यह उन की भूल है, क्योकि जलमिश्रित दूध किसी प्रकार की हानि नही करता है। डाक्टर लोग निर्बल आदमियों को कॉडलीवर ऑइल नामक एक दवा देते है अर्थात् जिस रोग में उन को ताकतवर दवा वा खुराक के देने की आवश्यकता होती है उस में वे लोग प्राय. उक्त दवा को ही देते हैं, इस के सिवाय क्षय रोग, भूख के द्वारा उत्पन्न हुआ रोग, कण्ठमाला, जिस रोग में कान और नाक से पीप बहता है वह रोग, फेफसे का शोथ (न्यूमोनिया), कास, श्वास (ब्रोनकाइटीस,), फेफसे के पड़त का घाव, खुल खुलिया अर्थात् बच्चे का बड़ा खास और निर्बलता आदि रोगों में भी वे लोग इस दवा को देते हैं, इस दवा में मूल्य के भेद से गुण में भी कुछ भेद रहता है तथा अल्पमूल्य १-मूग की दाल सर्वोपरि है तथा अरहर (तूर ) की दाल भी दूसरे नम्बर पर है, यह पहिले लिख ही चुके हैं अत यदि रोगी की रुचि हो तो अरहर की दाल भी थोडी सी देना चाहिये। २-परन्तु यह किसी २ के अनुकूल नहीं आता है अत जिसके अनुकूल न हो उस को नहीं देना चाहिये परन्तु ऐसी प्रकृतिवाले (जिन को दूध अनुकूल नहीं आता हो) रोगी प्राय बहुत ही कम होते है ॥ ३-मा की अनुपस्थिति में अथवा मा के दूध न होने पर बच्चे को भी ऐसा ही (जलवाला) दूध पिलाना चाहिये, यह पहिले तृतीयाध्याय मे लिख भी चुके है ।। ४-इस दवा को पुष्ट समसकर उन (डाक्टर ) लोगों ने इसे रोग की खुराक में दाखिल किया है ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ बैनसम्प्रदामशिक्षा ॥ बाली इस दवा में दुर्गन्धि मी होती है परन्तु बरिया में नहीं होती है, इस दवा की। पनी हुई टिकियां भी मिलती हैं जो कि गर्म पानी या दूध के साथ साब में खाई ना । सकती है। इस (उपर फही हुई) दवा के ही समान मास्टा नामक भी एक दवा हे यो कि मत्यन्त पुष्टिकारक तमा गुणकारी है तथा पर इन्हीं (साधारण)ों कों से भौर नोंनों के समक्ष ओट नामक अनाज से मनाई बासी है। ___ कॉरलीवर मॉइड वीमार आदमी के लिये स्वराफ का काम देता है तथा हमम मी जस्वी दी हो जाता है। उक दोनों पुष्टिकारफ दनामों में से कॉग्लीपर मॉइस यो क्या है पह मार्य मेगों के लेने योग्य नहीं है, क्योंकि उस दा का ना मानो धर्म को विगजलि देना है। घीमार के पीने योग्य जल-ययपि साफ भौर निर्मक पानी का पीना तो नीरोग पुरुष को भी सदा उचित है परन्तु बीमार को तो अवश्य ही सम्छ बछ पीना पाहिये, क्योंकि रोग के समय में मलीन मठ के पीने से मन्य भी दूसरे प्रकार के रोग उत्तम हो पाते हैं, इस म्येि चम्को सय करने की युक्तियों से खूब सच्छ कर भवरा ममेजों की रीतिसे भर्यात् रिस्टीस के द्वारा स्वच्छ करके भगवा पहिले रिसे अनुसार पानी में तीन उवाम देकर ठराकर के रोगी को पिमना पोहिये, सटर ग्रेग मी हेमे में समा सस्स नुसार की प्यास में ऐसे ही ( सम्म किये हुए ही) मर में मोड़ा २ बर्फ मिला कर पिलगते हैं। नींबू का पानक बहुत से युसारों में नी का पानक मी दिया जाता है, इसके पनाने की यह रीति है कि नीन् की फा कर तमा मिभी पीसकर एक सच या पत्थर के वर्णन में दोनों को रस कर उसपर उपसता हुमा पानी गाना पाहिये तमा पर पहरा हो धाये तब उसे उपयोग में लाना चाहिये ।। गोंद का पानी---गोद न पानी २॥ सोले सपा मिमी १। सोडा, इन दोनों को एक पात्र में रखकर उस पर उमलता हुआ पानी रासार ठरा हो जाने पर पीने से सेम मर्याद कफ दफनी मोर फण्ठ मेक का रोग मिट जाता है। जी का पानी-छरे हुए (टे हुए) नौ एक पो मने मर (करीब १ण्टाक), पूरा दो तीन पिममी मर (करीर १॥ घटाक) मा पोड़ी सी नीयू की छाल, इन सम 1ो या (प्रसारर भारत) बोरगासो मम्मका ५-देयो। पावासून में मिया कि पम्पीयान पर पारि मात्रा ने ऐसा सप्ठ र राग तिपय पिन्मया बालि पिस प्रेदेव र भीर पीर राजा गपापम में ऐ गाना इस से विरोधीकि समय में भी पापपरमे मना रत्तमोत्तम चियाबी वा सम्म पर ही पासोम पसना पान Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २७७ को एक वर्त्तन में रख कर ऊपर से उबलता हुआ पानी डाल कर ठंढा हो जाने के बाद छान कर पीने से बुखार, छाती का दर्द और अमूझणी ( घबराहट ) दूर हो जाती है ॥ यह चतुर्थ अध्याय का पथ्यापथ्यवर्णन नामक छठा प्रकरण समाप्त हुआ || सातवां प्रकरण -- ऋतुचर्यावर्णन ॥ ऋतुचर्या अर्थात् ऋतु के अनुकूल आहार विहार || जैसे रोग के होने के बहुत से कारण व्यवहार नय से मनुष्यकृत है उसी प्रकार निश्चय नय से दैवकृत अर्थात् स्वभावजन्य कर्मकृत भी हैं, तत्सम्बन्धी पाच समवाय में से काल प्रधान समवाय है तथा इसी में ऋतुओं के परिवर्तन का भी समावेश होता है, देखो ! बहुत गर्मी और बहुत ठढ, ये दोनों कालधर्म के स्वाभाविक कृत्य हैं अर्थात् इन दोनों को मनुष्य किसी तरह नही रोक सकता है, यद्यपि अन्यान्य वस्तुओं के संयोग से अर्थात् रसायनिक प्रयोगों से कई एक स्वाभाविक विषयों के परि वर्त्तन में भी मनुष्य यत् किञ्चित् विजय को पा सकते हैं परन्तु वह परिवर्तन ठीक रीति से अपना कार्य न कर सकने के कारण व्यर्थ रूपसाही होता है किन्तु जो ( परिवर्तन ) कालस्वभाव वश स्वाभाविक नियम से होता रहता है वही सब प्राणियों के हित का सम्पादन करने से यथार्थ और उत्तम है इस लिये मनुष्य का उद्यम इस विषय में व्यर्थ है । के भीतर की गर्मी ऋतु के स्वाभाविक परिवर्तन से हवा में परिवर्तन होकर शरीर शर्दी में भी परिवर्तन होता है इसलिये ऋतु के परिवर्तन में हवा के तथा शरीर पर मलीन हवा का असर न होसके इस का उपाय करना काम है । स्वच्छ रखने का मनुष्य का मुख्य आसपास की हवा में वर्षभर की भिन्न २ ऋतुओं में गर्मी और ठढ के द्वारा अपने तथा हवा के योग से अपने शरीर में जो २ परिवर्तन होता है उस को समझ कर उसी के अनुसार आहारविहार के नियम के रखने को ऋतुचर्या कहते हैं । हवा में गर्मी और ठढ, ये दो गुण मुख्यतया रहते हैं परन्तु इन दोनों का परिमाण सदा एकसदृश नही होता है, क्योंकि - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा उन में (गर्मी और ठढ में ) परिवर्तन देखा जाता है, देखो । भरतक्षेत्र की पृथ्वी के उत्तर १ - यह पथ्यापथ्य का वर्णन सक्षेप से किया गया है, इस का शेप वर्णन वैद्यकसम्वधी अन्य ग्रन्थों मे देखना चाहिये, क्योंकि ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहा अनावश्यक विषय का वर्णन नहीं किया है ॥ २- जैसे विना ऋतु के वृष्टिका बरसा देना आदि ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैनसम्प्रदायश्चिक्षा ॥ और दक्षिण के किनारे पर सित प्रदेशों में भस्यन्त ठर पड़ती है, इसी पृथ्वी के गोले की मध्य रेखा के मास पास के प्रदेशों में बहुत गर्मी पड़ती है समा दोनों गोसार्म के मीच के प्रदेशों में गर्मी मोर ठेढ वरापर रहती है, इस रीति से क्षेत्र का विचार करें तो उत्तर भुष के मासपास के प्रदेशों में अर्थात् सेवेरिया आदि वक्षों में ठठ बहुत परती है, उस के नीचे फे तातार, टीवेट (विपत) और इस हिम्दुस्तान के उचरीय मागों में गर्मी और ठंड बराबर रहती है तथा उस से भी नीचे निपुषवृत्त के मासपास के देशों में गर्मात् पक्षिण दिन्दुस्तान भौर सीलोन (मा) में गर्मी भपिक पड़ती है, एवं मात के परि वर्मन से यहां परिवर्तन भी होता है मर्मास् चारह मास तक एक सरस ठर या गर्मी नहीं रहती है, क्योंकि प्रातुके अनुसार पूपियी पर ठंर और गर्मी का पड़ना सूर्य की गति पर निर्मर है, दखो! भरत क्षेत्र के उत्तर समा दक्षिण के किनारेपर सित देशों में सूर्य कमी सिरे पर सीपी लकीरपर नहीं भाता है भर्यात् छ महीने तक वहां सूर्य दिसाई मी नहीं देता है, शेष छ महीनों में इस देश में उदय होते हुए मा मरा होते हुए सूर्य के प्रकाश के समान वहां मी सूर्य का कुछ प्रकाश दिखाई देता है, इस का कारण यह है कि सूर्य के उगने ( उदय होने) के १८१ मणः उन में से कुछ मण्डल तो परिवी के ऊपर मानाशप्रवेश में मेरु के पास से शुरू हुए हैं, कुछ ममल सरणसमुद्र में हैं, -समम्तठ मेह के पास है, वहां से ७९० योवन उपर माकाम में सारामणस शुरू हुमा है, ११० गोबन में सब नक्षत्र तारामण्डल है तथा प्रथिवी से ९०० योमम पर इस न अन्त है सूर्य की विमान एपिवी से चन्द्र की विमान प्रथिवी ८० योमन उनी है, सर तारे मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं मोर सप्तर्षि (सास ऋपि) के सारे मृगादि ध्रुव की प्रद क्षिणा करसे है। देशों की ठट या गर्मा सवा समान नहीं रहती है किन्तु उस में परिवर्तन होता रहता है.देसो । मिस हिमालय के पास पर्तमान में बर्फ गिर कर ठंडा देश पन रहा है पही देश किसी काल में गर्म पा इस में रा मारी प्रमाण यह है कि-गर्मी के कारण अब पफ गस जाती है सब नीचे से मरे हुए हाथी निकसत है, इस बात को सब ही मानते हैं कि-हामी गर्म देश के विना नहीं रह सकते हैं, इस से सिद्ध है कि-पहिते पह सान गम था किन्तु बन उपर भयानक बफ गिर कर बम गया तब उस फी ठर से दाबी मर कर नीचे दब गये तमा पर्फ के गसकर पानी हो जाने पर वे उस में उतराने लगे, मदि। १-न प्रम मोर प्रासिमप्र में विचारपूस किया मपार पापाठ भनेक युधिो भीर प्रमानों से सिर पे धरे। में बीई वस्तु परत समय विपाती महीप सिम्म समय वो हाच में वह परम्नु पाप या न मिमम मे मर ममे परम्प र्क में राने से उसमभर या शिया भारतमा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २७९ यह मान भी लिया जाये कि वहा सदा ही से बर्फ था तथा उसी में हाथी भी रहते थे तो यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि बर्फ में हाथी क्या खाते थे । क्योंकि बर्फ को तो खा ही नहीं सकते है और न बर्फ पर उन के खाने योग्य दूसरी कोई वस्तु ही हो सकती है ! इस का कुछ भी जबाब नही हो सकता है, इस से स्पष्ट है कि वह स्थान किसी समय में गर्म था तथा हाथियों के रहनेलायक वनरूप में था, अब भी शीतोष्ण देशों में भी सूर्य के समीप होने से अथवा दूर होने और ठढ पडती है, इसी लिये ऋतुपरिवर्तन से वर्ष के ये दो अयन गिने जाते है, उत्तरायण उष्णकाल को तथा कहते है | से मध्य हिन्दुस्तान के समन्यूनाधिक रूप से गर्मी उत्तरायण और दक्षिणायन, दक्षिणायन शीतकाल को पृथिवी के गोले का एक नाम नियत कर उस के बीच में पूर्व पश्चिमसम्बन्धिनी एक लकीर की कल्पना कर उस का नाम पश्चिमीय विद्वानो ने विषुववृत्त रक्खा है, इसी लकीर के उत्तर की तरफ के सूर्य छः महीने तक उष्ण कटिबन्ध में फिरता है तथा छः महीने तक इस के दक्षिण की तरफ के उष्ण कटिबन्ध में फिरता है, जब सूर्य उत्तर की १ - सर्वज्ञ कथित जैन सिद्धान्त मे पृथिवी का वर्णन इस प्रकार है कि-पृथिवी गोल याल की शकल मे है, उस के चारों तरफ असली दरियाव खाई के समान है तथा जावूद्वीप बीच में है, जिस का विस्तार लाख योजन का है इत्यादि, परन्तु पश्चिमीय विद्वानोंने गेंद या नारगी के समान पृथिवी की गोलाई मानी है, पृथिवी के विस्तार को उन्हों ने सिर्फ पचीस हजार मील के घेरे मे माना है, उन का कथन है कि- तमाम पृथिवी की परिक्रमा ८२ दिन में रेल या वोट के द्वारा दे सकते हैं, उन्हों ने जो कुछ देख कर या दर्यात्फ कर कथन किया या माना है वह शायद कथञ्चित् सत्य हो परन्तु हमारी समझ में यह बात नहीं आती है। किन्तु हमारी समझ में तो यह वात आई हुई है कि - पृथिवी बहुत लम्बी चौडी है, सगर चक्रवर्ती के समय में दक्षिण की तरफ से दरियाव खुली पृथिवी में आया था जिस से बहुत सी पृथिवी जल मे चली ऋषभदेव के समय में जो नकशा जम्बूऔर ही शकल दीखने लगी है, दरियाव गई तथा दरियाव ने उत्तर में भी इवर से ही चक्कर खाया था, द्वीप भरतक्षेत्र का था वह अब विगड गया है अर्थात् उस की के आये हुए जल में बर्फ जम गई है इस लिये अव उस से आगे नहीं जा सकते हैं, इगलिश मैंन इसी लिये कह देते हैं कि पृथिवी इतनी ही है परन्तु धर्मशास्त्र के कथनानुसार पृथिवी बहुत हैं तथा देशविभाग के कारण उस के मालिक राजे भी बहुत हैं, वर्तमान समय मे बुद्धिमान् अग्रेज भी पृथिवी की सीमा का खोज करने के लिये फिरते हैं परन्तु वे भी वर्फ के कारण आगे नहीं जा सकते हैं, देखो । खोज करते २ जिस प्रकार अमेरिका नई दुनिया का पता लगा, उसी प्रकार कालान्तर में भी खोज करनेवाले बुद्धिमान् उद्यमी लोगों को फिर भी कई स्थानों के पते मिलेंगे, इस लिये सर्वज्ञ तीर्थकर ने जो केवल ज्ञान द्वारा देख कर प्रकाशित किया है वह सब यथार्थ है, क्योंकि इस के सिवाय वाकी के सब पदार्थों का निर्णय जो उन्हों ने कीया है तथा निर्णय कर उन का कथन किया है जब वे सब पदार्थ सत्यरूप में दीख रहे है तथा सत्य है तो यह विषय कैसे सत्य नहीं होगा, जो बात हमारी समझ में न आवे वह हमारी भूल है इस में आप्त वक्ताओं का कोई दोष नहीं है, भला सोचो तो सही कि इतनी सी पृथ्वी में पृथ्वी की गोलाई का मानना प्रमाण से कैसे सिद्ध हो सकता है, हा वेशक भरत क्षेत्र की गोलाई से इस हिसाब को हम न्यायपूर्वक स्वीकार करते है | Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० नसम्पदामशिक्षा ॥ सरफ फिरता है तम उपर की तरफ के उप्ण कटिभन्ध के प्रदेशों पर उतरीय सूर्य की किरणों सीपी पाती है इससे उन प्रदेशों में सख्त ताप परता है, इसी प्रकार मग सूर्य दक्षिण की तरफ फिरता है तब पक्षिण की तरफ के तप्ण कटिबन्न के प्रदेशों पर दक्षिण में लिव सूर्य की किरणें सीधी पाती हैं इस से उन प्रदेशों में मी पूर्ण रिले अनुसार सस्त ताप पड़ता है, यह हिन्दुस्तान पेच पिपुवास अर्थात् मम्परेखा के उत्तर की तरफ में सित है अर्मात् च दक्षिण हिन्दुस्थान उप्म कटिबन्ध में है क्षेप सन उचर हिन्दु शान समशीतोष्ण कटिबन्ध में है, उक्क रीति के अनुसार अव सूर्य 8 मास तक उपरा यम होता है तब उत्तर की तरफ ताप भधिक पाता है और पक्षिम की तरफ कम पड़ता है वमा यब सूर्य उ. मासतक दक्षिणायन होता है तम दक्षिण की तरफ गर्मी अधिक परती है गौर उपर की तरफ कम पड़ती है, उत्तरायण के छ महीने में -मा गुन, पैत, वैशाल, चेठ, भवार मौर भावण, समा दक्षिणायन के महीने में है--माख पद, पाश्विन, कार्षिक, मगधिर, पोप भोर माप, उचरायण के छ महीने क्रम से शक्ति को घटाते हैं भौर दक्षिणायन के छ महीने कम से शक्ति को बढ़ाते हैं, बर्ष भर में सूर्य बारह राशियों पर फिरता है, दो २ राशियों से भाव पदन्ती है इसी सिमे एक वर्ष की भतु सामाविक होती हैं, मपपि मिन २ क्षेत्रों में उक पात एकही समय में नहीं छगती है समापि इस भार्यावर्ष (हिन्दुखान) के देशों में तो प्रायः सामान्यतया इस कमे से पातु गिनी मावी - यसन्त मातु-फागुन पौर घेत, प्रीष्म ऋतु-वैशाख भौर बेठ, मासट मातुभापार और भाषण, वर्षा तु-मानपद और माधिन, सरत् भातु-कार्तिक मौर मृगधिर, हेमतशिशिर माज-पोप और माष । यहाँ वसन्त मत का मारम्भ मपपि फागुम में गिना है परन्तु जैनाचार्यों ने चिन्ता मणि भावि मन्त्रों में सान्ति के अनुसार पातुमो को माना है तथा थाईपर मावि मन्य माधामों मे भी समान्ति के ही हिसाब से सभी को माना है मौर या ठीक भी, उन के मतानुसार मातुयें इस प्रकार से समझनी पारिमें पतु पीपम मेपरु प बानो । मिथुन फर्क प्रावट पातु मानो ॥ बर्षा सिंहर न्या जानो । घरद प्रातू तुन पधिक मानो । पना मकर हेमन्त बुहोम । शिशिर शीत पर बरसै सोय ॥ मतु वसन्त है कुम्मा मीन । यहि विपि तु निरन कीन ॥१॥ 1-नी पम्ति पर २-ओमम मम मात्रामों में भरेपर" माया ममाम्त म सम्वार Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ दोहा - ऋतू लगन में आठ दिन, जब होवै उपचार || त्यागि पूर्व ऋतु को अगिल, वरतै ऋतु अनुसार ॥ २ ॥ २८१ अर्थात् मेप और वृष की सङ्कान्ति में ग्रीष्म ऋतु, मिथुन और कर्क की सङ्कान्ति में प्रावृट् ऋतु, सिंह और कन्या की सक्रान्ति में वर्षा ऋतु, तुला और वृश्चिक की सङ्क्रान्ति मैं शरद् ऋतु, धन और मकर की सङ्क्रान्ति में हेमन्त ऋतु, (हेमन्त ऋतु में जब मेघ वरसे और ओले गिरें तथा शीत अधिक पडे तो वही हेमन्त ऋतु शिशिर ऋतु कहलाती है ) तथा कुम्भ और मीन की सङ्क्रान्ति में वसन्त ऋतु होती है ॥ १ ॥ जब दूसरी ऋतु के लगने में आठ दिन बाकी रहें तब ही से पिछली ( गत ) ऋतु की चर्या (व्यवहार) को धीरे २ छोड़ना और अगली (आगामी) ऋतु की चर्या को ग्रहण करना चाहिये ॥ २ ॥ यद्यपि ऋतु में करने योग्य कुछ आवश्यक आहार विहार को ऋतु स्वयमेव मनुष्य से करा लेती है, जैसे-देखो । जब ठढ पडती है तब मनुष्य को खय ही गर्म वस्त्र आदि वस्तुओं की इच्छा हो जाती है, इसी प्रकार जब गर्मी पडती है तब महीन वस और उढे जल आदि वस्तुओंकी इच्छा प्राणी स्वतः ही करता है, इस के अतिरिक्त इग्लैंड और काबुल आदि ठढे देशों में ( जहा ठढ सदा ही अधिक रहती है) उन्हीं देशों के अनुकूल सब साधन प्राणी को खय करने पड़ते है, इस हिन्दुस्थान में ग्रीष्म ऋतु में भी क्षेत्र की तासीर से चार पहाड़ बहुत ठढे रहते है - उत्तर में विजयोर्घ, दक्षिण में नीलगिरि, पश्चिम में आबूराज और पूर्व में दार्जिलिंग, इन पहाडों पर रहने के समय गर्मी की ऋतु में भी मनुष्यों को शीत ऋतु के समान सब साधनो का सम्पादन करना पडता है, इससे सिद्ध है कि ऋतु सम्बधी कुछ आवश्यक बातों के उपयोग को तो ऋतु स्वय मनुष्य से करा लेती है तथा ऋतुसम्बन्धी कुछ आवश्यक बातों को सामान्य लोग भी थोडा बहुत समझते ही है, क्योंकि यदि समझते न होते तो वैसा व्यवहार कभी नहीं कर सकते थे, जैसे देखो । हवा के गर्म से शर्द तथा शर्द से गर्म होने रूप परिवर्तन को प्रायः सामान्य लोग भी थोड़ा बहुत समझते है तथा जितना समझते है उसी के अनुसार यथाशक्ति उपाय भी करते है परन्तु ऋतुओं के शीत और उष्णरूप परिवर्तन से शरीर में क्या २ परिवर्तन होता है और छ. ओ ऋतुयें दो २ मास तक वातावरण में किस २ प्रकार का परिवर्तन करती हैं, उस का अपने शरीर पर कैसा असर होता है तथा उस के लिये क्या २ उपयोगी वर्ताव (आहार विहार आदि) करना चाहिये, इन बातों को बहुत ही कम लोग १- इस पर्वत को इस समय लोग हिमालय कहते हैं ॥ २- कालान्तर में इन पर्वतों की यदि नारो आश्चर्य नहीं है ॥ ३६ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैनसम्प्रदायशिक्षा ।। समझते हैं इस लिये छों प्रतों के माहार विहार पावि का संक्षेप से यहां वर्णन करते हैं, इस के अनुसार वर्षाव करने से शरीर की रक्षा तथा नीरोगता भवश्य रह सकेगी हेमन्त तथा वितिर परत में (शीत फार में ) साये हुए पदार्यो से शरीर में रस धर्मात् कफ का सहह होता है, वसन्त मत के लगने पर गर्मी पड़ने का प्रारम्भ होता है इस लिये उस गर्मी से घरीर के भीतर का कफ पिषस्ने मगता है, यदि उस का शमन (शान्ति का उपाय पा इसान) न किया नावे तो खांसी फफम्बर भौर मरोग मादि रोग उत्पन्न होनाते हैं, पसन्त में फफकी शान्ति के होने के पीछे ग्रीष्म के सस्त ताप से शरीर के भीवर न मावश्यकरूप में सित कफ बल्ने अर्थात् क्षीण होने बगता है, उस समय में शरीर में वायु मप्रकटरूप से इकठा होने लगता है, इसलिये वर्मा पातु की हमा के पम्ते ही वस्त, पमनबुखार, वायुन समिपासादि कोप, अमिमान्य भोर रकविकारादि वायुमन्य रोग उत्पन्न होते हैं उस वायु को मिटाने के लिये गर्म इलाज अममा मानता से गर्म खान पान पादि के करने से पित्त का समय होता है, उस के बाद शरद् ऋतु के लगवे ही सूर्य की किरणें तुग सान्ति में सोबह सौ (पक हमार छ सौ) होने से सख्स ताप पड़ता है, उस खाप के योग से पिच का कोप होकर पित्त का मुसार, मोसी मरा, पानीमरा, पैधिक सनिपास मौर नमन मावि अनेक उपद्रव होते हैं, इसके बाद इगयों से भषया हेमन्त ऋतु की ठरी हवा से मरवा शिशिर ऋतु की वेन ठंड से पिप शांत होता है परन्त उस हेमन्त की मसे सान पान में मामे हुए पौष्टिक तत्व के द्वारा कफ का समह होता है वह वसन्त पातु में कोप करता है, तात्पर्म यह है कि-हेमन्त में कफ का समय मौर बसन्त में फोप होता है, भीष्म में वायु का सपय मोर प्राश्ट्र में कोप होता है, पर्पा में पिट का समय मौर शरद् में कोप होता है, यही कारण है कि बसन्त, वर्षा भोर सरद, इन तीनों ही पानुमों में रोग की मभिक उत्पचि होती है, यपपि विपरीत भाहार विहार से पाय पित्त और कफ बिगड़ कर सब ही मातुओं में रोगों को उत्पन करते हैं परन्त तो भी अपनी २ पातु में इन का अधिक कोप होता है भौर इस में मी उस २ प्रकार की प्रसिपाली पर उस २ दोप प्रमषिक कोप होता है, मेसे वसन्स भाव में कफ समों के लिये उपदय करता है परन्तु फफ की प्रहसिना के सिमे अधिक उपद्रव करता है, इसी प्रकार से क्षेप दोनों दोपोच भी उपदम समझ सेना पारिये ॥ नस प्रशासनम मरेपो में देना पीये। १-पसी रिने और किसी संपत्ति में नहीं होती. या पात सम्मासमोरमभी प्र में मपीमा मियाप मचि भीरभानोगौर में मोदी से पवे टममा पसे मेगा मन भार' Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २८३ वसन्त ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ पहिले कह चुके है कि-शीत काल में जो चिकनी और पुष्ट खुराक खाई जाती है उस से कफ का सग्रह होता है अर्थात् शीत के कारण कफ शरीर में अच्छे प्रकार से जमकर स्थित होता है, इस के बाद वसन्त की धूप पड़ने से वह कफ पिघलने लगता है, कफ प्रायः मगज छाती और सॉधों में रहता है इस लिये शिर का कफ पिघल कर गले मे उतरता है जिस से जुखाम कफ और खासी का रोग होता है, छाती का कफ पिघलकर होजरी में जाता है जिस से अमि मन्द होती है और मरोडा होता है, इस लिये वसन्त ऋतु के लगते ही उस कफ का यत्न करना चाहिये, इस के मुख्य इलाज दो तीन है-इस लिये इन में से जो प्रकृति के अनुकूल हो वही इलाज कर लेना चाहियेः १-आहार विहार के द्वारा अथवा वमन और विरेचन की ओषधि के द्वारा कफ को निकाल कर शान्ति करनी चाहिये । २-जिस को कफ की अत्यन्त तकलीफ हो और शरीर में शक्ति हो उस को तो यही उचित है कि-वमन और विरेचन के द्वारा कफ को निकाल डाले परन्तु बालक वृद्ध और शक्तिहीन को वमन और विरेचन नहीं लेना चाहिये, हा सोलह वर्षतक की अवस्थावाले वालक को रोग के समय हरड़ और रेवतचीनी का सत आदि सामान्य विरेचन देने में कोई हानि नहीं है परन्तु तेज विरेचन नहीं देना चाहिये । वसन्त ऋतु में रखने योग्य नियम ॥ १-भारी तथा ठढा अन्न, दिन में नीद, चिकना तथा मीठा पदार्थ, नया अन्न, इन सब का त्याग करना चाहिये । २-एक साल का पुराना अन्न, शहद, कसरत, जंगल में फिरना, तैलमर्दन और पैर दबाना आदि उपाय कफ की शान्ति करते हैं, अर्थात् पुरानां अन्न कफ को कम करता है, शहद कफ को तोड़ता है, कसरत, तेल का मर्दन और दबाना, ये तीनों कार्य शरीर के कफ की जगह को छुडा देते हैं, इसलिये इन सब का सेवन करना चाहिये । ३-रूखी रोटी खाकर मेहनत मजूरी करनेवाले गरीबों का यह मौसम कुछ भी विगाड़ नहीं करता है, किन्तु माल खाकर एक जगह बैठनेवालों को हानि पहुंचाता है, इसी लिये प्राचीन समय में पूर्ण वैद्यों की सलाह से मदनमहोत्सव, रागरंग, गुलाब जल का डालना, अबीर गुलाल आदि का परस्पर लगाना और बगीचों में जाना आदि बातें इस मौसम मे नियत की गई थी कि इन के द्वारा इस ऋतु में मनुष्यों को कसरत प्राप्त हो, १-सवत् १९५८ से सवत् १९६३ तक मैंने बहुत से देशों में भ्रमण (देशाटन ) किया या जिस में इस ऋतु मे यद्यपि अनेक नगरों में अनेक प्रकार के उत्सव आदि देखने मे आये थे परन्तु मुर्शिदाबाद Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा || जैसा इसमें हितकारी और परभव सुरकारी महोत्सव कहीं भी नहीं देखा वहां के प्रेम फ एक में प्राग १५ दिन तक भगवान् का रपमहोत्सव प्रतिवर्ष किया करते है भगत् भगवान् के रथ को निक्ाम्भ करते रास्व में बन यावे हुने तथा केसर भादि उत्तम पदार्थों के पास से मरी हुई चांदी की रियां का बगीचों में जाते है. महापर मात्र पूजादि भषि करते है तथा प्रतिदिन शाम को सैर होती है दिउ वर्गी पुरुषों का इस ऋतु में ऐसा महोत्सव करना भवन्त ही प्रशसा के फोन है, इस महोत्सव का उपदेश करनेवाले इमारे प्राचीन यति मानाचाही हुए हैं, उन्हीं का इस भय तथा परमव मे द्वितकारी यह उपदेश आजतक चल रहा है इस बात की बहुत ही है हम उन पुरुषों को भयम् ही धन्यवाद देते है जो भाजक जय उपदेश को मान कर उसी के अनुसार प कर अपने जन्म को सफल कर रहे है क्योंकि इस काम के सोग परभण का सवाल बहुत कम करते है, प्राचीन समय में जो भाचार्य ोगों ने इसमें अनेक महोत्सव विगत ये वे उन का तात्पर्य केव यही था कि मनुष्यों का परभव मी सुमरे तथा इस भग में भी ऋतु के अनुसार उत्सवादि में परिश्रम करने सेमारोग्यता भावि बातों की प्राप्ति हो बयपि में उत्सव रूपान्तर में अब भी बेके जाते ह परम्तु श्रेय उन के तत्त्व को कुछ माह सोचते है और मनमाना बचन करते है, देखो। कामी पुरुष की तथा पौर अर्थात् मगनमहोत्सव (होकी तथा गौर की उत्पत्ति का दाम पड़ जाने के भय से माँ नहीं विना चाहत है फिर किसी समय धन का प्रताम्य पाठकों की सेना में उपस्थित किया जायेगा ) में का बर्तान करने लगे है इस महोत्सव में मे प्रेम जद्यपि दाक्खिये और बड़े आदि कोसेवक पदार्थों को खाये इ तथा खेल 1 २८४ माता आदि करने के बहाने रात को जाममा भाषि परिश्रम भी करते है जिस से कफ भरता है परन्तु होली के महोत्सव म मे लोग कैसे १ महा असम्बद्ध वचन बोलत है, वह बहुत ही खराब प्रथा पर पड़े हैं, बुद्धिमानों को चाहिये कि इस हानिकारक तथा भाडा की सी भय को अवश्य छोड़ दे, क्योकि हम महा असम्बद्ध वचनों के बकने से भाव कमजोर होकर घरीर में दमा शुद्धि में रागी सेवी, यह प्राचीन प्रभा महीं किन्तु अनुमान ढाई हजार वर्ष से यह मांडा वाममार्गी (डा पची) छोगों के मा ध्यक्षा ने मई है तथा मोसे मेमा ने इस को मकारी मान रक्या है, क्योंकि उन को इस बात की बिलकुल बर नहीं है कि वह महाभसम्बद्ध वचनों का बना म पन्दियों का मुक्म भजन है, वह दुर मारवाड के ना में बहुत ही प्रचलित हो रही है, इससे यद्यपि वहां के प्रेम अनेक बार अपेक हानिया को टापु है परन्तु भवतक नहीं संभव है यह केवल भविष्य दगी का प्रसाद दे किन्वर्ट मान समय में विपरीत अनक मन करेव व्यवहार प्रचलित से गये तथा एक दूसरे की दया देखी और भी प्रचलित दोष बाट अन तो सचमुच कुप में भांप गिरने की कहावत हो गई है, गया-मुहानी कूप भांग में मई प्रेम होइन बा अविद्याउनेक प्रकारवी पर पर माहि मडी को मी मारवाड की रक्षा को तो कुछ भी न पूछिये वो तो मारवाडी भाषा की यह कहावत बिन होगई है कि यो रातो भाभे जी ने भग कोई राम' अर्थात् कोई दोना भी परन्तु परपमिवानियों (सामिनिया) के सामन बचारों को डरना ही पड़ता है, देयो। बगव ऋतु में शयाना बहुत ही हानि करता है परन्तु वहां क्षी 2 सनम (श्रीवन् धप्तमी ) को सब ही क्रोम म पाठे भीमे मद्दा हानिकारक है उसके भासमानम दिन पामे कठिन एक दिन पहिदी से गुजरा पप भार एकपप आरि से चूहे की तरह जन Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २८५ इस लिये इस ऋतु के प्राचीन उत्सवो का प्रचार कर उन में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है, क्योंकि इन उत्सवो से शरीर नीरोग रहता है तथा चित्त को प्रसन्नता भी प्राप्त होती है । पदार्थ बना कर अवश्य ही इस मौसम में साते है, यह वास्तव में तो अविद्या देवी का प्रसाद है परन्तु शीतला देवी के नाम का बहाना है, हे कुलवती गृहलदिमयो ! जरा विचार तो करो कि-दया धर्म से विरुद्ध और शरीर को हानि पहुंचानेवाले अर्थात् इस भा और परमव को विगाहनेवाले इस प्रकार के साग पान से क्या लाभ है । जिस शीतला देवी को पूजते २ तुम्हारी पीढिया तक गुजर गई परन्तु आज तक शीतला देवी ने तुम पर कृपा नहीं की अर्थात् जाज तक तुम्हारे वये इसी शीतला देवी के प्रभाव से काने अन्धे, कुरूप, लूले और लँगडे हो रहे है और हजारो मर रहे हैं, फिर ऐसी देवी को पूजने से तुम्हें क्या लाभ हुआ? इस लिये इस की पूजा को छोडकर उन प्रत्यक्ष अग्रेज देवों को पूजो कि जिन्हीं ने इस देवी को माता के दूध का विकार समझ कर उस को सोट कर (टीके की चाल को प्रचलित कर) निकाल डाला और वाल्कों को महा सकट से बचाया है, देखो । वे लोग ऐसे २ उपकारी के करने से ही आज साहिब के नाम से विख्यात ह, देखो ! अन्धपरम्परा पर न चलकर तत्त्व का विचार करना बुद्धिमानों का काम है, कितने अफसोस की बात है कि कोई २ स्त्रिया तीन २ दिन तक का ठठा (वासा) अन्न साती हे, मला कहिये इस से हानि के सिवाय और क्या मतलन निकलता है, स्मरण रक्खो कि ठढा साना सदा ही अनेक हानियो को करता है अर्थात् इस से बुद्धि कम हो जाती है तथा शरीर में अनेक रोग हो जात है, जब हम बीकानेर की तरफ देसवे हे तो यहा भी बडी ही अन्धपरम्परा दृष्टिगत होती है कि यहां के लोग तो सवेरे की सिरावणी में प्राय वालक से लेकर वृवपर्यन्त दही और बाजरी की अथवा गेहूं की वासी रोटी खाते है जिस का फल भी हम प्रत्यक्ष ही नेत्रों से देख रहे है कि यहा के लोग उत्साह बुद्धि और सद्विचार आदि गुणों से हीन दीस पडते है, अव अन्त मे हमे इस पवित्र देश की कुलवतियो से यही कहना है कि-हे कुलवती स्त्रियो। शीतला रोग की तो समस्त हानियों को उपकारी डाक्टरो ने विलकुल ही कम कर दिया है अव तुम इस कुत्सित प्रथा को क्या तिलाञ्जलि नही देती हो ? देखो। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में इस ऋतु मे कफ की और दुष्कर्मों की निवृत्ति के प्रयोजन से किसी महापुरुप न सप्तमी वा अष्टमी को शीलवत पालने और चूल्हे को न सुलगाने के लिये अर्थात् उपवास करने के लिये कहा होगा परन्तु पीछे से उस कथन के असली तात्पर्य को न समझ कर मिथ्यात्व वश किसी धूर्त ने यह शीतला का ढग शुरू कर दिया और वह क्रम २ से पनघट के घाघरे के समान वढता २ इस मारवाड मे तथा अन्य देशों में भी सर्वत्र फैल गया ( पनघट के घागरे का वृत्तान्त इस प्रकार है कि-किसी समय दिल्ली में पनघट पर किसी स्त्री का घाघरा खुल गया, उसे देखकर लोगो ने कहा कि “घाघरा पड़ गया रे, घाघरा पड गया" उन लोगों का कथन दूर खडे हुए लोगों को ऐसा सुनाई दिया कि-'आगरा जल गया रे, आगरा जल गया, इस के बाद यह वात कर्णपरम्परा के द्वारा तमाम दिल्ली में फैल गई और बादशाह तक के कानों तक पहुँच गई कि 'आगरा जल गया रे, आगरा जल गया, परन्तु जब वादशाहने इस बात की तहकी कात की तो मालूम हुआ कि आगरा नही जल गया किन्तु पनघट की स्त्री का घाघरा खुल गया है) हे परममित्रो । देखो । ससार का तो ऐसा ढग है इसलिये सुज्ञ पुरुषों को उक्त हानिकारक बातों पर अवश्य ध्यान देकर उन का सुधार करना चाहिये ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ चैनसम्प्रदायशिक्षा || 8 – वसन्तऋतु की हवा महुत फायदेमन्द मानी गई है इसी लिये वास्तकारों का कमन है कि “वसन्ते भ्रमण पम्मम्" अर्थात् वसन्त ऋतु में भ्रमण करना पथ्य है, इस किये इस ऋतु में प्रात काल तथा सायंकाल को बापू के सेवन के लिये वो चार मील तक अवश्य जाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से वायु का सेवन भी हो जाता है तथा जाने जाने के परिश्रम के द्वारा कसरत भी हो आती है, देखो । किसी बुद्धिमान् का कथन है कि- "सौ दवा और एक हवा" यह बात बहुत ही ठीक है इसलिये भारोग्यता रखने की इच्छानालों को उचित है कि अवश्यमेव प्रात काल सदैव दो भार मील तक फिरा करें ॥ ग्रीष्म ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ श्रीष्म ऋतु में शरीर का कफ सूखने लगता है तथा उस फफ की खाली जगह में हवा भरने लगती है, इस ऋतु में सूर्य का ताप जैसा जमीन पर स्थित रस को लॉंच ऐसा है उसी प्रकार मनुष्यों के शरीर के भीतर के कफरूप प्रवाही ( बहनेवाले ) पदार्थों का शोषण करता है इस लिये सावधानता के साथ गरीब और अमीर सब ही को अपनी २ क्षति के अनुसार इस का उपाय अवश्य करना चाहिये, इस ऋतु में चितने गर्म पदार्थ हैं ये सब अपथ्य हैं यदि उन का उपयोग किया जाये तो शरीर को बड़ी हानि पहुँचती है, इस छिपे इस ऋतु में जिन पदार्थों के सेवन से रस न घटने पावे अर्थात् बितना रस सूखे उतना ही फिर उत्पन्न हो जावे और वायु को जगह न मिलसके ऐसे पदार्थों का सेवन करना चाहिये, इस ऋतु मधुर रसनाळे पदार्थों के सेवन की भाषश्म कता है और वे स्वामानिक नियम से इस ऋतु में प्राम' मिळते भी हैं जैसे- पके आम, फालसे, सन्यरे, नारगी, इसकी नेचू जामुन और गुलामबामुन मावि, इस लिये स्वाभा विक नियम से भागश्यकतानुसार उत्पन्न हुए इन पदार्थों का सेवन इस ऋतु में भगक्ष्म करना चाहिये । मीठे, ठंडे, इसके और रसवाले पदार्थ इस ऋतु में अधिक स्वाने चाहियें बिन से क्षीण होनेवाले रस की कमी पूरी हो जावे । गेहूं, चावल, मिश्री दूध पर जब शरा हुआ सभा मिश्री मिलाया हुआ वही और भी भावि पदार्थ स्वाने चाहिये, ठंडा पानी पीना चाहिये, गुलाब तथा केवड़े के अस का उपयोग करना चाहिये, गुलाब, केवड़ा चाहिये । सस और मोतिये का असर सूचना प्रात काल में सफेद मोर हम्का सूती वस्त्र, वृक्ष से पांच बजे तक सूखी जीन वा गजी का कोई मोटा यम तथा पांच बजे के पश्चात् महीन वस्त्र पहना चाहिये, बर्फ है, इस के बनाने की विधि १ श्री के गुण इसी अम्मान के पांचवें प्रकरण में आदि वैद्यक प्रथा में भगवा काम देखा। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २८७ का जल पीना चाहिये, दिन में तहखाने में वा पटे हुए मकान में और रात को ओस में सोना उत्तम है। ___ ऑवला, सेव और ईख का मुरव्वा भी इन दिनों में लाभकारी है, मैदा का शीरा जिस में मिश्री और घी अच्छे प्रकार से डाला गया हो प्रातःकाल में खाने से बहुत लाभ पहुंचाता है और दिन भर प्यास नहीं सताती है । ग्रीष्म ऋतु आम की तो फसल ही है सब का दिल चाहता है कि आम खावें परन्तु अकेला आम या उस का रस बहुत गर्मी करता है इस लिये आम के रस में घी दूध और काली मिर्च डाल कर सेवन करना चाहिये ऐसा करने से वह गर्मी नहीं करता है तथा शरीर को अपने रग जैसा बना देता है। __ ग्रीष्म ऋतु में क्या गरीब और क्या अमीर सब ही लोग शर्वत को पीना चाहते है और पीते भी है तथा शर्वत का पीना इस ऋतु में लाभकारी भी बहुत है परन्तु वह (शर्वत ) शुद्ध और अच्छा होना चाहिये, अत्तार लोग जो केवल मिश्री की चासनी बना कर शीशियो में भर कर बाज़ार में बेंचते हैं वह शर्वत ठीक नहीं होता है अर्थात् उस के पीने से कोई लाभ नहीं हो सकता है इस लिये असली चिकित्सा प्रणाली से वना हुआ शर्वत व्यवहार में लाना चाहिये किन्तु जिन को प्रमेह आदि या गर्मी की वीमारी कभी हुई हो उन लोगों को चन्दन गुलाब केवडे वा खस का शर्वत इन दिनों में अवश्य पीना चाहिये, चन्दन का शर्वत बहुत ठढा होता है और पीने से तवीयत को खुश करता है, दस्त को साफ ला कर दिल को ताकत पहुँचाता है, कफ प्यास पित्त और लोहू के विकारों को दूर करता है तथा दाह को मिटाता है, दो तोले चन्दन का शर्वत दश तोले पानी के साथ पीना चाहिये तथा गुलाब वा केवड़े का शर्वत भी इसी रीति से पीना अच्छा है इस के पीने से गर्मी शान्त होकर कलेजा तर रहता है, यदि दो तोले नीबू का शर्वत दश तोले जल में डाल कर पिया जावे तो भी गर्मी शान्त हो जाती है और भूख भी दुगुनी लगती है, चालीस तोले मिश्री की चासनी में बीस नीवुओं के रस को डाल कर बनाने से नींबू का शर्वत अच्छा बन सकता है, चार तोले भर अनार का शर्वत वीस तोले पानी में डालकर पीने से वह नजले को मिटा कर दिमाग को ताकत पहुँचाता है, इसी रीति से सन्तरा तथा नेचू का शर्वत भी पीने से इन दिनों में बहुत फायदा करता है। जिस स्थान में असली शर्वत न मिल सके और गर्मी का अधिक जोर दिखाई देता हो तो यह उपाय करना चाहिये कि-पच्चीस बादामों की गिरी निकाल कर उन्हें एक घण्टेतक पानी में भीगने दे, पीछे उन का लाल छिलका दूर कर तथा उन्हें घोट कर १-परन्तु मन्दामिवाले पुरुषों को इसे नहीं खाना चाहिये । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अनसम्प्रदायशिक्षा ॥ एक गिलास मर बस ननावे भौर उस में मिभी गा कर पी जाये, ऐसा करने से गर्मी निलकुल न सतायेगी और दिमाग को वरी भी पहुंचेगी। गरीय भौर साधारण लोग उपर कहे हुए सर्वतों की एवम में इमरी का पानी कर उस में सजूर मयमा पुराना गुड मिण कर पी सकते हैं, यपपि इमली सदा लाने के योग्य पस्त नहीं है तो भी यदि प्रकृति के मनुसूस हो दो गर्मी की सस्त मातु में एक वर्ष की पुरानी इमली का पर्वत पीने में कोई हानि नहीं है किन्तु फायदा ही करता है, गों के फुलकों (पतली २ रोटियों ) को इस के सर्मत में मीब कर (मिगो कर) साने से भी फायदा होता है, वाह से पीरित प्रया लगे हुए पुरुष के इमठी के भीगे हुए गूदे में नमक मिला कर पैरों के तलवों और हथेलियों में मरने से तत्काल फायदा पहुँ पता है अर्थात् वाह और की गर्मी शान्स हो पाती है। इस ऋतु में खिले हुए मुन्दर सुगन्धित पुपों की मासा का पारण करना या उन फो सूपना वषा सफेद पन्दन का लेप करना भी श्रेष्ठ है। चन्दन, कथा, गुगल, दिना, सस, मोतिया, जुही और पनडी भावि के मतरों से पनाम हुए सायुन मी ( लगाने से) गर्मी के दिनों में विन को वक्ष समा सर रखते इस उिये इन सावुनों को भी प्राय समाम घरीर में खान करते समम लगाना चाहिये। इस ऋतु में भीगमन १५ दिन में एक बार करना उचित है, क्योंकि इस त में समाव से ही शरीर में शक्ति कम होनाती है। -परन्तु ये सपरत माय पराम उन्ही पुम्मों प्राप्त से पवे निलो ने पूर्व मा मरेप गुरु भीर पर्म सेवस भर में मिन पुमोघ मम धर्म में गाभागार गार समाप्त हैपमा पास में मी मम्म प्रसंसा के योग योनि-यो। शाम और गुणाले बाद उसमेचम बस और की मार भवन च प्रकार पान और मोतियों के शर मादि सर्प पाय धर्म में पोपरान्त मेगों में मिले और मिड पनवे परमा मफसोस है कि इस समय उप (बर्म) को मनुम विस ए स समय में वो ऐसी पयसा से रही है -पनबार मेग बन नझे में परवर मर्म विहीर बैठे, मेम पाकिम सीमा परमार मारे पास धन समिम हम गोपा सो कर सकते हैं इसाद परन्तु यह उनकी मसभूतो उन भा मता परमा मापस होता है-बिस से हमने ये सम फह पये स दमे ममवे हमा पारिये और मागे मे पर भेकका मार्म साफ करना चाहिये वो! पो पनपान भीर पमपान् तासरो मेने में प्रापा होती है जिन्होंने पूर्णभर में धर्म किया। उन्ही में मोम और मा भारिपी पीनी पटी मद पुभवानों ही पान पान पानि सब बातों पुराण रेपो । संसार में बव ग ऐसे भी निशानपान मी पुरानी दिने प्रसार में इस से अभिभीर मा तम्मैप हामी पोर मचनमा मम्व हो सकता जिन मिरोम मी भिमा यहाभाबमी मम्प अब प्रमरप मुमत सवा परन्त रोचपछी सेवासा पता इसी से कर पाता है भालो। धर्म पर सरा प्रेम रस्मो पो तुमारा सपा मित्र Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २८९ इस ऋतु में अपथ्य - सिरका, खारी तीखे खट्टे और रूक्ष पदार्थों का सेवन, कसरत, धूप में फिरना और अग्नि के पास बैठना आदि कार्य रस को सुखाकर गर्मी को बढ़ाते है इस लिये इस ऋतु में इन का सेवन नहीं करना चाहिये, इसी प्रकार गर्म मसाला, चटनिया, लाल मिर्च और तेल आदि पदार्थ सदा ही बहुत खाने से हानि करते है परन्तु इस ऋतु में तो ये ( सेवन करने से ) अकथनीय हानि करते है इस लिये इस ऋतु में इन सब का अवश्य ही त्याग करना चाहिये | वर्षा और प्रावृट् ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ चार महीने वरसात के होते है, मारवाड तथा पूर्व के देशों में आर्द्रा नक्षत्र से तथा दक्षिण के देशों में मृगशिर नक्षत्र से वर्षा की हवा का प्रारम्भ होता है, पूर्व बीते हुए ग्रीष्म में वायु का सचय हो चुका है, रस के सूख जाने से शक्ति घट चुकी है तथा जठरानि मन्द हो गई है, इस दशा में जब जलकणो के सहित बरसाती हवा चलती है तथा मेंह बरसता है तब पुराने जल में नया जल मिलता है, ठढे पानी के बरसने से शरीर की गर्मी भाफ रूप होकर पित्त को बिगाड़ती है, ज़मीन की भाफ और को बढ़ा कर वायु तथा कफ को दबाने का प्रयत्न करता है तथा वरसात का मैला पानी कफ को बढ़ा कर वायु और पित्त को दवाता है, इस प्रकार से इस ऋतु में तीनों दोषों का आपस में विरोध रहता है, इस लिये इस ऋतु में तीनों दोषों की शान्ति के लिये युक्तिपूर्वक आहार विहार करना चाहिये, इस का सक्षेप से वर्णन करते है: खटासवाला पाक पित्त १ - जठराग्नि को प्रदीप्त करनेवाले तथा सब दोषो को बराबर रखनेवाले खान पान का उपयोग करना चाहिये अर्थात् सव रस खाने चाहियें । २- यदि हो सके तो ऋतु के लगते ही हलका सा जुलाब ले लेना चाहिये | ३ - खुराक में वर्षभर का पुराना अन्न वर्त्तना चाहिये । ४ - मूग और अरहर की दाल का ओसावण बना कर उस में छाछ डाल कर पीना चाहिये, यह इस ऋतु में फायदेमन्द है । ५- दही में सञ्चल, सैंधा या सादा नमक डाल कर खाना बहुत अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार से खाया हुआ दही इस ऋतु में वायु को शान्त करता है, अग्नि को प्रदीप्त करता है तथा इस प्रकार से खाया हुआ दही हेमन्त ऋतु में भी पथ्य है । १ - बहुत से लोग मूर्खता के कारण गर्मी की ऋतु में दही खाना अच्छा समझते हैं, सो यह ठीक नही है, यद्यपि उक्त ऋतु में वह खाते समय तो ठडा मालूम होता है परन्तु पचने के समय पित्त को बढा कर कर उलटी अधिक गर्मी करता है, हा यदि इस ऋतु मे दही खाया भी जावे तो मिश्री डाल कर युक्तिपूर्वक खाने से पित्त को शान्त करता है, किन्तु युक्ति के बिना तो साया हुआ दही सब ही ऋतुओं मे हानि करता है ॥ ३७ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० बैनसम्प्रदायशिक्षा || ६- छाछ, नींबू और कच्चे आम आदि खट्टे पदार्थ भी अन्य धातुओं की अपेक्षा इस ऋतु में अधिक पथ्य हैं । इन वस्तुओं का उपयोग भी प्रकृति के अनुसार तथा परिमाण भूजन करने से काम होता है अन्यमा हानि होती है । ८--नदी तालाब और कुए के पानी में जल पीने योग्य नहीं रहता है, इस लिये मिठता हो उस का बल पीना चाहिये । बरसात का मैला पानी मिल जाने से इनका जिस कुए में वा कुण्ड में परसासी पानी न ९ - बरसात के दिनों में पापड़, काचरी और मुखिये, बड़े, भीमड़े, बेदई, कचौड़ी भावि स्नेहवाले सिमेइन का सेवन करना चाहिये । १० - इस ऋतु में नमक अधिक खाना चाहिये || अचार आदि क्षारबाले पदार्थ समा पदार्थ अधिक फायदेमन्द हैं, इस इस ऋतु में अपथ्य — तकघर में बैठना, नदी या तालाब का गवा मल पीना, दिन में सोना, भूप का सेवन और शरीर पर मिट्टी उगाकर कसरत करना, इन सब बातों सेना ाहिये । इस ऋतु में रूक्ष पदार्थ नहीं खाने चाहियें, ठडी हवा नहीं छेनी चाहिये, कीचड़ और भीगी चाहिये, भीगे हुए कपड़े नहीं पहरने चाहियें, बैठना चाहिये, घर के सामने कीचड़ और मैकापन नहीं होने देना चाहिये, मरसात का a नहीं पीना चाहिये और न उस में नहाना चाहिये, यदि नहाने की इच्छा हो तो शरीर में तैस की मालिस कर नहाना चाहिये, इस प्रकार से आरोग्यता की इच्छा रखने बालों को इन चार मासतक ( माद् और वर्षा ऋतु में ) पर्याय करना उचित है । क्योंकि रूक्ष पदार्थ हुई पृथिवी पर हवा और जल की राय को बढ़ाते हैं, नंगे पैर नहीं फिरना बूंदों के सामने नहीं शरद् ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ सब ऋतुओं में घरव् ऋतु रोगों के उपद्रव की जड़ है, देखो! वैद्यकशास्तकारों का कवन है कि-“रोगाणां शारदी माता पिता तु कुसुमाकर ” अर्थात् धरव् भातु रोगों को पैदा करनेवाली माता है और वसन्त ऋतु रोगों को पैदा कर पाखनेवाला पिता है, मह सब ही जानते हैं कि सब रोगों में उबर राजा है और ज्बर ही इस ऋतु का मुख्य जप द्रव है, इसलिये इस धातु में बहुत ही सभक कर चलना चाहिये, वर्पा हुआ पिच इस धातु के ताप की गर्मी से शरीर में कुपित होकर बुखार को करता है में सचिव ऋतु बरसात के कारण ममीन मीगी हुई होती है इसलिये उस से भी भूप के द्वारा जल की १- यह स्पसूत्र की मैरा में है । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २९१ भाफ उठ कर हवा को विगाडती है, विशेष कर जो देश नीचे है अर्थात् जहा बरसात का पानी भरा रहता है वहा भाफ के अधिक उठने के कारण हवा अधिक चिगड़ती है, बस तिजारी यही जहेरीली हवा ज्वर को पैदा करने वाली है, इस लिये शीतज्वर, एकान्तर, और चौथिया आदि विषम ज्वरो की यही खास ऋतु है, ये सब ज्वर केवल पित्त के कुपित होने से होते हैं, बहुत से मनुष्यों की सेवा में तो ये ज्वर प्रतिवर्ष आकर हाजिरी देते है और बहुत से लोगो की सेवा को तो ये मुद्दततक उठाया करते हैं, जो ज्वर शरीर में मुद्दततक रहता है वह छोड़ता भी नहीं है किन्तु शरीर को ही पीछा छोड़ता है तथा रहने के समय में भी अनेक कष्ट देता है अर्थात् तिल्ली बढ़ जाती है, रोगी कुरूप हो जाता है तथा जब ज्वर जीर्णरूप से शरीर में निवास करता है तब वह वारवार वापिस आता और जाता है अर्थात् पीछा नहीं छोड़ता है, इस लिये इस ऋतु बहुत ही सावधानता के साथ अपनी प्रकृति तथा ऋतु के अनुकूल आहार विहार करना चाहिये, इस का सक्षेप से वर्णन इस प्रकार से है कि . मिट्टी में मिला कर १- इस ऋतु में यथाशक्य पित्त को शान्त करने का उपाय करना चाहिये, पित्त को जीतने वा शान्त करने के मुख्य तीन उपाय है : - (A)-पित्त के शमन करनेवाले खान पान से और दवा से पित्त को दबाना चाहिये । (B) चमन और विरेचन के द्वारा पित्त को निकाल डालना चाहिये । (C) फरत खुलवा कर या जोंक लगवा कर खून को निकलवाना चहिये । २ - वायु की प्रकृतिवाले को शरद् ऋतु में घी पीकर पित्त की शान्ति करनी चाहिये । ३-पित्त की प्रकृतिवाले को कडुए पदार्थ खानेपीने चाहियें, कडुए पदार्थों में नीम पर की गिलोय, नीम की भीतरी छाल, पित्तपापड़ा और चिरायता आदि उत्तम और गुण १ - इस हवा को अग्रेजी में मलेरिया कहते हैं तथा इस से उत्पन्न हुए ज्वर को मलेरिया फीवर कहते हैं ॥ २- बहुत से प्रमादी लोग इस ऋतु मे ज्वरादि रोगों से प्रस्त होने पर भी अज्ञानता के कारण आहार विहार का नियम नहीं रखते हैं, बस इसी मूर्खता से वे अत्यन्त भुगत २ कर मरणान्त कष्ट पाते हैं ॥ ३- यदि वमन और विरेचन का सेवन किया जावे तो उसे पथ्य से करना उचित है, क्योंकि पुरुष का विरेचन (जुलाब) और स्त्री का जापा ( प्रसूतिसमय ) समान होता है इसलिये पूर्ण वैद्य की सम्मति से अथवा आगे इसी ग्रन्थ में लिखी हुई विरेचन की विधि के अनुसार विरेचन लेना ठीक है, हा इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि जब विरेचन लेना हो तव शरीर में घृत की मालिस करा के तथा घी पीकर तीन पाच या सात दिनतक पहिले वमन कर फिर तीन दिन ठहर कर पीछे विरेचन लेना चाहिये, घी पीने की मात्रा नित्य की दो तोले से लेकर चार तोलेतक की काफी है, इन वर्णन आगे किया सब बातों का जायगा ॥ ४- यह तीसरा उपाय तो विरले लोगों से ही भाग्ययोग से वन पडता है, उपाय हैं वे तो सहज और सब से हो सकने योग्य हैं परन्तु तीसरा उपाय कठिन योग्य नहीं है ॥ क्योंकि पहिले जो दो अर्थात् सब से हो सकने Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ कारी पदार्थ है, इसलिये इन में से किसी एक चीम की फंकी के ना पाहिये, भवना रास को मिगो कर प्रावकार उस का काम कर ( उबार कर ) छान कर समा ठपा र मिमी सरकर पीना चाहिये, इस दमा की मात्रा एक रुपये भर है, इस से भर नहीं भाता है और मवि पर हो वो भी पग जाता है, क्योंकि इस दवा से पित्त की शान्ति हो जाती है। -पित्त की प्रकृतिबा के लिये दूसरा इलाब यह भी है कि वह दूप मौर मिमी के साम पाबलों को सावे, क्योंकि इस के सानेसे भी पित्त धान्त हो जाता है। ५-पित्त की महतिबा को पित्तशामक जुगन मी ले सेना चाहिये, उस से भी पित्त निकम कर शान्त हो जायेगा, पर जुगाम यह है कि-अमृतसर की अमवा छोटी रें भागा निसोतकी छाल, इन तीनों पीयों में से किसी एक चीम की फंकी मा मिठा कर लेनी चाहिये सबा वाट मात मा कोई पतम पदार्थ पप्य में सेना चाहिये, से सम सापारण वस छानेवाली बीमें हैं। ६स प्रात में मिमी, बूरा, न्द, कमोद वा साठी वापस, दूष, स, सेंपा नमक (मोहा), गेइ, माँ और मूंग पय्म , इस रिये इन को साना चाहिये। ७-बिस पर दिन में सूर्य की किरणें परें और रात को पन्द्रमा की पिर परें, ऐसा नदी सबा साताव का पानी पीना पय्य है। ८-पन्दन, चन्द्रमा की किरणें, घरों की मालमें मौर सफेद बम, ये भी घरद् मातु में पप्प है। ९-पेपरवास करता है कि-भीम भतु में दिन को सोना, हेमन्त ऋतु में गर्म भीर परिचारक सराका साना और शरद पसत में दम में मिमी मित्म कर पीना पाहिये, इस प्रकार पार करने से प्राणी नीरोग और धीर्माण होता है। १०-कपिल के लिये जो २ पथ्य कहा है यह २ इस तु में भी पथ्य है ।। इस पातु में अपभ्य-मोस, पूर्व की हवा, क्षार, पेट भर भोमन, दही, सिपही, तेर सराई, सोठ मोर मिर मावि तीसे पदार्थ, हिंग, सारे पदार्थ, मधिक परपीबारे पदार्थ, सूर्य तथा भमि ताप, गरमागरम रसोई, दिन में सोना और मारी सुरा इन सषप्रयोग करना पारिये ॥ 1. में पर भर ग्राम से पास पानि ऐती है यम्मान में प्रति परि मामी सेर समपिर भार नपार्म पन र नियमहराया, पुस महिनों में पोड़ा भार हम भाचा सरपरी ममरसेबपता है। -रवीरोमका A TO बातों प्रताप पाभी पर स्वाभिमप्र रोपन ना ( ना) बाम 1 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २९३ हेमन्त और शिशिर ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु मनुष्यो की ताकत को खीच लेती है उसी प्रकार हेमन्त और शिशिर ऋतु ताकत की वृद्धि कर देती है, क्योकि सूर्य पदार्थों की ताकत को खींचने वाला और चन्द्रमा ताकत को देने वाला है, शरद् ऋतु के लगते ही सूर्य दक्षिणायन हो जाता है तथा हेमन्त में चन्द्रमा की शीतलता के बढ़ जाने से मनुष्यों में ताकत का बढना प्रारभ हो जाता है, सूर्य का उदय दरियाव में होता है इसलिये बाहर ठढ के रहने से भीतर की जठराग्नि तेज होने से इस ऋतु में खुराक अधिक हज़म होने लगती है, गर्मी में जो सुस्ती और शीतकाल में तेजी रहती है उस का भी यही कारण है, इस ऋतु के आहार विहार का सक्षेप से वर्णन इस प्रकार है:-- १जिस की जठराग्नि तेज हो उस को इस ऋतु में पौष्टिक खुराक खानी चाहिये तथा मन्दाग्निवाले को हलकी और थोडी खुराक खानी चाहिये, यदि तेज अग्निवाला पुरुष पूरी और पुष्टिकारक खुराक को न खावे तो वह अमि उस के शरीर के रस और रुधिर आदि को सुखा डालती है, परन्तु मन्दाग्निवालों को पुष्टिकारक खुराक के खाने से हानि पहुँचती है, क्योंकि ऐसा करने से अग्नि और भी मन्द हो जाती है तथा अनेक रोग उत्पन्न हो जाते ह । २-इस ऋतु में मीठे खट्टे और खारी पदार्थ खाने चाहिये, क्योंकि मीठे रस से जब कफ बढ़ता है तब ही वह प्रबल जठराग्नि शरीर का ठीक १ पोषण करती है, मीठे रस के साथ रुचि को पैदा करने के लिये खट्टे और खारी रस भी अवश्य खाने चाहिये। __३-इन तीनों रसों का सेवन अनुक्रम से भी करने का विधान है, क्योंकि ऐसा लिखा है-हेमन्त ऋतु के साठ दिनों में से पहिले वीस दिन तक मीठा रस अधिक खाना चाहिये, बीच के बीस दिनों में खट्टा रस अधिक खाना चाहिये तथा अन्त के वीस दिनों में खारा रस अधिक खाना चाहिये, इसी प्रकार खाते समय मीठे रस का ग्रास पहिले लेना चाहिये, पीछे नींबू, कोकम, दाल, शाक, राइता, कढ़ी और अचार आदि का ग्रास लेना चाहिये, इस के बाद चटनी, पापड और खीचिया आदि पदार्थ ( अन्त में) खाने चाहिये, यदि इस क्रम से न खाकर उलट पुलट कर उक्त रस खाये जावे तो हानि होती है, क्योंकि शरद् ऋतु के पित्त का कुछ अश हेमन्त ऋतु के पहिले पक्षतक में शरीर में रहता है इस लिये पहिले खट्टे और खारे रस के खाने से पित्त कुपित होकर हानि होती है, इस लिये इस का अवश्य स्मरण रखना चाहिये। ४-अच्छे प्रकार पोषण करनेवाली (पुष्टिकारक ) खुराक खानी चाहिये । ५-स्त्री सेवन, तेल की मालिश, कसरत, पुष्टिकारक दवा, पौष्टिक खुराक, पाक, धूप Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० चैनसम्पदामक्षिक्षा ॥ का सेवन, ऊन भादि का गर्म कपड़ा, अँगीठी (सिगड़ी) से मान को गर्म रखना मादि वायें इस ऋतु में पथ्य है ॥ हेमन्त और शिशिर ऋतु का माम एक सा ही पर्याय है, ये दोनों पातु वीर्य को सुषारने के सिये बहुत मच्छी हैं, क्योंकि इन ऋतुओं में जो बीर्य और शरीर को पोषण दिया जाता है यह बाकी के आठ महीने तक ताकत रखता है अर्थात् वीर्य पुष्ट रहता है। यद्यनि सही ऋतुओं में महार और विहार के नियमों का पावन करने से शरीर का सुधार होता है परन्तु यह सब ही जानते हैं कि वीर्य के सुधार के बिना शरीर का सुभार कुछ भी नहीं हो सकता है, इस सिये वीर्य का सुधार भवश्य करना चाहिये और वीर्य के सुधारने के किये धीव मातु, शीतल मकृति और धीवल देश विशेष अनुकूल होता है देखो ! ठवी वासीर, उडी मौसम और ठंडे देश के बसने वालों का वीर्य अधिक होता है । यद्यपि मह तीनों मकार की अनुकूलता इस देश के निवासियों को पूरे सौर से मात नहीं है, क्योंकि यह देश सम श्रीसोप्प है तथापि प्रकृति और धातु की अनुकूलता तो इस देश के भी निवासियों के भी आधीन ही है, क्योंकि अपनी प्रकृति को ठंडी अर्थात् व्रता और सस्वगुण से युक्त रखना यह बात स्वाधीन ही है, इसी प्रकार बीर्म को सुधारने के लिये तथा गर्भाधान करने के लिये श्रीतकाल को पसन्द करना भी इन के स्वाधीन ही है, इसलिये इस ऋतु में मच्छे वैद्य था डाक्टर की सलाह से पौष्टिक दबा, पार्क भयषा खुराक के स्वाने से बहुत ही फायदा होता है । जायफळ, जावित्री, कॉंग, बादाम की गिरी और केश्वर को मिलाकर गर्म किये हुए खूप का पीना भी बहुत फायदा करता है । बादाम की कतली या वादाम की रोटी का स्थाना चीर्ष पुष्टि के लिये बहुत ही फाय मन्द है । इन ऋतुओं में अपथ्य ---जुखाम का सेना, एक समय भोजन करना, मासी रसोई का खाना, वीसे और तुसे पदार्थों का अभिक सेवन करना, सुखी जगह में सोना, ठ पानी से नहाना और विनमें सोना, ये सब बातें इन ऋतुओं में पथ्य है, इसलिये इन का स्याग करना चाहिये || यह जो ऊपर भी अतुओं का पथ्यापथ्य मिला गया है वह नीरोग मकुतियाको के किये समझना चाहिये, किन्तु रोगी का पथ्यापथ्य तो रोग के अनुसार होता है, वह संक्षेप से भागे मिलेंगे । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २९५ पथ्यापथ्य के विषय में यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि-देश और अपनी प्रकृति को पहचान कर पथ्य का सेवन करना चाहिये तथा अपथ्य का त्याग करना चाहिये, इस विषय में यदि किसी विशेष बात का विवेचन करना हो तो चतुर वैद्य तथा डाक्टरों की सलाह से कर लेना चाहिये, यह विषय बहुत गहन ( कठिन ) है, इस लिये जो इस विद्या के जानकार हो उन की संगति अवश्य करनी चाहिये कि जिस से शरीर की आरोग्यता के नियमो का ठीक २ ज्ञान होने से सदा आरोग्यता बनी रहे तथा समयानुसार दूसरो का भी कुछ उपकार हो सके, वैसे मी बुद्धिमानो की सगति करने से अनेक लाभ ही होते हैं। यह चतुर्थ अध्याय का ऋतुचर्यावर्णन नामक सातवा प्रकरण समाप्त हुआ । आठवां प्रकरण दिनचर्या वर्णन ॥ - woooooo प्रातःकाल का उठना ॥ यह बात तो स्पष्टतया प्रकट ही है कि-खाभाविक नियम के अनुसार सोने के लिये रात और कार्य करने के लिये दिन नियत है, परन्तु यह भी स्मरण रहे कि-प्रातःकाल जब चार घड़ी रात वाकी रहे तब ही नीद को छोडकर जागृत हो जाना अब्बल दर्जे का काम है, यदि उस समय अधिक निद्रा आती हो अथवा उठने मे कुछ अडचल मालूम होती हो तो दूसरा दर्जा यह है कि दो घडी रात रहने पर उठना चाहिये और तीसरा दर्जा सूर्य चढ़े बाद उठने का है, परन्तु यह दर्जा निकृष्ट और हानिकारक है, इसलिये आयु की रक्षा के लिये मनुष्यों को रात्रि के चौथे पहर में आलस्य को त्याग कर अवश्य उठना चाहिये, क्योंकि जल्दी उठने से मन उत्साह में रहता है, दिन में काम काज अच्छी तरह होता है, बुद्धि निर्मल रहती है और स्मरणशक्ति तेज रहती है, पढनेवालो के लिये भी यही (प्रात.काल का ) समय बहुत श्रेष्ठ है, अधिक क्या कहें इस विषय के लाभो के वर्णन करने में बड़े २ ज्ञानी पूर्वाचार्य तत्त्ववेत्ताओं ने अपने २ ग्रन्थों में लेखनी को खूब ही दौड़ाया है, इस लिये चार घडी के तड़के उठने का सब मनुष्यों को अवश्य अभ्यास डालना चाहिये परन्तु यह भी स्मरण रहे कि विना जल्दी सोये मनुष्य प्रात - काल चार बजे कभी नहीं उठ सकता है, यदि कोई जल्दी सोये उक्त समय में उठ भी जावे तो इस से नाना प्रकार की हानिया होती है अर्थात् शरीर दुर्वल होजाता है, शरीर में आलस्य जान पड़ता है, आखों में जलन सी रहती है, शिर में दर्द रहता है तथा भोजन पर भी ठीक रुचि नहीं रहती है, इस लिये रात को नौ वा दश बजे पर अवश्य Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सैनसम्प्रदामशिक्षा || सो रहना चाहिये कि जिस से प्रात काल में विना दिवस के उठ सके, क्योंकि प्राणी मात्र को कम से कम छ' घण्टे अवश्य सोना चाहिये, इस से कम सोने में मस्तक का रोग आदि अनेक विकार उत्पन्न होजाते हैं, परन्तु माठ घण्टे से अधिक भी नहीं सोना चाहिये क्योंकि आठ घंटे से अधिक सोने से शरीर में मालस्य मा भारीपन जान पड़ता है और कामों में भी हानि होने से दरिद्रता घेर लेती है, इसलिये उचित तो यही है कि रात को नौ मा अधिक से अधिक दस बजे पर अवश्य सो रहना चाहिये समा प्रात काल चार पड़ी के तड़के अवश्य उठना चाहिये, यदि कारणवच चार घड़ी के तड़के का उठना कदाचित् न निभसके तो वो घड़ी के तड़के तो भवश्य उठना ही चाहिये । प्रात काल उठते ही पहिले स्वरोदय का विचार करना चाहिये, यदि चन्द्र स्वर स्वा हो तो वो पांव और सूर्य स्वर चम्रता हो तो दाहिना पांष ममीन पर रख कर मोड़ी वेरवक विना मोठ हिलाये परमेष्ठी का स्मरण करना चाहिये, परन्तु यदि सपना स्वर चाहो तो पलंग पर ही बैठे रहकर परमेष्ठी का ध्यान करना ठीक है क्योंकि यही समय योगाभ्यास तथा ईश्वरारापन मथवा कठिन से कठिन विषयों के विचारने के लिये नियत है, देखो! जितने सुजन और शानी योग आजतक हुए हैं ये सब ही प्रात काल उठते मे परन्तु कैसे पश्चात्ताप का विषय है कि इन सब अक्रमनीम स्म का कुछ भी विचार न कर भारतवासी मन फरवटें ही देते २ नौ बजा देते हैं इसी का मह फल है कि वे माना प्रकार के केसों में सदा फँसे रहते हैं ॥ प्रात काल का वायुसेवन ॥ प्रात काल के गायु का सेवन करने से मनुष्य प्रष्ठ पुष्ठ बना रहता है, दीर्घायु और सुर होता है, उस की बुद्धि ऐसी वीक्ष्ण हो जाती है कि कठिन से कठिन मासम कोभी सहज में ही जान सेवा है और सदा नीरोग बना रहता है, इसी (मात काल के ) समय मस्ती के बाहर भागों की शोभा के दखने में बड़ा मानव मिलता है, क्योंकि इसी समय पुत्रों से जो नवीन और स्वच्छ प्राणमद बायु निकलता है यह दवा के सेवन के लिये बाहर जाने वालों की घास के साथ उन के शरीर के भीतर जाता है जिस के प्रभाव से मन सी की भांति खिल जाता और शरीर मफुलित हो जाता है, इसलिये दे प्यारे आगणो | हे सुजनो ! और हे पर की मियो ! प्रात काल तड़के यागकर सच्छ वायु के समन का अभ्यास करो कि जिस से तुम को प्याधिमन्य च न सहने पड़े भारसदा तुम्हारा मन प्रफुलित भार शरीर नीरोग रहे, देखा । उफ समय में बुद्धि भी निर्मल पोनने बयान में वर्णन किया जारमा काम १ विषय के विषय में इसी नाह Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २९७ रहती है इसलिये उसके द्वारा उभय लोकसम्बधी कार्यों का विचार कर तुम अपने समय को लौकिक तथा पारलौकिक कार्यों में व्यय कर सफल कर सकते हो । देखो ! प्रात काल चिड़िया भी कैसी चुहचुहाती, कोयलें भी कू कू करती मैना तोता आदि सब पक्षी भी मानु उस परमेष्ठी परमेश्वर के स्मरण में चित्त लगाते और मनुष्यों को जगाते है, फिर कैसे शोक की बात है कि हम मनुष्य लोग सब से उत्तम होकर भी पक्षी पखेरू आदि से भी निषिद्ध कार्य करें और उन के जगाने पर भी चैतन्य न हों ॥ प्रातःकाल का जलपान ॥ ऊपर कहे हुए लाभों के अतिरिक्त प्रात काल के उठने से एक सकता है कि- प्रातः काल उठकर सूर्य के उदय से प्रथम थोडा सा ववासीर और ग्रहणी आदि रोग नष्ट हो जाते है । यह भी बड़ा लाभ हो शीतल जल पीने से वैद्यक शास्त्रों में इस (प्रातः काल के ) समय में नाके से जल पीने के लिये आज्ञा दी है क्योंकि नाक से जल पीने से बुद्धि तथा दृष्टि की वृद्धि होती है तथा पीनस आदि रोग जाते रहते है ॥ शौच अर्थात् मलमूत्र का त्याग ॥ प्रातःकाल जागकर आधे मील की दूरी पर मैदान में मल का त्याग करने के लिये जाना चाहिये, देखो ! किसी अनुभवी ने कहा है कि - " ओढे सोवै ताजा खाँदै, पाव कोस मैदान में जावे । ति घर वैद्य कभी नहिं आवै" इस लिये मैदान में जाकर निर्जीव साफ ज़मीनपर मस्तक को ढांक कर मल का त्याग करना चाहिये, दूसरे के किये हुए मलमूत्र पर मल मूत्र का त्याग नही करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दाद खाज और खुजाख आदि रोगों के हो जाने का सम्भव है, मलमूत्र का त्याग करते समय बोलना नही १- इस की यह विधि है कि - ऊपर लिखे अनुसार जागृत होकर तथा परमेष्टी का ध्यान कर आठ अञ्जलि, अर्थात् आघ सेर पानी नाक से नित्य पीना चाहिये, यदि नाक से न पिया जासके तो मुँह से ही पीना चाहिये, फिर आध घण्टे तक वाये कर वट से लेट जाना चाहिये परन्तु निद्रा नहीं लेनी चाहिये, फिर मल मूत्र के त्याग के लिये जाना चाहिये, इस ( जलपान ) का गुण वैद्यक शास्त्रों में बहुत ही अच्छा लिखा है अर्थात् इस के सेवन से आयु बटता है तथा हरम, शोथ, दस्त, जीर्ण ज्वर, पेट का रोग, कोढ, मेद, मूत्र का रोग, रक्तविकार, पित्तविकार तथा कान आस गले और शिर का रोग मिटता है, पानी यद्यपि सामान्य पदार्थ है अर्थात् सव ही की प्रकृति के लिये अनुकूल है परन्तु जो लोग समय विताकर अर्थात् देरी कर उठते हैं उन लोगों के लिये तथा रात्रि में सानपान के त्यागी पुरुषों के लिये एव कफ और वायु के रोगों में सन्निपात में तथा ज्वर में प्रात काल मे जलपान नहीं करना चाहिये, रात्रि मे जो खान पान के त्यागी पुरुष हैं उन को यह भी स्मरण रसना चाहिये कि जो लाभ रात्रि में खानपान के त्याग में है उस लाभका हजार वां भाग भी प्रात काल के जलपान में नहीं है, इसलिये जो रात के खान पान के त्यागी नहीं हैं उन को उपापान ( प्रात काल में जलपीना) कर्त्तव्य है ॥ ३८ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैनसम्प्रदायशिक्षा || चाहिये, क्योंकि इस समय बोलने से दुर्गन्वि मुख में प्रविष्ट होकर रोगों का कारण होती है तथा दूसरी तरफ ध्यान होने से मलादि की शुद्धि भी ठीक रीतिसे नहीं होती है, मलमूत्र का त्याग बहुत मल करके नहीं करना चाहिये । घोकर मल का त्याग करने के पम्बात् गुदा और लिंग आदि मंगों को जल से खूब खाफ करना चाहिये । जो मनुष्य सूर्योदय के पीछे ( दिन चढ़ने पर ) पाखाने जाते हैं उन की बुद्धि मलीन और मस्तक न्यून लबाला हो जाता है तथा शरीर में भी नाना प्रकार के रोग हो खाते हैं । बहुत से मूर्ख मनुष्य आलस्य भावि में फँस कर मल मूत्र आदि के वेग को रोक लेते हैं, यह बड़ी हानिकारक बात है, क्योंकि इस से मूत्रकृच्छ्र विरोरोग तथा पेडू पीठ और पेट मावि में दर्द होने लगता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु मल के रोकने से अनेक उदावर्ष आदि रोगों की उत्पत्ति होती है, इस लिये मक और मूत्र के बेग को भूल कर भी नहीं रोकना चाहिये, इसी प्रकार छींक प्रकार हिचकी और वेग को भी नहीं रोकना चाहिये, क्योंकि इन के वेग को रोकने से उत्पत्ति होती है । मपान वायु यदि के भी मनेक रोगों की मलमूत्र के त्याग करने के पीछे मिट्टी और जल से हाथ और पांगों को भी खूब स्वच्छता के साथ धोकर शुद्ध कर लेना चाहिये ॥ मुखशुद्धि ॥ यदि मत्याख्यान हो तो उस की समाप्ति होने पर मुख की शुद्धि के लिये नीम, खैर, बबूल, आक, पिभागांस, मामा, सिरोहा, करज, मद, महुमा और मौलसिरी भावि दूप माळे वृक्षों की छाँवोन करे, दाँतोन एक बाकि लंबी और अंगुली के बराबर मोटी होनी चाहिये, उस की छाल में कीड़ा था कोई विकार नहीं होना चाहिये तथा वह गाँठ दार भी नहीं होनी चाहिये, दाँतोन करने के पीछे सेंधानमक, सौंठ और भुना हुआ जीरा, इन तीनोंको पीस तथा कपड़छान कर रक्खे हुए मजन से दाँतों को माँजना चाहिये, क्योंकि जो मनुष्य दासीन नहीं करते हैं उन के मुँह में दुर्गन्ध आने लगती है और यो प्रतिदिन १- सूर्य का जश्न हो जाने से पेट में गर्मी समाकर मन छ से जाता है उसके होने से मगज सुकी और मम पहुँचती है ये न्यून बजाता है ॥ १-भूल प्यास कामका बेग मूत्र का वेग अपानवायुका बेय जम्मा (मुई) सू, बमन बी (कायम) श्रास और निशा मे १३ मे घरीर में सामाजिक उत्पम वे इसमें इसके को रोनहीं चाहिये क्योकि इन गेमों के रोकने से उदार आणि अनेक रोम होते है, (देखो कन्थों में उद्या प्रकरण Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २९९ मञ्जन नहीं लगाते है उन के दांतों में नाना प्रकार के रोग हो जाते है अर्थात् कभी २ वादी के कारण मसूड़े फूल जाते है, कभी २ रुधिर निकलने लगता है और कभी २ दाँतों में दर्द भी होता है, दाँतो के मलीन होने से मुख की छवि विगड जाती है तथा मुख में दुर्गन्ध आने से सभ्य मण्डली में (बैठने से ) निन्दा होती है, इस लिये दॉतोन तथा मञ्जन का सर्वदा सेवन करना चाहिये, तत्पश्चात् खच्छ जल से मुख को अच्छे प्रकार से साफ करना चाहिये परन्तु नेत्रों को गर्म जल से कभी नहीं धोना चाहिये क्योकि गर्म जल नेत्रों को हानि पहुंचाता है ॥ दाँतोन करने का निषेध-अजीर्ण, वमन, दमा, ज्वर, लकवा, अधिक प्यास, मुखपाक, हृदयरोग, शीर्ष रोग, कर्णरोग, कठरोग, ओठरोग, जिहारोग, हिचकी और खासी की बीमारीवाले को तथा नशे में दॉतोन नहीं करना चाहिये । __ दाँतों के लिये हानिकारक कार्य-गर्म पानी से कुल्ले करना, अधिक गर्म रोटी को खाना, अधिक बर्फ का खाना या जल के साथ पीना और गर्म चीज़ खाकर शीघ्र ही ठढी चीज का खाना या पीना, ये सब कार्य दातो को शीघ्र ही बिगाड देते है लथा कमजोर कर देते है इस लिये इन से बचना चाहिये ॥ ____ व्यायाम अर्थात् कसरत ॥ व्यायाम भी आरोग्यता के रखने में एक आवश्यक कार्य है, परन्तु शोक वा पश्चात्ताप का विषय है कि भारत से इस की प्रथा बहुत कुछ तो उठ गई तथा उठती चली जाती है, उस में भी हमारे मारवाड़ देश में अर्थात् मारवाड के निवासी जनसमूह में तो इस की प्रथा बिलकुल ही जाती रही। __ आजकल देखा जाता है कि भद्र पुरुष तो इस का नामतक नहीं लेते है किन्तु वे ऐसे ( व्यायाम करनेवाले ) जनों को असभ्य (नाशाइस्तह ) बतलाते और उन्हें तुच्छ दृष्टि से देखते हैं, केवल यही कारण है कि जिस से प्रतिदिन इस का प्रचार कम ही होता चला जाता है, देखो ! एक समय इस आर्यावर्त देश में ऐसा था कि जिस में महावीर के पिता सिद्धार्थ राजा जैसे पुरुष भी इस अमृतरूप व्यायाम का सेवन करते थे अर्थात् उस समय में यह आरोग्यता के सर्व उपायो में प्रधान और शिरोमणि उपाय गिना जाता था और उस समय के लोग “एक तन दुरुस्ती हजार नियामत" इस वाक्य के तत्त्व को अच्छे प्रकार से समझते थे। _ विचार कर देखो तो मालूम होगा कि मनुष्य के शरीर की बनावट घड़ी अथवा दूसरे यन्त्रों के समान है, यदि घड़ी को असावधानी से पड़ी रहने दें, कभी न झाड़ें फूकें और १-इस विपय का पूरा वर्णन कल्पसूत्र की लक्ष्मीवल्लभी टीका में किया गया है, वहा देख लेना चाहिये। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० वैनसम्प्रदायशिक्षा || न उस के पुर्जों को साफ करावे तो थोड़े ही दिनों में वह बहुमूल्य घड़ी निकम्मी हो जावेगी, उस के सब पूर्व विगढ़ खायेंगे और जिस प्रयोजन के लिये वह बनाई गई है वह कदापि सिद्ध न होगा, बस ठीक यही दक्षा मनुष्य के शरीर की भी है, देखो ! मवि नु, श्वरीर को स्वच्छ और सुभरा बनाये रहे, उस को उमंग और साइस में नियुक्त रक्खे सभा स्वास्थ्य रक्षा पर ध्यान देते रहें तो सम्पूर्ण शरीर का वल सभागत् बना रहेगा और शरीरस्व मत्येक वस्तु बिस कार्य के लिये बनी हुई है उस से वह कार्य ठीक रीति से होता रहेगा परन्तु यदि ऊपर किसी बातों का सेवन न किया यावे तो शरीरस्य सम वस्तु निकम्मी हो आयेंगी और स्वाभाविक नियमानुकूल रचना के प्रतिकूल फल धीमने मोगा अर्थात् जिन कार्यों के लिये यह मनुष्य का शरीर बना है वे कार्य उस से वापि सिद्ध नहीं होंगे । घड़ी के पुर्मो में तेल के पहुँचने के समान शरीर के पुर्जों में (अवयवों में ) रक (खून) पहुँचने की आवश्यकता है, अर्थात् मनुष्य का जीवन रक के चलने फिरने पर निर्भर है, मिस प्रकार कूर्चिका (कुत्री) आदि के द्वारा बड़ी के पुर्जों में से पहुँचाया जाता है उसी प्रकार व्यायाम के द्वारा शरीर के सब अवयवों में रक्त पहुँचामा बाता है अर्थात् व्यायाम ही एक ऐसी वस्तु है कि जो रफ की चाल को सेन मना कर सन अभ यवों में मभावत् रक्त को पहुँचा देती है । जिस प्रकार पानी किसी ऐसे वृक्ष को भी जो श्रीघ्र सूख जानेवाला है फिर हरा भरा कर देता है उसी प्रकार शारीरिक व्यायाम भी शरीर को हरा भरा रखता है अर्थात् शरीर के किसी भाग को निकम्मा नहीं होने देता है, इसलिये सिद्ध है कि शारीरिक बस और उस की हड़ता के रहने के सिमे व्यायाम की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि रुपिर की भास को ठीक रखनेवाला केवळ म्यायाम है और मनुष्य के शरीर में रुधिर की पा उस नहर के पानी के समान है जो कि किसी बाग में हर पटरी में होकर निकलता हुआ सम्पूर्ण वृक्षों की जड़ों में पहुँच कर तमाम बाग को सींध कर मफुल्लित करता है, मिम पाठक गण । देखो ! उस बाग में जिसने हरे भरे वृक्ष और रंग बिरंगे पुष्प अपनी छवि को दिसावे है और नाना भाँति के फल अपनी २ सुन्दरता से मन को मोहित करते हैं मह सब उसी पानी की महिमा है, यदि उस की नालियां न खोली जाती तो सम्पूर्ण नाम के वृक्ष और पस बूटे मुरझा जाते सभा फूस फल कुम्हठाकर शुरू हो जात कि जिस से उस आनंदबाग में उदासी परसने लगती और मनुष्यों के नेत्रों को जो उन के विठोकन फरने अभाव देखने से सराबट व सुख मिलता है उस क सम में भी दर्शन नहीं होते, ठीक यही दक्षा शरीरम्प भाग की रुधिररूपी पानी के साथ में समझनी चाहिये, सुजनी ! सोचो तो सही किन्दसी स्पामाम के बल से प्राचीन भारतवासी पुरुष नीरोम, Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३०१ सुडौल, बलवान् और योद्धा हो गये है कि जिन की कीर्त्ति आजतक गाई जाती है, क्या किसी ने श्रीकृष्ण, रोम, हनुमान्, भीमसेन, अर्जुन और वालि आदि योद्धाओं का नाम नहीं सुना है कि-जिन की ललकार से सिंह भी कोसो दूर भागते थे, केवल इसी व्यायाम का प्रताप था कि भारतवासियों ने समस्त भूमण्डल को अपने आधीन कर लिया था वर्त्तमान समय अभागे भारत में इस उस वीरशक्ति का केवल नाम ही रह परन्तु गया है । में बहुत से लोग यह कहते है कि हमें क्या योद्धा बन कर किसी देश को जीतना है वा पहलवान बन कर किसी से मल्लयुद्ध (कुश्ती) करना है जो हम व्यायाम के परिश्रम को उठावें इत्यादि, परन्तु यह उन की वडी भारी भूल है क्योंकि देखो ! व्यायाम केवल इसी लिये नहीं किया जाता है कि मनुष्य योद्धा वा पहलवान बने, किन्तु अभी कह चुके हैं कि- इस से रुधिर की गति के ठीक रहने से आरोग्यता बनी रहती है और आरोग्यता की अभिलाषा मनुष्यमात्र को क्या किन्तु प्राणिमात्र को होती है, यदि इस में आरोग्यता का गुण न होता तो प्राचीन जन इस का इतना आदर कभी न कि उन्होने किया है, सत्य पूछो तो व्यायाम ही मनुष्य का जीवन रूप के विना मनुष्य का जीवन कदापि सुस्थिर दशा में नहीं रह सकता है, करते जितना है इस के अभ्यास से ही अन्न शीघ्र पच जाता है, भूख अच्छे प्रकार से लगती है, मनुष्य शर्दी गर्मी का सहन कर सकता है, वीर्य सम्पूर्ण शरीर में रम जाता है जिससे शरीर शोभायमान और बलयुक्त हो जाता है, इन बातों के सिवाय इस के अभ्यास से ये भी लाभ होते है कि-शरीर में जो मेद की वृद्धि और स्थूलता हो जाती है वह सब जाती रहती है, दुर्बल मनुष्य किसी कदर मोटा हो जाता है, कसरती मनुष्य के शरीर में प्रतिसमय उत्साह बना रहता है और वह निर्भय हो जाता है अर्थात् उस को किसी स्थान में भी जाने में भय नहीं लगता है, देखो ! व्यायामी पुरुष पहाड, खोह, दुर्ग, जगल और सग्रामादि भयकर स्थानों में बेखटके चले जाते है और अपने मन के मनोरथों को सिद्ध कर दिखलाते और गृहकार्यों को सुगमता से कर लेते है और चोर आदि को घर में नही आने देते है, बल्कि सत्य तो यह है कि चोर उस मार्ग होकर नही निकलते है जहा व्यायामी पुरुष रहता है, इस के अभ्यासी पुरुष को शीघ्र बुढ़ापा तथा रोगादि नहीं होते हैं, इस के करने से कुरूप मनुष्य भी अच्छे और सुडौल जान पड़ते है, परन्तु जो मनुष्य दिन में सोते, व्यायाम नहीं करते तथा दिनभर आलस्य में पड़े रहते है उन को अवश्य प्रमेह आदि रोग हो जाते है, इस लिये इन सब बातों को विचार कर सब मनुष्यों को अर्थात् व्यायाम क्योंकि देखो ! १-इन महात्मा का वर्णन देखना हो तो कलिकाल सर्वज्ञ जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिकृत संस्कृत रामायण को देखों ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ चैनसम्प्रदामशिक्षा | मवश्य स्वयं व्यायाम करना चाहिये तथा अपने सन्तानों को भी अम्बास कराना चाहिये जिस से इस भारत में पूर्ववत् बीरशक्ति पुन म्यायाम करने में सदा देश काल और शरीर का पल भी देखना इस से विपरीत दशामें रोग हो जाते हैं। प्रतिदिन व्यायाम का षा जावे । उचित है क्योंकि कसरत करने के पीछे तुरंत पानी नहीं पीना चाहिये, किन्तु एक दो घण्टे के पीछ कुछ गवामक भोजन का करना आवश्यक है जैसे- मिश्रीसयुक्त गायका यूघ ना गावाम की कदली यादि, अथवा अन्य किसी प्रकार के पुष्टिकारक लज्यू भावि जो कि देश का और प्रकृति के अनुकूल हो खाने चाहिये ॥ व्यायाम का निषेष -- मिश्रित वातपित्त रोगी, बालक, वृद्ध और अबीर्णी मनु ष्यों को कसरत नहीं करनी चाहिये, श्रीतकाल और मसन्यपातु में मच्छे प्रकार से तथा अन्य तुओं में बोड़ा व्यायाम करना मोम्म है, अति व्यायाम भी नहीं करना चाहिये क्योंकि अत्यन्त म्यायाम के करने से तृषा, क्षम, तमक, श्वास, रक्तपित, श्रम, म्हानि, कास, ज्वर और छर्दि आदि रोग हो जाते हैं । तैलमर्दन ॥ तेल का मर्दन करना भी एक मकार की कसरत है तथा लाभदायक भी है इसमे प्रतिदिन प्रात काल में खान करने से पहिले तेल की मामिव करानी चाहिये, यदि कसरत करने पाका पुरुष कसरत करने के एक घंटे पीछे शरीर में क्षेत्र का मर्दन कर वाया करे तो इस के गुणों का पार नहीं है, तेख के मर्दन के समय में इस बात का भी स्मरण रहना चाहिये कि तेल की मासि सब से अधिक पैरों में करानी चाहिये, क्योंकि पैरों में तेल की अच्छी तरह से माकित कराने से शरीर में अधिक बल भाता है, तेल के मर्दन के गुण इस प्रकार हैं - १- तेल की माघि नीरोगता और दीर्घायु की करने वाली सभा सास को बढ़ाने पोती है । २ - इस से चमड़ी सुहावनी हो जाती है तथा भ्रमड़ी का रूखापन और खसरा जाय है तथा अन्य भी चमड़ी के नाना प्रकार के रोग जाये रहते हैं और चमड़ी में नया रोग पैदा नहीं होने पाता है । रसा ३- शरीर के सांधे नरम और मजबूत हो जाते है । ४- रस और सून क पैद हुए मार्ग तुम जाते हैं । ५ - जमा हुआ सून गतिमान् छोकर घरीर में फिरने भगता है । ६-सून में मिली हुई बायु के दूर दा जान से बहुत से भानेवाला रोग रुक जाते हैं। १ दियो निरम्बरको मत उपाय आप ही मानने G Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३०३ ७-जीर्णज्वर तथा ताजे खून से तपाहुआ शरीर ठढा पड़ जाता है । ८-हवा में उड़ते हुए जहरीले तथा चेपी ( उड़कर लगनेवाले ) रोगोंके जन्तु तथा उन के परमाणु शरीर में असर नहीं कर सकते है । ९-नित्य कसरत और तेल का मर्दन करनेवाले पुरुष की ताकत और कान्ति बढ़ती है अर्थात् पुरुषार्थ का प्राप्त होता है। १०-ऋतु तथा अपनी प्रकृति के अनुसार तेल में मसाले डालकर तैयार करके उस तेल की मालिश कराई जावे तो बहुत ही फायदा होता है, तेल के बनाने की मुख्य चार रीतिया है, उन में से प्रथम रीति यह है कि-पातालयंत्र से लोग मिलीवा और जमालगोटे का रसनिकाल कर तेल में डाल कर वह तेल पकाया जावे, दूसरी रीति यह है कितेल में डालने की यथोचित दवाइयों को उकाल कर उन का रस निकालकर तेल में डाल के वह (तेल ) पकाया जावे, तीसरी रीति यह है कि-घाणी में डालकर फूलों की पुट देकर चमेली और मोगरे आदि का तेल बनाया जावे तथा चौथी रीति यह है कि सूखे मसालो को कूट कर जल में आई (गीला) कर तेल में डाल कर मिट्टी के वर्तन का मुख बंद कर दिन में धूप में रक्खे तथा रात को अन्दर रक्खे तथा एक महीने के बाद छान कर काम में लावे। ___ वैद्यक शास्त्रों में दवाइयों के साथ में सब रोगों को मिटाने के लिये न्यारे २ तैल और घी के बनाने की विधिया लिखी है, वे सब विधिया आवश्यकता के अनुसार उन्हीं ग्रन्थों में देख लेनी चाहिये, ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहा उन का वर्णन नही करते है। तेलमर्दन की प्रथा मलवारदेश तथा बंगदेश (पूर्व ) में अभीतक जारी है परन्तु अन्य देशों में इस की प्रथा बहुत ही कम दीखती है यह बडे शोक की बात है, इस लिये सुजन पुरुषों को इस विषय में अवश्य ध्यान देना चाहिये । दवा का जो तेल बनाया जाता है उस का असर केवल चार महीने तक रहता है पीछे वह हीनसत्त्व होजाताहै अर्थात् शास्त्र में कहा हुआ उस का वह गुण नहीं रहता है। __ सामान्यतया तिली का सादा तेल सब के लिये फायदेमन्द होता है तथा शीतकाल में सरसों का तेल फायदेमन्द है। ___ शरीर में मर्दन कराने के सिवाय तेल को शिर में डाल कर तालए में रमाना तथा कान में और नाक में भी डालना जरूरी है, यदि सव शरीर की मालिश प्रतिदिन न बन १-परन्तु मिलावे आदि वस्तुओं का तेल निकालते समय पूरी होशियारी रखनी चाहिये ॥ __ २-सुलसा श्राविका के चरित्र में लक्षपाक तैल का वर्णन आया है तथा कल्पसूत्र की टीका में राजा सिद्धार्थ की मालिश के विषय मे शतपाक सहस्रपाक और लक्षपाक तैलों का वर्णन आया है तथा उन का गुण भी वर्णन किया गया है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ सके तो पैरो की पीडियों और हाथ पैरों के तलवों में तो अवश्य मसवाना चाहिये तथा चिर और कान में डालना तथा मसम्मना चाहिये, यदि प्रतिदिन वेळ का मर्दन न बन सके तो अठवाड़े में तो एकवार भवश्य मर्दन करवाना चाहिये और यदि यह भी न बन सके तो शीतकाल में सो अवश्य इस का मर्दन कर जाना ही चाहिये । तेल का मर्दन कराने के बाद चने के आटे से अथवा मांगले के चूर्ण से चिकनाहट को दूर कर देना चाहिये || सुगन्धित तैलों के गुण ॥ चमेली का तेलस की तासीर ठंडी और सर है । हिने का तेल - यह गर्म होता है, इस सिये स्थिन की बादीकी प्रकृति होने इस को छाया करें, चौमासेमें भी इस का उगाना कामदायक है । अरगजे का तेल - यह गर्म होता है तथा उमगन्म होता है अर्थात् इस की खुशबू सीन विनतक फेसों में बनी रहती है। गुलाम का तेल –मह ठडा होता है तथा बिसनी सुगन्धि इस में होती है उतनी दूसरे में नहीं होती है, इस की खुशबू ठंडी औौर तर होती है । केव का तेल --- यह बहुत उत्तम इवयभिम और ठंडा होता है । मोगरे का तेल - यह ठंडा और तर है । नींबू का तेल - यह ठंढा होता है तथा पितकी मकृविवालों के लिये फायदे मन्येहै ॥ ज्ञान ॥ वैकादि क मदन के पीछे सान करना चाहिये, मान करने से गर्मी का रोग, इम का ताप, रुधिर का कोप और शरीर की दुर्गन्ध दूर होकर कान्ति तेय मठ औौर प्रकाश गडता है, क्षुधा अच्छे प्रकार से लगती है, बुद्धि चैतन्य हो जाती है, आयु की वृद्धि होती है, सम्पूर्ण शरीर को आराम माम पडता है, निर्भता तथा मार्ग का स्लेव दूर होता है और १- इमसब तो उत्तम बगान की रीति का मे ही जामतो मतिसमय इन को बनाया करता है, पानिकों में को बसा कर पर परिभ्रम से बनाया जाता है, दो रुपये शेर के भाग भियतन साधारण होता है तीन चार पोष सात और दस रूपये सर के भाग का भी है, परन्तु उसकी टक पहिचान का करना यदि सरभर चमक वन में एकता भर केगड़े का घर तथा उससे साथ मान मर्द उठेगा भर ममी का भवर दिने दिने अतर मे भव का भार गरे बूर हो जात का काम नहीं भालू बहुत कम है भरात दिया मानो वह बहुत स क्ष्मी प्रस्सर सेरमर चमकी तक में एक अमजदल में भरगजे का भवर गुम्धव के वरू त में मापरेका तर दिसतो में असम्प Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ चतुर्थ अध्याय॥ आलस्य पास तक नहीं आने पाता है, देखो ! इस बात को तो सब ही लोग जानते है कि-शरीर में सहस्रों छिद्र है जिन में रोम जमे हुए है और वे निष्प्रयोजन नहीं है किन्तु सार्थक है अर्थात् इन्हीं छिद्रो में से शरीर के भीतर का पानी ( पसीना) तथा दुर्गन्धित वायु निकलता है और बाहर से उत्तम वायु शरीर के भीतर जाता है, इस लिये जव मनुप्य स्नान करता रहता है तब वे सब छिद्र खुले और साफ रहते है परन्तु सान न करने से मैल आदि के द्वारा जब ये सब छिद्र बंद हो जाते है तब ऊपर कही हुई क्रिया भी नहीं होती है, इस क्रिया के बद हो जाने से दाद, खाज, फोड़ा और फुसी आदि रोग होकर अनेक प्रकार का क्लेश देते है, इस लिये शरीर के स्वच्छ रहने के लिये प्रतिदिन स्वयं खान करना योग्य है तथा अपने बालकों को भी नित्य खान कराना उचित है। स्नान करने में निम्नलिखित नियमों का ध्यान रखना चाहिये: १-शिर पर बहुत गर्म पानी कभी नहीं डालना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से नेत्रोंको हानि पहुँचती है। २-बीमार आदमी को तथा ज्वर के जाने के बाद जबतक शरीर में ताकत न आवे तबतक स्नान नहीं करना चाहिये, उस में भी ठढे जल से तो भूल कर भी स्लान नहीं करना चाहिये । ३-बीमार और निर्वलपुरुष को भूखे पेट नहीं नहाना चाहिये अर्थात् चाह और दूध आदि का नास्ता कर एक घंटे के पीछे नहाना चाहिये । ४-शिर पर ठढा जल अथवा कुए के जल के समान गुनगुना जल, शिर के नीचे के घड़ पर सामान्य गर्म जल और कमर के नीचे के भाग पर सुहाता हुआ तेज़ गर्म जल डालना चाहिये। ५-पित्त की प्रकृतिवाले जवान आदमी को ठंडे पानी से नहाना हानि नहीं करता है किन्तु लाभ करता है। ६-सामान्यतया थोडे गर्म जल से स्नान करना प्रायः सब ही के अनुकूल आता है। ___७-यदि गर्म पानी से स्नान करना हो तो जहा बाहर की ह्वा न लगे ऐसे बंद मकानमें कन्धों से स्नान करना उत्तम है, परन्तु इस बात का ठीक २ प्रवन्ध करना सामान्य जनों के लिये प्रायः असम्भवसा है, इस लिये साधारण पुरुषों को यही उचित है किसदा शीतल जल से ही स्नान करने का अभ्यास डालें। ८-जहातक हो सके स्नान के लिये ताजा जल लेना चाहिये क्योंकि ताजे जल से स्नान करने से बहुत लाभ होता है परन्तु वह ताजा जल भी खच्छ होना चाहिये । ९-स्नान के विषय में यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि तरुण तथा नीरोग पुरुषो को शीतल जल से तथा वुड्ढे दुर्बल और रोगी जनों को गुनगुने जल से खान करना चाहिये। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनसम्पदामशिक्षा || १० - शरीर को पीठी उबटन वा साबुन लगा कर रगड़ २ के खून धोना चाहिये पीछे खान करना चाहिये । ११ - खान करने के पश्चात् मोठे निर्मल कपड़े से श्वरीर को खूब पौछना चाहिये कि जिस से सम्पूर्ण शरीर के किसी भाग में तरी न रहे। १२ - गर्मिणी स्त्री को सेक लगाकर खान नहीं करना चाहिये । १३ - नेत्ररोग, मुखरोग, कर्णरोग, अतीसार, पीनस तथा ज्वर भादि रोगवालों को स्वान नहीं करना चाहिये । १४ - मान करने से प्रथम भगवा प्रात काल में नेत्रों में ठंडे पानी के छींटे देकर मोना बहुत कामदायक है । १५ - मान करने के बाद घंटे दो घण्टे द्रव्यभाव से ईश्वर की भक्ति को ध्यान लगाकर करना चाहिये, यदि भधिक न बन सके यो एक सामामिक को तो शास्त्रोक नियमानुसार गृहस्थों को भवश्य करना ही चाहिये, क्योंकि जो पुरुष इतना भी नहीं करता है वह गृहस्थाश्रम की पश्चिमें नहीं गिना जा सकता है अर्थात् वह गृहस्य नहीं है किन्तु उसे इस (गृहस्य ) ग्रामम से भी आए और पतित समझना चाहिये || पैर घोना ॥ पैरों के बोने से यकावट माती रहती है, पैरों का मैल निकल जाने से स्वच्छता मा खाती है, नेत्रों को तरावट तथा मन को आनंद माप्त होता है, इस कारण जब कहीं से चलकर मामा हो वा चब मावश्यकता हो तब पैरों को धोकर पोंछ डालना चाहिये, यदि सोते समय पैर पोकर शमन करे तो नींव मध्छे प्रकार से भागाती है । भोजन ॥ प्यारे मित्रो ! यह सब ही मानते हैं कि मन के ही भोजन से प्राणी नवते मौर जीवित रहते हैं इस के बिना न तो प्राणी बीमित ही रह सकते हैं और न कुछ कर ही सकते हैं, इसी किये चतुर पुरुषों ने कहा है कि माम अलमय है यद्यपि मोमन का रिगाम मिल २ देशों के भिन्न २ पुरुषों का मिन्न २ है इसलिये यहां पर उस के छिलने की कोई भागश्यकता मवीस नहीं होती है तथापि यहां पर संक्षेप से शास्त्रीय नियम के अनुसार सामान्यतमा सर्व हितकारी यो भोजन है उस का वर्णन किया जाता है: - १- बहुत से श्रीकीन योग से बने हुए एसर साबुन को पा कर लाग करते है परन्तु धर्म से होने की तरफ क्या नहीं करते है, मरि साबुन बाकर नहाना से तो उत्तम देसी साबुन लाकर महाना चाहिये क्योंकि देसी साबुन में चर्चा नहीं होती है १- म को अंडा कहते है, રોજ ૨૫ क्योंकि इससे अंग पो जाता है मा प्रायः य का भ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३०७ जो भोजन स्वच्छ और शास्त्रीय नियम से बना हुआ हो, बल बुद्धि आरोग्यता और आयु का बढ़ानेवाला तथा सात्त्विकी (सतो गुण से युक्त) हो, वही भोजन करना चाहिये, जो लोग ऐसा करते है वे इस जन्म और पर जन्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप मनुष्य जन्म के चारों फलो को प्राप्त कर लेते है और वास्तव में जो पदार्थ उक्तगुणो से युक्त है उन्ही पदार्थों को भक्ष्य भी कहा गया है, परन्तु जिस भोजन से मन बुद्धि शरीर और धातुओं में विषमता हो उस को अभक्ष्य कहते है, इसी कारण अभक्ष्य भोजन की आज्ञा शास्त्रकारो ने नहीं दी है। भोजन मुख्यतया तीन प्रकार का होता है जिस का वर्णन इस प्रकार है: १-जो भोजन अवस्था, चित्त की स्थिरता, वीर्य, उत्साह, वल, आरोग्यता और उपशमात्मक (शान्तिखरूप) सुख का बढाने वाला, रसयुक्त, कोमल और तर हो, जिस का रस चिरकालतक ठहरनेवाला हो तथा जिस के देखने से मन प्रसन्न हो, उस भोजन को सात्त्विक भोजन कहते है अर्थात् इस प्रकार के भोजन के खाने से सात्त्विक भाव उत्पन्न होता है । २-जो भोजन अति चर्परा, खट्टा, खारी, गर्म, तीक्ष्ण, रूक्ष और दाहकारी है, उस को राजसी भोजन कहते है अर्थात् इस प्रकार के भोजन के खाने से राजसी भाव उत्पन्न होता है। ३-जो भोजन बहुत काल का बना हुआ हो, अतिठढा, रूखा, दुर्गन्धि युक्त, वासा तथा जूठा हो, उस भोजन को तामसी भोजन कहा है अर्थात् इस प्रकार के भोजन के खाने से तमोगुणी भाव उत्पन्न होता है, इस प्रकार के भोजन को शास्त्रों में अभक्ष्य कहा है, इस प्रकार के निषिद्ध भोजन के सेवन से विपूचिका आदि रोग भी हो जाते है । भोजन के नियम ॥ १-भोजन बनाने का स्थान (रसोईघर ) हमेशा साफ रहना चाहिये तथा यह स्थान अन्य स्थानों से अलग होना चाहिये अर्थात् भोजन बनाने की जगह, भोजन करने की जगह, आटा दाल आदि सामान रखने की जगह, पानी रखने की जगह, सोने की जगह, बैठने की जगह, धर्मध्यान करने की जगह तथा स्नान करने की जगह, ये सब स्थान अलग २ होने चाहिये तथा इन स्थानों में चादनी भी बाधना चाहिये कि जिस से मकड़ी और गिलहरी आदि जहरीले जानवरों की लार और मल मूत्र आदि के गिरने से पैदा होनेवाले अनेक रोगों से रक्षा रहे ।। २-रसोई बनाने के सब वर्तन साफ रहने चाहिये, पीतल और ताबे आदि धातु के बासन में खटाई की चीज विलकुल नहीं बनानी चाहिये और न रखनी चाहिये, मिट्टी का बासन सब से उत्तम होता है, क्योंकि इस में खटाई आदि किसी प्रकार की कोई वस्तु कभी नहीं बिगड़ती है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ मैनसम्पदामशिक्षा ॥ ३-भोमन का पनानेवाग (रसोइया) वैपक शाम के निममों का माननेवाम तमा उसी नियम से भोमन के सम पदार्थों का पनानेवाला होना चाहिये, सामान्यतया रसोई बनाने का कार्य गृहसों में लिमों के ही मापीन होता है इसलिये नियों को मोजन पनाने का ज्ञान पच्छे प्रकार से होना मावश्यक है। -मोनन करने का सान मोबन बनाने के स्थान से भला और हनादार होना पाहिये, उस को अच्छे प्रकार से सफेवी से पुतमासे रहना चाहिये तथा उस में नाना प्रकार की सुगन्धित मनोहर और मनोसी वस्तुयें रक्सी रहनी चाहिये जिन देसने से नेशे को आनद तमा मन को हर्ष प्राप्त होवे। ५भोजन बनाने के सब पदार्थ (माटा वाल और मसासे भावि) मच्छी तरह जुने बीने (साफ किये हुए) हों वपा पातु के अनुच्छ हो और उन पदार्थों को ऐसा पाना चाहिये कि न सो भपकचे रहें और न विशेष चरने पावें, क्योंकि मघकया तमा या हुमा भोमन पहुत हानि करसा है, उस में भी मन्दामिवालों के लिये तो उक (अप कपा तथा बाहुआ) भोगन विष के समान है। ६-भोमन सदा नियत समय पर करना उचित है, क्योंकि ऐसा करने से मोमन ठीक -समय पर पचकर भूस को लगाता है, भोमन करने के बाद पाप घटे तक फिर भोजन नहीं करना चाहिये, एवं अपूरी मूस में तमा भनीर्म में भी भोजन नहीं करना चाहिये, इस के सिवाय हेमा और सविपात में तो दोष के पके विना (जरता यावादि योप पक मजावें तबतक) भोजन करना मानो मौत की निशानी है, मच्छी तरह से मूल मगने के माव मूस को मारना भी नहीं चाहिये, क्योंकि भूस लगने के बाव न साने से विना ईपन की भमि के समान शरीर की ममि गुम जाती है, इस सिमे प्रतिदिन निममित समय पर ही भोजन करना भतिउत्तम है। ७-भोवन करने के समय मम प्रसन्न रहे ऐसा पब करना चाहिये मर्भात् मन में सेव म्दानि और कोष मावि विकार किसी प्रकार नहीं होने चाहिये, पारों भोर से गोत मा एक गम सम्नी भोर एक बारिश्त उनी एक पौडी को सामने रस कर उसके उसर पयायोग्य सम्पूर्ण पदार्थों से सजिस पास को रस र मुनि को देने की माषमा माये, पथात् मानंदपूर्वक मोमन परे, मोमन में प्रथम सेंधा नमक लगा पर भवरस के पक्ष पीस टुको साना बहुत भच्छा है, भोजन मी सीधे भासन से पैठ कर करना चाहिये -ऊपर पोरे पो म सागपाल समाचाहिने मी भान रानि होती -सरी ममम मम्मे दुरे भनि यो पप सरी Bी पर मिम्तीवर या ममि उस मार्ग जम्मर पुस मावीइसी प्रमर पे भातरम निनम से पचर दी ममि पुध पाती है। 1-पर भारि उपम र पए पर पंचम्म पारिसे भार बी एसी बात सुननी पा करी पाहिये। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३०९ अर्थात् झुक कर नही करना चाहिये, क्योकि झुक कर भोजन करने से पेठ के दबे रहने के कारण पक्काशय की धमनी निर्बल हो जाती है और उस के निर्बल होने मे भोजन ठीक समय पर नही पचता है इस लिये सदा छाती को उठा कर भोजन करना चाहिये । ८ - भोजन करते समय न तो अति विलम्ब और न अति शीघ्रता ही करनी चाहिये अर्थात् अच्छी तरह से धीरे २ चवा २ कर खाना चाहिये, क्योकि अच्छी तरह से धीरे २ चवा २ कर न खाने से भोजन के पचने में देरी लगती है तथा वह हानि भी करता है, भोजन के चबाने के विषय में डाक्टरो का यह सिद्धान्त है कि जितने समय में २५ की गिनती गिनी जा सके उतने समय तक एक ग्रास को चबा कर पीछे निगलना चाहिये । ९- भोजन करने के समय माता, पिता, भाई, पाककर्त्ता, वैद्य, मित्र, पुत्र तथा खजनों ( सम्बन्धियो ) को समीप में रखना उचित है, इन के सिवाय किसी भिन्न पुरुष को भोजन करने के समय समीप में नहीं रहने देना चाहिये, क्योकि किसी २ मनुष्य की दृष्टि महाखराब होती है, भोजन करने के समय में वार्तालाप करना भी अनुचित है, क्योंकि एक इन्द्रिय से एक समय में दो कार्य ठीक रीति से नही हो सकते है, किन्तु दोनों अधूरे ही रह जाते हैं, अतः एक समय में एक इन्द्रिय से एक ही काम लेना योग्य है, हा मित्र आदि लोग भोजन समय में उत्तम प्रसन्न करने वाली तथा प्रीतिकारक बातों को सुनाते जायें तो अच्छी बात है, यह भी स्मरण रहे कि -भोजन करने में जो रस अधिक होता है उसी के तुल्य दूसरे रस भी बन जाते है, भोजन करते समय रोटी और रोट आदि कड़े पदार्थों को प्रथम घी से खाना चाहिये पीछे दाल और शाक आदि के साथ खाना चाहिये, पित्त तथा वायु की प्रकृतिवाले पुरुष को मीठे पदार्थ भोजन के मध्य १- बहुत से लोग इस कहावत पर आरूढ हैं कि- “स्त्री का नहाना और पुरुष का खाना" तथा इस का अर्थ ऐसा करते हैं कि स्त्री जैसे फुर्ती से नहा लेती है वैसे ही पुरुष को फुर्ती के साथ भोजन कर लेना चाहिये, परन्तु वास्तव में इस कहावत का यह अर्थ नहीं है जैसा कि वे समझ रहे हैं, क्योंकि आजकल की मूर्खा स्त्रिया जो ज्ञान करती हैं वह वास्तव मे स्नान ही नहीं है, आजकल की स्त्रियों का तो ज्ञान यह है कि उन्होंने नम होकर शरीर पर पानी डाला और तत्काल घाघरा पहना, वस स्नान हो गया, अब अविद्या देवी के उपासकों ने यह समझ लिया कि स्त्री का नहाना और पुरुष का खाना समान समय में होना चाहिये, परन्तु उन को कुछ तो अक्ल से भी खुदा को पहचानना चाहिये ( कुछ तो बुद्धि से भी सोचना चाहिये) देखो ! प्रथम लिख आये हैं कि - स्नान केवल शरीर के मैल को साफ करने के लिये किया जाता है तो यह स्नान ( कि स्त्री ने शरीर पर पानी डाला और तत्काल घाघरा पहना ) क्या वास्तव में स्नान क्या लाभ है । इस लिये यद्यपि यह कहावत उलटा कर लिया है, इस का असली मतलव कहा जा सकता है ? कभी नहीं, क्योंकि कहिये इस स्नान से तो ठीक है परन्तु अविद्या देवी के उपासकों ने इस का अर्थ यह है कि- जैसे स्त्री एकान्त में बैठकर धीरे २ नहाती है अर्थात् सम्पूर्ण प्रकार से पुरुष भी एकान्त में बैठ कर स्थिरता के साथ अर्थात् खूव चवा शरीर का मैल दूर करती है उसी २ कर भोजन करे ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० चैनसम्प्रदायशिक्षा | में स्वाने चाहियें, पीछे वाक भाव आदि नरम पदार्थों को खाकर अन्त में दूम या छाछ आदि पतले पदार्थों को खाना चाहिये, मन्दामिवाले के लिये उड़द मावि पदार्थ स्वमान से ही मारी होते हैं तथा मूंग, मौठ, चना और मरहर, ये सब परिमाण से अधिक स्वाये जाने से मारी होते हैं, मिस्से की पूड़ी या रोटी भी मन्यामिवाले को बहुत हानि पहुँ पाती है मर्षात् पेट में मल और वायु को मनाती है तथा इस के सिवाय अतीसार और संग्रहणी के भी होने में कोई आश्चर्य नहीं होता है, बाहुआ मन बनाने के फेर फार से भारी हो जाता है, जैसे गेहूँ का दलिया रांगा जावे तो वह वैसा भारी नहीं होता है जैसी कि छापसी मारी मर्थात् गरिष्ठ होती है । १० - भोजन के समय में पहिले पानी के पीने से अभिभव होनाती है, बीच २ में मोड़ा २ एका वार व पीने से वह ( अ ) भी के समान फायदा करता है, भोजन के अन्त में आचमनमात्र ( सीन घूट ) बछ पीना चाहिये, इस के बाद अव प्यास को तम जल पीना चाहिये, ऐसा करने से भोजन मच्छीवरह पच जाता है, भोमन के भन्त में अधिक व पीने से अन्न हजम नहीं होता है, भोजन को खूब पेटमर कर (गजेवक ) कमी नहीं करना चाहिये, देखो ! वापर का फमन है कि--मम मोअन अच्छी तरह से पचता है तब तो उस का रस हो आता है सभा वह (रस) श्वरीर का पोपण करने में अमृत के तुम होता है और अब भोखन अच्छी तरह से नहीं पचता है तब रस न होकर बाम हो जाता है और वह नाम विष के तुल्य होता है इस लिये मनुष्यों को मि के मत के अनुसार मोमन करना चाहिये । ११ - बहुत से पदार्थ अत्यन्त गुण कारी हैं परन्तु दूसरी चीम के साथ मिलने से बे हानिकारी हो जाते हैं तथा उन की हानि मनुष्यों को एकदम नहीं मासूम होती है किन्तु उस के बीज घरीर में छिपे हुए भगरम रहते हैं, जैसे प्रीष्म ऋतु में जंगल के अन्दर ममीन में देखा जाये तो कुछ भी नहीं दीखता है परन्तु अब के बरसने पर माना प्रकार के बीजों के मडर निकल जाते हैं, इसी प्रकार ऊपर एकदम दान नहीं मालूम होती है किंतु वे इकडे होकर ज़ोर दिखा देते हैं, मो २ पदार्थ धूप के साथ में मिलने से हुए पदार्थों के खाने से किसी समय एकदम अपना विरोधी हो जाते हैं उन को १उपयं कुआ से तीन भागों को राना चाहिये १-हुत से कृपा है, है कि 'मनुमपस्स सम्मे १ ॥ अर्थात् बुद्धि के द्वारा जनस्य कुमाददस्य हो भो बाउ परिभारका मान अपना कर के अपने उपर के माय करने चाहिये जब में तो भ्रम से भरना चाहिये दो मामों को पानी से मरना चाहिये तथा एक नाम को बा जिसे उमय भीर निवास सुखपूर्वक भाषा पता रहे में यह अनिया देवी जूण में दो दिन की कसर एक ही उन को भरोनिया है । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३११ तो हम दूध के प्रकरण में पहिले लिख चुके है, शेप कुछ पदार्थों को यहां लिखते है-~केला और छाछ, केला और दही, दही और उष्ण पदार्थ, घी और शहद समान भागमें तथा शहद और पानी वरावर वज़न में, ये सब पदार्थ सङ्गदोप से अत्यन्त हानिकारक हो जाते है अर्थात् विप के तुल्य होजाते है, एवं वासा अन्न फिर गर्म करने से अत्यन्त हानि करता है, इस के सिवाय-गर्म पदार्थ और वर्षा के जल के साथ शहद, खिचड़ी के साथ खीर, बेल के फल के साथ केला, कासे के पात्र में दशदिनतक रक्खा रहा हुआ घी, जल के साथ घी और तेल, तथा पुनः गर्म किया हुआ काढ़ा, ये सब ही पदार्थ हानि कारक है, इसलिये इन का त्याग करना चाहिये। १२-सायंकाल का भोजन दो घड़ी दिन शेप रहने पर ही कर लेना चाहिये तथा शाम को हलका भोजन करना चाहिये किन्तु रात्रि में भोजन कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि जैन सिद्धान्त में तथा वैद्यक शास्त्रो में रात्रिभोजन का अत्यंत निषेध किया है, इस का कारण सिर्फ यही है कि-रात्रि को भोजन करने में भोजन के साथ छोटे २ जन्तुओं के पेट मे चले जाने के द्वारा अनेक हानियों की सम्भावना रहती है, देखो! रात्रि में भोजन के अन्दर यदि लाल तथा काली चीटिया खाने में आजावें तो बुद्धि भ्रष्ट होकर पागलपन होता है, जुयें से जलोदर, काटे तथा केश से स्वरभंग तथा मकडी से पित्ती के ददोड़े, दाह, वमन और दस्त आदि होते है, इसी प्रकार अनेक जन्तुओ से बदहज़मी आदि अनेक रोगो के होने की सम्भावना रहती है, इस लिये रात्रि का भोजन अन्धे के भोजन के समान होता है, (प्रश्न ) बहुत से महेश्वरी वैश्यों से सुना है कि हमारे शास्त्रों में एक सूर्य में दो बार भोजन का करना मना है इसलिये दूसरे समय का भोजन रात्रि में ही करना उचित है, (उत्तर ) मालूम होता है कि उन (वैश्यों) को उन के पोप और खार्थी गुरुओं ने अपने खार्थ के लिये ऐसा बहका दिया है और बेचारे भोले भाले महे. श्वरी वैश्यों ने अपने शास्त्रों को तो देखा नही, न देखने की उन में शक्ति है इस लिये पोप लोगों से सुन कर उन्हों ने रात्रि में भोजन करने का प्रारम्भ कर दिया, देखो! हम उन्हीं के शास्त्रों का प्रमाण रात्रिभोजन के निषेध में देते है-यदि अपने शास्त्रो पर विश्वास हो तो उन महेश्वरी वैश्यों को इस भव और पर भव में दुःखकारी रात्रिभोजन को त्याग देना चाहिये १-शेप सयोग विरुद्ध पदार्थों का वर्णन दूसरे वैयक ग्रन्थों में देखना चाहिये। २-यद्यपि घी और शहद तथा शहद और जल प्राय दवा आदि के काम में लिया जाता है और वह वहुत फायदेमन्द भी है परन्तु वरावर होने से हानि करता है, इस लिये इन दोनों को समान भाग में कभी नहीं लेना चाहिये। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनसम्प्रदायशिमा ॥ सो ! महा मारत मन्त्र में लिखा है कि मयमांसाशन रात्री, भोजन कन्दभक्षणम् ।। ये कर्षन्ति वृथा तेपा, तीर्थयात्रा जपस्तप ॥१॥ मर्यात् यो पुरुष मप पीते हैं, मांस सासे हैं, रात्रि में भोजन करते हैं और ये को साते हैं उन की वीर्ययात्रा, वप पोर तप सन पा है ॥ १॥ मार्कण्डेयपुराण का पपन है कि अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते ॥ भन्न मांससमं प्रोफ, मार्कण्यमहर्पिणा ॥१॥ अर्थात् विवानाच (सूर्य) के मस्त होने के पीछे चल रुधिर के समान मौर अध मांस के समान कहा है, यह पचन मार्कणेय अपि का है ॥ १ ॥ इसी प्रकार महामारत मन्त्र में पुन कहा गया है कि घस्वारि नरफमार, प्रथमं रात्रिभोजनम् ॥ परस्त्री गमनं चैव, सन्धानानन्तकायकम् ॥१॥ पे रात्री सर्ववाहार, वर्जयन्ति समेघस' ॥ तेषां पक्षोपवासस्प, फल मासेन जायते ॥२॥ नोदमपि पातम्य, राम्राषत्र युधिष्ठिर ॥ तपस्विनां पिशेषेण, गहिणां ज्ञानसम्पदाम् ॥३॥ मात-पार कार्य नरक के द्वाररूप हैं-ममम-रात्रि में भोजन करना, दूसरा पर मी में गमन करना, सीसरा संभाना (भाचार ) साना भौर चौमा-अनन्त काम मर्मात् मनन्त जीववाले कन्द मूह मावि वस्तुओं को साना ॥१॥ यो बुद्धिमान् पुरुप एक महीनेत निरन्तर राधिमोबन का स्याग करते हैं उन को एक पस के उपमास का फत प्राप्त होता है।॥ २ ॥ इस म्मेि हे युधिष्ठिर ! शानी गृहस को और निक्षेप कर वपसी को रात्रि में पानी भी नहीं पीना चाहिये ॥ ३ ॥ इसी प्रकार से सम शामों में रात्रिमा बन का निपेप किया है परन्तु अन्य के निखार के मय से भय विशेप प्रमाणों को नहीं रिसते हैं, इसलिये उद्धिमानों को उचित है कि सप प्रकार के साने पीने के पदार्थों का कमी भी रात्रि में उपयोग न फरें, यदि कभी प फठिन रोगावि में भी कोई दवा या खराक को रात्रि में उपयोग के न्येि बतमाये वो भी सभा धमय उसे रात्रि में नहीं लेना पाहिये किन्तु सोने से दो तीन भण्टे पहिले ही लेना पारिये, क्योंकि पन्य पुरुपयेही जो कि सूर्य की सादी से ही सान पान करके भपने प्रठ का निर्वाह करते हैं। १-पत्रिी के मारे जानु तप ऐती से पप, अमे-भात, मी कोरा और पाया भारि Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय । - ३१३ १३-एक थाली वा पत्तल में अधिक मनुष्यो को भोजन करना योग्य नहीं है, क्योंकि-प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव पृथक् २ होता है, देखो ! कोई चाहता है कि मैं दाल भात को मिला कर स्वाऊँ, किसी की रुचि इस के विरुद्ध होती है, इसी प्रकार अन्य जनों का भी अन्य प्रकार का ही खभाव होता है तो इस दशा में साथ में खानेवाले सब ही लोगों को अरुचि से भोजन करना पड़ता है और भोजन में अरुचि होने से अन्न अच्छे प्रकार से नहीं पचता है, साथ में खाने के द्वारा अरुचि के उत्पन्न होने से बहुधा मनुष्य भूखे भी उठ बैठते है और बहुतों को नाना प्रकार के रोग भी हो जाते है, इस . के सिवाय प्रत्येक पुरुष के हाथ वारंवार मुँह में लगते है फिर भोजनों में लगते हैं, इस कारण एक के रोग दूसरे में प्रवेश कर जाते है, इस के अतिरिक्त यह भी एक बड़ी ही विचारणीय बात है कि यदि कुटुम्ब का दूरदेशस्थ (जो दूर देश में रहता है वह ) कोई एक सम्बंधी पुरुप गुप्तरूप से मद्य वा मास का सेवन करता है अथवा व्यभिचार में लिप्त है तो एक साथ खाने पीने से अन्य मनुष्यों की भी पवित्रता में धव्वा लग जाता है, शास्त्रों में जूठे भोजन का करना महापाप भी कहा है और यह सत्य भी है क्योकि इस से केवल शारीरिक रोग ही उत्पन्न नहीं होते है किन्तु यह बुद्धि को अशुद्ध कर उस के सम्पूर्ण वल का भी नाश कर देता है, प्रत्यक्ष में ही देख लीजिये कि-जो मनुष्य जूठा भोजन खाते है उन के मस्तक गन्दे ( मलीन) होते हैं कि जिस से उन में सोच विचार करने का स्वभाव बिलकुल ही नहीं रहता है, इस का कारण यही है कि जूठा भोजन करने से स्वच्छता का नाश होता है और जहा स्वच्छता वा शुद्धता नहीं है वहां भला शुद्धबुद्धि का क्या काम है, जूठा खाने वालों की बुद्धि मोटी हो जाने से उन में सभ्यता भी नहीं देखी जाती है, इन्ही कारणो से धर्मशास्त्रों में भी जूठाखाने का अत्यन्त निषेध किया है, इसलिये आर्य पुरुपो का यही धर्म है कि-चाहें अपना लड़का ही क्यो न हो उस को भी जूठा भोजन न दें और न उस का जूठा आप खावें, सत्य तो यह है कि जूठ और झूठ, इन दोनों का बाल्यावस्था से ही त्याग कर देना उचित है अर्थात् बचपन से ही झूठ वचन और जूठे भोजन से घृणा करना उचित है, बहुधा देखा जाता है किहमारे खदेशीय बन्धु (जो न तो धर्मशास्त्रो का ही अवलोकन करते हैं और न कभी उन को किसी विद्वान् से सुनते है वे ) अपने छोटे २ बच्चों को अपने साथ में भोजन कराने में उन का जूठा आप खाने में तथा अपना पिया हुआ पानी उन्हें पिलाने में बडा ही लाड़ समझते है, यह अत्यत ही शोक का विषय है कि वे महानिन्दित कर्म को लाड़ प्यार वा अपना धर्म कार्य समझें तथा उन ( बच्चों ) की बुद्धि का नाश मार कर उन के १-सिर्फ यही हेतु है कि कोढी को कोई भी अपने साथ मे भोजन नहीं कराता है । २-क्योंकि सभ्यता शुद्धबुद्धि का फल है, उन की बुद्धि शुद्ध न होने से उन के पास सभ्यता कहा ? ४० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनसम्प्रदायशिक्षा || सर्वस्व का सत्यानाश कर दें और तिस पर भी उन के परम हितैषी कहलाने, हा शोक ! हा शोक !! हा ठोक ! ! ! १४ - मोजन करने के बाद मुख को पानी के कुर्ते कर साफ कर लेना चाहिये तथा दाँतों की चिमटी भादि से दाँतों और मसूड़ों में से जूठन को बिलकुल निकाल डा चाहिये, क्योंकि खुराक का मन मसूड़ों में वा दाँतों की जड़ में रह जाने से मुख में दुर्गन्धि आने लगती है तथा दाँखों का और मुख का रोग मी उत्पन्न हो जाता है ! १५- भोजन करने के पीछे सो कदम टहलना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से मन पचता और वायु की वृद्धि होती है, इसके पीछे मोड़ी देर तक पलंग पर लेटना चाहिये, इस से मंग पुष्ट होता है, परन्तु बेटकर नींद नहीं केनी चाहिये, क्योंकि नींव के छेने से रोग उत्पन्न होते हैं, इस विषय में यह भी स्मरण रहे कि माता को भोजन करने के पश्चात् पगपर पाये और दहिने करवट से लेटना चाहिये परन्तु नींव नहीं छेनी चाहिये तथा सामकास्त्र को भोजन करने के पश्चात् टहकना परम लाभदायक है । तिपाई और कुर्सी आदि पर बैठने, नींव १६ - भोजन करने के पश्चात् प्रेम, स्टूल छेने, भाग के सन्मुख बैठने, भूप में भरने, दौड़ने, घोड़े पाट मावि की सबारी पर चढ़ने तथा कसरत करने भावि से नाना प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिये भोजन के पश्चात् एक घण्टे वा इस से भी कुछ अधिक समयतक ऐसे काम नहीं करने चाहियें । १७- मोचन के पाचन के लिये किसी चूर्ण को खाना वा सर्वेस आदि को पीना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से पैसा ही मम्बास पर जाता है और पैसा अभ्यास पर जाने पर चूर्ण आदि के सेवन किये बिना अन्न का पाचन ही नहीं होता है, कुछ समयतक ऐसा अम्बास रहने से बठरामि की स्वाभाविक देखी न रहने से भारोम्यता में अन्तर पर जाता है। मोमन पर भोजन करना, भर खाना तथा भव उत्पन्न हो जाते हैं, इस १८ - भोजन के समय में अत्यस पानी का पीना, विना पधे बिना मूख के खाना, भूख का मारना, आपसेर के स्थान में सेर न्यून खाना आदि कारणों से धमीर्ण तथा मम्दामि भादि रोग सिमे इन भावों से बचते रहना चाहिये । १९ पध्यानस्य वर्णन में तथा धातुभर्या गर्जन में जो कुछ भोजन के विषय में मिला गया है उस का सदैव सन्यास रखना चाहिये ॥ १- हा भारत ! वरे मित्र में माला प्रकार के बजे कप मे है, क्याकि इस रेस में बहुधा ऐसे मत है कि जिन में गृहस्व पुरुषों और वियों को गुरु का झूठा पाना भी धर्म का भग्र मान्य है और तमना मना है और जिस से रियार समचार्य गुरु का सूप परसाद (प्रसाद) झूठा पानी भी अमृत के समान मान कर बेचारे भाले श्री पुरुष पीत है, हे मित्रमण ! भवा अब तो सोचे म भरा हो। तुम इस अगिया बड़ लिए में कपड़े छोटे रहोगे । -भोजन का विशेष वर्णन भोजन का आदि प्रम्यों में किया गया है, वहां देख चाहिने Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ चतुर्थ अध्याय - मुख सुगन्ध ॥ ___ पहिले कह चुके हैं कि भोजन के पश्चात् पानी के कुर्ले करके मुख को साफ कर लेना चाहिये तथा दाँतों और मसूड़ों को भी खूब शुद्ध कर लेना चाहिये, आजकल इस देश में भोजन के पश्चात् मुख सुगन्ध के लिये अनेक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है, सो यदि मुख को पानी आदि के द्वारा ही बिलकुल साफ कर लिया जावे तो दूसरी वस्तु के उपयोग की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि मुखसुगन्ध का प्रयोजन केवल मुख को साफ रखने का है, जब जलादि के द्वारा मुख और दॉत आदि विलकुल साफ हो गये तो सुपारी तथा पान चबाने आदि की कोई आवश्यकता नहीं है, हा यदि कभी विशेप रुचि वा आवश्यकता हो तो वस्तुविशेप का भी उपयोग कर लेना चाहिये परन्तु उस की आदत नही डालनी चाहिये। ___ मुखसुगन्ध के लिये अपने देश में सुपारी पान और इलायची आदि मुख्य पदार्थ है, परन्तु इस समय में तो घर घर (प्रति गृह ) चिलम हुक्का और सिगरेट ही प्रधानता के साथ वर्ताव में आते हुए देखे जाते है, पूर्व समय में इस देशवाले पुरुप इन में बड़ा ऐव समझते थे, परन्तु अब तो विछौने से उठते ही यही हरिभजनरूप बन गया है तथा इसी को अविद्या देवी के उपासकों ने मुखवासक भी ठहरा रक्खा है, यह उन की महा अज्ञानता है, देखो ! मुखवास का प्रयोजन तो केवल इतना ही है कि डाढ़ों तथा दाँतों में यदि कोई अन्न का अश रह गया हो तो किसी चावने की चीज के चावने से उस के साय में वह अन्न का अंश भी चावा जाकर साफ हो जावे तथा वह ( चावने की) चीज खुशबूदार और फायदेमन्द हो तो मुंह सुवासित भी हो जाये तथा थूक को पैदा करने वाली हो तो वह थूक होजरी में जाकर खाये हुए पदार्थ के पचाने में भी सहायक हो जावे, इसी लिये तो उक्त गुणों से युक्त नागर वेल के पान, कत्था, चूना, केसर, कस्तूरी, सुपारी, इलायची और भीमसेनी कपूर आदि पदार्थ उपयोग में लिये जाते है, परन्तु तमाखू, गाजा, सुलफा और चडूले से मुख की जैसी सुवास होती है वह तो ससार से छिपी नहीं है, यद्यपि तमाखू में थूक की पैदा करने का खभाव तो है परन्तु वह थूक ऐसा निकृष्ट होता है कि भीतर पहुँचते ही भीतर स्थित तमाम खाये पिये को उसीवख्त निकाल कर वाहर ले आता है, इस के विषय में जो बुद्धिमानों का यह कथन है कि-"इस को खावे उसका घर और मुंह भ्रष्ट, इस को पिये उसका जन्म और मुँह भ्रष्ट, इस को सूंघे उस के कपड़े भ्रष्टै" सो यह वात बिलकुल ही सत्य है तथा इस का अनुभव भी प्रायः वर्णन है। १-प्रत्याख्यान (पचक्खाण ) भाष्य की टीका में द्विविधाहार (दुविहार ) के निर्णय में मुखवास का भी २-चडूल अर्थात् चण्डू (कहना तो इसे चण्डल ही चाहिये ) 3-दक्षिण के लोग पान के साथ तमाखू खाते हैं, उन का भी यही हाल है।" Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ बैनसम्प्रदायरिया ॥ सम ही को होगा, समासू के कवरदान (कवर करनेवाले) बड़े भावमी समाखू घ रस थूकने के लिये पीक धान रखते हैं परन्तु हम को बड़ा माचर्य होता है कि मिस तमाखू केयूक को मे बठरामि का उपयोगी समझते हैं उस को निरर्थक क्यों जाने देते हैं। ___ अब जो गेग मुसपास के लिये प्राय सुपारी का सेवन करते हैं उस के विषय में मी संक्षेप से मिलकर पाठकगण को उसके हानि नाम विस्तकाते हैं___ सुपारी मुसमास के लिये एक भच्छी चीम है परन्तु इसे बहुत ही बोरा साना माहिये, क्योंकि इस का भधिक साना हानि करता है, पूर्व सपा दक्षिण में भी पुरुष छातियों को तमा बीकानेर मादि मारवाद देठस नगरों में करवे में उबारी हुई पिकनी सुपारियों को सेरों सा पाते हैं, इस से परिणाम में हानि होती है, यपपि इस का सेवन लिमों के लिये तो फिर मी कुछ भच्छा है परन्तु पुरुषों को सो नुक्सान ही करता है, सुपारी में घरीर के सांपों को प्रभा पात को रीग करने का समाव है, इस लिये सास कर पुरुषों को इस प्र भपिक खाना कमी भी उचित नहीं है, इस सिमे भावश्यकता के समय भोजन करने के बाद इस का जरा सा टुकड़ा मुस में गलकर भागना चाहिये तमा उस न थूक निगम बाना चाहिये परन्तु मुख में माहुमा उस का फूचट (गुश) यूक देना पाहिये, सुपारी मनावा टुकड़ा कंठ को मिगारताहै। ___ पाने का सेवन यदि किया जाये तो पर वामा और मुँह में गर्मी न करे ऐसा होना पोहिये, किन्तु व्यसनी बन कर मैसा मिरे वैसा ही पान लेने से उष्टी हानि होती है तथा सब दिन पानों को पावते रहना मगरीपन भी समझा जाता है, पहुत पान साने से पा आँस भौर शरीर का तेज, बाल, बात, मठरामि, कान, रूप मौर ताम्त को नुकसान पपासा रे, इसलिये बोड़ा साना ठीक है। __ पानों के साम में वो कर बौर पूने का उपयोग किया जाता है उस में भी किसी तरह की दूसरी पीमकी मिठापट नहीं होनी चाहिये सबा इन दोनों को पानों में ठीक २ (न्यूनापिक नहीं) मगाना चाहिये। पान भौर सुपारी के सिवाय-यपी, मैंग भोर सज भी मुस मुगन्भि की चीजें हैइन में से इसायपी तर गर्म है और फायदेमन्द होती है परन्तु इसे भी मषित मही साना पाहिये सन और सौंग बापु भौर कफ की मविवार को मोड़ी २ सानी पाहिये। -पास भीर पन्वरे अमपुर के गम होते. २-पावनड में ममा पान पसारवाई। 1-पान बनेपामा परि इम सप पाये प्रभी मनसे वो उनो पार पाने प्रयास रना ॥ -माने में ये (सफेर) इयची परपसोय करना चाहिये। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३१७ मुखसुगन्धि की सब चीजो में से धनियां और सौंफ, ये दो चीजें अधिक लाभदायक मानी गई है, क्योंकि ये दीपन पाचन है, स्वादिष्ट है, कठ को सुधारती है और किसी प्रकार का विकार नहीं करती है ! __इस प्रकार भोजन क्रिया से निवृत्त होकर तथा थोडी देर तक विना निद्रा के विश्राम लेकर मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के उद्यम में प्रवृत्त होना चाहिये परन्तु वह उद्यम भी न्याय और धर्म के अनुकूल होना चाहिये अर्थात् उस उद्यम के द्वारा परापमान तथा पर हानि आदि कभी नहीं होना चाहिये, इस के सिवाय मनुप्य को दिन भर में क्रोध आदि दुर्गुणों का त्याग कर मन और इन्द्रियो को प्रसन्न करनेवाले रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि विषयों का सेवन करना चाहिये, दिन में कदापि स्त्री सेवन नहीं करना चौहिये, दिन के चार वा पाच वजे (ऋतु के अनुसार ) व्यावहारिक कार्यों से निवृत्त होकर थोडी देर तक विश्राम लेकर शौच ऑदि से निवृत्त हो जावे, पीछे यथायोग्य भोजन आदि कार्य करे भोजन के पश्चात् मील दो मील तक ( समयानुसार ) वायु सेवन के लिये अवश्य जावे, वायु के सेवन से लौट कर सायकाल सम्बधी यथावश्यक धर्म ध्यान आदि कार्य करे इस से निवृत्त होने के पश्चात् दिनचर्या का कोई कार्य अवशिष्ट नहीं रहता है किन्तु केवल निद्रारूप कार्य शेष रहता है। __जीवन की स्थिरता तथा नीरोगता के लिये निद्रा भी एक बहुत ही आवश्यक पदार्थ है इस लिये अब निद्रा वा शयन के विषय में लिखते है. शयन वा निद्रा॥ मनुष्य की आरोग्यता के लिये अच्छी तरह से नींद का आना भी एक मुख्य कारण है परन्तु अच्छी तरह से नींद के आने का सहज उपाय केवल परिश्रम है, देखो! जो लोग दिन में परिश्रम नहीं करते है किन्तु आलसी होकर पड़े रहते हैं उन को रात्रि में अच्छी तरह १-इन दोनों के सिवाय जो मुख सुगन्धि के लिये दूसरी चीजों का सेवन किया जाता है उन में देश काल और प्रकृति के विचार से कुछ न कुछ दोप अवश्य रहता है, उन में भी तमाखू आदि कई पदार्थ तो महाहानिकारक हैं, इस लिये उन से अवश्य वचना चाहिये, हा आवश्यकता हो तो ऊपर लिखे सुपारी आदि पदार्थों का उपयोग अपनी प्रकृति और देश काल आदि का विचार कर अल्प मात्रा में कर लेना चाहिये ॥ २-मन और इन्द्रियों को प्रसन्न करनेवाले रूपादि विषयों के सेवन से भोजन का परिपाक ठीक होने से आरोग्यता वनी रहती है । ३-दिन में स्त्री सेवन से आयु घटती है तथा बुद्धि मलीन हो जाती है ॥ ४-शौच आदि में प्रात काल के लिये कहे हुए नियमों का ही सेवन करे ॥ ५-रात्रिभोजन का निषेध तो अभी लिख ही चुके हैं । ६-इस कार्य का मुख्य सम्बध रात्रिचर्या से है किन्तु रात्रिचर्यारूप यही कार्य है परन्तु यहां रात्रिचर्या को पृथक् न लिखकर दिनचर्या में ही उस का समावेश कर दिया गया है ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ चैनसम्प्रदायक्षिक्षा || से 'नींद नहीं आती है, इस के अतिरिक्त परिमित तथा प्रकृति के मनुकूल आहार बिहार से भी नींदका धनिष्ठ (बहुत बड़ा ) सम्बम है, देखो ! जो लोग शाम को भषिक भोजन करते हैं उन को प्राय स्वम आया करते हैं अर्थात् पणी नींद का नाश होता है, क्योंकि मनुष्य को स्वम तब ही आते हैं जब कि उस के मगन में आठ अजाल रहते हैं और मगम को पूरा विश्राम नहीं मिलता है इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि अपनी क्षति के अनुसार शारीरिक तथा मानसिक परिश्रमों को करे और अपने आहार बिहार को भी अपनी प्रकृति तथा देश काल भादि का विचार कर करता रहे जिस से निद्रा में विषास न हो क्योंकि निद्रा के विषात से भी कालान्तर में अनेक भयंकर हानियां होती है निद्रा में विषात न होने पर्यात् ठीक नींद माने का लक्षण यही है कि मनुष्य को मनावस्था में स्वमन भावे क्योंकि स्वम दशा में विष्व की स्थिरता नहीं होती है किन्तु चलता रहती है । स्वप्नों के विषय में अर्थात् किस प्रकार का स्वम कव भासा है विषय में भिन्न २ शाम्रो तमा भिन्न २ जनामों की मिस २ फल के विषय में भी पृथक् २ सम्मति है, इन के विषय का भी है जिस में स्वमों का शुभाशुभ भादिं बहुतसा फल किला है, उक शास्त्र के अनु सार बैंचक अन्यों में भी स्वमों का शुभाशुभ फल माना है, देखो ! यागमट्ट ने रोगप्रकरण में चकुन और स्वमों का फल एक अलग प्रकरण में रोग के साम्यासाध्य के जानने के किये बिना है, उस विषय को अन्य के वन जाने के भय से अधिक नहीं मिल सकते हैं, परन्तु मगच पाठकों के ज्ञानार्थ संक्षेप से इस का वर्णन करते हैं. ← स्वमविचार || और क्यों आता है इस सम्मति है एव स्वम के मविपावक एक लमन १ - अनुभूत वस्तु का मो सम भाता है, उसे असस्य समझना चाहिये मर्षात् उस का कुछ फल नहीं होता है । २-सुनी हुई बात का भी स्वम असस्य ही होता है । ३ देखी हुई वस्तु का जो स्वम जाता है वह भी असत्य है । ४ - शोक और चिन्ता से लाया हुआ भी स्वम असत्य होता है । ५- प्रकृति के विकार से भी सम भाता है जैसे--पिच प्रकृति बाला मनुष्य पानी, फूल, अन, भोजन और रखों को स्लम में देखता है तथा हरे पीछे और ठाम रंग की वस्तुओं १ मि में समानविय दर्शनावरणी कम नींद को अच्छी नी मा २ विद्यालयों का नहीं कर धानको निमिता भवे अनेक यों में किया गया है इस सिपे नद्दो पर जब हानियों ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३१९ ___ को अधिक देखता है, तमाम रात सैकडो बाग बगीचों और फुहारों की और करता रहता है, परन्तु इसे भी असत्य समझना चाहिये, क्योकि प्रकृति के विकार से उत्पन्न होने के कारण यह कुछ भी लाभ और हानि को नहीं कर सकता है। ६-वायु की प्रकृतिवाला मनुष्य स्वप्न में पहाड़ पर चढ़ता है, वृक्षों के शिखर पर जा बैठता है और मकान के ठीक ऊपर जाकर सरक जाता है, कूदना, फादना, सबारी पर चढ़ कर हवा खाने को जाना और आकाश में उड़ना आदि कार्य उस को खप्न में अधिक दिखलाई देते हैं, इसे भी पूर्ववत् असत्य समझना चाहिये, क्योंकि प्रकृति के विकार से उत्पन्न होने से इस का भी कुछ फलाफल नहीं होता है। ७-खम वह सच्चा होता है जो कि धर्म और कर्म के प्रभाव से आया हो, वह चाहे शुभ हो अथवा अशुभ हो, उस का फल अवश्य होता है। ८-रात्रि के प्रथम पहर में देखा हुआ स्वम बारह महीने में फल देता है, दूसरे प्रहर में देखा हुआ स्वम नौ महीने में फल देता है, तीसरे प्रहर में देखा हुआ स्वप्न छः महीने में फल देता है और चौथे प्रहर में देखा हुआ स्वप्न तीन महीने में फल देता है, दो घड़ी रात बाकी रहने पर देखा हुआ खप्न दश दिन में और सूर्योदय के समय में देखा हुआ स्वप्न उसी दिन अपना फल देता है। ९-दिन में सोते हुए पुरुष को जो स्वप्न आता है वह भी असत्य होता है अर्थात् उस का कुछ फल नहीं होता है। १०-अच्छा स्वप्न देखने के बाद यदि नीद खुल जावे तो फिर नहीं सोना चाहिये किन्तु धर्मध्यान करते हुए जागते रहना चाहिये । ११-बुरा स्वप्न देखने के बाद यदि नींद खुल जावे और रात अधिक बाकी हो तो फिर सो जाना अच्छी है। १२-पहिले अच्छा स्वप्न देखा हो और पीछे बुरा स्वप्न देखा हो तो अच्छे स्वप्न का फल मारा जाता है ( नहीं होता है), किन्तु बुरे स्वप्न का फल होता है, क्योंकि बुरा स्वप्न पीछे आयाहै । १३-पहिले बुरा स्वम देखा हो और पीछे अच्छा स्वप्न देखा हो तो पिछला ही स्वप्न फल देता है अर्थात् अच्छा फल होता है, क्योंकि पिछला अच्छा स्वप्न पहिले बुरे स्वप्न के फल को नष्ट कर देता है। १-अच्छा खप्न देखने के बाद जागते रहने की इस हेतु आज्ञा है कि सो जाने पर फिर कोई बुरा खप्त आकर पहिले अच्छे खान के फल को न विगाड डाले । २-परन्तु अफसोस तो इस बात का है कि मले वा बुरे खप्न की पहचान भी तो सब लोगों को नहीं होती है । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनसम्प्रदायशिया ।। यह स्वमों का संक्षेप से वर्णन किया गया, भष प्रसंगानुसार निवारे विपम में कुछ श्रावश्यक नियमों का वर्णन किया जाता है - १-पूर्व अभया दक्षिण की तरफ सिर करके सोना चाहिये। २-सोने की जगह साफ एकान्ध में भर्यात् गरर मा चन्द से रहित भौर बादार होनी चारिये । ___३-सोने के विछोने भी साफ होने चाहिये, क्योंकि मलीन जगह भौर मतीन विछोने पर सोने से मार मादि भनेक जन्तु ससाते है जिस से नींद में पापा पहुँचती हे मोर मीनता के कारण भनेक रोग भी उत्पन हो पाते हैं। -पौमासे में नमीन पर नहीं सोना पाहिये, क्योंकि इस से शर्वी भावि के अनेक विकार होते हैं भौर मीरयन्त के काटने प्रादि का भी भय रहता है। ५-चूने के गछ पर सोना वायु और कफ की महतिमा को हानि करता है। ६-पींग आदि पर सदा मुगपम मिछौने निछा कर सोना पोहिये । ७ केवस उप्प तासीर पाले को मुरी जगह में भीम भतु में ही सोना चादिमे परन्तु मिन देशो में पोस गिरती है उन में तो खुसी नगा में मा खुली चावनी में नहीं सोना चाहिये, एवं जिस स्थान में सोने से घरीर पर हमा का भपिक सपाटा (सकोरा) सामने से मंगता हो उस स्थान में नहीं सोना चाहिये। ८-सोने के कमरे के एर्नामे तथा सिमियों को विसकुस बद कर के कमी नहीं सोना चाहिये, किन्तु एक या दो खिरपियो भवश्प मुली रखनी चाहिमें मिस से वानी वा भाती रहे। ९-महुस परने भावि मभ्यास से, बहुस विचार से, नशा मावि के पीने से, अपना भन्म फिसी परण से मदि मन उचका हुमा (मस्बिर)ो सो सर्त नहीं सोना चाहिये। १०-सोने के पहिले तिर को ठप रसना पाहिये, पवि गर्म हो तो मे बस से पो साम्ना पाहिये। ११-पैरों को सोने के समय सवा गर्म रसना चामें, यदि पैर टने को तम्मों को क्षेत्र से मम्मा पर गर्म पानी में रस पर गर्म करना चाहिये । १-म प्र पूरा धर्म बचना ऐ दो हमारे बनाइए ममा निमित्त रमाबर माम प्रप में देश रसपमूल ) समा मात्र - 1 प्रामरों ने प्रा :- सनम सूमे हापरे, मन रमाले पार लिन मारे मर गया बो सेठ पगा गार ॥१॥ ..मी (पोने माप मी) सिरोप मौर पर ग्रे मर्म रखना चाहिये। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३२१ १२-बहुत देर से तथा बहुत देरतक नहीं सोना चाहिये, किन्तु जल्दी सोना चाहिये तथा जल्दी उठना चाहिये। १३-बहुत पेटभर खाकर तुर्त नहीं सोना चाहिये ।। १४-ससार की सब चिन्ता को छोड़ कर चार शरणा लेकर चारों आहारों का त्याग करना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि जीता रहा तो सूर्योदय के बाद खाना पीना बहुत है, चौरासी लाख जीवयोनि से अपने अपराध की माफी माग कर सोना चाहिये। १५-सात घटे की नीद काफी होती है, इस से अधिक सोना दरिद्रों का काम है। इस प्रकार रात्रि के व्यतीत होने पर प्रातःकाल चार बजे उठकर पुनः पूर्व लिखे अनुसार सब वर्ताव करना चाहिये ॥ यह चतुर्थ अध्याय का दिनचर्यावर्णन नामक आठवा प्रकरण समाप्त हुआ। नवां प्रकरण-सदाचारवर्णन ॥ सदाचार का स्वरूप ॥ यद्यपि सद्विचार और सदाचार, ये दोनो ही कार्य मनुष्य को दोनो भवो में सुख देते है परन्तु विचार कर देखने से ज्ञात होता है कि इन दोनों में सदाचार ही प्रवल है, क्योंकि सद्विचार सदाचार के आँधीन है, देखो सदाचार करनेवाले ( सदाचारी) पुण्यवान् पुरुष को अच्छे ही विचार उत्पन्न होते है और दुराचार करनेवाले (दुराचारी) दुष्ट पापी पुरुष को बुरे ही विचार उत्पन्न होते हैं, इसी लिये सत्य शास्त्रों में सदाचार की बहुत ही प्रशसा की है तथा इस को सर्वोपरि माना है, सदाचार का अर्थ यह है किमनुष्य दान, शील, व्रत, नियम, भलाई, परोपकार दया, क्षमा, धीरज और सन्तोष के साथ अपने सर्व व्यापारों को कर के अपने जीवन का निर्वाह करे । १-इस के हानि लाभ पूर्व इस प्रकरण की आदि में लिख चुके है । २-यह दिनचर्या का वर्णन सक्षेप से किया गया है, इस का विस्तारपूर्वक ओर अधिक वर्णन देखना हो तो वैद्यक के दूसरे ग्रन्थों में देख लेना चाहिये, इस दिनचर्या में स्त्री प्रसग का वर्णन ग्रन्थ के विस्तार के भय से नहीं लिखा गया है तथा इस के आवश्यक नियम पूर्व लिख भी चुके हैं अत पुन यहा पर उस का वर्णन करना अनावश्यक समझ कर भी नहीं लिखा हे ॥ ___ ३-इस प्रन्थ के इसी अध्याय के छठे प्रकरण मे लिखे हुए पथ्य विहार का भी समावेश इसी प्रकरण में हो सकता है। ४-क्योंकि "बुद्धि कर्मानुसारिणी" अर्थात् बुद्धि और विचार, ये दोनो कर्म के अनुसार होते है अर्थात् मनुष्य जैसे भले वा बुरे कार्य करेगा वैसे ही उस के बुद्धि और विचार भी भले वा बुरे होंगे, यही शास्त्रीयसिद्धान्त है ॥ ५-इसी प्रकार के वर्ताव का नाम श्रावकव्यवहार भी है ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयायधिश्वा || सारवूपक यमाय फरोगाले पुरुषको का सुपर भी यही है कि सदा सर्वागगुणा दे उसका जाने इस किये का मारकर सभासमय इसी मागपर पक्ष इरा गाग पर चलने में भरागम हो तो इस गागार दी करत रहना पादिग या जगने इरादे को सरा अच्छा मा मनुष्य को पाकर भी ऐसा हरेका मिलना ही व्यथ दे । परमार घोष का विषय है कि 1 आग लोगों की शुद्धि भार जिनेक है, देखो! भाग्यवान ( श्रीमान्) विनयी, गुलमार और मीन को देते में और माया सदाचार से रहित हो के कारण नष्टमाय दोग पुरुष यो माया भयो पारा लगे, मरगारा, महाछोकीन, जातिपाले पुरुषों की रपये है, पेसा छ २ जग की संगति दी करते है दिये में दस मे सदा द्वार भोर राद्विवार को से उत्पन हो सकता है। सिइसी कारण से गपगा गमायोग्य आधार राविचार भोर राश्संगति बिलकुल ही उठ गए, इन लोगों के गुप का अकमल नही उपाय दे कि ये छाग रागको छोड़ पर भीति और धर्मशास्त्र आदि मथो का देने, मररोग पर, भष्ठाधारी सेम और सदाचार को उमगलाय का सुराद रामक्ष, ऐया ! अष्टा नारी की गुप्य गुम्पस में गया से पुद्धि दर प्रदाभार न हो जाता है परन्तु भदी का निपग किरा मागे राम के रा विरके ही बने हुए होंगे, इसका कारण सिद्ध नही दे कि हमारे देश के बहुत से आता यस के मासा उसे परिणाम में दावाली दाणिसे मिळकुळ । ભાગ હું બહ યt ; વિષય ૬ થી રોલ છે કિમ્બૉ - - क्षा सूग सारा जाइस गम और परमव दान का निमाड़ देते । थे, उन का विगरण संक्षेप मे इस मकार I - भग गम्बर दम गद सा स्मरानों का राजा है, ही हो चुके में भोर हा रहे हैं। भाभी तमाम १२२ १ शुभ पदराव से इसके ब्रान से बहुत काम १- भाभी तुम्ही पदि पान लगा है सभा मनुष्य गो की यजन किया भादिये, दो दि लिये मम सो अवश्य रादिय पर्याति नदि MOSA J महान्यानी काम पर गाय 14 बहु महान भी अनुमि કૃતિ પર અત્ યુ પ્રી માન ન મળ્યું તો બાવળ નો પ્રાન થી પ્રગટ પ્રવિ करें ऐसा कोही सा આ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३२३ २ चोरी-दूसरा व्यसन चोरी है, इस व्यसनवाले का कोई भी विश्वास नहीं करता है और उस को जेलखाना अवश्य देखना पड़ता है जिस (जेलखाने) को इस भव का नरक कहने में कोई हर्ज नहीं है। ३ परस्त्रीगमन-तीसरा व्यसन परस्त्रीगमन है, यह भी महाभयानक व्यसन है, देखो ! इसी व्यसन से रावण जैसे प्रतापी शूर वीर राजा का भी सत्यानाश हो गया तो दूसरो की तो क्या गिनती है, इस समय भी जो लोग इस व्यसन में संलग्न है उन को कैसी २ कठिन तकलीफें उठानी पड़ती है जिन को वे ही लोग जान सकते है। --- ४ वेश्यागमन-चौथा व्यसन वेश्यागमन है, इस के सेवन से भी हज़ारों लाखो वर्वाद होगये और होते हुए दीख पड़ते है, देखो! ससार में तन धन और प्रतिष्ठा, ये तीन पदार्थ अमूल्य समझे जाते है परन्तु इस महाव्यसन से उक्त तीनो पदार्थों का नाश होता है, आहा ! श्रीमतहरि महाराज ने कैसा अच्छा कहा है कि-"यह वेश्या तो १-इन का इतिहास इस प्रकार है कि-उज्जयिनी नगरी मे सकलविद्यानिपुण और परम शुर राजा भत्तहरि राज्य करता या, उस के दो भाई ये, जिन में से एक का नाम विक्रम या (सवत् इसी विक्रम राजा का चल रहा है) और दूसरे का नाम सुभट वीर्य या, इन दो भाइयों के सिवाय तीसरी एक छोटी वहिन भी थी जिसका सम्बव गौड ( वगाल) देश के सार्वभौम राजा त्रैलोक्यचन्द्र के साथ हुआ था, इस भर्तृहरि राजा का पुत्र गोपीचद नाम से ससार में प्रसिद्ध है, यह भत्तहरि राजा प्रयम युवावस्था में अति विपयलम्पट था, उस की यह व्यवस्था थी कि उस को एक निमेप भी स्त्री के विना एक वर्ष के समान मालूम होता था, उस के ऐसे विपयासक्त होने के कारण यद्यपि राज्य का सव कार्य युवा राजा विक्रम ही चलाता था परन्तु यह भर्तृहरि अत्यन्त दयाशील या और अपनी समस्त प्रजा मे पूर्ण अनुराग रखता था, इसी लिये प्रजा भी इस में पितृतुल्य प्रेम रखती थी, एक दिन का जिक्र है कि उस की प्रजा का एक विद्वान् ब्राह्मण जगल मे गया और वहा जाकर उस ने एक ऋषि से मुलाकात की तथा "षि ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक अमृतफल दिया और कहा कि इस फल को जो कोई खावेगा उसे जरा नहीं प्राप्त होगी अर्थात् उसे बुढापा कभी नहीं सतावेगा और शरीर में शक्ति बनी रहेगी, ब्राह्मण उस फल को लेकर अपने घर आया और विचारने लगा कि यदि मैं इस फल को खाऊ तो मुझे यद्यपि जरा (वृद्धावस्था ) तो प्राप्त नहीं होगी परन्तु मैं महादरिद्र हु यदि मैं इस फल को खाऊ तो दरिद्रता से और भी वहुत समयतक महा कष्ट उठाना पडेगा और निर्वन होने से मुझ से परोपकार भी कुछ नहीं बन सकेगा, इस लिये जिस के हाथ से अनेक प्राणियों की पालना होती है उस भर्तृहरि राजा को यह फल देना चाहिये कि जिस से वह वहुत दिनोंतक राज्य कर प्रजा को सुखी करता रहे, यह विचार कर उस ने राजसभा में जाकर उम उत्तम फल को राजा को अर्पण कर दिया और उस के गुण भी राजा को कह सुनाये, राजा उस फल को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और ब्राह्मण को वहुत सा द्रव्य और सम्मान देकर विदा किया, तदनन्तर स्त्री मे अत्यन्त प्रीति होने के कारण राजा ने यह विचार किया कि यह फल अपनी परम प्यारी स्त्री को देऊ तो ठीक हो क्योंकि वह इस को साकर सदा यौवनवती और लावण्ययुक्त रहेगी, यह विचार कर वह फल राजा ने अपनी स्त्री को दे दिया, रानी ने अपने मन में विचार किया कि मैं रानी हूँ मुझ को किसी बात की तकलीफ नहीं है फिर मुझ को बुढापा क्या तकलीफ दे सकता है, ऐसा विचार कर उस ने उस फल को अपने यार कोतवाल को दे दिया (क्योंकि उस की कोतवाल से यारी दी) उस Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ सुन्दरता मपी धन से प्रचण्ड सप धारण किये एप पन्ती र फामामि है भीर प्रमी पुरुप उस में अपन मोपन और धन फी भातुति देते" पुन भी उफ महारमा ने पा है फि-"वेश्या का भपरपाउच मदि सुन्दर हो तो भी उस फा घुम्मन पुटीन पुरुप फो नदी करना चाहिये, पांकि यह (येश्या 'म अपरपास) तो ठग, चोर, वास, मट और जारी फे फने फा पाप है" इस मिपयों पफ खान का फान है किधेश्या की यानि सुनाम और गमी भादि थेपी रोगी का अमस्थान दे, भोर विचार र देखा जाये तो यह माव मिलकुम सत्य है भोर इस की प्रमाणवा में छासा उदाहरण प्रत्यक्ष ही वीस पाते हैं कि- वेश्यागमन फरोपाला के उपर फहे हुए रोग प्रायः दो ही जाते है जिनकी परसादी उन फी पियाहिसा सी भीर उन फे सन्तानाधा को मिरती है, इसका कुछ पणन भागे पिया जायगा । ५मपपान-पांमयो स्मसन मद्यपान दे, पह भी म्पसन महाहानिकारफर, मय के पीन स मनुष्य भेसुध हो जाता हे मोर भनेक प्रकार के रोग भी इस से हो जाते है, समटर लोग भी इस फी मनाई करते ई-उना फन है कि-गय पीनेयाला के पासपोर तमाम ने विपारा -मरे साथ में रागनीभार व प्रपर माम में पाचा गरा सलाबारमा गमिल भपभी पारी मा साना फमरे, एका दिपार बराबन एस पी पक्षापारा पासा पापा भी विपारने की ४ि मुभा १ पदापानमिना? मगर कावास मेरे मन मेरा मुसा साप इग प्रिया उत्तम पम राणाभैरो भएस. एगा बनाएर गगनबार पर पर रामारा भार सोप गुम रागा पभरामा मापने गा भीर ममम विपारने मगारा सोम ने भनी पीना रिमापार मसापसापायीपमा भाविरमा मरने पर रामाप वाछ माम ऐपया भीर उग मासूम होने। राम मी पमा भषामा पराग्य प्रमाभा गि धाचार मामी भारिप TOust मा म ग समय उस पर fr-विम्वनि प्रमविपरिका । पम्पबननाम्याचा सम्मान kी पापिरम्या । सिमरन माप माप ॥1भार गि प्रियतमा भवनी बीपी निरवर प्रामों भी भरिनिय मामास AG परसम्म पु सotीर (म्म पुर) पीपर भाराचा (अप ग्री) मुम प्रग प्रिमायाभा पुरा गरे भिरती २० सम्म (एपीसो पार भी भी भाप परभाराचा सपनोभेम Fratममा मुम भागमसभी पिसा पाचपा न भरपतमाम पारामा भार मारामार aur भोला? भागतान ताप परिमा पनि मनार andu परमपयन unst 40 मार मार मनायि Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३२५ कलेजे में चालनी के समान छिद्र हो जाते है और वे लोग आधी उम्र में ही प्राण त्याग करते है, इस के सिवाय धर्मशास्त्र ने भी इस को दुर्गति का प्रधान कारण कहा है । ६ मांस खाना-छठा व्यसन मांसभक्षण है, यह नरक का के भक्षण से अनेक रोग उत्पन्न होते है, देखो ! इस की हानियो को यूरोप आदि देशों में भी मास न खाने की एक सभा हुई है उस सभा के डाक्टरों ने और सभ्य ने वनस्पति का खाना पसन्द किया है ( बेजेटरियन सुसाइटी ) मास. भक्षण के दोषों और रही है । देनेवाला है, इस विचार कर अव तथा प्रत्येक स्थान में वह सभा वनस्पति के गुणों का उपदेश कर राजे महाराजों ने नरकादि ७ शिकार खेलना - सातवा मद्दा व्यसन शिकार खेलना है, इस के विषय में धर्मशास्त्रों में लिखा है कि इस के फन्दे में पड कर अनेक दुःखों को पाया है, वर्त्तमान समय में बहुत से कुलीन राजे में संलग्न हो रहे है, यह बडे ही शोक की बात है, देखो ! यह है कि सब प्राणियों की रक्षा करें अर्थात् यदि शत्रु भी हो तो उस को न मारें, अब विचारना चाहिये कि बेचारे मृग आदि जीवन विताते है उन अनाथ और निरपराध पशुओं पर शस्त्र का चलाना और उन को मरण जन्य असह्य दुख का देना कौन सी बहादुरी का काम है ? अलवत्ता प्राचीन समथके आर्य राजा लोग सिंहकी शिकार किया करते थे जैसा कि कल्पसूत्र की टीका में वर्णन है कि त्रिपृष्ठ वासुदेव जगल में गया और वहा सिंह को देखकर मन में विचारने लगा कि न तो यह रथपर चढ़ा हुआ है, न इस के पास शस्त्र है और न शरीर पर महाराजे भी इस दुर्व्यसन राजाओं का मुख्य धर्म तो और शरण में आ जावे जीव तृण खाकर अपना १- मनु जी ने अपने वनाये हुए धर्मशास्त्र (मनुस्मृति ) में मासभक्षण के निषेध प्रकरण में मांस शब्द का यह अर्थ दिखलाया है कि जिस जन्तु को मैं इस जन्ममे खाता हू वही जन्तु मुझ को पर जन्म मे खावेगा, उक्त महात्मा के इस शब्दार्थ से मासभक्षकों को शिक्षा लेनी चाहिये ॥ २- वासुदेव के वल का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिये कि वारह आदमियों का वल एक बैल में होता है, दश बैलों का वल एक घोडे मे होता है, बारह घोडों का वल एक भैंसे में होता है, पाच सौ भैंसों का वल एक हाथी में होता है, पाच सौ हाथियों का वल एक सिंह में होता है, दो सौ सिंहों का वल एक अष्टापद ( जन्तु विशेष ) में होता है, दो सौ अष्टापदों का वल एक वलदेव मे होता है, दो वलदेवों का वल एक वासुदेव में होता है, नौ वासुदेवों का वल एक चक्रवर्त्ती मे होता है, दश लाख चक्रवत्तियों का वल एक देवता मे होता है, एक करोड देवताओ का वल एक इन्द्र में होता है और तीन काल के इन्द्रों का वल एक अरिहन्त मे होता है, परन्तु वत्तमान समय में ऐसे वलधारी नहीं हैं, जो अपने वल का घमण्ड करते हैं वह उन की भूल है, पूर्व समय मे आदमियों में और पशुओं में जैसी ताकत होती थी अव वह नहीं होती है, पूर्व काल के राजे भी ऐसे वलवान् होते थे कि यदि तमाम प्रजा भी बदल जावे तो अकेले ही उस को वश में ला सकते थे, देखो ! संसार मे शक्ति भी एक वडी अपूर्व वस्तु है जो कि पूर्वपुण्य से ही प्राप्त होती है ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ बैनसम्प्रवामक्षिक्षा ॥ फ्यप ही है, इस लिये मुझको भी उरित है कि मैं भी रभ से उतर फर शम छोर पर और पवन को उतार कर इस के साथ युद्ध फर इसे जी तूं, इस प्रकार मन में विचार फर रथ से उतर पड़ा और श्रम तथा पत्र का त्याग फर सिंह को तरसे उसयारा, भम सिंह ननदीक आया सब दोनों हाथों से उस के दोनों ओठा को पका फर जी बम की तरह पीर फर नमीन पर गिरा दिया परन्तु इतना करने पर भी सिंह का बीच शरीर से न निकला प राना के सारभि ने सिंह से कहा कि-हे सिंह! वैसे तू मग राज है उसी प्रकार शुस को मारनेवाला यह नरराब है, मह फोई साधारण पुरुप नहीं । इस तिर्य भम तू भपनी वीरता फे साहस फो छोड़ दे, सारभिरे इस चरन को सुन फार सिंहफे माण पते गये। पर्तमान समय में नो राजा मादि लोग सिंह का शिकार करते हैं ये भी भनेक इस बल फर तथा भपनी रक्षा का पूरा प्रपंप पर छिपकर सिफार करसे दें, पिना समरे तो सिंह की शिकार करना पड़ रहा मिन्सु समक्ष में उसकार पर सम्पार या गोठीक पानेगाडे भी भार्यापर्व भर में दो चार ही नरेश होंगे। ___ पर्ममामा का सिवान्स है फि वो राने महारामे मनाम पशुमो की हत्या करते हैं उन क राग्य में माया दुर्मिक्ष होता है, रोग होता है तथा पे सन्तानरहित दावे है, इस्पादि भनेक कष्ट इस भव में ही उन फो माप्त होते है भौर पर मप में मरफ में जाना पड़ता है, विपार करने की पात है फि-मदि हमको दूसरा कोई मारे तो हमारे चीर को कैसी तकसीफ मासम होती है, उसी प्रकार हग भी जर फिसी मामी को मारे तो उस को भी पैसा दी मुास होता है, इससिये राजे महारामों का यदी मुस्म धर्म है कि भपमे २ राग्य में प्राणियों को मारना मंद कर दें भीर स्वयं भी उस व्यसन फो छोर पर पुश्मस् सप माणियो की सन मन पन से रक्षा फरें, इस संसार में जो पुरुष इन परे सास न्यसमों से परे हुए हैं उन को पन्य है भीर मनुस्मनन्म का पाना भी उन्ही फा सफत समझना पाहिये, भीर भी पहुत से हानिकारक छोटे २ म्पसन इन्दी सात म्पसनों के भन्सर्गस, वैसे-१-कोरियों से तो नुप को न सेठना परन्तु भनेक मफार फा फाटफा (ची माविका सस) फरना, २-मई पीना में पुरानी और मम्मी पीमो फारेचना, फम पोसना, दगाबानी करना, ठगाई फरना (यह सम चोरी ही है)। ३-भनेक मनर का नशा परना, १-पर का भसमाप पारे पिकही जापे परना मोस गँगाकर नित्य मिर्मा लाये पिना नहीं रहना, ५-रामि को पिना साये न फा म पाना, ६-भर उपर की जुगसी परना, ७-सस्य म पोसना भादि, इस प्रकार भनेर तरह के मरान, मिन के फन्दे में पर फर उन से पिछाना फठिन दो भासा दे, जेसा कि किसी कवि ने फराकि - कण मन्य भपीग रस । वस्कर ने जूभा ॥ पर पर रीझी Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३२७ का मणी, ये छूटसी मूआ" ॥ १॥ यद्यपि कवि का यह कथन बिलकुल सत्य है कि ये बातें मरने पर ही छूटती है तथापि इन की हानि को समझकर जो पुरुष सच्चे मन से छोडना चाहे वह अवश्य छोड सकता है, इस लिये व्यसनी पुरुष को चाहिये कि यथाशक्य व्यसन को धीरे २ कम करता जावे, यही उस ( व्यसन ) के छूटने का एक सहज उपाय है तथा यदि आप व्यसन में पड़ कर उस से निकलने में असमर्थ हो जावे तो अपनी सन्तति का तो उस से अवश्य बचाव रक्खे जिस से भावी में वह तो दुर्द शा में न पडे । ____ इन पूर्व कहे हुए सात महा व्यसनों के अतिरिक्त और भी बहुत से कुव्यसन है जिन से बचना बुद्धिमानों का परम धर्म है, हे पाठक गणो ! यदि आप को अपनी शारीरिक उन्नति का, सुखपूर्वक धन को प्राप्त करने का तथा उस की रक्षा का ध्यान है, एव धर्म के पालन करने की, नाना आपत्तियों से बचने की तथा देश और जाति को आनन्द मगल में देखने की अभिलाषा है तो सदा अफीम, चण्डू, गाजा, चरस, धतूरा और भांग आदि निकृष्ट पदार्थों से बचिये, क्योंकि ये पदार्थ परिणाम में बहुत ही हानि करते है, इसी लिये वर्मशास्त्रो में इन के त्याग के लिये अनेकशः आज्ञा दी गई है, यद्यपि इन पदार्थों के सेवन करने वालोंकी दुर्दशा को वुद्धिमानोंने देखा ही होगा तथापि सर्व साधारण के जानने के लिये इन पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होनेवाली हानियों का सक्षेप से वर्णन करते हैं:___ अफीम-अफीम के खाने से बुद्धि कम हो जाती है तथा मगज़ में खुश्की बढ़ जाती है, मनुष्य न्यूनवल तथा सुस्त हो जाता है, मुख का प्रकाश कम हो जाता है, मुखपर स्याही आ जाती है, मास सूख जाता है तथा खाल मुरझा जाती है, वीर्यका बल कम हो जाता है, इस का सेवन करनेवाले पुरुष घटोंतक पीनक में पड़े रहते है, उन को रात्रि में नींद नहीं आती है और प्रातःकाल में दिन चढ़ने तक सोते है जिस से आयु कम हो जाती है, दो पहर को शौच के लिये जाकर वहा (शौचस्थान मे ) घण्टों तक बैठे रहते है, समय पर यदि अफीम खाने को न मिले तो आखो में जलन पडती है तथा हाथ पैर ऐंठने लगते है, जाडे के दिनों में उनको पानी से ऐसा डर लगता है कि वे मानतक नहीं करते है इस से उन के शरीर में दुर्गंध आने लगती है, उन का रंग पीला पड़ जाता है तथा खासी आदि अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं। चण्डू-इस के नशे से भी ऊपर लिखी हुई सब हानिया होती है, हा इस में इतनी विशेषता और भी है कि इस के पीन से हृदय में मैल जम जाता है जिस १-पीनक में पड़ने पर उन लोगों को यह भी सुध वुध नहीं रहती है कि हम कहा ह, ससार क्रिधर है और समार में क्या हो रहा है ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनसम्मवामशिक्षा || फवन ही है, इस लिये मुझको भी उचित है कि मैं भी रम से उतर कर शस्त्र छोड़ कर और कवच को उतार कर इस के साथ युद्ध कर इसे जी तूं, इस प्रकार मन में विचार फर रथ से उतर पड़ा और वस्त्र तथा कवच का स्याग कर सिंह को जब सिंह नमृदीक आया सब दोनों हाथों से उस के दोनों ओठों को वस्त्र की तरह चीर कर जमीन पर गिरा दिया परन्तु इतना करने पर भी शरीर से न निकला तब राजा के सारभि ने सिंह से कहा कि — दे सिंह ! जैसे तू मुग राज है उसी प्रकार तुझ को मारनेवाला यह नरराब है, यह कोई साधारण पुरुष नहीं है, इस लिये अब तू अपनी वीरता के साहस को छोड़ दे, सारभि के इस घमन को सुन कर सिंह के प्राण ले गये । दूर से ललकारा, पकड़ कर जीर्ण सिंह का जीन बर्तमान समय में जो राम्रा आदि लोग सिंह का शिकार करते हैं वे भी अनेक छठ बल कर तथा अपनी रक्षा का पूरा प्रबंध कर छिपकर शिकार करते हैं, बिना छत्र के यो सिंह की शिकार करना दूर रहा किन्तु समदा में उसकार कर तलवार या गोली के चानेवाले भी भार्यावत भर में दो बार ही नरेश होंगे । धर्मशास्त्रों का सिद्धान्त है कि जो रामे महारामे अनाम पशुओं की हत्या करते हैं उन फ राज्य में माय दुर्भिक्ष होता है, रोग होता है तथा ये सन्तानरदित होते हैं, इत्यादि अनेक कष्ट इस भव में ही उन को प्राप्त होते हैं और पर भय में नरफ में जाना पड़ता है, विचार करने की बात है फि— यदि हमको दूसरा कोई मारे तो हमारे जीव को कैसी तकलीफ मालूम होती है, उसी प्रकार हम भी जब किसी प्राणी को मारे तो उस को भी पैसा ही दुःख होता है, इसलिये रामे महाराजों का यही मुख्य धर्म दे अपने २ राज्य में मामियों को मारना बंद कर दे और स्वयं भी उफ न्यसन को छोड़ फर पुत्रषत् सममाजियों की तन मन धन से रक्षा करें, इस संसार में जो पुरुष इन मड़े सात म्यसनों से बचे हुए हैं उन को धन्य है और मनुष्यजन्म का पाना भी उन्हीं फा सफल समझना चाहिये, और भी बहुत से हानिकारक छोटे २ म्पसन इन्दी छात व्यसनों भार्गव दें, जैसे-१-कोड़ियों से सो जुए को न खेलना परन्तु भनेक मकार का फाटका (चोरी भाविका सट्टा करना, २-नई चीनों में पुरानी और नकली धीमों का पना कम दोना, दगाबाजी करना, ठगाई फरना ( यह सब चोरी दी है ), ३- अनेक मार का नशा करना, पर का भसपाव चाहे विक दी जाये मेगाहर नित्य मिटाई साये बिना नहीं रहना, ५-रात्रि को बिना सा चैन का न पढना, मोन परन्तु ६- इधर उधर की चुगनी करना, यस न बोलना भादि, इस प्रकार अनेक तरह * परान है, जिन पन्ने में पड़कर उन से पिण्ड सुहाना कठिन हो जाता है, जैसा कि किसी कवि ने कहा है कि- 'म अफीम रस । तस्कर ने जूमा || पर पर रीसी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३२७ १ ॥ यद्यपि कवि का यह तथापि इन की हानि को का मणी, ये छूटसी मूआ " ॥ कथन बिलकुल सत्य है कि ये बातें मरने पर ही छूटती है समझकर जो पुरुष सच्चे मन से छोड़ना चाहे वह अवश्य छोड़ सकता है, इस लिये व्यसनी पुरुष को चाहिये कि यथाशक्य व्यसन को धीरे २ कम करता जावे, यही उस ( व्यसन ) के छूटने का एक सहज उपाय है तथा यदि आप व्यसन में पड़ कर उस से निकलने में असमर्थ हो जावे तो अपनी सन्तति का तो उस से अवश्य बचाव रक्खे जिस से भावी में वह तो दुर्दशा में न पडे । इन पूर्व कहे हुए सात महा व्यसनों के अतिरिक्त और भी बहुत से कुव्यसन है जिन से बचना बुद्धिमानों का परम धर्म है, हे पाठक गणो ! यदि आप को अपनी शारीरिक उन्नति का, सुखपूर्वक धन को प्राप्त करने का तथा उस की रक्षा का ध्यान है, एवं धर्म के पालन करने की, नाना आपत्तियों से बचने की तथा देश और जाति को आनन्द मंगल में देखने की अभिलापा है तो सदा अफीम, चण्डू, गाजा, चरस, धतूरा और भाग आदि निकृष्ट पदार्थों से बचिये, क्योंकि ये पदार्थ परिणाम में बहुत ही हानि करते हैं, इसी लिये धर्मशास्त्रो में इन के त्याग के लिये अनेकशः आज्ञा दी गई है, यद्यपि इन पदार्थों के सेवन करने वालों की दुर्दशा को बुद्धिमानोने देखा ही होगा तथापि सर्व साधारण के जानने के लिये इन पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होनेवाली हानियों का संक्षेप से वर्णन करते है: अफीम -- अफीम के खाने से बुद्धि कम हो जाती है तथा मगज़ में खुश्की बढ़ जाती है, मनुष्य न्यूनवल तथा सुस्त हो जाता है, मुख का प्रकाश कम हो जाता है, मुखपर स्याही आ जाती है, मास सूख जाता है तथा खाल मुरझा जाती है, वीर्यका बल पीनेक में पड़े रहते हैं, उन चढ़ने तक सोते है जिससे कम हो जाता है, इस का सेवन करनेवाले पुरुष घंटों तक को रात्रि में नीद नही आती है और प्रात काल में दिन आयु कम हो जाती है, दो पहर को शौच के लिये जाकर वहा ( शौचस्थान में ) घण्टो तक बैठे रहते है, समय पर यदि अफीम खाने को न मिले तो आखों में जलन पड़ती है। तथा हाथ पैर ऐंठने लगते हैं, जाडे के दिनों में उनको पानी से ऐसा डर लगता है कि वे स्नानतक नही करते है इस से उन के शरीर में दुर्गंध आने लगती है, उन का रग पीला पड़ जाता है तथा खासी आदि अनेक प्रकार रोग हो जाते है । के चण्डू -- इस के नशे से भी ऊपर लिखी हुई इतनी विशेषता और भी है कि इस के पीने से हृदय में मैल जम जाता है जिस सब हानिया होती है, हा इस में १- पीनक मे पडने पर उन लोगों को यह भी सुध बुध नहीं रहती है कि हम कहा है, ससार किधर है और संसार मे क्या हो रहा है ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जैनसम्मदामशिक्षा || से हृदयसम्बंधी अनेक मद्दाभयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा इदम निर्बल हो जाता है। गांजा, चरस, धतूरा और मांग-इन चारों पदार्थों के भी सेवन से खांसी और दमा भावि मनेक हृदय रोग दो खाते हैं, मगज में विक्षिप्तता को स्थान मिलता है, विचारशक्ति, स्मरणश्चति और बुद्धि का नाश होता है, इन का सेवन करनेवाला पुरुष सम्म मण्डली में बैठने योग्य नहीं रहता है तथा अनेक रोगों के उत्पन्न होने से इन का सेवन करनेवालों को भाषी उम्र में ही मरना पड़ता है। तमाखू - मान्यवरो ! वैचक ग्रन्थों के देखने से यह स्पष्ट प्रकट होता है कि तमाखू संखिया से भी अधिक नशदार और हानिकारक पदार्थ है अर्थात् किसी वनस्पति में इस के समान वा इस से अधिक नवा नहीं है । डाक्टर टेकर साहब का कथन है कि-" जो मनुष्य तमाखू के कारस्वानों में काम फरते हैं उन के शरीरमें नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं अर्थात् भाड़े ही दिनों में उन के श्चिर में दर्द होने लगता है, भी ममकाने लगता है, मरू पट जाता है, सुखी घेरे रहती है, भूख कम हो आती है और काम करने की शक्ति नहीं रहती है।" इत्यादि । बहुत से वैद्यों और डाक्टरोंने इस बायको सिद्ध कर दिया है कि इस के धुएँ में नहर होता है इसलिये इस का धुआं भी शरीर की आरोग्यता को हानि पहुँचाता है अमात् जो मनुष्य समासू पीते हैं उन का जी मचलाने लगता है, कम होने लगती है, हिचकी उत्पन्न हो जाती है, श्वास कठिनता से लिया माता है और नाड़ी की चाल भीमी पड़ जाती है, परन्तु जब मनुष्य को इस का अभ्यास हो जाता है तब से सब बातें सेवन के समय में फम मालूम पड़ती है परन्तु परिणाम में अत्यन्त हानि होती है डाक्टर स्मिथ का कमन है कि-माखू के पीने से दिन की बात पहिले सेन और फिर धीरे २ कम हो जाती है । 1 वैद्यक प्रन्थों से यह स्पष्ट प्रकाशित है कि- तमाखू महुत ही जहरीली (विवेकी) वस्तु है, क्योंकि इस में कोशिया कामानिक एसिड और मगनेशिया आदि वस्तुमें मिठी रहती है जो कि मनुष्य के दिल को निर्बंध कर देती हैं कि जिस से खांसी और दम आदि नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते है, भारोम्यता में अन्तर पड़ जाता है, वि पर फीट अर्थात् मैल जम जाता है, तिल्ली का रोग उत्पन्न होकर चिरकातक ठरता दे तथा प्रतिसमय में भी ममासा रहता है और मुख में दुर्गन्ध मुद्धि से विचारने की यह भाव है कि लोग मुसलमान तथा ईसाई परहेज करते हैं परन्तु बाद री खमासू ! तेरी भीति में लोग धर्म और परवाह न कर सब दी से परदेन को तोड़ देते थे, देखो ! बनी रहती है, भग आदि से तो बड़ा ही कर्म की भी कुछ सुभ तमासू के बनाने Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३२९ वाले मुसलमान लोग अपने ही वर्तनों में उसे बनाते है और अपने ही घडों का पानी डालते है उसी को सब लोग मजे से पीते है, इस के अतिरिक्त एक ही चिलम को हिन्दू मुसलमान और ईसाई आदि सब ही लोग पीते है कि जिस से आपस में अवखरात (परमाणु ) अदल बदल हो जाते है तो अब कहिये कि हिन्दू तथा मुसलमान या ईसाइयों में क्या अन्तर रहा, क्या इसी का नाम शौच वा पवित्रता है ? प्रिय सुजनो ! केवल पदार्थविद्या के न जानने तथा वैद्यकशास्त्र पर ध्यान न देने के कारण इस प्रकार की अनेक मिथ्या वातों में फंसे हुए लोग चले जाते है जिस से सब के धर्म कर्म तथा आरोग्यता आदि में अन्तर पड गया और प्रतिदिन पडता जाता है, अतः अब आप को इन सब हानिकारक बातो का पूरा २ प्रबन्ध करना योग्य है कि जिस से आप के भविष्यत् (होनेवाले ) सन्तानों को पूर्ण सुख तथा आनन्द प्राप्त हो । हे विद्वान् पुरुषो । और हे प्यारे विद्यार्थियो । आपने स्कूलो में पदार्थविद्या को अच्छे प्रकार से पढ़ा है इसलिये आप को यह वात अच्छे प्रकार से मालूम है और हो सकती है कि तमाखू में कैसे २ विषैले पदार्थ मिश्रित है और आप लोगो को इस के पीने से उत्पन्न होनेवाले दोष भी अच्छे प्रकार से प्रकट है अतः आप लोगों का परम कर्तव्य है कि इस महानिकृष्ट हुक्के के पीने का स्वयं त्याग कर अपने भाइयो को भी इस से बचावें क्योंकि सत्य विद्याका फल परोपकार ही है। ___ इस के अतिरिक्त यह भी सोचने की बात है कि तमाखू आदि के पीने की आज्ञा किसी सत्यशास्त्र में नहीं पाई जाती है किन्तु इस का निषेध ही सर्व शास्त्रों में देखा जाता है, देखो- तमाखुपत्रं राजेन्द्र, भज माज्ञानदायकम् ॥ तमाखुपत्रं राजेन्द्र, भज माज्ञानदायकम् ॥ १॥ - अर्थात् हे राजेन्द्र ! अज्ञान को देनेवाले तमाखुपत्र (तमाखू के पत्ते ) का सेवन मत करो किन्तु ज्ञान और लक्ष्मी को देनेवाले उस आखुपत्र अर्थात् गणेश देव का सेवन करो ॥१॥ १-तमा बनाते समय उन का पसीना भी उमी में गिरता रहता है, इत्यादि अनेक मलीनताये भी तमाखू में रहती हैं। २-देखो। जिस चिलम को प्रथम एक हिन्दू ने पिया तो कुछ उस के भीतर अवसरात गर्मी के कारण अवश्य चिलम में रह जायेंगे फिर उसी को मुसलमान और ईसाई ने पिया तो उस के भी अवखरात गर्मी के कारण उस चिलम मे रह गये, फिर उमी चिलम को जब ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यादि ने पिया तो कहिये अब परस्पर मे क्या मेद रह गया ? ३-इसी प्रकार देशी पाठशालाओं तथा कालिजों के शिक्षको को भी योग्य है कि वे कदापि इस हफे को न पियें कि जिन की देखादेखी सम्पूर्ण विद्यार्थी भी चिलम का दम लगाने लगते हैं। ४-यह सुभाषितरत्नभाडागार के प्रारभ मे श्लोक है ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३३० जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ धूम्रपानरत विर्भ, सत्कृत्य ददाति य ॥ दाता स नरकं याति, ग्रामणो प्रामशंकररा॥२॥ मर्थात् बो मनुष्य तमासू पीनेवाले प्रामण का सत्कार कर उस को दान देता है पद (दाता) पुरुष नरक को माता है और वह ग्रामण माम का शूकर (सुमर) होता है ॥ २ ॥ इसी प्रकार शापर वेषक अन्म में लिखा है कि-"पुदि लुम्पति यद्रव्य भदकारि तदुच्यते" अर्थात् मो पदार्थ युद्धि का लोप करता है उस को मदभरी कोते हैं। ___ उपर के कपन से स्पर है कि समाखू मादि का पीना महाहानिकारक है परन्तु पर्समान में लोग शामों से वो मिकुछ मनमिझ है अतः उन फो पदामों के गुण मौर पोप विदित नहीं है, दूसरे-देशमर में इन फम्पसनों का अत्यन्त प्रचार बढ़ रहा है बिस से लोग माय उसी सरफ को झुक जाते हैं, तीसरे-कुव्यसनी लोगों ने मोरे गेगों को बहकाने और फंसाने के लिये इन निकट रस्तुओंके सेवन की प्रठसा में ऐसी २ कपोलफस्पित कवितायें रचाती हैं बितें सुनकर ये मेपारे भोले पुरुष उन वाक्यों को मानो शामीय माक्प समझ कर पहरू बावे भौर फंस जाते हैं अर्थात् उन्हीं निकर पदार्थों का सेवन करने लगते हैं, वेसिये। इन फुल्यसनी लोगों की कविता की तरफ रएि सिरे मौर विचारिये कि इन्हों ने मोले भाले लोगों के फंसाने के लिये कैसी माया रची है।मफीम-गज गाहण शाहण गरा, हाप या देण इमल्ल ॥ मतवाला पौरप पड़े, आयो मीत अमल ॥१॥ १- पपुण्म का पालो ५-ताप या मरमी पाप पुदि का भोप करता। -भागकम राजपूतों में मफीम बी पीअरी बीम समधी जातीमत इस जहरत सन्मन परा होने समी, माह, माईमौर गमी मारि प्रमेक मौक पर सोती, इन भरसरों में रे भेगमपीमबारवे मार मारोगों को पि उन भेयों में भय बारात बाकि किसी भारमी से परे कितनी ही भरसत से परन्तु बम पप हाप से भीम का बए रसी बम समारो गावेपी रागान मेप भाम के नशे मर पाभी तेरे भोर मा परे से इसे मष्णा मानत और इस कामात बयान भी करते हैं पयपि मम ममगार संत पापम मारगार में भोर भय का प्रचार पूर्व में भरिमापि प्राय सर और पामौरपार शेप मर से रियाव भीर मरते मोंकि मेप इस प पीना पचपन से ही पोरे पोतियों की परत सपति में पार र पावे ६ पिर-नोमै सय एमभीर मार मादि मपी वारीको यौव बार नरेनझे प्रतिदिन परादे रहवेसी हिमपी मरिमा F पर सिय कर पतम्मा इस प्रचारमा किसी पनि में परफ्त म नु संपूर्ण भावत में यही पणा रस इसलिये विमानोमन म्म मप भीर समग्र विवि प्रदिनार र दन इम्पसना मेरा Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ हुक्का-अस चढ़ना अस उचकना, नित खाना खिर गोश ॥ जगमांही जीनाजिते, पीना चम्मर पोश ॥१॥ शिरपर बँधा न सेहरा, रण चढ़ किया न रोस ॥ लाहा जग में क्या लिया, पिया न चम्मर पोस ॥२॥ हुक्का हरि को लाडलो, राखे सब को मान || भरी सभा में यों फिरे, ज्यों गोपिन में कान ॥३॥ ___ मद्य-दारू पियो रंग करो, राता राखो नेण ॥ वेरी थांरा जलमरे, सुख पावेला सेंण ॥ १॥ दारू दिल्ली आगरो, दारू बीकानेर ॥ दारू पीयो साहिबा, कोई सौ रुपियां रो सेर ॥२॥ दारू तो भक भक करे, सीसी करे पुकार ॥ हाथ पियालो धन खड़ी, पीयो राजकुमार ॥३॥ गांजा-जिस ने न पी गांजे की कली । उस लड़के से लड़की भली॥१॥ भांग-घोट छांण घट में धरी, उठत लहर तरङ्ग ॥ विना मुक्त बैकुण्ठ में, लिया जात है भङ्ग ॥१॥ जो तू चाहै मुक्त को, सुण कलियुग का जीव ॥ गंगोदक मे छाण कर, भंगोदक कू पीव ॥२॥ भंग कहै सो वावरे, विजया कहें सो कूर ॥ इसका नाम कमलापती, रहे नैन भर पूर ॥३॥ तमाखू-कृष्ण चले बैकुण्ठ को, राधा पकड़ी बांहि ॥ यहां तमाखू खायलो, वहां तमाखू नांहि ॥१॥ इत्यादि । प्रिय सुजन पुरुषो ! विचारशीलों का अब यही कर्त्तव्य है कि वैद्यशास्त्र आदिसे निषिद्ध तथा महा हानिकारक इन कुव्यसनों का जड़मूल से ही नाश कर दें अर्थात् खय इन का त्याग कर दूसरों को भी इन की हानिया समझा कर इन का त्याग करने की शिक्षा दें, क्योंकि इन से ऊपर कही हुई हानियो के सिवाय कुछ ऐसी भी हानिया होती हैं जिन से मनुष्य किसी काम का ही नहीं रहता है देखिये । जो पुरुप जितना इन नशों को पीता है उतनी ही उसकी रुचि और भी अधिक बढ़ती जाती है जिस से उस का फिर इन व्यसनो से निकलना कठिन हो कर इन्ही में जीवन का त्याग करना पड़ता है, दूसरे-इन में रुपया तया समय भी व्यर्थ जाता है, तीसरे-इन के सेवन से बहुधा मनुष्य पागल भी हो जाते है और बहुतसे मर भी जाते है, चौथे-छोटे २ मनुष्यों में भी नशेवाजो की प्रतिष्ठा नहीं रहती है फिर भला बड़े लोगों में तो ऐसों को कौन पूंछता है, अतः समझदार लोगों को इन की ओर दृष्टि भी नहीं डालनी चाहिये ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा ॥ सर्वहितकारी कर्त्तव्य ॥ के शरीर की मारोम्यता रखने की यो २ मुख्य बातें हैं उन सब का जानना और उन्हीं अनुसार चलना मनुष्यमात्र को योग्य है, इस विषय में आवश्यक वातों का मह संक्षेप से इस अन्य कर दिया गया है, अब विचारणीय नियम यह है कि शरीर की मारोग्यता के लिये वो २ भागश्यक नियम हैं वे सब ही सामान्य मजा जनों के बबीन नहीं है किन्तु उन में से कुछ नियम स्वाधीन है तथा कुछ नियम पराधीन हैं, देखो । भारोम्मताबन्य सुख के लिये प्रत्येक पुरुष को उचित माहार और बिहार की मावश्यकसा है इसलिये उस के नियमों को समझ कर उन की पावन्दी रखना यह प्रत्येक पुरुष का धर्म है क्योंकि महार और विहार के आवश्यक नियम प्रत्येक पुरुष के स्वाधीन हैं परन्तु नगरों की सफाई और भावश्यक प्रबन्धों का करना कराना आदि आवश्यक नियम प्रत्येक पुरुष के भाषीन नहीं है किन्तु ये नियम समा के लोगों के सभा सर्कार के नियत किये हुए शहर सफाई स्माते के अमन्दारों के आधीन है, इसलिये इन को चाहिये कि मला के मारोम्यवादन्य सुख के लिये पूरी २ निगरानी रखें तथा जो २ भारोम्पता के मानश्मक उपाय प्रत्वा के आधीन हैं उन पर प्रभा को पूरा ध्यान देना चाहिये, क्योंकि उन उपायों के न जानने से तथा उन पर पूरा ध्यान न देने से महान प्रमाजन अनेक उपवयों और रोगों के कारणों में फँस जाते हैं, इसलिये आरोग्यता के आवश्यक उपायों का जानना प्रत्येक छोटे बड़े मनुष्य का मुख्य कार्य है, क्योंकि इन के न मानने से बड़ी हानि होती है, देखो ! कभी २ एक मनुष्य की ही अम्मानसा से हमारों लाखों मनुष्यों की मान को नोखम पहुँच जाती है, परन्तु यह सब ही जानते हैं कि साधारण पुरुष उपदेश और शिक्षा के बिना कुछ भी नहीं सीख सकते हैं और न कुछ जान सकते हैं, इसलिये अज्ञान मजाजनों को भाहार और बिहार मावि भारोम्मता की भावश्मक बातों से विश करना मुख्यतमा विद्वान् वैद्य डाक्टर और सफर का मुख्य कर्तव्य है अद लोग आरोग्यता के द्वारा मुली रहे इस मकार के सद्भाब को इदम में रखनेवाले बै और डाक्टरों को वैधक विषा का मवश्य उद्धार करना चाहिये अर्थात् भैम और डाक्टरों को उचित है कि मे रोगों की उत्पत्ति के कारणों को लोब २ कर माहिर करें, उन कारणों को हटाने और वे कारण फिर न प्रकट हो सकें, इस का पूरा प्रबंध करें और उन कारणों के हटाने के मोम्य उपायों से प्रजाजनों को विश करें तथा ममात्मनों को चाहिये कि उन आवश्यक उपायों को समझ कर उन्हीं के अनुसार बर्चान करें उस से निरुद्ध कयापि न लें, क्योंकि उस से विरुद्ध भछने से नियमों की पावन्दी जाती रहती है और प्रबन्ध म्यर्थ जाता है, देखो! म्यूनीसिपल कमेटी के अधिकारी आदि मन बड़े २ रास्तों में गी चों में तथा सब मुद्दला में माकर तथा सोच कर भाई बितनी सफाई रक्सें परन्तु ३३२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३३३ जब तक प्रजा जन अपने २ घर आंगन में इकट्ठी हुई रोगों को पैदा करनेवाली मलीनता को नहीं हटावेंगे तथा आहार विहार के आवश्यक खाधीन नियमों को नहीं जानेंगे तथा उन्हीं के अनुसार वर्ताव नहीं करेंगे तबतक शहर की सफाई और किये हुए आवश्यक प्रबन्धों से कुछ भी फल नहीं निकल सकेगा। ___ वर्तमान में जो आरोग्यता में बाधा पड़ रही है और सब आवश्यक नियम और प्रवन्ध अस्थिरवत् हो रहे हैं उस का कारण यही है कि इस समय में अज्ञान लोग अधिक है अर्थात् पढ़े लिखे भी बहुत से पुरुष शरीर रक्षा के नियमों से अनभिज्ञ है, यदि इस पर कोई पुरुप यह प्रश्न करे कि अब तो स्कूलों में अनेक विद्यायें और अनेक कलायें सिखलाई जाती है जिन के सीखने से लोगों का अज्ञान दूर हो रहा है फिर आप कैसे कहते है कि वर्तमान समय में अज्ञान लोग अधिक है ? तो इस का उत्तर यह है कि-वर्तमान समय में स्कूलों में जो अनेक विद्यायें और अनेक कलाय सिखलाई जाती है यह तो तुझारा कहना ठीक है परन्तु शरीर सरक्षण की शिक्षा स्कूलो में पूरे तौर से नहीं दी जाती है, इसीलिये हम कहते है कि पढ़े लिखे भी बहुत से पुरुष शरीर रक्षाके नियमो से अनभिज्ञ है, देखो ! मारवाड़ में जो विद्या के पढ़ाने का क्रम है उसे तो हम पहिले लिखही चुके है कि उन की पढाई शिक्षा के विषय में खाख धूल भी नहीं है, अब गुजराती, वगला, मराठी और अग्रेजी पाठशालाओं की तरफ दृष्टि डालिये तो यही ज्ञात होगा कि उक्त पाठशालाओ में तथा उक्त भापाओं की पुस्तकों में जिस क्रम से कसरत, हवा, पानी और प्रकाश आदि का विषय पढ़ाने के लिये नियत किया गया है वह क्रम ऐसा है कि छोटे २ बालको की समझ में वह कभी नहीं आ सकता है, क्योंकि वह शिक्षा का क्रम अति कठिन है तथा सक्षेप में वर्णित है अर्थात् विस्तार से वह नहीं लिखा गया है, देखो! थोडे वर्ष पूर्व अग्रेज़ी के पाचवें धोरण में सीनेटरी प्रायमर अर्थात् आरोग्यविद्याका प्रवेश किया गया था परन्तु उस का फल अवतक कुछ भी नहीं दीख पडता है, इस का कारण यही प्रतीत होता है कि उस का प्रारंभ वर्ष के अन्तिम दिनों में कक्षा में होता है और परीक्षा करनेवाले पुरुप अमुक २ विपय के प्रश्नों को प्रायः पूछते हैं इस बात का खयालकर शिक्षक और माष्टर लोग मुख्य २ विषयों के प्रश्नों को धोखा २ के कण्ठाग्र करा देते है अर्थात् सब विपयों को याद नहीं कराते है, परन्तु इस में माष्टरों का कुछ भी दोप नहीं है, क्योंकि दूसरे जो मुख्य २ विषय नियत हैं उन्हीं को सिखाने के लिये जब शिक्षकों को काफी समय नहीं मिलता है तो भला जो विषय गौण पक्ष में नियत किये है उनपर शिक्षक पुरुष पूरा ध्यान कब दे सकते हैं, ऐसी दशा में सर्कार को ही इस विषय में ध्यान देकर इस विद्या को उन्नति देनी चाहिये अर्थात् इस आरोग्यप्रद वैद्यक विद्या को सर्व विद्याओं में शिरोमणि समझ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्पदामशिक्षा || सर्वहितकारी कर्तव्य ॥ शरीर श्री भारोग्या स्मोकी जा २ गुप्य पार्वई उन सब का जानना और उन्हीं के अनुसार ना मनुष्यगात्र की भाग्य है, इस विषय में आपक माती का संबद रोक्षेप से इस धर्म कर दिया गया है, जब विमारीह देकि-शरीर की भारोम्यता के लिये जा २ भापक नियम है ये रामदीयागाय मान के आधीन नहीं न्यु जाग से कुछ यि भागी था कुछ नियम पराधीन है, तुम ! भाराम्साजन्य गुरा के लिये को उचित आदार भोर विहार की भाव क्या है इसलिये उसके निम को समझ कर उन की गयी रमना यद प्रत्येक पुरुष है कि आहार और बिहार के आयत्यक नियम मत्येक पुरुष के गाधीन है परन् नगरों की सफाई और आवश्यक मी का करता कराना आदि भागश्यक नियम प्रत्येक पुरुष के भागीन महा ई से नियम सभा के नियत किये तुम शहर सफाई भावे के भमछदारों के भागी है, इसलिए इसको पादिका भारोग्यवाजन्य एस के किये पूरी २ निगरानी रखने तथा जो २ धाराम्यता के भाव 管 एक उपाय मजा के भामीन है उन पर मना को पूरा ध्यान देना पाहिले, कि उन उपायों के आपने से घथा उन पर पूरा ध्यान न देने से भान मजाजन भनेक उप 可 और रोग कारणों में फँस जाते है, इसलिये भाराम्यता के भावस्य उपा जानमा मध्ये छोटे भड़ गया है, कि के बान से बड़ी होती है, ऐसा कभी २ मनुष्य की दी भासा से दारी का की आपको मग पहुच जाती है, पर मद ही जानते है कि साधारण पुरुष उपदेश और शिक्षा के मिना कुछ भी नहीं सीम सकते हैं और न कुछ जान सकते है, इसलिये जाम मजाज को भादार और विहार भारि भारोम्यता की आवश्यक वार्ता विभ करना गुरुमा विधान पै डाटर और पकार का हाथ है भ लोग भाग्य के द्वारा सी रहे इस प्रकार के कारनेपाळे ब राकापेचक विद्या का अपश्य उपर करत भाभिर्षात्नेश और डाट को भय है कि रागों की उत्पधिक कारणों को साम२ र नादिर रे, उन कोटा भर में कारण पिहो सके इस का पूरा करें और उन कार के हटाने के भाग्य उपायों से मजान को विभ्र पर धषा मजाजनों का भाहिये कि उन भावस्यक उपायों को समक्ष कर उन्ही के अनुसार बचाव करे उप से पि कि उससे विरुद्ध भखने से नियमों की पायन्यी जाती रहती है और म जाता है ! यूनीसिपल कमेटी के अपरी महि जनपद २ रा से गयी छषा राम हमे जाकर रामासाम कर पाई जियनी सफाइ पर्स पर ३३२ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३३३ जब तक प्रजा जन अपने २ घर आंगन में इकट्ठी हुई रोगों को पैदा करनेवाली मलीनता को नहीं हटावेंगे तथा आहार विहार के आवश्यक खाधीन नियमों को नहीं जानेंगे तथा उन्हीं के अनुसार वर्ताव नहीं करेंगे तबतक शहर की सफाई और किये हुए आवश्यक प्रवन्धों से कुछ भी फल नहीं निकल सकेगा। ___ वर्तमान में जो आरोग्यता में बाधा पड़ रही है और सब आवश्यक नियम और प्रबन्ध अस्थिरवत् हो रहे है उस का कारण यही है कि इस समय में अज्ञान लोग अधिक है अर्थात् पढ़े लिखे भी बहुत से पुरुप शरीर रक्षा के नियमों से अनभिज्ञ है, यदि इस पर कोई पुरुप यह प्रश्न करे कि अब तो स्कूलों में अनेक विद्यायें और अनेक कलायें सिखलाई जाती है जिन के सीखने से लोगों का अज्ञान दूर हो रहा है फिर आप कैसे कहते है कि वर्तमान समय में अज्ञान लोग अधिक हैं ? तो इस का उत्तर यह है कि-वर्तमान समय में स्कूलों में जो अनेक विद्यायें और अनेक कलायें सिखलाई जाती हैं यह तो तुझारा कहना ठीक है परन्तु शरीर सरक्षण की शिक्षा स्कूलों में पूरे तौर से नहीं दी जाती है, इसीलिये हम कहते है कि पढ़े लिखे भी बहुत से पुरुष शरीर रक्षाके नियमों से अनभिज्ञ है, देखो ! मारवाड़ में जो विद्या के पढ़ाने का क्रम है उसे तो हम पहिले लिखही चुके है कि उन की पढ़ाई शिक्षा के विषय में खाख धूल भी नहीं है, अब गुजराती, बंगला, मराठी और अग्रेज़ी पाठशालाओं की तरफ दृष्टि डालिये तो यही ज्ञात होगा कि उक्त पाठशालाओ में तथा उक्त भापाओं की पुस्तको में जिस क्रम से कसरत, हवा, पानी और प्रकाश आदि का विषय पढाने के लिये नियत किया गया है वह क्रम ऐसा है कि छोटे २ बालकों की समझ में वह कभी नहीं आ सकता है, क्योंकि वह शिक्षा का क्रम अति कठिन है तथा सक्षेप में वर्णित है अर्थात् विस्तार से वह नहीं लिखा गया है, देखो ! थोडे वर्प पूर्व अग्रेजी के पाचवे धोरण में सीनेटरी प्रायमर अर्थात् आरोग्यविद्याका प्रवेश किया गया था परन्तु उस का फल अबतक कुछ भी नहीं दीख पड़ता है, इस का कारण यही प्रतीत होता है कि उस का प्रारंभ वर्ष के अन्तिम दिनों में कक्षा में होता है और परीक्षा करनेवाले पुरुप अमुक २ विषय के प्रश्नों को प्रायः पूछते हैं इस बात का खयालकर शिक्षक और माष्टर लोग मुख्य २ विपयों के प्रश्नों को घोखा २ के कण्ठाग्र करा देते हैं अर्थात् सब विषयों को याद नही कराते है, परन्तु इस में माष्टरों का कुछ भी दोष नहीं है, क्योंकि दूसरे जो मुख्य २ विषय नियत हैं उन्हीं को सिखाने के लिये जब शिक्षको को काफी समय नहीं मिलता है तो भला जो विषय गौण पक्ष में नियत किये है उनपर शिक्षक पुरुष पूरा ध्यान कब दे सकते हैं, ऐसी दशा में सर्कार को ही इस विषय में ध्यान देकर इस विद्या को उन्नति देनी चाहिये अर्थात् इस आरोग्यप्रद वैद्यक विद्या को सर्व विद्याओं में शिरोमणि समझ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ जनसम्प्रदायश्चिया ॥ पर धारण में मुम्प पिपप के तरीके पर नियत फरना चाहिये, हमारे इस कथन प्रमा प्रयाजन नही कि भीमती सकार का कास में नियत कर % सम्यूम ही पक विध की शिया वनी माहिम न्तुि हमार भन का प्रपाजन यही है कि फम से फम हवा, पानी, सुराक, सफाई और पसरत भादि फ गुण दापाशी आपत्यफ शिक्षा का अवश्य दनी री चाहिय जिग क पताय से प्रतिदिन ही मनुष्य को भ्रम पड़ता, इस फेलिमे सहन उपाय यही है कि पाटग्राम में पटाने क लिय नियत फी र पुस्तकों के पार्टी में पहिक मो इस विद्या के सामान्य नियम भवताय ना जा कि सरठ मोर उपयोगी हो तथा जिन क समझने म यिपाभिमां का अधिक परिमम न पर, पीछे इस (विपा) सूक्ष्म सियों का उन्ही पुस्तक पार्टी में प्रविष्ट फरना चाहिय । पभमान माइम रिपा की कुछ यात मूह में परी पड़ाद भी जाती हैं उन्हें गोम जानफर उन पर पूरे सोर स न सो कुछ प्यान दिया जाता भार न मे माते ही ऐसी है कि पाक रिठपर अपना कुछ प्रमाय गल सफ इसलिये उन न पाना पाना निमफुल मय बनाता है, दमा ! स्कूल का एक विद्वान् विपार्श भी (जिस ने इस सिया पी मह निशा पार हे सभा दूसरा का भी विधा फेबन मा भधिकारी हो गया है कि साफ पानी पीना चाहिय, साफ पर पहरने पाहिमें तथा प्रकृति के भनुकूल मुराक सानी पाहिम ) भर में जाकर प्रतिदिन उपयाग म आनवाठी बस्नुर्भा के भी गुण भार दोप पान जान पर उन का उपयाग करता, मम कहिस यह फितनी भज्ञानता है, करा मम में विशाम पान का यही फल दे। मूल का पदाम पिपा का मे एक विधामी यदि यह नहीं जानता है फि मूली भोर प सभा मूंग की दाल और दूध मिश्रित कर मान सघरीर में भोडा २ नहर प्रतिदिन का होकर भविष्य में क्या २ बिगा। फरवारमा उस पदापिपा पाने से क्या काम है। मम सारा हा सही कि ऊपर लिप्पी दुइ पफ छार्टीमी मास की भी मर मियामी म कि सम में भी नहीं जानता मा भारोम्ममा फ पिप नियमो को मह पार जान समता पास उनके जानन भरिपारी हो सकना ! मगर उप पथा मिपाी भी जो कि भाप्रस प्रभार सारा की गति वा उन के परिसचन निया को कण्टयम पर पाने मनुर्भा परिषचम म शरीर में क्या २ परिवचन दावा है उस किये डिस २ भादार बिहार की संभाल रमनी चाहिम इत्यादि मा मिस नहीं जान १.वी प्रचार मूस और चन्द्रमा प्रहमभरणमा उनसे भाफपण मे समको मदानबार बार भाट (उसार पाप) नियम को तो (विपा ) समझ सगे पान इस प्रहपाउरीर पर या भसर होता है भोर उम्भापप स घरीर में नमपस में हम पर yिru - - Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३३५ किस प्रकार की न्यूनाधिकता होती है इन बातो का ज्ञान उन विद्यार्थियों को कुछ भी नहीं होता है, सिर्फ यही कारण है कि वैद्यक शास्त्र के नियमों का ज्ञान उन्हें न होने से वै स्वय उन नियमों का पालन नहीं करते है तथा दूसरों को नियमों का पालन करते हुए देखकर उन का उलटा उपहास करते हैं, जैसे देखो ! द्वितीया, पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णमासी और अमावस, इन तिथियों में उपवास और व्रत नियम का करना वैद्यक विद्या के आधार से बुद्धिमान् आचार्यों ने धर्म रूप में प्रविष्ट किया है, इस के असली तत्त्व को न समझ कर वे इस का हास्य कर अपनी विशेष अज्ञानता को प्रकट करते हैं, इसी प्रकार भाद्रपद में पित्त के सञ्चित हो चुकने से उस के कोप का समय समीप आता है इस लिये सर्वज्ञ ने पयूषण पर्व को स्थापन किया जिस में तेला उपवासादि करना होता है तथा इस की समाप्ति होने पर पारणे में लोग मीठा रस और दूध आदि पदार्थों को खाते है जिन के खाने से पित्त की बिलकुल शान्ति हो जाती है, देखो । चरक ने दोषों को पकाने के लिये लघन को सर्वोपरि पथ्य लिखा है उस में भी पित्त और कफ के लिये तो कहना ही क्या है, इसी नियम को लेकर आश्विन ( आसोज) सुदि सप्तमी वा अष्टमी से जैन धर्म वाले नौ दिन तक आबिल करते है तथा मन्दिरों में जाकर दीप और धूप आदि सुगन्धित वस्तुओ से खात्र अष्टप्रकारी और नवपदादि पूजा करते हैं जिस से शरद् ऋतु की हवा भी साफ होती है, क्योंकि इस ऋतु की हवा बहुत ही जहरीली होती है, शरीर में जो पित्त से रक्तसम्बधी विकार होता है वह भी आविल के तैप से शान्त हो जाता है, इसी प्रकार वसन्त ऋतु की हवा को शुद्ध करने के लिये भी चैत्र सुदि सप्तमी वा अष्टमी से लेकर नौदिन तक यही ( पूर्वोक्त तप) विधिपूर्वक किया जाता है जिस के पूजासम्बन्धी व्यवहार से हवा साफ होती है तथा उक्त तप से कफ की मी शान्ति होती है, इसी प्रकार से जो २ पर्व बाधे गये है वे सब वैद्यक विद्या के आश्रय से ही धर्मव्यवस्था प्रचारार्थ उस सर्वज्ञ के द्वारा आदिष्ट ( कथित ) है, एव अन्य मतों में भी देखने से वही व्यवस्था प्रतीत होती है जिस का वर्णन अभी कर चुके हैं, देखो । आश्विन के कृष्ण पक्ष में ब्राह्मणों ने जो श्राद्धभोजन चलाया है वह भी वैद्यक विद्या से सम्बध १-तेला उपवास अर्थात् तीन दिन का उपवास ॥ २-उपवास अथवा व्रत नियम के समाप्त होने पर प्रकृत्यनुसार उपयोज्य वस्तु के उपयोग को पारण कहते हैं। ३-अर्थात् पित्त और कफ के पकने के लिये तया उन की शान्ति के लिये तो लघन ही मुख्य उपाय है ॥ ४-आविल तप उसे कहते है जिस में सव रसो का त्याग कर चावल, गेहूँ, चना मूग और उडद इन पाच अन्नो मे से केवल एक अन निमक के विना ही सिजाया हुआ साया जाता है और गर्म कियाहुआ जल पिया जाता है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ जैनसम्प्रदायशिक्षा। रसता है भवात् भाद्र म प्राय दूप और मीठा माया जाता है जिस के माने से पिच शान्त हो जाता है, तात्रय यह है कि प्राचीन विद्वाना और बुद्धिमान ने जो २ मार मामु आदि के माहार विहार को विचार फर प्रवृत किये है वे सम ही मनुष्य के लिये परम लाभदायक है परन्तु उन के नियमों को ठीक रीति से न जानना तमा नियौ । जाने विना उन का मनमाना बचाव करना कमी ठामदायफ नहीं हो सकता है। भत्सन्त शाक के साथ लिसना पड़ता है कि यपपि प्राचीन सर्व व्यवहारा को पूर्वाचामांने पड़ी वरदाता के साथ पेपक विपा के नियमों के अनुसार पापा मा कि मिन से सने साधारण को आरोग्यता भादि मुखा फी माप्ति हो परन्तु वहमान में इतनी अमिषा पा रही है फि छोग उन मापीन समय के पूषाचार्मा के माप हुए सप व्यवहार के असती तत्व को न समझ कर उन में भी मनमाना अनुचित म्यवहार करने कगे है जिस से मुख के मदते उम्टी दुम फी री प्राप्ति होती है, मत मुजना का यह कर्तव्य है कि इस भार अवश्य ध्यान देफर वयक विधा के नियम के भनुसार पपि हुए मवहार के सत्व को सूम समझ कर उन्ही के अनुसार स्थमं पचाप फरें तथा दूसरों को भी उन की शिक्षा देकर उन में मारे कि जिस से देश का कल्याण हो तथा सर्वसाधारण की हितसिद्धि होने से उमय हाफ के सुर्मा की प्राप्ति हो । मह भनुम भध्याय फा सदाचारपणन नामफ नवा प्रकरण समाप्त हुमा । १-परम्म रपोप्रमिप बत्तमान प्रम में भरिया परम इम (भम) में बस एक मर मात्र परमा भपाम् ममग माफ भाव पिणा पत्तमान में भीम डिप सम मामायापनि विनीयोपमानामुमार गरमै और प्रभप्रेग्न उपम ८ पर प्रभाउन रित्तमरीभार गम र परम्नु भामी प्रामम से गूप सावरि बग्ने । भान में समर्पयामे पादान पर मरर मसेर परमा माया सदभार वरालु में पति भवन मरना मानो यमपी में सामाफिर मह भी देण मयार किए पर प्रामम मा रस ३ मिमत्रा भाव र मानवा मे विभासन से सब बगर भोजन करता मिपाम समप्न पाम (भारन पर भवनपना)मर रामों पा मून , सपरि पूर्व मुमार भार पम्नमा प्रयोग पर निया के भनुमोगा भारभ मधुर पाली बनम पित मान्ति भार अधिमान् पुरत इस पर भामरने से दम . उप प्रगान में समय सम्भार मान भी सन परम्परामान गमय भोभारम भापरपरसाखे मनुप्प पी पम्मा पूग पर राम माम मोरिसुम मरे भेउन पर भररसाना माना माल भरना र भोर समग पाकर पापा भी पवनभरन महरिवार भग-4 प्रोवन सा. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ दशवा प्रकरण-रोगसामान्य कारण ॥ रोग का विवरण ॥ आरोग्यता की दशा में अन्तर पड जाने का नाम रोग है परन्तु नीरोगावस्था और रोगावस्था के वीच की मर्यादा की कोई स्पष्ट पहिचान नहीं है कि-इन दोनों के बीच की दशा कैसी है और उस में क्या २ असर है, इस लिये इन दोनों अवस्थाओं का भी पूरा २ वर्णन करना कुछ कठिन वात है, देखो । आदमी को जरा भी खबर नहीं पड़ती है और वह एक दशा से धीरे २ दूसरी दशा में जा गिरता है अर्थात् नीरोगावस्था से रोगावस्था में पहुँच जाता है। ___ हमारे पूर्वाचार्यों ने इन दोनो अवस्थाओं का वर्णन यथाशक्य अच्छा किया है, उन्हीं के लेखानुसार हम भी पाठकों को इन के खरूप का बोध कराने के लिये यथाशक्ति चेष्टा करते हैं-देखो ! नीरोगावस्था की पहिचान पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार से की है कि-सव अंगों का काम स्वाभाविक रीति से चलता रहे-अर्थात् फेफसे से श्वासोच्छ्रास अच्छी तरह चलता रहे, होजरी तथा ऑतों में खुराक अच्छी तरह पचता रहे, नसों में नियमानुसार रुधिर फिरता रहे, इत्यादि सब क्रियायें ठीक २ होती रहें, मल और मूत्र आदि की प्रवृत्ति नियमानुसार होती रहे तथा मन और इन्द्रिया खस्थ रह कर अपने २ कार्यों को नियमपूर्वक करते रहें, इसी का नाम नीरोगावस्था है, तथा शरीर के अङ्ग स्वाभाविक रीति से अपना २ काम न कर सकें अर्थात् श्वासोच्छ्रास में अड़चल मालूम हो वा दर्द हो, रुधिर की गति में विषमता हो, पाचन क्रिया में विघ्न हो, मन और इन्द्रियो में ग्लानि रहे, मल और मूत्र आदि वेगों की नियमानुसार प्रवृत्ति न हो, इसी प्रकार दूसरे अगों की यथोचित प्रवृत्ति न हो, इसी का नाम रोगावस्था है अर्थात् इन बातों से समझ लेना चाहिये कि आरोग्यता नहीं है किन्तु कोई न कोई रोग हुआ है, इस के सिवाय जब किसी आदमी के किसी अवयव में दर्द हो तो भी रोग का होना समझा जाता है. विशेष कर दाहयुक्त रोगों में, अथवा रोग की आरम्भावस्था में आदमी नरम हो जाता है, किसी प्रकार का दर्द उत्पन्न हो जाता है, शरीर के अवयव थक जाते है, शिर में दर्द होता है और मूंख नहीं लगती है, जब ऐसे लक्षण मालूम पडें तो समझ लेना चाहिये कि कोई रोग हो गया है, जब शरीर में रोग उत्पन्न हो जाय तब मनुष्य को उचित है कि काम काज और परिश्रम को छोड़ कर रोग के हटाने की चेष्टा करे अर्थात् उस ( रोग ) को आगे न बढ़ने दे और उस के हेतु का निश्चय कर उस का योग्य उपाय करे, क्योंकि आरोग्यता का बना रहना ही जीव की खाभाविक स्थिति है और रोग का होना Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ चैनसम्मामशिया ॥ निरुति है, परन्तु सब छी नानवे भोर मानते है कि भवातावदनी नामक म मा जर उदय होता है तब चाहे बातमी कितनी ही सम्मान क्यों न रमले परन्तु उस से भून हुए विना क्वापि नहीं रहती है (अयस्य मूल होती है) फिन्तु जनता शातावनी फभ के योग स भादमी पुदरती नियम के अनुसार चलता है और बातफ शरीर को साफ दवा पानी और मुराफ का उपयोग मिग्ता देवनसक रोग के आन पर मम नहीं रहता दे, यपपि भादमी का कभी न घूमना पफ असम्भम पात है (मनुप्म पूरे बिरा पदापि नहीं बच सम्ता है) तथापि यदि विचारधीन भावमी शरीर के निपों ने पच्छे प्रकार समझ कर उन्दी के अनुसार वसाय फर तो बहुत से रोगों से अपने शरीर को पना सस्ता है॥ रोग के कारण ॥ इस बात का समदा सम को अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि करण के बिना रोग ममापि नदी हो सकता है और रोग के कारण को टीका २ जाने विना उस प्रमो प्रकार से बाज भी नहीं हो सकता है, इस बात को पदि पादमी मच्छी तरह समझ के तो पह सम्पन्चर (आन्तरिक) पिचारधीन शेफर भपने रोग की परीक्षा को सच ही कर सकता है भोर रोग की परीक्षा पर सेन फ बाद उस का इलाज कर छेना मी सापनि दी है, देसा । यस रोग का फारम निबन हो पायेगा तप रोग से रह सकता है। फ्यापि ममानता से दोकी र भूठ को शान से सुधारनेपर सामाविक निमम ही अपना काम करके फिर भससी मचा में पाया मेतादे, योफि जीप पा सरुप अम्मा पाप विप पापा से दिस भभात् भम्यापात )२इसलिये शरीर में रोग के कारण रोकनपाली मामायिक मकि स्थित दे, सरे--पुण्य के हत्या के रन से भी वाताअवनी फम में भी रोग रोकने की सामाविर फिदे, इस लिय रोग के मनेक भरण दो उपम फ पिना ही सामाविक प्रिया में दूर दात जाते है, पोफि एफ दूसरे के विरोधी दोन से रोग भार सामायिक शकि, सातापदनी भीर अवातावनीर्म सममा निधयनय सजीर और धर्म का परम्पर शरीर में सदा झगड़ा रहता है, पर हातावनी में की जीत होती है सन रोग को उस्यम परनेमा प्ररमों का कुछ भी भमर नही तारेन्गुि बन भसातारेवनी कम की जीत होती है म रोग के परम मादीममा मकवानपyutसतारो! भाद 1:-मनी बिम मेरोषागार ममगारवा प्रेयसीमामा पम में भागगरकोप बिमिया र माय भीमनाgade -- Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३३९ अपना असर कर उसी समय रोग को उत्पन्न कर देते हैं, देखो । पुण्य के योग से बलवान् आदमी के शरीर में रोग के कारणों को रोकनेवाली शातावेदनी कर्म की शक्ति अधिक हो जाती है परन्तु निर्वल आदमी के शरीर में कम होती है इस लिये वलवान् आदमी बहुत ही कम तथा निर्बल आदमी वार २ बीमार होता है। ___ जीव की स्वाभाविक शक्ति ही शरीर में ऐसी है कि उस से रोगोत्पत्ति के पश्चात् उपाय के विना भी रोग दव जाता वा चला जाता है, इस के अनेक उदाहरण शरीर में प्रायः देखे जाते है जैसे-आख में जब कोई तृण आदि चला जाता है तब शीघ्र ही अपने आप पानी झर झर कर वह ( तृण आदि ) वह कर बाहर निकल पड़ता है, यदि कभी रात में वह ( तृण आदि ) आख में पड़ जाता है तो प्रातःकाल स्वयं ही कीचड़ ( आख के मैल) के साथ निकल जाता है और आख विना इलाज किये ही अच्छी हो जाती है, कभी २ जब अधिक भोजन कर लेनेपर पेट में वोझा हो जाता है तथा दर्द होने लगता है तब प्रायः खय ही ( अपने आप ही ) अर्थात् ओषधि के विना ही वमन और दस्त होकर वह ( वोझा और दर्द ) मिट जाता है, यदि कोई इस वमन और दस्त को रोक देवे तो हानि होती है, क्योंकि जीव के साथ सम्बंध रखनेवाली जो शातावेदनी कर्म की शक्ति है वह पेट के भीतरी बोझे और दर्द को मिटाने के लिये वमन और दस्त की क्रिया को पैदा करती है, शरीरपर फोड़े, फफोले और छोटी २ गुमडिया होकर अपने आप ही मिट जाती हैं तथा जुखाम, शर्दी गर्मी और खासी होकर प्रायः इलाज के विना ( अपने आप ही ) मिट जाती है और इन के कारण उत्पन्न हुआ बुखार भी अपने आप ही चला जाता है, तात्पर्य यही है कि अशातावेदनी कर्म तो जीव के साथ प्रदेशवन्ध में रहता है और वह अलग है किन्तु शातावेदनी कर्म जीव के सर्व प्रदेशों में सम्बद्ध है, इस लिये ऊपर लिखी व्यवस्था होती है, जैसे-पक्की दीवारपर सूखे चूने की वा धूल की मुट्ठी के डालने से वह ( सूखा चूना वा धूल ) थोड़ा सा रह जाता है, वाकी गिर जाता है, वाकी रहा वह हवा के झपट्टे से अलग हो जाता है, इसी क्रम से वह रोग भी खतः मिट जाता है, इस से यह सिद्ध हुआ कि जीव के साथ कमी के चार बन्ध है अर्थात् प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवध और प्रदेशवन्ध, इन चारों बन्धों को लड्ड के दृष्टान्त से समझ लेना चाहिये-देखो ! जैसे सोंठ के लड्डु की प्रकृति अर्थात् स्वभाव तीक्ष्ण ( तीखा) होता है, इस को प्रकृतिवन्ध कहते हैं, वह लड्डु महीने भरतक अथवा वीस दिनतक निज स्वभाव से रहता है इस के वाद उस में वह खभाव नहीं रहता है, इस को स्थितिवंध अर्थात् अवधि ( मुद्दत ) बन्ध कहते है, छटाफ भर का, आधपाव का अथवा पाव भर का लड्डु है, इत्यादि परिमाण आदि को अनुभागवध कहते है, जिन २ पदार्थों के परमाणुओं को इकट्ठा कर के वह लड्डु वाघा गया है उस में स्थित जो पदार्थों के प्रदेश Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० चैनसम्प्रदायविया ॥ है उन फो मदेवध फहते हैं, मतिमन्ध के विषय में इसना और भी जान भेना पाहिये कि-से शानापरणी पर्भ का सभाय आसपर पट्टी बांधने के समान है उसी मार मिस २ फर्मों का मिज २ समाये दे, इन्ही मां के सम्बंध के अनुसार प्रदेधर्मप फे द्वारा उत्पन हुमा रोग साध्य सभा फप्टग्रामवफ होता है और स्मिविधपाग रोग साम्य, मसाध्य और फरसाध्यतफ होता है, इसी प्रकार भनेक पदधर्मसमावद्वारा अर्भाव स्वभाव से ( पिना ही परिश्रम फे) मिट जाते हैं परन्तु इस से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि सनदी व पीर रोग विना परिश्रम और बिना इगम के अच्छे हो मांगे, पोफि फर्मसगापजन्य कारणों में अन्सर होता है, देसो भोरी प्रधानता जप भोड़ा सा फट अर्थात् अस्स सुखार सनी और पेट फा दर्द आदि होसार सा वो पद शरीर में पफ दो दिनसफ गर्माची दम और यमन भादि की घोड़ी सी कसरी देकर अपने आप गिट जाता परन्तु पड़ी अमानता से परा का होता है भवात् को २ रोग उत्सम होकर मत दिनोसफ टहर है मा उन के पारणा को यदि न रोका जावे वो थे रोग गम्भीर रूप धारण करते हैं । ___ पहिले फद है कि-रोग के गर करो का सप से पहिला उपाय रोग के कारण को रोफ्ना ही है, क्योंकि रोग के कारण पी रायट दोने से रोग भाप दीक्षान्त हो जायगा, से यदि किसी को अधीर्म से मुसार आ जाये और यह पफ दो दिनतफ पन र मेपे अभया भंग की हार का पसगसा पानी अथवा अन्य कोई पाप हा पथ्य में तो यह (अनीर्मजन्य प्यर ) भीम ही पग जाता है परना रोग के कारण को समझे पिना यदि रोग की निधि के अनेक उपाय भी किये पा को भी रोग पर मारे २, रा से सिरफि रोग के कारण को समझ पर पाल पम्म परना जितना मागदायक होता है उनी भागवायफ मोपपि पदापि नहीं ले सकती है, पयोकि सो! पथ्य के न परमेपर सोपभि से छगी साम न दोसा था पम्प करने पर भोपधि की भी कोई भापश्यकता नहीं रती दे, इस पात म सवादी ध्यान रखना चाहिये कि ओपधि रोग नही मिटाती है कि यह रोग के मिटाने में सहायक मान दोती है। ऊपर जिस का पर्मन पर सुरेदे पर रोग को मिटानेपानी पीप की सामाविक शकि निधयनयरो सरीर रातदिन अपना प्रम परतीदी रवी६, उसको जब सानुकूल 14 सभाव भी न १-से निम मिम बातुनीराम। 1- मसरूरपारपूना समधिपार• प्रको .. r-auritus प्रम्बार 1-44 dAHANE मे मग म्योपनिय म पति सभा में समारबीर प र मुफ्त 40 मम ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३४१ आहार और विहार मिलता है तथा सहायक औषधि का संसर्ग होता है तब शीघ्र ही संयोगरूप प्रयत्न के द्वारा कर्म विशेषजन्य रोगपर जीव की जीत होती है अर्थात् शाताकर्म असाताकर्म को हटाता है, यह व्यवहारनय है, जो वैद्य वा डाक्टर ऐसा अभिमान रखते हैं कि रोग को हम मिटाते है उन का यह अभिमान बिलकुल झूठा है, क्योंकि काल और कर्म से बडे २ देवता भी हार चुके हैं तो मनुष्य की क्या गणना है ? देखों ! पांच समवायों में से मनुष्य का एक समवाय उद्यम है, वह भी पूर्णतया तब ही सिद्ध होता है जब कि पहिले को चारों समवाय अनुकूल हो, हा वेशक यद्यपि कई एक बाहरी रोग काटछाट के द्वारा योग्य उपचारो से शीघ्र अच्छे हो सकते है तथापि शरीर के भीतरी रोगों पर तो रोगनाशिका ( रोग का नाश करनेवाली ) स्वाभाविकी ( स्वभावसिद्ध ) शक्ति ही काम देती है, हा इतनी बात अवश्य है कि- -उस में यदि दवा को भी समझ बूझकर युक्ति से दिया जावे तो वह ( ओपधि ) उस स्वभाविकी शक्ति की सहायक हो जाती है परन्तु यदि विना समझे बूझे दवा दी जावे तो वह ( दवा) उस स्वामाविकी शक्ति की क्रिया को बन्द कर लाभ के बदले हानि करती है, इन ऊपर लिखी हुई बातों से यदि कोई पुरुष यह समझे कि जब ऐसी व्यवस्था है तो दवा से क्या हो सकता है ? तो उस का यह पक्ष भी एकान्तनय है और जो कोई पुरुष यह समझे कि दवा से अवश्य ही रोग मिटता है तो उस का यह भी पक्ष एकान्तनय है, इस लिये स्याद्वाद का स्वीकार करना ही कल्याणकारी है, देखो ! जीव की स्वाभाविक शक्ति रोग को मिटाती है यह निश्चयनय की बात है, किन्तु व्यवहारनय से दवा और पथ्य, ये दोनों मिलकर रोग को मिटाते हैं, व्यवहार के साधे विना निश्चय का ज्ञान नहीं हो सकता है इस लिये स्वाभाविक शक्तिरूप शातावेदनी कर्मको निर्बल करनेवाले कई एक कारण अशाताकर्म के सहायक होते है अर्थात् ये कारण शरीर को रोग के असर के योग्य कर देते है और जब शरीर रोग के असर के योग्य हो जाता है तब कई एक दूसरे भी कारण उत्पन्न होकर रोग को पैदा कर देते है । रोग के मुख्यतया दो कारण होते हैं - एक तो दूरवर्ती कारण और दूसरे समीपवर्ती कारण, इन में से जो रोग के दूरवर्त्ती कारण है वे तो शरीर को रोग के असर के योग्य कर देते हैं तथा दूसरे जो समीपवर्त्ती कारण है वे रोग को पैदा कर देते हैं अब इन दोनों प्रकार के कारणों का सक्षेप से कुछ वर्णन करते हैं: सर्वज्ञ भगवान् श्रीऋषभदेव पूर्व वैद्यने रोग के कारणों के अनेक भेद अपने पुत्र हारीत को बतलाये थे, जिन में से मुख्य तीन कारणों का कथन किया था, वे तीनों कारण १–इन्हों ने हारीतसहिता नामक एक बहुत बडा वैद्यक का ग्रन्थ बनाया था, परन्तु वह वर्त्तमान मे पूर्ण उपलब्ध नहीं होता है, इस समय जो हारीतसहिता नाम वैद्यक का ग्रन्थ छपा हुआ उपलब्ध ( प्राप्त ) होता है वह इन का बनाया हुआ नहीं है किन्तु किसी दूसरे हारीत का बनाया हुआ है ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदानशिका | ३४२ ये है — आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक, इन में से आध्यात्मिक कारण उन्हें कहते हैं कि यो कारण स्वत पाप कर्म के योग से माता पिता के रब नीर्म के विकार से तथा अपने आहार विहार के अमोम्म वर्षाव से उत्पन्न धोकर रोगों के कारण होते हैं, इस प्रकार के कारणों में ऊपर कहे हुए निश्चय और व्यवहार, इन दोनों नर्सों को सर्वत्र जान छेना चाहिये, वस्त्र का जखम और महरीके बल से उत्पन्न हुआ जखम भावि भनेक विध रोगोत्पादक ( रोगों को उत्पन्न करनेवाले) कारणों को तमा आगन्तुक कारणों को भाधिभौतिक कारण कहते हैं, इन सब में निःश्वमनय में यो पूर्व बद्ध कर्मोयम तथा व्यक हारनय में आगन्तुक कारण मानने चाहियें, हवा, बल, गर्मी, ठंड और ऋतुपरिवर्तन आदि जो रोगों के स्वाभाविक कारण है उन्हें आधिदैनिक कारण कहते हैं, इन कारणों में भी पूर्वोक दोनों ही नम समझने चाहियें । इन्हीं त्रिविध कारणों को पुनः दूसरे प्रकार से तीन प्रकार का बतलाया है जिन का वर्णन इस प्रकार है - Edinia स्वकृत - बहुत से रोग प्रत्येक मनुष्य के शरीर में अपनी ही मूठों से होते हैं, इस प्रकार के रोगों के कारणों को सकृत कहते हैं । २- परकृत-बहुत से रोग अपने पड़ोसी की, अपनी जाति की, अपने सम्बंधी की reer अन्य किसी दूसरे मनुष्य की मूल से अपने शरीर में होत है, इस प्रकार के रोगों के कारणों को परकृत कहते हैं । ३ – देवकृत वा स्वभाषजन्य - बहुत से रोग स्वाभाविक प्रकृति के परिवर्धन से शरीर में होते हैं, जैसे- ऋतु के परिवर्तन से हवा और मनुष्यों की प्रकृति में विकार होकर रोगों का उत्पन्न होना आदि, इस प्रकार के रोगों के कारणों को देस भगवा स्वभावजन्म कहते हैं । यद्यपि रोग के कारणों के ये तीन भेद ऊपर कहे गये हैं परन्तु वास्तव में वो मनुष्य कृत और वैवकृत, ये वादी मेद हो सकते हैं, क्योंकि रोगों के सब ही कारण इन दोनों भेवो में मन्तर्गत हो सकते है, इन दोनों प्रकार के कारणों में से मनुष्यकस कारण उन्हें कहते हैं जो कारण प्रत्येक आदमी भभवा आदमियों के समुदाय के द्वारा मिल कर भ हुए म्यवहारों से उत्पन्न होते है, इन मनुष्यकृत कारणों के भेद संक्षेप से इस प्रकार हो सकते १-क्योंकि मां बाप राज का विकार पर्भावस्था में गर्मियो की निरुद्ध वन भर जम्म ना कराना बारि कारण और के पूर्व दोन पीछ माया आदि पाउद कर और हार पैदा करते है Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १-प्रत्येक मनुष्यकृत कारण प्रत्येक मनुष्य अपनी भूल से आहार विहार की अपरिमाणता से और नियमों के उल्लंघन करने से जिन रोग वा मृत्यु को प्राप्त होने के कारणों को उत्पन्न करे, इन को प्रत्येक मनुप्यकृत कारण कहते हैं। २-कुटुम्वकृत कारण-~-कुटुम्ब में प्रचलित विरुद्ध व्यवहारों से तथा निकृष्ट आचारों से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते है, इन को कुटुम्बकृत कारण कहते है । ३-जातिकृत कारण-निकृष्ट प्रथा से तथा जाति के खोटे व्यवहारो से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं, इन्हें जातिकृत कारण कहते है, देखो । बहुत सी जातियों में वालविवाह आदि कैसी २ कुरीतिया प्रचलित है, ये सब रोगोत्पत्ति के दूरवत्ती कारण हैं, इसी प्रकार वोहरे आदि कई एक जातियों में बुरखे ( पड़दा विशेष ) का प्रचार है जिस से उन जातियों की स्त्रिया निर्वल और रोगिणी हो जाती है, इत्यादि रोगोत्पत्ति के अनेक जातिकृत कारण है जिन का वर्णन ग्रन्थविस्तारभय से नहीं करते है। ४-देशकृत कारण-~-बहुत से देशों की आव हवा ( जल और वायु ) के प्रतिकूल होने से अथवा वहा के निवासियों की प्रकृति के अनुकूल न होने से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं, इन्हें देशकृत कारण कहते हैं। ५-कालकृत कारण-वाल्य, यौवन और वृद्धत्व ( बुढ़ापा) आदि भिन्न २ अवस्थाओं में तथा छः ऋतुओं में जो २ वर्ताव करना चाहिये उस २ वर्ताव के न करने से अथवा विपरीत वर्ताव के करने से जो रोगोत्पत्ति के कारण होते है, इन्हें कालकृत कारण कहते है। ६-समुदायकृत कारण-मनुष्यों का भिन्न २ समुदाय एकत्रित होकर ऐसे नियमों को वाधे जो कि शरीर संरक्षण से विरुद्ध होकर रोगोत्पत्ति के कारण हों, इन्हें समुदायकृत कारण कहते हैं। ७-राज्यकृत कारण-राज्य के जो नियम और प्रवघ मनुप्यो की तासीर और जल वायु के विरुद्ध होकर रोगोत्पत्ति के कारण हो, इन्हें राज्यकृत कारण कहते हैं। ८-महाकारण-जिस से सब सृष्टि के जीव मृत्यु के भय में आ गिरें, इस प्रकार का कोई व्यवहार पैदा होकर रोगोत्पत्ति वा मृत्यु का कारण हो, इस प्रकार के कारण को महाकारण कहते हैं, अत्यन्त ही शोक का विषय है कि यह कारण वर्तमान समय में प्रायः सर्व जातियों में इस आर्यावर्त में देखा जाता है, जैसे-देखो ! ब्रह्मचर्य और गर्भाधान १-इस का अनुभव वहुत पुरुषों को हुआ ही होगा कि-अनेक कुटुम्बों में वडे २ व्यसनों और दुराचारों के होने से उन कुटुम्वों के लोग रोगी वन जाते हे ॥ २-जिन कारणों से पुरुषजाति तथा बीजाति की पृथक् २ हानि होती है वे भी (कारण) इन्हीं कारणों के अन्तर्गत हे॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ पादि सोलह संस्कार भावि व्यवहार वर्षमान समय में कैसे अपोवश्वापन्न (नीच दशा में पहुँचे हुए) है, विन को पूनाचार्य तो शारीरिक उन्नति के विस्तरपर ले जाने के अप समझ कर पर्म की आवश्यक क्रियाओं में गिनते थे, परन्तु मन पर्चमान समय में उन का प्रचार स्वायद विर ही स्थानों में होगा, इस का फारण यही है कि-तमान समय में राज्यात ममया मातिात न सो ऐसा कोई नियम ही रे मोर न गोगों को इन बातों का शान ही है, इस से गेग अपने रिवाहित को न विचार कर मनमाना गर्वाव करने मगे है, मिस का फल पाठकगण नेत्रों से प्रत्यक्ष ही देत रहे हैं कि मनुष्यगण तनछीन, मन मलीन, द्रव्यरहित और पुत्र तथा परिवार भावि से रहित हो गये हैं, इन सब दुखोंफा कारण केबस न करने योम्प व्यवहार का करना ही है, इस सर्ष हानि को व्यवहारनम की भपेक्षा समझना चाहिये, इसी को देव हो, चाहे धर्म कहो, चाहे भवितव्यता हो। -स्म धर्म यो सोगा स्वर मी मिमि "माचारवर पामक मत प्रब मैं विबरपूर्वमिमी, उन संस्परों माम बे-पापान पुसवम सन्म सूचना बाराम पारीपूजन पिम्म, नाममम ममापन रेप सफल उपम्पम विपरम्म हिवार, प्रयोग भौर भन्म स सोम स्पिक विपि पाव गोपट उपप्रवर्षन या पर वह या य सकता है परम्त पाठ मनाम पां पर सिर्फ ना ही किसन १ मा पस्पर लिस समय परया बाता-१-पापाका संस्पर यम राने के बाद पत्रे महीने में पराया जाय। २-पपर-पह संस्भर पमबती जाने माने में भयमा पाता है। अम्म-यह सेल्पर सम्मान चन्म समय में माया माता भर्पात् पम्म समय में योम योनिपी ने पुमा पर एन्वाब के कप प्र स्पर मामा वध ग्स नोतिषी घे म्पमा पीपल और मोर भादि (जोकरय रषित समा पाय वासी मपनी पमा मौर सचिणे) देना । -सूचनसम-मह संस्था भन्मदिन से दो दिन बतीत एने पर (ठीसरे दिन) राजा जाता है। पारसम-पा सस्पर भी सूर्यधमवर्गव संस्पर दिन मा सकेसरे दिन कराया जाता है। इस सस्पर में पास नपान मा याता(परिवरिपुल-कम्पकार से पोप विप तक प्रसूख भीमप रिचर बुच पता इस लिये गरम गोपपि द्वारा अपना माग पूप से पाठक नरकपरमा बैंककन्तु योन्म इस में पसी कर पाने के प्रचार रोप उत्पम ऐपते है, यह संस्मर भी हमारे रसी पर पुति परवा)। (-पणीपूरनपा स्पर कम से रामा बाध -मधि कपा मस्पर सम्म पमय से रच दिन मतीत नेमार (म्पाय मन) करावा या है।बामा-या सस्थर म एपिष्म सस्पर के दिन ही पराप पाता है। समापन- पत्थर के 4 मईमे बार बोर भी पार महोये के पब कराया चावा।। -कर्मवेषसमत्सर वासरे पाप वा सात बप में भाया पता -पापा-या संस्पर पोषित प्रमय में फरमा पापा दस संस्पर में बालक परवारामे पाते है इसे मुनमस्कार मी पट।११पक्र- पत्भिर बाठ की स्पीछे कमा पाता है। पारम्म-या संस्पर काम में मापापा।१४-निपा-या सस्पर उस समय में पाया जाता है या पया पाना चाहिये पर की और पुस इस स्पिर पेम्ब भवस्थामा ऐ बारें मोकिसे मापा पाने में खास बोधीवपा भीमता है उसी प्रपर भवस्था में निवास प्रमा भी मम मई पांचवा , मस्त बनेपनियों प्रेमवाद। १५-नबरोप-या स्परा बिस में जो पुम Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३४५ पहिले जो हम ने पांच समवाय रोग होने के कारण लिखे हैं-वे सब कारण (पाच समवाय) निश्चय और व्यवहारनय के विना नहीं होते है, इन में से विजुली या मकान आदि के गिरनेद्वारा जो मरना या चोट का लगना है, वह भवितव्यता समवाय है तथा यह समवाय सव ही समवायों में प्रधान है, गर्मी और ठंढ के परिवर्तन से जो रोग होता है उस में काल प्रधान है, प्लेग और हैजा आदि रोगों के होने में बंधे हुए समुदायी कर्म को प्रधान समझना चाहिये, इस प्रकार पाचों समवायों के उदाहरणों को समझ लेना चाहिये, निश्चयनय के द्वारा तो यह जाना जाता है कि उस जीव ने वैसे ही कर्म वाधे थे तथा व्यवहारनय से यह जाना जाता है कि उस जीव ने अपने उद्यम और आहारविहार आदि को ही उस प्रकार के रोग के होने के लिये किया है, इस लिये यह जानना चाहिये कि-निश्चयनय तो जानने के योग्य और व्यवहारनय प्रवृत्ति करने के योग्य है, देखो ! बहुत से रोग तो व्यवहारनय से प्राणी के विपरीत उपचार और वर्तावों व्रत का ग्रहण करते हैं। १६-अन्तकर्म-इस सस्कार का दूसरा नाम मृत्युसस्कार भी है, क्योंकि यह सस्कार मृत्युसमय में किया जाता है, इस सस्कार के अन्त मे जीवात्मा अपने किये हुए कर्मों के अनुसार अनेक योनियों को तथा नरक और स्वर्ग आदि को प्राप्त होता है, इस लिये मनुष्य को चाहिये कि-अपनी जीवनावस्था में कर्मफल को विचार कर सदा शुभ कर्म ही करता रहे, देसो ! ससार में कोई भी ऐसा नहीं है जो मृत्यु से वचा हो, किन्तु इस (मृत्यु) ने अपने परम सहायक कर्म के योग से सव ही को अपने आधीन किया है, क्योंकि जितना आयु कर्म यह जीवात्मा पूर्व भव से वाध लाया है उस का जो पूरा हो जाना है इसी का नाम मृत्यु है, यह आयु कर्म अपने पुण्य और पाप के योग से सव ही के साथ वधा है अर्थात् क्या राजा और क्या रक, सव ही को अवश्य मरना है और मरने के पश्चात् इस जीवात्मा के साथ यहा से अपने किये हुए पाप और पुण्य के सिवाय कुछ भी नहीं जाता है अर्थात् ससार की सकल सामग्री यहीं पढी रह जाती है, देखो ! इस ससार मे असख्य राजे महाराजे और वादशाह आदि ऐश्वर्यपात्र हो गये परन्तु यह पृथ्वी और पृथ्वीस्थ पदार्थ किसी के साथ न गये, किन्तु केवल सव लोग अपनी २ कमाई का भोग कर रवाना हो गये, इसी तत्वज्ञानसम्बन्धिनी वात को यदि कोई अच्छे प्रकार सोच लेचे तो वह घमण्ड और परहानि आदि को कभी न करेगा तथा धीरे २ शुभ कर्मों के योग से उस के पुण्य की वृद्धि होती जावेगी जिस से उस के अगले भव भी सुधरते जावेगे अर्थात् अगले भवों में वह सर्व सुखों से सम्पन्न होगा, परन्तु जो पुरुष इस तत्वसम्बन्धिनी वात को न सोच कर अशुभ कर्मों में प्रवृत्त रहेगा तो उन अशुभ कर्मों के योग से उस के पाप की वृद्धि होती जावेगी जिस से उस के अगले भव भी विगडते जावेगे अर्थात् अगले भवों में वह सर्व दुखों से युक्त होगा, तात्पर्य यही है कि मनुष्य के किये हुए पुण्य और पाप ही उस को उत्तम और अधम दशा मे ले जाते है तथा ससार मे जो २ न्यूनाधिकतायें तथा भिन्नताये दीख पडती हैं वे सब इन्हीं के योग से होती हैं, देखो ! सव से अधिक बलवान् और ऐश्वर्यवान् वडा राजा चक्रवत्ती होता है, उस की शक्ति इतनी होती है कि यदि तमाम ससार भी वदल जावे तो भी वह अकेला ही सव को सीधा ( कावू मे ) कर सकता है, अर्थात् एक तरफ तमाम ससार का बल और एक तरफ उस अकेले चक्रवती का वल होता है तो भी वह उसे वश मे कर लेता है, यह उस के पुण्य का ही प्रभाव है कहिये इतना वडा पद पुण्य के विना कौन पा सकता है ? तात्पर्य यही है कि-जिस ने पूर्व भव मे तप किया है, देव गुरु और धर्म की सेवा की है तथा परोपकार करके धर्म की बुद्धि का विस्तार किया है उसी को धर्मज्ञता और राज्यपदवी मिल सकती है, क्योंकि राज्य और सुख का मिलना पुण्य का ही फल है, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ चैनसम्प्रदामशिक्षा || से ही होते हैं, काल का सो स्वभाव ही वर्त्तने का है इस लिये कभी धीत और कमी गर्मी का परिवर्धन होता ही है, अत अपनी प्रकृति, पदार्थों के स्वभाव और ऋतुओं के स्वमाग फे अनुसार बचाव करना तथा उसी के अनुकूल बाहार और विहार का उपचार करना प्राणी के हाथ में है, परन्तु कर्म यति विचित्र है, इस लिये कुदरती कारणों से बो रोग के कारण पैदा होते है वे कर्मवच विरले ही भावमियों के शरीर में माताबरण में खो २ परिवर्तन होता है वह यो रोग तथा रोग के वाला है परन्तु उस में भी अपने कर्म के वक्ष कोई माणी रोगी ऋतुओं का जो परिवर्तन है वह याठाभरण भर्थात् दवा की शुद्धि से ही सम्बन्ध रखता है परन्तु उस से भी जो पुरुष रोगी हो जाते हैं उन के कृठ मी मान सकते हैं, इसलिये वास्तव में तो यही किस्म के रोग को पहिचान कर ही उन का मयोचित अन्य की सम्मति है ॥ रोगोत्पत्ति करते हैं, कारणों को दूर करनेहो जाते हैं, इस लिये लिये तो इन उचित मीठ इलाज करना विकारों को वैव होता है कि हर चाहिये, मही इस यदि मनुष्य पुभ्म (वर्म) न करे तो उस के किये दुवार (दुःख का भर ) नरक गति तैयार है, माझ ! इस संसार की अनिता को तथा कर्मगति के श्रमस्कार को देखो कि जिन के घर में नग निधान और श्री राम मौजूद मे सोलह हजार देव जिन के मां कर बीस हजार मुकुटधारी राजे जिन प सुजरा करते थे जिन के यहां न सूरत रानियों को सीएम जीधन मागवीवान निश्वान श्रौषडिये प्राम ममर, बम्म बगीचे राजधानी रखों की खान सोमा भोषी और हे की पार्ने दास बासी, नाटक मम्ही पायात के शाधा रसोइये मिती सम्बोटी मोसमूह बाबर हक पू तोपें माची म्याने पानकी और अर्शम के भागनेवाले निमिसिमे साजिर रहते ह ये और बनायें बिन की सेवा में हर वक्त उपस्थित रहते थे और जिनकी जूतियों में मी अमूल्य रमा करते थे वे भी बड़े गये तो इसरों की मिनती को फोन कर ? सोचो तो सही कि बस इस संसार में न रहे या मौरों को क्या क्या है। केसर और ऐश्वर्य की तरफ देखो कि-काय गोजन का सम्मा चौध जम्बूदीप है, उस में दक्षिण दिवा की तरफ मारतवर्ष नामक एक सब से पेय, इक दिडे विमानों पितो छ होते है, होता है, वासुदेव से या भेस छत्रपति होता है, इस प्रकार समीरदार बौर सर भी उन छयों कम्पों का माविक होता है, बासुदेव तीन काम ठिक राजा होता है, उस से होता है और उस से भी से नीच जठर १ यह भी मानना ही पडता है कि-सामन्तराय अडर अपनी पृथ्वी के राज्य ही है, इसी प्रकार दीवान और मायवीयान मपि राज्य है किन्तु राज्य क बोर है परन्तु तद्यपि सामान्य प्रज्य के लिये तो भी राजा के ही तुम्य है, दरमे । मनर्भर जनरक श्रम मर्जर आदि सक्रिय भी पपि राजा नहीं है किन्तु राजा भेजे हुए अधिकारी है परन्तु वापि बड़ के भेजे हुए होने से भी राजा के ही तुम्ब माने जाते हैं यह सब न्यूनापिस्ता कमल पुष्प और पाप की नाव से ही होती है, इस बात का सदा म्यान में रकम सब अधिकारियों को उचित कि म्यान केही मागपर च मम्मा के माप का सर्व नायकर म्ररों से भी माप करावे देखो! पुष्प प्राप से एक समय था कि भबण्ड के धर्मो को ममार्ग सडक राज मुजरा करत थे परन्तु पुष्प की होगा से आज वह समय है कि अवायड के राज्य को जागव के राजे मुजरा करते है यत्पर्य यह है कि जब जिसका सिवाय तंत्र होता है व उसी कार घोर चारों ओर है इसीलिये कहा Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ चतुर्थ अध्याय ॥ रोग के दूरवर्ती कारण ॥ देखो ! घर में रहनेवाले बहुत से मनुष्यों में से किसी एक मनुष्य को विषूचिका (हैजा वा कोलेरा ) हो जाता है, दूसरों को नहीं होता है, इस का कारण यही है किरोगोत्पत्ति के करनेवाले जो कारण हैं वे आहार विहार के विरुद्ध वर्ताव से अथवा मातापिता की ओर से सन्तान को प्राप्त हुई शरीर की प्राकृतिक निर्बलता से जिस आदमीका शरीर जिन २ दोषों से दब जाता है उसी के रोगोत्पत्ति करते हैं क्योंकि वे दोष शरीर को उसी रोग विशेष के उत्पन्न होने के योग्य बना कर उन्ही कारणों के सहायक हो जाते हैं इसलिये उन्ही २ कारणों से उन्हीं २ दोष विशेषवाला शरीर उन्हीं २ रोग विशेषों के ग्रहण करने के लिये प्रथम से ही तैयार रहता है, इस लिये वह रोग विशेष उसी एक आदमी के होता है किन्तु दूसरे के नहीं होता है, जिन कारणों से रोग की उत्पत्ति नही होती है परन्तु वे ( कारण ) शरीर को निर्बल कर उस को दूसरे रोगोत्पादक कारणों का स्थानरूप बना देते है वे रोग विशेष के उत्पन्न होने के योग्य बनानेवाले कारण कहलाते है, जैसे देखो ! जब पृथ्वी में बीज को बोना होता है तब पहिले पृथ्वी को जीतकर तथा खाद आदि डाल कर तैयार कर लेते है पीछे वीज को बोते हैं, क्योंकि जब पृथ्वी बीज के बोने के योग्य हो जाती है तब ही तो उस में बोया हुआ वीज उगता जाता है कि यह जीवात्मा जैसा २ पुण्य परभव करता है वैसा २ ही उस को फल भी प्राप्त होता है, देखो ! मनुष्य यदि चाहे तो अपनी जीवित दशा में धन्यवाद और सुख्याति को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि धन्यवाद और सुख्याति के प्राप्त करने के सब साधन उस के पास विद्यमान हैं अर्थात् ज्यों ही गुणों की वृद्धि की त्यों ही मानो धन्यवाद और सुख्याति प्राप्त हुई, ये दोनों ऐसी वस्तुयें हैं कि इन के साधनभूत शरीर आदि का नाश होने पर भी इन का कभी नाश नहीं होता है, जैसे कि तेल में फूल नहीं रहता है परन्तु उस की सुगन्धि वनी रहती है, देखो ! ससार में जन्म पाकर अलवत्तह सब ही मनुष्य प्राय. मानापमान सुख दुख और हर्ष शोक आदि को प्राप्त होते हैं परन्तु प्रशसनीय वे ही मनुष्य हैं जो कि सम भाव से रहते हैं, क्योंकि सुख दु ख और हर्ष शोकादि वास्तव में शत्रुरूप हैं, उन के आधीन अपने को कर देना अत्यन्त मूर्खता है, बहुत से लोग जरा से सुख से इतने प्रसन्न होते हैं कि फूले नहीं समाते हैं तथा जरा से दुख और शोक से इतने घवडा जाते हैं कि जल में डूव मरना तथा विप खाकर मरना आदि निकृष्ट कार्य कर बैठते हैं, यह अति मूर्खो का काम है, भला कहो तो सही क्या इस तरह मरने से उन को स्वर्ग मिलता है ? कभी नहीं, किन्तु आत्मघातरूप पाप से बुरी गति होकर जन्म जन्म में कष्ट ही उठाना पडेगा, आत्मघात करनेवाले समझते हैं कि ऐसा करने से ससार में हमारी प्रतिष्ठा बनी रहेगी कि अमुक पुरुष अमुक अपराध के हो जाने से लज्जित होकर आत्मघात कर मर गया, परन्तु यह उन की महा मूर्खता है, यदि अच्छे लोगों की शिक्षा पाई है तो याद रक्खो कि इस तरह से जान को खोना केवल बुरा ही नहीं किन्तु महापाप भी है, देखो ! स्यानागसूत्र के दूसरे स्थान मे लिखा है कि-क्रोध, मान, माया और लोभ कर के जो आत्मघात करना है वह दुर्गति का हेतु है, अज्ञानी और अव्रती का मरना वालमरण में दाखिल है, ज्ञानी और सर्व विरति पुरुष का मरना पण्डित मरण है, देशविरति पुरुप का मरना वालपण्डित मरण हैं और आरावना करके अच्छे ध्यान में मरना अच्छी गति के पाने का सूचक है ॥ 5 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ बेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ है, इसीमकार महुत से दोपरूप धारण शरीर को ऐसी दशा में ले पाते हैं कि यह (घरीर) रोगोस्पति के योग्य पन जाता है, पीछे उत्पन हुए नवीन फारम शीघ्र ही रोग को उत्पन्न कर देते हैं, यपपि सरीर फो रोगोस्पति के योम्म पनानेवाले फारण बहुत से हैं परन्तु अन्ध के विस्तार के भय से उन सब का वर्णन नहीं करना चाहते हैं किन्तु उन में से कुछ मुख्य २ कारणो फा वर्मन फरते है-१-माता पिता की निर्ममता । २-निन कुटुम्ब में विवाह । ५-पाठकपन में (कची अवस्था में) विवाह । ५-सन्तान न निगरना। ५-अवस्था । ३-माति । ७-जीविका वा पूपि (व्यापार)। ८-प्रति (सासीर) । स सरीर को रोगोसधि के योग्य बनानेवाले ये ही आठ मुरूम फारम हैं, अम इन म सक्षेप से वर्णन किया जाता है - १-माता पिता की निर्यलप्ता-पदि गर्भ रहने के समय दोनों में से ( माना पिता में से ) एक का शरीर निर्दल दोगा सो माठक भी भवश्म निर्मम ही उस्पष होगा, इसी प्रकार यदि पिसा की अपेक्षा माता भधिक अवसागाठी होगी भगना माता की भपेदा पिसा महुत ही मषिक अवस्थावाला होगा (मी की अपेक्षा पुरुष की मबस्था मोदी तथा दूनीतक शेगी सनतफ तो मोग ही गिना भायेगा परन्तु इस से अधिक भवस्थानाला पवि पुरुष होगा) तो यह बोरा नहीं फिन्त कुमोड़ा गिना मायगा इस कुबोरे से भी उत्पन्न हुमा मालक निठ होता है और निर्भरता जो है पही पहुन से रोगों प मूस कारण है। २-निज फलुम्म में विषाद-पह भी निर्माता का पफ मुस्स रेसु है, इस म्येि रेपक शाम भावि में इस का निपेप किया है, न केमस भैपक शास्त्र भादि में ही इस का निपेष किया है किन्तु इसके निपेप के मौकिक कारण भी महुत से हैं परन्तु उन का वर्णन मन्म के बा बाने के भय से महापर नहीं करना चाहते हैं । हो उन में से दो तीन परणों को सो मवश्य ही विसगना पाहसे है-वेसियो -यो! बी मिल पुमारि ममवान् धीरपमरे ने प्रयासमती नेमपे उपम पम से एलिना मा भयंत पूरे घमय में पुपम पोगें से मेधुन होवा या इसकी उस समय में जो प्रथा की पनि पी और यो पुस्पारंप प्रम र सबले में मिल पोगर पूर्व पर पुम्म प पर पापों से भोपवे में उस समय मापनास पेवा मा रेप कर प्रभुने पुस्मा गाने के पिन रसरों में सन्तति से विवाहपने पास दो वर पर योग एकसाब मम्मे हुए मेरेम परेरे पाव चम्मे ए मेरे से निबाहरने गे पड़ो मम में भी ऐसी ही भामरे परम्नु परपिकी बारस्य मा में ऐसा रियायो माता सपिम में पसे और पिता के मोत्र में व से ऐसी कम्पा के सत्व रत्तम पाठिपसे पुस्पतिवार मना परिये स्मारि, परन्तु पावर में दो बम -- पामीति फेममा ऐने से माननीय रे॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३४९ १-सस्कृत भाषा में वेटीका नाम दुहिता रक्खा है और उस का अर्थ ऐसा होता है कि-जिस के दूर व्याहे जाने से सब का हित होता है । २-प्राचीन इतिहासो से यह बात अच्छे प्रकार से प्रकट है और इतिहासवेत्ता इस बात को भलीभाँति से जानते भी है कि इस आर्यावर्त देश में पूर्व समय में पुत्री के विवाह के लिये स्वयंवर मण्डप की रचना की जाती थी अर्थात् स्वयंवर की रीति से विवाह किया जाता था और उस के वास्तविक तत्त्वपर विचार कर देखने से यह बात मालूम होती है कि वास्तव में उक्त रीति अति उत्तम थी, क्योंकि उस में कन्या अपने गुण कर्म और स्वभावादि के अनुकूल अपने योग्य वर का वरण (स्वीकार ) कर लेती थी कि जिस से आजन्म वे ( स्त्री पुरुष ) अपनी जीवनयात्रा को सानन्द व्यतीत करते थे, क्योंकि सब ही जानते और मानते है कि स्त्री पुरुष का समान स्वभावादि ही गृहस्थाश्रम के सुख का वास्तविक ( असली ) कारण है। ३-ऊपर कही हुई रीति के अतिरिक्त उस से उतर कर (घट कर ) दूसरी रीति यह थी कि वर और कन्या के माता पिता आदि गुरुजन वर और कन्या की अवस्था, रूप, विद्या आदि गुण, सद्वर्तीव और स्वभावादि बातों का विचार कर अर्थात् दोनों में, उक्त बातों की समानता को देखकर उन का विवाह कर देते थे, इस से भी वही अभीष्ट सिद्ध होता था जैसा कि ऊपर लिख चुके है अर्थात् दोनों (स्त्री पुरुष ) गृहस्थाश्रम के सुख को प्राप्त कर अपने जीवन को विताते थे । ___४-ऊपर कही हुई दोनों रीतियॉ जब नष्टप्राय हो गई अर्थात् स्वयंवर की रीति बन्द होगेई और माता पिता आदि गुरुजनों ने भी वर और कन्या के रूप, अवस्था, गुण, कमें और स्वभावादि का मिलान करना छोड़ दिया, तव परिणाम में होनेवाली हानि १-जैसा कि निरुक्त ग्रन्थ मे 'दुहिता' शब्द का व्याख्यान है कि-"दूरे हिता दुहिता" इस का भापार्य ऊपर लिखे अनुसार ही है, विचार कर देखा जाये तो एक ही नगर में वसनेवाली कन्या से विवाह होने की अपेक्षा दूर देश में वसनेवाली कन्या से विवाह होना सर्वोत्तम भी प्रतीत होता है, परन्तु खेद का विषय है कि-बीकानेर आदि कई एक नगरों में अपने ही नगर मे विवाह करने की रीति प्रचलित हो गई है तथा उक्क नगरों मे यह भी प्रथा है कि स्त्री दिनभर तो अपने पितृगृह (पीहर) मे रहती है और रात को अपने श्वसुर गृह (सासरे) में रहती है और यह प्रथा खासकर वहा के निवासी उत्तम वर्गों में अधिक है, परन्तु यह महानिकृष्ट प्रथा है, क्योंकि इस से गृहस्थाश्रम को बहुत हानि पहुँचती है, इस वुरी प्रथा से उक्त नगरों को जो २ हानियाँ पहुँच चुकी हैं और पहुँच रही हैं उन का विशेप वर्णन लेखके वढने के भय से यहा नहीं करना चाहते हैं, वुद्धिमान् पुरुष स्वय ही उन हानियों को सोचलेंगे। २-कनौज के महाराज जयचन्द्रजी राठौर ने अपनी पुत्री के विवाह के लिये खयवरमण्डप की रचना करवाई थी अर्थात् स्वयवर की रीति से अपनी पुत्री का विवाह किया था, वस उस के वाद से प्रायः उक्त रीती से विवाह नहीं हुआ अर्थात् वयवर की रीती उठ गई, यह वात इतिहासों से प्रकट है ॥ ३-द्रव्य के लोभ आदि अनेक कारणों से ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैनसम्प्रदामक्षिक्षा || की सम्भावना को विचार करे अनेक बुद्धिमानों ने वर और कन्या के गुण आदि का बिचार उन के अन्मपत्रादिपर रक्खा अर्थात् ज्योतिषी के द्वारा जन्मपत्र और महमोचर के विचार से उनके गुण आदि का विचार करवा कर सभा किसी मनुष्य को मेन कर बर और कन्या के रूप और भवस्था भावि को जान कर उन ( ज्योतिषी आदि) के कहवेने पर पर भौर कन्या का विवाह करने लगे, बस तब से यही रीति पचन्ति हो गई, जो कि मन भी मायः सर्वत्र देखी जाती है । अब पाठक गण प्रथम सरूमा में लिखे हुए दुद्दिता शब्द के अर्थ से तथा दूसरी संख्या से चौथी संख्या पर्थेन्स लिखी हुई विवाद की वीनों रीतियों से भी ( छौफिक कारणों के द्वारा ) निश्वय कर सकते हैं कि इन ऊपर कहे हुए कारणों से क्या सिद्ध होता है, केवल यही सिद्ध होता है कि निजकुटुम्ब में विवाह का होना सर्वथा निषिद्ध है, क्योंकि - देखो ! दुहिता शब्द का अर्थ यो स्पष्ट कह ही रहा है कि कन्या का निगाह दूर होना चाहिये, अर्थात् अपने ग्राम वा नगर आदि में नहीं होना चाहिये, अन विचारो ! कि-बब कन्या का विवाह अपने ग्राम या नगर आदि में भी करना निषिद्ध है तब मसा निज कुटुम्ब में व्याह के विषय में तो कहना ही क्या है ! इस के अतिरिक विवाह की जो उत्तम मध्यम और भ्रम रूप ऊपर तीन रीतियाँ कही गई है ये भी घोषणा कर साफ २ बतलाती है कि- निब कुटुम्ब में विवाह कयापि नहीं होना चाहिये, देखो ! १-मत् समान समाज और गुम आदि का विचार न करने पर विस्य सभान आदिके कारण कर और को श्रम का ही प्राप्त होषादिहानि की सम्भावना को विचार कर के २- परन्तु महाचोकका विषय है कि पर और कम्पा के माता पिता व्यादि गुरु जब सब इस अवि साधारण तीसरे दर्जे की रीती का भी होमादि से परिक्षा करता है वर्तमान में प्रायः देखा जाता है- श्रीमान् (इम्यपान) को अपने समान अपना अपने से भी अधिक प्रम्यास्पद पर देखते हैं, दूसरी बातों ( काकी से होता होना भारि हानिकारक भी बा बिक ही नहीं बेचते है, इसका कारण यह है कि हम्माद घराने में सम्बद होने से वे संसार में अपनी बासबरी को चाहते है कि बन्धी अमुक बड़े सेठजी है दम श्रीमान् के शिवाय को साधारण बन है उन को तो बड़ों को देखकर वैसा करना ही है अर्थात् मे कम चाहने पे कि हमारी कन्या बडे वर में न जाये बगवा हमारे करके का सम्बण मजे घर में न होने वात् यह है किगुण और कमाचादि सब बातों का विचार कर हम्प की ओर देखने मो बहाँतक कि ज्योतिषी भी बारिक को भी काम कर अपने पक्ष में करने लगे अर्थात् उन से भी अपना ही समीकर बाचे लगे इस के सिवाय मेमादि के कारण जो विवाह के विषय में कम्याविक्रय आदि अनेक हालिया हो चुकी है और होती जाती है उन को पाठक पण अच्छे प्रकार से जानते ही है उम को हम मम्बा विर करना नहीं चाहते है, किन्तु यहाँ पर तो 'विजकुम्प में विवाह कापि नहीं हो इस विषय को हुए प्रसाद वह स्वना व्यावस्यक समक्ष कर कहा पया है। नाश्रा है कि-पालक पन हमारे इस जेल से बचाने गये हो कर Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३५१ वयंवर की रीति से विवाह करने में यह होता था कि-निजकुटुम्ब से भिन्न (किन्तु देश की प्रथा के अनुसार खजातीय ) जन देश देशान्तरों से आते थे और उन सब के गुण आदि का श्रवण कर कन्या ऊपर लिखे अनुसार सब बातों में अपने समान पति का स्वयं (खुद) वरण (खीकार ) कर लेती थी, अब पाठकगण सोच सकते है कि यह (स्वयवर की) रीति न केवल यही बतलाती है कि-निज कुटुम्ब में विवाह नहीं होना चाहिये किन्तु यह रीति दुहिता शब्द के अर्थ को और भी पुष्ट करती है (कि कन्या का स्वग्राम वा स्वनगर आदि में विवाह नहीं होना चाहिये ) क्योकि यदि निज कुटुम्ब में विवाह करना अभीष्ट वा लोकसिद्ध होता अथवा स्वग्राम वा खनगरादि में ही विवाह करना योग्य होता तो वयवर की रचना करना ही व्यर्थ था, क्योकि वह (निज कुटुम्ब में वा स्वग्रामादि में ) विवाह तो विना ही खयवर रचना के कर दिया जा सकता था, क्योंकि अपने कुटुम्ब के अथवा खग्रामादि के सब पुरुपो के गुण आदि प्रायः सब को विदित ही होते हैं, अब खयवर के सिवाय जो दूसरी और तीसरी रीति लिखी है उस का भी प्रयोजन वही है कि जो ऊपर लिख चुके है, क्योंकि ये दोनो रीतिया स्वयंवर नही तो उस का रूपान्तर वा उसी के कार्य को सिद्ध करनेवाली कही जा सकती है, इन में विशेषता केवल यही है कि पति का वरण कन्या खय नहीं करती थी किन्तु माता पिता के द्वारा तथा ज्योतिपी आदि के द्वारा पति का वरण कराया जाता था, परन्तु तात्पर्य वही था कि-निज कुटुम्ब में तथा यथासम्भव खग्रामादि में कन्या का विवाह न हो। ऊपर लिखे अनुसार शास्त्रीय सिद्धान्त से तथा लौकिक कारणों से निजकुटुम्ब में विवाह करना निषिद्ध है अतः निर्वलता आदि दोपों के हेतु इस का सर्वथा परित्याग करना चाहिये ॥ ३-बालकपन में विवाह-प्यारे सुजनो ! आप को विदित ही है कि इस वर्तमान समय में हमारे देश में ज्वर, शीतला, विधूचिका (हैजा) और प्लेग आदि अनेक रोगों की अत्यन्त ही अधिकता है कि जिन से इस अभागे भारत की यह शोचनीय कुदशा हो रही है जिस का स्मरण कर अश्रुधारा बहने लगती है और दुःख विसराया भी नही जाता है, परन्तु इन रोगों से भी बढ़ कर एक अन्य भी महान् भयकर रोग ने इस जीर्ण भारत को वर दबाया है, जिस को देख व सुनकर वज्रहृदय भी दीर्ण होता है, तिस पर भी आश्चर्य तो यह है कि उस महा भयकर रोग के पजे से शायद कोई ही भारतवासी रिहाई पा चुका होगा, यह ऐसा भयकर रोग है कि-ज्यों ही वह (रोग) शिर पर चढ़ा त्योंही (थोड़े ही दिनों में ) वह इस प्रकार योथा और निकम्मा कर देता है कि जिस प्रकार गेहूँ आदि अन्न में धुन लगने से उस का सत निकल कर उस की अत्यन्त कुदशा हो जाती है कि जिस से वह किसी काम का नहीं रहता है, फिर देखो। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ दूसरे रोगों से तो व्यक्तिविशेष (किसी खास ) को ही हानि पहुँचती है परन्तु इस भय कर रोग से समूह का समूह ही परन उस से भी अधिक जाति जनसंख्या में देश बन संस्सा ही निकम्मी होकर कुवया को प्राप्त हो जाती है, सबनो । क्या भाप को माउन नहीं है कि यह वही महामयानक रोग है कि जिस से मनुष्य की मुरत ममावनी सभा नाफ कान और मांस आदि इन्द्रिा मोरेही दिनों में निकम्मी हो जाती है, उस में विचारकि का नाम तक नहीं रहता है, उस को उत्साह भोर साहस के स्वम में भी वर्शन नहीं होते हैं, सच पूछो तो जैसे ज्वर के रहने से सिष्ठी आदि रोग हो खाते हैं उसी प्रकार परन उस से भी अधिक इस महामयफर रोग के होने से प्रमेह, निस्सा , वीर्यविकार, पफरा, दमा, सासी और सय आदि भनेक रोग उत्पन्न होते हैं दिन से शरीर की चमक दमक भौर शोमा माती रहती है तथा मनुप्य भारसी और झोपी मन जाता है समा उस की बुद्धि प्रष्ट हो जाती है, वात्पर्य दिखन का यही है कि इसी महरा भयंकर रोग ने इस भारत को मिलन ही पोपट कर दिया, इसी ने लोगों को सम्म से मसम्य, रावा से रंक ( फकीर ) और दीर्घायु से भस्सायु पना दिया, माइयो ! कहा तक गिना सम प्रकार के मुख और पैमन को इसी ने छीन लिया। हमारे पाठकगण इस बात को सुनकर अपने मन में मिचार करने गे होंगे कि या कौन सा महान् रोग बला के समान है तथा उसके नाम को सुनने के लिये मस्यन्त विष्ठ होते होंगे, सो रे सजनो! इस महान् रोग को तो भाप से सुजन तो क्या किन्त सब ही बन जानते हैं, क्योंकि मविदिन भाप ही समों के गो में इस च निपास से रा, देसो ! कौन ऐसा भारतपपि बन है मो कि पचमान समय में इस से म सताया गया हो, बिस ने इस के पापड़ों को न घेता हो, जो इस के सौ से घायल होकर न ताफडाता हो, या वह मीठी मार है कि जिस के उगते ही मनुष्य अपने भाप ही सब मुम्मों की पूमाहुति देकर मियामि बन गाठे, इस पर भी पूरी यह है फि जा यह रोग किसी गृह में प्रवास करने को होता है वम दो तीन पार भया छ मास पहिने ही अपने भागमन की सूचना देता है, जब इस फ आगमन के दिन निम्ट पाते हैं सब सो पर उस ग्रह को पूर्णम्प से सपा पराता है, उस गृह के निवासियो को ही नहीं मिन्नु उन से सम्पन्न रमनेवासा में भी कपड़े सचे मुभर पहिनाता है, इस रे मागमन की पर प्रेमनार गृह में मंगलापार दोत , इपर उपर से भार मधु भाते हैं यह सब पुण् सा होता दीपि निरा रामि इन महारोग का भागमन ऐसा है उस रत्रि सम्पूण नगर में पठाइस मप जाता है भीर रम गर म पेगा उरसाद दावा है किमि पा पारापार दी नदी पार दसाना पर नारत सरसीद, रडियो नाप २ कर मुरारक मादनी, पर गार नार नाविगरानी परती, पण्डित वन मन्त्री Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३५३ का उच्चारण करते है, फिर सब लोग मिल कर अत्यन्त हर्ष के साथ उस महारोग को एक उस नादान भोली मूर्ति से चपेट देते है कि जिस के शिरपर मौर होता है, उस के दूसरे ही दिन प्रातःकाल होते ही सब स्थानों में इस के उस गृह में की घोषणा ( मुनादी ) हो जाती है । इस के बाद प्रवेश होने पाठक गण ! अब तो यह महान् रोग आप को प्रत्यक्ष प्रकट हो गया, कहिये तो सही यह किस 'धूमधाम से आता है 2 क्या २ खेल खिलाता है ? कैसे २ नाच नचाता है ? किस प्रकार सब को बेहोश कर देता है कि उस गृह के लोग तो क्या किन्तु अडोसी पड़ोसीतक इस के कौतुक में वशीभूत हो जाते है। सच पूछो तो इस रोग का ऐसे गाजे बाजे के साथ में घर में दखल होता है कि जिस में किसी प्रकार की रोक टोक नही होती है वरन यह कहना भी यथार्थ ही होगा कि सब लोग मिलकर आप ही उस महारोग को बुलाते है कि जिस का नाम "वाल्यविवाह" ( न्यून अवस्था का विवाह ) है । 心 V पाठक गण ऊपर के वर्णन से समझ गये होंगे कि - जो २ हानियां इस भारत वर्ष में हुई है उन का मूल कारण यही बाल्यावस्था का विवाह है, इस के विषय में वर्त्तमान समय के अच्छे २ वुद्धिमान् डाक्टर लोग भी पुकार २ कर कहते है कि-ऐसे विवाहो से कुछ लाभ नही है किन्तु अनेक हानियां होती है, देखिये डाक्टर डियूडविस्मिथ साहब (साविक प्रिन्सिपिल मेडिकल कालेज कलकत्ता ) का वचन है कि - "न्यून अवस्था के विवाह की रीति अत्यन्त अनुचित है, क्योंकि इस से शारीरिक तथा आत्मिक बल जाता रहता है, मन की उमग चली जाती है- फिर सामाजिक बल कैसा 2" डाक्टर नीवीमन कृष्ण वोष का वचन है कि - " शारीरिक बल के नष्ट होने के जितने कारण है उन सब में मुख्य कारण न्यून अवस्था का विवाह जानो, यही मस्तक के चल की उन्नति का रोकनेवाला है" । मिसस पी. जी. फिफसिन ( लेडी डाक्टर मुम्बई ) का कथन है कि - " हिन्दुओं की स्त्रियों में रुधिरविकार तथा चर्मदूषण आदि बीमारियों के अधिक होने का कारण बाल्यविवाह ही है, क्योंकि इस से सन्तान शीघ्र उत्पन्न होती है, फिर उस को उस दशा में दूध पिलाना पड़ता है जब कि माता की रंगें दृढ़ नहीं होती है, जिस से माता दुर्बल होकर नाना प्रकार के रोगों में फॅस जाती है" । डाक्टर महेन्द्रलाल सर्कार एम डी का वचन है कि- "बाल्यावस्था का विवाह अत्यन्त वुरा है, क्योंकि इस से जीवन की उन्नति की बहार लुट जाती है तथा शारीरिक उन्नति का द्वार बन्द हो जाता है" । उक्त डाक्टर साहब ने किसी समय सभा के बीच में यह भी वर्णन किया था कि- मै अपनी तीस वर्ष की परीक्षा से यह कह सकता हूँ कि फी सदी २५ स्त्रिया बाल्यावस्था के ४५ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनसम्प्रदामशिक्षा || विवाद के हेतु से मरती है तथा फी सदी दो मनुष्य इसी से ऐसे हो जाते हैं कि जिन को सदा रोग घेरे रहते हैं और वे आने मायु में ही मरते है । प्रिय सज्जनो ! इस के अतिरिक्त अपने वासों की तरफ तथा माचीन इतिहासों की तरफ भी जुरा दृष्टि दीलिये कि विवाह का क्या समय है और वह किस प्रयोजन के लिये किया जाता है- आर्य ( ऋपिप्रणीत ) प्रन्थोंपर डालने से मह बात स्पष्ट प्रकट होती है कि विवाह का मुख्य प्रयोजन सन्तान का उत्पन्न करना है और उस का ( सन्तानोत्पत्ति का ) समय शास्त्रकारों ने इस प्रकार कहा है कि: स्त्रियां पोडशवर्षायां, पश्चविंशतिहायनः ॥ बुद्धिमानुधर्म कुर्यात्, विशिष्टसुतकाम्यया ॥ १ ॥ अर्थ - पच्चीस वर्ष की अवस्थाबाले (जमान) बुद्धिमान पुरुष को सोखह वर्ष की स्त्री के साथ सुपुत्र की कामना से समोग करना चाहिये ॥ १ ॥ तदा हि प्राप्तषीय ती, सुतं जनयत परम् ॥ आयुर्बलसमायुक्तं, सर्वेन्द्रिय समन्वितम् ॥ २ ॥ अर्थ – क्योंकि उस समय दोनों ही (श्री पुरुष ) परिपक्क ( पके हुए) वीर्म से युक्त होने से आयु बल तथा सर्व इन्द्रियों से परिपूर्ण पुत्र को उत्पन्न करते हैं ॥ २ ॥ न्यूनपोडशषर्पाया, न्यूनान्यपचविंशतिः ॥ पुमान् य जनयेद् गर्भे, स प्रायेण विपद्यते ॥ ३ ॥ अल्पायुर्बलहीनो षा, दारिद्र्योपतोऽथवा ॥ कुष्ठादि रोगी यदि वा भषेश विकलेन्द्रियः ॥ ४ ॥ अर्थ - यदि पचीस वर्ष से कम अवस्थाबाला पुरुष - सोखह वर्ष से कम अवस्थाबाली स्त्री के साथ सम्मोग कर गर्भाधान करे तो वह गर्भ माय गर्भाशय में ही मात को मात हो जाता है || ३ || अथवा वह सन्तति अस्य भायुमानी, निर्बल, वरित्री, कुछ भाषि रोगों से युक्त, अथवा विकलेन्द्रिय (अपांग) होती है ॥ ४ ॥ छात्रों में इस प्रकार के वाक्य अनेक स्थानों में मिले हैं जिन का कहांतक वर्णन करें। मिममित्रो ! अपने और देश के शुभचिन्तको ! अब माप से यही कहना है कि यदि आप अपने सन्सानों को सुखी देखना चाहते हो तथा परिवार और देश की उमति को चाहते हो तो सब से प्रथम आप का यही कर्तव्य होना चाहिये कि भनेक रोगों के मूल कारण इस बाल्यावस्था के विवाह की कुरीति को बंद कर छात्रोक रीति को प्रचक्ति विवेक १३ चैवाचार्य श्री में Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३५५ कीजिये, यही आप के पूर्व पुरुषों की सनातन रीति है इसी के अनुसार चलकर प्राचीन काल में तुल्य गुण कर्म और खभाव से युक्त स्त्री पुरुष शास्त्रानुसार स्वयंम्बर में विवाह कर गृहस्थाश्रम के आनन्द को भोगते थे, बाल्यावस्था में विवाह होने की यह कुरीति तो इस भारत वर्ष में मुसलमानों की बादशाही होने के समय से चली है, क्योकि मुसलमान लोग हिन्दुओं की रूपवती अविवाहिता कन्याओं को जबरदस्ती से छीन लेते थे किन्तु विवाहिताओं को नहीं छीनते थे, क्योंकि मुसलमानों की धर्मपुस्तक के अनुसार विवाहिता कन्याओ का छीनना अधर्म माना गया है, बस हिन्दुओ ने " मरता क्या न करता " की कहावत को चरितार्थ किया क्योंकि उन्हों ने यही सोचा कि अब बाल्य विवाह के विना इन ( मुसलमानों ) से बचने का दूसरा कोई उपाय नहीं है, यह विचार कर छोटे २ पुत्रों और पुत्रियो का विवाह करना प्रारम्भ कर दिया, बस तब से आजतक वही रीति चल रही है, परन्तु प्रिय मित्रो ! अब वह समय नहीं है अब तो न्यायशीला श्रीमती बृटिश गवर्नमेंट का वह न्याय राज्य है कि जिस में सिंह और बकरी एक घाट पर पानी पीते है, कोई किसी के धर्मपर आक्षेप नहीं कर सकता है और न कोई किसी को विना कारण छैड वा सता सकता है, इस के सिवाय राज्यशासकों की अति प्रशसनीय बात यह है कि वे परस्त्री को बुरी दृष्टि से कदापि नही देखते है, जब वर्त्तमान ऐसा शुभ समय है तो अब भी हमारे हिन्दू (आर्य ) जनों का इन कुरीतियों को न सुधारना बड़े ही अफसोस का स्थान है । इस के सिवाय एक विचारणीय विषय यह है कि - जिस समय जिस वस्तु की प्राप्ति की मन में इच्छा होती है उसी समय उस के मिलने से परम सुख होता है किन्तु विना समय के वस्तु के मिलने से कुछ भी उत्साह और उमंग नही होती है और न किसी १ - स्वयवररूप विवाह परम उत्तम विवाह है, इस में यह होता था कि कन्या का पिता अपनी जाति के योग्य मनुष्यों को एक तिथिपर एकत्रित होने की सूचना देता था और वे सब लोग सूचना के अनुसार नियमित तिथिपर एकचित होते थे तथा उन आये हुए पुरुषों में से जिसको कन्या अपने गुण कर्म और स्वभाव के अनुकूल जान लेती थी उसी के गले मे जयमाला ( वरमाला ) डाल कर उस से विवाह करती थी, बहुधा यह भी प्रथा थी कि खयवरों में कन्या का पिता कोई प्रण करता था तथा उस प्रण को जो पुरुष पूर्ण कर देता था तब कन्या का पिता अपनी कन्या का विवाह उसी पुरुष से कर देता था, इन सव वातों का वर्णन देखना हो तो कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत संस्कृत रामायण तथा पाण्डवचरित्र आदि प्रन्थो को देखो ॥ २ - इतिहासों से सिद्ध है कि आर्यावर्त के बहुत से राजाओं की भी कन्याओं के डोले यवन बादशाहों ने लिये है, फिर भला सामान्य हिन्दुओं की तो क्या गिनती है ॥ ३- क्योंकि विवाहिता कन्यापर दूसरे पुरुष का ( उसके खामी का ) हक हो जाता है और इन के मत का यह सिद्धान्त है कि दूसरे के हक में आई हुई वस्तु का छीनना पाप है ॥ ४- सचमुच यही गृहस्थाश्रमका प्रथम पाया भी है ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनसम्प्रदायशिक्षा || मकार का आनन्द ही आता है, जिस प्रकार मूख के समय में सुखी रोटी भी अच्छी जान पड़ती है परन्तु मूल के विना मोहनभोग को खाने को भी जी नहीं चाहता है, इसी मकार योग्य अवस्था के होनेपर तथा स्त्री पुरुष को बिवाह की इच्छा होनेपर दोनों को आनन्द प्राप्त होता है किन्तु छोटे २ पुत्र और पुत्रियों का उस दशा में जब कि उन को न तो कामामि ही सताती है और न उन का मन ही उमर को जाता है, विवाह कर देने से क्या लाभ हो सकता है कुछ भी नहीं, किन्तु यह विवाह तो विना भूल स्वाये हुए भोजन के समान भनेक हानियां ही करता है। 1 के हे सुजनो ! इन ऊपर कही हुई हानियों के सिवाय एक बहुत बड़ी हानि यह होती है कि जिस के कारण इस भारत में चारों भोर हाहाकार मच रहा है तथा जिससे उसके निर्मल यश में पब्बा माग रहा है, वह बुरी बाल विधवाओं का समूह है कि जिन की आई इस भारत के भाव पर और भी नमक डाल रही हैं, हा प्रभो ! वह कौन सा ऐसा घर है जिस में विधवाओं के दर्शन नहीं होते हैं, उसपर भी ने भोली विभवायें कैसी हैं कि जिन के तुम के दाँतक नहीं गिरे हैं, न उन को अपने विवाह की कुछ सुध बुध है और न वे यह जानती है कि हमारी भूड़ियां पैदा होते ही कौन सा वज्रपात हो गया है, इसपर भी तुर्रा वरुण होती है सब कामानक ( कामामि ) के प्रथम होनेपर होता है। भला सोचिये तो सही कि कामानल के मुःसह तेन का सहन कैसे हो सकता है सिर्फ यही कारण है कि हजारों में से दक्ष पांच ही सुन्दर आचरणवासी होती है, नहीं तो माय नाना सीखायें रचती हैं कि बिन से निष्कलंक कुलवालों के भी श्चिर से कच्या की पगड़ी गिर जाती है, क्या उस समय कुलीन पुरुषों की मूछें उन के मुँहपर शोभा देती है ? नहीं कभी नहीं, उन के यौवन का मद एकदम उत्तर जाता है, उन की प्रविष्यपर भी इस मकार छार पड़ जाती है कि दक्ष भावमियों में ऊँचा मुँह कर के उन की पोलने की भी ताकत नहीं रहती है, सत्य तो यह है कि मातापिता इस बस्ती हुई चिताको अपनी छातीपर देख २ कर हाड़ों का सांचा या जाते हैं, इन सब शो का कारण मायावस्था का विवाह ही है, देखो ! भारत में विधवाओं की संख्या वर्तमान में इतनी है कि जितनी अन्य किसी देश में नहीं पाई जाती, स्पा में विवाद नहीं होता है, देखो ! पूर्वकाल में जब इस भारत में मास्यावस्था में 1 क्योंकि अन्यत्र मामा विवाह नहीं होता था तब यहाँ विधवाओं की गणना (संख्या) बहुत ही न्यून भी । पावसा के विवाद से दानि का प्रत्यक्ष प्रमाण और इष्टान्त यही है कि देखा ! जब किसी सेव में गेहूँ भादि भम को पावे देवा जमने के पीछे वृद्म पांच दिन में बहुव से मर जाते हैं, एक महीन पीछे मत फम मरते थे, दो चार महीने के पीछे क्योंकर कूटी हैं, हमारे ऊपर यह है कि जब ये बेचारी उन का नियोग भी नहीं Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३५७ अत्यन्त ही कम मरते ह, इस के पश्चात् बचे हुए चिरस्थायी हो जाते है, इसी प्रकार जन्म से पांच वर्षतक जितने वालक मरते है उतने पाच से दश वर्पतक नहीं मरते है, दश से पन्द्रह वर्षतक उस से भी बहुत कम मरते हैं, इस का हेतु यही है कि वाल्यावस्था में दांतों का निकलना तथा शीतला आदि अनेक रोग प्रकट होकर बालकों के प्राणघातक होते है। ___ समझने की बात है कि-जब किसी पेड की जड मजबूत हो जाती है तो वह वही २ ऑधियों से भी बच जाता है किन्तु निर्बल जडवाले वृक्षों को आधी आदि तूफान समूल उखाड़ डालते है, इसी प्रकार वाल्यावस्था में नाना भाति के रोग उत्पन्न होकर मृत्युकारक हो जाते हैं परन्तु अधिक अवस्था में नहीं होते है, यदि होते भी है तो सौ में पाच को ही होते है। ___ अब इस ऊपर के वर्णन से प्रत्यक्ष प्रकट है कि यदि वाल्यावस्था का विवाह भारत से उठा दिया जावे तो प्राय. बालविधवाओं का यूथ ( समूह ) अवश्य कम हो सकता है तथा ये सव ( ऊपर कहे हुए) उपद्रव मिट सकते है, यद्यपि वर्तमान में इस निकृष्ट प्रथा के रोकने में कुछ दिक्कत अवश्य होगी परन्तु बुद्धिमान् जन यदि इस के हटाने के लिये पूर्ण प्रयत्न करें तो यह धीरे २ अवश्य हट सकती है अर्थात् धीरे २ इस निकृष्ट प्रथा का अवश्य नाश हो सकता है और जव इस निकृष्ट प्रथा का बिलकुल नाश हो जावे गा अर्थात् वाल्यविवाह की प्रथा बिलकुल उठ जावे गी तब निस्सन्देह ऊपर लिखे सब ही उपद्रव शान्त हो जायेंगे और महादुःख का एक मात्र हेतु विधवाओं की संख्या भी अति न्यून हो जावेगी अर्थात् नाममात्र को रह जावेगी (ऐसी दशा में विधवा विवाह वा नियोग विषयक चर्चा के प्रश्नके भी उठने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी कि जिस का नाम सुनकर साधारण जन चकित से रह जाते है) क्योकि देखो ! यह निश्चयपूर्वक माना जा सकता है कि यदि शास्त्रानुसार १६ वर्ष की कन्या के साथ २५ वर्ष के पुरुष का विवाह होने लगे तो सौ स्त्रियों में से शायद पाँच स्त्रियाँ ही मुश्किल से विधवा हो सकती है ( इस का हेतु विस्तारपूर्वक ऊपर लिख ही चुके है कि बाल्यावस्था में रोगों से विशेष मृत्यु होती है किन्तु अधिकावस्था में नहीं इत्यादि ) और उन पाँच विधवाओं में से भी तीन विधवायें योग्य समय में विवाह होने के कारण अवश्य सन्तानवती माननी पड़ेगी अर्थात विवाह होने के बाद दो तीन वर्ष में उन के बालबच्चे हो जावेंगे पीछे वे विधवा होगी ऐसी दशा में उन के लिये वैधव्ययातना अति कष्टदायिनी नहीं हो सकती है, क्योंकि-सन्तान के होने के बाद यदि कुछ समय के पीछे पतिका मरण भी हो जावे तो वे स्त्रियाँ उन बच्चों की भावी आशापर उन के लालन पालन में अपनी आयु को सहज में व्यतीत कर सकती हैं और उन को उक्त दशा में Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ चैनसम्पदायशिक्षा ॥ विधवापन की तकलीफ विक्षेप नहीं हो सकती है, बस इस हिसाब से सो विवाहिता सियों में से केवल दो विभवायें ऐसी दीख पड़ेगी कि मो सन्तानहीन तथा निराश्रमस्त् होंगी अर्थात् जिन का कुछ अन्य प्रबन्ध करने की आवश्यकता रहेगी। इस किये सब उच्च वर्ण ( ऊंची माति बालों को उचित है कि स्वयंवर की रीति से विवाह करने की प्रथा को अवश्य मचलित करें, यदि इस समय किसी कारण से वक रीति का मचार न हो सके तो आप खुद गुप्ण कर्म और स्वमान को मिलमकर उसी मकार फार्म को कीजिये कि जिस मकार आप के प्राचीन पुरुष करते थे । देखिये ! बियाह होने से मनुष्य गृहस्थ हो जाते हैं और उन को प्राम गृहस्थोपयोगी सब ही प्रकार के पदार्थों की आवश्यकता होती है तथा मे सब पदार्थ धन ही से पास होते हैं और धन की प्राप्ति मिधा मादि उतम गुणों से ही होती है वमा विद्या भावि उत्तम गुणों के माप्त करने का समय केवल मास्मानम्पा ही है, भत यदि मास्यावस्था में विवाद कर सन्तान को बन्धन में डाल दिया जावे तो फहिमे विद्या मावि उद्यम गुणों की प्राप्ति कब और कैसे हो सकती है तथा विद्या आदि उद्यम गुणों के अभाव में मन की मावि कैसे हो सकती है और उस के बिना भावश्यक गृहस्थोपयोगी पदार्थों की अनुपम् (अमाधि) से गृहस्थाश्रम में पूर्ण सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ! सत्य तो यह है कि मायावस्था में विवाह का कर देना मानो सब भाभमों को और उनक सुखों को नष्ट कर देखा है, इसी कारण से तो प्राचीन काल में विद्याध्ययन के पश्चात् विवाह होता था, शास्त्रकारों ने भी यही आशा दी है कि मंत्रम अच्छे मकार से विद्या ध्ययन कर फिर विवाह कर के गृह में वास करें, क्योंकि विद्या, मार्ग के माप्त हुए बिना गृहस्थाश्रम का पालन नहीं किया जा इन ( विद्या भावि) को प्राप्त नहीं किया वह पुरुष धर्म, अर्थ, नहीं सिद्ध कर सकता है ॥ जितेन्द्रियता और पुरु सकता है और जिस ने काम और मोक्ष को भी १-माम पिता को उचित है कि जब अपने पुत्र और पुत्री युवावस्था को बोम्ब कम्पा और मर के महाचमे की निष्त भार सहते की तथा उम्र के धर्माचरण की अच्छे परीक्षा करके ही उनका विवाह करें इसकी विधि कारों ने इस प्रकार की है कि-१ अवस्था १५ वर्ष की वथा की समस्या सोच्छ वर्ष की होगी चाहिये। १ के कम के बराबर होनी चाहिने भागमा इस से भी कुछ कम होनी चाहिये ही चाहिये। रोगों पर सम होने चाहिये। उन्दोनों या दोनों ही सूर्य होने चाहि पुत्रीके गुण-१ ३-जिस के सरीरपर बड़े ९ मा ५- कारीर हो। बस की बाली मधुर के प्राप्त हो जाये तब उनक प्रकार से की से विद्वान होने पाहिये अवमा शरीर में कोई रोग न हो। बस के शरीर में दुर्वन्पम आती हो । न हो तथा मूँछ के बाल भी न हो। ४- बकवाद करनेवाली हो वा महीन मी न हो। जिसका शरीर कम हो परम्प - जिसका गर्म पीम न हो। ९ यो भूरे मेवाको १०-विय Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 चतुर्थ अध्याय ॥ ३५९ ४ - सन्तान का विगड़ना-बहुत से रोग ऐसे है जो कि पूर्व क्रम से सन्तानो के हो जाते है अर्थात् माता पिता के रोग बच्चों को हो जाते है, इस प्रकार के रोगों में मुख्य २ ये रोग है-क्षय, दमा, क्षिप्तचिचता ( दीवानापन ), मृगी, गोला, हरस ( मस्सा), सुजाख, गर्मी, आख और कान का रोग तथा कुष्ठ इत्यादि, पूर्वक्रम से सन्तान में होनेवाले बहुत से रोग अनेक समयों में वृद्धि को प्राप्त होकर जब सर्व कुटुम्ब का संहार कर डालते हैं उस समय लोग कहते है कि देखो ! इस कुटुम्ब पर परमेश्वर का कोप हो गया है परन्तु वास्तव में तो परमेश्वर न तो किसी पर कोप करता है और न किसी पर प्रसन्न होता है किन्तु उन २ जीवो के कर्म के योग से वैसा ही सयोग आकर उपस्थित हो जाता है क्योंकि क्षय और क्षिप्तचित्तता रोग की दशा में रहा हुआ जो गर्भ है वह भी क्षय रोगी तथा क्षिप्तचित्त ( पागल ) होता है, यह वैद्यकशास्त्र का नियम है, इसलिये चतुर पुरुषों को इस प्रकार के रोगों की दशा में विवाह करने तथा सन्तान के उत्पन्न करने से दूर रहना चाहिये । किसी २ समय ऐसा भी होता है कि-सन्तान के होनेवाले रोग एक पीढ़ी को छोड़ कर पोते के हो जाते हैं । 1 श्री स सन्तान के होनेवाले रोगों से युक्त बालक यद्यपि दुरुस्त दीखते है परन्तु उन की उस तनदुरुस्ती को कि वे नीरोग है, क्योंकि ऐसे अनेक समयों में प्रायः पहिले तनदेखकर यह नही समझना चाहिये बालकों का शरीर रोग के लायक अथवा रोग के लायक होने की दशा में ही होता है, ज्योही रोग को उत्तेजन देनेवाला कोई कारण बन जाता है। त्यों ही उन के शरीर में शीघ्र ही रोग दिखलाई देने लगता है, यद्यपि सन्तान के होनेवाले रोगों का ज्ञान होने से तथा वचपन में ही योग्य सम्भाल रखने से भी सम्भव है कि उस रोग की बिलकुल जड़ न जावे तो भी मनुष्य का उचित उद्यम उस को कई दजों में कम कर सकता तथा रोक भी सकता है ॥ का नाम शास्त्रानुसार हो, जैसे-यशोदा, सुभद्रा, विमला, सावित्री आदि । ११ - जिस की चाल इस वाहथिनी के तुल्य हो । १२ ~ जो अपने चार गोत्रों में की न हो । १३ - मनस्मृति आदि धर्म शास्त्रों में कन्या के नाम के विषय मे कहा है कि- “नक्षवृक्षनदी नाम्नीं, नान्त्यपर्वतनामिकाम् ॥ न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं, न च मीपणनामिकाम् ॥ १ ॥" अर्थात् कन्या नक्षत्र नामवाली न हो, जैसे- रोहिणी, रेवती इत्यादि, वृक्ष नामवाली न हो, जैसे- चम्पा, तुलसी आदि, नदी नामवाली न हो, जैसे-गंगा, यमुना, सरस्वती आदि अन्त्य ( नीच ) नामवाली न हो, जैसे - चाण्डाली आदि, पर्वत नामवाली न हो, जैसे- विन्ध्याचला, हिमालया आदि, पक्षी नामवाली न हो, जैसे- कोकिला, मैना, इसा आदि, सर्प नामवाली न हो, जैसे - सर्पिणी, नागी, व्याली आदि, प्रेष्य ( नृत्य ) नामवाली न हो, जैसे-दासी किङ्करी आदि, नामवाली न हो, जैसे- भीमा, भयकरी, चण्डिका आदि, क्योकि ये सब नाम ऐसे नाम ही नहीं रखने चाहिये ) । तथा भीषण ( भयानक ) निषिद्ध हैं अतः कन्याओं के Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जेनसम्प्रदामशिक्षा || ५- अवस्था - शरीर को रोग के योग्य मनानेवाले कारणों में से एक कारण - पस्था भी है, दो ! बचपन में शरीर की गर्मी के कम होने से ठपती असर कर जाती है, उस की मोम्म सम्भाल न रखने से मोड़ीसी ही देर में क्षफनी, दम, खांसी भोर फफ आदि के अनेक रोग हो जाते हैं । जबानी (युवावस्था) में रोगों को रोफनेपाली चावायवनी शक्ति की मता के होने से शरीर को रोग के योग्य बनानेवाले फारणों का जार भोड़ा दी रहता है। धीरी वृद्धावस्था में शरीर फिर निर्मल पड़ जाता है और यह निता युद्ध मनुष्य के शरीर को पार २ रोग के योग्म मनाती है || ६ - जाति -- विचार फर देखा जाय तो पुरुषजाति की अपेक्षा स्त्रीजाति का शरीर रोग के असर के योग्य अधिक होता है, क्योंकि श्रीमाति में कुछ न कुछ अज्ञान, विचार से दीनता और हठ अवश्य होता है, इस लिये पह आहार विहार में हानि लाभ का कुछ भी विचार नहीं रखती है, घूसरे उस के शरीर के मन्भेज नाजुक होने से गर्भ प्यारे जमविवाह के विषय में भानुसार इन बातों का विचार अवश्यमेव करना पाहिये क्योंकि इन वा का विचार करने ४ जम्मभरतक सुःख भोगना पडता है तथा स्वाभम कुपों की पान हो जाता है, देखो। उत्तम के तुम उस से सम्पत्ति साधाओं के परत है यथा पुत्र मूल मूमन होने से नहाने कभी काम नहीं रह सकता है बीमार भयो विवाह के द्वारा पुत्रक का नाम हो जाता है जो पुरुष अपने पुत्र और पुत्रियों को मु रमाबाई में रूपी तप का विचार कर शाखानुसार पनि विभि विवाह करें क्योंकि को एवा फरेंगे ही किराला भे को पन्तान सिजनको की रक्षा के लिये समय विवाह सेमा तो वह पडे १ मा क की और पते को देख एक वृक्ष का मूल है नहीं कि उसका योग्य विवाह ही रक्षा भूमी रक्षा करनी पड़ती है उसी प्रकार की सभा भार रा करनी चाहिये जैसे जिस रथ का मूल पध से भी कभी मर्दी सिर पर भी मूम ही विषम हुआ तो सबसे प पर मिरगा दी कार जो पुत्र रातमा गुम होमा तथा उका विवाद दाया तो धन तथा की प्रतिदिन उमति होगी पर्ने प्रकार बाप बाद का माम तथा पत्रा भार माता भांति से गुप वा भाग्य की वृद्धि होगी क्योंकि पुलवाम और उत्तम आपले एक दीसम्पूर्ण इस प्रकार शोभित भर से आता है असेच एक माम नम सुगन्धित रहता है परन्तु यदि पुत्र तवा कुदान हुआ तो यह अपने तब मम पवमान भरत आदि को धूल में मिला देगा इए कि विवाह में धन आदि की अपेक्षा के कर्म भीरा आदि का मिम्भव उचित यस संसार में बाइक की उपमा के समान है प्रा कमल नाम है, इ० कारण मूलपर या ध्यान करने से परम गुरा मि है अन्यथा कयापि नहीं ! किसी में है कि एक दिन भवा एसी मूल धाय ७१ अ वर और कन्या के ऊपर कि हुए पु कोषा करवाह से उन दोनों की प्रकृति पाएको र मूमन क्याकि नदी सिम्य भग बिल Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय || ३६१ स्थान में वार २ परिवर्तन ( उथलपुथल ) हुआ करता है, इसलिये स्त्री का निर्बल शरीर रोग के योग्य होता है, वर्तमान में स्त्रीजाति की उत्पत्ति पुरुषजाति से तिगुनी दीखती है तथा स्त्रीजाति पुरुषजाति की अपेक्षा अधिक मरती है, यही कारण है कि एक एक पुरुष तीन २ चार २ तक विवाह किया करते है || दूध दही से जमत है, काजी से फट जाय" ॥ १ ॥ ऊपर लिखी हुई वातों के मिलाने के अतिरिक्त यह भी देखना उचित है कि जो लडका ज्वारी, मद्यप ( शरावी), वेश्यागामी ( रण्डीवाज ) और चोर आदि न हो किन्तु पढा लिखा, श्रेष्ठ कार्यकर्त्ता और वर्मात्मा हो उसी से कन्या का विवाह करना चाहिये, नहीं तो कदापि सुख नहीं होगा, परन्तु अत्यन्त शोक का विषय है कि वर्तमान समय मे इस उत्तम परिपाटी पर कुछ भी ध्यान न देकर केवल कुभ मीन आदि का मिलान कर वर कन्या का विवाह कर देते है, जिस का फल यह होता है कि उत्तम गुणवती कन्या का विवाह दुर्गुण वाले वर के साथ अथवा उत्तम गुणवाले पुत्र का विवाह दुर्गुणवाली कन्या के साथ हो जाने से घरों में प्रतिदिन देवासुरसग्राम मचा रहता है, इन सब हानियों के अतिरिक्त जब से भारत में वालहत्या के मुख्य हेतु वालविवाह तथा वृद्धविवाह का प्रचार हुआ तब से एक और भी खोटी रीति का प्रचार हो गया है और वह यह है कि लडकी के लिये वर खोजने के लिये-नाई, वारी, वीवर, भाट और पुरोहित आदि भेजे जाते हैं, यह कैसे शोक की बात है कि—अपनी प्यारी पुत्री के जन्मभर के सुख दुख्न का भार दूसरे परम लोभी, मूर्ख, गुणहीन, स्वार्थी और नीच पुरुषों पर डाल दिया जाता है, देखो। जब कोई पुरुष एक पैसे की हाडी को भी मोल लेता है तो उस को खूब ठोक वजा कर लेता है परन्तु अफसोस है कि इस कार्य पर कि जिस पर अपने आत्मजों का सुख निर्भर है किञ्चित् भी ध्यान नहीं दिया जाता है, सुजनो ! यह कार्य ऐसा नहीं है कि इस को सामान्य बुद्धिवाला मनुष्य कर सके किन्तु यह कार्य तो ऐसे मनुष्य के करने का है कि जो विद्वान् तथा निर्लोभ हो और ससार को खूब देखे हुए हो, क्या आप इन नाई वारी भाट और पुरोहितों को नहीं जानते हैं कि ये लोग केवल एक एक पैसे पर प्राण देते हैं, फिर उन की बुद्धि की क्या तारीफ करें, उन की बुद्धि का तो साधारण नमूना यही है कि चार सभ्य पुरुषों में बैठ कर वे बात तक का कहना भी नहीं जानते हैं, न तो वे कुछ पढे लिखे ही होते हैं और न विद्वानों का ही सग किये हुए होते हैं फिर भला वे लोभरहित और वुद्धिमान् कहा से हो सकते हैं, देखो ! ससार में लोभ से वचना अति कठिन काम है क्योंकि यह वडा प्रवल ग्रह है, इस ने बढे २ विद्वान् तथा महात्माओं को भी सताया है तथा सताता है, इसी लोभ मे आकर औरगजेव ने अपने पिता और भ्राता को भी मार डाला था, लोभ के ही कारण आजकल भाई भाइयों में भी नहीं बनती है, फिर भला उन का क्या कहना है कि जो दिन रात धन ही की लालसा मे लगे रहते हैं और उस के लिये लोगों की झूठी खुशामदें करते हैं, उन की तो साक्षात् यह दशा देखी गई है कि चाहें लडका काला और कुवडा आदि कैसा ही क्यों न हो किन्तु जहा लडके के पिता ने उन से मुट्ठी गर्म करने का प्रण किया वा खूब आवभगत से उन को लिया त्यों ही वे लोग लडकी वाले से आकर लडके की तथा कुल की बहुत ही प्रशसा करते हैं अर्थात् सम्बध करा ही देते हैं, परन्तु यदि लड़केवाला उन की मुट्ठी को गर्म नहीं करता है तथा उन की आवभक्ति नहीं करता है तो चाहें लडका ४६ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदायशिक्षा। -जीपिका पा वृत्ति-बहुत सी बीविकामे पा वृति ( रोनगार ) भी ऐसी है वो कि शरीर को रोग के योग्य बनानेवाले कारण पन नाती हैं, मैसे देसो! सब दिन बैठ कर फाम करनेवालों, भाख को बहुव परिभम देनेवाणे, कलेवा भौर फेफसा दवा से इस प्रकार मैठकर काम करने पागे, रम का काम करने पालो, पारा तथा फास सा गत्तम को मसे वो भी ये आम माडर माय बामे से मात मप्रसा तम्मा लिम्रा र देवे । चिसो परच परस्सा सम्बप नर्स पेवा और मवि वैररोग से सम्बंध हो मी माता रे पति परिने में परस्पर प्रेम नएं एवमत पे (बर भौर कम्पा) भाउ मादिगा एकसरे विम्य मुन हुए होते मप्रबन्धों भौर परस्पर के टेप परम पापा मनुप्म पाना प्रभार चाय में फा पवे मौर उनों ने अपनी मातिय रूप एवेरी पारियों में पीते प्य रमपे का पार पण पण पर गई पारी और पुरोहित मावि दुबरेनवो ऐना हो परन्तु उपर एक महान् सोफ प्रस्थान मौर भी माता पिता भारि मी न पुत्र में देखतेरे और ब भी देखने , परि पारे गोपरदेसवे नही देखरेखमा स्परा पारऔर क्या २ माप यान्ति पुर और पुत्री चाहे पोर और मारी क्यो न परे समय पर दिन में उग दे और चोमम अपने पारपन से हमे पति पाये माना होमोन बना रे परन्तु इस रसमा विन्ध मही , सम प्रमे से पीपा पा सम्मा पाचे पुत्र के साप पर्स पर बरसे साब सब उन दुई प्रष्ट होती है तब काम करें हमारे पोवो पप से ऐसा व वम भागाई, प्रिय महासयो ! देखिये ! पर मावा पिय मावि में तो पाया है भव पर सामनर क्सा पावे -सासम प्रमन -पा पुत्र और पुनी मरमर्मत मरे (भगिरादित)ीनों मा परन्तु मसराम भर्षात् परसाविम गुपये मोर सभाष बाम मरममा चाहिये इमावि, रसिये । प्रापन काग में भाप के पुमा भेग इसी भारोह नाम के गडधार अपने पुत्र और पुनिया परिसराते बिसप पापापा A रस समय में यह प्रस्त भम मपंपाम श्री प्रेमा विकास या वा साबरों में गरमी सम्मति से पुम्स रिस मोर मपम सिम से मुच एक परे से अपनी पा से पसर र मिग्रा प रत्तम सन्तानों को रसम र परा प्रसप रातेस कवन भसम्म तात्पर्य ब -न पसर से हए गुणी में मिसभी से निस पुमसे और रिस पुल से मिस श्री प्रेमपि मानम मि सम्म परसर रिवाद परमा पारिने (देखे! भीपाप माप प्रास्त परित्र रप में इस प्रवच भाषा १) पावसार यह भी पुपर परम -वि रत्तम विराह वही जिस में मम और सभाप भारि पुणे से सुख का भार पर न परस्पर समयसपा पम्य पर और मामु रमा पा पोम पो मात ऐ परन्तु पफ्स पनि वो ना - भारत मेरे रेपता भीर को पुती पिर इस पणा में पों और प्रासमय सम्मति प्रमेक पर मे पास ऐसतरही परम -विपातिपय में पानीस निसन्त मत ने गरेर प्रचार में निया प्रचार में मार से चादी षि प्ररमर विष सेवा, पिये | ANIL विषय में एक या भौर भी वर्ग मारी व प्रति कि Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३६३ फरस की चीज़ो के बनानेवालो, पत्थर को घड़नेवालों, धातुओं का काम करनेवालो (लुहार, कसेरे, उठेरे और सुनार आदिको) कोयले की खान को खोदने वाले मजूरो, कपड़े की मिल में काम करनेवाले मजूरो, बहुत बोलनेवाली, वहुत फूकनेवालो और रसोई का काम प्रतिदिन करनेवालो का तथा इसी प्रकार के अन्य धन्धे (रोजगार ) करनेवालो का शरीर रोग के योग्य हो जाता है तथा इन की आयु भी परिमाण से कम हो जाती है ॥ ८-प्रकृति-प्रकृति (खभाव वा मिजाज ) भी शरीर को रोग के योग्य बनानेवाला कारण है, देखो ! किसी का मिजाज ठढा, किसी का गर्म, किसी का वातल और वहुधा उत्तम २ जातियों में विवाह ठेके पर होता है अर्थात् सगाई करने से पूर्व इकरार (करार) हो जाता है कि-हम इतनी वडी वरात लावेगे और इतने रुपये आप को सर्च करने पडेंगे इत्यादि, उधर वेटी वाले वर के पिता से करार करा लेते हैं कि तुम को इतना गहना वीदणी को चढाना पडेगा, यह तो वडे २ श्रीमन्तों का हाल देखने में आता है, अब वाकी रह गये हजारिये और गरीव गृहस्थ लोग, सो इन में भी बहुत से लोग रुपया लेकर कन्या का विवाह करते हैं तथा रुपये के लोभ में पड कर ऐसे अन्धे वन जाते हैं कि वर की आयु आदि का भी कुछ विचार नहीं करते है अर्थात् वर चाहें साठ वर्ष का वुड्ढा क्यों न हो तो भी रुपये के लोभ से अपनी अवोध (अज्ञान वा भोली) वालिका को उस जर्जर के गले से वाध कर उस के लिये दु खागार का द्वार सोल देते है, सत्य तो यह है कि जब से यहा कन्याविक्रय की कुरीति प्रचलित हुई तव ही से इस भारतवर्ष का सत्यानाश हो गया है, हे प्रभो! क्या ऐसे निर्दयी माता पिता भी कन्या के माता पिता कहे जा सकते है ? जो कि केवल रुपये की तरफ देखते हैं और इस बात पर विलकुल ध्यान नहीं देते हैं कि दो वर्ष के वाद यह वुड्डा मर जायगा और हमारी पुत्री विधवा होकर दु खसागर मे गोते मारेगी या हमारे कुल को कलङ्कित करेगी, इस कुरीति के प्रचार से इस देश में जो २ हानिया हो चुकी हैं और हो रही हैं उन का वर्णन करने में हृदय विदीर्ण होता है तथा विस्तृत होने से उन का वर्णन भी पूरे तौर पर यहा नहीं कर सकते हैं और न उन के वर्णन करने की कोई आवश्यकता ही है क्योंकि इस की हानिया प्राय सुजनों को विदित ही हैं, अव आप से यहा पर यही निवेदन करना है कि हे प्रिय मित्रो! आप लोग अपनी २ जाति में इस वुरी रीति को विलकुल ही उठा देने (नेस्तनाबूद करने ) का पूरा २ प्रतिवन्ध कीजिये, क्योंकि यदि इस (खुरी रीति) को जड (मूल) से न उठा दिया जावेगा तो कालान्तर में अत्यन्त हानि की सम्भावना है, इस लिये इस कुरीतिको उठा देना और इन निम्न लिखित कतिपय बातों का भी ध्यान रखना आप का मुख्य कर्तव्य है कि जिस से दोनों तरफ किसी प्रकार का क्लेश न हो और मन न विगडे, जैसा कि इस समय हमारे देश में हो रहा है, जिस के कारण भारत की प्रतिष्ठारूपी पताका भी छिन्न भिन्न हो गई है तथा उत्तम २ वर्णवालों को भी नीचा देखना पडता है, इस विषय में ध्यान रखने योग्य ये वाते हैं१-वरात में बहुत भीड नहीं ले जानी चाहिये। २-वखेर या लूट की चाल को उठाना चाहिये। ३वागवहारी मे फजूल खर्ची नहीं करनी चाहिये । ४-आतिशवाजी मे रुपये को व्यर्थ में नहीं फूकना चाहिये। ५-रण्डियों का नाच कराना मानो अशुभ मार्ग की प्रवृत्ति करना है, इस लिये इस को भी Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. चैनसम्प्रदायश्चिक्षा । किसी का मित्र होता है, मिमित प्रकृतियाठा म से कोई २ पुरुप दो प्रकृति की प्रमनताराते तया कोई २ तीनों प्रकृतियों की प्रधानतावारे भी होते हैं। गम मिचामनाला मनुष्य प्राय धीम ही श्रेष तथा मुखार के आधीन हो जाता है। ठठे मिजानवाला मनुष्य प्राय शीघ्र ही शर्दा फफ और दम भादि रोगों के पापीन हो जाता है, एक वायु प्रकृतिवाला मनुष्य माप शीघ्र ही वादी के रोगों के भाषीन हो जाता है। ययपि मूत्र में तो यह प्रतिरूप दोप होता है परन्तु पीछे जन उस प्रकृति में कि गारनेवाले माहार विहार से सहायता मिलती है सब उसी के अनुसार रोगोत्पति हो बासी है, इसलिये मरुति को भी शरीर को रोग के मोम्य मनानेवाले कारणों में गिनते हैं। ग्या देना चाहिये । पुरिमान बन यपपि स पाये थे उरीतियों के पास प्रभार से बात पगे तथापि साधारण पुस्मों मना समीतियों में हानियों पसंप से पर्मन त - बपत में पाव भीरभार का छे जाना-प्रथम तो बरी विचार करा चाहिने किरात सेब ठाठ पाट से मे खाने में दोनों तरफ मेमोने म प्रेता है और मन प्रफल तथा वापर सपर यहीं बन परवाइस के सिवाल पर उपर प्रपय मी पात से ता भव पत्र भूमपाम से परावने पाने की कोई भारयन्ता नहीं है, बरन पोरी सी परात अच्छे सपन के साथ पाय पति उत्तम क्या योगी सी बरात परोनो तरफ पारे उत्तम राम पाल पारि से अच्छे प्रमर से सत्पर र मफ्नी सोमा प्रथम रख सकते है सके सियान यह भी विचार की बात है-स प्रर्म म विष्प पन नम्गाना , क्याल सई विरस्थायी धर्म को हैपी सिप रो मन की बात भषिक रात गाने में नेमामी में प्राथ व्य मापा किन्तु परमामी की ही सम्माषना यदी। मोहिया की पाव tin समर्ष पुस में भी पार से बोचरी इसके मनुस्पा पूरा न करन में टिगता पर बसपा बानिय के भावर पत्थर मे जरा अनि हरी को सौन परावी न पर्व परेममु पुम्स की पराव न पपेरे पहाँ बाने पीने तक भी प्रबन्म मरमा सम मेम भूरों के मारे मरते वे पानी ठप बाबा बास मी स्यब पर पर मिस्वा वा पर सेम्बारेमाने के समय ये पग पीप साप (मने पाप) मते थे परन्तु पहा पो म पाये मासे से में रोमानि कहिये पर विना अपामा प्रसाद है। एक दो पर चामे और दुसरे से स में क्मा प्रपदा।समय बुदिमागे प्रे सी बरात पामा चाहिये। पर पा लूट-परेर प्रममाघे सर्व प्रपर ही महा सनिकारक पार्षो । पर का काम मुसार प. मयी माहिच पाति केसेप तमा के गरे अपाहर पढ़ और दुषः भाविको होवे ६ साकिमान री पम पर नगर निवासियों में से सब ही मेरे बरे और भयरिया पर उषा नागारों में मेरमो मग बात है, पर बनेपा यहाँ म मुश्षिा अधिक मारवा नियों तथा मनु समावनिक सेवग्न मुष्टियों सहमा की पुस Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ रोगको उत्पन्न करनेवाले समीपवर्त्ती कारण ॥ रोगको उत्पन्न करनेवाले समीपवर्ती कारणों में से मुख्य कारण अठारह है और वे ये है - हवा, पानी, खुराक, कसरत, नीद, वस्त्र, विहार, मलीनता, व्यसन, विषयोग, रसविकार, जीव, चेप, ठंढ, गर्मी, मनके विकार, अकस्मात् और दवा, थे सब पृथक् २ अनेक रोगों के कारण हो जाते है, इन में से मुख्य सात बातें है जिन को अच्छे प्रकार से उपयोग में लाने से शरीर का पोपण होकर तनदुरुस्ती बनी रहती है तथा इन्ही वस्तुओं का आवश्यकता से कम अधिक अथवा विपरीत उपयोग करने से शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते है । 3 ३६५ { र्फ किन्तु नाक आदि भी फट और वाल बच्चे तले ऊपर गिरते हैं कि जिस से अवश्य ही दश वीस लोगों के चोट लगती है तथा एक आध मर भी जाते है, उस समय में लोभवश आये हुए बेचारे अन्धे लूले और लॅगडे आदि की तो अत्यन्त ही दुर्दशा होती है और ऐसी अन्धाधुन्धी मचती है कि कोई किसी की नही सुनता है, इधर तो ऊपर से मुट्ठी धडावड चली आती है तथा वह दूर की मुट्ठी जिस किसी की नाक वा कान मे लगती है वह वैसा ही रह जाता है, उधर लुच्चे गुडे लोग स्त्रियों की ऐसी कुदशा देख उनकी नय आदि में हाथ मार कर भागते है कि जिस से उन बेचारियों की नथ आदि तो जाती ही है जाती है, यह तो मार्ग की दशा हुई- अब आगे वढिये लूट का नाम सुनकर समधी के दर्वाजे पर भी झुड के झुण्ड लग जाते हैं और जब वहा रुपयों की मुट्ठी चलती है उस समय लूटनेवालों को वेहोसी हो जाती है और तले ऊपर गिरने से बहुत से लोग कुचल जाते हैं, किसी के दात टूटते हैं, किसी के हाथ पैर टूटते हैं, किसी के मुख आदि अगों से खून बहता है और कोई पडा २ सिसकता है इत्यादि जो २ वहा दुर्दशा होती है वह देखने ही से जानी जाती है, भला बतलाइये तो इस वखेर से क्या लाभ हैं कि जिस में ऐसे २ कौतुक हों तथा धन भी व्यर्थ में जावे ? देखो ! वखेर मे जितना रुपया फेंका जाता है। उसमे से आधे से अधिक तो मिट्टी आदि में मिल जाता है, वाकी एक तिहाई हट्टे कट्टे भगी आदि नीचों को मिलता है जिस को पाकर वे लोग खूब मास और मद्य का खान पान करते हैं तथा अन्य बुरे कामो में भी व्यय करते हैं, शेप रहा सो अन्य सामान्य जनों को मिलता है, परन्तु लूले लंगडे और अपाहिज के हाथ में तो कुछ भी नहीं आता है, वरन् उन बेचारों का तो काम हो जाता है अर्थात् अनेकों के चोटें लग जाती हैं; इस के अतिरिक्त किन्हीं २ के पहुँची, छल्ला, नथुनी और अगुठी आदि भूषण जाते रहते हैं इस दशा में चाहे पानेवाले कुछ लोग तो सेठजीकी प्रशसा भी करें परन्तु वहुधा वे जन कि जिन के चोट लग जाती है या जिन की कोई चीज जाती रहती है सेठजी तथा लालाजी के नाम को रोते ही हैं, जिन मनुष्यों को कुछ भी नहीं मिलता है वे यही कहते हैं कि सेठजी ने बखेर का तो नाम किया था, कही २ कुछ पैसे फेंकते थे, ऐसे फेंकने से क्या होता है, वह कजूस क्या बखेर करेगा इत्यादि, देखिये ! यह कैसी बात है - एक तो रुपये गमाना और दुसरे बदनामी कराना, इस लिये वखेर की प्रथा को अवश्य बन्द कर देना चाहिये, हा यदि सेठजी के हृदय में ऐसी ही उदारता हो तथा द्रव्य खर्चकर नामवरी ही लेना चाहते हों तो लूले और लॅगडों के लिये सदावर्त्त आदि जारी कर देना चाहिये । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनसम्प्रदामशिक्षा || इन अठारहों विषयों में से बहुत से विपयों का विवरण हम विस्तारपूर्वक पहिले मी कर चुके हैं, इसलिये यहां पर इन अठारह विपर्मो का वर्णन सक्षेप से इस प्रकार से किया जायगा कि इन में से प्रत्येक विषय से कौन २ से रोग उत्पन्न होते हैं, इस वर्जन से पाठक गणों को यह नाव झाव हो जायगी कि शरीर को अनेक रोगों के मोम्म बनाने बाले कारण न २ से हैं। १ - हया - अच्छी दवा रोग को मिटाती है तथा स्वराग हवा रोग को उत्प करती है, स्वराब हवा से मलेरिया अर्थात् विपम जीर्ण ज्वर नामक बुखार, वस्ट, मरोड़ा, हैजा, कामला, भाषाधीसी, चिर का दुखना ( दर्द), मदामि और भजीर्ण भादि रोम उत्पन्न होते हैं। बहुत ठंडी हवा से स्वांसी, कफ, दम, सिसकना, शोम और सन्विवायु आदि रोप उत्पन्न होते हैं। बाग बहारी अर्थात् फूल की बारी की भी वर्तमान समय में वह बरी है कि काग भर भगरस (मोडल) के पूछों के स्थान में (पद्यपि मे भी फ्यूचर्चा में कुछ कम नहीं थे) हुंडी बोट चांदी सोने की कटोरियां बावान रूप और मार्पियों को तस्ता कपाने की मौत ब्य पहुची। जो वो सब ही प्रेम अपने रूपये और माफ की रक्षा करते है परन्तु हमारे देशमाई अपने इ t कोबीखों के सामने से होकर इसी से देव है और प्रत्यक वर्ष कर के भी कुछ समय प उठाते है, हो वह तो अगस्यमेव सुनने में भाता है कि अमुक भ्रमणमा साहूकार की बरात में अच्छी दतरह बचाई गई परन्तु न पची सामने न पहुँचने पाईक फूड य गई जब प्रथम दो नही विचार करने का स्थान है कि विवाह के कार्य को प्रभा ना पहिले छटने की बमबाजी का मुँह से कि अमुक को फूल गई ) कैसा बुरा है। इसके सिवाय कभी ९ कल भी चल जाते है, जब ग्रेपी तथा फ्यकी उत्तर जाती है तब वह पूछ हाथ में आये है माझे करनेवालों की प्रतिष्म के बाने पर कुछ लिखता है, भाफ्स में दया हो जाने से बहुत सेमिट एक भी मौत पहुँचती है सब से बड़ी घोषनीय बात यह है कि विवाह जैसे हम कार्य के आरम्भ ही में घमी सामान है। ही है, दरम् माविशवाजी भाविष्णाजी से न तो कोई सांसारिक ही काम है और न पारकि गयों के पार्थन किये हुए बम की मात्र में जाकर राय की देरी का बना देना है, इस में मी मी इतनी होती है कि एक एक के ऊपर दस दस गिरते है एक इधर बोता है एक उपर बोया है इससे वहाँ तक भगवा मजा हैषा नेहम हो जाते हैं तब होता है कि किसी के पैर की पिथी किसी की कमी किसी की मांगों तथा सूर्य का किसी का दुपट्टा तथा किसी का अंगरखा जा क्या तथा किसी के हाथ भैष भुम बसे के छप्परों में भी आप जाती है कि जिस से चारों ओर हाहाकार से अम्पत्र भी भाग कपने के द्वारा 1 कहानिया हो जाती है, कभी मनुष्य वषा पठ मी सफाया हु इस से बहु और Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३६७ भँवर बहुत गर्म हवा से जलन, रूखापन, गर्मवायु, प्रमेह, प्रदर, भ्रम, अँधेरी, चक्कर, आना, वातरक्त, गलत्कुष्ठ, शील, ओरी, पिंडलियों का कटना, हैजा और दस्त आदि रोग उत्पन्न होते है | २ - पानी - निर्मल (साफ) पानी के जो लाभ हैं वे पहिले लिख चुके है उन के लिखने की अब कोई आवश्यकता नही है । खराब पानी से - हैजा, कृमि, अनेक प्रकार का ज्वर, दस्त, कामला, अरुचि, मन्दाग्नि, अजीर्ण, मरोडा, गलगण्ड फीकापन और निर्बलता आदि अनेक रोग उत्पन्न होते है । " अधिक खारवाले पानी से पथरी, अजीर्ण, मन्दाग्नि और गलगण्ड आदि रोग होते हैं । सड़ी हुई वनस्पति से अथवा दूसरी चीजों से मिश्रित ( मिले हुए ) पानी से दस्त, शीत ज्वर, कामला और तापतिल्ली आदि रोग होते हैं । मरे हुए जन्तुओं के सड़े हुए पदार्थ से मिले हुए पानी से हैजा, अतीसार तथा दूसरे भी भयकर और जहरीले बुखार उत्पन्न होते है । & जल कर प्राणों को त्यागते हैं, इस के अतिरिक्त इस निकृष्ट कार्य से से प्राणी मात्र की आरोग्यता में अन्तर पड जाता है, इस से द्रव्य उस के साथ में महारम्भ ( जीवहिंसाजन्य अपराध ) भी होता है, वालो को कामों की अधिकता से घर फूक के भी तमाशा देखने की नौबत नहीं पहुँचती है । हवा भी विगड जाती है कि जिस का नुकसान तो होता ही है किन्तु तिस पर भी तुर्रा यह है कि - घर रण्डी (वेश्या) का नाच - सत्य तो यह है कि- रण्डियों के नाच ने इस भारत को गारत कर दिया है, क्योंकि तवला और सारगी के विना भारत वासियों को कल ही नहीं पडती है, जब यह दशा है तो वरात मे आने जाने वालों के लिये वह सञ्जीवनी क्यों न हो । समधी तथा समधिन का भी पेट उस के विना नहीं भरता है, ज्यों ही वरात चली त्यों ही विषयी जन विना बुलाये चलने लगते है, वेश्या को जो रुपया दिया जाता है उस का तो सत्यानाश होता ही है किन्तु उस के साथ में अन्य भी बहुत सी हानियों के द्वार खुल जाते हैं, देखो ! नाच ही में कुमार्गी मित्र उत्पन्न हो जाते हैं, नाच ही में हमारे देश के धनाढ्य साहूकार लज्जा को तिलाञ्जलि देते हैं, नाच ही में वेश्याओं को अपनी शिकार के फॉंसने तथा नौ जवानों का सत्यानाश मारने का समय (मौका ) हाथ लगता है, बाप वेटे भाई और भतीजे आदि सच ही छोटे वडे एक महफिल में बैठकर लज्जा का परदा उठा कर अच्छे प्रकार से घूरते तथा अपनी आखों को गर्म करते हैं वेश्या भी अपने मतलब को सिद्ध करने के लिये महफिलों में ठुमरी, टप्पा, बारहमासा और गजल आदि इश्क के द्योतक रसीले रागों को गाती है, तिस पर भी तुर्रा यह है कि-ऐसे रसीले रागों के साथ मे तीक्ष्ण कटाक्ष तथा हाव भाव भी इस प्रकार बताये जाते है कि जिन से मनुष्य लोट पोट हो जाते हैं तथा खूब सूरत और शृंगार किये हुए नौ जवान तो उस की सुरीली आवाज और उन वीक्ष्ण कटाक्ष आदि से ऐसे घायल हो जाते है कि फिर उन को सिवाय इश्क वस्ल यार के और कुछ भी नहीं सूझता है, देखिये ! किसी महात्मा ने कहा है कि- Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ चैनसम्प्रदामशिक्षा || भाषों के योग से मिले हुए पानी से ( मिस में पारा सोमल और सीसा आदि वि पैले पदार्थ गलकर मिले रहते है उस जलसे ) भी रोगों की उत्पति होती है ।। १ - खुराक - शुद्ध, मच्छी, प्रकृति के सुराक के खाने से शरीर का पोपण होता है फपी, रूखी, बहुत ठंडी, बहुत गर्म, भारी के स्वाने से बहुत से रोग उत्पन होते हैं, इन मनुकूछ और ठीक तौर से सिजाई हुई तथा अशुद्ध, सड़ी हुई, बासी, बिगड़ी हुई मात्रा से अधिक तथा मात्रा से न्यून खुराफ सब का वर्णन संक्षेप से इस मकार है १ सड़ी हुई खुराफ से कृमि, हैजा, वमन, कुछ ( को ), पिस तथा व भावि रोग होते हैं। 7 दर्शनात् दर वित्तं स्पर्शनात् हरते पसम् । मैथुनाव हरते बीर्ये घेत्या प्रत्यक्षराक्षसी ॥ १ ॥ बेश्या समसूत्र पूछ में किय उसकी आँ भवात् दर्शन से चित को छूने से बल को और मैथुन से बीम को हर सेठी है अत राक्षसी ही है ० १ ० बयपि ही जानते है कि इस राम्री श्मा ने हजारों घरों को दिया है तिस पर भी को बाप और बेटे को साथ में बैठ कर भी कुछ नहीं सूमता है, कमी कि चकनाचूर हो जाते है, प्रविष्य तथा जवानी को छोकर बदनामी का तोड़ पले में पहनते हैं, देखो ! हजारों धोम इश्क के बचे में चूर होकर अपना भर बार बेचकर हो २ बानों के किये मारे १ फिरसे है, बहुत से नादान खोम बम कमा २ कर इन की भेट चबाते है और उनके मातापिता दोनों किये मारे १ फिरते है, न पूजेो इस कार्य से उन की को २ कुक्षा होती है वह सब अपनी करनी का ही फिहै, क्योंकि वे ही प्रत्येक उत्सव अर्थात् बाकसम्म नामकरण सुण्ड समाई और विवाह मैं तमाम के सिवान जन्मात्रमी राषम्मम्म रामा हो दिवाळी राइरा और सती भी पर कुछ कर अपने भी जवानों को उन राम्रवियों की रसभरी बाबाम तथा मधुरी म कवि से मे बहुषा रडीबाज हो जाते है तथा उन को भातक और सुजाक मार बीमारियां मेर केटी है, जिनकी आग में में सुब मुमते रहते है तथा जन की परसादी अपनी और को भी बेकर निरास छोडा है, बहुतसे मूर्ख जन रण्डीयों के नाज मरे तथा मना शुप्पर भारिप ऐसे मोहित हो जाते हैं घर की विवाहिता ोिं के पास तक नहीं भाते है तथा जग (वादिया लियों) पर नाम प्रकार के दोष रखकर मुॅह से बोक्ना मी अच्छा नहीं समझते है, में बेचारी कारण रातदिन रोटी यहती है, मह मी अनुभव किया गया है या खियां महफिस का मा बसी है मन पर इस का ऐसा बुरा असर पाता है जिससे घर के भर उमड़ जाते हैं बजाक जब वे बेटी-म्पूर्ण पिक के खोप उपर की ओर बने हुए उस के नाम और नरों को सह रहे कि जब मूलने का इरादा करती है तो एक आदमी पीकदान कर हजर होता है, कार पद पाने की हुई से भी निहायत भाजु तथा भवन के साथ उपस्थित किन्नाया है इस शिवाय वह युद्ध भीचे से ऊपरक सोने और चांदी के आयाम्प त अब गुम्बदन और कमरम्यान यानि महसूसों के बाज को एक एक दिन मे चार १ ब Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३६९ २ - कच्ची खुराक से - अजीर्ण, दस्त, पेट का दुखना और कृमि आदि रोग होते है । ३ - रूखी खुराक से - वायु, शूल, गोला, दस्त, कब्जी, दम और श्वास आदि रोग उत्पन्न होते हैं । २० ४–वातल खुराक से-शूल, पेट में चूक, गोला तथा वायु आदि रोग उत्पन्न होते है । ५- बहुत गर्म खुराक से - खासी, अम्लपित्त ( खट्टी वमन ), रक्तपित्त ( नाक और मुख आदि छिद्रों से रुधिर का गिरना ) और अतीसार आदि रोग उत्पन्न होते है । ६ - बहुत ठंढी खुराक से - खासी, श्वास, दम, हांफनी, शूल, शर्दी और कफ आदि रोग उत्पन्न होते है । नई २ किस्म के बदलती है तथा अतर और फुलेल की लपटें उस के पास से चली आती हैं बस इन्हीं सव वातों को देखकर उन विद्याहीन स्त्रियों के मन में एक ऐसा बुरा असर पट जाता है कि जिस का अन्तिम ( आखिरी ) फल यह होता है कि बहुधा वे भी उसी नगर में खुलमखुल्ला लज्जा को त्याग कर रण्डो बन कर गुलछर्रे उठाने लगती हैं और कोई २ रेल पर सवार होकर अन्य देशों में जाकर अपने मन की आशा को पूर्ण करती है, इस प्रकार रण्डी के नाच से गृहस्थों को अनेक प्रकार की हानियां पहुचती हैं, इस के अतिरिक्त यह कैसी कुप्रथा चल रही है कि-जय दर्वाजों पर रण्डियां गाली गाती हैं और उधर से (घर की स्त्रियों के द्वारा ) उस का जवाब होता है, देखिये ! उस समय कैसे २ अपशब्द योले जाते हैं कि-जिन को सुन कर अन्यदेशीय लोगों का हॅसते २ पेट फूल जाता है और वे कहते हैं कि इन्हों ने तो रण्डियों को भी मात कर दिया, धिक्कार है ऐसी सास आदि को । जो कि मनुष्यों के सम्मुख (सामने) ऐसे २ शब्दों का उच्चारण करें ! अथवा रण्डियों से इस प्रकार की गालियों को सुनकर भाई बन्धु माता और पिता आदि की किञ्चित् भी लज्जा न करें और गृह के अन्दर घूघट बनाये रखकर तथा ऊची आवाज से बात भी न कह कर अपने को परम लज्जावती प्रकट करें ! ऐसी दशा में सच पूछो तो विवाह क्या मानो परदे वाली स्त्रियों ( शर्म रखनेवाली स्त्रियों) को जान बूझकर वेशर्म बनाना है, इस पर भी तुरी यह है कि खुश होकर रण्डियों को रुपया दिया जाता है ( मानो घर की लज्जावती स्त्रियों को निर्लन बनाने का पुरस्कार दिया जाता है ), प्यारे सुजनो ! इन रण्डियों के नाच के ही कारण जव मनुष्य वेश्यागामी ( रण्डीवाज ) हो जाते हैं तो वे अपने धर्म कर्म पर भी धता भेज देते है, प्राय आपने देखा होगा कि जहां नाच होता है वहा दश पाच तो अवश्य मुड ही जाते हैं, फिर जरा इस बात को भी सोचो कि जो रुपया उत्सवों और खुशियों में उन को दिया जाता है वे उस रुपये से वकराईद में जो कुछ करती हैं वह हत्या भी रुपया देनेवालों के ही शिर पर चढती है, क्योंकि - जब रुपया देनेवालों को यह वात प्रकट है कि यदि इन के पास रुपया न होगा तो ये हाथ मलमल कर रह जायेंगी और हत्या आदि कुछ भी न कर सकेंगी- फिर यह जानते हुए भी जो लोग उन्हें रुपया देते हैं तो मानो वे खुद ही उन से हत्या करवाते है, फिर ऐसी दशा में वह पाप रुपया देनेवालों के शिर पर क्यों न चटेगा ? अव कहिये कि यह कौन सी बुद्धिमानी है कि रुपया खर्च करना और पाप को शिर पर लेना! प्यारे सुजनो ! इस वेश्या के नृत्य से विचार कर देखा जावे तो उभयलोक के सुख नष्ट होते है और इस के समान कोई भी कुत्सित प्रथा नहीं है, यद्यपि बहुत से लोग इस दुष्कर्म की हानियों 2 ४७ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० वैनसम्प्रदायशिक्षा । -मारी सुराक से-भपषी, वस्त्र, मरोड़ा चौर सुसार भादि रोग उत्पन्न होते हैं। ८-मात्रा स अधिक सराफ से-दन, मवीर्ण, मरोरा और ज्वर भादि रोम उसा होते हैं। ९-मात्रा से न्यून सुराक से-सय, निस्ता , पेहरे भोर घरीर फीकापन भौर मुसार मादि रोग उत्पन होते हैं। इस के सिपाय मिट्टी से मिली हुई खुराक से-पातु रोग होता है, बहुत मसानदार शुराक से यकृत् ( कया मर्यात् ठीवर ) विगढ़ता है भोर बहुत उपवास करने से शूल और वायुमन्य रोग मादि उत्पन होकर शरीर को निर्मल कर देते हैं। से मच्छे प्रसर से पामते भी है वो मी इसने नहीं पड़वे है, संसार की बने रहनामि प्रेता पर उठाये है भी एप से मस नई मोवे इस डीवि की जो पिसप्रेसरे क्या क्सम्म किन्तु पाम तपास सर्व सामान ही बतमा देखे! या मुस सेवा रेप पेस्मा पाटील या उपरेशमिता - सपैया-भम प्रसार पन बावरे साचिन को। एक र पुण्य मापत, नहिं भारत मज भरा दिन । मिरवण भने पुरवास पुन नि । तब ग्वर पर बात मत श्रेइन में एक समय का प्रमो-किसी मामपान व महा एक मामष ने मायब मा कार्य म उस देश मे कमा पर गए तीस समे पाये परन्तु रसौ भाम्पवान् केपी र पुरपशिर मा तो उस ने पेसा गुमाई और उसे पत सो सपे दिये ग्स समय उस प्रामण मे -- पोहा-उमरी गति पोपाल की पट गई मिस्वा पीस। पमखनी को सात सी ममपराम को वीस ॥१॥ प्रिपरो! मप में माप से नही कामा -परम्प विचार में भी सपर भी रेप पर्व को पोय ही मारतसन्यास रसरसिरे बेस्या के माम मामेभी प्राधे पास माग पीरिये भमपा (एएस माय मरमे से) धम्मति देने या पाए मो योपी मास में माधि-विसा विषयमापन परमा सम्पति स्म to मांर-श्या प्रम के समान इस रेस में मांग के मामे में भी प्रपामा पीस प्रमीयमेव करमा चार, मनिपे-मोही पेसामों के अप से निधिन्त हुए मोही मार्ग पर पर्सत के मम्मी मावि मतिर पोय योग्य मा मिस पड़ा भर म्मी पाdि परने यो मिसी में शो मेपो में पपत समाजको पो मात P t, एकमत मिवाबो समय प्रताप तात्पर्य यहोरेन बवेक प्रभाव मते या ऐसी १ पसेमा और य मममी पेठची मोर पापी गरी प्रतिम में पान पाबावाऐसे १ चमों परपरमपरते। बिपने में मी स्वीचे पो सपा भावं Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३७१ ८- कसरत- - कसरत से होनेवाले लाभों का वर्णन पहिले कर चुके है तथा उस का विधान भी लिख चुके है, उसी नियम के अनुसार यथाशक्ति कसरत करने से बहुत बहुत से लाभ होता है, परन्तु बहुत मेहनत करने से तथा आलसी होकर बैठे रहने से रोग होते है, अर्थात् बहुत परिश्रम करने से बुखार, अजीर्ण, ऊरुस्तम्भ ( नीचे के भाग का रह जाना ) और श्वास आदि रोगो के होने की सभावना होती है तथा आलसी होकर बैठे रहने से - अजीर्ण, मन्दाग्नि, मेदवायु और अशक्ति आदि रोग होते है, भोजन कर कसरत करने से–कलेजे को हानि पहुँचती है, भारी अन्न खाकर कसरत करने से - आमवात का प्रकोप होता है । कसरत दो प्रकार की होती है- एक शारीरिक ( शरीर की ) और दूसरी मानसिक ( मन की ), इन दोनों कसरतों को पूर्व लिखे अनुसार अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिये, क्योंकि हद्द से अधिक शारीरिक कसरत तथा परिश्रम करने से हृदय में व्याकुलता ( धड़धड़ाहट ) होती है, नसो में रुधिर बहुत शीघ्र फिरता है, श्वासोच्छ्रास है परन्तु उस सभा के बैठनेवाले जो सभ्य कहलाते हैं कुछ भी लज्जा नहीं करते हैं, वरन प्रसन्न चित्त होकर हँसते २ अपना पेट फुलाते और उन्हें पारितोषिक प्रदान करते हैं, प्यारे सुजनो ! इन्हीं व्यर्थ वातों के कारण भारत की सन्तानों का सत्यानाश मारा गया, इस लिये इन मिथ्या प्रपञ्चों का शीघ्र ही त्याग कर दीजिये कि जिन के कारण इस देश का पटपड हो गया, कैसे पश्चात्ताप का स्थान है कि --जहा प्राचीन समय में प्रत्येक उत्सव में पण्डित जनों के सत्योपदेश होते थे वहा भव रण्डी तथा लौंडों का ना होता है तथा भाति २ की नकलं आदि तमाशे दिखलाये जाते हैं जिन से अशुभ कर्म वैधता है, क्योंकि धर्मशास्त्रों मे लिखा है कि- नकल करने से तथा उसे देखकर खुश होने से बहुत अशुभ कर्म ता है, हा शोक ! हा शोक !! हा शोक !!! इस के सिवाय घोडा सा वृत्तान्त और भी सुन लीजिये और उसे सुनने से यदि लज्जा प्राप्त हो तो उसे छोडिये, वह यह है कि- विवाह आदि उत्सवों के समय स्त्रियों में बाजार, गली, कूचे तथा घर में फूहर गालियों अथवा गीतों के गाने की निकृष्ट प्रथा अविद्या के कारण चल पडी है तथा जिस से गृहस्थाश्रम को अनेक हानिया पहुच चुकी हैं और पहुँच रही हैं, उसे भी छोडना आवश्यक है, इस लिये आप को चाहिये कि इस का प्रबन्ध करें अर्थात् स्त्रियों को फूहर गालिया तथा गीत न गाने देवें, किन्तु जिन गीतों में मर्यादा के शब्द हो उन को कोमल वाणी से गाने दें, क्योंकि युवतियों का युवावस्था में निर्लन शब्दों का मुख से निकालना मानो वारूद की चिनगारी का छोड़ना है, इस के अतिरिक्त इस व्यवहार से स्त्रियों का स्वभाव भी विगड जाता है, चित्त विकारों से भर जाता है और मन विषय की तरफ दौडने लगता है फिर उस का साधना (कावू मे रखना) अत्यन्त ही कठिन वरन दुस्तर हो जाता है, इस लिये उचित है कि मन को पहिले ही से विषयरस की तरफ न झुकने देवे तथा यौवन रूपी मदवाले के हाथ मे विषयरस रूपी हथियार ठेके अपने हितकारी सद्गुणों का नाश न करावें, यदि मन को पहिले ही से इस से न रोका जावेगा तो फिर उस का रुकना अति कठिन हो जावेगा । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ चैनसम्प्रदाय शिक्षा || बहुत जोर से क्या है बिस से मगन सभा फेफसे भावि आवश्यक मार्गो पर अधिक दबाव होने से सम्बधी रोग होता है, भँवर जाते हैं, कानों में आवान होती है, - खों में अमेरा छा जाता है, मूल मारी जाती है, तथा बेचैनी होती है तथा क्षति से बढ़कर मानसिक मनुष्य के जुस्सा भर जाता है जिस से बेहोसी हो जाती है तथा कभी २ मृत्यु भी हो जाती है, मानसिक विपरीत परिश्रम करनेसे अर्थात् चिन्ता फिन ध्यादि से मंग सन्वष्ठ हो बाते हैं, भजीण होता है, नींद नहीं जाती है कसरत करने से मगम में इस के सिवाम विवाह के विषय में एक बात और भी बगरम ध्यान में रखने योग्य है कि दोनों ओर से ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिये कि जिस से आपस में प्रेम न रहे जसे कि छोग मराठों में मास मीर परो से भादि कि २ सी बातों में ऐसे देते है कि जिन से धमधियों के म में अन्तर पर जाता है कि जिस के कारण देने पर भी आनन्द नहीं भाता है, यह यात सच है कि-प्रेम के बिना सर्वस्व मिलने पर भी प्रसन्नता नहीं होती है भव प्रीतिपूर्वक प्रत्येक कार्य को करना चाहिये कि जिस से दोनों ही तरफ असा हो और पर्ष भी समर्थ म से मम्म सोचने की बा है कि-को सम्बधियों में से जब एक की बुराई हुई तो क्या वह अपना सम्बभी नहीं है? क्या उस की बदनामी से अपनी बदनामी नहीं हुई सत्र में हो जो छोग इस बात पर ध्यान नहीं देते है उन सम्बंधियों पर भवा भेजना उचित है, क्योकि विवाह का समय आपस में जानन्व तथा प्रेमरस के वर छाने भीर मधुर वार्ता करने का है, एक दूसरे के पार कर युद्ध का सामान इच्छा पर देने का यह समय नहीं है, इस किये भो छोय ऐसा करते है वह जम की सर्वधा मूर्खता श्री बात है, अतः दोनों को एक दूसरे की भम्बई का वन मन से विचार कर कार्यो को करग पर ले उचित है, दोनों सम्बंधियों को यह भी उचित है कि यो मनुष्य मन से दोनों को भूर उडाते है तथा बाहर से बहुत सी मम्रो पत्तो करते व जम की बात पर कदापि ध्यान न द क्योकि इस संवार में दूसरे को सुधामद आदि के द्वारा निरन्तर स करने के किसिक मोग बहुत है परन्तु जो बचन मुक्मे में चाहे प्रेम ही हो परन्तु पान में कमाण करनेवाला से उसके बोलने तथा भुमन बाले पुरुष तुर्बम है, देखो! मनुषा गुप्त भ्रभु तथा कुछ कोम सम्मन तो में हो मिष्मत है भीर पीछे बुराई निकालकर बाते हे परन्तु परपुरुप मुँह पर प्रत्येक वस्तु के गु दोषों का दमन करते है और परोक्ष में प्रशंसा ही करते है, इन बातों को विचार कर दोनों समपियों को योग्य है कि दोनों समय में प्रत्येक बात का साम निर्णय कर जो दोनों के लिये लाभदायक दोनों आमन्द में रहे क्योंकि यही विवाह और सम्बंध का हो उसी का अमीकार करें जिससे है। दोष और शुभ बताये जाने वो विवाहको रीति जो इस समय पिट रही है वह सपा को संप से बता दी गई, बाद इस का पूरे घर से वर्णन कर इस एक अन्य बन परतुद्धिमान पुरुष मात्र हो वत्त्व को समझ से क्त अतिसंक्षेप ही इस का वर्णन किया है आता है कि पाइप ने दो मन से अपने दिवाहित का विचार कर तुम और महिमा का भाग शुभकारक सम्माका सम्बन रंग Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३७३ शरीर में निर्बलता अपना घर कर लेती है, इसी प्रकार शक्ति से बाहर पढ़ने लिखने तथा बाचने से, बहुत विचार करने से और मन पर बहुत दवाव डालने से कामला, अजीर्ण, वादी और पागलपन आदि रोग उत्पन्न होते है ! स्त्रियों को योग्य कसरत के न मिलने से उनका शरीर फीका, नाताकत और रोगी रहता है, गरीब लोगों की स्त्रियों की अपेक्षा द्रव्यपात्र तथा ऐश आराम में सलग्न लोगों की स्त्रिया प्रायः सुख में अपने जीवन को व्यतीत करती है तथा विना परिश्रम किये दिनभर आलस्य में पडी रहती हैं, इस से बहुत हानि होती है, क्योकि - जो स्त्रिया सदा बैठी रहा करती है उन के हाथ पाव ठडे, चेहरा फीका, शरीर तपाया हुआ सा तथा दुर्बल, वादी से फूला हुआ मेद, नाड़ी निर्बल, पेट का फूलना, बदहजमी, छाती में जलन, खट्टी डकार, हाथ पैरो में कापनी, चसका और हिष्टीरिया आदि अनेक प्रकार के दुःखदायी रोग तथा ऋतुधर्मसम्बन्धी भी कई प्रकार के रोग होते हैं, परन्तु ये सब रोग उन्हीं स्त्रियो के होते हैं जो कि शरीर की पूरी २ कसरत नही करती है और भाग्यमानी के घमण्ड में आकर दिन रात पडी रहती है | ५ - नींद - आवश्यकता से अधिक देर तक नीद के लेने से रुधिर की गति ठीक रीति से नही होती है, इस से शरीर में चर्वका भाग जम जाता है, पेट की दूद ( तोंद ) बाहर निकलती है, (इसे मेदवायु कहते है ), कफ का जोर होता है, जिस से कफ के कई एक रोगों के होने की सम्भावना हो जाती है तथा आवश्यकता से थोड़ी देर तक ( कम ) नीद के लेने से शूल, ऊरुस्तम्भ और आलस्य आदि रोग हो जाते है । बहुत से मनुष्य दिन में निद्रा लिया करते हैं तथा दिन में सोने को ऐश आराम समझते हैं परन्तु इस से परिणाम में हानि होती है, जैसे- क्रोध, मान, माया और लोभ आदि आत्मशत्रुओ ( आत्मा के वैरियों) को थोडा सा भी अवकाश देने से वे अन्त - करण पर अपना अधिकार अधिक २ जमाने लगते हैं और अन्त में उसे वश में कर लेते हैं उसी प्रकार दिन में सोने की आदत को भी थोड़ा सा अवकाश देने से वह भी भाग और अफीम आदि के व्यसन के समान चिपट जाती है, जिस का परिणाम यह होता है कि यदि किसी दिन कार्यवश दिन में सोना न बन सके तो शिर भारी हो जाता है, पैर टूटने लगते है और जमुहाझ्या आने लगती है, इसी तरह यदि कभी विवश होकर काम में लग जाना पड़ता है तो अन्त करण सोलह आने के बदले आठ आने मात्र काम (आधा काम ) करने योग्य हो जाता है, यद्यपि अत्यन्त निर्वल और रोगग्रस्त मनुष्य के लिये वैद्यकशास्त्र दिन में सोने की भी आज्ञा देता है परन्तु स्वस्थ ( नीरोग ) मनुष्य के लिये तो वह (वैद्यक शास्त्र ) ऐसा करने ( दिन में सोने) का सदा विरोधी है } Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ गर्मी की रात में बम अधिक गर्मी परती है तब शरीर का असमय तत्व और माहरी गर्मी शरीर के भीतरी भागों पर अपना प्रभाव विसाने उगती है उस समय दिन में भी थोड़ी देरतक सोना बुरा नहीं है परन्तु सब भी नियम से ही सोना चाहिये, पाठ से लोग उस समय में म्यारह बजे से लेकर सायकाठ के पांच भने तक सोते रहते हैं, सो यह वे अनुचित माचरण ही करते हैं, क्योंकि उस समय में भी दिन का भभिक सोना हानि ही करता है। इसके सिवाय दिन में सोने से एक हानि भौर मी है और वह यह है कि-रात्रि में भवश्य ही सोकर विभाम लेने की पापश्यकता है परन्तु यह दिनका सोना रात्रि की निद्रा में नामा गम्ता है निस से हानि होती है।। पहुव से मनुष्य भी इस मात को स्वीकार करते हैं कि दिन में सोकर उठने के बाद उन र शरीर मिट्टीसा और कुछ ज्वर भावाने के समान निर्मात्य (कुमलाया हुमा सा) हो जाता है। दिन में भीतरह सोकर उठनेवाले मनुष्य के मुख की मुद्रा को देखकर लोग उस से प्रभ करते हैं कि क्या मात्र माप की तबीयत अच्छी नहीं है। परन्तु उपर यही मिस्खा है कि नहीं, नीयत तो अच्छी है परन्तु सोकर उठा है, इस से पर्सि गत दिखाई देती होगी, भग कहिये कि विन का सोना सुखकर हुमा कि हानिकर । दिन में सोने से शरीर के सब धातु सास फर विझत और मिपम मन जाते हैं तमा शरीर के दूसरे भी कई मीतरी मागों में विकार उत्पन्न होता है। कुछ मनुष्यों का यह पन है कि-हम को मुस मिस्सा है इसलिये हम दिन में सोते हैं, परन्तु उन की यह वरील घस्ने योग्य नहीं है, क्योंकि मुस्म पास तो यह है फि उन के उपर भाम्स सवार होता है मौर उन्हें मेटते ही निद्रा मा चाती है, परन्तु मरण रसना पाहिये कि दिन की निद्रा सामाविक निद्रा नहीं है, किन्तु वैकारिक पात् विधर को उत्पन्न करनेवाली, देसो! दिन में सोने में में से मनुष्यों समषिक माग इस बात को स्वीकार करेगा कि दिन में सोने से उन्हें बहुत से विकत सम भावे है, पहिये इस से क्या सिद्ध होता है ! इसम्मेि बुद्धिमानों को सवा दिन में सोने के म्पसन को मपने पीछे मही गाना चाहिये । ___ यह भी मरण रसना चाहिये कि-निस प्रकार दिन में सोने से हानि होती है उसी मफार रात्रि में बागना मी निकर होता है, परन्तु उपवास के अन्त में रात्रि नागना दानि नहीं करता, चि नियमित माहार पर के नागना शनि करनेवाला है, रात्रि में बागने से सम से प्रथम मनीर्म रोग उस्पन होता , भम सोपने की मात है किसाधारण भोर अनुज माहार की नम रात्रि में नागने से नहीं पता है वो अनुश्म्या Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३७५ पर ध्यान देने के बदले केवल खाद ही पर चलनेवाले और मात्रा के अनुसार खाने के बदले खूब डाट कर ठूसनेवाले मनुष्य यदि रात्रि में जागने से अजीर्ण रोग में फंस जाय तो इस में आश्चर्य ही क्या है ? जो लोग दिन में सोकर रात्रि को बारह बजेतक जागते रहते है तथा जो दिन में तो इधर उधर फिरते रहते हैं और रात्रि में काम करके बारह बजेतक जागते है, वे जानबूझ कर अपने पैरों में कुल्हाडी मारते है और अपनी आयु को घटाते है, किन्तु जो रात्रि में सुख से सोने वाले हैं वे ही दीर्घजीवी गिने जा सकते है, देखो ! पहिले यहां के लोगों में ऐसी अच्छी प्रथा प्रचलित थी कि प्रातःकाल उठकर अपने सेहियों से कुशल प्रश्न पूछते समय यही प्रश्न किया जाता था कि रात्रि सुखनिद्रा में व्यतीत हुई ? इस शिष्टाचार से क्या सिद्ध होता है यही कि लोग रात्रि में सुख से निद्रा लेते है वे ही दीर्घजीवी होते है। निद्रा को रोकने से शिर में दर्द हो जाता है, जमुहाइया आने लगती हैं, शरीर टूटने लगता है, काम में अरुचि होती है और आखें भारी हो जाती है। देखो । निद्रा का योग्य समय रात्रि है, इसलिये जो पुरुष रात्रि में निद्रा नहीं लेता है वह मानो अपने जीवन के एक मुख्य पाये को निर्बल करता है, इस में कुछ भी सन्देह नहीं है ॥ ६-वस्त्र-देश और काल के अनुसार वस्त्रों का पहनना उचित होता है, क्योंकि वह भी शरीररक्षा का एक उत्तम साधन है, परन्तु बडे ही शोक का विषय है कि-वर्तमान समय में बहुत ही कम लोग इन बातों पर ध्यान देते है अर्थात् सर्वसाधारण लोग इन बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देते है और न वस्त्रों के पहरने के हानिलाभों को सोचते हैं किन्तु जो जिस के मन में आता है वह उसी को पहनता है। ___ वस्त्र पहरने में यह भी देखा जाता है कि लोग देश काल और प्रकृति आदि का कुछ भी विचार न करके एक दूसरे की देखा देखी वस्त्र पहरने लगते हैं, जैसे देखो । आज कल इस देश में काला कपड़ा बहुत पहिना जाता है परन्तु इस का पहनना देश और काल दोनों के विपरीत है, देखिये | यह देश उष्ण है और काली वस्तु में गर्मी अधिक घुस जाती है तथा वह बहुत देरतक बनी रहती है, इस पर भी यह खूबी कि ग्रीष्म ऋतु में भी काले वस्त्र को पहनते हैं, उन का ऐसा करना मानो दुःखों को आप ही बुलाना है, क्योंकि सर्वदा काले वस्त्र का पहरना इस उष्णता प्रधान देश के वासियों को अयोग्य और हानिकारक है, इस के पहरने से उन के रस रक्त और वीर्य में गर्मी अधिक पहुँचती है, जिस से स्वच्छ और अनुकूल भोजन के खाने पर भी धातु की क्षीणता और १-नाटक के देखने के शौकीन लोगों को भी आयु को ही घटानेवाले जानो ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ रक्तविकार आदि रोग उन्हें घेरे रहते हैं, देखो ! इस समय इस देश में बहुत ही कम पुरुष ऐसे निकलेंगे कि जिन को धातुसम्बन्धी किसी प्रकार की बीमारी नहीं है नहीं हो जिधर बाइमे उमर यही रोग फैला हुआ दीख पड़ता है, अस सम मनुष्यों को अपने प्राचीन पुरुषोंके सर वैद्यक शास्त्र के फमनानुसार तथा ऋतु और देश के अनुकूल श्वेताम्बर (सफेद वस्त्र ) पीताम्बर ( पीले वस्त्र ) और रक्ताम्बर ( ठाक बन ) यषि मांदि २ के बा पहरने चाहियें । की इस के सिवाय यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वस्त्र को मैका नहीं रखना चाहिये, महुभा देखा जाता है कि योग बहुमुल्य बस्तों को सो पहनते हैं परन्तु उन की स्वच्छया पर ध्यान नहीं देते हैं, इस कारण उन को श्वरीर स्वच्छता से भी कुछ काम नहीं होता है, अत उचित यही है कि अपनी क्षति के अनुसार पहना हुआ कपड़ा अधिक मूल्य का हो चाहे कम मूल्य का हो उस को आठवें दिन उतार कर दूसरा लच्छ वस्त्र पहना जावे कि जिससे स्वच्छताजन्य काम प्राप्त हो, क्योंकि मकीन कपड़े से दुर्गन्ध निकता है जिस से भारोम्यता में हानि होती है, दूसरे पुरुष भी ऐसे पुरुषों से घृणा परवे है तथा उन की सर्व सज्जनों में निन्दा होती है । निर्मल वस्त्रों के धारण करने से कान्ति यश और भायु की वृद्धि होती है, भलक्ष्मी का नाश होता है, चि में हर्ष रहता है तथा मनुष्य श्रीमानों की सभा में जाने के मोम्ब होता है । तंग वस्त्र भी नहीं पहरना चाहिये क्योंकि सग बस्त्र के पहरने से छाती तथा फ (लीवर) पर दबाव पड़ने से मे भवयन अपने काम को ठीक रीति से नहीं करते हैं, इस से रुधिर की गति बन्द हो जाती हैं और रुमिर की गति के बन्द होने से श्वास की नही का तथा फलेने का रोग उत्पन होता है । इसके अतिरिक्त भवि सुर्ख और क्यों कि इस मकार 5 बल के पहरने से भीगे हुए कपड़ों को भी नहीं पहरना चाहिये, कर प्रकार की हानि होती है। इन सब बातों के उपरान्त मद्द मी आवश्यक है कि अपन देश के वस्त्रों को सब कामों में स्मना मोम्म है, जिस से यहां के क्षिरूप में उद्यति हो और मां का रुपया भी माहर को न खाये, देखो ! हमारे भारत देश्व में भी परे २ उच्चम और द वस्त्र बनते हैं, यदि सम्पूर्ण देखभाइयों की इस ओर दृष्टि हो जाने तो फिर देखिये मारत में कैसा मन बसा है, जो सर्व सुखों की बड़ है । ७ विहार-विहार शब्द से इस स्थानपर स्त्री पुरुषों के स्वानगी ( माइनेट ) व्यापार (भोग) का मुरूपतया समावेश समझना चाहिये, यद्यपि विहार के दूसरे भी १ - बिहार वस्तु विहार को मेजी में विस्टेशन" Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३७७ अनेक विषय हैं परन्तु यहां पर तो ऊपर कहे हुए विषय का ही सम्बध है, स्त्री विहा मेर इन बातों का विचार रखना अति आवश्यक है कि वयोविचार, रूपगुणविचार, कालविचार, शारीरिक स्थिति, मानसिक स्थिति, पवित्रता और एकपत्नीव्रत, अब इन के विषय सक्षेप से क्रम से वर्णन किया जाता है: १ - वयोविचार - इस विषय में मुख्य बात यही है कि लगभग समान अवस्थावाले स्त्रीपुरुषों का सम्बंध होना चाहिये, अथवा लडकी से लडके की अवस्था ड्योढ़ी होनी चाहिये, वालविवाह की कुचाल बन्द होनी चाहिये, जबतक यह कुचाल बद न हो तबतक समझदार मातापिता को अपनी पुत्रियों को १६ वर्ष की अवस्था के होने के पहिले श्वसुरगृह (सासरे) को नहीं भेजना चाहिये । समान अवस्था का न होना स्त्रीपुरुष के विराग और अप्रीति का कारण होता है और विराग ही इस ससार के व्यापार में शारीरिक अनीति “कार्पोरियलरिग्युलेरिटी” को जन्म देता है । २० से २५ वर्षतक का लडका और १६ वर्ष की लड़की ससारधर्म में प्रवृत्त होने के लिये योग्य गिने जाते है, इस से जितनी अवस्था कम हो उतना ही शारीरिक नीति “कार्पोरियलरिग्युलेरिटी” का भग होना ममझना चाहिये । ससारधर्म के लिये पुरुष के साथ योग होने में लड़की की बहुत न्यून है, यद्यपि हानिविशेष का विचार कर सर्कार ने अपने अवस्था नियत की है परन्तु उस सीमा को क्रम २ से बढा नियत करानी चाहिये | १२ वर्ष की अवस्था नियम में १२ वर्ष की कर १६ वर्षतक लाकर २ - रूपगुणविचार - रूप तथा गुण की असमानता भी अवस्था की असमानता के समान खराबी करती है, क्योंकि इन की समानता के बिना शारीरिक धर्म " कार्पोरियल ला" के पालन में रस (आनन्द) नही उपजता है तथा उस की शारीरिक नीति " कार्पो - रियलरिग्युलेरिटी” के अर्थात् शारीरिक कर्तव्यो के उल्लङ्घन का कारण उत्पन्न होता है । अवस्था, रूप और गुण की योग्यता और समानता का विचार किये विना जो माता पिता अपने सन्तानों के बन्धन लगा देते हैं उस से किसी न किसी प्रकार से शारीरिक धर्म की हानि होती है, जिस का परिणाम ब्रह्मचर्य का मग अर्थात् व्यभिचार है । ३- कालविचार - वैद्यकशास्त्र की आज्ञा है कि- "ऋतौ भार्यामुपेयात्" अर्थात् ऋतुकाल में भार्या के पास जाना चाहिये, क्योंकि स्त्री के गर्भ रहने का काल यही है, ऋतुकाल के दिवसों में से दोनों को जो दिन अनुकूल हो ऐसा एक दिन पसन्द करके १- जिस दिन रजस्वला स्त्री को तुस्राव हो उस दिन से लेकर १६ रात्रितक समय को ऋतु अथवा ऋतुकाल कहते हैं, यह पहिले ही लिख चुके है ॥ r Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जैनसम्पदामशिक्षा | क्योंकि स्त्री के पास जाना चाहिये, किन्तु ऋतुकाल के विना यारवार नहीं जाना चाहिये, ऋतुकाल के बीत जाने पर अर्थात् ऋतुसाव से १६ दिन वीतने के बाद जैसे दिन के मस्त होने से कमल संकुचित होकर बंद हो जात है उसी प्रकार स्त्री का गर्भाशय सकु चित होकर उस का मुख मंद हो जाता है, इस लिये ऋतुकाल के पीछे गर्भाधान के हेतु से सयोग करना अत्यन्त निरर्थक है, क्योंकि उस समय में गर्भाधान हो ही नहीं सकता है किन्तु भस्म वीर्य ही निष्फल जाता है जो कि ( धीर्य दी ) शरीर में अम्भुत छति है, प्राय यह अनुमान किया गया है कि एक समय के वीर्यपात में २ ॥ वोले बीर्ष के बाहर गिरने का सम्भव होता है, यद्यपि क्षीणवीर्य और विषमी पुरुषों में वीर्य की कमी होने से उन के शरीर में से इसने वीर्य के गिरने का सम्भव नहीं होता है तथापि जो पुरुष वीर्य का ममोचित रक्षण करते हैं और नियमित रीति से ही वीर्य का उपयोग करते हैं उन के शरीर में से एक समय के समागम में २|| तोले बीम बाहर गिरता है, अब यह विचारणीय है कि मह २ ॥ तोले वीर्य कितनी खुराक में से और कितने दिनों में बनता होगा, इस का भी विद्वानों ने हिसाब निकाला है और वह यह है कि ८० रतल खुराक में से २ र समिर बनता है और २ र रुधिर में से २|| तोहा वीर्य बनता है, इस से स्पष्ट है कि वो ! मन खुराक जिसने समय में खाई बावे उसने समय में २॥ रुपये भर नया वीर्य बनता है, इस सर्व परिगणन का सार ( मतसम्म ) यही है कि वो मन स्वाई हुई खुराक का सत्व एक समय के स्त्री समागम में निकल जाता है, जब देखो ! यदि तन्दुरुस्त मनुष्य प्रतिदिन सामान्यतया १ || मा २ रत की स्वराक स्वाये तो ४० दिन में ८ रतक खुराक वा सकता है, इस हिसाब से यह सिद्ध होता है कि यदि ४० दिवस में एक बार वीर्य का व्यय हो तबतक तो हिसाब बराबर रह सकता है परन्तु यदि उक्त समय ( ४० दिवस) से पूर्व अर्थात् गोड़ २ समय में मीर्य का खर्च हो तो अन्त में शरीर का क्षय अर्थात् हानि होने में कोई सन्देह ही नहीं है, परन्तु बड़े ही शोक का स्थान है कि जिस तरह लोग धन्यसम्बंधी हिसाब रखते हैं तथा अत्यन्त कूपजसा (कनूसी) करते हैं और द्रव्य का संग्रह करते है उस मकार शरीर में स्थित बीर्य - रूप सर्वोतम जन्म का कोई ही लोग हिसाव रखते हैं, देखो ! द्रव्यसम्बन्धी स्थिति में तो गृहस्थों में से बहुत ही मोड़े दिवाला निकाते हैं परन्तु बीर्यसम्बधी व्यवहार में तो पुरुषों का विशेष भाग विवासियों का धन्मा करता है अर्थात् आय की अपेक्षा मग विक्षेप करते हैं और अन्त में युवावस्था में ही निर्बल बन कर पुरुषस्व ( पुरुषार्थ ) से दीन हो बैठते हैं । ऊपर जो ऋतुकाल का समय ऋतुसान के दिन से सोलह रात्रि लिख चुके हैं उन में से बितने दिन तक रफखाब होता रहे उतने दिन छोड़ देने चाहियें नर्षात् सतुसाप के Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय || ३७९ हैं दिन ऋतुकाल में नहीं गिनने चाहियें, ऋतुस्राव के प्रायः तीन दिन गिने जाते है अर्थात् नीरोग स्त्री के तीन दिनतक ऋतुस्राव रहता है, चौथे दिन स्नान करके रजस्वला शुद्ध हो जाती है, ये (ऋतुस्राव के ) दिन खीसग में निषिद्ध अर्थात् ऋतुस्राव के दिनों में स्त्रीसंग कदापि नही करना चाहिये, जो पुरुष मन तथा इन्द्रियों को वश में न रख कर रजस्वला स्त्री से सगम करता है ( जिस के रक्तस्राव होता हो उस स्त्री से समागम करता है) तो उस की दृष्टि आयु तथा तेज की हानि होती है और अधर्म की प्राप्ति होती है, इस के सिवाय रजस्वला से समागम करने से गर्भस्थिति की संभावना नहीं होती है अर्थात् प्रथम तो उस समय में समागम करने से गर्भ ही नही रहता है यदि कदाचित् गर्भ रहे भी तो प्रथम के दो दिन में जो गर्भ रहता है वह नहीं जीता है और तीसरे दिन जो गर्भ रहता है वह अल्पायु तथा विकृत अगवाला होता है । रजोदर्शन के दिन से लेकर सोलह रात्रि पर्यन्त रात्रियों में चौथी रात्रि से लेकर सोलहवी रात्रिपर्यन्त ऋतुकाल अर्थात् गर्भाधान का जो समय है उस में भी सम रात्रिया प्रधान है अर्थात् चौथी, छठी, आठवी, दशवी, बारहवी, चौदहवी तथा सोलहवी रात्रिया उत्तम है और इन में भी क्रम से उत्तरोत्तर रात्रिया उत्तम गिनी जाती है । पूर्णमासी, अमावस्या, प्रातःकाल, सन्ध्याकाल, पिछली रात्रि, मध्य रात्रि और मध्याहकाल में स्त्रीसयोग नही करना चाहिये, क्योंकि इस से जीवन का क्षय होता है । गर्भवती से पुरुष को कभी संयोग नही करना चाहिये, क्योंकि गर्भावस्था में जिस चेष्टा के अनुसार व्यापार किया जाता है उसी चेष्टा के गुणो से युक्त बालक उत्पन्न होता है और बड़ा होने पर वह बालक विषयी और व्यभिचारी होता है । विहार के विषय में ऋतु का भी विचार करना आवश्यक है अर्थात् जो ऋतु विहार के लिये योग्य हो उसी में विहार करना चाहिये, विहार के लिये गर्मी की ऋतु बिलकुल प्रतिकूल है तथा शीत ऋतु में पौष और माघ, ये दो महीने विशेष अनुकूल है परन्तु किसी भी ऋतु में विहार का अतियोग ( अत्यन्त सेवन ) तो परिणाम में हानि ही करता है, यह बात अवश्य लक्ष्य ( ध्यान ) में रखनी चाहिये । ४ - शारीरिक स्थिति - जिस समय में स्त्री वा पुरुष के शरीर में कोई व्याधि (रोग), त्रुटि ( कसर ) अथवा बेचैनी हो उस में विहार का त्याग कर देना चाहिये अर्थात् स्त्री की रोगावस्था आदि में पुरुष को और पुरुष की रोगावस्था आदि में स्त्री को अपने मन को वश में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, किन्तु ऐसे समय में तो विहारसम्बन्धी विचार भी मन में नहीं लाना चाहिये, क्योंकि रोगावस्था आदि में विहार करने से अवश्य शरीर में विकार उत्पन्न हो जाता है तथा यदि कदाचित् ऐसे समय में गर्भस्थिति हो जावे तो स्त्री और गर्म दोनों का जीव जोखम में पड़ जाता है । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जनसम्प्रदायशिक्षा ॥ मास से रोगों में मायः विहार ( विषयभाग) की इच्छा कम होने के बदले अधिक हो पाती है, जैसे-क्षयरोगी फो नारयार बिहार की इच्छा तुमा करती है, यह इस साभाषिक नदी है किंतु यह (उच) रोग दी इस इच्छा को जन्म देता दे इस लिये धम रोगी को सावधानी रखनी पादिमे । पिहार फे पिपस में परस्सर की बारीरिफ प्रति का भी विचार करना चाहिये, पाकि मह बात ही भायात्यक मात है, सी पुरुष को इस पिपम में उम्पट पन पर रेत साथी नहीं होना चाहिये, तात्पम यह है कि पुरुष फो नी की वकिप भोर स्त्री ने गुरुप की पति का विचार करना चाहिये, यदि मी पुरुष के जोड़े में एक तो निक्षेप घल्यान् हो भौर दूसरा यिशेप नित दो दो पद अनपद सरानी या मूस है, परन्तु यदि भाम्ययोग से ऐसा ही बोरा जाये तो पीछे परस्पर * हित का पिपार क्या नहीं करना चाहिये भात् अपश्म करना चाहिये । ___ मत से पिचाररहित मम पुरुप विहार फे पिपय में स्त्रीवातिपर अपने हक का पाया फरते ई भीर ऐसे विचार फे पारा पाने का मनुचित उपयोग कर के सी को वाचार पर परपस करते हैं, सो मा भत्यन्त अनुचित है, क्योकि येसो ! सी पुरुष का परस्सर मापार एफ शारीरिक धम है और धर्म में एफचरफी हफ फा समास नहीं रहता है किन्तु दोना परापर हकदार है भौर परस्पर फे सुख फेरिये दोनों दम्पती धर्म में थे गुर इस लिये भी भार पुरुष को परस्सर फी अफिमा मनुस्मता का भपश्म विचार करना पादिये। __५-मानसिक स्थिति-योना में से मवि किसी का मन पिम्सा, भम, साफ माध और भय से म्याफर हो रहा हो घो एसे मटिका समय में बिहार सम्पन्धी कोई भी पेशा नही करनी भाहिमे, परन्तु अत्यन्त सेव का विसर दे भि-पधमान समय में खी पुरुप इस विषय फा भाव ही फग विपार पर है। इच्छा के पिना पलास्कार से किया एभा कम सन्तोपवामक नही पोषार और भर्स भोप शारीरिफ सपा मानसिक विकार का कारण होता है, इस लिये इच्छा के बिना जो विहार फिया पाता ह पद निष्फल होता है भार उसटा शरीर को विगारमा दे, इस सिमे इस पात को छत पदों में ध्यान में रखना चाहिये, यह भी सारण रदे सिमीकी इच्छा के पिना खीगमन करने में मार दास से पीर्यपात करने में सिमाम फर नहीं है, इस म्पेि दाम में मारा पीमपात की भिमा को भी गमपर भी नही परमा प्राहिये, पण के पिना सयोग थाने से काम की शान्ति नही होती है किन्तु उसटी काम की पविही नम्मापार पनि सकिन 50 पनन भाग पाम पारगमन मापामा। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३८१ होती है और ऐसा होने से यह वडी हानि होती है कि स्त्री का रज जिस समय पक होना चाहिये उस की अपेक्षा शीघ्र ही अर्धपक ( अधपका) होकर गर्भाशय में प्रविष्ट हो जाता है और वहा पुरुष के वीर्य के प्रविष्ट होने से कच्चा गर्भ वध जाता है। ६-पवित्रता-विहार के विषय में पवित्रता अथवा शारीरिक शुद्धि का विचार रखना भी बहुत ही आवश्यक बात है, क्योंकि स्त्री पुरुषो के गुप्त अंगो की व्याधि प्राय स्थानिक अपवित्रता और मलीनता से ही उत्पन्न होती है, इतना ही नहीं किन्तु यह स्थानिक मलीनता इन्द्रियो को विकारी (विकार से युक्त) बनाती है, परन्तु बड़े ही सन्ताप की बात है कि इस प्रकार की बातो की तरफ लोगो का बहुत ही कम ध्यान देखा जाता है, इसी का जो कुछ परिणाम हो रहा है वह प्रत्यक्ष ही दीख रहा है किचादी, सुजाख और गर्मी जादि अनेक दुष्ट और मलीन व्याधियो से शायद कोई ही भाग्यवान् जोड़ा बचा हुआ देखा जाता है, कहिये यह कुछ कम खेद की बात है ? ___ शरीर के अवयवो पर मैल जम कर चमडी को चञ्चल कर देता है और अज्ञान मनुष्य इस चञ्चलता का खोटा खयाल और खोटा उपयोग करने को उस्कराते है, इस लिये स्त्री पुरुषों को अपने शरीर के अवयवो को निरन्तर पवित्र और शुद्ध रखने के लिये सदा यत्न करना चाहिये, यद्यपि ऊपरी विचार से यह बात साधारण सी प्रतीत होती है परन्तु परिणाम का विचार करने से यह बड़े महत्त्वकी बात समझी जा सकती है, क्योकि पवित्रता शारीरिक धर्म का एक मुख्य सद्गुण "गुडकालिटी" है, इसी लिये बहुत से धर्मवालों ने पवित्रता को अपने २ धर्म में मिला कर कठिन नियमों को नियत किया है, इस का गम्भीर वा मुख्य हेतु इस के सिवाय दूसरा कोई भी नही हो सकता है कि पवित्रता ही सव सद्गुणो और सद्धर्मों का मूल है। ७-एकपत्नीव्रत-अपनी विवाहिता पत्नी के साथ ही सम्बन्ध रखने को एकपत्नीव्रत कहते है, विचार कर देखा जाये तो यह (एकपत्नीव्रत) भी ब्रह्मचर्य का एक मुख्य अग और गृहस्थाश्रम का प्रधान भूषण है, जो पुरुष एकपलीव्रत का पालन करते है वे निस्सन्देह ब्रह्मचारी है और जो स्त्रिया एकपतिव्रत का पालन करती हैं वे निस्सन्देह ब्रह्मचारिणी है, स्त्री के लिये एक ही पुरुष का और पुरुष के लिये एक ही स्त्री का होना जगत् में सब से बड़ी नीति है और इसी पर शारीरिक और व्यावहारिक आदि सर्व प्रकार की उन्नति निर्भर है। - इस नियम के उल्लघन करने से अर्थात् व्यभिचार से न केवल व्यावहारिक नीति का ही भग होता है किन्तु शारीरिक नीति और आरोग्यता की भी हानि होती है इस लिये इस महाहानिकारक विषय को अवश्य छोडना चाहिये, इस विषय का यदि अच्छे प्रकार Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैनसम्पदामशिक्षा स पणन किया जाये तो एफ ग्रन्थ बन सकता है, इस सिप सक्षेप से ही पाठकों को एम विपस का दमात - __यदि रिमाहित श्री पुरस ठार लिम्बीदुर माता को लक्ष्य में रम कर उन्दी के मनु सार पचास रेता ने नीरागतरीरवाल और दीपायु हा सपते है तथा सम्मुमों गुफ सन्तति का भी उत्पन पर सफ्त हैं और विचार पर देखा जाय तो प्रपत्र पान करने का प्रपावन भी यही है, आहार विहार में नियमित भोर अनुकतापूर्वक रहना एफ सपिम और परमापश्यक नियम है तथा इसी नियम के पासन करने का नाम जपचम है, प्रताप के विषय में एक विद्वान भाव न कुछ वर्णन किया है उसम निदशन करना भावश्यक समझ कर उसका मधिष्ठ अनुनाद महा किमत, उक विद्वान् फा मन है कि-"यह निम्भिस पात है कि-प्रमचयन के नियम भी अचानता मा टए के सहपन फ फारण वीय फा मनुचित उपयाग दान से साटे परिणाम निकळत है, कि पाहुन म डाग इस नियम को जानते भी है तो भी बान बूम पर उठटी रीति से पसाय करते हैं किन्तु पाठ से लाग ता इस नियम से अस्मन्त मनमिम सी देसे वात हैं, मनुप्प मन मोर मन फे साल में सम्पन्ध रखनेवाला तमा उस के फल्याण सुस्त भोर जीरन जम कारनेराठा प्रपचय प्रत दी है, इस लिये इस विषय में बा कुछ मिपार किया पार भयमा दलील दी वाय मह वास्तविक है, प्रप्सचयपतपारी भभया प्रापारी मही गिना जा सकता है जो किभरीरमल ओर मुन्दर भी आदि सन सामग्री में उपस्थित हने पर भी छात्रोफ भान से अपन मन को मन में रसता है, इच्छापूर्वक मीसंग स मत्यन्त अलग रहने के लिये जो ल नियम फिया जाता है उसे प्रांग (भमन) में लाने के लिप इच्छापूषक नीसग नहीं करना चाहिये, फिन्तु अनुदान समय प्रतिमा के भनुमार श्रीसग करना उपित है, इस नियम के पाछन भरनेवाल गृहम्म का प्रमचारी फरठे, इमम्मि यही परम उचित सम्पद कि-प्रया (सन्तान) के उत्पम फरन से स्मि ही मीसग करना टीफ है, मन्यमा नहीं । ८-मलीनताम में मनेह नहीं है कि मठीनता बहुत से रोगों को उत्सम परतीरे, माफि पर मीवर पी तथा ममपास पी मलीनता सराम हलाको उत्तम करती है भोर उम दमा म अन: गगो उत्पम हाने की सम्मापना होती है, देखो! घरीर पी मसीनता मे पमही मनुत मे रोग र बात , से समापन, सुजनी बार गुमर भावि, इम फ मियाय भेग स पमडी न रुक जाते हैं, छेना र रुक जान से पीने मानिस्सना यंददा जाता है, पसीन ' निकसने बन्द हन स भिर टीक शोर स गुट नहीं पा सपवार भोर रभिर फ टीफ धार से शुद्ध न ान से भनक राग हाजात दं॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय || ३८३ ९ - व्यसन - व्यसनों के सेवन से अनेक महाकष्टकारी रोग उत्पन्न हो जाते है, जिन का कुछ वर्णन तो पहिले कर चुके है तथा कुछ यहा भी करते है -- मद्य, ताडी, अफीम, भाग, तमाखू, तवाखीर, चाय और काफी आदि व्यसनो की बहुत सी चीजें हैं, यद्यपि इन चीजों में से कई एक चीजें रोगपर दवा के तरीके से योग्य रीति से वर्तने से फायदा करती है परन्तु ये सब ही चीजें यदि थोड़े दिनोतक लगातार उपयोग में लाई जावे तो इन का व्यसन पड जाता है और जब ये तरीके से नित्य ही प्रयोग में लाई जाती है तब इन से पृथक् २ उत्पन्न हो जाते है, जैसे- - मद्य के व्यसन से रसविकार, वदहजमी, वमन (उलटी ), दस्त की कब्जी, खट्टापन, मन्दाग्नि और मगज की खराबी होती है, आलस्य, दीर्घसूत्रता ( टिल्लडपन ), असा - हस ( हिम्मत हारना ), भीरुता ( डरपोकपन ) और निर्बुद्धिता ( बुद्धि का नाश ) आदि मद्य पीनेवाले के खास लक्षण है, मद्य से फेफसे की भयकर बीमारी, यकृत् अर्थात् लीवर का सकोच, यकृत् का पकना, क्षय, मधुप्रमेह और गुर्दे का विकार आदि अनेक बड़े २ भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं, मद्य का पीना शरीर में विषपान के समान असर करता है तथा बुद्धि को बिगाड़ता है । चीजें व्यसन के प्रकार के रोग अनेक ताडी के व्यसन से पेशाब के गुर्दे का रोग, मन्दाग्नि, अफरा और दस्त आदि रोग होते है तथा ताड़ी का पीना बुद्धि को भ्रष्ट करता है । अफीम के व्यसन से आलस्य, बुद्धि की न्यूनता और क्षिप्तचित्तता (पागलपन) आदि उत्पन्न होते है, विशेष क्या लिखें इस व्यसन से शरीर बिलकुल नष्ट भ्रष्ट ( वरवाद ) हो जाती है । भाग के व्यसन से बुद्धि तथा चतुराई का नाश होता है, मनुप्यत्व ( आदमियत ) का नाश होकर पशुत्व (पशुपन अर्थात् हैवानी ) प्राप्त होता है, स्मरणशक्ति घट जाती है, विचारशक्ति का नामतक नही रहता है, चक्कर आता है, मन खराव होता है तथा आयु घट जाती है । तमाखू के व्यसन से अर्थात् तमाखू के चावने से - पाचन शक्ति मन्द पडती है, वदहजमी रहती है, इस के खाने से पहिले तो कुछ चेतनता सी होती है परन्तु पीछे सुस्ती आती है, हाथ पैर ढीले हो जाते हैं, मन की चञ्चलता तथा चेतनता कम हो जाती है तथा विचारशक्ति भी कम हो जाती है, इस के अधिक खाने से विप के समान असर होता है अर्थात् जीवन को जोखम में गिरना पडता है 1 तमाखू के पीने से छाती में दाह, श्वास तथा कफ का रोग उत्पन्न होता है । १- हा एक दून इस का मित्र है, यदि शरीर के अनुकूल हो तो तैयार कर देता है ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ जेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ __ तमाखू के संपने से-मठीनठा होती है, कपड़े सराम होते है सपा भनक प्रकारक रोग भी ठस्पम हाते हैं। पास मोर प्रफी म्पसन से भी न पीने के समान रनि होती है, क्योंकि इस में मी पाहा २ नसा होता है, यह मधिक गर्म और ना दोन के कारण रूसी मोर कम सुराम मानेवाले गरीन लोगों ने बहुत हानि पहुंचाती है तमा इस के सेवन स मगन भोर उम के मानवन्तु निर्दल हे जाते ६॥ १०-पिपयोग-पहिले ठिस जुलि मनि अमम पस्तु साने पीने में मा जाये मथना परस्पर (एक से दूसरा) विरुद्ध पदाध माने में आ जान तो मह घरीर में विप क समान हानि करता है, इसके सिवाय जो भनेक प्रकार के निस भी पेट में जाकर हानि करते है, एक प्रकार की रिपेठी (निपमरी) मा मी होती है जिस से बुम्मार, पाण्दु भीर मराठा आदि रोग होते है। श्रीसे और वरि के पेट में जान स पूंजरा जाती है, मत्सनाग (सिंगिया) पेट में जान से मूच्छा सपा दार होठा हे मोर सोमठ सभा रसकपूर के पेट में जान से इसके मन्मन सुक बाद, तपय यह कि सपही प्रकार के विष पेट में बाबर हानि ही करते है। ११-रसविफार-ठम्, पेक्षान, पसीना, यूक और पित आदि पार्य समिर से उत्पन्न दाई आभा इन सवों को उरीर का रस करते है, यह रस जन आवश्यकता में न्पून बा भपिफ होकर घरीर में रहता है तय हानि परतारे, स-पदि पसीना न निकले ठो भी रानि करता है और पदि बावश्यम्या से भषिक निकड तो भी हानि करता है, इसी तरह दम् भादि विषय में भी समझ लेना राहिय, यदि पेक्षाप कम हो तो पछाप के रास्त से बा हानिकारक भष्ठ पाइर निकलना चाहिये बह निकल नहीं सकता है तथा खून में जमा हो जाता है और अनेक हानियों को करवा दे, मदि पंचानन होना बिल्कुल ही बन्द हा आप सा पाणी शीघ्र ही मर जाता है, देसाईना भीर मरी राग में प्राप' पन्नान कर ही मृत्यु होती , मदुत पसीना, बहुत दिनो का मसीसार, मस्सा, माऊ स गिरता हुभा खून ठभा सिर्मा का प्रदर इत्यादि करते हुए प्रबाह का एक दम पन्द्र पर दने से हानि हाती, पित्त पन स पिचके रोग होते है भोर लारस के सत्रय स सभा में पद हा जाता है। १२-जीष-जीर भर्मात् समि वा जन्तु से कण्ठमान, पास रक, यमन, मृगी, मतीसार तथा पमड़ी भनक रोग उत्पम होत है। भी ममयों भमान पर माता Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > चतुर्थ अध्याय ॥ ३८५ १३ - चेप - चेपीहवा से अथवा दूसरे मनुष्य के स्पर्श से बहुत सी बीमारिया होती हैं, जैसे- उपदेश (गर्मी का रोग ), वातरक्त, गलितकुष्ठ, प्रमेह, सुजाख, प्रदर, टाईफाइड तथा टाईफस नामक ज्वर ( शील ओरी ), हैजा, व्युव्योनिक प्लेग ( अग्निरोहणी ) और विस्फोटक आदि, इन के सिवाय और भी खाज दाद आदि रोग चेप से होते है ॥ " १४-ठंढ —-शरीर की गर्मी जब कम होती है तब उस को ठंढ कहते है, बहुत ठंढ से अर्थात् शर्दी से ज्वर, मरोड़ा, चूंक, मूत्रपिण्डका शोथ, सन्धिवात अर्थात् गॅठिया, मधुप्रमेह, हृदयरोग, फेफसे का शोथ, दम, क्षय और खासी आदि रोग उत्पन्न होते है | १५ - गर्मी – शरीर की खाभाविक गर्मी से जब अधिक गर्मी बढ़ जाती है तब ज्वर, वातरक्त, यकृत्, रक्तपित्त, गर्मी की खासी, पिंडलियों का ऐंठना और अतीसार आदि रोग होते हैं, कठिन धूप की गर्मी से मगज की बीमारी, कठिन ज्वर, हैजा, शीतला और मरोड़ा आदि रोग उत्पन्न होते है, एवं शरीर पर फुनसियें और फफोले आदि चमड़ी की भी व्याधिया हो जाती है, जिस प्रकार विस्फोटक आदि दुष्टरोग दुष्टस्पर्श से उत्पन्न हुए गर्मी के विष से होते है उसी प्रकार गर्म पदार्थों के खाने से बढ़ी हुई गर्मी से भी इस प्रकार के रोग होते है ॥ १६ - मन के विकार -- मन के विकारों से भी बहुत से रोग होते है, जैसे- देखो ! बहुत क्रोध से ज्वर और वातरक्त आदि बीमारिया हो जाती है, बहुत भय से मूर्छा, कामला, चूक, गुल्म, दस्त और अजीर्ण आदि रोग होते है, बहुत चिन्ता से अजीर्ण, कामला, मधुप्रमेह, क्षय और रक्तपित्त आदि रोग होते है ॥ १७- अकस्मात् - गिर जाने, कुचल जाने, डूब जाने और विष खाजाने आदि अनेक अकस्मात् कारणो से भी अनेक रोग होते हैं | सहायता करती है। १८ - दवा - यद्यपि दवा रोगों को मिटाती है अथवा मिटाने में परन्तु युक्ति के विना अज्ञानता से ली हुई वा दी हुई दवा से कुछ भी लाभ नही होता है अथवा इस प्रकार से ली हुई दवा एक रोग को दवा कर दूसरे को उत्पन्न कर देती है तथा मूल से दी हुई दवा से मनुष्य मर भी जाता है, इस लिये इन सब बातों को अपनी गफलत में अथवा अकस्मात् वर्ग में गिनते हैं, परन्तु लेभग्गू नीम हकीम और मूर्ख वैद्य अपने अल्पज्ञान से अथवा लोभ से अथवा रोगी पर पूरी दया न रखने के कारण वे - पर्वाही से चिकित्सा करने से सैकडों रोगों के कारणरूप हो जाते हैं, देखो ! हजारों मनुष्य इन लेभग्गुओं के हाथ से मारे जाते है, हजारों मनुष्य इन के हाथ से कष्ट पाते हैं, इन बातों का कुछ दृष्टान्तों के द्वारा खुलासा वर्णन करते हैं. १ - कहां से कोई तथा कहीं से कोई बात ले उड़नेवाले को लेभग्गू कहते हैं ॥ ४९ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैनसम्प्रदाय शिक्षा || शरीर में पायु के पढ़ जाने का गुरूप कारण ठक अर्थात् धर्मी दी है परन्तु कमी २ शरीर में बहुत गर्मी के मन जाने से भी यातु जोर किया करती है, भदसा | शरीर में जम गर्मी के पढ़ने से पायु का जोर मढ़ जाता है और रोगी सभा दूसरे भी स पादी की पुकार करते हैं ( सम कहते हैं कि पानी है पानी है) उस की चिकित्सा क लिये यदि कोई याम्ययेच आकर गर्मी की निवृति के द्वारा वायु की नियुधि करता है सम तो ठीक दी है परन्तु जब फाइ गर्म पेय चिकित्सा करने के लिये भाता दे तो मह भी से पानी की उत्पति समझ कर गम दमा देता है जिस से महादानि होती है, खूबी यह दे कि यदि फाचित् कोई बुद्धिगान् पेच यह कहे कि यह रोग गर्भ के द्वारा उन मुद्द मादी से दे इस लिये यह गम दया से नहीं मिटेगा किन्तु टेढी दमा सही मिटगा, धा उस रागी के घरवाले समदी भी पुरुष येव को गूम ठहरा देते दें और उसकी बताई हुई दया को मजूर नहीं करत दें किन्तु गमगानी गम पाइर्मा देवे ई बिन स गर्मी अधिक पर फर रोग को असाध्य कर देती है, जसे-पिपराम्भी भयंकर गर्मी छ उत्पन्न हुए पानीसरे में शुद्ध रायें और गर्म पैव यो २ लोगों को गुन्हिमे (कु) में छोकर फर दिखाते है जिस से रोगी माया गर दी जाता है, हो यो में से शायद फोइ एक दीपा दी पता है, यदि पत्र भी जाता है था उसको पद भय त गर्मी जन्मभर तक समाती रहती है, इसी मकार गर्मी के द्वारा जब कभी धातु का विकार होकर पुरुपत्य का नाश होता है, उपबंध, और सुग्रास से अभ्रा भय और चिन्ता से बहुत से आदमियों का मगज फिर जाता है विचारवायु हो जाता है, पागलपन हो जाता है धन ऐसे रोग पर भी अम्मान लोग और मान से हीन ऊँट पेच अभिद कर एक गर्म दमा दिये जाते है जिस से पीमारी का घटना सा दूर रहा उसटी वायु अधिक पड़ जाती है जिस से रोगी के और भी सरानी उत्पन्न होती है, क्योंकि इस प्रकार के रोग मामा मगन के सभी पड़ जाने से तथा भातु के नाम से होते है, इस लिये इन रोगों में तो मग भार पातु भरे हम दीपाशु मिटकर खादा कसा है, इसी लिये मगन पुष्ट करनेवाला, भ्रपट लानेवाला और aram parज इन रोगों में पतलाया गया है, परन्तु मूस पैप इन पास को कह से जाने ? मानव बहुत जुलाब के अयोग्य शरीरपाले का बहुत गुलाम दे वद बिरा से दश और मरोड़ का रोग हो जाता है, भाग सभा सून छूट पड़ता है और कछ बार भोर्ट फाम न कर भक्षक हो जाती है, जिस से रागी मर जाता है || एक रोग दूसरे रोग का कारण ॥ जसे बहुत से रोग भाहार विहार विरुद्ध पधाय से सतप्रतया विई उसी मफार दूसरे रोगों से भी अन्य रोग पेश दावे हैं, जसे बहुत साने से जपपा अपनी Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३८७ प्रकृति के प्रतिकूल अथवा बहुत गर्म वा बहुत ठढे पदार्थ के खाने से जठरामि बिगडती है, वैसे ही अधिक विषय सेवन से भी शरीर का सत्त्व कम होकर पाचनशक्ति मन्द पड़ती है, इस मन्दाग्नि का यदि शीघ्र ही इलाज न किया जावे तो इस (मन्दामि ) से कम से अनेक रोग पैदा होते हैं, जैसे देखो: १-मन्दाग्नि से अजीर्ण होता है, अजीर्ण से दस्त होते है, दस्तों से मरोड़ा होता है, मरोड़े से सग्रहणी होती है, सग्रहणी से मस्सा ( हरस ) होता है, मस्सा से पेट का दर्द अफरा और गुल्म (गोले) का रोग होता है । ___२-शर्द गर्मी (जुखाम )- यद्यपि यह एक छोटा सा रोग है तथा तीन चार दिनतक रह कर आप से ही मिट जाता है परन्तु किसी २ समय जब यह शरीर में जकड जाता है तो बड़े २ भयकर रोगों का कारण बन जाता है, जैसे-इस में खाने पीने की हिफाजत न रहने से दोष बढ़ कर खासी होती है और कफ बढ़ता है, उस से फेफसे में हरकत पहुचकर आखिरकार क्षय रोग के चिह्न प्रकट होते हैं तथा पीनसरोग भी जुखाम से ही होता है। ____३-अजीर्ण-अजीर्ण भी एक ऐसा साधारण रोग है कि वह मनुष्यों को प्रायः बना रहता है तथा वह आप ही सहज और साधारण उपाय से मिट भी जाता है, हां यह बात अवश्य है कि जहातक शरीर में ताकत रहती है वहातक तो इस की अधिक हरकत नहीं मालूम पडती है परन्तु नाताकत मनुष्य के लिये साधारण भी अजीर्ण बड़े २ रोगों का कारण बन जाता है, जैसे देखो । अजीर्ण से मरोड़ा होता है, मरोड़े से सग्रहणी जैसे असाध्य रोग की उत्पत्ति होती है तथा हैजे और मरी को बुलानेवाला भी अजीर्ण ही है। ___ इस में बडी भयकरता यह है कि यदि इस का इलाज न किया जाये तो यह (अजीर्ण) जीर्ण रूप पकड़ता है और शरीर में सदा के लिये घर बना लेता है। __ अजीर्ण से प्राय बहुत से रोग होते हैं जिन में से मुख्य रोग ये है--कृमि, बुखार, चूक, दस्त की कब्जी आदि। ४-बुखार-बुखार से तिल्ली, जीर्णज्वर, शोथ, अरुचि, कास, श्वास, वमन और अतीसार आदि। ___-कृमि कृमि रोग से हिचकी, हृदय का रोग, हिष्टीरिया, शिर का दर्द, छींक, दस्त, वमन और गुमडे आदि रोग होते हैं। ६-धातुविकार-धातुविकार से असाध्य क्षय रोग होता है, यदि उस का उपाय १-इस को अंग्रेजी में टिमपेप्मिया कहते है ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૮ जैनसम्प्रदामशिक्षा ॥ न किया जाये तो उस से मगज की वासु, विचारवायु अथवा मम हो जाता है, बुद्धि नाश हो आता है और मनुष्य पागल के समान बन जाता है । ७-स्वांसी--मद्यपि यह एक साधारण रोग है परन्तु उस का उपाय न करने से उस की वृद्धि होकर राजयक्ष्मा हो जाता है । ८ - मदात्यय - इस रोग से अजीर्ण, दाह और पागलपन का असाध्य रोग होता है । ९- उपदेश वा गर्मी – उपक्ष अर्थात् दुष्ट स्त्री आदि से उत्पन्न हुई गर्मी के रोग से विस्फोटक, गांठ, बावरक, रक्तपित, हरस, भगन्दर, नासूर और गैठिया धारि रोग होते हैं। १० - सुजाम्प सुनाख होकर प्रमेह हो जाता है, उस (प्रमेह ) से भदर्गाठ, सूत्र झच्छ्र, मूत्राघात और ममेइपिटिका ( छोटी २ फुनसियां) भादि रोग तथा उपरंप सम्बधी भी सब प्रकार के रोग होते दें ॥ यह चतुर्थ अध्याय का रोग सामान्यकारण नामक दचर्या प्रकरण समाप्त हुआ । ग्यारहवा प्रकरण — त्रिदोषजरोगवर्णन || त्रिदोषज अर्थात् वात पित्त और कफ से उत्पन्न होनेवाले रोगों का समय || आप बैचक छात्र के अनुसार यह सिद्ध है कि सब ही रोगों की जड़ बात पित्त और कफ ही है, जबतक ये सीनां दोष बराबर रहते ई अथवा अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हैं सपतक चरीर नीरोग गिना जाता है परन्तु जब इन में से कोई एक अथवा दो या तीनों ही दोप अपनी २ मर्यादा को छोड़ कर उलट मार्गपर से हैं तब बहुत स रोग उत्पन्न होते है । ये तीनों दोप किस प्रकार से अपनी मर्यादा को छोड़ते है तथा उन से फोन २ से रोग प्रकट होते हैं इस विपय का सक्षेप से वणन करते हैं - पीने से जा रोग होता है उस को मास्प कहते है ११- जैसा कि मों में वर्षा समत्वमारोग्यं श्रनवृद्धी विजय " अर्थात् म (मिपमा बापित भर कफ) का जो समान रहना ही भारोम्वाई भीर उनकी को म्यू ना नही रोमा ६ ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ चतुर्थ अध्याय ॥ वायु के कोप के कारण ॥ अपान वायु के, दस्त के और पेशाब के वेग को रोकना, तिक्त तथा कषैले रसवाले पदार्थों का खाना, बहुत ठंढे पदार्थों का खाना, रात्रि को जागरण करमा, बहुत स्त्रीसंग (मैथुन) करना, बहुत परिश्रम करना, बहुत खाना, बहुत मार्ग चलना, अधिक बोलना, भय करना, रूखे पदार्थों का खाना, उपवास करना, बहुत खारी कडुए तथा तीखे पदार्थों का खाना, बहुत हिचके खाना और सवारी पर बैठ कर यात्रा करना, इत्यादि कार्य वायु को कुपित करने में कारण होते है । ___ इन के सिवाय-बहुत ठंढ में, बरसात की भीगी हुई जमीन में, बरसते समय में, स्नान करने के पीछे, पानी पीने के पीछे, दिन के पिछले भाग में, खाये हुए भोजन के पचने के पीछे और जोर से पवन (हवा) चल रहा हो उस समय में शरीर में वायु जोर करता है तथा शरीर में ८० प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है, उन ८० प्रकार के रोगों के नाम ये है: १-आक्षेपवायु-इस रोग में शरीर की नसों में हवा भरकर शरीर को इधर उधर फेंकती है। २-हनुस्तम्भ-इस रोग में ठोडी वादी से जकड़ कर टेढ़ी हो जाती है। ३-ऊरुस्तम्भ-इस रोग में वादी से जघा अकड़ कर चलने की शक्ति कम हो जाती है। ४-शिरोग्रह-इस रोग में शरीर की नसों में वादी भर कर शिर को जकड देती और पीडा करती है। ५-बाह्यायाम-इस रोग में पीठ की रगों में वादी भर कर शरीर को धनुष के समान झुका देती है। ६-अन्तरायाम--इस रोग में छाती की तरफ से शरीर कमान के समान वांका (टेढा ) हो जाता है। ७-पाश्वशल-इस रोग में पसवाड़ों की पसलियों में चसके चलते हैं । ८-कटिग्रह-इस रोग में वादी कमर को पकड़ के जकड देती है। ९-दण्डापतानक-इस रोग में वादी शरीर को लकड़ी की तरह सीधा ही जकड़ देती है। १०-खल्ली-इस रोग में वायु भर कर पैर, हाथ, जाघ, गोडे और पीडियों का कम्पन करती है। ११-जिह्वास्तम्भ-इस रोग में वादी जीभ की नसों को पकड़ कर बोलने की शक्ति को बन्द कर देती है। १२-अदित-इस रोग में मुख का आधा भाग टेढा होकर जीभ का लोचा वधता है और करडा ( सख्त ) हो जाता है । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैनसम्प्रदायश्चिक्षा || ११ - पक्षाघात -- इस रोग में आधे शरीर की नसों का शोषण हो कर गति की रुकावट हो जाती है। १४- क्रोटुशीर्षक- इस रोग में गोड़ों में बादी खून को पकड़ कर कठिन सुमन को पैदा करती है। - इस रोग में गर्दन की नसों में वायु कफ को पकड़ कर सर्वन १५- मन्यास्तम्भ को जकड़ देती है । १६ - प कर देती है । इस रोग में कमर तथा जांघों में पादी घुस कर दोनों पैरों को निकम्मा १७ – कलायस्थ – इस रोग में चलते समय शरीर में कम्पन होता है सभा पैर टेने पड़ जाते है। १८ - सूनी - इस रोग में पकाश्चम में चिनग पैदा होकर गुदा और उपस्म (पेक्षान की इन्द्रिय) में जाती है। १९ - प्रतितनी - इस रोग में तूनी की पीड़ा नीचे को उतर कर पीछे नाभि की सरफ जाती है । २० --म्पस – इस रोग में पगु ( पांगळे) के समान सम लक्षण होते हैं, परन्तु विशे पता केवल यही है कि यह रोग केवल एक पैर में होता है, इस किये इस रोगनाले को गड़ा कहते हैं । २१ - पादक हो जाता है। - इस रोग में पैर में केवल सनसनाहट होती है तथा पेर शून्म जैसा २२ - गुसी - इस रोग में कटि ( कमर ) के नीचे का भाग (जांब) और पेर मादि ) ड़ जाता है । २३ - विश्वाची - इस रोग में हमेकी तथा अंगुलियां जकड़ जाती है और हाथ से काम नहीं होता है । २४ - अपयाहुक - इस रोग में हाथों की नाड़ी जकड़ कर हाथ तूमते (वर्ष करते रहते है । २५- अपतानक- इस रोग में बादी इदम में जाकर दृष्टि को स्तम्भ ( रुकी हुई ) फरती है, ज्ञान और संज्ञा ( मेघनता ) का नाश करती है और कण्ट से एक विलक्षण ( अजीब) सरह की आबाब निफक्ती है, जग यद वायु हृदय से अलग इटली देवम रोगी का सक्षा प्राप्त होती है (होश भाता है), इस रोग में हिष्टीरिया (उन्माद ) के समान चिह्न वार २ होते तथा मिट जाते हैं । १६ सूजन पान के सिर के समान होती है इसी साल का घिर) कहते हैं। भई घर प्रत्नी भी १ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३९१ २६ - व्रणायाम -- इस रोग में चोट अथवा जखम से उत्पन्न हुए व्रण ( घाव ) में वादी दर्द करती है । २७ - व्यथा - इस रोग में पैरों में तथा घुटनों में चलते समय दर्द होता है । २८- अपतन्त्रक- इस रोग में पैरो में तथा शिर में दर्द होता है, मोह होता है, गिर पडता है, शरीर धनुष कमान की तरह बाका हो जाता है, दृष्टि स्तब्ध होती है तथा कबूतर की तरह गले में शब्द होता है । २९- अंगभेद – इस रोग में सब शरीर टूटा करता है । ३० - अंगशोष- इस रोग में वादी सब शरीर के खून को सुखा डालती है तथा शरीर को भी सुखा देती है । ३१ - मिनमिनाना --- इस रोग में मुँह से निकलनेवाला शब्द नाक से निकलता है, इसे गूंगापन कहते है | २२ - कल्लता - इस रोग में हिचक २ कर तथा रुक २ कर थोडा २ बोला जाता है तथा बोलने में उबकाई खाता है । ३३ - अष्टीला - इस रोग में नाभि के नीचे पत्थर के समान गाठ होती है । ३४- प्रत्यष्ठीला - इस रोग में नाभि के ऊपर पेट में गाठ तिरछी होकर रहती है । ३५ - वामनत्व - इस रोग में गर्भ में प्राप्त होकर जब वादी गर्भविकार को करती है तब बालक वामन होता है । ३६- कुब्जत्व-इस रोग में पीठ और छाती में वायु भर कर कूबड़ निकाल देती है । ३७- अंगपीड़ - इस रोग में सब शरीर में दर्द होता है । ३८ - अंगशूल -- इस रोग में सब शरीर में चसके चलते हैं । ३९ - संकोच - इस रोग में वादी नसो को सकुचित कर शरीर को अकड देती है । ४० - स्तम्भ - इस रोग में वादी से सब शरीर ग्रस्त हो जाता है । ४१ - रूक्षपन - इस रोग में वादी के कोप से शरीर रूखा और निस्तेज हो जाता' 1 ४२ - अंगभंग - इस रोग में ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वादी से शरीर टूट जायगा । ४३ - अंगविभ्रम-इस रोग में शरीर का कोई भाग लकड़ी के समान जड हो जाता है। ४४ - मूकत्व - इस रोग में बोलने की नाडी में वादी के भर जाने से जवान बन्द हो जाती है । ४५ - विग्रह - इस रोग में आँतो में वायु भर कर दस्त और पेशाब को रोक देती है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० बेनसम्प्रदायशिक्षा॥ १३-पक्षाघात-इस रोग में माधे शरीर की नसों का शोपण हो कर गति की रुकावट हो चासी है। १४-फोटुशीर्पफ-इस रोग में गोड़ों में पानी सून फो पा पर फठिन सूर्बन को पैदा करती है। १५-मन्यास्तम्भ-इस रोग में गर्दन की नसों में पायु कफ को पकर फर गर्दन को बफा देती है। १६-पर-इस रोग में फमर तथा जापों में पानी घुस र धोनों पैरों को निकम्मा पर देसी है। १७-फलायखा-स रोग में उस समय घरीर में कम्पन होता है प्रभा पैर टेने पर जाते हैं। १८-तुनी-इस रोग में पकाधम में पिनग पैदा होफर गुना भोर उपस्थ (पेशाप की इन्द्रिय) में माती है। १९-प्रतिसृनी-इस रोग में तूनी की पीड़ा मीपे को उतर फर पीछे नामि की सरफ पाती है। ___२०-म्पा-इस रोग में पंगु (पांग) के समान सप रक्षण होते हैं, परन्तु विक्षे पसा फेवल यही है कि-यर रोग फेवा एक पैर में होता है, इस ठिय इस रोगबाले को ऊँगड़ा करते हैं। ___ २१-पादठप-इस रोग में पैर में पर सनसनाहट होती है सभा पैर शून्य जैसा दो पाता है। २२-पभ्रसी-स रोग में फटि (मर) के नीचे का भाग (प) भौर पेर मादि) जफर जाता है। २३-विश्वाची-इस रोग में होगी सभा अंगुम्मिा मकर नाती है मौर हाम से काम नहीं होता है। २५-अपपाहुफ-इस रोग में हापों की नाही बा र बाप नूसते (दर्द फरसे) रहते हैं। २५-अपतानफस रोग में पादी एवम में मार पि फो सम्म (रुकी हुई) फरती है, शान भीर सभा (पेसनसा) फा नाक्ष परती है और कण्ठ से एक विक्षन (मनीय) सरह की भाषाम मिफाती है, मप यह वायु एवम से भष्म हटती है वन रोगी को सधा माप्त होती है (होश भावा है), इस रोग में दिखीरिया (उन्माव) समान निह पार २ हासे तथा मिट जाते हैं। -पर सूरन मनाम के सिरप रामा सीमित इस पीपक (पाम पिर) । - राई याममर प्रक्ली भी प्रव॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ (३९३ ६९-आध्मान-इस रोग में वायु के कोप से नाभि के नीचे अफरा हो जाता है । ७०-प्रत्याध्मान-इस रोग में हृदयके नीचे और नाभि के ऊपर अफरा हो जाता है । ७१-शीतता-इस रोग में वायु से शरीर ठढा पड जाता है। ७२-रोमहर्ष-इस रोग में वादी के कोप से शरीर के रोम खड़े हो जाते हैं। ७३-भीरुत्व-इस रोग में वायु के कोप से भय लगता रहता है। ७४-तोद-इस रोग में शरीर में सुई के चुभाने के समान व्यथा प्रतीत होती है। ७५-कण्डू-इस रोग में वादी से शरीर में खाज चला करती है । ७६-रसाज्ञता-इस रोग में रसो का खाद नहीं मालूम होता है । ७७-शब्दाज्ञता-इस रोग में वादी के कोप से कानो से शब्द सुनाई नही देता है। ७८-प्रसुति-इस रोग में वायु के कोप से स्पर्श का ज्ञान नहीं होता है । ७९-गन्धाज्ञता-इस रोग में वायु के कोप से गध का ज्ञान नहीं होता है । ८०-दृष्टिक्षय-इस रोग में दृष्टि में वायु अपना प्रवेश कर देखने की शक्ति को कम कर देती है। सूचना-वायु के कोप से शरीर में ऊपर कहे हुए रोंगो में से एक अथवा अनेक रोगों के लक्षण स्पष्ट दिखलाई देते है, उन ( लक्षणो) से निश्चय हो सकता है कि यह रोग वादी का है, खून और बादी का भी निकट सम्बंध है इस लिये वादी खून में मिल कर बहुत से खून के विकारों को पैदा करती है, अत. ऐसे रोगों में खून की शुद्धि और वायु की शान्ति करने वाला इलाज करना चाहिये ।। पित्त के कोप के कारण ॥ बहुत गर्म, तीखे, खट्टे, रूखे और दाहकारी पदार्थों के खाने पीने से, मद्य आदि नशों के व्यसन से, बहुत उपवास करने से, क्रोध से, अति मैथुन से, बहुत शोक से, बहुत घूप और अग्नि तेज आदि के सेवन से, इत्यादि आहार विहार से पित्त का कोप होता है, जिस से पित्तसम्बन्धी ४० रोग होते हैं, जिन के नाम ये है: १-धूमोद्गार-इस रोग में धुएँ के समान जली हुई डकार आती है। २-विदाह-इस रोग में शरीर में बहुत जलन होती है। ३-उष्णाङ्गत्व-इस रोग में शरीर हरदम गर्म रहता है। ४-मतिभ्रम-इस रोग में शिर ( मगज़ ) सदा घूमा करता है । १-वायु से उत्पन्न होने वाले इन ८० प्रकार के रोगों का यहा पर कथन कर दिया है परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि अनेक आचार्यों ने कई रोगों के नामान्तर (दूसरे नाम ) लिखे हैं तथा उन के लक्षण भी और ही लिखे हैं, परन्तु संख्या में कोई भेद नहीं है अर्थात् रोग सख्या सव ही के मत में ८० ही है, यही विषय पित्त और कफ से उत्पन्न होनेवाले रोगों के विषय मे भी समझना चाहिये । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा | ४६-पन्वषिकता - इस रोग में वाड़ी से दस्त बहुत फरा आता है । ४७ - अतिजृम्भा - इस रोग में भावी से उबासी भयात् जैमा बहुत आती है। ३८ - मत्युद्गार इस राग में यात्री के कोप से डकारें बहुत आती है । ४९ - अन्यकूजन - इस रोग में बादी के फोप स भीठों में कूजन (कुर २ की आवाज ) वार होती है । ३९२ - ५० - वातप्रवृति - इस रोग में यात्री के जार से अधोवायु (अपान वायु ) बहुत निकलती है। ५१ - स्फुरण -- इस रोग में बादी के चोर से आँख अपना हाथ जावि कोइ भन फरफरता है । ५२ - शिरापूर्ण - इस रोग में बादी से सम नसें और शिरा भर जाती हैं। ५३ - कम्पवायु -- इस रोग में षायु से सम अंग अथवा सिर काँपा करता है । ५० - कार्य - इस रोग में बादी के काप से शरीर प्रतिदिन ( दिन पर दिन ) तुम होता जाता है । ५५-३यामता-स रोग में पादी से शरीर काला पड़ता जाता है । ५६ - प्रलाप --स रोग में बादी से मनुष्य बहुत मकता और भोक्ता रहता है । ५७ - क्षिप्रसूता - इस रोग में बादी से दम २ में (धोबी २ देर में ) पेठान उतरा करती है । १८- निद्रानाश - इस रोग में बादी से नींद नहीं भाती है । ५९ - स्वेदनाश - इस राग में यात्री पर्सन के छिंदी (छेदों) को मन्द कर पसीने को मन्द कर देती है । ६० दुर्यलय -- इस रोग में बावु के कोप से शरीर की शक्ति जाती रहती है। ६१-पलक्षय - इस रोग में बादी के कोपस क्षति का बिक ही नाम हो जाता है। ६२ - शुक्रप्रवृप्ति - इस रोग में यात्री के कोप से शुरू (बीस) बहुत गिरा करता है। ११- शुक्रफाइ - इस रोग में पायु धातु में मिठकर धातु का सुखा देती है। ६४ - शुक्रनाश- इस राग में बावु स धातु का बिलकुल ही नाथ हो जाता है। ६ - अनवस्थितपिप्तता - इस राग में बायु मगन में जाकर विष का अस्थिर कर देती है । ६६ - काठिन्य- इस रोग में वायु के काप से शरीर करा हा जाता है । ६७ - विरमास्यता - इस रोग में बायु काम मुँह म रस का खान विरु नहीं रहता है। ६८-कपाययक्रता- इस राग में गाड़ी काप से मुँह में रस का साथ रहता है। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३६ - उष्णमूत्रत्व - इस रोग में पेशाब गर्म आता है । ३७- उष्णमलत्व -- इस रोग में दस्त गर्म उतरता है । ३८ - तमोदर्शन - इस रोग में आखों में अँधेरी आती है । ३९ - पित्तमण्डलदर्शन - इस रोग में पीले मण्डल ( चक्कर ) दीखते है । ४० - निःसरत्व - इस रोग में वमन और दस्त में पित्त निकलता है । ३९५ सूचना - पित्त के कोप से शरीर में उक्त रोगो में से एक अथवा अनेक रोगों के लक्षण दिखलाई देते है, उन को खूब समझ कर रोगों का इलाज करना चाहिये, क्योकि बहुधा देखा गया है कि - मतिभ्रम, तिक्तास्यता, खेदस्राव, क्लम, अरति, अल्पनिद्रता, गात्रसाद, भिन्नविकता और तमोदर्शन आदि बहुत से पित्त के रोगों को साधारण मनुष्य अपनी समझ के अनुसार वायु के रोग गिनकर ( मान कर ) उन के मिटाने के लिये गर्म इलाज किया करते हैं, उस से उलटा रोग बढ़ता है, इसी प्रकार बहुत से रोग बाहर से के से (वायुजन्य रोगों के समान ) दीखते हैं परन्तु असल में निश्चय करने पर वे (रोग) पित्त के ( पित्तजन्य ) ठहरते है ( सिद्ध होते है ), एवं बहुत से रोग बाहरी लक्षणों से पित्त तथा गर्मी के मालूम देते है परन्तु असल में निश्चय करने पर वे रोग वायु से उत्पन्न हुए सिद्ध होते है, इस लिये रोगों के कारणों के शक्ति और सूक्ष्म बुद्धि से जाच करने की आवश्यकता है | वायु खोजने में बहुत विचार कफ के कोप के कारण ॥ गुड़, शक्कर, बूरा और मिश्री आदि मीठे पदार्थों के खाने से, घी और मक्खन आदि चिकने पदार्थों के खाने से, केला और भैस का दूध आदि भारी पदार्थों के खाने से, ठढे और भारी पदार्थों के अधिक खाने से, दिन में सोने से, अजीर्ण में भोजन करने से, विना मेहनत के खाली बैठे रहने से, शीतकाल में अधिक ठंढे पानी के पीने से और वसन्त ऋतु में नये अन्न के खाने से, इत्यादि आहार विहार से शरीर में कफ बढ़ कर बहुत से रोगों को उत्पन्न करता है, जिन में से मुख्यतया कफ के २० रोग हैं, जिन के नाम ये हैं- १ - तन्द्रा - इस रोग में आखो में मिँचाव सा लगा रहता है । २ - अतिनिद्रता - इस रोग में नींद बहुत आती है । ३ - गौरव - इस रोग में शरीर भारी रहता है । ४ - मुखं माधुर्य – इस रोग में मुँह मीठा २ सा लगता है । ५- मुखलेप - इस रोग में मुँह में चिकनापन सा रहता है । ६ - प्रसेक - इस रोग में मुँह से लार गिरती रहती है । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ अनसम्प्रवामशिक्षा ॥ ५-कान्तिहानिस रोग में शरीर के क्षेत्र का नाश होता है। ५-फण्ठशोप--स रोग में कण्ठ (गठा) मूस जाता है। ७-मुम्बशोप-इस रोग में मुँह में शोप हो जाता है। ८-अल्पशुक्रता-इस रोग में धातु (वीर्य) फम हो जाचारे । ९-सिक्कास्पता-इस रोग में मुंह फामा रहता है। १०-अम्लयमस्वस रोग में मुँह सता रहता है। ११-स्पेदस्राय-इस रोग में पसीना पहुत भावा है। १२-अङ्गपाफ-इस रोग में शरीर पक जाता है। १३-सम-पस रोग में म्गनि सभा भवधि (फमनोरी ) रहती है। १५-हरितवर्णस्य-इस रोग में सरीर का रंग हरा वीससा है। १५-अवाप्ति-स रोग में भोजन करने पर भी वृप्ति नहीं होती है। १६-पीतफायताइस रोग में शरीर का रंग पीला दीसता है। १७-रगनाप-इस रोग में शरीर के किसी सान से स्पून गिरवा दे। १८-अनावरण-इस रोग में शरीर पी चमड़ी फटती है । १९-लोहगन्धास्पता-स रोग में मुँह में से गेह फे समान गन्ध भावी है। २०-दीर्गन्य-इस रोग में हसबा घरीर से दुर्गन्ध निकलती है। २१-पतिमूग्रस्यइस रोग में पेठान पीम उतरता है। २२-अरति-स रोग में पदार्थ पर भप्रीति रती है। २३-पित्तपिट्फता-इस रोग में वख पीग भासा है। २५-पीतायतोफन-इस राग में भासों से पीम पीसतारे। २५-पीतनेसास रोग में भासें पीरी हो जापी है। २६-पीतदन्तप्ता--स रोग में बाँस पीसे हो जाते हैं। २७-शीच्ण -इस रोग में ठरे पदार्थ की बाम रखी है। २८-पीसनभ्यता-इस रोग में नस पीसे क्षे जाते हैं। २०-सजोयेप-स रोग में सूप भादिपवेन सहा नहीं पाता। ३०-अल्पनिव्रता-इस रोग में नाद धोनी भावी है। ११-फोप- इस रोग में मोष (गुस्सा) बासा । २२-गाप्रसाद-इस रोग में शरीर में पीग होती है। १३-भिप्तपिट्फरप-स रोग में मस्त परण भाता है। ३५-भन्यता--इस रोग में बात से नदी दीसतार। ३५-उष्णागासस्प-प रोग में भाप गर्म निभाता है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३९७ विचार कर रोग की परीक्षा करना, शकुन के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से होती है कि - जिस समय वैद्य को बुलाने के लिये दूत जावे उसी समय मकान से निकलते ही उस को गर्म शकुन का होना शुभ होता है, सौम्य तथा ठढा शकुन होवे तो वह अच्छा नही होता है इत्यादि, खरोदय के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से होती है कि जब दूत वैद्य के पास पहुंचे तब वैद्य खरोदय देखे, वह भी भरीहुई दिशा में देखे, यदि दूत बैठ कर या खडा रह कर प्रश्न करे तो सजीव दिशा समझे, यदि उस समय वैद्य के अग्नितत्त्व चलता हो तो पित्त वा गर्मी का रोग समझे, रोगी के वायुतत्त्व चलता हो तो वायु का रोग समझे, इत्यादि तत्त्वो का विचार करे, यदि खाली दिशा में बैठ कर प्रश्न हो वा सुषुम्ना नाडी चलती हो तो रोगी मर जाता है, आकाशतत्त्व में वैद्य को यश नही मिलता है, यदि वैद्य के चन्द्र खर चलता हो पीछे उस में पृथिवी और जलतत्त्व चले तथा उस समय रोगीके घर जावे तो वैद्य को अवश्य यश मिलेगा, दवा देते समय वैद्य के सूर्य स्वर का होना इसी तरह पुन वैद्य को मकान से निकलते ही उढे और सौम्यशकुन का होना अच्छा होता है परन्तु गर्म शकुन का होना अच्छा नहीं है, इत्यादि । इस प्रकार से खप्न शकुन और खरोदय के द्वारा परीक्षा करने से वैद्य इस बात को निमित्त शास्त्र के द्वारा अच्छी तरह जान सकता है कि - रोगी जियेगा या बहुत दिनोतक भुगतेगा अथवा आराम हो जायगा इत्यादि । यद्यपि इन तीनों विषयों का कुछ यहा पर विशेष वर्णन करना आवश्यक था परन्तु ग्रंथ के बढ़ जाने के भय से यहा विशेष नहीं लिख सकते हैं किन्तु यहा पर तो अब रोग परीक्षा के जो लोकप्रसिद्ध मुख्य उपाय है उन का विस्तारसहित वर्णन करते हैं: - रोगपरीक्षा के लोकप्रसिद्ध मुख्य चार उपाय है - प्रकृतिपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, दर्शनपरीक्षा और प्रश्नपरीक्षा, इन में से प्रकृतिपरीक्षा में यह देखा जाता है कि रोगी की प्रकृति वायुप्रधान है, वा पित्तप्रधान है, वा कफप्रधान है, अथवा रक्तप्रधान है, ( इस विषय का वर्णन प्रकृति के स्वरूप के निर्णय में किया जावेगा ), स्पर्शपरीक्षा में रोगी के शरीर के भिन्न २ भागों की हाथ के स्पर्श से तथा दूसरे साधनों से जाच की जाती है, इस परीक्षा का भी वर्णन आगे विस्तार से किया जावेगा, यह स्पर्शपरीक्षा हाथ से तथा थर्मामीटर (उष्णतामापक नली) से और स्टेथोस्कोप ( हृदय तथा श्वास नली की क्रिया के जानने की भुगली ) आदि दूसरे भी साधनों से हो सकती है, नाड़ी, हृदय, फेफसा तथा चमड़ी, ये सब स्पर्शपरीक्षा के अंग है, दर्शनपरीक्षा में यह वर्णन है कि रोगी के शरीर को अथवा उस के जुदे २ अवयवों को केवल दृष्टि के द्वारा देखने मात्र से रोग १- स्वरोदय का कुछ वर्णन आगे (पश्चमाध्याय में) किया जायगा, वहा इस विषय को देख लेना चाहिये ॥ २- अष्टाङ्ग निमित्त के यथार्थ ज्ञान को जो कोई पुरुष झूठा समझते हैं यह उन की मूर्खता है ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ अनसम्मवायशिक्षा ७-चतायलोफन-इस रोग में सप वस्तुयें सफेद दीसती है। ८-श्वेतषिद्कस्प-स रोग में वस्त्र सफेद रंग फा उतरता है। ९-श्वेतमूत्रप्ता-इस रोग में पेशाम शेठ (सफेद) उतरता है। १०-श्वेतांगवर्णता-इस रोग में शरीर का रंग सफेद हो पाया है। ११-उष्णेच्ण-स रोग में भति गम पदार्थ के खाने की इच्छा होती है। १२-तिकफामता-स रोग में फर्स पीन की इच्छा होती है। १३-मलाधिक्य-नस रोग में वस्व अधिक होफर उतरता है। १४-शुमपाल्य -स रोग में वीर्य का भधिफ समय दोसा है। १५-पाहुमूत्रप्ता--इस रोगों पेक्षाप पात भाता है। १६-आलस्य-परा रोग में मासस्य माहुत भातारे। १७-मन्दयुद्धिस्य–स रोग में बुद्धि मन्द हो जाती है। १८-सृप्ति-नस रोग में छोड़ा सा साने से ही एप्ति हो जाती है। १९-घर्घरयाफ्यता-स रोग में आयाज पर्पर होकर निकसती है। २०-अचेतन्य-इस रोग में वेतनता जाती रहती है। सूचना-पफ का फोप होने से शरीर में से उक रोगों से एक अथवा अनेक रोगों फेवर प्रथम वीस परें तम उन फो सूप सोच समझ फर रोगों का इलाज करना चाहिय । का के रोगों में जो तापोकन तथा श्रेतपिट्फस्य रोग गिनाये गये है उन १ वास्पर्य यह नहीं है फि सप पस्तुयें पर्फ के समान सफेद दीसे सपा पर्फ के समान सोर वत आने, किन्तु उन का तात्पर्य यही है कि भारोम्मता की रक्षा में पैसा रंग पीसता या सभा भिस रंग का दम भावा वासा रंग न वीस फर तथा उस रंग प्रपतन दोकर पूर्व की अपेक्षा अधिक वेस वीसता है वा भधिक घेत दस भाता है॥ वह पसु भध्याय का भिवोपन रोगपर्मन नामफ ग्यारहयो प्रकरण समाप्त हुमा ।। यारहवा प्रकरण-मोगपरीक्षामकार ।। रोग की परीक्षा के आवश्यक झम या प्रकार ॥ रोग की परीक्षा के बहुत से प्रकार हैं-उन में से तीन प्रमर निमिध शाम के द्वारा माने जाते हैं, जो कि पे-राम, सकुन और सरोदय, सम के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से दोगीदेटि-रोगी प्रेया उसपी सम्बन्धी को या उप निर्षि रराक (रोगी की निरिसा करने याने)२१को पो सम भाने उसका शुभाशुभ फत Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३९७ विचार कर रोग की परीक्षा करना, शकुन के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से होती है कि जिस समय वैद्य को बुलाने के लिये दूत जावे उसी समय मकान से निकलते ही उस को गर्म शकुन का होना शुभ होता है, सौम्य तथा ठंढा शकुन होवे तो वह अच्छा नहीं होता है इत्यादि, खरोदय के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से होती है कि जब दूत वैद्य के पास पहुंचे तब वैद्य खरोदय देखे, वह भी भरीहुई दिशा में देखे, यदि दूत बैठ कर या खडा रह कर प्रश्न करे तो सजीव दिशा समझे, यदि उस समय वैद्य के अग्नितत्त्व चलता हो तो पित्त वा गर्मी का रोग समझे, रोगी के वायुतत्त्व चलता हो तो वायु का रोग समझे, इत्यादि तत्त्वों का विचार करे, यदि खाली दिशा में बैठ कर प्रश्न हो वा सुषुम्ना नाडी चलती हो तो रोगी मर जाता है, आकाशतत्त्व में वैद्य को यश नहीं मिलता है, यदि वैद्य के चन्द्र स्वर चलता हो पीछे उस में पृथिवी और जलतत्त्व चले तथा उस समय रोगीके घर जावे तो वैद्य को अवश्य यश मिलेगा, दवा देते समय वैद्य के सूर्य खर का होना इसी तरह पुन वैद्य को मकान से निकलते ही ठढे और सौम्यशकुन का होना अच्छा होता है परन्तु गर्म शकुन का होना अच्छा नहीं है, इत्यादि । ___ इस प्रकार से स्वम शकुन और खरोदय के द्वारा परीक्षा करने से वैद्य इस बात को निमित्त शास्त्र के द्वारा अच्छी तरह जान सकता है कि रोगी जियेगा या बहुत दिनोंतक भुगतेगा अथवा आराम हो जायगा इत्यादि । __ यद्यपि इन तीनों विषयों का कुछ यहा पर विशेष वर्णन करना आवश्यक था परन्तु ग्रंथ के बढ़ जाने के भय से यहा विशेष नहीं लिख सकते है किन्तु यहा पर तो अब रोग परीक्षा के जो लोकप्रसिद्ध मुख्य उपाय है उन का विस्तारसहित वर्णन करते हैं: रोगपरीक्षा के लोकप्रसिद्ध मुख्य चार उपाय हैं-प्रकृतिपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, दर्शनपरीक्षा और प्रश्नपरीक्षा, इन में से प्रकृतिपरीक्षा में यह देखा जाता है कि रोगी की प्रकृति वायुप्रधान है, वा पित्तप्रधान है, वा कफप्रधान है, अथवा रक्तप्रधान है, (इस विषय का वर्णन प्रकृति के स्वरूप के निर्णय में किया जावेगा ), स्पर्शपरीक्षा में रोगी के शरीर के भिन्न २ भागों की हाथ के स्पर्श से तथा दूसरे साधनों से जाच की जाती है, इस परीक्षा का भी वर्णन आगे विस्तार से किया जावेगा, यह स्पर्शपरीक्षा हाथ से तथा थर्मामीटर (उष्णतामापक नली ) से और स्टेथोस्कोप ( हृदय तथा श्वास नली की क्रिया के जानने की भुगली) आदि दूसरे भी साधनो से हो सकती है, नाड़ी, हृदय, फेफसा तथा चमड़ी, ये सब स्पर्शपरीक्षा के अंग है, दर्शनपरीक्षा में यह वर्णन है कि-रोगी के शरीर को अथवा उस के जुदे २ अवयवों को केवल दृष्टि के द्वारा देखने मात्र से रोग १-खरोदय का कुछ वर्णन आगे (पञ्चमाध्याय में) किया जायगा, वहा इस विषय को देख लेना चाहिये। २-अष्टान निमित्त के यथार्थ ज्ञान को जो कोई पुरुप झूठा समझते हैं यह उन की मूर्खता है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनरामदामशिक्षा | ३०८ का बहुत कुछ। निर्मम हो सकता है इस परीक्षा में बहुत से दक्षनीय सूसरे भी विषय जाते हैं, बेरी-रूप अर्थात् चेहरे का देखना, स्वभा ( घमड़ी), नेत्र, जीभ, मल (दस्त ) और मूत्र आदि के रंग को देखना तथा उन के घूसरे चिह्नों को देखना, इत्यादि । इन सब के दर्शन से भी रोगपरीक्षा हो सफखी है, मभपरीक्षा में यह होता है कि-रोगी क हकीकत को सुन कर सभा पूछ कर आवश्यक बातों का शान होकर रोग का न दो जाता है, अब इन चारों परीक्षाओं का विशेष वर्णन किया जाता है प्रकृतिपरीक्षा ॥ शास्त्र edu गुरुता पर्णनीय विषय यात पिप और फफ, और इन्हीं पर वेधक शास्त्र का आधार है, नाडीपरीक्षा में भी मे दी धीनां इस किये इन तीनों विषयों का विचार पहिले किया जाता है माड़ी आदि की परीक्षा के नियम पर आने से पहिले यह जानना परम आवश्यक है कि प्रत्येक दो पाठी मकृति का क्या २ स्वरूप होता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को अपनी २ मवि (वासीर) से नाकिफ होना बहुत ही जरूरी है, देखो ! हमारी मकवि छान्त देमा सामसी (मोगुण से युक्त ) है इस बात को तो मायः सब ही मनुष्य आप भी मानते हैं तथा उन के सहयासी (साथ में रहनेपाले ) इष्ट मित्र भी जानते है, परन्तु बेवफात के नियम के अनुसार हमारी प्रकृति पात की है, मा पिच की है, वा कफ की है, ना रफ की है, अथमा मिश्र (मिसीहुई ) दे, इस मास को मत भाई ही पुरुष जानते है, इस के न जानमे से खान पान के पदार्थों के सामान्य गुण और दोषों का होने पर भी उस से कुछ समभ नहीं उठा सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य जब अपनी महति को जान लेता है राम इस के पाव खान पान के पदार्थों के सामान्य गुण क्षेत्र को जान कर तथा अपनी मरुति क अनुसार उन का उपयोग कर अपनी भारोम्पा को फाग रख सकता है तथा रोग हो जाने पर उन का इलाज भी स्वयं ही पर रापता है। प्रकृति की परीक्षा में इतनी विशेषता है कि इसका ज्ञान दोने से दूसरी भी बहुत सी परीक्षाएँ सामान्यतया जाती जा सकती है, देखो! यह सब ही जानते हैं कि आदमियों में बात पिए फफ और सून अपश्य होते हैं परन्तु पे ( पास आदि ) सब समान मर्द होते हैं भभारा किसी के शरीर में एक प्रधान होता है क्षेत्र गौण (भमभान ) होत है, किसी के शरीर में दो प्रधान होते है क्षेत्र गोण होते है, भ हग में यह जान लेना चाहिये कि जिस मनुष्य का जो दपि प्रधान होता है उसी दोष के से उसकी नाम मे सीन ही हैं उपयोगी है १ बड़ी पर उमित करना माग र रिना है રાત વિત્ત બધી વાતની જાનમાં (ૉને ી વાવીએ ત KIO CA Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ चतुर्थ अध्याय ।। वकृति पहचानी और मानी जाती है, यह भी स्मरण रहे कि-प्रकृति प्रायः मनुष्यों की पृथक् २ होती है, देखो! यह प्रत्यक्ष ही देखा जाता है कि-एक वस्तु एक प्रकृतिवाले को जो अनुकूल आती है वह दूसरे को अनुकूल नहीं आती है, इस का मुख्य हेतु यही है कि-प्रकृति में भेद होता है, इस उदाहरण से न केवल प्रकृति में ही भेद सिद्ध होता है किन्तु वस्तुओं के खभाव का भी भेद सिद्ध होता है। ____ जब मनुष्य खय अपनी प्रकृति को नहीं जान सकता है तब खान पान की वस्तु प्रकृति की परीक्षा कराने में सहायक हो सकती है, इस का दृष्टान्त यही हो सकता है कि-जिस समय दूसरी किसी रीति से रोग की परीक्षा नहीं हो सकती है तब चतुर वैद्य वा डाक्टर ठढे वा गर्म इलाज के द्वारा रोग का बहुत कुछ निर्णय कर सकते है तथा खान पान के पदार्थों के द्वारा प्रकृति की परीक्षा भी कर लेते हैं, जैसे--जव रोगी को गर्म वस्तु अनुकूल नहीं आती है तो समझ लिया जाता है कि इस की पित्त की प्रकृति है, इसी प्रकार ठंढी वस्तु के अनुकूल न आने से वायु की वा कफ की प्रकृति समझ ली जाती है। ___ प्रकृति के मुख्य चार भेद हैं-वातप्रधान, पित्तप्रधान, कफप्रधान और रक्तप्रधान, इन चारों का परस्पर मेल होकर जब मिश्रित ( मिले हुए ) लक्षण प्रतीत होते है तब उसे मिश्रप्रकृति कहते हैं, अब इन चारों प्रकृतियों का वर्णन कम से करते है:-~ वातप्रधान प्रकृति के मनुष्य-वातप्रधान प्रकृति के मनुष्य के शरीर के अवयव बड़े होते हैं परन्तु विना व्यवस्था के अर्थात् छोटे बड़े और बेडौल होते है, उस का शिर शरीर से छोटा या बड़ा होता है, ललाट मुख से छोटा होता है, शरीर सूखा और रूखा होता है, उस के शरीर का रंग फीका और रक्तहीन (विना खून का ) होता है, आखें काले रंग की होती हैं, बाल मोटे काले और छोटे होते हैं, चमडी तेजरहित तथा रूखी होती है परन्तु स्पर्श का ज्ञान जल्दी कर लेती है, मास के लोचे करड़े होते हैं परन्तु बिखरे हुए होते है, इस प्रकृतिवाले मनुष्य की गति जल्दी चञ्चल और कापती हुई होती है, रुधिर की गति परिमाणरहित होती है इसलिये किसी का यदि शिर गर्म होता है तो हाथ पैर ठढे होते हैं और किसी का यदि शिर ठढा होता है तो हाथ पैर गर्म होते है, मन यद्यपि काम करने में प्रबल होता है परन्तु चञ्चल अर्थात् अस्थिर होता है, यह पुरुष काम और क्रोध आदि वैरियों के जीतने में अशक्त होता है, इस को प्रीति अप्रीति तथा भय जल्दी पैदा होता है, इस की न्याय और अन्याय के विचार करने में सूक्ष्मदृष्टि होती है परन्तु अपने न्याययुक्त विचार को अपने उपयोग में लाना उस को कठिन होता है, यह सब जीवन को अस्थिर अर्थात् चचल वृत्ति से गुजारता है, सब कामों में जल्दी करता है, उस के शरीर में रोग बहुत जल्दी आता है तथा उस (रोग) d Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्पदामशिक्षा || फा मिटना भी फटिन होता है, पह रोग का सदन भी नहीं कर सकता है, उस का रोग समय में चौगुना फष्ट शिम्बाइ देता दे, दूसरी प्रकृतिबाके का शरीर और मन २ अवस्था आती जाती है त्यो २ शिमिक और मन्द पड़ता जाता है परन्तु वायुप्रभाव विषा का मन अवस्था के बढ़ने पर फरड़ा और मजबूत होता जाता है, इस प्रकृतिया मनुष्य के अजीर्ण, बद्धकोष्ठ ओर अवीसार (दस्त ) आदि पेट के रोग, शिर पर्व, नसफा, मातरछ, फेफसे का बरम, क्षय भोर उन्माद भादि रोगों के होने का अधिक सम्भव होता है, इस मतिनाले मनुष्य की आयु शक्ति और घन भोड़ा होता है, इस प्रकृति के मनुष्य को सीसे चटपेट गमागम तथा सारी पदार्थी पर अधिक प्रीति होती दे तथा खट्टे मीठे और ठंडे पदार्थों पर भमीति ( रुचि ) दासी दे || ४०० शरीर के सब मांस के छा तथा बस्ती प्रकृति के मनुष्य के बन्धान अच्छे तथा षोड़े फरमरे होते हैं पराप्रधान प्रकृति के मनुष्य - पिचप्रमान अंग और उपांग खून सूरत होते है, उस के शरीर के पीछे होते हैं, शरीर का रंग पिक होता है, पारू सफेद हो जाते हैं, शरीर पर थोड़ी २ फुनसियां हुआ करती है, उस को भूख प्यास जल्दी लगती है, उस फे मुख विर और बगल में से दुर्गन्ध आया करती है, इस प्रकृति का मनुष्य बुद्धिमान् और काधी होता है, उस की भांत पेठाम सभा दस्त का रंग पी होता है, वह साहसी उत्साही सभा च करने पर सहने की शक्तिवाला दोवा है, उस की आयु वक्ति नृन्म और ज्ञान मध्यम दात दें, इस मकविषाके को अभी पिस भर दरस आदि रोगों के होने का अधिक सम्भव होता है, उस को मीठे तथा लटेरस पर अधिक प्रीति होती है तथा धीने भर खारी रस पर रभि फम होती है ॥ कफप्रधान प्रकृति के मनुष्य – फफ प्रधानप्रकृति के मनुष्य का शरीर रमणीक भरा हुआ तथा मजबूत होता है, शरीर का सभा सम भवययों का रंग सुन्दर होता दे, चमड़ी फोमक होती है, बाक रमणीफ होते है, रंग स्वच्छ होता है, उस की भि चिसकती ( धमकसी ) हुई सफेद तथा धूसर रंग की होती है, दाँव मैले तथा सफेष होते हैं, उस का स्वभाप गम्भीर होता है, उस में पर अधिक दावा है, उसे नींद अधिक भाती है, वह भद्दार भोड़ा करता है, उस की विचारश्च कि फोमल होती है, पोटने की शक्ति जोड़ी होती है, स्मरणशक्ति और विवेकबुद्धि अधिक होती है, उस के विचार न्यामयुक्त होते हैं तथा म्ममहार अच्छे होते है, उस के शरीर की क्षति से मन की ि अभिफ होती है, उस के शरीर की चार मन्द होती है परन्तु मजबूत होती है, इस मक्कृति का मनुष्य प्रायः साफसभर घनपान और सम्वीउमाळा दोषा दे, उस के सामान्य कारण रा रोग हो जाता है, फफ के राग रस की वृद्धि होती है, उस का शरीर भारी भोर माछा होता है, उसके द्वारा अक्षति बनती है, उस का शरीर बहुत म्धूक होता Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय॥ ४०१ है, पेट की तोंद छिटक पड़ती है, उस के हाथ और सांधे बड़े तथा स्थूल होते है, मास के लोचे ढीले होते है, उस का चेहरा विरस और फीका होता है, उस का शरीर जैसा ऊपर से स्थूल दीखता है वैसी अन्दर ताकत नहीं होती है, निर्वलता; शोथ, जलवृद्धि और हाथी के समान पैरों का होना आदि इस प्रकृति के मुख्य रोग है, इस प्रकृतिवाले को तीखे और खारी पदार्थों पर अधिक प्रीति होती है तथा मीठे पदार्थों पर रुचि कम होती है। रक्तप्रधान धातु के मनुष्य-वात पित्त और कफ, इन तीन प्रकृतियों के सिवाय जिस मनुष्य में रक्त अधिक होता है उस के ये लक्षण है-शरीर की अपेक्षा शिर छोटा होता है, मुँह चपटा तथा चौकोन होता है, ललाट वडा तथा बहुतों का पीछे की ओर से ढाल होता है, छाती चौड़ी गम्भीर और लम्बी होती है, खड़े रहने से नामि पेटकी सपाटी के साथ मिल जाती है अर्थात् न वाहर और न अन्दर दीखती है, चरवी थोडी होती है, शरीर पुष्ट तथा खून से भरा हुआ खूबसूरत होता है, वाल नरम पतले और आटेदार होते है, चमड़ी करड़ी होती है तथा उस में से मास के लोचे दिखलाई देते हैं, नाड़ी पूर्ण और ताकतवर होती है, दाँत मजबूत तथा पीलापन लिये हुए होते है, पीने की चीज पर बहुत प्रीति होती है, पाचनशक्ति प्रवल होती है, मेहनत करने की शक्ति वहुत होती है, मानसिक वृत्ति कोमल तथा बुद्धि स्वाभाविक (स्वभावसिद्ध) होती है, इस प्रकार का मनुष्य सहनशील, सन्तोषी, लोगों का उपकार करनेवाला, बोलने में चतुर, सरलभाषी और साहसी होता है, वह हरदम न तो काम में लगा रहना चाहता है और न घर में बैठ कर समय को व्यर्थ में बिताना चाहता है, इस मनुष्य के दाह, फेफसे का वरम, नजला, दाहज्वर; खून का गिरना, कलेजे का रोग और फेफसे का रोग होना अधिक सम्भव होता है, वह धूप का सहन नहीं कर सकता है । __ यद्यपि जुदी २ प्रकृति की पहिचान करना कठिन है, क्योंकि बहुत से मनुष्यों की मूल प्रकृति दो दो दोषों से मिली हुई भी होती है तथा दोनों दोषों के लक्षण भी मिले हुए होते हैं तथापि एक प्रकृति के लक्षणों का ज्ञान होने के बाद लक्षणों के द्वारा दूसरी प्रकृति का जान लेना कुछ भी कठिन नहीं है। ___ यदि मनुष्य सूक्ष्म विचार कर देखे तो उस को यह भी मालूम हो जाता है किमेरी प्रकृति में अमुक दोष प्रधान है तथा अमुक दोष गौण अथवा कम है, इस प्रकार से जव प्रकृति की परीक्षा हो जाती है तब रोग की परीक्षा, उस का उपाय तथा पथ्यापथ्य का निर्णय आदि सव बातें सहज में बन सकती है, इस लिये वैद्य वा डाक्टर को सब से प्रथम प्रकृति की परीक्षा करनी चाहिये, क्योंकि यह अत्यावश्यक वात है । १-सर्व साधारण को प्रकृति की परीक्षा इस ग्रन्थ के अनुसार प्रथम करनी चाहिये क्योंकि इस में प्रकृति के लक्षणों का अच्छे प्रकार से वर्णन किया है, देखो । परिश्रम और यत्न करने से कठिनसे कठिन कार्य भी हो जाते हैं, यदि लक्षणों के द्वारा प्रकृतिपरीक्षा में सन्देह रहे तो रोगी से पूछ कर भी वैद्य वा डाक्टर परीक्षा कर सकते हैं । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनसम्पदापतिक्षा ॥ वोप के और प्रकृति के आपस में कुछ सम्बन्ध है या नहीं। यह एक बहुत ही भावश्यक प्रभ है, इस का उत्तर यही है कि-दोप फा मावि के साथ मत्यन्त पनि सम्बन्ध है भर्थात् जिस मनुष्य की प्रकृति में जो दोष मधान होता है वही दोष उस मनुष्य की प्रकृति कहा जाता है और यहुया उस मनुष्य के उसी दोप के कोप से रोन होता है, जैसे यदि कोई रोगी पुरुप पायुप्रधानमति का है तो उस के ज्वर भादि का कोई रोग होगा यह (रोग) पापुसप वोप के साभ विक्षेप सम्बन्ध रखनेराम होग इसी प्रकार पिस और कफ यादि के विषय में भी समझना चाहिये । ___ अग स्पावादमस के अनुसार इस विपय में दूसरा पक्ष विसलाते है रोग सदा शरीर की मूल प्रकृति के ही अनुसार होता हो यही एकान्त निधय नहीं है, क्योकि अनेक समयों में ऐसा भी होता है कि रोगी की मूम्मति पिच की होती है भार राम का कारण वायु होता है, रोगी की प्रति पायु की होती है भीर रोग का कारण पिच होता है, इस प्रकार महुत से रोग ऐसे हैं जो कि महति से विपुल सम्पन्न नहीं रखते हैं सो भी रोगी के रोग की परीक्षा फरने में और उस का इगज करने में रोगी फी मात फा पान होना पहुत ही उपयोगी है । स्पर्शपरीक्षा ॥ शरीर के किसी भाग पर हाथ से अथवा नसरे यन्य (ओमार ) से स्पर्श कर र दर्याफ्स फरना कि इस फेरीर में गर्मी की भी फी, खून की तमा चासोवास मिमा फितने अन्दामन है, इसी को स्पर्शपरीक्षा मानी है, इस परीक्षा में नाडीपरीक्षा त्पपापरीक्षा, धर्मामेटर (सरीर की गर्मी मापने की नसी) भौर स्टेथोसोप (छाती म लगाकर भीतरी विकार को दर्याफ्त करने की नसी) फा समावेश होता है। स्पर्शपरीक्षा का सब से पहिला तथा पच्छा सापम तो दाग ही रे, क्योकि रोमन परीक्षा में हाम पहुस सहायता देता है, सो ! घरीर गर्म है, या ठंठा है, अागमा खरलय है, शरीर के अन्दर का भमुफ भाग नरम है, पोग है, मा कठिन है, वा मन्दर । भाग में गांठ है, अथवा रोष है, इत्यादि सम पावें हाथ के द्वारा स्पर्श करने से मार दी मारम होजाती है, नाडीपरीक्षा भी हाथ से ही होती है मो कि रोग की परीक्षा पा उपम साधन है, क्योंकि नारी के वेसने से शरीर में स्विनी गर्मी पा शहे तथा मान सा दोष कितने भैस में फपित है इत्यादि पातो शान सीम ही हो जा सकता ७ देसो! भनुमची पभोर हकीम अपने अनमम और अभ्यास से सरीर की गर्मी कोजा नाड़ी पर भेगुसियां रखकर निस्सन्देह कह देते हैं मर्यात् बर्मामेटर लिखना फाम करत्य दे गमग उतना दी काम उन का चतुर हाम और मनुमपपासी भंगुश्मिा र सम्सी है। -सत्र से तो पोप न ही माम तो प्रति Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४०३ परन्तु अब अन्वेषण कुछ समय पूर्व स्पर्शपरीक्षा केवल हाथ के द्वारा ही होती थी ( ढूँढ वा खोज) करनेवाले चतुर लोगों ने हाथ का काम दूसरे साधनों से भी लेना शुरू कर दिया है अर्थात् शरीर की गर्मी का माप करने के लिये बुद्धिमानों ने जो थर्मामेटर यन्त्र बनाया है वह अत्यन्त प्रशसनीय है, क्योंकि इस साधन से एक साधारण आदमी भी स्वयमेव शरीर की गर्मी वा ज्वर की गर्मी का माप कर सकता है, हा इतनी त्रुटि इस में अवश्य है कि इस यन्त्र से केवल शरीर की साधारण गर्मी मालूम होती है किन्तु इस से दोषों के अंशांश का कुछ भी बोध नही होता है, इस लिये इस में चतुर वैद्यों के हाथ कई दर्जे इस की अपेक्षा प्रबल जानने चाहियें, बाकी तो रोगपरीक्षा में यह एक सर्वोपरि निदान है, इसी प्रकार हृदय में खून की चाल तथा श्वासोच्छ्वास की क्रिया को जानने के लिये स्टेथोस्कोप नाम की नली भी बुद्धिमान् पश्चिमीय विद्वानों ने बनाई है, यह भी हाथ का काम करती है तथा कान को सहायता देती है, इस लिये यह भी प्रशसा के योग्य है, तात्पर्य यह है कि स्पर्शपरीक्षा चाहे हाथ से की जावे चाहे किसी यन्त्रविशेष के द्वारा की जावे उस का करना अत्यावश्यक है, क्योंकि रोगपरीक्षा का प्रधान कारण स्पर्शपरीक्षा है, अतः क्रम से स्पर्श परीक्षा के अंगों का वर्णन संक्षेप से किया जाता है. नाड़ी परीक्षा — हृत्पिण्ड की गति के द्वारा हृदय में से खून बाहर धक्का खाकर धोरी नसों में जाता है, इस से उन नसो में खटका हुआ करता है और उन्ही खटकों से खून का न्यूनाधिक होना तथा वेग से फिरना मालूम होता है, इसी को नाडीज्ञान कहते है, इस नाड़ीज्ञान से रोग की भी कुछ परीक्षा हो सकती है, यद्यपि किसी भी घोरी नस के ऊपर अगुली के रखने से नाडीपरीक्षा हो सकती है तथापि रोगका अधिक निश्चय करने के लिये हाथ के अंगूठे के नीचे नाडी को देखते हैं, हाथ के पहुॅचे के आगे दो कठिन डोरी के समान नसें है, गोरी चमडीवाले तथा पतले शरीरवाले पुरुषों के ये रंगें स्पष्ट दिखाई देती है, उन में से अंगूठे की तरफ की डोरी के समान जो नाडी है उसपर बाहर की तरफ हाथ की दो वा तीन अगुलियों के रखने से अंगुली के नीचे खट २ होता हुआ शब्द मालूम पड़ता है, उन्ही खटकों को नाडी का ठनाका तथा चाल कहते हैं, नाड़ी की इसी धीमी वा तेज चाल के द्वारा चतुर वैद्य अंगुलिया रखकर शरीर की गर्मी शर्दी रुधिर की गति तथा ज्वर आदि बातों का ज्ञान कर सकता है । नाडीपरीक्षा की साधारण रीति यह है कि एक घड़ी को सामने रख कर एक हाथ से नाडी को देखना चाहिये अर्थात् हाथ की दो या तीन अगुलियो को नाडीपर रखकर यह देखना चाहिये कि नाडी एक मिनट में कितने ठपके देती है, एक साधारण पुरुष की नाडी एक मिनट में ११० ठपके दिया करती है, क्योंकि हृदय में शुद्ध खून का " Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्पदामशिक्षा एक होव है वह एक मिनट में ११० पार दीसा तथा तंग होता है भौर खून को पत्र मारवारे परन्तु नीरोग शरीर में अबस्था के मेव से नाही की गति भिम २ होती है निसका वर्णन इस प्रकार हैसंध्या। भवसाभेद । एक मिनटमें नाड़ी फी गति का कम । मारक के गर्मस होनेपर ॥ ११० से १५० मार ॥ तुरस जन्मे हुए नारक की नारी ॥ १५० से ११० मार ॥ पहिले वर्ष में ।। ११५ से १३० मार ॥ दूसरे वर्ष में ॥ १०० से ११५ मार ॥ तीसरे मर्प में ॥ ९५ से १०५ पार ॥ चार से सात वर्पतक॥ ९० से १०० बार ॥ पाठ से चौवह वर्पतक । ८० से ९० पार ॥ पन्द्रह से इकीस पर्पटक ॥ ७५ से ८५ पार ॥ ९ पास से पचास पपेत ।। ७० से ७५ पार ॥ १० नुरापे में ॥ ७५ से ८० पार ।। नाडीज्ञान में समझने योग्य पास-१-रमारे कुछ सालों में तथा भाई निक प्रन्यों में नाड़ी का हिसाब पों पर मिला है, उस हिसाब से इस हिसाब में योग सा फर्क है, या हिसाम चो लिला गया है या विद्वान् शक्टरों का निपम किया पुमा है परन्तु बहुत माचीन वेषक प्रत्तों में नाडीपरीक्षा कहीं भी ऐसने में नहीं भाठी ४ इस से मह निमय होता है कि यह परीक्षा पीछे से देशी वैषों ने भपनी बुद्धि के द्वारा निकाली है सबा उस को देखकर यूरोपियन विद्वान् राक्टरों ने पूर्योक हिसाप लगाया है। परम्म यह हिसाब सर्वत्र ठीक नहीं मिम्ता है, क्योंकि गाति मौर स्थिति के भेद से इस में फर्क पड़ता है, देसो! उपर के फोठे में नीरोग बरे भादमी की नाड़ी की पाक एक मिनट में ७० से ७५ पारसक पसई परन्त इतनी ही भवस्थानाठी नीरोग भी नाही की पासपीमी होती है भर्षात् पुरुप की भपेक्षा भी की नाही की पा वध गाय कम होती है, इसी प्रकार स्थिति के भेद से मी नाही की गति में भेद होता है, देसो. सड़े हुए पुरुष की अपेक्षा बैठे हुए पुरुप की नाही की पार पीमी होती है भौर नींद में इस से भी मपिक धीमी होती, एवं कसरत करसे, पौडवे, पसते सबा परिणम का नमरते हुए पुरुप की नाही की पाठबा बाती है, इस से स्पष्ट है कि नाड़ी का गति का नई मिमित हिसाब नहीं है किन्तु इस का यथार्ष धान भनुमयी पुला अनुमय पर ही निर्भर है। २-मार श्रेप मा सीम को दोनों हाथों की नाड़ी देसम्म पाहिमें, क्योंकि कभी २ एक दाम की भोरी नस भपनी हमेशा की जगह को छोड़ कर Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४०५ हाथ के पीछे की तरफ से अंगूठे के नीचे के साधे के आगे चली जाती है उस से नाड़ी देखनेवाले के हाथ में नहीं लगती है तब देखनेवाला घवड़ाता है परन्तु यदि शरीर में खून फिरता होगा तो एक हाथ की नाडी हाथ में न लगी तो भी दूसरे हाथ की नाडी तो अवश्य ही हाथ में लगेगी, इस लिये दोनो हाथो की नाटी को देखना चाहिये। ३-हाथ पर अथवा हाथ के पहुँचे पर कोई पट्टी डोरा वा बाजूवंद आदि बँधा हुआ हो तो नाडी का ठीक ज्ञान नहीं होता है, क्योंकि बाधने से धोरी नस में खून ठीक रीति से आगे नहीं चल सकता है, इसलिये बन्धन को खोल कर नाड़ी देखनी चाहिये । ४-यदि हाथ को शिर के नीचे रख कर सोता हो तो हाथ को निकाल कर पीछे नाड़ी को देखना चाहिये । ५-डरपोक आदमी किसी डर से वा डाक्टर को देख कर जब डर जाता है तब उस की नाड़ी जलदी चलने लगती है इस लिये ऐसे आदमी को दम दिलासा देकर उस का दिल ठहरा कर अथवा वातों में लगाकर पीछे नाडी को देखना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने पर ही नाडी के देखने से ठीक रीति से नाडी का ज्ञान होगा। ६-आदमी को बैठाकर वा सुलाकर उस की नाडी को देखना चाहिये । ७-परिश्रम किये हुए पुरुष की तथा मार्ग में चलकर तुरत आये हुए पुरुष की नाड़ी को थोड़ीदेरतक बैठने देकर पीछे देखना चाहिये। ८-बहुत खूनवाले पुरुष की नाड़ी बहुत जलदी और जोर से चलती है । ९-प्रातःकाल से सन्ध्यासमय की नाडी धीमी चलती है। १०-भोजन करने के बाद नाडी का बेग बढ़ता है तथा मद्य चाह और तमाखू आदि मादक और उत्तेजक वस्तु के खाने के पीछे भी नाडी की चाल बढ़ जाती है। ___ इस प्रकार जब नीरोग मनुष्यों की नाडी में भी भिन्न २ स्थितियों और भिन्न २ समयों में अन्तर मालम पड़ता है तो वीमारों की नाडी में अन्तर के होने में आश्चर्य ही क्या है, इस लिये नाडीपरीक्षा में इन सब बातों को ध्यान में रखना चाहिये । नाड़ी में दोषों का ज्ञान-नाडी में दोषो के जानने के लिये इस दोहे को कण्ठ रखना चाहिये तजनि मध्य अनामिका, राखु अंगुली तीन ॥ कर अँगूठ के मूल सों, वात पित्त कफ चीन ॥१॥ अर्थात् हाथ में अंगूठे के मूल से तर्जनी मध्येमा और अनामिका, ये तीन अंगुलियां १-क्योंकि दिनभर कार्य कर चुकने से सन्ध्यासमय मनुष्य श्रान्त (यका हुआ) हो जाता है और श्रान्त पुरुष की नाडी का धीमा होना खाभाविक ही है ॥ २-जिन को ऊपर लिख चुके हैं। ३-तर्जनी अर्थात् अगूठे के पासवाली अगुली ॥ ४-मध्यमा अर्थात् वीच की अगुली ॥ ५-अनामिका अर्थात् कनिष्ठिका (छगुनिया ) के पासवाली अगुली ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ मैनसम्प्रदायशिक्षा । नारी परीक्षामें लगानी पाहिमें और उन से कम से वात पित भौर में पहिमानना पोहिये ॥ नाडीपरीक्षा का निषेध-दिन २ समयों में मौर विन २ पुरुषों की नाही नहीं सनी चाहिये, उन के स्मरणार्थ इन दोहों को कण्ठ रसना चाहिये तुरत नहाया जो पुरुप, अथषा सोया होय ॥ क्षुधा तृपा जिस को लगी, षा तपसी जो कोय ॥१॥ व्यायामी अरु थकित तन, इन में जो कोउ माहि ॥ नाड़ी देखे वैय जन, समुझि पर नरिवाहि ॥२॥ मात् बो पुरुष श्रीघ ही मान कर चुका हो, शीघ्र ही सोकर उठा हो, जिसने मूस वा प्यास नगी हो, वो सपश्चर्या में म्गा हो, यो शीघ्र ही व्यायाम (कसरत) कर चुका हो भोर विस का शरीर परिश्रम के द्वारा पक गया हो, इतने पुरुषों की नारी उछ समयों में नहीं देखनी चाहिये, यदि पैप पा सापटर इन में से किसी पुरुष की नारी देखेगा तो उस को उक समयों में नारी का शान मार्य कभी नहीं होगा। । स्मरण रखना चाहिये कि नादीपरीक्षा के विषय में परक समुव तथा निशान पासणों के पनाये हुए प्राचीन वैपक अन्मों में कुछ भी नहीं मिला है, इसी प्रकार प्राचीन मैन गुप्त (वैश्य ) पण्डिस वाग्मा ने भी नाड़ीपरीक्षा के विपय में मया वय (वाग्मा) में कुछ भी नहीं मिखारे, सात्पर्य यही है कि पापीन वैयफ प्रन्यो में नाडीपरीक्षा नहीं है किन्तु पिछळे बुद्धिमान् ने यह युछि निकारी है बैसा कि इम प्रथम लिख चुके हैं, हो बेशक भीमजैनाचार्य हर्षकीपिंसरिकत मोगपिन्सामपि मावि का एक प्रामाणिक वैषक प्रन्यों में नारीपरीषा का वर्णन है, उस को हम यहां भापा छन्द में प्रकाशित करते हैं-सासर्व पार्षनी गुम के नीच यो मार्ग ठपन ऐ रस से बात की पति से पी चामे मधमा भाषिके याचे जो पागल पत्रो रस से पित्त पति परिनामे तय मामिण मीनाचे नाती मधोरम से कफ की गति में परिवाने देसी पकानों में पार पपैयापपरी कम (ो पर पाप) मिया,क्योकि चासोका रही विमान्त है। अंगूठे के मूड में थे मी मान दान मगुपिया पाषा म्याई चीन में से प्रपम (तमे) भगुल्म के नीचे पाबुकी पग, मरी (मप्पमा) भगुरे पे पित्त नाग। वास (अनामिका) पनि माप की मारी, जिस प्रकार रप तीनों गणिों मारा गया योपोभ पविप्रपोप वा है उसी प्रभार से सच मगरिया केही द्वारा मिषित दोपों की मति प्रमा गोप समय से-पातपित्त मागतनी और मपमा केमाचे पीपातकप बाम भवामिनभौर वर्मनी के नीचे बन्चर, पित्तका माग मपम्वीर गवामित्र के नीचे पता वय समिपात श्रीनाड़ी पानो मानो के बीच जमवीरे Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १०७ दोहा-वात वेग पर जो चलै, सांप जोंक ज्यों कोय ॥ पित्तकोप पर सो चले, काक मेंडकी होय ॥१॥ कफ कोपे तव हंसगति, अथवा गति कापोत ॥ तीन दोष पर चलत सो, तित्तर लव ज्यों होत ॥२॥ टेढ़ी है उछलत चलै, वात पित्त पर नारि ॥ टेढ़ी मन्दगती चलै, वात सलेषम कारि ॥३॥ प्रथम उछल पुनि मन्दगति, चले नाड़ि जो कोय ॥ तो जानो तिस देह में, कोप पित्त कफ होय ॥४॥ सोरठा-कवहुँ मन्दगति होय, नारी सो नाड़ी चले ॥ कबहुँ शीघ्र गति सोय, दोप दोय तव जानिये ॥५॥ दोहा-ठहर ठहर कर जो चले, नाड़ी मृत्यु दिखात ॥ पति वियोग ते ज्यों प्रिया, शिर धूनत पछितात ॥६॥ अति हि क्षीणगति जो चले, अति शीत तर होय ॥ तौ पति की गति नाश की, प्रकट दिखावत सोय ॥७॥ काम क्रोध उद्वेग भय, व0 चित्त जिह चार ॥ ताहि वैद्य निश्चय धरै, चलत जलद गति नार ॥८॥ छप्पय-धातु क्षीण जिस होय मन्द वा अगनी या की। तिस की नाड़ी चलत मन्द ते मन्दतरा की ॥ १-दोहों का सक्षेप में अर्थ-वातवेगवाली नाडी साप और जोंक के समान टेढी चलती है, पित्तवेगवाली नाडी-काक और मेंडुकी के समान चलती है ॥ १॥ कफवेगवाली नाडी-हस और कबूतर के समान चलती है, तीनों दोपोंवाली अर्थात् सनिपातवेगवाली नाडी-तीतर तथा लव (वटेर) के समान चलती है ॥ २॥ वातपित्तवेगवाली नाटी-टेढी तथा उछलती हुई चलती है, वातकफवेगवाली नाडीटेढी तथा मन्द २ चलती है ॥ ३ ॥ प्रथम उछले पीछे मन्द २ चले तो शरीर मे पित्त कफ का कोप जानना चाहिये ॥ ४ ॥ कभी मन्द २ चले तथा कभी शीघ्र गति से चले, उस नाडी को दो दोपोंवाली समझना चाहिये ॥ ५॥ जो नाडी ठहर २ कर चले, वह मृत्युको सूचित करती है, जैसे कि पति के वियोग से स्त्री शिर धुनती और पछताती है॥६॥जो नाडी अत्यन्त क्षीणगति हो तथा अत्यत शीत हो तो वह खामी (रोगी) के नाश की गति को दिखलाती है ॥ ७ ॥ जिस के हृदय मे काम क्रोध उद्वेग और भय होते हैं उस की नाडी शीघ्र चलती है, यह वैद्य निश्चय जान ले ॥ ८ ॥ जिस की धातु क्षीण-हो अथवा जिस की अग्नि मन्द हो उस की नाडी अति मन्द चलती है, जो नाडी तप्त और भारी चलती हो उस से रुधिर का विकार समझना चाहिये, भारी नाडी सम चलती है, बलवती नाडी स्थिर रूप से चलती है, भूख से युक्त पुरुष की नाडी चपल तथा भोजन किये हुए पुरुष की नाडी स्थिर होती है ॥ ९॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदामशिक्षा || सपत सौन तन चलत जॉन सी भारी नारी । साहि वैद्य मन घरें तौन सी रुधिर दुखारी ॥ भारी नाड़ी समयले स्थिरा पलवती जान । क्षुभाषन्त नाड़ी चपल स्थिरा वृष्ठिमय मान ॥ ९ ॥ १ - वायु की नाड़ी-सांप तथा चौक की तरह बांकी (टेढी) चस्ती है। २- पित्त की नाड़ी कोमा मा मैक की तरह कूदती हुई शीघ्र चकती है। ३ - फफ की नाड़ी-हंस कबूतर मोर और मुर्गे की सरह भीरे २ पकती है। ४ - वायुपिस की नाही -सांप की तरह टेवी तथा मेंडक की तरह फुदकती हुई चलती है। ५ - वातकफ की नावी-सांप की तरह टेकी उषा हंस की तरह भीरे २ चलती है। ६ - पित्तकफ की नाही - कोप की तरह कूदती तथा मोर की तरह मेव घटती है। ७ सन्निपास की नाड़ी की वहरने की करवत की तरह मा ठीवर पक्षी की तरह घम्सी २ अटक जाती है, फिर चलती है फिर अटकती है, मभवा वो सीन कुवके मार कर फिर लटक जाती है, इस प्रकार त्रिदोष ( सन्निपात ) की नाही विचित्र होती है १०८ I विशेष विवरण- १ -पीमी पड़ कर फिर सरसर ( श्रीष २) भछने लगे उस नाड़ी को यो दोपों की जाने । २ - जो नाड़ी अपना स्थान छोड़ थे, जो नाही र २ कर ले, जो नाड़ी बहुत क्षीण हो तथा यो नाड़ी बहुत ठंडी पड जाने, यह चार तरह की नाही प्राणघातक है । १ - गुस्सार की नाड़ी गर्म होती है तथा बहुत जस्त्वन्ती है। 8- चिन्ता तथा डर की नाड़ी मन्द पड जाती है । ५ कामर और कोमातुर की माडी बस्वी वस्ती है । ६ – जिस का खून बिगड़ा हो उस की नाड़ी गर्म तथा परवर के समान धड़ और भारी होती है । ७ नाम के दोष की नाड़ी बहुत भारी भरती है। ८-गर्भवती की नाड़ी गहरी पुष्ट और इसकी चलती है । ९ मन्दामि मासुलीमा और नींद से युक्त सभा नींद से सुरख उठे हुए भासी मौर सुखी, इन सब की नाही स्थिर पकती है । १० - विक्षुषायुक्त की नाड़ी चंचल भी है । ११ - जिसको बहुत व गावे हो उस की नाड़ी बहुत अस्वी भक्ती है । १२ - मोसम के बाद नाही भीमी जस्ती है । ११-बो नाही टूट २ कर चले, काम में धीमी तथा क्षण में अस्वी चछे, बहुत जल्दी घले, बाड़ के समान करडी, स्थिर और टेही घले बहुत गर्म ले छवा अपने ठिकाने पर नकदी २ मन्य हो जाये, ये सब तरह की नाडिय माणनामके चिन्ह को दिलानेवाली है ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४०९ ___ डाक्टरों के मत से नाडीपरीक्षा-हमारे बहुत से देशी मनुष्य तथा भोले वैद्यजन ऐसा कहते है कि-"डाक्टर लोगो को नाडी का ज्ञान नहीं होता है और वे नाड़ी को देखते भी नहीं है" इत्यादि, सो उन का यह कथन केवल मूर्खता का है, क्योकि डाक्टर लोग नाडी को देखते है तथा नाडीपरीक्षा पर ही अनेक बातो का आधार समझते है, जिस तरह से बहुत से तवीब नाडीपरीक्षा में बहुत गहरे उतरते है (बहुत अनुभवी होते हैं) और नाडी पर ही बहुत सा आधार रख नाड़ीपरीक्षा के अनुभव से अनेक बातें कह देते है और उन की वे बातें मिल जाती है तथा जैसे देशी वैद्य जुदे २ वेगों की-नाड़ी के वायु की पित्त की कफ की और त्रिदोष की इत्यादि नाम रखते है, इसी तरह डाक्टरी परीक्षा में जल्दी, धीमी, भरी, हलकी, सख्त, अनियमित और अन्तरिया, इत्यादि नाम रक्खे गये है तथा जुदे २ रोगो में जो जुदी २ नाड़ी चलती है उस की परीक्षा भी वे लोग करते है, जिस का वर्णन सक्षेप से इस प्रकार है:१-जल्दी नाड़ी-नीरोगस्थिति में नाडी के वेग का परिमाण पूर्व लिख चुके है, नीरोग आदमी की दृढ़ अवस्था की नाड़ी की चाल ७५ से ८५ वारतक होती है, परन्तु बीमारी में वह चाल बढ़ कर १०० से १५० वारतक हो जाती है, इस तरह नाडी का वेग बहुत बढ जाता है, इस को जल्दी नाडी कहते है, यह नाडी क्षयरोग, लू का लगना और दूसरी अनेक प्रकार की निर्वलताओ में चलती है, झडपवाली नाडी के सग हृदय का ववकारा वहुत जोर से चलता है और नाडी की चाल हृदय के धवकारों पर ही विशेष आधार रखती है, इस लिये ज्यों २ नाडी की चाल जल्दी २ होती जाती है त्यों २ रोग का जोर बहुत वढता जाता है और रोगी का हाल विगडता जाता है, बुखार की नाडी भी जल्दी होती है तथा ज्वरात (ज्वर से पीडित ) रोगी का अग गर्म रहता है, एव सादा बुखार, आन्तरिक ज्वर, सन्निपात ज्वर, सांधों का सख्त दर्द, सख्त खासी, क्षय, मगज़, फेफसा, हृदय होजरी और आतें आदि मर्म स्थानों का शोथ, सख्त मरोडा, कलेजे का पकना, आंख तथा कान का पकना, प्रमेह और सख्त गर्मी की टाकी आदि रोगों की दशा में भी जल्दी नाडी ही देखी जाती है। २-धीमी नाड़ी-नीरोगावस्था में जैसी नाड़ी चाहिये उस की अपेक्षा मन्द चाल से चलनेवाली नाडी को धीमी नाडी कहते है, जैसे-ठढ, श्रान्ति, क्षुधा, दिलगीरी, उदासी, मगज की कई एक बीमारिया ( जैसे मिरगी बेशुद्धि आदि) और तमाम रोगों की अन्तिम दशा में नाडी बहुत धीमी चलती है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० बैनसम्पदाममिक्षा । ३-भरी नादी-जिस प्रकार नाड़ीपरीक्षा में भंगुरिया को नाडी का वेग मन् पाल मास देती है उसी प्रकार नाटी प्रपनन ममना कर मी मालूम होता है, यह भजन ममना मन बन भाषश्यकता से अधिक वर जाता है तब उस को भरी नारी अपना बड़ी नाटी कहते हैं, जैसे-सून फे भराव में, पौरुप की वमा म, नुसार में तथा वरम में नारी भरी हुई मासम देती है, इस मरीइ नाड़ी स ऐसी हाम्त मासूम होती है कि शरीर में खून पूरा मोर बहुत है, जिस प्रकार नदी में मपिस पानी के आने से पानी का बोर पाता ह उसी पर खून के भराव नारी भरी गगती है। १-एलफी नाडी-भोरे खूनबाठी नाटीको छोटी या हलफी करते हैं, क्योंकि अगुति के नीचे ऐसी नाही का कर पतला अर्थात् हठका गता है, बिन रोगों में किसी द्वार से खून बहुत चला गया हो या जाता हो ऐसे रोगों में, बहुत से पुराने रोगों में, हेचे में तथा रोग फवाने के बाद निमस्ता में नाड़ी पतनी सी मालम देती है इस नाड़ी से ऐसा मालूम हो जाता है कि इस के शरीर में खून कमी या बहुत कम गया है, क्योंकि नाही की गति का मुस्प मापार खून ही है, इस लिये खून केही बगन से माड़ी के१पर्ग किये जाते हैं-मरीहा, ममम, छोटी वा पतठी और पेमाराम, खून के विशेप बोर में भरीहुई, मप्पम खून में मप्यम तथा मोरे खून में छोटीप पचठी नाड़ी होती है, एवं हेने के रोग में खून निकुल नष्ट होपर नाड़ी मस्ती के नीचे कठिनता से माधम पाती है उसको मालम नाही पहते हैं। ५-सका नाडी-मिस भोरी नस में होफर खून पाता है उसके भीतरी पर की तातों में सनित होने की शक्ति भपिक हो जाती है, इस सिये नारी सस्त पन्ती है, परन्तु ना ही सकषित होने की शक्ति कम हो जाती हे तप नाडी रय पम्ती है, इन दोनों की परीक्षा इस प्रकार से है कि नारीपर तीन भगुनियों फोरस पर ऊपर की (सीसरी) भगुठि से नाटी को पाठे समय यदि बाकी की (नीरे दो भंगुलियों को पन लगे तो समझना चाहिये कि नाही सस्त है बोर वाना भंगुलियों को पान न सगे तो नाड़ी को नरम समझना चाहिये। ३-अनियमित नाती-नानी की परिमाण के अनुस भाउ में यदि उसस टनकों के भीम में एक सरस सममगिमाग चला मारे सा टसे नियमित नाही (कायदे के अनुसार पठनेपाली नारी) मानना पाहिय, परन्तु जिस समय फोहराम हो मोर नारी नियमविरुख (कायद) पछे अमाव समय विमाग ठीक न चम्ता । (पक टनका बची मापे भोर दूसरा मधिक देरता पर फर माम) उस नारी मनिममित नारी समझना चाहिये, जब एसी (मनियमित) नाही नम्ती हे तर Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १११ प्रायः इतने रोगों की शंका होती है-हृदय का दर्द, फेफसे का रोग, मगज़ का रोग, सन्निपातज्वर, सुवा रोग और शरीर का अत्यन्त सड़ना, इस नाड़ी से उक्त रोगों के सिवाय अन्य भी कई प्रकार के अत्यन्त भयकर स्थितिवाले रोगों की सम्भावना रहती है। ७-अन्तरिया नाड़ी-जिस नाड़ी के दो तीन ठनके होकर वीच में एकाध ठनके जितनी नागा पडे अर्थात् ठवका ही न लगे, फिर एकदम दो तीन ठवके होकर पूर्ववत् (पहिले की तरह ) नाडी बद पड़ जावे और फिर वारंवार यही व्यवस्था होती रहे वह अन्तरिया नाड़ी कहलाती है, जब हृदय की बीमारी में खून ठीक रीति से नहीं फिरता है तब बडी धोरी नस चौडी हो जाती है और मगज का कोई भाग विगड जाता है तब ऐसी नाड़ी चलती है । डाक्टर लोग प्रायः नाड़ी की परीक्षा में तीन बातों को ध्यान में रखते है वे ये हैं१-नाड़ी की चाल जल्दी है या धीमी है। २- नाडी का कद बड़ा है या छोटा है । ३-नाड़ी सख्त है या नरम है। ___ खूनवाले जोरावर आदमी के बुखार में, मगज के शोथ में कलेजे के रोग में और गॅठियावायु आदि रोगों में जल्दी, बहुत बड़ी और सख्त नाड़ी देखने में आती है, ऐसी नाड़ी यदि बहुत देरतक चलती रहे तो जान को जोखम आ जाती है, जब बुखार के रोग में ऐसी नाड़ी बहुत दिनोंतक चलती है तब रोगी के बचने की आशा थोड़ी रहती है, हा यदि नाडी की चाल धीरे २ कम पड़ती जावे तो रोगी के सुधरने की आशा रहती है, प्रायः यह देखा गया है कि-फरत खोलने से, जोंक लगाने से, अथवा अपने आप ही खून का रास्ता होकर जब बढ़ा हुआ खून निकल जाता है तो नाड़ी सुधर जाती है, निर्वल आदमी को जब बुखार आता है अथवा शरीरपर किसी जगह सूजन आ जाती है तब उतावली छोटी और नरम नाड़ी चलती है, जब खून कम होता है, आतों में शोथ होता है तथा पेट के पड़दे पर शोथ होता है तब जल्दी छोटी और सख्त नाड़ी चलती है, यह नाड़ी यद्यपि छोटी तथा महीन होती है परन्तु बहुत ही सख्त होती है, यहातक कि अंगुलि को तार के समान महीन और करड़ी लगती है, ऐसी नाड़ी भी खून का जोर बतलाती है। नाडी के विषय में लोगों का विचार-केवल नाड़ी के देखने से सब रोगों की सम्पूर्ण परीक्षा हो सकती है ऐसा जो लोगों के मनों में हद्द से ज्यादा विश्वास जम गया है उस से वे लोग प्रायः ठगाये जाते हैं, क्योंकि नाड़ी के विषय में झूठा फाका मारनेवाले धूर्त वैद्य और हकीम अज्ञानी लोगों को अपने बचनजाल में फंसाकर उन्हें मन माना ठगते हैं, इन धूत्ताने यहातक लीला फैलाई है कि जिस से नाड़ीपरीक्षा के विषय Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ चैनसम्प्रदायनिक्षा | में अनेक भद्भुत और असम्भव या प्राय सुनी जाती है, जैसे-हाथ में फप सूत प्र वागा पाभकर सघ हाल कह देना इत्यादि, ऐसी पातों में सत्य विभिन्मान भी नहीं होगा है किन्तु केपस मूठ ही होता है, इस लिये सुजनों फो उपित है कि धूलों के बारी जान से यपकर नारीपरीक्षा के यभार्भ तस्व को समझें ।। इस मन्म में बो नाहीपरीक्षा का पिवरण किया है वह नाडीज्ञान के सधे ममिम पियों और अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है, क्योंकि इस अन्म में किये हुए विपरम के अनुसार मुछ समयता अभ्यास और भनुभव होने से नागीपरीधा के साथ विचार और रोगपरीक्षा फी बहुत सी आवश्यक भूचियां भी मिड सपती है, इस दिन विद्वानों की लिसीहुई नाडीपरीया अथवा उन्हीं के सिद्धान्त के अनुकत इस मन्त्र में पर्णित नाडीपरीक्षा प्रही अम्पास करना चाहिये किन्तु नाडीपरीक्षा के विषय में वो पूतों ने मत्यन्त मुठी पाते प्रसिद्ध कर रखी है उनपर मिल्कुल ध्यान नहीं देना पारिष देखो ! मों ने नाडीपरीक्षा के विपम में फैसी २ मिथ्या मानें प्रसिद्ध पर रस्सी कि रोगी ने छ महीने परिछे ममुफ साग सामा भा, पस भमुफ ने ये २ पीजे साई भी इस्यादि, कहिये ये सप गर्ग नहीं तो भौर क्या है ! बहुत से हकीमसाहयों ने भौर पैचों ने नाड़ी की ए से ज्यादा महिमा पग रक्सी। तथा असम्मष भोर पड़ी ई गप्पों को लोगों के दिनों में चमा दी हैं, ऐसे मोठे लोगों का जप कमी राल्टरी चिकित्साके द्वारा रोग मिटना कठिन होता है मामला देरी सगती है सब वे मूर्स छोग गस्टरों की मेयरफी को प्रकट करने सगते र पार करते हैं कि-"राफ्टरों को नाडीपरीक्षा का ज्ञान नहीं।' पीछे वे गोग देठी देय पास मार करते हैं कि "हमारी नाड़ी को देसो, हमारे शरीर में क्या रोग है, इस वैप ठसी को समझते है कि-बो नारी देसफर रोग को पतला देनेऐसी दशा में का सस्पबादी वैप होता है वह तो सत्य २ कर देता है कि-"माइयो! नादीपरीमा से सम्हारी मारुति की कुछ बातों को तो हम समम गे परन्तु मुम भपनी मम से मासिरतको २ हकीकस पीती है भौर जो हकीकत है पा सब साफ २ र दो कि किस कारण से रोग हुभारे, रोग कितने दिनों का सुभा, स्पा २ पवा की बीमार क्या २ पय्म माया पिया था, क्योंकि मुम्हारा यह सप राम विदित होने से हम रोग की परीक्षा कर सकेंगे" यपपि विधान सभा चतुर बेग नाही को देखकर रोगी के सरीर की सिति का पत छ अनुमान तो खम र समते हैं तथा वा अनुमान प्रामा सपा मी निकस्सा है. सवापि वे (विद्वान् पैप) नाडीपरीमा पर मसिश्चय भवा रखने महान गेगों के सामने अपनी परीक्षा देवर भापमी कीमत नहीं करना पाहसे हैं, परन्त -भव मा नाम देनम सब त म मत पति बेल। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ चतुर्थ अध्याय ॥ ऐसे भोले तथा नाडीपरीक्षापर ही परम श्रद्धा रखनेवाले जब किन्ही धूर्त चालाक और पाखण्डी वैद्यों के पास जाते है तो वे (वैद्य) नाडी देखकर बड़ा आडम्बर रचकर दो बातें वायु की दो बातें पित्त की तथा दो वातें कफ की कह कर और पाच पञ्चीस बातों की गप्पें इधर उधर की हकालते है, उस समय उनकी बातों में से थोड़ी बहुत बातें रोगी के चीतेहुए अहवालों से मिल ही जाती है तब वे भोले अज्ञान तथा अत्यन्त श्रद्धा रखनेवाले वेचारे रोगीजन उन ठगो से अत्यन्त ठगाते है और मन में यह जानते हैं कि-संसार भर में इन के जोडे का कोई हकीम नहीं है, वस इस प्रकार वे विद्वान् वैद्यों और डाक्टरोंको छोड़कर ढोंगी तथा धूर्त वैद्यों के जाल में फंस जाते है। प्रिय पाठकगण ! ऐसे धूर्त वैद्यों से बचो! यदि कोई वैद्य तुम्हारे सामने ऐसा घमण्ड करे कि मैं नाडी को देखकर रोग को वतला सकता हूँ तो उस की परीक्षा पहिले तुम ही कर डालो, बस उस का घमण्ड उतर जावेगा, उस की परीक्षा सहज में ही इस प्रकार हो सकती है कि-पाच सात आदमी इकट्टे हो जाओ, उन में से आधे मनुष्य जीमलो (भोजन करलो) तथा आधे भूखे रहो, फिर घमण्डी वैद्य को अपने मकान पर बुलाओ चाहे तुम ही उस के मकान पर जाओ और उस से कहो कि-हम लोगों में जीमे हुए कितने है और भूखे कितने हैं ? इस बात को आप नाडी देखकर वताइये, बस इस विषय में वह कुछ भी न कह सकेगा और तुम को उस की परीक्षा हो जावेगी अर्थात् तुम को यह विदित हो जावेगा कि जव यह नाडी को देखकर एक मोटी सी भी इस वात को नहीं बता सका तो फिर रोग की सूक्ष्म वातों को क्या बतला सकता है। ___ बड़े ही शोक का विषय है कि-वर्तमान समय में वैद्यो की योग्यता और अयोग्यता तथा उन की परीक्षा के विषयमें कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है, गरीबों और साधारण लोगों की तो क्या कहें आजकल के अज्ञान भाग्यवान् लोग भी विद्वान् और मूर्ख वैद्य की परीक्षा करनेवाले वहुत ही थोड़े (आटे में नमक के समान ) दिखलाई देते हैं, इस लिये सर्व साधारण को उचित है कि-नाड़ीपरीक्षा के यथार्थतत्त्व को समझें और उसी के अनुसार वर्ताव करें, मूर्ख वैद्यों पर से श्रद्धा को हटावें तथा उन के मिथ्याजाल में न फंसें, नाड़ी देखने का जो कायदा हमने आर्यवैद्यक तथा डाक्टरी १-पाच पच्चीस अर्थात् वहुतसी ॥ २-हकालते हैं अर्थात् हाकते हैं। ३-अहवालों अर्थात् हकीकतों यानी हालों॥ ४-जोडे का अर्थात् वरावरी का ॥ ५-यद्यपि एक विद्वान् अनुभवी वैद्य जिस पुरुपकी नाडी पहिले भी देखी हो उस पुरुपकी नाडी को देखकर उक्त वात को अच्छे प्रकार से वतला सकता है क्योकि पहिले लिख चुके हैं कि भोजन करने के वाद नाडी का वेग वढ़ता है इत्यादि, परन्तु बूत और मूर्ख वैद्य को इन वातों की खवर कहाँ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ मत से बिना दे उसे वाचफान्य अच्छीतरह समझें वधा इस बात का निश्चय कर कि रोग पेट में है, घिर में दे, नाक में है, पर कान में दे, इत्यादि बातें पूर्णतया नाही फे देखने से कभी नहीं मालूम पड़ सकती है, दो वेफ अनुभवी चिकित्सक रोमी की नाही, चेहरा, आंस, चेष्ठा और बात चीत आदि से रोगी की बहुत कुछ एकीकृत को जान सकता है तथा रोगी की विशेष हकीकत को सुने बिना भी बाहरी जांघ से रोगी का मुख्य रूप कर सकता है परन्तु इस से यह समझ लेना चाहिये कि मैच न सम परीक्षा नाड़ी के द्वारा ही कर ली है और हमेचा नाहीपरीक्षा सभी ही होती है, जो लोग नाडीपरीक्षा पर हमसे ज्यादा विश्वास रलकर ठगावे ई उन से हमारा इतना ही कहना है कि केपल (एफमात्र ) नाडीपरीक्षा से रोग का कभी आजतक न तो निश्श्रण हुआ न होगा भौर न हो सफता दें, इस लिये विद्वान् वैद्य वा डाक्टरपर पूर्ण विस रखकर उनकी यथार्थ आशा को मानना चाहिये । यह भी स्मरण रहे कि बहुत से मैच और डाक्टर छोग रोगी की प्रकृति पर बहुत दी थोड़ा सयाल करते हैं किन्तु रोग के बाहरी चिह्न और हकीकत पर विशेष आभार रख फर इलाज किया करते हैं, परन्तु इसवरद रोगी का भच्छा होना कठिन है, क्योंकि फोई रोगी ऐसे होते ६ कि ये अपने शरीर की पूरी हकीकत खुद नहीं जानते और इ किये वे उसे मतला भी नहीं सकते थे, फिर देखो ! भषेतना भर सन्निपात जैसे महा भयंकर रोगों में, एवं उन्माद, मूर्च्छा और मृगी आदि रोगों में रोगी के हेतु स् से रोग की पूरी दफीकत कभी नहीं माम दो सकती है, उस समय में नाड़ीपरीक्षा पर विक्षेप आधार रसना पड़ता है तथा रोगी की प्रकृखिपर इलाज का बहुत भागव ( भासरा) बेना दोता है और मक्कृति की परीक्षा भी नाड़ी आदि के द्वारा अनेक प्रकार से होती है, डाक्टर लोग जो मुँगली लेकर कदम या भड़का देते हैं वह भी नाहीपरीक्षा दी है क्योंकि हाथ के पहुँचे पर नाड़ी का जो ठपका है यह धमका भन भोर सून के प्रवाह का आखिरी धड़का है, शरीर में जिस २ जगह धोरी नस में सुब उछा है वहां २ अंगुठि के रखने से नाडीपरीक्षा हो सकती है, परन्तु अब सून फिरने में कुछ भी फर्क होता है तन पहिली पोरी नसों के अन्य भाग को स्यून का पोषण मिलना बंद होता है, अन्य सम नाड़ियों को छोड़ कर हाथ के पहुँचे की नाड़ी की ही जो परीक्षा की जाती है उस का हेतु यह है कि दान की जो नाड़ी है यह घोरी नस किनारा है, इस किये पहुँचे पर की नाही का भपका भंगुति को स्पष्ट मालूम देता है, इस छिपे ही हमारे पूर्षाचार्यों ने नाड़ी परीक्षा करने के छिये पहुँचे पर फी नाही को टीफ २ जगद टदराई है, पेरों में गिरिये के पास भी यही नाड़ी देसी जाती है क्योंकि यहां भी पोरी नस का किमारा दे, (प्रश्न) खी फी नाही मायें हाथ की देखते में और के Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। पुरुष की नाडी दहिने हाथ की देखते है, इस का क्या कारण है ? (उत्तर) धर्मशास्त्र तथा निमित्तादि शास्त्रों में पुरुष का दहिना अंग और स्त्री का वायां अंग मुख्य माना गया है, अर्थात् निमित्तशास्त्र सामुद्रिक में उत्तम पुरुप और स्त्री के जो २ लक्षण लिखे है उन में स्पष्ट कहा है कि पुरुष के दहिने अंग में और स्त्री के वांय अंग में लक्षणो को देखना चाहिये, इसी प्रकार जो २ अंग प्रस्फुरण ( अगों का फडकना) आदि अंग सम्बन्धी शकुन माने गये हैं वे पुरुष के दहिने अग के तथा स्त्री के वायें अग के गिने जाते है, तात्पर्य यह है कि लक्षण आदि सब ही वातो में पुरुप से स्त्री में ठीक विपरीतता मानी जाती है, इसी लिये सस्कृत भाषा में स्त्री का नाम वामा है, अतः पुरुष का दहिना अग प्रधान है और स्त्री का वाया अग प्रधान है, इस लिये पुरुष के दहिने हाथ की और स्त्री की वायें हाथ की नाडी देखने की रीति है, बाकी तो दोनों हाथो में घोरी नस का किनारा है और वैद्यक शास्त्र में दोनो हाथो की नाडी देखना लिखा है । (प्रश्न) हम । ने बहुत से वैद्यो के मुख से सुना है कि-नाभिस्थान में बहुत सी नाड़ियो का एक गुच्छा कछुए के आकार का बना हुआ है, वह पुरुप के सुलटा ( सीधा) और स्त्री के उलटा मुख कर के रहता है इस लिये पुरुष के दहिने हाथ की और स्त्री के वाये हाथ की नाड़ी देखी जाती है । (उत्तर) इस बात की चर्चा मासिकपत्रो में अनेक वार छप चुकी है तथा इस बात का निश्चय हो चुका है कि-नाभिस्थान में नाडियों का कोई गुच्छा नहीं है, इस के सिवाय डाक्टर लोग (जो कि शरीर को चीरने फाडने का काम करते है तथा शरीर की रग रग से पूरे विज्ञ (वाकिफ) है ) कहते है कि-"यह वात विलकुल गलत है" भला कहिये कि ऐसी दशा में नाभिस्थान में नसो के गुच्छे का होना कैसे माना जा सकता है ? इस लिये बुद्धिमानों को अब इस असत्य वात को छोड देना चाहिये, क्योंकि प्रत्यक्ष में प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है ॥ त्वचापरीक्षा-त्वचा के स्पर्श से शरीर की गर्मी शर्दी तथा पसीने आदि की परीक्षा होती है, इस का सक्षेप से वर्णन इस प्रकार है१-दोष युक्त चमड़ी-वायुरोगवाले की चमड़ी ठंढी, पित्तरोगवाले की गर्म और कफरोगवाले की भीगी होती है, यद्यपि यह नियम सर्वत्र नहीं होता है तथापि प्राय ये (ऊपर लिखे ) लक्षण होते है। २-गर्म चमड़ी-पित्त और सब प्रकार के बुखारो में चमडी गर्म होती है, चमडी की उष्णता से भी बुखार की गर्मी मालम हो जाती है परन्तु अन्तर्वेगी (जिस का वेग भीतर ही हो ऐसे ) ज्वर में बुखार अन्दर ही होता है इस लिये बाहर की चमडी बहुत गर्म नहीं होती है किन्तु साधारण होती है, इस अवस्था (दशा) १-'प्रत्यक्षे किम्प्रमाणम्' इति न्यायात् ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ चैनसम्प्रवामशिक्षा || में घमंडी की परीक्षा में वेध लोग प्राय घोला खा जाते है, ऐसे अवसर पर नाड़ीपरीक्षा के द्वारा भभवा धर्मामेटर के द्वारा अन्दर ( धन्वर) की गर्मी जानी जा सकती है, कभी २ ऐसा भी होता है कि-ऊपर से तो चमडी सकती हुई तभा बुखार सा माकम देता है परन्तु भन्दर बुखार नहीं होता है। ३- टेढी चमड़ी-बहुत से रोग में शरीर की चमड़ी ठंडी पर जाती है, जैसेबुखार के उतर जाने के बाद निर्बलता (नाताफती) में, दूसरी बीमारियों से उत्पन्न हुई निर्बक्सा में, देने में तथा बहुत से पुराने रोगों में चमड़ी की पड़ जाती है, जब कभी किसी सख्त बीमारी में शरीर ठडा पड जाने तो पूरी बोस्वम ( ख़तरा ) समझनी चाहिये । ४ - सूखी चमड़ी-मडी क छेदों में से सवा पसीना निकलता रहता है उस से मी नरम रहती है परन्तु जम फईएक रोगों में पसीना निकलना मद हो जाता है तब मी सूखी और खरखरी हो जाती है, जुम्दार के प्रारम्भ में पसीना निक ना बन्द हो जाता है इस लिये बुखारवाले की तथा वादी के रोगनाने की मड़ी सूखी होती है। ५- भीगी चमड़ी - आवश्यकता से अधिक पसीना आने से चमडी भीगी रहती है, इस के सिवाम पर एक रोगों में भी चमडी टडी मौर भीगी रहती है और ऐसे रोगों में रोगी को पूरा डर रहता है, जैसे- सन्धिवात (गठिया) में चमडी मर्म भर भीगी रहती है तथा देने में ठकी और भीगी रहती है, निमस्तामें ठंडा और भीगा बंग जोखम को जाहिर करता है, यदि कमी रातको पर चमडी भीगी रहे और निता (नाताकसी ) मदती जाने यो क्षय लिई सम झकर जस्वी ही सामधान हो जाना चाहिये || जीना हो पपोटा (काम का धर्मामेटर -- शरीर में कितनी गर्मी है, इस बात का ठीक माप धर्मामेटर से हो सकता है, धर्मामेटर काच की नमी में नीचे पारे से भराहुमा गोठ' गोमन) होता है, इस पारेवाले मस्य को मुँह में जीभ के नी मिनट तक रख कर पीछे बाहर निकाल कर देखते हैं, उस के अन्दर गर्मी से ऊपर पड़ता है तथा वर्दी से नीचे उतरता है, शरीर की गर्मी साधारणतया ९८ से १०० डिग्री के बीच में में मध्यम गर्मी ९८ से ९९ होती है और बाहर की गर्मी कुछ २ महोदरी ( वृद्धि) दोषी है तब पाय १०० तक पढ़ता है, नींद में और सम्पूर्ण शान्ति के समय में एक किमी गर्मी कम होती है, रोग में शरीर फी गर्मी विशेष चा धोर उतार करती है और शरीर की सामाजिक गर्मी से पारा अधिक उत्तर माता पारा शरीर अच्छे वनदुर रहती है, हस्त पादसीफि अथवा परिभेन्द्र से उस में क शरीर बहु या बगल में पांच Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय॥ ४१७ है वा चढ़ जाता है, सादे बुखार में वह पारा १०१ से १०२ तक चढ़ता है, सख्त बुखार में १०४ तक चढ़ता है और अधिक भयंकर बुखारमें १०५ से लेकर आखिरकार १०६३ तक चढता है, शरीर के किसी मर्मस्थान में शोथ (सूजन ) और दाह होता है तब बुखार की गर्मी बढ़कर १०८ तक अथवा इस से भी ऊपर चढ़ जाती है, ऐसे समय में रोगी प्रायः वचता नहीं है, खाभाविक गर्मी से दो डिग्री गर्मी बढ़ जाती है और उस से जितना भय होता है उस की अपेक्षा एक डिग्री भी गर्मी जब कम हो जाती है उस में अधिक भय रहता है, हैजे में जब शरीर अन्त में ठंढा पड जाता है तव शरीर की गर्मी घट कर अन्त में ७७ डिग्री पर जाकर ठहरती है, उस समय रोगी का वचना कठिन हो जाता है, जबतक १०४ डिग्री के अन्दर बुखार होता है वहातक तो डर नहीं है परन्तु उस के आगे जब गर्मी बढती है तब यह समझ लिया जाता है कि रोग ने भयङ्कर रूप धारण कर लिया है, ऐसा समझ कर बहुत जल्दी उस का उचित इलाज करना चाहिये, क्योंकि साधारण दवा से आराम नहीं हो सकता है, इस में गफलत करने से रोगी मर जाता है, जब स्वाभाविक गर्मी से एक डिग्री गर्मी बढ़ती है तब नाडी के स्वाभाविक ठवकों से १० ठबके बढ़ जाते है, बस नाडी के ठवकों का यही क्रम समझना चाहिये कि एक डिग्री गर्मी के बढने से नाड़ी के दश दश ठबके बढ़ते है, अर्थात् जिस आदमी की नाडी आरोग्यदशा में एक मिनट में ७५ ठवके खाती हो उस की नाड़ी में एक डिग्री गर्मी बढ़ने से ८५ ठवके होते हैं तथा दो डिग्री गर्मी बढ़ने से बुखार में एक मिनट में ९५ बार धड़के होते है, इसी प्रकार एक एक डिग्री गर्मी के बढ़ने के साथ दश दश ठबके बढ़ते जाते है, जब बगल भीगी होती है अथवा हवा या जमीन भीगी होती है तब थर्मामेटर से शरीर की गर्मी ठीक रीति से नहीं जानी जा सकती है, इस लिये जब बगल में थर्मामेटर लगाना हो तब बगल का पसीना पोंछ कर फिर थर्मामेटर लगाकर पांच मिनट तक दवाये रखना चाहिये, इस के बाद उसे निकालकर देखना चाहिये, जिस प्रकार थर्मामेटर से शरीर की गर्मी प्रत्यक्ष दीखती हैं तथा उसे सब लोग देख सकते हैं उस प्रकार नाड़ीपरीक्षा से शरीर की गर्मी प्रत्यक्ष नहीं दीखती है और न उसे हर एक पुरुष देख सकता है । __ इस यन्त्र में बड़ी खूबी यह है कि-इस के द्वारा शरीर की गर्मी के जानने की क्रिया को हर एक आदमी कर सकता है इसी लिये बहुत से भाग्यवान् इस को अपने घरों में रखते है और जो नहीं रखते हैं उन को भी इसे अवश्य रखना चाहिये ॥ १-प्रिय मित्रो ! देखो !! इस ग्रन्थ की आदि में हम विद्या को सब से वढ कर कह चुके हैं, सो आप लोग प्रत्यक्ष ही अपनी नजर से देख रहे हैं परन्तु शोक का विषय है कि आप लोग उस तरफ कुछ भी ध्यान नहीं देते हैं, विद्या के महत्त्व को देखिये कि थर्मामेटर की नली में केवल दो पैसे का सामान है, परन्तु वुद्धिमान् और विद्याधर यूरोपियन अपनी विद्या के गुण से उस का मूल्य पाच रुपये लेते हैं, जिन्हों ने इस को निकाला था वे कोट्यधिपति (करोड़पति) हो गये, इसी लिये कहा जाता है कि-'लक्ष्मी विद्या की दासी है, ॥ ५३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ बैनसम्प्रदायशिक्षा स्टेयोस्कोप–स या से फेफसा, श्वास की नली, एदय तमा पसम्मिों में होती हुई क्रिया न पोप होता है, यपि इसके द्वारा किस प्रकार उफ विषय का दोष होता है उस का वर्णन करना कुछ भावश्यक है परन्तु इस के द्वारा जांचने की फिमा का पान ठीक रीवि से मनुमनी रास्टरों के पास रह कर सीखने से समा भपनी बुद्धि के द्वारा उसका सब पनि सने हरी से हो सकता है, इस लिये यहाँ उस के अधिक वर्णन परने की मावश्यकता नहीं समझी गई ॥ दर्शनपरीक्षा ॥ मांस से देख कर यो रोगी की परीक्षा की बाती है उसे यहाँ दर्शनपरीक्षा के नाम से किसी है, इस परीक्षा में बिहा, नेत्र, माइति (पारा), स्वचा, मूत्र और मन की परीक्षा का समावेश समझना चाहिये, इन का सक्षेपतमा कम से वर्णन किया जाता है - जिहापरीक्षा-विहा की वशा से गळे होबरी और बातों की दशा का शन होता है, क्योंकि निहा के ऊपर कर बारीक परत गरे होमरी और मौतों के मीनरी बारीक पाव के साथ जुड़ा हुमा और एक सरच (एकरस मात् अस्पन्त) मिम हुआ है, इस के सिपाप निहापरीक्षा के द्वारा दूसरे भी कई एक रोग बाने मा सन्ने , स्पोंकि बीम के गीपन रंग और ऊपरी मैन से रोगों की परीक्षा दो सची है, भारोम्पदशा में चीम भीगी और मच्छी होती है तथा उस की अनी उपर से कुछ गड होती है, अब इस की परीक्षा के नियमों का कुछ वर्णन करते हैंभीगी जीम-मच्छी हाम्व में बीम थूक से भीगी रहती है परन्तु नुसार में चीम सूमने माती है, इस लिये जग बीम भीगी हुई हो तो समझ सेना पाहिले कि नुसार नहीं है, इसी प्रकार हर एक रोग में बीम सूस कर अप फिर भीगनी शुभ हो जाये तो समझ ना पाहिये कि रोग भच्छा होनेवाग है, मपपि रोग वशा में जम के पीने से एक बार वो नीम गीली हो जाती है परन्तु जो नुसार होता है तो तुरत ही फिर भी सूम जाती है । सम्मी जीम-बहुत से रोगों में आवश्यकता के अनुसार शरीर में रस उत्सल नहीं होता है और रस की कमी से उसी दर यूक मी भोड़ा पैदा होता है इस से जीम सूस जाती है और रोगी को भी जीम सूमी हुई मालूम देती है, उस समय रोगी कहता है कि मेरा सब मुर सूस गया, इस प्रकार की बीम पर भगुनि लगाने से भी वह एमी भौर करसी माउस पासी, नुसार, पीताम, भोरी सभा मरे भी समाम पेपी मुसारों में, होजरी सभा माता के रोगों में भार बहुत जोर सुमार में बीम स जाती है अर्थात् यो २ स्पर भषिक होता रस्य २ जीम भपिक सूमती है, जीभ भ परहा होना मौत की निशानी है ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४१९ लाल जभि-जीभ की अनी तथा उस का किनारे का भाग सदा कुछ लाल होता है परन्तु यदि सब जीभ लाल हो जावे अथवा उस का अधिक भाग लाल हो जावे तो शीतला, मुखपाक, मुँह का आना, पेट का शोथ तथा सोमल विष का खाना, इतने रोगों का अनुमान होता है, वुखार की दशा में भी जीभ अनीपर तथा दोनों तरफ कोरपर अधिक लाल हो जाती है । फीकी जीभ-शरीर में से बहुत सा खून निकलने के पीछे अथवा बुखार तिल्ली और इसी प्रकार की दूसरी वीमारियों में भी शरीर में से रक्तकणो के कम हो जाने से जैसे चेहस तथा चमड़ी फीकी पड़ जाती है उसी प्रकार जीभ भी सफेद और फीकी पड़ जाती है ॥ मैली जीभ-कई रोगों में जीभपर सफेद थर आ जाती है उसी को मैली जीभ कहते हैं, बहुत सख्त बुखार में, सख्त सन्धिवात में, कलेजे के रोग में, मगज़ के रोग में और दस्त की कली में जीभ मैली हो जाती है, इस दशा में जीभ की अनी और दोनो तरफ की कोरो से जव जीभ का मैल कम होना शुरू हो जावे तो समझ लेना चाहिये कि रोग कम होना शुरू हुआ है, परन्तु यदि जीभ के पिछले भाग की तरफ से मैल की थर कम होना शुरू हो तो जानना चाहिये कि रोग धीरे २ घटेगा अभी उस के घटने का आरंभ हुआ है, यदि जीभ के ऊपर की थर जल्दी साफ हो जावे और जीभ का वह भाग लाल चिलकता हुआ और फटा हुआसा दीखे तो समझना चाहिये कि वीच में कोई स्थान सड़ा है वा उस में जखम हो गया है, क्योंकि जीभ का इस प्रकार का परिवर्तन खराबी के चित्रों को प्रकट करता है, बहुत दिनों के बुखार में जीभ की थर भूरी अथवा तमाखू के रग की होती है और जीभ के ऊपर बीच में चीरा पड़ता है वह भी बड़ी भयकर बीमारी का चिह्न है, पित्त के रोग में जीभ पर पीला मैल जमता है। काली जीभ-कई एक रोगों में जीभ जामूनी रग की (जामून के रंग के समान रंगवाली ) या काले रंग की होती है, जैसे दम श्वास और फेफसे के साथ सम्बध रखनेवाले खासी आदि रोगों में जब श्वास लेने में अड़चल (दिक्कत ) पड़ती है तब खून ठीक रीति से साफ नहीं होता है इस से जीभ काली झाखी अथवा आसमानी रंग की होती है, स्मरण रहे कि-कई एक दूसरे रोगों में जब जीम काले रंग की होती है तब रोगी के बचने की आशा थोड़ी रहती है। काँपती हुई जीभ-सन्निपात में, मगज के भयकर रोग मैं तथा दूसरे भी कई एक भयंकर वा सख्त रोगों में जीभ कॉपा करती है, यहाँ तक कि वह रोगी के Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२० जैनसम्प्रवासिया॥ अपितर (प्रवू ) में नहीं रहती है. भात् वह उसे बाहर निफास्ता है तब भी यह पॉपठी है, इस प्रकार फॉपती हुई बीम अत्यन्त निम्ता और मम की निशानी है। मामान्यपरीक्षा-बहुत से रोगों की परीक्षा करने में पीम धपणरूप है पगात् जीम की मिन्न २ वटा ही भिम २ रोगों को सूचित कर देती है, जैसे-देखो। बीम पर सफेव मे जमा हो सो पाचनक्ति में गावर समझनी चाहिये, जो मोटी और सूबी र दो तथा दाँतों के नीरे भा जाने स जिस में दाँतों का पिश बन जाने ऐसी जीम होजरी सभा मगनसन्तुमा में दार के होने पर होती है, बीम पर मीटा तमा पीछे रंग फा मे हो तो पिचरिफार बानना चाहिये, जीम में पाठापन तमा भूरे रंग न पड़त सराप चुसार के होने पर होता है, जीम पर सफर मेस का होना सापारम नुसार का निए दे, सूमी, मैतमानी फाग और फापसी र जीम इपीस दिनां की ममपियाने भर्महर समिपावज्वर फा निद है, एक तरफ गेषा फरती हुई पीभ भाभी जीम में पादी भाने का चिद है, जम जीम मड़ी पठिनता था अत्यत परिश्रम से पाहर निकले भोर रोगी की इच्छा के अनुसार अन्दर न पाये तो समझना चाहिये कि रोगी बहुत ही अफिदीन और दुदमापन (दशा को माठ ) हो गया है, महुत मारी रोग हो और उरा में फिर जीम कांपन गे तो पड़ा र समझना चाहिये, हैजा, दोगरी भौर फेससे की पीमारी में जम बीम सीसे फेरग समान झांसी दिसलाह देने तो सराम विक समझना चाहिये, यदि कुछ भासमानी रंग पी जीभ दिसलाई देने को समझना पाहिले कि स्यून पी पास में कुछ अपरोप (रुकायट) हुमा है, मह पर नारे भीर जीम सीसे रंग फे समान दो बारे सो पद मृत्यु के समीप दाने का चिए है, वायु के पोप से जीभ सरपरी फटी पुद तथा पीठी दोधी दे, पिच पोप से बीम छ २ मठ तथा कुछ पाली सी पा पाती है, फाप से जीभ सफेय भीगी हुई मोर नरम दोती है, खिोप से जीभ पटियाठी और सूमी हाती दे सभा मृत्युकस की जीभ सरसरी, अन्दर से मनी दुर, फेनराफी, उफडी के समान फरी और गतिरहित हो जाती है। ननपरीक्षा-रागी नेया से भी रोग की परीक्षा होती है निसमा विपरम इस प्रकार है-पायु + पोप से नेश मम, निखेन, धूममण (धुएँ समान धूसर रंगा)। पास तथा वाहनारे होते हैं, पिस पदाप से नेप्र पीस, वाहबारे और पीपक भादि के उज का न सह सम्नेवारे होते ६, फफ दाप से नेत्र भीगे, सफेद, नरम, मन्द, १-२ पापा हा पर स ग मतानगर निधा भपि: BARU M0 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ । चतुर्थ अध्याय ॥ निस्तेज, तन्द्रायुक्त, कृष्ण और जड़ होते है, त्रिदोष (सन्निपात ) के नेत्र भयंकर, लाल, कुछ काले और मिचे हुए होते है। ___ आकृतिपरीक्षा-आकृति (चेहरा) के देखने से भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, प्रातःकाल में रोगी की आकृति तेजरहित विचित्र और झाकने से काली दीखती हो तो वादी का रोग समझना चाहिये, यदि आकृति पीली मन्द और शोथयुक्त दीखे तो पित्त का रोग समझना चाहिये, यदि आकृति मन्द और तेलिया (तेल के समान चिकनी ) दीखे तो कफ का रोग समझना चाहिये, खाभाविक नीरोगता की आकृति शान्त स्थिर और सुखयुक्त होती है, परन्तु जब रोग होता है तब रोग से आकृति फिर (वदल ) जाती है तथा उस का खरूप तरह २ का दीखता है, रात दिन के अभ्यासी वैद्य आकृति को देख कर ही रोग को पहिचान सकते है, परन्तु प्रत्येक वैद्य को इस (आकृति) के द्वारा रोग की पहिचान नहीं हो सकती है। आकृति की व्यवस्था का वर्णन सक्षेप से इस प्रकार है:१-चिन्तायुक्त आकृति-सख्त बुखार में, बड़े भयकर रोगो की प्रारम्भदशा में, हिचकी तथा खैचातान के रोगों में, दम तथा श्वास के रोग में, कलेजे और फेफसे के रोग में, इत्यादि कई एक रोगों में आकृति चिन्तायुक्त अथवा चिन्तातुर रहती है। २-फीकी आकृति-बहुत खून के जाने से, जीर्ण ज्वर से, तिल्ली की वीमारी से, बहुत निर्बलता से, बहुत चिन्ता से, भय से तथा भर्त्सना से, इत्यादि कई कारणों से खून के भीतरी लाल रजःकणो के कम हो जाने से आकृति फीकी हो जाती है, इसी प्रकार ऋतुधर्म में जब स्त्री का अधिक खून जाता है अथवा जन्म से ही जो शक्तिहीन वाधेवाली स्त्री होती है उस का वालक वारबार दूध पीकर उस के खून को कम कर देता है और उस को पुष्टिकारक भोजन पूर्णतया नहीं मिलता है तो स्त्रियों की भी आकृति फीकी हो जाती है । ३-लाल आकृति-सख्त बुखार में, मगज़ के शोथ में तथा लू लगने पर लाल आकृति हो जाती है, अर्थात् आखें खून के समान लाल हो जाती हैं और गालों १-जड अर्थात् क्रियारहित ॥ २-इसी विपय का वर्णन किसी विद्वान् ने दोहों में किया है, जो कि इस प्रकार है-वातनेत्र रूखे रहे, धूम्रज रग विकार ॥ समकें नहि चञ्चल खुले, काले रग विकार ॥ १ ॥ पित्तनेत्र पीले रहें, नीले लाल तपह ॥ तप्त धूप नहिं दृष्टि दिक, लक्षण ताके येह ॥ २॥ कफज नेत्र ज्योतीरहित, चिट्टे जलभर ताहि ॥ भारे बहुता हि प्रभा, मन्द दृष्टि दरसाहि ॥३॥ काले खुले जु मोह सों, व्याकुल अरु विकराल ॥ रूखे कवहूँ लाल हो, त्रैदोपज समभाल ॥ ४ ॥ तीन तीन दोपहि जहाँ, त्रैदोपज सो मान ॥ दो २ दोष लखे जहाँ, द्वन्द्वज तहाँ पिछान ॥ ५ ॥ इन दोहों का अर्थ सरल ही है इस लिये नहीं लिखते हैं॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैनसम्प्रदायशिक्षा || पर गुलाबी रंग माकम होता है तथा गारु उपसे हुए माम होते हैं, जब भाकृति म हो उस समय यह समझना चाहिये कि खून का सिर की तरफ सभा ममन में अधिक जोश चढ़ा है । 8- फली हुई आकृति - मुठ निवळसा जीर्णम्पर और जलोदर आदि रोगों में आकृति फूली हुई अभाव भोभरमाली होती है, भांग की ऊपर की घड़ी घड़ जाती है, गाल में अंगुलि के दाने से गा पड़ जाता है तथा आकृति बीसठी है। सूजी हुई इसी ५- अन्दर खुड़ी बैठी हुई आकृति — जैसे बुध की शाखा के पते सभा छिलकों के छीलने के बाद झासा सूडी हुछ माछम होती है इसी मफार कर एक भयंकर रोगों की अन्तिम भवस्था में रोगी की आकृति वैसी ही हो जाती ६, देखो ! देने में मरने के समय जो भाकृति बनती है वह माम होती है, इस दक्षा में स्वाट में सस, भांत के डोके अन्दर घुसे हुए, गड़े पड़े हुए, नाफ भनीदार, कनपटी के आगे गट्टे पड़े हुए, गा हाड़ों पर पड़े हुए तथा आति का रंग आसमानी होता है, ऐसे लक्षण जन दिई देने में तो समझ लेना चाहिये कि रोगी का जीना फटिन है | स्वपापरीक्षा - जैसे त्वचा के स्पर्धसे गर्मी और ठंड की परीक्षा होती है उसी प्रकार स्वचा के रंग से सभा उम्र में निकली हुई कुछ घटों और गांठों भावि से शरीर फे दोपों का कुछ अनुमान हो सकता दे, श्रीसला मोरी और भभपड़ा ( आकड़ा फाफड़ा) आदि रोगों में पहिले मुखार आता है उम्र बुस्तार को लोग नेसमझी से पहिले सादा बुखार समक्ष देते हैं परन्तु फिर त्वचा का रंग का हो जाता है तथा उस पर महीन २ दाने निकल आते है वे ही उक रोगों की पहिचान फरा सकते है इसलिये उन्हें अच्छी तरह से देखना चाहिये, यदि घरीर पर कोई स्थान का हो भभवा फ पर सूजन हो तो उसे खून के जोर से भगवा पिरा के विकार से समझना चाहिये, जिस की त्वचा का रंग काळा पड़ता जाये उस के शरीर में बायु का दोष समझना चाहिये, बिस्र के शरीर का रंग पीछा पड़ता जावे उस के शरीर में पिछ का दोष समझना चाहिये, जिस के शरीर का रंग गोरा और सफेद पढ़ता जावे उम्र के शरीर में फफ का दोष समझना चाहिये तथा जिस के शरीर की त्वचा का रंग पिकुछ रूखा होकर अम्बर धीरा २ या दिखाई देवे सो समझ लेना चाहिये कि खून बिगड़ गया है भगवा छप गया है, लोग इसे गर्मी पदते हैं, जब स्वभा तक खून नहीं पहुँचता है धन ला गर्म और रूसी पड़ जाती है, यदि स्वचा का रंग सोने के रंग के समान (वामड़ा ) हो तो समझ लेना चाहिये कि रकपित तथा मातरक का रोग है, यदि त्वचा पर काले प्रकार की अलि में बैठे हुए, Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४२३ चट्टे और धब्बे पडे तो समझ लेना चाहिये कि इस को ताज़ी और अच्छी खुराक नहीं मिली है इस लिये खून विगड गया है, इसी तरह से एक प्रकार के चट्टे और विस्फोटक हों तो समझ लेना चाहिये कि इस को गर्मी का रोग है, हैजे की निकृष्ट बीमारी में त्वचा तथा नखों का रंग आसमानी और काला पड़ जाता है और यही उस के मरने की निशानी है इस तरह त्वचा के द्वारा बहुत से रोगों की परीक्षा होती है। ___ मूत्रपरीक्षा-नीरोग आदमी के मूत्र का रंग ठीक सूखी हुई घास के रंग के समान होता है, अर्थात् जिस तरह सूखी हुई घास न तो नीली, न पीली, न लाल, न काली और न सफेद रंग की होती है किन्तु उस में इन सब रगों की छाया झलकती रहती है, वस उसी प्रकार का रंग नीरोग आदमी के मूत्र का समझना चाहिये, मूत्र के द्वारा भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, क्योकि मूत्र खून में से छूट कर निकला हुआ निरुपयोगी (विना उपयोग का) प्रवाही (बहनेवाला) पदार्थ है, क्योंकि खून को शुद्ध करने के लिये मूत्राशय मूत्र को खून में से खीच लेता है, परन्तु जब शरीर में कोई रोग होता है तब उस रोग के कारण खून का कुछ उपयोगी भाग भी मूत्र में जाता है इस लिये मूत्र के द्वारा भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, इस मूत्रपरीक्षा के विषय में हम यहा पर योगचिन्तामणिशास्त्र से तथा डाक्टरी ग्रन्थों से डाक्टरों की अनुभव की हुई विशेष बातों के विवरणके द्वारा अष्टविध (आठ प्रकार की) परीक्षा लिखते हैं: १-वायुदोषवाले रोगी का मूत्र बहुत उतरता है और वह बादल के रंग के समान होता है। २-पित्तदोषवाले रोगी का मूत्र कसूभे के समान लाल, अथवा केसूले के फूल के रग के समान पीला, गर्म, तेल के समान होता है तथा थोडा उतरता है । ३-कफ के रोगी का मूत्र तालाब के पानी के समान ठंढा, सफेद, फेनवाला तथा चिकना होता है। ४-मिले हुए दोपौवाला मूत्र मिलेहुए रग का होता है। ५-सन्निपात रोग में मूत्र का रंग काला होता है। ६-खून के कोपवाला मूत्र चिकना गर्म और लाल होता है । ७-वातपित्त के दोपवाला मूत्र गहरा लाल अथवा किरमची रंग का तथा गर्म ।। होता है। १-जैसे वातपित्त के रोग मे वादल के रग के ममान तथा लाल वा पीला होता है, वातकफ के रोग में वादल के रग के समान तथा सफेद होता है तथा पित्तकफ के रोग में लाल वा पीला तया सफेद रंग का होता है, इस का वर्णन न० ७ से ८ तक आगे किया भी गया है । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ चैनसम्प्रदानशिक्षा ॥ ८ - वातकफ दोषवाले का मूत्र सफेद तथा मुद्बुदाकार (बुलबुले की सकळ का) होता है। ९- कफपित्तवाले रोगी का मूत्र काल होता है परन्तु गवसा होता है । १०- अमीर्ण रोगी का सूत्र भांषकों के घोषन के समान होता है । ११- नये बुखारवाले का सूत्र किरमची रंग का होता है तथा अधिक उतरता है । १२ - मूत्र करते समय यदि सूत्र की लाठ पार हो तो बड़ा रोग समझना चाहिये, फास्की धार हो यो रोगी मर जाता है, मूत्र में बकरी के मूत्र के समान गन्ध भाषे घो raीर्ण रोग समझना चाहिये । १२- मूत्रपरीक्षा के द्वारा रोग की साध्यासाध्यपरीक्षा - रोग साम (सद में मिटनेवाला) है, अथमा कष्टसाध्य (कठिनता से मिटनेवाला) है, अवश असाध्य ( न मिटनेवाला) है, इस की संक्षेप से परीक्षा लिखते है-पातकाल चार घड़ी के सड़के रोगी को उठाकर उस के मूत्र को एक काच के सफेद प्याले में सेना चाहिये परन्तु मूत्र की पहिली भौर पिछली बार नहीं देनी चाहिये भर्षात् मिचली ( बीकी) घार लेनी चाहिये तथा उस को खिर (बिना हिलाये हुकामे) रहने देन्द्र चाहिये, इस के बाद सूम की भूप में घण्टे भर तक उसे रख के पीछे उस में एक मास के तृण (विनके) से बीरे से तेल की बूद डालनी चाहिये, यदि वह तेल की बूंद डालते ही मूत्रपर फैल जाने तो रोग को साध्य समझना चाहिये, यदि बूंद न फैले भर्षात् ऊपर ज्यों की त्यों पड़ी रहे सो रोग को कटसाध्य समझना चाहिये तभा भवि यह बूंद अन्दर (मूत्र के तळे ) बैठ जावे अथवा अन्दर जाकर फिर ऊपर आकर कुण्डा की तरह फिरने मो अमवा मूंद में छेद २ पड़ जायें भगवा वह बूंद मूत्र के संग मिळ बागे वो रोग को असाम्य जानना चाहिये । दूसरी रीति से परीक्षा इस मकार भी की जाती है कि यदि तालाब, दस, छत्र, चमर, सोरम, कमल, हाथी, इत्यादि चिह्न दीखें तो रोगी बम आता है, यदि तलवार, दण्ड, कमान, सीर, इत्यादि शस्त्रों के चिह्न उस बूंद के हो जायें सो रोगी मर जाता है, यदि भूव में बुदबुदे उठे तो देवता का दोष जानना चाहिये इत्यादि, यह सब मूत्रपरीक्षा योग चिन्तामणि मन्य में किसी है सबा इन में से कई एक बातें अनुभव सिद्ध भी है क्योंकि फेवक अन्य के बांचने से ही परीक्षा नहीं हो सकती है, देखो! बुद्धिमानों ने मह सिद्धान्त किया है कि इन का करता उस्ताद और अनकरता शागिर्द होता है, अन्य के बांधने से केवल बायु पिच कफ खून तथा मिले हुए दोपों आदि की परीक्षा सूत्र के देखने से हो सकती है, किन्तु उस में जो २ विशेषतायें हैं वे यो नित्य के भम्यास और मुद्धि के दौड़ाने से ही काव हो सकती है || Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४२५ डाक्टरी मत से मूत्रपरीक्षा - रसायनशास्त्र की रीति से मूत्रपरीक्षा की डाक्टरोने अच्छी छानवीन (खोज) की है इस लिये वह प्रमाण करने ( मानने ) योग्य है, उनके मतानुसार मूत्र में मुख्यतया दो चीजे है - युरिआ और एसिड, इनके सिवाय उस में नमक, गन्धक का तेजाब, चूना, फासफरिक ( फासफर्स) एसिड, मेगनेशिया, पोटास और सोडा, इन सब वस्तुओं का भी थोडा २ तत्त्व और बहुत सा भाग पानी का होता है, मूत्र में जो २ पदार्थ है सो नीचे लिखे कोष्ठ से विदित हो सकते है:मूत्र में स्थित पदार्थ ॥ मूत्र के १००० भागो में || पानी ॥ शरीर के घसारे से पैदा होनेवाली चीजें ॥ खार ॥ "3 "" "" 132 >> "" युरिया ॥ यूरिक एसिड ॥ चरवी, चिकनाई, आदि || नमक ॥ फासफरिक एसिड | गन्धक का तेजाब ॥ चूना ॥ मेगनेशिया ॥ पोटास ॥ सोडा ॥ ९५६॥ १४ ॥ O 16 २ 2111 ० ॥ ० भाग ॥ भाग ॥ 21 "" 33 भाग ॥ "" ० ० १ ॥ ॥ "" बहुत थोडा || "" मूत्र में यद्यपि ऊपर लिखे पदार्थ है परन्तु आरोग्यदशा में मूत्र में ऊपर लिखी हुई चीजें सदा एक वजन में नहीं होती है, क्यो कि खुराक और कसरत आदि पर उनका होना निर्भर है, मूत्र मे स्थित पदार्थों को पक्के रसायनशास्त्री ( रसायनशास्त्र के जाननेवाले) के सिवाय दूसरा नही पहिचान सकता है और जब ऐसी ( पक्की ) परीक्षा होती है तभी मूत्र के द्वारा रोगों की भी पक्की परीक्षा हो सकती है। हमारे देशी पूर्वाचार्य इस रसायन विद्यामें बड़े ही प्रवीण थे तभी तो उन्होंने बीस जाति के प्रमेदो में शर्करा - प्रमेह और क्षीरप्रमेह आदि की पहिचान की है, वे इस विषय में पूर्णतया तत्त्ववेत्ता ये यह बात उनकी की हुई परीक्षा से ही सिद्ध होती है । बहुत से लोग डाक्टरों की इस वर्तमान परीक्षा को नई निकाली हुई समझकर आश्चर्य में रह जाते हैं, परन्तु यह उनकी परीक्षा नई नहीं है किन्तु हमारे पूर्वाचार्यों के ही गूढ़ रहस्य से खोज करने पर इन्होंने प्राप्त की है, इस लिये इस परीक्षा के विषय में उनकी कोई तारीफ नहीं है, हा अलवतह उनकी बुद्धि और उद्यम की तारीफ करना हरएक गुणग्राही मनुष्य का काम है, यद्यपि मूत्र को केवल आखो से देखने से उस में स्थित ५४ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ नसम्प्रवामशिक्षा ॥ अनेक चीमों की न्यूनाभिकता ठीक रीति से माहम नहीं होती है वमापि मूत्र के जये से तमा मूत्र के पतलेपन या मोटेपन से एक रोगों की परीक्षा अच्छी तरह से पाँच करने से हो सकती है। नीरोग भादमी को सप दिन में (२१ भण्टे में) सामान्यतमा २॥ रसस मूत्र होता हे तमा नर कभी पतछा पदार्भ फमती मा बासी लानेमें भा जाता है तष मूत्र में भी पट मढ़ होती है, ऋतके अनुसार भी मूष के होने में फरू पाता है, जैसे देलो। श्रीत काठ की अपेक्षा उप्पाठ में मघ पोरा होता है। मामय का एक रोग होता है जिस को मूत्राशय का अन्दर कोते हैं, यह रोग मूत्राशय में विकार होने से आरव्युमेन नामक एक मावश्यक तत्त के मूत्रमार्गवारा खून में से निकल जाने से होता है, मूत्र में भारयुमेन है या नहीं इस बात की बोध करने से इस रोग की परीक्षा हो सकती है, इसी वर मूत्र सम्बन्धी एक दूसरा रोग मधुममेह (मीठा मूत्र ) नामक है, इस रोगमें मूत्रमार्ग से मीठे म भपिक भाग मूत्रमें माता मौर यह मीठे का भाग मत्र को साधारणतया मांस से देसने से यमपि नहीं मालम होता (कि इसमें मीय है वा नहीं) पापि अच्छी तरह परीक्षा करने से तो वह मीठा भाम जान ही मिया माता, इसकेबानने की एक साधारण रीति यह भी है कि मीठे मध पर हनारों पीटियां उग भाती हैं। ___ मूत्र में सार भी जुदा २ होता है और जब वह परिमाण से पिक वा कम माता है सभा सटास (पसिड)का माग नब अधिक जाता है तो उस से भी भनेक रोग उत्सम होते हैं, मूत्र में मानेवाले इन पदापों की जर अच्छी तरह परीक्षा हो जाती है तब रोगों की भी परीक्षा सहब में ही हो सकती है । मूत्र में जानेवाले पदापों की परीक्षा-मूत्रकी परीक्षा अनेक प्रकार से की माती है भात् कुछ पावें तो मूग को मांस से देखने से ही मासम होती का चीन रसायनिक प्रयोग के द्वारा पेलने से माछम होती। भौर कुछ पदार्थ सूक्ष्मदर्शक या के द्वारा देसने से मावस परवे है, इन चीनों प्रकारों से परीक्षा का कुछ विपम यहां म्सिा बाता है। १-मांसो से देखने से भूत्र के जुदे २ रग की पहिचान से जुवे २ रोगों का पनुमान कर सकते हैं, नीरोग पुरुप का मूत्र पानी के समान साफ और कुछ पीडास पर (पीपन से युक)होसा, परन्तु मूत्र के साथ अब खून का माग जाता तब मूध ठास भवमा माछा दीससा है, यह भी सरण रसना पाहिले फिर्ष एक दवा क साने से भी मूत्रम रंग बदम बावा है, एसी दशा में मूत्रपरीक्षावारा रोग का नियम 1-से मप्रमों में पास मिलीम प्रवta Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ चतुर्थ अध्याय ॥ नही करलेना चाहिये यदि मूत्रको थोडी देरतक रखने से उस के नीचे किसी प्रकार का जमाव हो जावे तो समझ लेना चाहिये कि-खार, खून, पीप तथा चर्वी आदि कोई पदार्थ मूत्र के साथ जाता है, मूत्र के साथ जब आल्ठ्युमीन और शकर जाता है तो उस की परीक्षा आखों के देखने से नहीं होती है इस लिये उस का निश्चय करना हो तो दूसरी रीति से करना चाहिये, इसी प्रकार यद्यपि मूत्र के साथ थोडा बहुत खार तो मिला हुआ होता ही है तो भी जब वह परिमाण से अधिक जाता है तब मूत्र को थोडी देरतक रहने देने से वह खार मूत्र के नीचे जम जाता है तब उस के जाने का ठीक निश्चय हो जाता है, रोग की परीक्षा करना हो तब इन निम्नलिखित वातो का खयाल रखना चाहिये: १-मूत्र धुएंके रगके समान हो तो उस में खून का सम्भव होता है । २-मूत्र का रंग लाल हो तो जान लेना चाहिये कि-उस में खटास (एसिड) जाता है। ३-मूत्र के ऊपर के फेन यदि जल्दी न बैठें तो जान लेना चाहिये कि उस में आल्___ व्युमीन अथवा पित्त है। ४-मूत्र गहरे पीले रंग का हो तो उस में पित्त का जाना समझना चाहिये । ५-मूत्र गहरा भूरा या काले रंग का हो तो समझना चाहिये कि-रोग प्राणघातक है। ६-मूत्र पानी के समान बहुत होता हो तो मधुप्रमेह की शङ्का होती है, हिस्टीरिया के रोगमें भी मूत्र बहुत होता है, मूत्रपर हजारों चीटिया लगे तो समझ लेना चाहिये कि मधुप्रमेह है। ७-यदि मूत्र मैला और गदला हो तो जान लेना चाहिये कि उस में पीप जाता है। ८-मूत्र लाल रंग का और बहुत थोडा होता हो तो कलेजे के, मगज़ के और बुखार के रोग की शंका होती है। ९-मूत्र में खटास अधिक जाता हो तो समझना चाहिये कि पाचनक्रिया में बाधा पहुँची है। १०-कामले (पीलिये ) में और पित्त के प्रकोप में मूत्र में बहुत पीलापन और हरापन होता है तथा किसी समय यह रग ऐसा गहरा हो जाता है कि काले रंग की शका होती है, ऐसे मूत्र को हिलाकर देखने से अथवा थोड़ा पानी मिलाकर देखने से मूत्र का पीलापन मालूम हो सकता है । २-रसायनिक प्रयोग से मूत्र में स्थित भिन्न २ वस्तुओं की परीक्षा करने से कई एक वातों का ज्ञान हो सकता है, इस का वर्णन इसप्रकार है: १-इस का नियम भी यही है कि-जव मृत्र बहुत आता है तब वह पानी के समान ही होता है । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ १-पित्त-यपपि मूत्र के रग के देखने से पिच का अनुमान कर सकते हैं परन्तु रसायनिक रीति से परीक्षा करने से उस का ठीक निमय हो पाता है, पित्त के मानने के लिये रसायनिक रीति यह है कि-मूत्र की बोड़ी सी द को फार फे प्यासे में भपवा रकेनी में राम कर उस में मोड़ा सा नाइट्रिक एसिड हाम्ना पाहिये, दोनों के मिलने से यदि पहिले हरा फिर मामुनी और पीछे मक रंग हो जाये तो समझ लेना चाहिये कि मूत्र में पिच है। २-युरिक एसिर–रिक एसिर मादि मूब के यपपि सामाविक तास परन्तु ये भी जब मपिक वाते हो तो उन फी परीक्षा इस प्रकार से करनी पाहिले कि-मूत्र को एक रफेवी में राल कर गर्म फरे, पीछे उस में नाइट्रिक एसिर की मोडी सी बूंद गल देवे, यदि उस में पासे बैंप या तो जान सेना चाहिये कि मूत्र में यूरिया अधिक है तथा मूष को रफेची में गल कर उस में नाइट्रिक एसिह राठा जावे पीछे उसे पाने से यदि उस में पीछे रंग का पदार्म हो बारे तो बानना चाहिये फि मूत्र में यूरिक एसिड बाया है। ३-आलम्युमीन-आस्यमीन एक पौष्टिक तत्त्व है, इसलिये बप पह मूत्र के साथ में माने छगता है तब शरीर कममोर हो आता है, इस के गाने की परीक्षा इस रीति से करनी पाहिये कि भून की परीक्षा करने की एक नग (सुब) होती है, उस में दो तीन रुपये भर मूत्र को सेना चाहिये, पीछे उस नरी के नीचे मोमबती को बला कर उस से मूत्र को गर्म करना चाहिये, जग मूत्र उर. स्ने सगे सन उस के अन्दर भोरेके वेमार की भोड़ी सी दे गा देनी पाहिये, इस की दो से मूत्र मादों की वर घुबला हो बायेगा भौर वह धुपग हुआ मूत्र यम ठहर बामेगा तय उस में यदि मालम्युमीन होगा तो नीरे पेठ बारेगा और भीलों से दीसने सगेगा परन्तु मूत्र के गर्म करन से अभया गर्म फर उस में शारे के तेनार की दें राग्ने से यदि वर मघ धुपसा न होवे मरमा धुपम रोकर (भापन मिट जाये तो समझ ना पाहिमे कि घ में भामसुमीन नहीं जाता है, इस परीक्षा से गर्म किये हुए और नाइट्रिक पसिष्ठ मिसे हुए मूत्र में ममा हुमा पदार्भ धार होगा वो यह फिर भी मन में मिल जायगा और माम्। गुमीन होगा सा पसे का वैसा ही रहेगा। युगर अर्थात् शफार-बम मूत्र में अधिक याम शफर बाची हे सप उस रोम को मधुपमेह का भयपुर राग है, इस रोग पहते पाहते में मूत्र पदुत मीय सफेद 1-सर मग वाम पेनाप विपरीम (मप) पर मत ( परन्तु आये प्रेमे मोम पत्तीरी मानी पार. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ चतुर्थ अध्याय ॥ तथा पानी के समान होता है और उस में शहद के समान गन्ध आती है, इस रोग में रसायनिक रीति से परीक्षा करने से शकर का होना ठीक रीति से जाना जा सकता है, इस की परीक्षा की यह रीति है कि-यदि शकर की शहा हो तो फिर मूत्र को गर्म कर छान लेना चाहिये ऐसा करने से यदि उस में आल्व्युमीन होगा तो अलग हो जावेगा, पीछे मूत्र को काच की नली में लेकर उस में आधा लीकर पोटास अथवा सोडा डालना चाहिये, पीछे नीलेथोये के पानी की थोड़ी सी बूदें डालनी चाहिये परन्तु नीलेथोये की बूंदें बहुत ही होशियारी से ( एक बूंढ के पीछे दूसरी बूंद) डालना चाहिये तथा नली को हिलाते जाना चाहिये, इस तरह करने से वह मूत्र आसमानी रग का तया पारदर्शक ( जिस में आर पार दीखे ऐसा) हो जाता है, पीछे उस को खूब उबालना चाहिये, यदि उस में शकर होगी तो नली के पेंढे में नारगी के रंग के समान लाल पीले पदार्थ का जमाव होकर ठहर जावेगा तथा स्थिर होने के बाद वह कुछ लाल और भूरे रंग का हो जावेगा, यदि ऐसा न हो तो समझ लेना चाहिये कि मूत्र में शक्कर नहीं जाती है। ५-रवार और खटास (एसिड और आल्कली क्षार)--मूत्र में खार का भाग जितना जाना चाहिये उस से अधिक जाने से रोग होता है, खार के अधिक जाने की परीक्षा इस प्रकार होती है कि-हलदी का पानी करके उस में सफेद ब्लाटिंग पेपर ( स्याही चूसनेवाला कागज़ ) भिगाना चाहिये, फिर उस कागज़ को सुखाकर उस में का एक टुकडा लेकर मूत्र में भिगा देना चाहिये, यदि मूत्र में खार का भाग अधिक होगा तो इस पीले कागज़ का रंग बदल कर नारगी अथवा बादामी रग हो जायगा, फिर इस कागज को पीछे किसी खटाई में भिगाने से पूर्व के समान पीला रग हो जावेगी । यह खार की परीक्षा की रीति कह दी गई, अब अधिक खटास जाती हो उस की परीक्षा लिखते है-एक प्रकार का लीटमस पेपर बना हुआ तैयार आता है उसे लेना चाहिये, यदि वह न मिल सके तो व्लाटिंगपेपर को लेकर उसे कोविज के रस में भिगाना चाहिये, फिर उसे सुखा लेना चाहिये, तव उस का आसमानी रग हो जावेगा, उस कागज का टुकडा लेकर मूत्र में भिगाना चाहिये, यदि मूत्र में खटास अधिक होगा तो उस कागज का रग भी अधिक लाल हो जावेगा और यदि खटास कम होगा तो १-डाक्टर लोग हलदी का टिंक्चर लेते हैं। २-इस प्रकार की मूत्रपरीक्षा के लिये वना हुआ भी टरमेरिक पेपर इगलंड से आता है, यदि वह न होवे तो हलदी मे भिगाया हुआ ही पूर्वोक (पहिले कहा हुआ) कागज लेना चाहिये ॥ ३-अधिक खटास के जाने से भी शरीर में अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ कागम का रंग भी कम मत होगा, तात्पर्य यह है की सटास की न्यूनाभिकता के समान ही पागम के सार रंग की भी न्यूनाधिकता होगी । -सूक्ष्मदर्शक मन्म के द्वारा बो मूम्रपरीक्षा की जाती है उस में उपर लिखी हुई दोनों रीतियों में से एक भी रीति के करने की भापश्यकता नहीं होती है भर्षात् न तो आँसो झारा ध्यान के साथ देसार मूत्र के रंग मादि की जॉप करनी पड़ती है और न रसायनिक परीक्षा के द्वारा अनेक रीतियों से मूत्र में स्थित अनेक पदार्थों की गॉच करनी परसी है, किन्तु इस रीतिसे मूत्र के रंग भादि की तमा मूत्र में स्थित मौर मूत्र के साथ जानेनाले पदार्थों की बौध असिसुगमता से हो जाती है, परन्तु हाँ इस (सूक्ष्म वर्सफ) पत्र के वारा मूत्र में लित पदार्थों की ठीक दौर से गॉच कर लेना प्राप' उन्हीं के स्मेि सुगम है मिन को मूत्र में सित पदार्थों का सहप ठीक रीति से माउस हो, क्योंकि मिमित पदार्ष में सित वस्तुविशेप (सास पीन) का ठीक नियम कर सेना सहज वा सर्वसाधारण का श्रम नहीं है, यपपि यह मात ठीक कि-सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से भूत्र में मिमित तया सूक्ष्म पदार्थ भी उत्तररूप से प्रतीत होने लगता है माफि या दो मानना ही पड़ेगा कि-उस पदार्थ के स्वरूप को न बाननेवाग पुरुप उस का निमय कैसे कर सकता है, वैसे-सान्त के लिये यह कहा मा सकता है कि पालम्पुमीन के सरूप को गो नहीं जानता है वा सूक्ष्मदर्शक मन्त्र के द्वारा मूत्र में स्थित श्रामसम्ममीन को देख कर भी उस का नियम कैसे कर सकता है, तात्पर्य केवल यही है कि सूक्ष्मवर्षक पत्र के द्वारा वे ही लोग मूत्र में स्थित पदार्थों का निभय सान में कर सकते हैं जो कि उन (मूत्र में स्थित ) पदार्थों के खरूप को ठीक रीति से पानते हों। ___ या तो प्राय सब ही नानसे और मानते हैं कि वर्तमान समय में भपने देश के औषयों की अपेक्षा साक्टर गेग शरीर के आम्पम्वर ( मीतरी ) भागों, उन की क्रियाओं मौर उन में स्पिस पदामों से विशेष विन (जानकार), क्योंकि उन ने भरीर के भाम्फन्तर मागों के देसने मारुने मावि का प्रतिदिन प्रम परता है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि-हाक्टर गेग सूक्ष्मदर्भक यन्त्र के द्वारा मूत्रपरीक्षा को अच्छे प्रकार से कर सकते हैं। पहिलेकर पुके हैं कि-नस (सूक्ष्मदर्शक) मन्त्र के द्वारा बो मूत्रपरीक्षा होसी है या मूत्र में स्थित पवायों के लरूप के शान से विशेष सम्बन्म रसती है, इस दिमे सर्व साधारण गोग इस परीक्षा का महीं कर सकसे हैं, क्योंकि मूत्र में स्थित सम पदार्थों के सरूप का धान होना सर्वसापारण के म्मेि भसिवुवर (कठिन) है, मत सूक्ष्मदर्सक पत्र के द्वारा बस मूत्रपरीका करनी का करानी हो तर गक्टरों से परामी पाहिजे, पर्मात राष्टरों से मूत्रपरीक्षा करा के मूत्र में बानेवारे पवारों की न्यूनापिकता (कमी वा प्रमावती)मनिमय पर ववनुश्म उचित उपाय ना चाहिये । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४३१ ऊपर लिखे अनुसार मूत्र में स्थित सब पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान यद्यपि सर्वसाधारण के लिये अति दुस्तर है और उन सब पदार्थो के स्वरूप का वर्णन करना भी एक अति कठिन तथा विशेषस्थानापेक्षी ( अधिक स्थान की आकाक्षा रखनेवाला) विषय है अतः उन सब का वर्णन ग्रन्थ के विस्तार के भय से नहीं लिख सकते है परन्तु तथापि संक्षेप से कुछ इस परीक्षा के विषय में तथा मूत्र में स्थित अत्यावश्यक कुछ पदार्थों के स्वरूप के विषय में गृहस्थो के लाभ के लिये लिखते है:१-पहिले कह चुके है कि-नीरोग मनुष्य के मूत्र का रंग ठीक सूखी हुई घास के रंग के समान होता है, तथा उस में जो खार और खटास आदि पदार्थ यथोचित परिमाण मे रहते है उन का भी वर्णन कर चुके है, इस लिये सूक्ष्मदर्शक यन्त्र के द्वारा मूत्रपरीक्षा करनेपर नीरोग मनुष्य का मूत्र ऊपर लिखे अनुसार (उक्त रॅग से युक्त तथा यथोचित खार आदि के परिमाण से युक्त ) ऊपर से स्पष्टतया न दीखने पर भी उक्त यन्त्र से साफ तौर से दीख जाता है। २-वात, पित्त, कफ, द्विदोप (दो २ मिले हुए दोप) तथा सन्निपात (त्रिदोप) दोपवाले, एव अजीर्ण और ज्वर आदि विकारवाले रोगियो का मूत्र पहिले लिखे अनुसार उक्त यन्त्र से ठीक दीख जाता है, जिस से उक्त दोपो वा उक्त विकारों का निश्चय स्पष्टतया हो जाता है। ३-मूत्र में तैल की बूंद के डालने से दूसरी रीति से जो मूत्रपरीक्षा तालाव, हस, छत्र, चमर और तोरण आदि चिहो के द्वारा रोग के साध्यासाध्यविचार के लिये लिख चुके हैं वे सब चिह्न स्पष्ट न होने पर भी इस यन्त्र से ठीक दीख जाते है अर्थात् इस यन्त्र के द्वारा उक्त चिह्न ठीक २ मालूम होकर रोग की साध्यासाध्यपरीक्षा सहज में हो जाती है। ४-पहिले कह चुके है कि-डाक्टरो के मत से मूत्र में मुख्यतया दो चीजें है युरिआ और एसिड, तथा इन के सिवाय-नमक, गन्धक का तेज़ाब, चूना, फासफरिक (फासफर्स ) एसिड, मेगनेशिया, पोटास और सोडा, इन सब वस्तुओ का भी थोडा २ तत्त्व और बहुत सा भाग पानी का होता है', अतः इस यन्त्र के द्वारा मूत्रपरीक्षा करने पर उक्त पदार्थों का ठीक २ परिमाण प्रतीत होजाता है, यदि न्यूनाधिक परिमाण हो तो पूर्व लिखे अनुसार विकार वा हानि समझ लेनी चाहिये, इन पदार्थों में से गन्धक का तेजाब, चूना, पोटास तथा सोडा, इन के स्वरूप को प्रायः मनुष्य जानते ही है अत. इस यन्त्र के द्वारा इन के परिमाणादि का निश्चय कर सकते है, शेप आवश्यक पदार्थों का स्वरूप आगे कहा जायगा। १-इन सव पदार्थों के परिमाण का विवरण पहिले ही लिख चुके हैं। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ चैनसम्प्रवापशिक्षा ॥ ५-स यन्त्र के द्वारा मत्र को देखने से यदि उस ( मून) फे नीरे कुछ ममात्र सा मालूम पड़े तो समझ सेना चाहिये कि-खार, खून, रसी (पीप ) तथा पर्य आदि का भाग मूत्र के साथ माता है, इन में भी विशेषता यह है कि-सार प्र भाग अधिक होने से मूत्र फटा हुआ सा, खून का भाग भपिक होने से पर, रसी (पीप) का भाग अधिक होने से मैस और गदतेपन से मुफ तथा पीप भाग अधिक होने से सिकना और ची के स्तरों से युक्त दील पाता है। ६-मूत्र में सटास फा माग अधिक होने से यह (मत्र) रकवणे फा (लाल रैप का) तथा पिठ का भाग अधिक होने से पीत वर्णका (पीले रंग का) भौर फेनो से हीन इस मन्त्र के द्वारा स्पष्टतया ( साफ तौर से) पीस पासा है। ७-मूत्र में शयर के भाग कर चाना इस यन्त्र के द्वारा प्राय सप ही जान सकते हैं, क्योकि शकर न सहप सम ही को निवित है। ८-स यन्त्र के द्वारा परीक्षा करने से यदि मूत्र-फेनरहित, अतिश्वेस (बहुत सफेद भर्यात् भरे की सफेदी के समान सफेद ), सिग्प (किना), पोरिक वत्त्व से युक, मोटे के रस के समान सदार, पोश्ट के सेठ के समान विष तमा नारियल के गूदे के समान खिन्न (चिकने) पदार्थ से संभ (गुणा हुमा), गावा तथा रक (खून ) की फान्ति (चमक) से युफ पीस पड़े तो जान लेना पाहिये कि-मूत्र में भारम्यूमीने है, इस प्रकार भासन्युमीन का निमय बाने पर मूत्राशय के वमन्पर फा भी निमय हो सकता है, जैसा कि पहिछे लिख चुके है। ०-स मन्त्र के द्वारा देसने पर मदि मूस में मगये हुए पौधे की राल के समान, बा काई में मूने हुए पवा के समान कोई पदार्थ दीसे अबरा सोडे की रास १-इस प्र वन भागे ना संस्था में दिया जायेगा। १-बाबम रो प्रमर प्रह-निन में से ए उचारणमाम्सुम्पन है मारिन या फ्रेश भाषा घसम्म इस को प्रम मापा में भाप मी पते है जिसका म सर , पस समय मर-1- पोसपेरी २-परवरिश परनेवाम्म मात्र भो व से पीपों वीरो पर मेरम स्वा है परन्तु गर्भ में मिम्मी पापा मम वर्षात् गे और इसी स्म के सरे मो में बारे प्ररित्सा सेवा, पोस्त के दाने में रोगनी (मप्र) हिस्सा लेता। मौर मारियम में गूदेदार मिस्सा घेता २-पा रसायम के नियम से पी पस्तोपो कि मामुमीन (बिस अब भी जाये मत है) मरे म प्र रघरम मास्युमीव, पा पाग इस तमा विपैग परा होता है जो पस भाषालक (बस्सी) मादा भमेष सेवा और भाप पछा होता है और पा रेप मारों में पाना पाता। पापा अब ऐभीर पहेस. स. सिमाम मा पाषा में भी पाया माता मह पर्व में पुम्माजम्मा पमी भौर पप रसायनिक प्रवियों से पम सारे Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४३३ सी दीख पड़े अथवा तेजावी सोडा वा तेजावी पोटास दीख पड़े तो जान लेना चाहिये कि मूत्र में खार और खटास ( आलकली खार और एसिड ) है। यह सक्षेप से सूक्ष्मदर्शक यन्त्र के द्वारा मूत्रपरीक्षा कही गई है, इस के विषय में यदि विशेष हाल जानना हो तो डाक्टरी ग्रन्थों से वा डाक्टरों से पूंछ कर जान सकते है। मलपरीक्षा-मल से भी रोग की बहुत कुछ परीक्षा हो सकती है तथा रोग के साध्य वा असाध्य की भी परीक्षा हो सकती है, इस का वर्णन इस प्रकार है:१-वायुदोषवाले का मल-फेनवाला, रूखा तथा धुएँके रग के समान होता है और उस में चौथा भाग पानी के सदृश होता है। २-पित्तदोपवाले का मल-हरा, पीला, गन्धवाला, ढीला तथा गर्म होता है। ३-कफदोपवाले का मल-सफेद, कुछ सूखा, कुछ भीगा तथा चिकना होता है । ४-वातपित्तदोषवाले का मल-पीला और काला, भीगा तथा अन्दर गाठोंवाला होता है। ५-वातकफदोषवाले का मल-भीगा, काला तथा पपोटेवाला होता है । ६-पित्तकफदोपवाले का मल-पीला तथा सफेद होता है । ७-त्रिदोपवाले का मल-सफेद, काला, पीला, ढीला तथा गाठोवाला होता है । ८-अजीर्णरोगवाले का मल-दुर्गन्धयुक्त और ढीला होता है । ९-जलोदररोगवाले का मल-बहुत दुर्गन्धयुक्त और सफेद होता है । १०-मृत्युसमय को प्राप्त हुए रोगी का मल-बहुत दुर्गन्धयुक्त, लाल, कुछ सफेद, __ मास के समान तथा काला होता है।। यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जिस रोगी का मल पानी में डूब जावे वह रोगी बचता नहीं है। इस के अतिरिक्त मलपरीक्षा के विषय में निम्नलिखित बातों का भी जानना अत्यावश्यक है जिन का वर्णन सक्षेप से किया जाता है: १-इस शब्द का प्रयोग बहुवचन मे होता है अर्थात् अलफलिस वा अलफलीज, इस को फ्रेंच भाषा में अल्कली भी कहते हैं, यह एक प्रकार का खार पदार्थ है, इस शब्द के कोपकारों ने कई अर्थ लिखे हैं, जैसे-पौधे की राख, कढाई में भूनना, वा भूनना, सोडे की राख, तेजावी सोडा तथा तेजावी पोटास इत्यादि, इस का रासायनिक स्वरूप यह है कि यह तेजावी असली चीजों में से है, जैसे-सोडा, पोटास, गोंदविशेप और सोडे की किस्म का एक तेज तेजाव, इस का मुख्य गुण यह है कि यह पानी और अलकोहल (विष) मे मिल जाता है तथा तेल और चर्वी से मिल कर साबुन को वनाता है और तेजाव से मिलकर नमक को बनाता है या उसे मातदिल कर देता है, एव बहुत से पौधों की जर्दी (पीलेपन) को भूरे रग की कर देता है और काई वा पौधे के लाल रंग को नीला कर देता है। ५५ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनसम्प्रदायविदा ॥ १-पतला दस्त-मपी से अभया संग्रहमी के रोग से पतसे वस्त होते हैं, मदि मक में खुराफ का कमा भाग पीसे वो समझना चाहिये पि-मर का पापन टीक रीठिसे नहीं होता है, माता में पिस पाने से भी मर पवन मोर नरम भावा है, मतीसार और देने में दम पानी के समान पतछा भासा है, पवि क्षम रोग में विनाकारण ही पतला दस्त आये तो समझ लेना चाहिये कि रोगी नहीं मचेगा। २-फरडा दस्त-निस्म की अपेक्षा यदि फरा दस भावे सा चमिमत की निश्चानी समझनी चाहिये, हरस के रागी को सदा सस्त मस्त भाता है तथा उस में प्रायः सफरे का भाग छिल जाने से उस म से खून आसा है, पेट में भगवा सफरे में पानी के रहने से सदा वन की फनी रहती है, यदि कमेजे में पिच की किया टीक रीति से न हाये तथा भावश्यकता के अनुसार पिचकी उत्पति न हो भगवा मळ फो बागे रफेसने के रिये बाता में संग बोर रीसे होने की बावश्यक (निवनी पाहिले उतनी ) अति न होने तो दस्त फरड़ा भाता है। ३-खूनपाला दस्तपदि दसके साम में मिग हुभा सून भावा हो भना माम गिरती दो सो समझना चाहिये कि मरोड़ा से गया रे, हरस रोग में तभा रकपिछ रोग में सून धम्न से अलग गिरता है, मात् यस के पहिले का पीछे पार होफर गिरता है। -अधिक खून व पीपधारा दस्त-पदि पख के मार्ग से खून बहुत मिरे तमा पीप एक बम से भाने लगे तो समझ लेना पाहिये कि फसमा पकार भी सा में पूटा है। ५-मांस फे धोयन के समान दस्त-यदि दस धोये हुए मांस के पानी के समान भागे तथा उस में चादे कुछ सून भी दो वा न हो परन्तु पाछे छोतों के समान दो भीर उस में मात दुर्गन्य हो वो समझना पाहिले कि आते साने लगी है। १-सफद दस्त-यदि वस्तु का रंग सफेद हो सो समझना पाहिये किमाने में से पिप यधापश्या (पाहिये जितना) भाँता में नहीं आता है, माया ममम । पिणाम था फलेने के रोग में ऐसा दम्न मासा है। -सफेद फांजी के समान पा बाँपला के धोयन के समान दस्तदेने में तथा पो ( भत्सन्त ) भजीण में दस्त सफेव भेवी के समान गया भोवला के भावन के समान आया है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ चतुर्थ अध्याय ॥ ८-काला वा हरा दस्त-यदि काला अथवा हरा दस्त आवे तो समझना चाहिये कि कलेजे में रोग तथा पित्त का विकार है। प्रश्नपरीक्षा। रोगी से कुछ हकीकत के पूछने से भी रोगों की विज्ञता (जानकारी) होती है और ऐसी विज्ञता पहिले लिखी हुई परीक्षाओं से भी नहीं हो सकती है, यद्यपि कई समयों में ऐसा भी होता है कि-रोगी से पूछने से भी रोग का यथार्थ हाल नहीं मालूम होता है और ऐसी दशा में उस के कथन पर विशेष विश्वास भी रखना योग्य नहीं होता है, परन्तु इस से यह नहीं मान लेना चाहिये कि-रोगी से हकीकत का पूछना ही व्यर्थ है, किन्तु रोगी से पूछ कर उस की सब अगली पिछली हकीकत को तो अवश्य जानना ही चाहिये, क्योंकि पूछने से कभी २ कोई २ नई हकीकत भी निकल आती है, उस से रोग की उत्पत्ति के कारण का पता मिल सकता है और रोग की उत्पत्ति के कारण का अर्थात् निदान का ज्ञान होना वैद्यों के लिये चिकित्सा करने में बहुत ही सहायक है, इस लिये रोगी से वारवार पूछ २ कर खूब निश्चय कर लेना चाहिये, केवल इतना ही नहीं किन्तु बहुत सी बातों को रोगी के पास रहनेवालों से अथवा सहवासियो से पूछ के निश्चय करना चाहिये, जैसे यदि रोगी को वमन (उलटी) होता है तो वमन के कारण को पूछ कर उस कारण को बन्द करना चाहिये, ऐसा करने से वमन को बन्द करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, जैसे यदि पित्त से वमन होता हो पित्त को दबाना चाहिये, यदि अजीर्ण से होता हो तो अजीर्ण का इलाज करना चाहिये, तथा यदि होजरी की हरकत से होता हो तो उस ही का इलाज करना चाहिये, तात्पर्य यह है कि-वमन के रोग में वमन के कारण का निश्चय करने के लिये बहुत पूछ ताछ करने की आवश्यकता है, इसी प्रकार से सब रोगों के कारणों का निश्चय सब से प्रथम करना चाहिये, ऐसा न करने से चिकित्सा का कुछ भी फल नहीं होता है, देखो ! यदि बुखार अजीर्ण से आया हो और उस का इलाज दूसरा किया जावे तो वह आराम नहीं हो सकता है, इसलिये पहिले इस का निश्चय करना चाहिये कि वुखार अजीर्ण से हुआ है अथवा और किसी . १-परन्तु स्मरण रहे कि आँवला गूगुल तथा लोहे से बनी हुई दवाओं के खाने से दस्त काला आता है, इस लिये यदि इन में से कोई कारण हो तो काले दस्त से नहीं डरना चाहिये ॥ ____२-क्योंकि दूसरी परीक्षाओं से कुछ न कुछ सन्देह रह जाता है परन्तु रोगी से हकीकत पूछ लेने से रोग का ठीक निश्चय हो जाता है। ३-सहायक ही नहीं किन्तु यह कहना चाहिये कि-निदान का जानना ही चिकित्सा का मुख्य आधार है। ४-क्योंकि वमन के कारण को वन्द कर देनेसे वमन आप ही वन्द हो जाता है। ५-कारण का निश्चय किये विना केवल चिकित्सा ही निष्फल हो जाती हो यही नहीं किन्तु ऐमी चिकित्सा दूसरे रोगों का कारण बन जाती है । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ चैनसम्प्रदामक्षिक्षा ॥ कारण से हुआ है, इसका निश्वय वैसे दूसरे लक्षणों आदि से होता है उसी प्रकार रोगी ने दो तीन दिन पहिले क्या किया था, क्या लाया था, इत्यादि बालों के पूछने से श्रीम ही निमय हो जाता है । बहुत से रोग चिन्ता, भय, क्रोम और कामविकार मादि मन सम्बभी कारणों से भी पैदा होते है और शरीर के लक्षणों से उन का ठीक २ ज्ञान नहीं होता है, इसलिये रोगो में हकीकत के पूछने की बहुत ही आवश्यकता है, उदाहरण के लिये पाठकगण बान सकते हैं कि सिर का दुखना एक साधारण रोग है परन्तु उस के कारण बहुत से हैं, वैसे सिर में गर्मी का होना, दख की कमी, पातु का माना और प्रवर भावि कई कारणों से सिर दुखा करता है, भम सिर दुखने के कारण का ठीक निश्रय न करके यदि दूसरा इलाज किया खाने तो कैसे धाराम हो सकता है ! फिर शिर दुखने के कारणों को तलास करने में मद्यपि नाडीपरीक्षा भी कुछ सहायता देती है परन्तु यदि किसी प्रकार से रोग के कारण का पूर्ण अनुभव हो जाये तो शेष किसी परीक्षा से कोई काम नहीं है मौर रोग के कारण का अनुभव होने में केवल रोगी से सम हाक का पूछना प्रधान साधन है, जैसे देखो ! धिर के दर्द में यदि रोगी से पूछ कर कारण का निश्चय कर लिया बागे कि तेरा सिर किस तरह से और कम से दुस्खक्षा है इत्यादि, इस प्रकार कारण का नियम हो जाने पर इलाज करने से क्षीघ्र ही भाराम हो सकता है, परन्तु कारण का नियम किये बिना चिकित्सा करने से कुछ भी काम नहीं हो सकता है, जैसे देखो ! यदि उमर खिले कारणों में से किसी कारण से चिर दुखता हो और उस कारण को न समझ कर अमोनिमा सुमाया जाये तो उस से मिठकुछ फायदा नहीं हो सकता है, फिर देखो ! छत्र के सभा कान के रोग से भी घिर अत्यन्त दुखने बनाता है, इस बात को भी विरले ही लोग समझते हैं, इसी प्रकार कान के बहने से भी झिर दुखता है, इस बास को रोमी तो स्वम में भी नहीं मान सकता है, हां यदि बैच कान के तुखने की बात को पूछे ममया रोगी अपने आप ही वैच को अम्पल से भासीर तक अपनी सब हकीकत सुनाते समय कान के पहने की बात को भी कह देगे सो कारण का शान्न हो सकता है। बहुत से महान लोग बैस की भारत (प्रतिष्ठा) और परीक्षा सेने के लिये हाथ छम्मा करते हैं और कहते हैं कि-"आप देखो ! नाही में क्या रोग है !" परन्तु ऐसा कभी भूल कर भी नहीं करना चाहिये, किन्तु भाप को ही अपनी सब हकीकत साफ २ क देनी चाहिये, क्योंकि केवल माड़ी के द्वारा ही रोग का नियम कभी नहीं हो सकता है, किन्तु रोग के निश्श्रम के लिये अनेक परीक्षाओं की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार नेप को भी चाहिय कि केवल नाड़ी के देखनेका माडम्बर रचकर रोगी को भ्रम में न भीरम से पूछ २ कर रोग की असही पहिचान डा भार न उसे डराने किन्तु उस से Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ चतुर्थ अध्याय ॥ करे, यदि रोग की ठीक परीक्षा कराने के लिये कोई नया वा अज्ञान (अजान ) रोगी आ जावे तो उस को थोड़ी देर तक बैठने देना चाहिये, जब वह खस्थ (तहेदिल ) हो जावे तव उस की आकृति, ऑखें और जीभ आदि परीक्षणीय (परीक्षा करने के योग्य) अङ्गों को देखना चाहिये, इस के बाद दोनों हाथों की नाड़ी देखनी चाहिये, तथा उस के मुख से सव हकीकत सुननी चाहिये, पीछे उस के शरीर का जो भाग जांचने योग्य हो उसे देखना और जाचना चाहिये, रोगी से हकीकत पूछते समय सब बातों का खूब निश्चय करना चाहिये अर्थात् रोगी की जाति, वृत्ति (रोज़गार ), रहने का ठिकाना, आयु, व्यसैन, भूतपूर्व रोग (जो पहिले हो चुका है वह रोग), विधिसहित पूर्वसेवित औषध (क्या २ दवा कैसे २ ली, क्या २ खाया पिया ? इत्यादि), औपधसेवन का फल (लाभ हुआ वा हानि हुई इत्यादि), इत्यादि सब बातें पूंछनी चाहिये । इन सब बातों के सिवाय रोगी के मा वाप का हाल तथा उन की शरीरसम्बन्धिनी (शरीर की) व्यवस्था (हालत) भी जाननी चाहिये, क्योंकि वहुत से रोग माता पिता से ही पुत्रों के होते है। यद्यपि वरपरीक्षा से भी रोगी के मरने जीने कट रहने तथा गर्मी शर्दी आदि सब चातों की परीक्षा होती है परन्तु वह यहां ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से नहीं लिखी है, हां खरोदय के विषय में इस का भी कुछ वर्णन किया है, वहा इस विषय को देखना चाहिये। साध्यासाध्यपरीक्षा बल के द्वारा भी होती है, इस के सिवाय मृत्यु के चिह्न सक्षेप से कालज्ञान में लिखे है, जैसे--कानों में दोनों अंगुलियों के लगाने से यदि गडागडाहट न होवे तो प्राणी मर जाता है, आख को मसल कर अँधेरे में खोले, यदि विजुली का सा झवका न होवे तथा आख को मसल कर मीचने से रंग २ का ( अनेक रंगों का ) जो आकाश से बरसता हुआ सा दीखता है वह न दीखे तो मृत्यु जाननी चाहिये, छायापुरुष से अथवा काच में देखने से यदि मस्तक आदि न दीखें तो मृत्यु जाननी चाहिये, यदि चैतसुदि ४ को प्रातःकाल चन्द्रस्वर न चले तो नौ महीने में मृत्यु जाननी चाहिये, १-बहुत से धूर्त वैद्य अपना महत्त्व दिखलाने के लिये रोगी का हाल आदि कुछ भी न पूछकर केवल नाडी ही देखते हैं (मानो सर्वसाधारण को वे यह प्रकट करना चाहते हैं कि हम केवल नाडी देखकर ही रोग की सर्व व्यवस्था को जान सकते है) तथा नाडी देखकर अनेक झूठी सची वातें बना कर अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये रोगी को वहका दिया करते हैं, परन्तु सुयोग्य और विद्वान् वैद्य ऐसा कभी नहीं करते हैं । २-यदि कोई हो तो॥ ३-भूतपूर्व रोग का पूछना इस लिये आवश्यक है कि-उस का भी विचार कर ओपधि दी जावे, क्योंकि उपदश आदि भूतपूर्व कई रोग ऐसे भी हैं कि जो कारणसामग्री की सहायता पाकर फिर भी उत्पन्न हो जाते हैं-इस लिये यदि ऐसे रोग उत्पन्न होचुके हों तो चिकित्सा मे उन के पुनरुत्पादक कारण को बचाना पडता है॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जैनसम्प्रवामशिक्षा || इस्यादि, यह सन विवरण मन्भ के बह जाने के भय से यहां नहीं मिला है, दो खर का वो कुछ धप्पन आगे (पश्चमाध्याय में) मिला ही जायेगा पर सक्षेप से रोगपरीक्षा मोर उसके आवश्यक प्रकारों का कमन किया गया || मद तुम अध्याय का रोगपरीक्षामकार नामक भारदर्गा प्रकरण समाप्त हुआ । तेरहव प्रकरण - औषध प्रयोग | औपधों का सग्रह || जंग में उत्पन्न हुई जो भनक वनस्पतियां बाजार में निकती हैं तथा अनेक दराने जो धातुओं के संसर्ग से तथा उन की भस्म से बनती है इन्हीं सर्मा का नाम भोपेष (दमा) है, परन्तु इस अन्य में जो २ वनस्पतियां संग्रहीत की गई है अथवा जिन २ ओपों का संग्रह किया गया है मे सब साधारण है, क्योंकि जिस भोपण के बनाने में बहुतज्ञान, तुराई, समय और धन की आवश्यकता है उस भोपण का शास्त्रोक (शास्त्र में कहा हुआ ) विधान और रस भावि विद्यशाळा के सिवाय अन्यत्र मभानस्थित ( ठीक २ ) मन सना असम्भव है, इस खिये जिन औपषों को साधारण वेष सभा गृहस्थ व बना सके अथवा भाजपर से मंगा पर उपयोग में सा सके उन्हीं भोपषों का संक्षेप से महा संग्रह किया गया है तथा कुछ साधारण भमेन्री भीपयों फ भी नुसले खिले है कि जिन का aa मा सर्वत्र किया जाता है । इन में प्रथम कुछ शास्त्रोक मपधों का विधान छिस्से हैं - अरिष्ठ भीर आसव-यानी फाड़ा अथवा पदके प्रवाही पदार्थ में औपप को पर उसे मिट्टी के बर्तन में मर के कपड़मिट्टी से उस बर्तन का मुँद बन्द कर एक मा यो पखवाड़े तक रखा रहने थे, जय उस में समीर पैदा हो जाये तब उसे काम में छाने, औषध को उमाले बिना रहने देने से भासैम तैयार होता है और उबाल कर तथा दूसरे भोपा को पीछे से डाल कर रस छोड़ते है वन भरि तैयार होता है । पनस्पतियों और भालुओं के लिये बने हुए परायों का समावेस भीषम माम में १ जाता है १ विधा महाँ वह स्थान यमाना चाहिये कि यहां मेचकविया का नियमानुसार प पान होता हो वा उपी के निगम के अनुसार पर गिटीक १ तैयार की हो व -प्रमाण प्रचाराम भारि भार Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय || ४३९ जहा औषधों का वजन न लिखा हो वहा इस परिमाण से लेना चाहिये कि -अरिष्ट के लिये उबालने की दवा ५ सेर, शहद ६ । सेर, गुड़ १२|| सेर और पानी ३२ सेरे, इसी प्रकार आसव के लिये चूर्ण ११ सेर लेना चाहिये तथा शेष पदार्थ ऊपर लिखे अनुसार लेने चाहियें । इन दोनों के पीने की मात्रा ४ तोला है । मद्य - इसे यन्त्र पर चढ़ा कर अर्क -- औषधो को एक दिन अर्क टपकाते हैं, उसे मद्य ( स्पिरिट ) कहते है । भिगाकर यन्त्र पर चढ़ा के भभका खीचते है, उसे अर्क कहते हैं । अवलेह - जिस वस्तु का अवलेह बनाना हो उस का खरस लेना चाहिये, अथवा काढ़ा बना कर उस को छान लेना चाहिये, पीछे उस पानी को धीमी आच से गाढ़ा पड़ने देना चाहिये, फिर उस में शहद गुड़ शक्कर अथवा मिश्री तथा दूसरी दवायें भी मिला देना चाहिये, इस की मात्रा आधे तोले से एक तोले तक है । कल्क - गीली वनस्पति को शिलापर पीस कर अथवा सूखी ओषधि को पानी डाल कर पीस कर लुगदी कर लेनी चाहिये, इस की मात्रा एक तोले की है । काथ --- एक तोले ओषधि में सोलह तोले पानी डालें कर उसे मिट्टी वा कलई के पात्र ( वर्त्तन) में उकालना ( उबालना ) चाहिये, जब अष्टमाश ( आठवा भाग ) शेष रहे तब उसे छान लेना चाहिये, प्रायः उकालने की ओषधि का वजन एक समय के लिये ४ १- परन्तु कई आचार्यों का यह कथन है कि-अरिष्ट मे डालने के लिये प्रक्षेपवस्तु ४० रुपये भर, शहद २०० रुपये भर, गुड ४०० रुपये भर तथा द्रव पदार्थ १०२४ रुपये भर होना चाहिये ॥ २- यह पूर्णअवस्थावाले पुरुष के लिये मात्रा है, किन्तु न्यूनावस्था वाले के लिये मात्रा कम करनी पडती है, जिस का वर्णन आगे किया जावेगा, ( इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये ) || ३- यन्त्र कई प्रकार के होते हैं, उन का वर्णन दूसरे वैद्यक प्रन्थों मे देख लेना चाहिये ॥ ४-दयाधर्मवालों के लिये अर्क पीने योग्य अर्थात् भक्ष्य पदार्थ है परन्तु अरिष्ट और आसव अभक्ष्य हैं, क्योंकि जो बाईस प्रकार के अभक्ष्य के पदार्थों के खाने से बचता है उसे ही पूरा दयाधर्म का पालनेवाला समझना चाहिये ॥ ५- जो वस्तु चाटी जावे उसे अवलेह कहते हैं ॥ ६- तात्पर्य यह है कि यदि गीली वनस्पति हो तो उस का स्वरस लेना चाहिये परन्तु यदि सूखी ओषधि - हो तो उस का काढा बना लेना चाहिये ॥ ७- इस को मुसलमान वैद्य ( हकीम ) लऊक कहते हैं तथा संस्कृत में इस का नाम कल्क है ॥ ८- इस को उकाली भी कहते हैं ॥ ९-तात्पर्य यह है कि ओपधि से १६ गुना जल डाला जाता है-परम्तु यह जल का परिमाण १ तोले से लेकर ४ तोले पर्यन्त औषध के लिये समझना चाहिये, चार तोले से उपरान्त कुडव पर्यन्त औषध मे आठगुना जल डालना चाहिये और कुडव से लेकर प्रस्थ ( सेर ) पर्यन्त औषध मे चौगुना ही जल ढालना चाहिये ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्पदामशिक्षा || ठोते है, यदि फाम को भोड़ा सा नरम करना हो तो भोभा हिस्सा पानी रखना चाहिने, एक बार उकाल कर छानने के पीछे जो कूचा रद्द प्यावे उस को दूसरी बार (फिर भी छाम फो) उकाला जावे समा छान पर उपयोग में लाया जाये उसे परकाम ( दूसरी उफाळी ) कहते हैं, परन्तु धाम को उकासे हुए फाभ का मासा कूचा दूसरे दिन उपयोग में नहीं लाना चाहिये, हो मात काम का कुचा उसी दिन शाम को उपयोग में मने में कोई हर्ज नहीं है । १४० निर्बक रोगी को फाम का अधिक पानी नहीं देना चाहिये । नवीन प्रवर में पाचन फाभ ( दोपों को पकानेवाला काय ) देना हो तो अवशेष ( आभा पाकी) रख कर देना चाहिये । फुटकी आदि फटु पदार्थों का काम ज्वर में देना हो तो ऊपर के पकने के माव देना महिये । स्मरण रहे कि -फाय फरने के समय वर्तन पर ढकन देना (ढोकना) नहीं चाहिये, मर्मोफि ढकन वेकर ( ढांक कर ) बनाया हुआ फाम फायदे के बदले मड़ा भारी नुकसान करता है । कुरला -- दवा को उकाल कर उस पानी के अभना रात को भिगोये हुए ठंडे हिम के अमना फिटकड़ी और नीलामोभा आदि को पानी में डाल कर उस पानी के सुखपाक आदि (मुँह का पफ जाना भगवा मसूड़ों का फूलना भादि) रोगों में फेरले किये जाते हैं। ऊपर कहे हुए रोगों में त्रिफला, रोग, तिलकँटा, चमेली के पधे, तूप, पी और शहद, में से किसी एक वस्तु से फुरसे करने से भी फायदा होता है । इन गोली -- किसी दवा को अथमा सस्व को शहद, नींबू का रस, भवरम का रस, पान का रस, गुड़, भगवा गुगुल की भारानी में डाल कर छोटी २ गोलियां है, पीछे इन का यथावश्मफ उपयोग होता है। बनाई जाती रात दिन में देसिक कार र दिन में त १-आर के पकने का समय नमक पर बारह दिन में पड़ता है । - म -भर-भ (रिकनेवाला) समन (धान्तिकरनेवाला) घोषन ( करने और पापा को पूरा करनेवाला) बावीस मे सिपी में समीप मेोपनता पार भारि में रोपण करके किये है, (इनका विधान में दे ४दन में मोह है ५न्नुम को बरि घोषना हो या केप में भी इसमें होल है Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४४१ घी तथा तेल - जिन २ औषधों का घी अथवा तेल बनाना हो उन का खरस लेना चाहिये, अथवा औषधों का पूर्वोक्त कल्क लेना चाहिये, उस से चौगुना घी अथवा तेल लेना चाहिये, घी तथा तेल से चौगुना पानी, दूध, अथवा गोमूत्र लेना चाहिये और सूखे औषध को १६ गुने पानी में उकाल कर चतुर्थांश रखना चाहिये, काथ से चौगुना घी तथा तेल होना चाहिये, गीले औषघों का कल्क बना कर ही डालना चाहिये, पीछे सब को उकालना चाहिये, उकालने से जब पानी जल जावे तथा औषव का भाग पक्का (लाल ) हो जावे तथा घी अलग हो जावे तब उतार कर ठंढा कर छान लेना चाहिये । झागो का आना बंद हो तथा घी में जब झाग आ Lo इन के सिद्ध हो जाने की पहिचान यह है कि - तेल में जब जावे तब उसे तैयार समझकर झट नीचे उतार लेना चाहिये जावें त्योंही झट उसे उतार लेना चाहिये' । ० } इन के सिवाय वस्तुओं के तेल घाणी में तथा पातालयन्त्रादि से निकाले जाते है जिस का जानना गुरुगम तथा शास्त्राधीन है, इस घृत तथा तेल की मात्रा चार तोले की है । चूर्ण - सूखे हुए औषधों को इकट्ठा कर अथवा अलग २ कूटकर तथा कपड़छान कर रख छोड़ना चौहिये, इस की मात्रा आधे तोले से एक तोले तक की है । धुआँ वा धूप - जिस प्रकार अङ्गार में दवा को सुलगा कर धूप दे कर घर की हवा साफ की जाती है उसी प्रकार कई एक रोगों में दवा का धुआ चमड़ी को दिया जाता है, इस की रीति यह है कि - अगारे पर दवाको डालकर उसे खाट ( चार पाई ) के नीचे रख कर खाटपर बैठ कर मुँह को उघाड़े ( खुला ) रखना चाहिये और सब शरीर को कपडे से खाट समेत चारों तरफसे इस प्रकार ढकना चाहिये कि धुआँ बाहर न निकलने पावे किन्तु अगपर लगता रहे। धूम्रपान -- जैसे दवा का धुआं शरीर पर लिया जाता है उसी प्रकार दवा को हुक्के १- तात्पर्य यह है कि - गिलोय आदि मृदु पदार्थों में चौगुना जल डालना चाहिये. सोंठ आदि सूखे पदार्थों में आठगुना जल डालना चाहिये तथा देवदारु आदि बहुत दिन के सूखे पदार्थों में सोलह गुना जल डालना चाहिये ॥ २-इन की दूसरी परीक्षा यह भी है कि स्नेह का पाक करते २ जब कल्क अंगुलियों में मींडने से बत्ती के समान हो जावे और उस कल्क को अभि में टालने से आवाज न हो अर्थात् चटचढावे नहीं तब जानना चाहिये कि अव यह स्नेह (घृत अथवा तेल ) सिद्ध हो गया है | ३- यदि चूर्ण में गुड मिलाना हो तो समान भाग डाले, खाड डालनी हो तो दनी डाल तथा चूर्ण मे यदि ह्रींग डालनी हो तो घृत मे भून कर डालनी चाहिये, ऐसा करने से यह उत्छेद नही करती है, यदि चूर्ण को घृत या शहद में मिला कर चाटना हो तो उन्हें (घृत वा शहद को ) चूर्ण से दूने लेवे, इसी प्रकार यदि पतले पदार्थ के साथ चूर्ण को लेना हो तो वह (जल आदि ) चौगुना लेना चाहिये ॥ = ५६ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ मेनसम्प्रदानशिक्षा || में भरकर फिरग तथा गठिया आदि रोगों में मुँह से वा नाक से पीछे हैं, इसे भूम्रपान कहते हैं । नस्य --- नाक में भी तब तथा चूर्णकी सूँघनी की जाती है उस को नेम करते हैं। पान - किसी दगा को ३२ गुने अथवा उस से भी अधिक पानी में उकाळ कर आभा पानी बाकी रक्खा खाने तथा उसे पिमा जाने इसे पान कहते हैं । पुटपाक - किसी हरी वनस्पति को पीस कर गोळा बना कर उस को बड़ (बरगद) बा एरण्ड अथवा जामुन के पत्ते में छपेट कर ऊपर कपड़मिट्टी का भर दे कर मन फों को सुलगा कर निर्धूम होनेपर उस में रख देना चाहिये, नब गोसे की मिट्टी हो जाये तब उसे निकाल कर तथा मिट्टी को दूर कर रस निचोड़ लेना चाहिये, परन्तु यदि वनस्पति सूखी हो तो बल में पीस कर गोला कर मेना चाहिये, इस रस को पुटपाक कहते हैं, इसके पीने की मात्रा दो से चार वोले तक की है। पश्चाङ्ग – मूल (जड़), पते, फल, फूल तथा छाम, इस को पचास कहते हैं। p फलवर्ती - योनि भषना गुदा के अन्दर दना की मोटी बच्ची दी जाती है तथा इस में भी या दनाका सेल अथवा साबुन व्यादि भी उगाया जाता 1 [ फांट - एक भाग दगा के चूर्ण को माठ माग गर्म पानी में कुछ घंटोंतक मिगा कर उस पानी को दबा के समान पीना चाहिये, ठेके पानी में १२ घण्टेवक भीगने से भी फॉट तैयार होता है, इस की मात्रा ५ तोके से १० तोले तक है। वस्ति - पिचकारी में कोई मनाही दबा भर कर मल वा मूत्र के स्थान में दबा पढ़ाई बाती है, इसका नाम वर्खि है, वह खाने की दवा के समान फायदा करती है। 1- धूम्रपानः प्रकार का है-समय न रेवन अस ममय भीर प्रभूपन का विधान भीर उपयोग भूप रे वेषक मम्बा में देख लेना चाहिये-ब हुआ जरपोक बुखिया जिस से व तिनिधि राम हो रेचन किया हुआ रात्रि में जाया हुआ प्यासा सूम रहा थे उदररोगी जिसका मत हो तिमिररोगी छावाला अफरे से पीडित वाम्म प्रमेह से पीडित मान्नु रोपी मर्भवती श्री स्व और श्रीम जिस मे बूम महरत और का उपयोग किया से जिम मे अम नही भारि का उपयोग किया हो से पीड़ित का ताल उरभाव र प्राणियों को धूम्रपान नहीं करना चाहिये। १- के सब मेद और उनका विधान कापि दूसरे बैंकों में देखना क्योंकि का विमान बहुत विस्तृत ६० ३ की मोाई गुप्त के समान हामी पाहिने ४ भाषा भानु म में भिमाने को है ॥ नमक कोई भाषा दिन कहते है तथा इसी जो रई से मन से मन् पति के सब भेद तथा उनका विद्याय आदि इस वैचक प्रथों में देखना चाहिये बहुत विचार दे द सान ॥ कि इस Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४४३ भावना-दवा के चूर्ण को दूसरे रस के पिलाने को ( दूसरे रस में भिगाकर शुष्क करने को ) भावना कहते है, एकवार रस में घोट कर या भिगा कर सुखाले, इस को एक भावना कहते है, इसी प्रकार जितनी भावनायें देनी हो उतनी देते चले जावें । ___ बाफ-बाफ कई प्रकारसे ली जाती है, बहुत सी सेंक और बांधने की दवायें भी बफारे का काम देती हैं, केवल गर्म पानी की अथवा किसी चीज को डाल कर उकाले हुए पानी की बाफ सॅकड़े मुखवाले वर्तन से लेनी चाहिये, इस की विधि पहिले के है। खवाले वर्तन से लेनी चाहिये, इसान को डाल कर __ बन्धेरण-किसी वनस्पति के पत्ते आदि को गर्म कर गरीर के दुखते हुए स्थान पर बॉघने को बन्धेरण कहते है। मुरव्वा-हरड़ आँवला तथा सेव आदि जिस चीज़ का मुरव्या बनाना हो उस को उबाल कर तथा धो कर दुगुनी या तिगुनी खाड या मिश्री की चासनी में डुबा कर रख छोड़ना चाहिये, इसे मुरब्बा कहते हैं।। मोदक-बड़ी गोली को मोदक कहते है, मेथीपाक तथा सोंठपाक आदि के मोदक गुड़ खाड़ तथा मिश्री आदि की चासनी में बाँधे जाते हैं । मन्थ-दवा के चूर्ण को दवा से चौगुने पानी मे डाल कर तथा हिला कर या मथकर छान कर पीना चाहिये, इसे मन्य कहते है । यवागू-कांजी-अनाज के आटे को छ'गुने पानी में उकाल कर गाढ़ा कर के उतार लेना चाहिये। लेप-सूखी हुई दवा के चूर्ण को अथवा गीली वनस्पति को पानी में पीस कर लेप किया जाता है, लेप दोपहर के समयमें करना चाहिये ठढी वख्त नहीं करना चाहिये, परन्तु रक्त पित्त, सूजन, दाह और रक्तविकार में समय का नियम नहीं है । १-जितने रस मे सव चूर्ण इव जावे उतना ही रस भावना के लिये लेना चाहिये, क्योंकि यही भावना का परिमाण वैद्यों ने कहा है ॥ २-इस का मुख्य प्रयोजन पसीना लाने से है कि पसीने के द्वारा दोष शरीर में से निकले ॥ ३-यदि कोई कडी वस्तु हो तो फिटकडी आदि के तेजाब से उसे नरम कर लेना चाहिये ॥ ४-मधुपक्क हरड आदि को भी मुरव्या ही कहते हैं। ५-अभयादि मोदक आदि मोदक कई प्रकार के होते हैं । ६-लेप के दो भेद हैं-प्रलेप और प्रदेह, पित्तसम्बधी शोथ मे प्रलेप तथा कफसम्बधी शोथ मे प्रदेह किया जाता है, (विधान वैयक ग्रन्थों में देखो)॥ ७-रात्रि में लेप नहीं करना चाहिये परन्तु दुष्ट व्रणपर रात्रि मे भी लेप करने में कोई हानि नहीं है, यह भी स्मरण रखना चाहिये कि प्राय लेपपर लेप नहीं किया जाता है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ चैनसम्प्रदायशिक्षा लपड़ी वा पोल्टिसो का माटा, मसी, नांव के पसे तगा कांदा प्रवि को जस में पीस कर या गर्म पानी में मिला कर ठगदी मना कर शोष (सूचन) वया गुमड़े भादिपर मांधना चाहिये, इसे सूपड़ी वा पोस्टिस कहते हैं। सफ सेंकई प्रकार से किया जाता है--कोरे कपड़े की वह से, रेत से, ईंट से, गर्म पानी से मरी हुई काप की शीधी से और गर्म पानी में उनाकर निपोरे हुए फग छैन मा उनी कपरे से अपना पाफ दिये हुए कपड़े से इत्यादि । स्वरस-किसी गीरी पनसति को मॉट (पीस) र भावश्यकता के समम योग सा मल मिला कर रस निनल मेना चाहिये, इसे स्वरस करते हैं, यदि वनस्पति मीगे न मिले तो सूसी दवा को भठगुने पानी में उबाल कर पौधा माग रसना चाहिये, मवमा २४ घण्टे सफ पानी में भिगाकर रस छोड़ना चाहिये, पीछे मर कर छान भेना पाहिले, गीठी वनस्पति के सरस के पीने की मात्रा वो वोठे है तमा सूसी बनस्पति के सरस की मात्रा चार सोरे है परन्तु पाठक को सरस की मात्रा भामा सोग देनी पाहिमे । हिम-भोपपि पूर्ण को गुने बस में रावमर मिगार जो मात कास धान कर लिया जाता है। उस को हिम कईसे हैं। क्षार-चो भादि वनस्पतियों में से बालार मावि धार (सार) निकाले जावे । इसी प्रकार मूली, कारपाठन (धीग्वारपाठा) या भोपासाला भावि भी बहुत सी पीमों का सार निकाला जाता है। इसके निकास्ने की यह रीति है कि वनस्पति को मूठ (जर) समेत उसादर उसके पपांग को बहा कर रास पर सेनी पाहिये, पीछे चौगुने जस में हिस्सा कर किसी मिट्टी के बर्तन में एक दिनतक रसार ऊपर का निवरा हुभा पर कपड़े से मन सेना 1-1-पोन रोपप और मेयाम ने वीप मुम्म मेरापीमा में-माग पिचपोरा में रोष सपए में पिसा प्रावाइन ATM बाद म सिम - मम् में देराम पारिये पर भी सामरकड रिम में पनपादिसे परम्नु भनि भाषरस पर्वाद ममा गामी ऐम ऐसे राति समय में भी परवा चाहिये। २-पानीमा मुख मन मनमी पो से परमे पिपरि यिपुर। -मसति पानी पीने कसरी अमि बीरप भारिसे दिमड़ी न हो। ४-ससरप वपा भमरस भी पती॥ मरम पा रए भी पर नापीवसाय भी पइस पीने श्री मात्रा पन मन् ॥ -निना में कार (ोणा) ने भी पति बानि पीएफ की पप एर पीस(O)मेरपी में मार मारेला में पा पाली मा ॥ बार मा पाय रिस पती पत्र में भरभरायपीसे गावी प्रसार पूर(पूर्ण गमा)nामगार सीधे पगार (मापार) प्रवे। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४४५ चाहिये, पीछे उस जल को फिर जलाना चाहिये, इस प्रकार जलानेपर आखिरकार क्षार पैंदी में सूख कर जम जायगा । सत - गिलोय तथा मुलेठी आदि पदार्थों का सत बनाया जाता है, इस की रीति यह है कि - गीली औषध को कूट जल में मथकर एक पात्र में जमने देना चाहिये, पीछे ऊपर का जल धीरे से निकाल डालना चाहिये, इस के पीछे पेंदी पर सफेदसा पदार्थ रह जाता है वही सूखने के बाद सेत जमता है । सिरका - अंगूर जामुन तथा साठे ( गन्ना वा ईख ) का सिरका बनाया जाता है, इसकी रीति यह है कि - जिस पदार्थ का सिरका बनाना हो उस का रस निकाल कर तथा थोड़ासा नौसादर डाल कर धूप में रख देना चाहिये, सड़ उठनेपर तीन वा सात दिन में बोतलों को भर कर रख छोड़ना चाहिये, इस की मात्रा आघे तोले से एक तोलेतक की है, दाल तथा शाक में इस की खटाई देने से बहुत हाजमा होता है, भोजन के पीछे एक घण्टे के बाद इसे पानी में मिलाकर पीने से पाचनशक्ति दुरुस्त होती है । गुलकन्द --- गुलाब या सेवती के फूलों की पॅखड़ियों की मिश्री बुरका कर तह पर तह देते जाना चाहिये तथा उसे ढँक कर रख देना चाहिये, जब फूल गल कर एक रस हो जावे तब कुछ दिनों के बाद वह गुलकन्द तैयार हो जाता है, यह बड़ी तरावट रखता है, उष्णकाल में प्रातःकाल इसे घोट कर पीने से अत्यन्त तरावट रहती है तथा अधिक प्यास नही लगती है । कुछ औषधों के अंग्रेज़ी तथा हिन्दी नाम ॥ हिन्दी नाम ॥ संख्या । अग्रेजी नाम || संख्या । अग्रेजी नाम ॥ १ इनफ्यूजन || २ एकवा ॥ एक्स्ट्राक्ट ॥ चाय ॥ पानी ॥ सत्व, घन ॥ ११ १२ १३ पलास्टर || पोल्टिस || फोमेनटेशन ॥ हिन्दी नाम ॥ लेप ॥ लूपड़ी ॥ सेंक ॥ १ - इस को सस्कृत में सत्व कहते हैं ॥ २ - इसे पूर्वीय देशों में छिरका भी कहते हैं, वहा सिरके में आम करोंदे बेर और खीरा आदि फलों को भी डालते हैं जो कि कुछ दिनतक उस में पड़े रह कर अत्यन्त सुस्वादु हो जाते 11 ३-अगूर का सिरका बहुत तीक्ष्ण ( तेज ) होता है ॥ ४-जामुन का सिरका पेट के लिये बहुत ही फायदेमन्द होता है, इस में थोडा सा काला नमक मिला कर पीने से पेट का दर्द शान्त हो जाता है ॥ ५- गुलकन्द मे प्राय वे ही गुण समझने चाहिये जो कि गुलाब वा सेवती के फूलो मे तथा मिश्री में है ॥ ___६ - यह शीतल, हृदय को हितकारी, ग्राही, शुक्रजनक ( वीर्य को उत्पन्न करनेवाला), हलका, त्रिदोषनाशक, रुधिरविकार को दूर करनेवाला, रंग को उज्वल करनेवाला तथा पाचन है ॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनसम्प्रदायशिक्षा ॥ १ एनिमा ॥ पिचकारी, पति ॥ ११ पाप।। वाफ, सान। ५ भोस्पम । तेस (सानेफा) ।। १५ पिएस्टर। फफोम उठाना। ६ अंम्वेन्टम ॥ मरहम ॥ १६ मिक्सचर ॥ मिठावट ॥ ७ कन्फेक्सन ॥ मुरमा, अचार ॥ १७ छाइकर ॥ प्रबाही ।। ८ टिंक्चर ।। भई ।। लिनिमेंट ॥ तेल (म्गाने ) ९ रिकोपसन। काना, उकाली।। १९ लोसन ॥ पोतापोने की दवा १० पस्तीस ॥ पूर्ण ॥ २० पाइन ।। आसन ॥ देशी तौल (पजन)॥ १ रती-पिरमीभर ॥ ८ पास-१ चीमनीमर ॥ ३ रची- १ माठ ॥ १५ मार-१ मठमीमर ॥ ३ मार-१ मासा ॥ ३२ बार-१ रुपयेमर ॥ ६ मासा१ ॥ १० रुपमेमर- सेर, पाऊँर, रसन । २ टक-१ सोसा॥ ८० रुपयेमर=१ सेर । १ पास अन्दामन १ धुमभीमर ॥ अंग्रजी तस भोर माप ॥ खुसी दवाइयों की साल ॥ पतन दमाइयों की माप ।। १ प्रेन =१ गईभर ॥ ६० द-भीनीम-१ राम ॥ २० प्रेन = सुपस ॥ ८ राम-१ माँस ॥ ३ सुपर-१ आम ॥ २० मौस-१ पीन्ट ! ८ ट्राम =१ भाँस ।। ८ पीर-१ म्मासन । १२ भांस =१ पाउण ॥ २ मेन -१ रची ॥ ६ प्रेन -१ बाठ ॥ १ भोंस -२|| रुपयेमर ॥ यो प्रबाही (पवली) दमाइया नारीगै मभया पहुत सेम मही होती हैं उनको सापारण रीति से ( पममा मावि मर ) मी पिला देते हैं, उस कम इस प्रकार है १टी सुम म् राम । १ जिर्ट सुन फम्-२ राम । १ टेनुन स्पुन फुर५ दाम भोस । १ पाइलम्सास फुछ-२ मॉस । १-पात भी सपा से प्र माना गया। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 r ur 9 v चतुर्थ अध्याय ॥ ४४७ अंग्रेजी में अवस्था के अनुसार दवा देने की देशी मात्रा ।। पूरी अवस्था के आदमी को पूरी मात्रा का परिमाण (१ भाग गिनें तो)॥ संख्या अवस्था ॥ माना॥ १ १ से ३ महीने के बालक को । पूरी मात्रा का ३६ ॥ २ ३ से ६ महीने के बालक को । पूरी मात्रा का ॥ ३ ६ से १२ महीने के बालक को ।। पूरी मात्रा का ३३॥ १ से २ वर्ष के बालक को ॥ पूरी मात्रा का है॥ २ से ३ वर्ष के बालक को ॥ पूरी मात्रा का ॥ ६ ३ से ४ वर्ष के बालक को । पूरी मात्रा का ॥ ४ से ७ वर्ष के बालक को॥ पूरी मात्रा का ॥ ८ ७ से १४ वर्ष के बालक को ॥ पूरी मात्रा का ३॥ ९ १४ से २१ वर्ष के जवान को । पूरी मात्रा का ॥ १० २१ से ६० वर्ष के पूर्णायु पुरुप को ॥ पूर्ण मात्रा देनी चाहिये ॥ विशेष वक्तव्य-एक महीने के बच्चे को एक वायविडग के दाने के वजन जितनी दवा देनी चाहिये, दो महीने के बच्चे को दो दाने जितनी दवा देनी चाहिये, इसी क्रम से प्रति महीने एक एक वायविड़ग जितनी मात्रा बढ़ाते जाना चाहिये, इस प्रकार से १२ महीने के बालक को बारह वायविडंग जितनी दवा चाहिये, जिस प्रकार बालक की मात्रा अवस्था की वृद्धि में बढ़ा कर दी जाती है उसी प्रकार साठ वर्ष की अवस्था के पीछे वृद्ध पुरुप की मात्रा धीरे २ घटानी चाहिये अर्थात् साठ वर्षतक पूरी मात्रा देनी चाहिये पीछे प्रति सात २ वर्ष से ऊपर लिखे क्रम से मात्रा को कम करते जाना चाहिये परन्तु धातु की भस्म तथा रसायनिक दवा की मात्रा एक राई से लेकर अधिक से अधिक एक वाल तक भी दी जाती है । अंग्रेजी-मात्रा॥ अधिक से अधिक अधिक से अधिक अधिक से अधिक एक औंस वजन ॥ एक ड्राम वजन ॥ एक स्कुपल वजन। १ १ से ६ महीनेतक॥ २४ ग्रेन ॥ ३ ग्रेन ॥ १ ग्रेन ॥ २ २ से १२ महीनेतक॥ २ स्क्रुपल ॥ ५ ग्रेन ॥ १॥ ग्रेन ॥ ३ १ से २ वर्षतक ॥ १ ड्राम ॥ ८ ग्रेन ॥ २॥ ग्रेन ॥ ४ २ से ३ वर्षतक ॥ १। ड्राम ॥ ९ ग्रेन ॥ ३ ग्रेन ॥ १-यह विषय प्राय देशी दवा के विषय में समझना चाहिये, अर्थात् अवस्था के अनुसार देशी दवा की माना यह समझनी चाहिये। सख्या अवस्था। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ बेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ 20 GP ५ ३ से ५ षपतफ ॥ १॥ राम ॥ १२ प्रेन ॥ १ प्रेन। ६ ५ से ७ वर्पतक ॥ २ राम ॥ १५ प्रेन ॥ ५ मेन । ७ से १० वर्पतक ।। ३ राम ।। २० प्रेन ॥ ७ प्रेन ॥ ८ १० से १२ पर्पस ॥ ॥भांस | ॥राम ॥ ॥ स्कुफ्र । ९ १२ से १५ वर्पतक ॥ ५ राम । १० मेन ॥ १. प्रेन ॥ १० १५ से २० षपेतक॥ ६ राम ॥ १५ मेन ॥ १५ प्रेन ॥ ११ २० से २१ वपतक॥ १ भोंस ॥ १ड्राम ॥ १ हपत ॥ विशेष सूचना-१-मात्रा अन्न मिस २ जगह मिसा हो वहां उसका मर्य या समझना चाहिये कि-इतनी दवा की मात्रा एफ टक (वस्स) की है। २-अबसा के अनुसार दवाइयों की मात्रा का भगन यपपि उसर मिला है परन्तु उस में भी ताकतवर पोर नावाकस (कममोर) की मात्रा में भपिकता सभा न्यूनता करनी पोहिमे समा सी भोर मनुप्य की जाति, मासु तथा रोग के प्रकार भाषि सब बातों का विचार कर दवाकी मात्रा देनी पाहिये। -पाक को नहरीठी दमा फभी नहीं देनी चाहिये, अफीम मिरी हुई वा भी चार महीने से कम अवस्थाबारे पाठक को नहीं देनी चाहिये, किन्तु इस से भषिक भयस्थापासे को देनी चाहिये और वह भी निक्षेप आवश्यम्सा ही म देनी चाहिम तभा देने के समय किसी विद्वान् पैप वा राक्टर की सम्मति लेकर देनी चाहिये । १-पूर्ण (डी) की मात्रा अधिक से मपिक दो पार के मन्दर देनी पाहिये तमा पतली दया पार भाने मर भपया एक छोटे चमचे भर देनी पाहिये परन्तु उस में दवाई के गुण दोप तया स्वभाव का पिचार भयश्य करना चाहिये। ५-जो दवा पूरी भवस्था के भावमी ने जिस बमन में दी जाने उसे उपर मिसे भनुसार अवस्थाक्रम से भाग कर देना चाहिये। ५-पाठाको सोठ मित्र पीपल भोर मा मिर्च भावि तीक्ष्ण भोपपि समा मावक (नधीठी) भोपपियां कभी नहीं देनी चाहिये । - रस परिप्रसार करने से पति भासमता म मि सचिम विचार रोषधिमाश में म्यूपिता रमेमी पाहिले. २-मामा पापी मासे में उसके पिर में भवेट पिचर उसमये ?R गरीर में सम्मिा पर बन भीर पर मे भनेकाम परवे - बार महीने से समस्पाम राम भम मिश्र रेरा पनि प्रमान से गया. ___-रिपेर भास्था में प्राथा पराजित देने से पास प्रभासी से पायो भीर रस से PAAI पहुंची। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४४९ ७-गर्भिणी स्त्री के लिये भिन्न २ रोगों की जो खास २ दवा शास्त्रकारों ने लिखी है वही देनी चाहियें, क्योंकि बहुत गर्म दवाइयां तथा दस्तावर और तीक्ष्ण इलाज गर्भ को हानि पहुँचाते है । ८- सब रोगों में सब दवाइया ताजी और नई देनी चाहियें परन्तु वायविडंग, छोटी पीपल, गुड़, धान्य, शहद और घी, ये पदार्थ दवा के काम के लिये एक वर्ष के पुराने लेने चाहियें | ९. - गिलोय, कुडाछाल, अडूसे के पत्ते, विदारीकन्द, सतावर, आसगंध और सौंफ, इत्यादि वनस्पतियों को दवा में गीली ( हरी.) लेना चाहिये तथा इन्हें दूनी नही लेना चाहिये । १० - इन के सिवाय दूसरी वनस्पतिया सूखी लेनी चाहियें, यदि सूखी न मिलें अर्थात् गीली (हरी) मिलें तो लिखे हुए वज़न से दूनी लेनी चाहियें । ११ - जो वृक्ष स्थूल और बड़ा हो उस की जड़ की छाल दवा में मिलानी चाहिये परन्तु छोटे वृक्षों की पतली जड़ ही लेनी चाहिये । १२- तमाम भस्म, तमाम रसायन दवायें तथा सब होते जावें त्यों २ गुणों में बढ़ कर होते हैं ( विशेष की गोलिया एक वर्ष के बाद हीनसत्त्व ( गुणरहित ) हो जाती है, चूर्ण दो महीने के बाद हीनसत्त्व हो जाता है, औषधों के योग से बाद हीनसत्त्व हो जाता है, परन्तु पारा गन्धक दवा में डालने से काष्ठादि रस दवाइया पुरानी . उन का गुण नहीं जाता है । १३ - काथ तथा चूर्ण आदि की बहुत सी दवाइयों में से यदि एक वा दो दवाइया न मिलें तो कोई हरज नहीं है, अथवा इस दशा में उसी के सदृश गुणवाली दूसरी दबाई मिले तो उसे मिला देनी चाहिये तथा नुसखे में एक दो अथवा तीन दवाइया रोग प्रकार के आसव ज्यो २ पुराने गुणकारी होते है ) परन्तु काष्ठादि वना हुआ घी तथा तेल चार महीने के हींगल और बच्छनाग आदि को शुद्ध कर होनेपर भी गुणयुक्त रहती है अर्थात् १- परन्तु साप आदि की वावी, दुष्ट पृथिवी, जलप्राय स्थान, श्मशान, ऊपर भूमि और मार्ग में उत्पन्न हुई ताजी दवाई भी नहीं लेनी चाहिये, तथा कीडों की खाई हुई, अग से जली हुई, शर्दी से मारी हुई, लू लगी हुई, अथवा अन्य किसी प्रकार से दूषित भी दवा नहीं लेनी चाहिये ॥ २ - तात्पर्य यह है कि लम्बी और मोटी जडवाले (वट पीपल आदि) की छाल लेनी चाहिये तथा छोटी जडवाले (कटेरी धमासा आदि) के सर्व अग अर्थात् जड, पत्ता, फूल, फल और शाखा लेवे, परन्तु किन्हीं आचार्यों की यह सम्मति है जो कि ऊपर लिखी है ॥ ३ - कुछ भोपधियों की प्रतिनिधि ओषधिया यहा दिखलाते है-जिन को उनके अभाव मे उपयोग में लाना चाहिये - चित्रक के अभाव मे दन्ती अथवा ओगा का खार, धमासे के अभाव में जवासा, तगर के अभाव मे कूठ, सूर्वा के अभाव में जिंगनी की त्वचा, अहिता के अभाव मे मानकन्द, लक्ष्मणा के अभाव में मोरसिखा, मौरसिरी के अभाव मे लाल कमल अथवा नीला कमल, नीले कमल के अभाव में कमोदनी, चमेली के अभाव में लौंग, आक आदि के दूध के अभाव में आक आदि के पत्तों का रस, पुहकरमूल फूल ५७ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनसम्प्रदायशिक्षा । के विरुद्ध हों तो उन्हें निकाल कर उस रोग को मिटानेवाली न सिसी हुई दवाइयों को भी उस नुसते में मिग देना पाहिये । ११-पदि गोटी मानने की कोई चीन (रस भावि ) न लिसी हो तो गोसी पानी में पांपनी चाहिये । १५-जिस जगह नुसले में बनन न सिसा हो वहां सप दवाइयां मरार मेनी चाहिये। १६-यदि घूण की मात्रा न सिसी हो तो यहाँ पूर्ण की मात्रा का परिमाण पाप मोठे से केफर एक तोळेतक समझना चाहिये परन्तु जहरीली चीज का यह परिमाण नही हा १७-इस ग्रन्म में विशेप दवाइयां नहीं दिखाई गई है परन्तु बहुत से प्रन्यों में प्रायः पवन मावि नहीं लिसा रहता है इस से भवित लोग पडामा फरते ई उमा कमी २ पवन आदि को न्यूनाधिक करके तकलीफ भी उठाते है, इस लिये सब के जानने सिस संक्षेप से महापर इस विपय ने सभित करना भत्यावश्यक समझा गया । यह चतुर्थ भध्यायका औपपश्योगनामझ तेरहवां प्रकरण समाप्त हुभा ।। भीर सियारीमा में पनर रेसभा में पापरामसभमा में पम भार मापी पस पापी मभाष में पमार पीट रामरोभभाव मादी रसात के अभाव में दामी सोरम मि समान में फिरपरी बसपा प्रभाष में सतमेस भारंगी मात्र में सात मपारी पा समान में मनमक, मुमध्यभभाष में पावनपुष भामरेस पभभाष म म परे भभाष में मारीमा पर रास भीर सम्मारी दोषोभभाष में कपुर प्रपूर मामभभाष में आम कस्तरीमभाव में प्रेम प्रे माप में बममै पपून परममाव में मुगएप मोरा भपका पटना कमर समात्र में पाम भये प्रम भीषण (देव समस) भमान में कपर पर भोर कम भाव में म परम सत्र पमर भभार में मोगा मतीम रे भभाष में मानरमामा रामभाव में भागा नामपर भभाष में कमा अपर महा मामेभार में मर जीरक समाभिमान में भरारीपर प्रोमी दार अप्रेम के भभार में मसर्मप भी निभभाप में पाराम पाराहीम भाग में पर्व पराय, निम भभार में मम्म परम भरा प्रिय ईपमान में भरसम पुन . अभय में नाम की मार में स्पमयी रोग मधिच (समधिम भीर रनवमधिम) भभाप में मर्म गर मुराधनपर रगतममक प्रभार में प्रविमरी मम्म प्रतिक मनार में (R0) मा मादी भाग में मोदी सौप सार भर में पुण्यापा मिश्रीनार में पर पूरा सफर पूरेमभाव में पपर गौर पर भभाष में मूम प्रस भगरा ममूरनरम मारि Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ चतुर्थ अध्याय ॥ चौदहवां प्रकरण-ज्वरवर्णन॥ ज्वर के विषय में आवश्यक विज्ञान ॥ ज्वर का रोग यद्यपि एक सामान्य प्रकार का गिना जाता है परन्तु विचार कर देखा जावे तो यह रोग बड़ा कठिन है, क्योंकि सब रोगों में मुख्य होने से यह सब रोगो का राजा कहलाता है, इसलिये इस रोग में उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, देखिये | इस भारत वर्ष में बहुत सी मृत्युथे प्रायः ज्वर ही के कारण होती हैं, इसलिये इस रोग के समय में इस के भेदों का विचार कर उचित चिकित्सा करनी चाहिये, क्योंकि भेद के जाने विना चिकित्सा ही व्यर्थ नहीं जाती है किन्तु यह रोग प्रबलता को धारण कर भयानक रूप को पकड़ लेता है तथा अन्त में प्राणघातक ही हो जाता है। ___ज्वर के बहुत से भेद हैं-जिन के लक्षण आदि भी पूर्वाचार्यों ने पृथक् २ कहे है परन्तु यह सब प्रकार का ज्वर किस मूल कारण से उत्पन्न होता है तथा किस प्रकार चढ़ता और उतरता है इत्यादि बातो का सन्तोषजनक (हृदय में सन्तोप को उत्पन्न करने वाला ) समाधान अद्यावधि ( आजतक ) कोई भी विद्वान् ठीक रीति से नहीं कर सका है और न किसी ग्रन्थ में ही इस के विषय का समाधान पूर्ण रीति से किया गया है किन्तु अपनी शक्ति और अनुभव के अनुसार सब विद्वानों ने इस का कथन किया है, केवल यही कारण है कि-बड़े २ विद्वान् वैद्य भी इस रोग में बहुत कम कृतकार्य होते है, इस से सिद्ध है कि-ज्वर का विषय बहुत ही गहन ( कठिन) तथा पूर्ण अनुभवसाध्य है, ऐसी दशा में वैद्यक के वर्तमान ग्रन्थों से ज्वर का जो केवल सामान्य स्वरूप और उस की सामान्य चिकित्सा जानी जाती है उसी को वहुत समझना चाहिये। __उक्त न्यूनता का विचार कर इस प्रकरण में गुरुपरम्परागत तथा अनुभवसिद्ध ज्वर का विषय लिखते है अर्थात् ज्वर के मुख्य २ कारण, लक्षण और उन की चिकित्सा को दिखलाते हैं-इस से पूर्ण आशा है कि केवल वैद्य ही नहीं किन्तु एक साधारण पुरुप भी इस का अवलम्बन कर ( सहारा लेकर ) इस महाकठिन रोग में कृतकार्य हो सकता है। ज्वर के स्वरूप का वर्णन ॥ शरीर का गर्म होकर तप जाना अथवा शरीर में जो खाभाविक ( कुदरती) उष्णता (गर्मी) होनी चाहिये उस से अधिक उष्णता का होना यह ज्वर का मुख्य रूप है, १-सस्थान, व्यजन, लिङ्ग, लक्षण, चिव और आकृति, ये छ शव्द रूप के पर्यायवाचक ( एकार्थवाची) हैं। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ बेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ परन्तु इस प्रकार से सरीर के सपने का क्या कारण है और वह (सपने की) क्रिया किस प्रकार होती है यह विषय बहुत सूक्ष्म है, देखी नैयाशासने भर के विषय में ही सिद्धान्त ठहराया है कि वात, पिच और कफ, ये तीनों दोप भयोम्म आहार और बिहार से कुपित होकर चठर (पेट) में जाकर ममि को बाहर निकाल कर ज्वर को उत्पम करते है, इस विषम का विचार करने से यही सिद्ध होता है कि-बात, पित्त और कफ, इन तीनों दोपो की समानता (परापर रहना) ही भारोम्मता का चिद है और इन की विस मता अर्थात् न्यूनापिकता (कम या ज्यादा होना) ही रोग का निभा उक दापों की समानता और विषमता केमन माहार मौर निहार पर ही निर्मर है। इस के सिवाय-इस विषय पर विचार करने से यह मी सिद्ध होता है कि असे शरीर में वायु की पदि दूसरे रोगों को उत्पम करती है उसी प्रकार मह वावग्नर मी उस्पस करती है, इसी प्रकार पिछ की अपिकसा अम्य रोगों के समान पिसमर को तथा कफ की भपिकसा अन्य रोगों के समान फज्मर को भी उत्सभ करती है, उक कम पर ध्यान देने से यह भी समझमें आ सकता है कि-इन में से दो दो दोपों की भषि कता भन्य रोग के समान दो दो दोपों के सामवासे नर को उत्पम करती है और तीनों दापों क विस्त होने से ये (तीनों दोप) मन्य रोगों के समान तीनो कोर्षों , यमबासे त्रिदोप ( सक्षिपात ) ज्वर को उत्पन्न करते ॥ वर के भेदों का वर्णन ॥ न्वर के मेवों का वर्णन करना एक बहुत ही कठिन विषय है, क्योकि मर की उत्पत्तिके अनेक कारण है, सभापि पूर्वापायों के सिदाम्त के अनुसार पपर फे परम को महाँ दिसावे हैं-मर क कारण मुत्सठया दो प्रकार है-मान्तर भार पाप, इन में से भान्तर कारण उन्हें परसे हैं जो कि शरीर के भीतर ही उस्म होते हैं तथा पाय कारण उन्हें कहते ह जो कि माहर स उत्तम हासे है, इन में से भान्तर कारणों के दो भेद -भाहार विहार की विषमता अर्थात् मागर ( मोमन पान) भादि की तमा बिहार (रोसना फिरना सभा सीसन आदि) की पिपमठा (विरुव पेश) से रस फा बिगाना भी उस स मर कर भाना, इस प्रमर कारण से सर साधारण पर उस्पन हो , जमे रि-सीन सो प्रथम २ दोपगारे, तीन दो २ वोपवासे तमा मिभित सीना दोपकाठा इत्यादि पनी कारणों से उत्पम हुए जरा में विषमज्वर आदि उपरी का भी समावस हा गाठा घरीर के अन्दर छोभ (सूमन) तमा गांठ भावि का हाना भाम्सर परण प्रदूमरा भर भभो भीवरी धाम ममा गठि मादि वेग से पर Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४५३ कहलाते है जो कि सब आगन्तुक ज्वरो ( जिन के कारण है, इन के सिवाय हवा में उड़ते हुए जो चेपी ज्वरों के परमाणु है उनका भी इन्ही कारणों में समावेश होता है अर्थात् वे भी ज्वर कारण माने जाते है || के का आना, ज्वर के बाह्य कारण वे विषयमें आगे लिखा जावेगा ) के देशी वैद्यकशास्त्र के अनुसार ज्वरों के भेद || देशी वैद्यकशास्त्र के अनुसार ज्वरों के केवल दश भेद है अर्थात् दश प्रकार का ज्वर माना जाता है, जिन के नाम ये है - वातज्वर, पित्तज्वर, कफज्वर, वातपित्तज्वर, वातकफज्वर, कफपित्तज्वर, सन्निपातज्वर, आगन्तुक ज्वर, विषमज्वर और जीर्णज्वर ॥ अंग्रेजी वैद्यकशास्त्र के अनुसार ज्वरों के भेद ॥ अंग्रेजी वैद्यकशास्त्र के अनुसार ज्वरों के केवल चार भेद है अर्थात् अंग्रेजी वैद्यक शास्त्र में मुख्यतया चार ही प्रकार का ज्वर माना गया है, जिन के नाम ये हैं- जारीज्वर, आन्तरज्वर, रिमिटेंट ज्वर और फूट कर निकलनेवाला ज्वर । इन में से प्रथम जारी ज्वर के चार भेद हैं-सादातप, टाइफस, टाईफोइड और फिर २ कर आनेवाला । दूसरे आन्तरज्वर के भी चार भेद हैं — ठढ देकर ( शीत लग कर ) नित्य आनेवाला, एकान्तर, तेजरा और चौथिया । तीसरे रिमिटेंट ज्वर का कोई भी भेद नहीं है, इसे दूसरे नाम से रिमिटेंट फीवर भी कहते हैं । चौथे फूट कर निकलने वालेज्वर के बारह भेद हैं- शीतला, ओरी, अचपड़ा ( आकड़ा काकड़ा ), लाल बुखार, रंगीला बुखार, रक्तवायु ( विसर्प ), हैजा वा मरी का तप, इनफ्लुएना, मोती झरा, पानी झरा, थोथी झरा और काला मूधोरों । इन सब ज्वरों का वर्णन क्रमानुसार आगे किया जावेगा ॥ १ - इस कारण को अग्रेजी वैद्यक में ज्वर के कारण के प्रकरण मे यद्यपि नहीं गिना है परन्तु देशी वैद्यकशास्त्र मे इस को ज्वर के कारणों में माना ही है, इस लिये ज्वर के आन्तर कारण का दूसरा मेद यही है | २-देशी वैद्यकशास्त्र के अनुसार ये चारों भेद विषम ज्वर के हो सकते हैं ॥ ३- देशी वैद्यकशास्त्र के अनुसार यह (रिमिटेट ज्वर ) विषमज्वर का एक भेद सन्ततज्वर नामक हो सकता है ॥ ४- अग्रेजी भाषा में ज्वर को फीवर कहते है ॥ ५ - देशी वैद्यकशास्त्र में मसूरिका को क्षुद्र रोग तथा मूधोरा नाम से लिखा है ॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ अनसम्प्रदायशिक्षा ॥ __ज्वर के सामान्य कारण ॥ भयोग्य आहार और भयोम्प पिहार दी ज्वर के सामान्य फारम है, क्योंकि हनी दोनों कारणों से शरीरस (शरीर में सिस) पातु विकत (विकार पुक) होकर ज्वरो उत्पन करता है। यह भी स्मरण रहे कि-अयोग्य माहार में पहुत सी मावों का समावेश होता है, वैसे पहुत गर्म सभा पहुत ठरी खुराक का साना, पहुत भारी सुराक का साना, विगड़ी हा और मासी खुराक का साना, प्रकृति के विरुद्ध स्वराक का खाना, धातु के विरुव सराक का साना, भूख से भषिक साना तथा पूपित (दोष से युक) बल का पीना, इस्मादि । इसी मनर भयोग्य विहार में भी बहुत सी पातों का समावेश होता है, बसे-पाव महनत का फरना, बहुत गर्मी उमा महुत ठंद का सेवन करना, महुत विकास करना प्रभा सराव दवा का सेवन करना, इत्यादि । मस मे ही दोनो कारण भनेक प्रकार के ज्वरों को उत्पन्न करते हैं। ज्वर के सामान्य लक्षण ॥ ज्वर के बाहर प्रकट होने के पूर्व मान्ति (मकापट), पिस की विफलता (पैनी)। मुस श्री विरसता (विरसपन षर्मात् साद न रहना), भासों में पानी न आना जमाई, टट हमा तथा धूप की वारवार इच्छा भोर भनिन्छा, भगों का टूटना, घरीर में भारीपन, रोमाप का होना (रोगटे खड़े होना) तया भोजन पर अरुषि इत्यादि पर होते है, किन्तु ज्वर के माहर प्रकट होने के पीछे (ज्वर भरने के पीछे ) स्वचा (पमही) गर्म मासुम पाती है, यही नर का प्रफट पिए है, स्वर में माय पिस भषमा गर्मी म मुरुम उपद्रव होता है, इस लिये ज्पर के प्रष्ट होने के पीछे शरीर में उप्णता के मरने के साथ उमर लिसे हुए सब पि मरम्पर पने रहते हैं। वातज्वर का वर्णन ॥ कारण-विरुर आहार और बिहार से फोप को प्राप्त हुभा पायु मामाशय (होजरी) - भोम्म भातार बर मयाय भिरार इन नोटाबामास में ferd Awaभारास भारि भानुभो विपरम Ant प्रेरता ॥ परिसर सपमान (परम) सम्प्राप्ति (पुर रोपस अपवार गगन ) पूती पति से पहिले पावि) मन (मरत रिमसि) उपशम (पप भारिसमारोपी मुरा मिसमे पान FARRUR ) ना बायत प्रसरोब मन में इस पाच प्रवासी भारावाशिम शिम जिय भार समर म को भवन -(भरब) भोर एक मनाalaबनवम tail नाम पिपल भाभतdah Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४५५ में जाकर उस में स्थित रस ( आम) को दूषित कर जठर (पेट) की गर्मी ( अग्नि) को बाहर निकालता है उस से वातज्वर उत्पन्न होता है । लक्षण-जभाई (बगासी) का आना, यह वातज्वर का मुख्य चिह्न है, इस के सिवाय ज्वर के वेग का न्यूनाधिक ( कम ज्यादा ) होना, गला ओष्ठ (होठ) और मुख का सूखना, निद्रा का नाश, छींक का बन्द होना, शरीर में रूक्षता ( रूखापन), दस्त की कवजी का होना, सब शरीर में पीड़ा का होना, विशेष कर मस्तक और हृदय में बहुत पीड़ा का होना, मुख की विरसता, शूल और अफरा, इत्यादि दूसरे भी चिह्न मालूम पडते हैं, यह वातज्वर प्रायः वायुप्रकृतिवाले पुरुष के तथा वायु के प्रकोप की ऋतु (वर्षा ऋतु) में उत्पन्न होता है। चिकित्सा-१-यद्यपि सब प्रकार के ज्वर में परम हितकारक होने से लड़न सर्वोपरि ( सब से ऊपर अर्थात् सब से उत्तम ) चिकित्सा (इलाज ) है तथापि दोष, प्रकृति, देश, काल और अवस्था के अनुसार शरीर की स्थिति ( अवस्था) का विचार कर लङ्घन करना चाहिये, अर्थात् प्रबल वातज्वर में शक्तिमान् ( ताकतवर) पुरुष को अपनी शक्ति का विचार कर आवश्यकता के अनुसार एक से छः लघन तक करना चाहिये, यह भी जान लेना चाहिये कि-लघन के दो भेद हैं-निराहार और अल्पाहार, इन में से बिलकुल ही नहीं खाना, इस को निराहार कहते हैं, तथा एकाध वख्त थोड़ी और हलकी खुराक का खाना जैसे-दलिया, भात तथा अच्छे प्रकार से सिजाई हुई मूग और अरहर (तूर) की दाल इत्यादि, इस को अल्पाहार कहते है, साधारण वात ज्वर में एकाध टक (बख्त ) निराहार लघन करके पीछे प्रकृति तथा दोष के अनुकूल ज्वर के दिनों की मर्यादा तक (जिस का वर्णन आगे किया जावेगा) ऊपर लिखे अनुसार हलकी तथा थोड़ी खुराक खानी चाहिये, क्योंकि-ज्वर का यही उत्तम पथ्य है, यदि इस का सेवन भली भाति से किया जावे तो औषधि के लेने की भी आवश्यकता नहीं रहती है। १-चौपाई-बडो वेग कम्प तन होई ॥ ओठ कण्ठ मुख सूखत सोई ॥ १॥ निद्रा अरु छिका को नासू ॥ रूखो अङ्ग कवज हो तासू ॥२॥ शिर हृद सव अंग पीडा होवै ॥ बहुत उयासी मुख रस खोवै ॥३॥ गाढी विष्टा मूत्र जु लाला ॥ उष्ण वस्तु चाहै चित चाला ॥ ४ ॥ नेत्र जु लाल रङ्ग पुनि होई ॥ उदर आफरा पीडा सोई ॥५॥ वातज्वरी के एते लक्षण ॥ इन पर ध्यानहि धरो विचक्षण ॥ ६ ॥ २-क्योंकि लघन करने से अग्नि (आहार के न पहुंचने से) कोठे मे स्थित दोषों को पकाती है और जव दोप पक जाते हैं तव उन की प्रबलता जाती रहती है, परन्तु जव लघन नहीं किया जाता है अर्थात् आहार को पेट मे पहुँचाया जाता है तव अग्नि उसी आहार को ही पकाती है किन्तु दोषों को नहीं पकाती है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ २-पदि वाषित उमर कहे हुए कंपन का सेवन करने पर भी बर न उतरे तो सम प्रकार के परमागे को सीन दिन के पाद इस औषधि का सेवन करना चाहिये-देक्वार पो रूपमे मर, पनिया वो रुपये भर, सौंठ दो रुपये भर, राँगणी दो रुपये मर तमा बड़ी श्याम दो रुपये मर, इन सब मोपलों को कट कर इस में से एक रुपये भर भोपप का पता पार भर पानी में पढ़ा कर तथा रे छटॉक पानी के पाकी रहने पर छान कर लेना चाहिये, क्योंकि इस काम से ज्वर पाचन को माप्त होकर (परिपक होकर) उतर जाता है। ३-भाबना बर पाने के सातवें दिन दोप के पाचन के लिये गिलोय, सौंठ और पीपरा मूस, इन तीनों औपपों के काम का सेवन ऊपर सिले भनुसार करना चाहिये, इस से दोष का पाचन होकर ज्वर उतर बाता है। पिचवर का वर्णन ।। कारण-पित्त को बढ़ानेकाने मिथ्या माहार और विहार से बिगड़ा हुमा पिए भामाश्चम (होमरी) में बाफर उस (भामाश्चम) में स्थित रस को पूपित कर मठर भी गर्मी को बाहर निम्ता है तथा मठर में स्थित गायु को भी कुपित परसा है, इस मिले कोप को प्राप्त हुमा बासु भपने समाग के अनुकूल बटर की गर्मी को बाहर निकायो उस से पिवजार उत्पन्न होता है। सक्षण-सों में वाह (मग्न) का होना, मह पिचम्मर र मुस्म मलम है, इस के सिवाय पर का तीक्ष्ण बेग, प्यास का अस्पत लगना, निद्रा बोरी माना, भसीसार भात् पिच के वेग से दस्त का पतग होर्नो, कण्ठ पोष्ठ (मोठ) मुस भौर नासिन 1- मी मरम रखना चाहिये -एक रोप इफ्ति होम मरे रोष में भी अपित या विश्व (विपर बुध) सप्ता -पायु प्रारूप वा समान वायुरोप ( मार पित्त) अनु (रस और रच भाषि) और मागे एक स्पाम से सरे स्पन पर पगावाम्म मातपरी (माती परमे पाम), रये 5 पाम साम (गुर पारीक बर्ष देखने में म मानेगाा) व (रण) पीतम (मा) एप बम बम (एक पपा पर न रामेराम) इस (वायु) के पार मेर-पराप मात्र समान भपान और मान इन में से 3 मैं गाल पर में प्राण नामि में समान गुरा में पान और सम्पूर्ण परीर मे मान पापु गाइन पांगी सामु पुषहरप्रमादिप पा सरे रे मम्मों में रेप नी पारि रहा राम प्रसय मिनार के मन से वम भापक समय पर नई पर । १-धीपार-वषण पेय तुपा भप्रय मिदा मत्सर मविसाप 10 कठ ठ मुस मासा पाके मुण राह विच भ्रम पारे । परसा मकर मुप पापारा । बमवर भाबरम्यारा ॥ पीकपरबार विस रमेन तेजप्रापम पाई। मंत्र मूत्र पुनि मापावा। पिच पर मन मीता ॥५॥ ४-मभर में पिचपरयपतोतारे परम्नुस पतके पचने से बाहर रोमन समय या वादिष। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४५७ (नाक) का पकना तथा पसीनों का आना, मूर्छा, दाह, चित्तभ्रम, मुख में कडुआपन, प्रलाप (बड़बड़ाना), वमन का होना, उन्मत्तपन, शीतल वस्तु पर इच्छा का होना, नेत्रो से जल का गिरना तथा विष्ठा (मल) मूत्र और नेत्र का पीला होना, इत्यादि पित्तज्वर में दूसरे भी लक्षण होते है, यह पित्तज्वर प्रायः पित्तप्रकृतिवाले पुरुष के तथा पित्त के प्रकोपकी ऋतु (शरद् तथा ग्रीष्म ऋतु) में उत्पन्न होता है। चिकित्सा-१-इस ज्वर में दोष के बल के अनुसार एक टंक (बख्त ) अथवा एक दिन वा जब तक ठीक रीति से भूख न लैंगे तब तक लंघन करना चाहिये, अथवा मूंग की दाल का पानी, भात तथा पानी में पकाया (सिजाया) हुआ साबूदाना पीना चाहिये। २-अथवा-पित्तपापड़े वा घासिया पित्तपापड़े का कौढा, फाट वा हिम पीना चाहिये । . ३-अथवा-दाख, हरड़, मोथा, कुटकी, किरमाले की गिरी ( अमलतास का गूदा) और पित्तपापड़ा, इन का काढ़ा पीने से पित्तज्वर, शोष, दाह, भ्रम और मूर्छा आदि उपद्रव मिटकर दस्त साफ आता है । ४-अथवा-पित्तपापड़ा, रक्त (लाल) चन्दन, दोनों प्रकार का (सफेद तथा काला) बाला, इन का काथ, फाट अथवा हिम पित्तज्वर को मिटाता है। ५-रात को ठंढे पानी में भिगाया हुआ धनिये का अथवा गिलोय का हिम पीने से पित्तज्वर का दाह शान्त होता है । ६-यदि पित्तज्वर के साथ में दाह बहुत होता हो तो कच्चे चावलों के धोवन में थोड़े से चन्दन तथा सौंठ को घिस कर और चावलों के धोवन में मिला कर थोड़ा शहद और मिश्री डाल कर पीना चाहिये । १-चित्तभ्रम अर्थात् चित्त का स्थिर न रहना ।। २-दोप के वल के अनुसार अर्थात् विकृत ( विकार को प्राप्त हुआ) दोप जैसे लघन का सहन कर सके उतना ही और वैसा ही लघन करना चाहिये ॥ ३-दोष के विकार की यह सर्वोत्तम पहिचान भी है कि जब तक दोष विकृत तथा कच्चा रहता है तय तक भूख नहीं लगती है ॥ ४-काढा, फाट तया हिम आदि बनाने की विधि इसी अध्याय के औषधप्रयोगवर्णन नामक तेरहवें प्रकरण में लिख चुके है, वहा देख लेना चाहिये ॥ ५-मोथा अर्थात् नागरमोथा ( इसी प्रकार मोथा शब्द से सर्वत्र नागरमोथा समझना चाहिये )॥ ६-शोप अर्थात् शरीर का सूखना ॥ ७-याला अर्थात् नेत्रवाला, इस को सुगधवाला भी कहते हैं, यह एक प्रकार का सुगन्धित (खूशबूदार) तृण होता है, परन्तु पसारी लोग इस की जगह नाडी के सूखे साग को दे देते हैं उसे नहीं लेना चाहिये ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदायशिक्षा || कफज्वर का वर्णन ॥ कारण – कफ को महानेमाले मिथ्या आहार और विहार से दूषित हुआ कफ ठर में खाकर तथा उस में स्थित रस को दूषित कर उस की उष्णता को बाहर निकालता है, एष कुपित हुआ वह कफ वायु को भी कुपित करता है, फिर कोप को प्राप्त हुआ बायु उप्पा को बाहर लाता है उस से कफम्मर उत्पन्न होता है । १५८ लक्षण है, इस के लक्षण – भन पर मरुचि का होना, यह कफज्वर का मुख्य सिवाय अर्गों में भीगापन, ज्मर का मन्य वेगे, मुख का मीठा होना, भाबस, तृषि का माम होना, छीत का साना, देह का भारी होना, नींव का अधिक आना, रोमा का होना, छेप्म (कफ) का गिरना, भ्रमन, उबाकी, मला मूत्र, नेत्र, स्वचा और नल का श्वेत (सफेद) होना, श्वास, खांसी, गर्मी का प्रिय उगना और मन्दामि इत्यादि दूसरे भी वह इस ज्वर में होते हैं, यह कफज्वर प्राय कफपकविणाके पुरुष के तथा कफ के 1 कोप की ऋतु ( वसन्त ऋतु ) में उत्पन होता है । चिकित्सा - १-कफज्वरवाले रोगी को अपन विचेप सब होता है सभा मोम्ब कंपन से दूपित हुए दोष का पाचन भी होता है, इसलिये रोगी को अब तक अच्छे मकार से भूख न लगे तब तक नहीं खाना चाहिये, अथवा मूंग की दाल का भोसामण पीना चाहिये । २ - गोम का काडा, फांट अथवा हिम शहद डालकर पीना चाहिये । ३-छोटी पीपल, हरड़, बहेड़ा और औसा, इन सब को समभाग ( बराबर ) लेकर तथा चूर्ण कर उस में से तीन मासे भ्रूण को शहद के साथ चाटना चाहिये, इस से कफ उबर तथा उस के साथ में उत्पन्न हुए खांसी श्वास मोर फफ दूर हो जाते हैं । १-कफ को बड़वार-सिम्मी तथा सपुर पक्ष वा कफ को वि अधिक थिए आदि जानने चाहिये ॥ १ सोपाई - नमी रहई उस वृति श्री वन गइ १० भारी व भवि शिरोम उपसचि मूत्र मरा दिया जासू व मेवा ॥२॥ दमण उवाकी उप मम एक पर भी ४० है इसका भी मेम मग है । कासमा तृप्तिकारक (तुसि करने) तिने कम्पन का विशेष इन विवाहमय हो जाए लिग पर कवि महोन से भी उसको सपना है ॥ रात्रि पान Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४५९ ४-इस ज्वर में अडूसे का पत्ता, भूरीगणी तथा गिलोय का काढ़ा शहद डाल कर पीने से फायदा करता है ॥ द्विदोषज (दो २ दोर्षावाले) ज्वरों का वर्णन ॥ पहिले कह चुके है कि-दो २ दोषवाले ज्वरों के तीन भेद है अर्थात् वातपित्तज्वर, वातकफज्वर और पित्तकफज्वर इन दो २ दोपवाले ज्वरो में दो २ दोषों के लक्षण मिले हुए होते है', जिन की पहिचान सूक्ष्म दृष्टि वाले तथा वैद्यक विद्या में कुशल अनुभवी वैद्य ही अच्छे प्रकार से कर सकते हैं , इन दोर दोषवाले ज्वरों को वैद्यक शास्त्र में द्वन्द्वज तथा मिश्रज्वर कहा गया है, अब क्रम से इन का विषय सक्षेप से दिखलाया जाता है । वातपित्तज्वर का वर्णन ॥ लक्षण-जॅभाई का बहुत आना और नेत्रों का जलना, ये दो लक्षण इस ज्वर के मुख्य है, इन के सिवाय-प्यास, मूर्छा, भ्रम, दाह, निद्रा का नाश, मस्तक में पीड़ा, वमन, अरुचि, रोमाञ्च (रोंगटो का खड़ा होना), कण्ठ और मुख का सूखना, सन्धियों में पीड़ा और अन्धकार दर्शन ( अँधेरे का दीखना), ये दूसरे भी लक्षण इस ज्वर में होते है। चिकित्सा -१-इस ज्वर में भी पूर्व लिखे अनुसार लङ्घन का करना पथ्य है। १-भूरीगणी को रेगनी तथा कण्टकारी (कटेरी) भी कहते है, प्रयोग में इस की जड ली जाती है, परन्तु जड न मिलने पर पञ्चाङ्ग (पाचों अग अर्थात् जड, पत्ते, फूल, फल और शाखा) भी काम में आता है, इस की साधारण मात्रा एक मासे की है ॥ २-अर्थात् दोनों ही दोपों के लक्षण पाये जाते हैं, जैसे-वातपित्तज्वर मेवातज्वर के तथा पित्तज्वर के ( दोनों के) मिश्रित लक्षण होते हैं, इसी प्रकार वातकफज्वर तथा पित्तकफज्वर के विपय मे भी जान लेना चाहिये ॥ ३-क्योंकि मिश्रित लक्षणो मे दोषों के अशाशी भाव की कल्पना ( कौन सा दोप कितना बढा हुआ है तथा कौन सा दोष कितना कम है, इस बात का निश्चय करना) वहुत कठिन है, वह पूर्ण विद्वान् तथा अनुभवी वैद्य के सिवाय और किसी (साधारण वैद्य आदि) से नहीं हो सकती है ॥ ४-इन दो २ दोपवाले ज्वरो के वर्णन मे कारण का वर्णन नहीं किया जावेगा, क्योंकि प्रत्येक दोपवाले ज्वर के विपय में जो कारण कह चुके हैं उसी को मिश्रित कर दो २ दोपवाले ज्वरों में समझ लेना चाहिये, जैसे-वातज्वर का जो कारण कह चुके है तथा पित्तज्वर का जो कारण कह चुके हैं इन्हीं दोनों को मिलाकर वातपित्तज्वर का कारण जान लेना चाहिये, इसी प्रकार वातकफज्वर तथा पित्तकफज्वर के विषय में भी समझ लेना चाहिये । ५-चौपाई-तृपा मूरछा श्रम अरु दाहा ॥ नीदनाश शिर पीडा ताहा ॥ १॥ अरुचि वमन जृम्भा रोमाचा ॥ कण्ठ तथा मुखशोष हु सोचा ॥२॥ सन्धि शूल पुनि तम हू रहई ॥ वातपित्तज्वर लक्षण अहई ॥ ३ ॥ ६-पूर्व लिखे अनुसार अर्थात् जब तक दोषों का पाचन न होवे तथा भूख न लगे तव तक लघन करना चाहिये अर्थात् नहीं खाना चाहिये ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनसम्प्रदापशिक्षा || २-चिरायता, गिलोय, दास, ऑपग और कपूर, इन का काला कर के ठगा उसमें त्रिवर्षीय (सीन वप का पुराना ) गुरु ठाठ फर पीना चाहिये। २-मवा-गिरोय, पिचपापहरा, मोबा, चिरापता भोर सोठ, इन का काम कर पीना चाहिये, यह पपमा काम वातपित्तज्वर में भतिलगभदायक (फायदेमन्द) माना गया है। वातकफवर का वर्णन ॥ लक्षण-माई (उपासी) का भाना और भपि, ये दो सक्षम इस मर मुस्म, इनके सिवाय-सन्धियों में फटनी (पीग न होना), मखक का भारी होना, निद्रा, गीले कपड़े से वह को सकने के समान मासूम होना, हा भारीपन, सांसी, नाक से पानी का गिरना, पसीने का माना, शरीर में वाह का होना सभा बर का मम्मम मेगे, ये दूसरे मी पक्षण इस घर में होते हैं। चिकित्सा -१-दस वर में भी पूर्व मिसे अनुसार उपन का फरना पगा। २-पसर फटागी, सोंठ, गिलोय भौर एरण की अर, इन का काला पीना चाहिक यह समानादि काम है। २-फिरमाळे (अमस्तास) की गिरी, पीपासून, मोबा, फुटकी भोर मो इस (छोटी मर्यात् फासी रे), इन का फाा पीना पाहिये, या भारग्ननादिकावर -अथवाकेमर (भकेली) छोटी पीपस की उफानी पीनी पाहिये । पिचफफचर का वर्णन ॥ लक्षण नेत्रों में वाह भौर मरुपि, ये दो साण इस पर के मुस्म , न सिवाय तन्द्रा, मी, मुसका फफ से मिस होना (रिसा राना), पिसके मोर से मुस १-सोसार पुर गाव मिव गम्भा बषि से ममम दियात स्प स पोमस सही ॥१॥ पीर प भायै श्रेय सन्धि पोर मया पो वैप विषारै ओर ये मनावरे. २-या साम्रगतिवामनपर मम्बगविरामसरे मौके संयोग पावला मम्पमयमामाता॥ बाभारपवादिबाप-दीपन (ममि में प्रदीप्त परमेवान्म) पापन (रोगों से पम्नेगाम) या संपोषण (मय पार रो पत्रमपार निभानेवाम) भी है, इसमें गुमने पेही पलों का पाचन बार ऐर पर पेशीम मुखिहरमा)बाती ४-सोळा-मुख घना परत मार्ग परषि ॥ बार पार में सात पार पार में तप्त ॥ लिप्त बिरस मुरणाम पेत्र समन भरमस से। न्धन व मम पितकपरवरपरी ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४६१ में कडुआहट (कडुआपन, ), खासी, प्यास, वारंवार दाह का होना और वारंवार शीत का लगना, ये दूसरे भी लक्षण इस ज्वर में होते है। चिकित्सा-१-इस ज्वर में भी पूर्व लिखे अनुसार लंघन का करना पथ्य है । २-जहा तक हो सके इस ज्वर में पाचन ओषधि लेनी चाहिये । ३-रक्त (लाल) चन्दन, पदमाख, धनियाँ, गिलोय और नींव की अन्तर ( भीतरी) छाल, इन का काढ़ा पीना चाहिये, यह रक्तचन्दनादि कार्थ है। ४-आठ आनेभर कुटकी को जल में पीस कर तथा मिश्री मिला कर गर्म जल से पीना चाहिये। ५-अडूसे के पत्तों का रस दो रुपये भर लेकर उस में २॥ मासे मिश्री तथा २॥ मासे शहद को डाल कर पीना चाहिये ॥ सामान्यज्वर का वर्णन ।। कारण तथा लक्षण-अनियमित खानपान, अजीर्ण, अचानक अतिशीत वा गर्मी का लगना, अतिवायु का लगना, रात्रि में जागरण और अतिश्रम, ये ही प्रायः सामान्यज्वर के कारण है, ऐसा ज्वर प्रायः ऋतु के बदलने से भी हो जाता है और उस की मुख्य ऋतु मार्च और अप्रेल मास अर्थात् वसन्तऋतु है तथा सितम्बर और अक्टूवर मास अर्थात् शरदऋतु है, शरदऋतु में प्रायः पित्त का बुखार होता है तथा वसन्तऋतु में प्राय. कफ का बुखार होता है, इन के सिवाय-जून और जुलाई महीने में भी अर्थात् बरसात की वातकोपवाली ऋतु में भी वायु के उपद्रवसहित ज्वर चढ़ आता है। ऊपर जिन भिन्न २ दोषवाले ज्वरों का वर्णन किया है उन सबों की भी गिनती इस (सामान्य ज्वर ) में हो सकती है, इन ज्वरों में अन्तरिया ज्वर के समान चढ़ाव उतार नहीं रहता है किन्तु ये ( सामान्यज्वर ) एक दो दिन आकर जल्दी ही उतर जाते है। १-यह क्वाथ दीपन और पाचन है तथा प्यास, दाह, अरुचि, वमन और इस ज्वर (पित्तकफज्वर) को शीघ्र ही दूर करता है। २-यह मोपधि अम्लपित्त तथा कामलासहित पित्तकफज्वर को भी शीघ्र ही दूर कर देती है, इस ओषधि के विषय में किन्हीं आचार्यों की यह सम्मति है कि असे के पत्तों का रस (ऊपर लिखे अनुसार) दो तोले लेना चाहिये तथा उस में मिश्री और शहद को (प्रत्येक को) चार २ मासे डालना चाहिये ॥ ३-अर्थात् इन कारणों से देश, काल और प्रकृति के अनुसार-एक वा दो दोप विकृत तथा कुपित होकर जठरामि को बाहर निकाल कर रसों के अनुगामी होकर ज्वर को उत्पन्न करते हैं। ४-ऋतु के वदलने से ज्वर के आने का अनुभव तो प्राय वर्तमान में प्रत्येक गृह में हो जाता है ॥ ५-क्योंकि शरदऋतु में पित्त प्रकुपित होता है । ६-पसीनों का न आना, सन्ताप (देह और इन्द्रियों मे सन्ताप ), सर्व अंगों का पीडा करके रह जाना अथवा सब अगों का स्तम्भित के समान (स्तव्ध सा) रह जाना, ये सब लक्षण ज्वरमात्र के साधारण है अर्थात् ज्वरमात्र में होते हैं इन के सिवाय शेष लक्षण दोषों के अनुसार पृथक् २ होते हैं। . . ... Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा || चिकित्सा -- १-सामान्यज्वर के लिये माय वही चिकित्सा हो सकती है जो कि भिन्न २ दोषवाले ज्यरों के लिये लिखी है । २ - इस के सिवाय इस ज्वर के किये सामान्यचिकित्सा तथा इस में रखने योग्य कुछ नियमों को खिलते हैं उन के अनुसार वर्षाव करना चाहिये । ४१२ ३- जब तक ज्वर में किसी एक दोष का निश्चय न हो वहां तक विशेष चिकित नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सामान्मज्वर में विशेष चिकित्सा की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु एकाष टेक (स्त) लेमन करने से, भाराम लेने से इसकी खुराक के स्वाने से तथा यदि वस्त की कम्जी हो तो उस का निवारण करने से ही मह ज्वर उतर जाता है। 8 - इस ज्गर के प्रारम्भ में गर्म पानी में पैरों को जुबाना चाहिये, इस से पसीन्प्र आकर ज्वर उतर जाता है । ५- इस पर मे ठेठा पानी नहीं पीना चाहिये किन्तु तीन उफान आने तक पानी को गर्म कर के फिर उस को ठंडा करके प्यास के खाने पर थोड़ा २ पीना चाहिये । ६ - सोंठ, काली मिर्च और पीपल को मिस कर उस का भञ्जन अस्ति में करवाया पाहिये । ७ बहुत खुली हवा में सभा खुसी हुई छत्र पर नहीं सोना चाहिये । ८ - स्वयप्रदेश में (मारवाड़ आदि मान्स में ) मामरी का घडिमा, पूर्व देश में भाव की कांजी मा मोड, मध्य मारवाड़ में मूंग का ओसामण वा भात सभा दक्षिण में परहर (तूर ) फी पतली दाल का पानी भगवा उस में भाव मिला कर स्वाना चाहिये । ९ - यह भी स्मरण रहे कि यह उमर जाने के बाद कभी २ फिर भी वापिस मा जाता है इस लिये इस के खाने के बाद भी परम रस्खमा चाहिये अर्थात् जब तक शरीर में पूरी ठाकत न भा जाने तन तक भारी भन्न नहीं खाना चाहिमे समा परिश्रम का काम भी नहीं करना चाहिये । १माम्बर में दोपनिष हुए बिना विशेष विकिरसा करने से कभी १ बडी भारी हानि भी भादोष अधिक प्रकुपित हो कर तथा प्ररूप धारण कर रोमी के प्राणघातक हो जाते है क्योंकि पीने के द्वारा अर की भीतरी वर्मा तथा उसमे बाहर न जाता है कारमविक्षेप के सिवाय भर में आप दानप व क्योंकि मान्य गम है प्र ( हानिकारक ) ४-मर के जाने के बाद पूरी प्रति के आने तक भारी भ्रम का पाना तथा परिश्रम के कार्यक निषि दोनि के वायाम (रस्पर) मेथुन आम पर उपर वि मेवा करना विशेष हवा का पाना वा अधिक श्री जब का सेवन मे कार्य भी विपिन दे Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १० - वातज्वर में जो काढ़ा दूसरे नम्बर में लिखा है उसे लेना चाहिये । ११ - गिलोय, सोंठ और पीपरामूल, इन का काढ़ा पीना चाहिये । १२ - भूरीगणी, चिरायता, कुटकी, सोठ, गिलोय और एरण्ड की जड़, इन का काढ़ा पीना चाहिये । १३ - दाख, धमासा और असे का पत्ता, इन का काढ़ा पीना चाहिये । १४ - चिरायता, बाला, कुटकी, गिलोय और नागरमोथा, इन का काढ़ा पीना चाहिये । १५ - ऊपर कहे हुए कादो में से किसी एक काथ ( कादो ) को विधिपूर्व के तैयार कर थोडे दिन तक लगातार दोनों समय पीना चाहिये, ऐसा करने से दोष का पाचन और शमन (शान्ति) हो कर ज्वर उतर जाता है | सन्निपातज्वर का वर्णन ॥ ४६३ १ - अर्थात् देवदार्वादि क्वाथ (देखो वातज्वर की चिकित्सा में दूसरी सख्या ) ॥ २- यह काढा दीपन और पाचन भी है | ३- काढे की विधि पहिले तेरहवे प्रकरण में लिख चुके है ॥ तीनों दोपों के एक साथ कुपित होने को सन्निपात वा त्रिदोष प्रायः सब रोगो की अन्तिम ( आखिरी ) अवस्था ( हालत ) में हुआ दशा ज्वर में जब होती है तब उस ज्वर को सन्निपातज्वर कहते है, दोष की प्रबलता तथा दो दोषो की न्यूनता से तथा किसी में दो दोषों की एक दोष की न्यूनता से इस ज्वर के वैद्यकशास्त्र में एकोल्वणादि ५२ भेर्द तथा इस के तेरह दूसरे नाम भी रख कर इस का वर्णन किया है । यह निश्चय ही समझना चाहिये कि - यह सन्निपात मौत के विना नहीं होता है चाहे मनुष्य वोलता चालता तथा खाता पीता ही क्यों न हो । यह भी स्मरण रखना चाहिये कि - सन्निपात को जाननेवाला अनुभवी वैद्य ही पहिचान सकता है, निदान और कालज्ञान को पूर्णतया किन्तु मूर्ख वैद्यो को तो अन्तदशा तक में भी इस का पहिचानना कठिन है, हा यह निश्चय है कि- सन्निपात के वा त्रिदोप के साधारण लक्षणों को विद्वान् वैद्य तथा डाक्टर लोग सहज में जान सकते है । कहते है, यह दशा करती है, यह किसी में एक प्रबलता और दिखलाये है ち ४-अर्थात् अपक्क ( कच्चे ) दोप का पाचन और बढे हुए दोप का शमन होकर ज्वर उतर जाता है ॥ ५- तात्पर्य यह है कि- सन्निपात की दशा मे दोपों का सँभालना अति कठिन क्या किन्तु असाध्य सा हो जाता है, बस वही रोग की वा यों समझिये कि प्राणी की अन्तिम ( आखिरी ) अवस्था होती है, अर्थात् इस संसार से विदा होने का समय समीप ही आजाता है ॥ ६-उन सव ५२ भेदों का तथा तेरह नामों का वर्णन दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देख लेना चाहिये, यहा पर अनावश्यक समझकर उन का वर्णन नहीं किया गया है ॥ ७-तात्पर्य यह है कि तीनों दोषों के लक्षणों को देख कर सन्निपात की सत्ता का जान के लिये कुछ कठिन बात नहीं हैं परन्तु सन्निपात के निदान ( मूलकारण ) तथा दोषों के निश्चय करना पूर्ण अनुभवी वैद्य का ही कार्य है ॥ लेना योग्य वैद्यों अशाशीभाव का Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ मसम्प्रदामशिक्षा ॥ इस के सिवाय यह भी देसा गया है कि रात दिन के सम्मासी अपठित (विना पो हुए) भी बहुत से बन मृत्यु के रिहों को प्राय अनेक समयों में मतला ठे, सासर्व सिर्फ यही है कि-"जो जामें निशदिन रहत, सो तामें परवीन" भात् विस कर बिस मिपय में रात दिन का भम्पास होता है वह उस विषय में प्राय प्रवीण हो खाता है, परन्तु यह पात सो भनुमय से सिद्ध हो चुकी है कि-सनिपात स्वर के यो १५ भेद कहे गये हैं उन के पतलाने में तो अच्छे २ चतुर वैषों को भी पूरा २ विचार करना पाता अर्थात् यह भमुक प्रकार का सनिपात है इस पाठ का पसताना उनकी मी महा कठिन पर माता है। इन सब बातों न विचार कर यही का वा सकता है कि-बो देय समिपात की योम्प पिकिस्सा कर मनुष्य को बचाता है उस पुण्यवान् वैष की प्रचसा के मिलने में खेसनी सर्वमा भसमर्म रे, यदि रोगी उस वेप को अपना सन मन भौर पन बात सर्वस भी ये देने सो भी वह उस मैप का यमोचित प्रस्तुपकार नहीं कर सकता है मोद बदला नहीं उतार सकता है किन्तु वह (रोगी) उस वेप का सर्वदा प्राणी ही रहता। यहाँ हम सहिपाववर के ममम सामान्य सक्षम और उसके बाद उसके विषय में मावश्यक सूपना कोही सिलेंगे फिन्तु सतिपात के १३ मेदों को नहीं मिलेंगे, इस का परम केवल यही है कि सामान्य बुदिमा बन उस विषय को नहीं समझ सकते हैं मोर हमारा परिभम केवल गास्म छोगों ने इस विषय का ज्ञान कराने मात्र के मियेन्न्तुि उनमें - वैप बनाने के लिये नहीं है, क्योंकि गृहस्मयन तो यदि इस के विषय में इतना मी मान मेंगे तो मी उमके सि इतना ही पान (मिसना हम सिते) मत्पन्त हिटलरी होगा। लक्षण-जिस घर में पात, पित मौर कफ, ये तीनों दोष कोप को प्राप्त हुए रोठे -चौपाई-पपन पाचीव पुनि । प्रग सम्बि सिर सोहे परते बर बीर ने मारपरिकमेपन में मार्ष में एक भरपये में रोष पुनि मै वाम ॥३॥ तमा मरमा भ्रम परमपा भाषि मास पुनि पस संतापा। मिमा स्पाम सर सी दोसैम पर्स पुनि विपास ॥५॥ भव पिपिस भाव में पासू। अस्य पिर बरे हो पम् ॥ ६॥ कप पित मत्सो सपिर मुखमा रस पठमो पर दिया . हप्मा पाष पास ग्रे पाणीप भारे प्रकरण मग मरि प्रा परमस स्लेर पनि भंग में पर प्पल कप भटि पाषा विभागामहिमा. सम्म र ममा पेण । मेमा पारा -10 भारी पर मुने महिमपभोत्रपाकमाएबाप पात प्रम में रोप पाप । समिपमान सा समिरावग्वा धन सम् । प्रम्पास्टर में पापमपा.१४ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४६५ २ है ( कुपित हो जाते हैं ) वह सन्निपातज्वर कहलाता है, इस ज्वर में प्रायः ये चिह्न होते कि-अकस्मात् क्षण भर में दाह होता है, क्षण भर में शीत लगता है, हाड़ सन्धि और मस्तक में शूल होता है, अश्रुपातयुक्त गदले और लाल तथा फटे से नेत्र हो जाते है ?, कानों में शब्द और पीड़ा होती है, कण्ठ में काटे पड जाते है, तन्द्रा तथा बेहोशी होती है, रोगी अनर्थप्रलाप (व्यर्थ बकवाद ) करता है, खासी, श्वास, अरुचि और भ्रम होता है, जीभ परिदग्धवत् ( जले हुए पदार्थ के समान अर्थात् काली ) और गाय की जीभ के समान खरदरी तथा शिथिल ( लठर ) हो जाती है, पित्त और रुधिर से मिला हुआ कफ थूक में आता है, रोगी शिर को इधर उधर पटकता है, तृषा बहुत लगती है, निद्रा का नाश होता है, हृदय में पीड़ा होती है, पसीना, मूत्र और मल, ये बहुत काल में थोड़े २ उतरते हैं, दोषों के पूर्ण होने से रोगी का देह कृश ( दुबला ) नही होता है, कण्ठ में कफ निरन्तर ( लगातार ) बोलता है, रुधिर से काले और लाल कोठ ( टाटिये अर्थात् बर्र के काठने से उत्पन्न हुए दाफड़ अर्थात् ददोड़े के समान) और चकत्ते होते है. शब्द बहुत मन्द (धीमा) निकलता है, कान, नाक और मुख आदि छिद्रों में पाक ( पकना ) होता है, पेट भारी रहता है तथा वात, पित्त और कफ, इन दोषों का देर में पाक होता है । - १ - अश्रुपातयुक्त अर्थात् आँसुओं की धारा सहित || २-कफ के कारण गदले, पित्त के कारण लाल तथा वायु के कारण फटे से नेत्र होते हैं ॥ ३- (प्रश्न) वात आदि तीन दोप परस्पर विरुद्ध गुणवाले हैं वे सब मिल कर एक ही कार्य सन्निपात को कैसे करते हैं, क्योंकि प्रत्येक दोष परस्पर ( एक दूसरे ) के कार्य का नाशक है, जैसे कि - अभि और जल परस्पर मिलकर समान कार्य को नहीं कर सकते है ( क्योंकि परस्पर विरुद्ध हैं ) इसी प्रकार वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोष भी परस्पर विरुद्ध होने से एक विकार को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं ? (उत्तर) वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोप साथ ही में प्रकट हुए है तथा तीनों बराबर हैं, इस लिये गुणों में परस्पर ( एक दूसरे से ) विरुद्ध होने पर भी अपने २ गुणों से दूसरे का नाश नहीं कर सकते हैं, जैसे कि-सॉप अपने विप से एक दूसरे को नहीं मार सकते हैं, यही समाधान ( जो हमने लिखा है ) दृढवल आचार्य ने किया है, परन्तु इस प्रश्न का उत्तर गदाधर आचार्य ने दूसरे हेतु का आश्रय लेकर दिया है, वह यह है कि- विरुद्ध गुणवाले भी वात आदि दोप सन्निपातावस्था मे दैवेच्छा ( पूर्व जन्म के किये हुए प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से ) अथवा अपने स्वभाव से ही इकट्ठे रहते हैं तथा एक दूसरे का विघात नहीं करते हैं । ( प्रश्न ) अस्तु - इस बात को तो हम ने मान लिया कि-सन्निपातावस्था मे विरुद्ध गुणवाले हो कर भी तीनों दोप एक दूसरे का विघात नहीं करते है परन्तु यह प्रश्न फिर भी होता हैं कि वात आदि तीनों दोपों के सचय और प्रकोप का काल पृथक् २ है इस लिये वे सब ही एक काल में न तो प्रकट ही हो सकते हैं ( क्योंकि सवय का काल पृथक् २ है ) और न प्रकुपित ही हो सकते हैं ( क्योंकि जब तीनों का सश्चय ही नहीं है फिर प्रकोप कहाँ से हो सकता है ) तो ऐसी दशा में सन्निपात रूप कार्य कैसे हो सकता है ? क्योंकि कार्य का होना कारण के आधीन है । (उत्तर) तुम्हारा यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि शरीर में वात आदि दोष स्वभाव से ही विद्यमान हैं, वे (तीनों दोष) अपने ( त्रिदोष) को प्रकट करनेवाले निदान के वल से एक साथ ही प्रकुपित हो जाते है अर्थात् त्रिदोषकर्त्ता मिथ्या आहार और मिथ्या विहार से तीनों ही दोष एक ही काल में कुपित हो जाते हैं और कुपित हो कर सन्निपात रूप कार्य को उत्पन्न कर देते हैं ॥ ५९ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ बैनसम्प्रदायशिक्षा || इन लक्षणों के सिवाय वाग्मट्टने ये भी क्षण कहे हैं कि इस ज्वर में चीत गया है, दिन में घोर निद्रा भावी है, रात्रिमें नित्य जागता है, भगवा निद्रा कमी नहीं बाती है, पसीना बहुत आता है, यथषा धाता ही नहीं है, रोगी कभी गान करता है ( गाया है), कभी नाचता है, कभी हँसता और रोता है तथा उस की चेष्टा पकट (बदल) जाती है, इत्यादि । यह भी स्मरण रहे कि इन लक्षणों में से गोड़े क्षण कष्टसाध्य में और पूरे ( ऊपर कहे हुए सब ) क्षण प्रायः असाध्य सन्निपात में होते हैं । विशेपवक्तव्य – सन्निपातज्वर में जब रोगी के दोपों का पाचन होता है अर्थात् मल पकते हैं वष ही आराम होता है अर्थात् रोगी होल में भाता है, यह भी जान लेना चाहिये कि जब दोषों का वेग (बोर) कम होता है तब भाराम होने की अभि ( मुद्दव) सात दश वा बारह दिन की होती है, परन्तु यदि दोप अधिक बलवान् हो वो आराम होने की अवधि चौदह बीस वा चौबीस दिन की जाननी चाहिये, यह भी स्मरण रस्तना चाहिये कि - सन्निपात ज्वर में बहुत ही संभाल रखनी चाहिये, किसी तरह की गड़बड़ नहीं करनी चाहिये भर्थात् अपने मनमाना तथा मूर्ख वैद्य से रोगी का कभी इलाज नहीं करवाना चाहिये, किन्तु बहुत ही धैर्य ( धीरज ) के साथ चतुर वैद्य से परीक्षा करा के उस के कहने के अनुसार रस आदि वना देनी चाहिये, क्योंकि सनिपात में रस आदि दवा ही माम विक्षेप साम पहुँचाती है, हां चतुर वैद्य की सम्मति से दिये हुए फाष्ठादि ओपधियों के काने भावि से भी फायदा होता है, परन्तु पूरे तौर से सो फायदा इस रोग में रसादि दबा से ही होता है और उन रसों की दना में भी शीघ्र ही फायदा पहुँचानेवाले मे रस मुख्य है- हेमगर्भ, अमृतसञ्जीवनी, मकरध्यम, पड्गुणगन्मक मौर चन्द्रोदय मावि, ये सब प्रधानरस पान के रस के साथ, भार्तक (नवरा) के रसमें, सोंठ के साथ, छौंग के साथ सभा तुळसी के पत्तों के रस के साथ देने चाहियें, परन्तु यदि रोगी की जबान मन्य हो सो सहजने की छाल के रस के साथ इन में से किसी रस को मरा गर्म कर के देना चाहिये, अथवा असली भम्बर वा कस्तूरी के साथ देना चाहिये । यदि ऊपर कड़े हुए रसों में से कोई भी रस विद्यमान ( मौजूद ) न हो तो साधारण रस ही इस रोग में देने पाहियें जैसे- माझी गुटिका, मोहरा गुटिका, त्रिपुरभैरव, भावन्द भैरब और भमरसुन्दरी भादि, क्योंकि मे रस भी सामान्य (साधारण) दोष में काम वे ये हैं । इन के सिवाय तीक्ष्ण ( तेज ) नस्म का देना सभा सीक्ष्ण अजन का भोस्तों में डालना आदि किया भी विद्वान् बैच के कथनानुसार करनी चाहिये । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४६७ उम्र (बड़े वा तेज़ ) सन्निपात में एक महीनेतक खूब होशियारी के साथ पथ्य तथा दवा का वर्ताव करना चाहिये तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये कि सोलह सेर जल का उबालने से जब एक सेर जल रह जाये तब उस जल को रोगी को देना चाहिये, क्योकि यह जल दस्त, वमन (उलटी ), प्यास तथा सन्निपात में परम हितकारक है अर्थात् यह सौ मात्रा की एक मात्रा है । इस के सिवाय जब तक रोगी का मल शुद्ध न हो, होश न आवे तथा सब इन्द्रियां निर्मल न हो जावें तब तक और कुछ खाने पीने को नही देना चाहिये' अर्थात् रोगी को इस रोग में उत्कृष्टतया ( अच्छे प्रकार से ) बारह लघन अवश्य करवा देने चाहिये, अर्थात् उक्त समय तक केवल ऊपर लिखे हुए जल और दवा के सहारे ही रोगी को रखना चाहिये, इस के बाद मूग की दाल का, अरहर ( तूर ) की दाल का तथा खारक ( छुहारे ) का पानी देना चाहिये, जब खूब ( कडक कर ) भूख लगे तत्र ढाल के पानी में भात को मिला कर थोड़ा २ देना चाहिये, इस के सेवन के २५ दिन बाद देश की खुराक के अनुसार रोटी और कुछ घी देना चाहिये । कर्णक नाम का सन्निपात तीन महीने का होता है, उस का खयाल उक्त समय तक वैद्य के वचन के अनुसार रखना चाहिये, इस बीच में रोगी को खाने को नहीं देना चाहिये, क्योकि सन्निपात रोगी को पहिले ही खाने को देना विष के तुल्य असर करता है, इस रोग में यदि रोगी को दूध दे दिया जावे तो वह अवश्य ही मर जाता है । सन्निपात रोग काल के सदृश है इस लिये इस में सप्तस्मरण का पाठ और दान पुण्य आदि को भी अवश्य करना चाहिये, क्यो कि सन्निपात रोग के होने के बाद फिर उसी शरीर से इस ससार की हवा का प्राप्त होना मानो दूसरा जन्म लेना है । इस वर्त्तमान समय में विचार कर देखने से विदित होता है कि - अन्य देशों की अपेक्षा मरुस्थल देश में इस के चक्कर में आ कर वचनेवाले बहुत ही कम पुरुष होते हैं, इस का कारण व्यवहार नय की अपेक्षासे हम तो यही कहेंगे कि उन को न तो ठीक तौर से ओपवि ही मिलती है और न उन की परिचर्या (सेवा) ही अच्छे प्रकार से की जाती है, बस इसी का यह परिणाम होता है कि उन को मृत्यु का ग्रास घनना पड़ता है । पूर्व समय में इस देश के निवासी धनाढ्य ( अमीर ) सेठ और साहूकार आदि ऊपर १ - क्योंकि मल की शुद्धि और इन्द्रियों के निर्मल हुए विना आहार को दे देने से पुन दोपों के अधिक कुपित हो जाने की सम्भावना होती है, सम्भावना क्या-दोप कुपित हो ही जाते ह ॥ २-उत्कृष्टतया वारह लघनों के करवा देने से मल और कुपित दोपों का अच्छे प्रकार से पाचन हो जाता है, ऐसा होने से जठराभि में भी कुछ वल आ जाता है ॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनसम्प्रदायशिक्षा । कहे हुए रसों को विधान् वैयों के द्वारा मनवा कर सदा अपने परों में रखसे तमा भवसर ( मौका ) पड़ने पर अपने कुटुम्ब, सगे, सम्मन्मी और गरीब लोगों को देते थे, मिससे रोगियों को तत्पर छाभ पहुँचता या भौर इस भगकर रोग से बच जाते थे, परन्त पर्समान में यह बात बहुत ही कम देखने में भाती है, कहिये ऐसी दशा में इस रोग में फंस कर मेपारे गरीबों की क्या न्यबसा हो सकती है। इस पर भी पार्ममा विषम यह है कि उक रस मेपों के पास भी बने हुए शायद ही कही मिस सकते क्यों कि उनके बनाने में द्रम्प की तबा गुरुगमता की आवश्यकता, भौर न ऐसे दयावान् वैप ही वेसे नाते हैं कि ऐसी कीमती दवा गरीबों को मुफ्त में वे देखें। पूर्व समय में उपर मिले अनुसार यहाँ के भनाम सेठ और साकार परमात्र का विचार कर वैयों के द्वारा रसोंको मनमा पर रखते थे भौर समय माने पर अपने छ म्बियों सगे समपियों मोर गरीबों को देते थे, परन्तु भव तो परमाचे प्रवचार, अदा तमा दया के न होने से वह समय नहीं है, किन्तु भव सो यहाँ के नाम मग मविपा देवी के प्रसाद से पाह शादी गांवसारणी और मौसर भादि पर्व कामों में हमारों रुपये मपनी वारीफ़ के लिये उगा देते हैं मोर पूसरे अपिया देवी के उपासक चन मी उन्हीं कामों में न्यम करने से मग उन की तारीफ करते हैं समय बहुत ही सुश होते हैं, परन्तु रिपा देवी के उपासक मिशन् मम ऐसे कामों में व्यय करने की कभी तारीफ नहीं र सकते हैं, क्यों कि ऐसे मर्म कार्यों में हमारों रुपयोन मवर वेना शिष्ठसम्मत (विद्वानों की सम्मति के भनुल) नहीं है। पाठक गप पर केस से मस्येव के पनामों भौर सेठ साइफारों की उदारता का परिचय मच्के प्रकारते पा गये होंगे, भब करिये ऐसी दशा में इस देश के कस्माल मान समय में ये (मगरा रेनमियापी बनाम और साइपर भार ऐसे मासरोकिन के विषय में समा गई पाखा सन्तु मम्त पाप में मा पम्ताप करपा परवान चरित्र और माप ऐसे मिम्पो चिम देशार पाना उत्पम रोता पेभेप पम पम ऐसे मदोन्मत्त होकन प्रेमपने पत्तम भी गणि पुषि , परिवहन येपो परिसवारी दुर्गों के साथ सहसास परवा लिया और मनपा पुमा संगति में पड़ी भर भी भपकी महती परि पोष पुस्प इनके पास भाकर म्हारे इसी बान्तरण गरी वीर मा पुल मकर गाये और इम र माता मी पानी में भपने पमबनिता सो व्या मप्र सियों देखना रम की चो करमा बारपा पीपरमन्ना मैप भारि मारोंग सेरम करम मरों निम्नाममा पा जमम्म पम प्रेम में मर करना पीना स्वरिन प्राममा प्रवे। किमा पानी सपना र पामर मावि ऐसे है क्योंकि मी लिनेक विहान् पस्मा पर रिचरण पुम्मर पोनिमा और समार यदि गुणे पुच है, पर अधिप में समे सामिप्रसन हम भभी कर ले। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४.६९ की संभावना कैसे हो सकती है? हा इस समय में हम मुर्शिदाबाद के निवासी धनाढ्य और सेठ साहूकारों को धन्यवाद दिये विना नहीं रह सकते है, क्यों कि उन में अब भी ऊपर कही हुई बात कुछ २ देखी जाती है, अर्थात् उस देश में बड़े रसों में से मकरध्वज और साधारण रसों में विलासगुटिका, ये दो रस प्रायः श्रीमानों के घरों में बने हुए तैयार रहते है और मौके पर वे सव को देते भी है, वास्तव में यह विद्यादेवी के उपा. सक होने की ही एकनिशानी है। ___ अन्त में हमारा कथन केवल यही है कि-हमारे मरुस्थल देश के निवासी श्रीमान् लोग ऊपर लिखे हुए लेख को पढ़ कर तथा अपने हिताहित और कर्तव्यका विचार कर सन्मार्ग का अवलम्बन करें तो उन के लिये परम कल्याण हो सकता है, क्यों कि अपने कर्तव्य में प्रवृत्त होना ही परलोकसाधन का एक मुख्य सोपान (सीढ़ी) है ॥ आगन्तुक ज्वर का वर्णन ॥ कारण-शस्त्र और लकड़ी आदि की चोट तथा काम, भय और क्रोध आदि बाहर के कारण शरीरपर अपना असर कर ज्वर को उत्पन्न करते हैं, उसे आगन्तुक ज्वर कहते हैं, यद्यपि अयोग्य आहार और विहार से विगड़ी हुई वायु भी आमाशय (होजरी) में जाकर भीतर की अग्नि को विगाड़ कर रस तथा खून में मिल कर ज्वर को उत्पन्न करती है परन्तु यह कारण सब प्रकार के ज्वरो का कारण नहीं हो सकता है क्यों कि ज्वर दो प्रकार का है-शारीरिक और आगन्तुक, इन में से शारीरिक खतन्त्र (खाँधीन) और आगन्तुक परतन्त्र ( पराधीन) है, इन में से शारीरिक ज्वर में ऊपर लिखा हुआ कारण हो सकता है, क्यों कि शारीरिक ज्वर वायु का कोप होकर ही उत्पन्न होता है, किन्तु आगन्तुक ज्वर में पहिले ज्वर चढ़ जाता है पीछे दोष का कोप होता है, जैसे १-इन को वहा की वोली मे वाबू कहते हैं, इन के पुरुषाजन वास्तव में मरुस्थलदेश के निवासी थे। २-इस को वहा की देश भाषा मे लक्खी विलासगुटिका कहते हैं । ३-क्योंकि उन के हृदय में दया और परोपकार आदि मानुपी गुण विद्यमान हैं ॥ ४-उन को स्मरण रखना चाहिये कि यह मनुष्य जन्म बडी कठिनता से प्राप्त होता है तथा वारंवार नहीं मिलता है, इस लिये पशुवत् व्यवहारों को छोड कर मानुषी वर्ताप को अपने हृदय में स्थान दे, विद्वानों और ज्ञानी महात्माओं की सङ्गति करें, कुछ शक्ति के अनुसार शास्त्रों का अभ्यास करें, लक्ष्मी और तजन्य विलास को अनित्य समझ कर द्रव्य को सन्मार्ग में खर्च कर परलोक के सुख का सम्पादन करें, क्योंकि इस मल से भरे हुए तथा अनित्य शरीर से निर्मल और शाखत (नित्य रहनेवाले) परलोक के सुख का सम्पादन कर लेना ही मानुपी जन्म की कृतार्थता है । ५-आदि शब्द से भूत आदि का आवेश, अभिचार (धात और मूठ आदि का चलाना), अभिशाप (ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध और महात्मा आदि का शाप) विपभक्षण, अमिदाह तथा हही आदि का टूटना, इत्यादि कारण भी समझ लेने चाहिये । ६-यह खाधीन इस लिये है कि अपने ही किये हुए मिथ्या आहार और विहार से प्राप्त होता है । . TO Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० चैनसम्प्रदामशिक्षा | देखो ! काम लोक सभा डर से पके हुए ज्वर में पिस का कोप होता है और भूतादि के प्रतिबिम्ब के बुखार में भावेश होोसे तीनों दोपका कोप होता है, इत्यादि । भेद तथा लक्षण - १ - विपजन्य (विपसे पैदा होनेवाला) आगन्तुक परविप के खाने से चढ़े हुए उबर में रोगी का मुख काला पड़ जाता है, सुई के चुमाने के समान पीड़ा होती है, अक्ष पर अरुचि, प्यास और मूर्छा होती है, स्थावर बिपसे उत्पन हुए स्वर में दस्त भी होते हैं, क्यों कि निप नीचे को गति करता है तथा मल बादि से मुक्त गमन (उलटी) भी होती है । से --- २ - ओषधिगन्धजन्य ज्वर - किसी सेब तथा दुर्गन्धयुक्त वनस्पति की गन्म हुए ज्वर में मूर्छा, सिर में दर्द तथा कम (उलटी ) होती है। टे - ३ - कामज्वर - भमीष्ट (मिम) श्री भगवा पुरुष की प्राप्ति के न होने से उत्पन्न हुए वर को कामज्वर कहते हैं, इस स्वर में चितकी भस्थिरता (चा), चन्द्रा (ऊम) आस्म, छाती में वर्ष, मरुभि, हाथ पैरों का पेंठना, गल्म्हत ( गलहत्था ) देकर फिक्र का करना, किसी की कही हुई बात का अच्छा न समाना, वरीर का सूखना, मुँह पर पसीने का माना तथा निःश्वास का होना भोटि भि होते हैं । 8- भयम्वर–डर से बढे हुए ज्वर में रोगी मछाप (वभाव ) बहुत करता है । ५ - क्रोधज्वर – कोष से पडे हुए उबर में कम्पन ( फॉपनी) होती है तथा मुख ककुभा रहता है । हँसना, गाना, नाचना, काँपना तथा ६ - भूतामिपज्थर --- इस ज्वर में उद्वेग, अचिन्त्य शक्ति का होना मावि हि होते है । इन के सिवाय क्षतज्वर अर्थात् शरीर में भाग के उगने से उत्पन्न होनेवाला ज्वर, वादम्बर, श्रमम्बर (परिश्रम के करने से उत्पन्न हुआ म्बर) और छेवज्वर ( शरीर के किसी भाग के कटने से उत्पन्न हुआ न्नर ) आविज्वरों का इस आगन्तुक ज्वर में ही समावेश होता है । १- यार में इस ज्वर के सम-भ्रमण नवी के कामज्वर होने पर और क्या निद्य बुद्धि और दे पास का समान होते है ॥ होन्य पीलों का भाना तथा हृदय में दाइ का होना में ३- (मन) कम्पन का बात का कार्य है फिर वह क्योंकि कोष में पिता प्रकोप होता है। (उत्तर) दूसरे दोष को भी शक्ति करता है उसी से कम्पन होता है, मी प्रकोप होता है, अपनी बसेका भी माने और गुड का ब (कम्पन) प्रेम यर में कैसे होता है, एक ये पित्त के प्रकोप के कारण बाव भी कुपित हो जाता है और सेपित का ही प्रकोप होता है यह बात नहीं है किंतु-पाय आचार्य स्तर और शोक से दोनों बात पित और रच को प्रकुपित करनेवाले माझे मये हैं, उस से कम्पन का होना साधारण बात है मे Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७१ चिकित्सा -- १ - विष से तथा औषधि के गन्ध से उत्पन्न हुए ज्वर में - पित्तशमन, कर्त्ता ( पित्त को शान्त करनेवाला) औषध लेना चाहिये', अर्थात् तज, तमालपत्र, इलायची, नागकेशर, कबाबचीनी, अगर, केशर और लौंग इन में से सब वा थोड़े सुगन्धित पदार्थ लेकर तथा उनका क्वाथ ( काढा ) बना कर पीना चाहिये । , २ - काम से उत्पन्न हुए ज्वर में - बाला, कमल, चन्दन, नेत्रवाला, तज, धनियाँ तथा जटामांसी आदि शीतल पदार्थों की उकाली, ठंढा लेप तथा इच्छित वस्तु की प्राप्ति आदि उपाय करने चाहिये । ३ - क्रोध, भय और शोक आदि मानसिक ( मनःसम्बन्धी ) विकारों से उत्पन्न हुए ज्वरों में उन के कारणों को ( क्रोध, भय और शोक आदिको ) दूर करने चाहियें, रोगी को धैर्य ( दिलासा ) देना चाहिये, इच्छित वस्तु की प्राप्ति करानी चाहिये, यह ज्वर पित्त को शान्त करनेवाले शीतल उपचार, आहार और विहार आदि से मिट जाता है । ४ - चोट, श्रम, मार्गजन्य श्रान्ति ( रास्ते में चलने से उत्पन्न हुई थकावट ) और गिर जाना इत्यादि कारणों से उत्पन्न हुए ज्वरों में- पहिले दूध और भात खाने को देना चाहिये तथा मार्गजन्य श्रान्ति से उत्पन्न हुए ज्वर में तेल की मालिश करवानी चाहिये तथा सुखपूर्वक ( आराम के साथ ) नींद लेनी चाहिये । ५- आगन्तुक ज्वरवाले को लंघन नहीं करना चाहिये किन्तु स्निग्ध ( चिकना ), तर तथा पित्तशामक ( पित्त को शान्त करनेवाला ) शीतल भोजन करना चाहिये और मन को शान्त रखना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से ज्वर नरम (मन्द) पड़ कर उतर जाता है । ६-आगन्तुकज्वर वाले को वारंवार सन्तोष देना तथा उस के प्रिय पदार्थों की प्राप्ति कराना अति लाभदायक होता है, इस लिये इस बात का अवश्य खयाल रखना चाहिये ॥ विषमज्वर का वर्णन ॥ कारण - किसी समय में आये हुए ज्वर के दोषों का शास्त्र की रीति के विना किसी प्रकार निवारण करने के पीछे, अथवा किसी ओषधि से ज्वर को दबा देने से जब उस १- इन दोनों (विपजन्य तथा ओषधिगन्धजन्य ) ज्वरों में- पित्त प्रकुपित हो जाता है इस लिये पित्त को शान्त करनेवाली ओपधि के लेने से पित्त शान्त हो कर ज्वर शीघ्र ही उतर जाता है | २- वाग्भट्ट ने लिखा है कि "शुद्धवातक्षयागन्तुजीर्णज्वरिषु लङ्घनम्" नेष्यते इति शेष, अर्थात् शुद्ध वात में (केवल वातजन्य रोग मे ), क्षयजन्य (क्षयसे उत्पन्न हुए) ज्वर में, आगन्तुकज्वर मे तथा जीर्णज्वर मे लघन नहीं करना चाहिये, वस यही सम्मति प्राय सब आचार्यों की है ॥ ३- इस ज्वर का सम्बध प्राय मन के साथ होता है इसी लिये मन को सन्तोष प्राप्त होने से तथा अभीष्ट वस्तु के मिलने से मन की शान्तिद्वारा यह ज्वर उतर जाता है ॥ ४ - जैसे विनाइन आदि से || Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ जैनसम्प्रदाय शिक्षा | की सिंग (अंश) नहीं जाती है तब वह स्वर भातुओं में छिप कर ठहर जाता है त भहित भाहार भौर बिहार से दोष कोप को मात होकर पुन हैं उसे विषमज्वर कहते हैं, इस के सिवाय इस ज्वर की उत्पत्ति दूसरे कारणों से भी प्रारंम वचो में हो जाती है । ज्गर को मकट कर देते खराब दवा नागि लक्षण - विषमज्वर का कोई भी नियत समय नहीं है', न उस में ठंड वा गर्मी का कोई नियम है और म उस के वेग की ही तादाव है, क्योंकि यह ज्वर किसी समय थोड़ा तथा किसी समय अधिक रहता है, किसी समय ठंड और किसी समय गर्मी म कर चढ़ता है, किसी समय अधिक वेग से और किसी समय मन्द ( कम ) बेग से पड़ता है तथा इस ज्वर में प्राय वित्त का कोप होता है । 'भेद - बिपम ज्वर के पांच भेद हैं- सन्तत, सतत मन्येयुष्क (एकान्तरा), वेबरा ----- और भौमिया, अब इन के स्वरूप का वर्णन किया जाता है: १ - सन्तस - बहुत विनतक बिना उसरे ही भर्थात् एकसहस्र रहनेवाले ज्वर को सन्त कहते है, यह ज्वर भाविक (बायु से उत्पन्न हुआ) सात दिन तक, वैधिक (पिव से उत्पन्न हुआ) दश दिन तक और कफन ( फफ से उत्पन्न हुआ ) बारह दिन तक अपने २ दोष की शक्ति के अनुसार रह कर चला जाता है, परन्तु पीछे ( उतर कर पुनः ) फिर भी बहुत दिनों तक भाता रहता है, यह उपर शरीर के रस नामक बाडु में रहता है। १- वास्प यह है कि जब प्राणी का परचम भाता है तब अल्प दरोप भी अहित बाहर और विकार के सेवन से पूर्ण होकर रस और रच आदि किसी धातु में प्राप्त क्षेचन तथा उसको पुति (विवार) कर फिर विषम ज्वर को उत्पन्न कर देता है २- अर्थात् ज्वर की प्रारम्भरक्षा में धन बराब मा वि है तब भी वह वर विकृत कर दिवमज्जर हो जाता है । हवा का सेवन भवना प्रवेश आदि से बातা यह है कि-जैसे 1- विषमज्वर का कोई भी स्थित समय नहीं है इसका परसात रात्रि तक पित्तज्वर दत्र रात्रि तक तथा फरार पनि (दिम) तक रहता है प्रक्क बैम होने से वाक्यम्य च दिन तक पित्तम्बर तीस मन तक तथा फ्बर चौबीस दिन तक रहता है इस प्रकार विषमज्वर नहीं रहता है, अर्बाद इस का नियमित काक नहीं है तथा इस के मेन का भी निगम नहीं है अर्थात् कभी प्रबन्ध प्रेम से भय है और कभी मन्द मेम से बड़ा है ॥ ४सेर भित्र है, क्योंकि प्रवराना दिन में दो रा एक बार दिन में और एक बार रात्रि में क्वाक-मस्येक दोष का रात दिन में दो बार प्रकोपका समय है परन्तु वहाँ है, क्योंकि यह तो अपनी स्थिति के समय बराबर बना ही रहता है ५-परन्तु किसी बाबाकों को सम्म किनहर घर के रख और एक नामक (दोनों) तुओं रहा है। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७३ २-सतत-बारह घण्टे के अन्तर से आनेवाले तथा दिन में और रात्रि में दो समय आनेवाले ज्वर को सतत कहते है, इस ज्वर का दोप रक्त (खून ) नामक धातु में रहता है। ३-अन्येशुष्क (एकान्तरा)-यह ज्वर सदा २४ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् प्रतिदिन एक बार चढता और उतरता है', यह ज्वर मांस नामक धातु में रहता है । ४-तेजरा-यह ज्वर ४८ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् वीच में एक दिन नहीं आता है, इस को तेजरा कहते है परन्तु इस ज्वर को कोई आचार्य एकान्तर कहते हैं, यह ज्वर मेद नामक धातु में रहता है। ____५-चौथिया-यह ज्वर ७२ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् बीच में दो दिन न आकर तीसरे दिन आता है, इस को चौथिया ज्वर कहते है, इस का दोप अस्थि ( हाड़) नामक धातु में तथा मज्जा नामक धातु में रहता है। _ इस ज्वर में दोप भिन्न २ घातुओं का आश्रय लेकर रहता है इसलिये इस ज्वर को वैद्यजन रसगत, रक्तगत, इत्यादि नामों से कहते है, इन में पूर्व २ की अपेक्षा उत्तर २ अधिक भयकर होता है , इसी लिये इस अनुक्रम से अस्थि तथा मज्जा धातु में गया हुआ (प्राप्त हुआ ) चौथिया ज्वर अधिक भयङ्कर होता है, इस ज्वर में जब दोष वीर्य में पहुँच जाता है तब प्राणी अवश्य मर जाता है। अब विषमज्वरों की सामान्यतया तथा प्रत्येक के लिये भिन्न २ चिकित्सा लिखते हैं: १-क्योंकि दोष के प्रकोप का समय दिन और रातभर में ( २४ घण्टे में ) दो वार आता है ॥ २-इस में दिन वा रात्रि का नियम नहीं है कि दिन ही में चढे वा रात्रि में ही चढे किन्तु २४ घटे का नियम है ॥ ३-अर्थात् तीसरे दिन आता है, इस में ज्वर के आने का दिन भी ले लिया जाता है अर्थात् जिस दिन आता है उस दिन समेत तीसरे दिन पुन आता है ॥ ४-तीसरे दिन से तात्पर्य यहा पर ज्वर आने के दिन का भी परिगणन कर के चौथे दिन से है, क्योंकि ज्वर आने के दिन का परिगणन कर के ही इस का नाम चातुर्थिक वा चौथिया रक्खा गया है । ५-इस ज्वर में अर्थात् विषमज्वर मे ॥ ६-अर्थात् आश्रय की अपेक्षा से नाम रखते हैं, जैसे-सन्तत को रसगत, सतत को रक्तगत, अन्येशुष्क को मांसगत, तेजरा को मेदोगत तथा चौथिया को मज्जास्थिगत कहते हैं । ___७ अर्थात् सन्तत से सतत, सतत से अन्येद्यष्क, अन्येशुष्क से तेजरा और तेजरे से चौथिया अधिक भयकर होता है। ८-अर्थात् सव की अपेक्षा चौथिया ज्वर अधिक भयकर होता है । ९-सम्पूर्ण विषमज्वर सभिपात से होते हैं परन्तु इन में जो दोष अधिक हो उन में उसी दोष की प्रधानता से चिकित्सा करनी चाहिये, विपमज्वरों में भी देह का ऊपर नीचे से (वमन और विरेचन के द्वारा) शोधन करना चाहिये तथा निग्ध और उष्ण अन्नपानों से इन (विषम ) ज्वरों को जीतना चाहिये । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मवायशिक्षा || चिकित्सा - १ - सन्तत उचर- इस ज्वर में - पटोक, इन्द्रमय, वेबवार, सिमेन और नीम की छाल का काम देना चाहिये । १७४ २ - सततज्वर -- इस ज्वर में - श्रायमाण, कुटकी, भमासा और उपलसिरी का काम देना चाहिये । ३- अन्येद्युष्क (एकान्तर ) – इस ज्वर में वास्त्र, पटोल, कतुमा नीम, मोग, इन्द्रमव सभा त्रिफळा, इन का काम देना चाहिये । 8 - तेजरा - इस वर में - बाळा, रक्तचन्दन, मोम, गिलोय, पनिया और सोंठ, इन का काम शहद और मिश्री मिला कर देना चाहिये । ५ - चौथिया – इस यर में - असा, आँवला, साम्षण, देवदार, जहर और सोंठ का काम शहद और मिश्री मिला कर देना चाहिये । सामान्य चिकित्सा - ६ - दोनों प्रकार की (छोटी बड़ी) रींगणी, सोंठ, मनिन्द्य और देवदार, इन का काम देना चाहिये, यह काम पाचन है इस किये बिपमज्वर तथा सब प्रकार के ज्वरों में इस काम को पहिले देना चाहिये । - मुस्तादि फाप -- मोग, भूरींगंणी, गिलोय, सौठ और बबला, इन पांचों की उकाली को शीतल कर शहद तथा पीपल का चूर्ण डाल कर पीना चाहिये । ८- स्वरांकुश - शुद्ध पारा, गन्धक, वत्सनाग, सौंठ, मिर्च और पीपल, इन छष पदार्थों का एक एक भाग तथा शुद्ध किये हुए बतूरे के बीच दो भाग लेने चाहियें, इन में से प्रथम पारे और गन्धक की कमी कर शेष चारों पदार्थों को कपड़छान कर मा सब को मिम्म कर नींबू के रसमें खूब खरेल कर दो दो रती की गोसियों बनानी चाहिये, इन में से एक या दो गोलियों को पानी में या भवरस्य के रस में भगवा सौठ के पानी में फ्बर जाने तथा ठत्र उगने से भाप घण्टे अथवा मण्टे भर पहिले लेना चाहिये, इस से ज्वर का माना तथा ठंड का लगना बिकु बन्द हो जाता है, ठड के उबर में में गोरियां किनाइन से भी अधिक फायदेमन्दे हैं । १–पहिले इसी कार के ऐसे से दोषों का पाचन होकर उसका वैमन्य हो जाता है व जमी प्रवक्ता मिट जाती है और प्रवक्ता के मिट जाने से पीछे ही हुई साधारण भी भोपभि कीघ्र ही त विशेष फायदा करती है । १- भूमी वर्षात् क २-बाये हुए स्वर के रोकने के किये तथा ठंड सपने को पूर करने के किये बह उत्तम भोप है ४पर कर अर्थात् परमेंट कर ५-क्योंकि- मैं पोलियों के थे पिय कर तथा शरीर में उप्थता का सधार कर सुधार को मिटती है और शरीर में प्रति को भी उपकरण है Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७५ फुटकर चिकित्सा -- ९ - चौथिया तथा तेजरा के ज्वर में अगस्त के पचों का रस अथवा उस के सूखे पत्तों को पीस तथा कपड़छान कर रोगी को सुँधाना चाहिये तथा पुराने घी में हींग को पीस कर सुँघाना चाहिये । 1 १० - इन के सिवाय सब ही विषम ज्वरों में ये ( नीचे लिखे ) उपाय हितकारी हैकाली मिर्च तथा तुलसी के पत्तों को घोट कर पीना चाहिये, अथवा - काली जीरी तथा गुड़ में थोड़ी सी काली मिर्च को डाल कर खाना चाहिये, अथवा - सोंठ जीरा और गुड़, इन को गर्म पानी में अथवा पुराने शहद में अथवा गाढ़ी छाछ मै पीना चाहिये, इसके पीने से ठढ का ज्वर उतर जाता है, अथवा-नीम की भीतरी छाल, गिलोय तथा चिरायते के पत्ते, इन तीनों में से किसी एक वस्तु को रात को भिगा कर प्रातःकाल कपड़े से छान कर तथा उस जल में मिश्री मिला कर और थोड़ी सी काली मिर्च डाल कर पीना चाहिये, इस के पीने से ठढ के ज्वर में बहुत फायदा होता है । स्मरण रहे कि - देशी इलाजों में से वनस्पति के क्वाथ के लेने में सब प्रकार की निर्भयता है तथा इस के सेवन में धर्म का संरक्षण भी है क्योंकि सब प्रकार के काढ़े ज्वर के होने पर तथा न भी होने पर प्रति समय दिये जा सकते है, इस के अतिरिक्त- इन से मल का पाचन होकर दस्त भी साफ आता है, इस लिये इन के सेवन के समय में साफ दस्त के आने के लिये पृथक् जुलाब आदि के लेने की आवश्यकता नही रहती है, तात्पर्य यह है कि-वनस्पति का क्वाथ सर्वथा और सर्वदा हितकारी है तथा साधारण चिकित्सा है, इसलिये जहा तक हो सके पहिले इसी का सेवन करना चाहिये ॥ सन्तत ज्वर (रिमिटेंट फीवर) का विशेष वर्णन ॥ कारण- विषमज्वर का कारण यह सन्ततज्वर ही है जिस के लक्षण तथा १ - इस के अगस्त्य, वग सेन, मुनिपुष्प और मुनिद्रुम, ये संस्कृत नाम हैं, हिन्दी मे इसे अगस्त अगस्तिया तथा हथिया भी कहते हैं, बगाली मे-वक, मराठी में हदगा, गुजराती मे-अगथियो तथा अग्रेजी में ग्राण्डी फलोरा कहते हैं, इस का वृक्ष लम्बा होता है और इस पर पत्तेवाली वेलें अधिक चढती हैं, इस के पत्ते इमली के समान छोटे २ होते हैं, फूल सफेद, पीला, लाल और काला होता है अर्थात् इस का फूल चार प्रकार का होता है तथा वह (फूल) केसूला के फूल के समान वाका (टेढा) और उत्तम होता है, इस वृक्ष की लम्बी पतली और चपटी फलिया होती हैं, इस के पत्ते शीतल, रूक्ष, वातकर्ता और कडुए होते हैं, इस के सेवन से पित्त, कफ, चौथिया ज्वर और सरेकमा दूर हो जाता है (1 २- यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त है कि वनस्पति की खुराक तथा रूपान्तर मे उस का सेवन प्राणियों के लिये सर्वदा हितकारक ही है, यदि वनस्पति का क्वाथ आदि कोई पदार्थ किसी रोगी के अनुकूल न भी आवे तो उसे छोड देना चाहिये परन्तु उस से शरीर मे किसी प्रकार का विकार होकर हानि की सम्भावना कभी नहीं होती है जैसी कि अन्य रसादि की मात्राओं आदि से होती है, इसी लिये ऊपर कहा गया है कि - जहा तक हो सके पहिले इसी का सेवन करना चाहिये ॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ भेनसम्प्रदायशिक्षा । चिकित्सा पहिले सेक्षेप से लिख चुके हैं मह मझेरिया की विपैली इना में से उपक होता। उषा यह ज्वर विषमज्जर के दूसरे मेवों की अपेक्षा अधिक भयङ्कर है'। लक्षण यह ज्वर सात दश वा मारह दिन तक एक सदक्ष (एकसरीसा) भाषा करता है मर्मात् किसी समय भी नहीं उतरता है, यह ज्वर पाय दीनों योपो के मस्त होने से आता है, इस न्वर से प्रारंभ में पाचनक्रिया फी मध्यवसा (गरकर ), NP स्ता (बेचैनी), सिनता (पित की दीनवा) तथा चिर में दर्द का होना मावि मार मालम रोते हैं ठंड की पमफारी इसनी मोड़ी मासी है फिर पढ़ने की सबर तक ना पड़ती है और शरीर में पक्वम गर्मी भर जाती है, इसके सिमाम-इस घर में पता में वाह, नमन (उम्टी), शिर में दर्द, नींव का न माना तमा सन्त्रा ( मीट) का सन आदि म्यम मी पाये जाते हैं। मन्तगी (अन्तरिया) नुसार से इस मुसार में इसना भेव है कि-मन्तगी मर में वो ज्वर का पढ़ना और उतरना स्पष्ट मासम देता है परन्तु इस में नर का पार और उसरना मास नहीं देता है, क्यो कि मन्सपेगी ज्जर तो किसी समम विमान उतर पाता है और यह ज्वर किसी समय भी नहीं उतरता है किन्तु न्यूनाधिक ( ज्यादा) होता रहता है अर्थात् किसी समय कुछ कम सभा किसी समय मस्पन्न । कम हो जाता है, इस लिये पर भी नहीं मालम परता है कि-कम भषिक हुआ का कम हुमा, यह बात प्रकटतया धर्मामेटर से ठीक मासूम होती है, तात्पर्य या दि-इस ज्वर की दो सिति होती है-मिन में से पहिली स्थिति में भोरे २ अन्तर ऊपर ही उपर ज्यर का बहाव उतार होता है और पीछे दूसरी स्थिति में स्वर की मरत (भामद) भनुमान भाउ २ पण्टे तक रहती है, इस समय पमरी महत गर्म राखी नाही पाहत अस्वी परती है, भासोपास पहुत पेग से पलों है और मन को विकल्य मात होती है अर्थात् मन को पन नहीं मिमता, ज्वर की गर्मी किसी समय १०१ 1-पदिने मिरा रेशिमीरा पण हा श्रीमासे के पर रसम में से गलम ली। २-वारपर्व पहरेक मरवा रिपम ना पर प्रदेश भाम में मनर मतावर भर समर स्पा करी रेस मये यावर भपि मम ऐप है। - पमामेर रे पापे से पमा म्यूमता (समी) तप मपिया (मारी) सामान ऐसीबसी से गरमी स्पूनवा तमा भपिम्मा माइल र मेसी अदि माम म्भव भर म्यूमा मासिका परभषि प्रविषय हो गाव का पर पुसिरप में समीती सवी पर्ममम ममाने की पRD AT मातम पल्मा वा भाव मेय भाप को मारी परब तेरठ मोसमराम रमन त सेतीका Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७७ · तक तथा किसी समय उस से भी आगे अर्थात् १०५ और १०७ तक भी बढ़ जाती है, इस प्रकार आठ दश घंटे तक अधिक वेगयुक्त होकर पीछे कुछ नरम ( मन्द ) पड़ जाता है तथा थोड़ा २ पसीना आता है, ज्वर की गर्मी के अधिक होने से इस के साथ खांसी, लीवर का वरम (शोथ ), पाचनक्रिया में अव्यवस्था ( गडबड़ ) अतीसार और मरोड़ा आदि उपद्रव भी हो जाते है । इस ज्वर में प्रायः सातवें दशवें वा बारहवें दिने तन्द्रा ( मीट ) अथवा सन्निपात के लक्षण दीखने लगते हैं तथा इस ज्वर की उचित चिकित्सा न होने से यह १२ से २४ दिन तक ठहर जाता है । चिकित्सा — यह सन्ततज्वर ( रिमिटेंट फीवर) बहुत ही भयंकर होता है इस लिये यदि गृहजनों को इस का ठीक परिज्ञान न हो सके तो कुशल वैद्य वा डाक्टर से इस की परीक्षा करा के चिकित्सा करानी चाहिये, क्यों कि सख्त और भयंकर बुखार में रोगी ७ से १२ दिन के अन्दर मर जाता है और जब रोग अधिकदिन तक ठहर जाता है तो गम्भीर रूप पकड़ लेता है अर्थात् पीछे उसका मिटना अति दुःसाध्य ( कठिन ) हो जाता है, सब से प्रथम इस बुखार की मुख्य चिकित्सा यही है कि - बुखार की टेम्परेचर (गर्मी) को जैसे हो सके वैसे कम करना चाहिये, क्यों कि ऐसा न करने से एकदम खून का जोश चढ़कर मगज में शोथ हो जाता है तथा तन्द्रा और त्रिदोष हो जाता है इस लिये गर्मी को कम करने के लिये यथाशक्य शीघ्र ही उपाय करना चाहिये, इस के अतिरिक्त जो देशी चिकित्सा पहिले लिख चुके है वह करनी चाहिये || जीर्णज्वर का वर्णन ॥ कारण- जीर्णज्वर किसी विशेष कारण से उत्पन्न हुआ कोई नया बुखार नहीं है किन्तु नया बुखार नरम ( मन्द ) पड़ने के पीछे जो कुछ दिनों के बाद अर्थात् बारह दिन के बाद मन्दवेग से शरीर में रहता है उस को जीर्णज्वर कहते हैं, यह ज्वर ज्यों १- तात्पर्य यह है कि -वात के प्रकोप म सातवें दिन, पित्त के प्रकोप में दशवें दिन तथा कफ के प्रकोप मे वारहवें दिन तन्द्रा होती है अथवा पूर्व लिखे अनुसार एक दोष कुपित हुआ दूसरे दोषों को भी कुपित कर देता है इसलिये सन्निपात के लक्षण दीखने लगते हैं ॥ २ - तात्पर्य यह है कि दोषों की प्रवलता के अनुसार इस की १२ से २४ दिन तक स्थिति रहती है ॥ ३ - अर्थात् गर्मी को यथाशक्य उपायों द्वारा बढने नहीं देना चाहिये ॥ ४- तात्पर्य यह है कि बारह दिन के बाद तथा तीनों दोषों के द्विगुण ( दुगुने ) दिनों के ( तेरह द्विगुण छब्बीस) अर्थात् छब्बीस दिनों के उपरान्त जो ज्वर शरीर में मन्दवेग से रहता है उस को जीर्णज्वर कहते हैं, परन्तु कोई आचार्य यह कहते हैं कि २१ दिन के उपरान्त मन्दवेग से रहनेवाला ज्वर जीर्णज्वर होता है ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ बैनसम्प्रदायशिक्षा। २ पुराना होता है त्यो २ मन्वनेगवाग होता है, इसी को असिम्मर (भसि वर्ग हाड़ों में पहुँचा हुआ ज्नर) भी कहते हैं। __लक्षण-इस ज्वर में मन्दवेगता (मुसार का वेग मन्द), शरीर में इसापन, पमरी पर धोम (सूजन), भोपर, जौ का अकरना तथा कफ का होना, ये रूप होते हैं समा मे रक्षण नन फ्रम २ से पढ़ते जाते हैं हम वा बीर्मज्वर फरसाध्य हो जाता है। चिकित्सा-१-गिलोय का फाढ़ा कर तथा उस में छोटीपीपल का पूर्ण तया शहद मिलाकर कुछ दिन तक पीने से वीर्णज्नर मिट जाता है। २-सासी, श्रास, पीनस तथा महषि संग मदि जीर्णज्वर हो तो उस में गिलोय, भूरीगणी सबा सोंठ का फादा पना पर उस मे छोटी पीपल का पूण मिम फर पीने स मह फायदा करता है। ३-हरी गिलोय को पानी में पीसकर तमा सन्न रस निचोड़ कर उस में छोटी पीपर सभा वहद मिला कर पीने से वीर्णबर, कफ, सांसी, विष्ठी और भरुचि मिट जाती है। ४-वो भाग गुरु और एफ भाग छोटी पीपल का पूर्ण, दोनों को मिला पर इसकी गोली मना र साने से भवीर्ण, अरुथि, अमिमन्दता, सांसी, श्वास, पाणु सभा भ्रम रोग सहित पीपर मिट जाता है । ५-छोटी पीपल को शहद में पाटने से, भभमा भपनी शक्ति मोर महति के अनुसार वो से उपर सात पर्यन्स छोटी पीपा को रात को मठ को बस में पा दूध में भिगा कर -बाजरकम से पानी पानु में वाद परिसास में किराए में शिर मांध में फिर मर में फिरपी में फिर ममा में और मि एम्में तार इस भर ममा भौर एक पान में पपने पर रोगी प्रबचना सम्भव हो पाया। १-या सरपएस भर पावसम्म , ग्रा में ब सब मभन पाये जात पा सर काय माया पाता नगर में रोमी गोपन माना पारिसे को पनपने से ज्यो १ रोमी धीर रोख पारम्प मापा पर बरसा पम्म गारेगा -पीपल का पूर्व भनुमान । मासे गमना वारिस पाभीसारो मेमता हमें भारमा वारिसे सपा ने अस पेज एपमा कारसे नामक ममि ममता प्रभार मरिक (मा) ग भी मिटाता सारे पिरम भारावा भी सम्मानित (मामि से पर) रोग मारप, किसे से मायनदेय पारिन (परत प्रमतररामिना तो भी सामना ये माला में प्रवासमा भाभि तिप्रभानस्थ में पीपा पूर्वन गर बामपन्यपणे Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७९ खाने से, अथवा दूध में उकाल कर पीने से, अथवा पीपलों को पीस कर गोली बना कर खाने से और गोली पर गर्म कर ठढा किया हुआ दूध पीने से अर्थात् प्रतिदिन क्रम २ से बढ़ाकर इस का सेवन करने से जीर्णज्वर आदि अनेक रोग मिट जाते है। ६-आमलक्यादि चूर्ण-आँवला, चित्रक, हरड़, पीपल और सेंधा निमक, इन का चूर्ण बनाकर सेवन करना चाहिये, इस चूर्ण से बुखार, कफ तथा अरुचि का नाश हो जाता है, दस्त साफ आता है तथा अमि प्रदीप्त होती है । ___७-वर्णवसन्तमालिनी और चौंसठपहरी पीपल-ये दोनों पदार्थ जीर्णज्वर के लिये अक्सीर दवा हैं । ज्वर में उत्पन्न हुए दूसरे उपद्रवों की चिकित्सा ॥ ज्वर में कास (खांसी)-इस में कायफल, मोथ, भाडगी, धनिया, चिरायता, पित्तपापड़ा, वच, हरड़, काकड़ासिंगी, देवदारु और सोंठ, इन ११ चीज़ों की उकाली बना कर लेनी चाहिये, इस के लेने से खासी तथा कफ सहित बुखार चला जाता है। ___ अथवा पीपल, पीपरामूल, इन्द्रयव, पित्तपापड़ा और सोंठ, इन ओषधियों के चूर्ण को शहद में चाटने से फायदा होता है । ज्वर में अतीसार--इस में लघन करना चाहिये, क्योंकि इस में लघन पथ्य है'। अथवा-सोंठ, कुड़ाछाल, मोथ, गिलोय और अतीस की कली, इन की उकाली लेनी चाहिये। अथवा-काली पाठ, इन्द्रयव, गिलोय, पित्तपापड़ा, मोथ, सोंठ और चिरायता, इनकी उकाली लेनी चाहिये। दुर्जलज्वर-यह ज्वर खराब तथा मैले पानी के पीने से, अथवा शिखरगिरि, बद्रीनाथ, आसाम और अड़ग आदिस्थानों के पानी के लगने से होता है। इसज्वर में-हरड़, नींब के पत्ते, सोंठ, सेंधानिमक और चित्रक, इनका चूर्ण कर बहुत दिनोंतक सेवन करना चाहिये, इस का सेवन करने से बुखार मिट जाता है । अथवा-पटोल वा कडुई तुरई, मोथ, गिलोय, अडूसा, सोंठ, धनिया और चिरायता, इन का काथ शहद डालकर पीना चाहिये। १-ये दोनों पदार्थ शास्त्रोक्त विधि से तैयार किये हुए हमारे "मारवाडसुधावर्षणसत्रौषधालय" में सर्वदा तैयार रहते हैं, हमारे यहा का औषधसूचीपत्र मगा कर देखिये ॥ __२-ज्वर में मतीसार होने पर लघन के सिवाय दूसरी ओषधि नहीं है अर्थात् लघन ही विशेष फायदा करता है, क्योंकि-लघन वढे हुए दोपों को शान्त कर देता है तथा उन का पाचन भी करता है, इस लिये ज्वर में अतीसार होने पर वलवान् रोगी को तो अवश्य ही आवश्यकता के अनुसार लघन कराने चाहियें, हा यदि रोगी निर्वल हो तो दूसरी बात है। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जैनसम्प्रदायशिक्षा । भगवा-चिरायता, निसोत, सश, बाला, पीपल, वायविडंग, सोंठ और घरकी ना सब मोपों का पूर्ण बना कर शहर में पाटना चाहिये। भयवा-सौंठ, श्रीरा भौर हरर, इनकी चटनी पनाकर भोजन के पहिले सानी चाच भपया-पस्सनाग वो माग, जगई ई सी पाप भाग मोर नसी मिचे नी मग, इन को फूट फर तथा अवरख के रस में घोट कर मूंग के बराबर गोरी बनाना पाहिमें सभा इन में से दो गोमियों को माताकार तथा सार्यकास (दोनों समय) पना से भेना पाहिये, ये गोरियां भामज्वर, सराव पानी के जाने से उत्पन्न मर, भाषा मफरा, मम्बन्ध, शूल, श्वास और कास मावि सम उपद्रमों में फायदा करती है। ज्वर मै तपा (प्यास)–स में पौदी की गोठी को मुंह में रखकर भूसन्ध पाहिये। भवना-मालखारा वा खजूर की गुठरी को घूसना चाहिये । माया-शहद भौर पानी के फरसे परने चाहिये । अथवा-चहरी मारियल की गिरी, स्वाक्ष, सेके (भूने) हुए मैंग, सोना, बिना किस हुए मोती, मैंगिया मौर (मिल सके तो) फासे की पर, इन सप को पिस कर सीप म रस छोड़ना चाहिये सभा घण्टे २ भर पीछे जीम के गाना चाहिये, तत्पमा पारपर के माद फिर पिस कर रस छोड़ना चाहिये और उसी प्रकार जगाना पाहिये, इसस पानी सरे सभा मोती मरे की प्यास, त्रिदोष की प्यास, कटि, भीम का कालापन मार वमन (उसटी) मादि कासाध्य भी रोग मिट जाते हैं तथा यह ओपप रोगी को पुरा के समान सहारा और वाकत देती है। ज्यर में हिफा (हिचफी)-पदि पर में हिपकी होसी दो सो सैनिमक जन में वारीक पीस फर मस देना चाहिये । अपवा-साठ और सारकी नस देना पाहिये । भगवा-नींगकी धूनी देना चाहिये। मनवा-निर्धूम भगार पर हींग काली मिर्ष सभा उदद को माया पोडेकी सूसी सीद को जला कर उस फी धुओं में सपना चाहिये । 1-सपेय से घर वा परो गावोग में समिटाना चाहिये। १-सम्प्र0 बिगो मारराम भार पूष इस पर मुखमरने से भी पाय और पाभरा-पारस (परगर)ीपक भार पो (से ए पास मत परिव पोरस) नसरप्रवरपुरा में इन मारपसानिये यापी तपा ( पाव भियेभा प्रपोप - Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ चतुर्थ अध्याय ॥ अथवा - पीपल की सूखी छाल को जला कर पानी में बुझाना चाहिये फिर उसी पानी को छान कर पीना चाहिये । अथवा राई की आधे तोले बुकनी को आघसेर पानी में मिलाकर थोडीदेर तक रख छोडना चाहिये फिर नितरे हुए पानी को लेकर आधी २ छटाँक पानी को दो वा तीन घण्टे के अन्तर से पीना चाहिये । - ज्वर में श्वास- इस में दोनों भूरांगणी, धमासा, कडुई तोरई अथवा पटोल, काकड़ासिंगी, भाड़गी, कुटकी, कचूर और इन्द्रयव, इन की उकाली बना कर पीनी चाहिये । अथवा — छोटीपीपल, कायफल और काकड़ासिंगी, इन तीनों का चूर्ण शहद में चाटना चाहिये । ज्वर में मूर्च्छा-इस में अदरख का रस सुँघाना चाहिये । अथवा--शहद, सैंधानिमक, मैनशिल और काली मिर्च, इन को महीन पीस कर उस का आँख में अञ्जन करना चाहिये । अथवा — ठढे पानी के छींटे आंख पर लगाने चाहियें । अथवा - सुगन्धित धूप देनी चाहिये तथा पंखे की हवा लेनी चाहिये' | ज्वर में अरुचि - इस में अदरख के रस को कुछ गर्म कर तथा उस में सैंधानिमक डाल कर थोड़ासा चाटना चाहिये । अथवा - विजौरे के फल के अन्दर की कलियां और सैंधानिमक, इन को मिला कर मुँह में रखना चाहिये । ज्वर में वमन - इस में गिलोय के क्वाथ को ठंडा कर तथा उस में मिश्री और शहद डाल कर उसे पीना चाहिये । १- दोनों भूरींगणी अर्थात् छोटी कटेरी और बडी कटेरी ॥ २- यह दशाग काय सन्निपात को भी दूर करता है || ३-ज्वर में श्वास होने के समय द्वात्रिंशत्काथ ( ३२ पदार्थों का काढा ) भी बहुत लाभदायक हैं, उस का वर्णन भावप्रकाश आदि प्रन्थों में देख लेना चाहिये, यहा विस्तार के भय से उसे नहीं लिखा है ॥ ४-इन चारों चीजों को जल मे वारीक पीस लेना चाहिये ॥ ५--ज्वरदशा में मूली होने के समय कुछ शीतल और मन को आराम देनेवाले उपचार करने चाहिये, जैसे- सुगन्धित अगर आदि की धूनी देना, सुगन्धित फूलों की माला का धारण करना, नरम ताल (ताड) के पत्रों की हवा करना तथा बहुत कोमल केले के पत्तों को शरीर से लगाना इत्यादि ॥ ६- किन्हीं आचायों का कथन है कि-विजौरे की केशर ( अन्दर की कलिया ), घी और संधानिमक का, अथवा ऑवले, दास और मिश्री का कल्क मुख में रखना चाहिये ॥ ७-बिन्हीं आचार्यों की सम्मति केवल शहद डाल कर पीने की हैं ॥ ६१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसम्प्रदायश्चिया॥ अमवा-मिमी शक कर पिचपापरे का हिम पीना चाहिये । भगवा-आँवल्म, दास भौर मिभी न पानी, इन का सेवन करना पाहिये । अथवा दास, चन्दन, पाठा, मोग, मोझेठी और पनियो, इन सब पीजों ने अपना इन में से दो घीन मिले उस को भिगा कर तवा पीस कर उस का पानी पीना चाहिये । ___ अभना-मोर बसे हुए पार पदवे, मुनी हुई पीपल, भुना हुआ मीरा, बनी हुई मारिया की चोटी, मलाया हुमा रेशम का कूचा वा कपड़ा, पोदीना और कमगहे (पन्नोडी) मन्दर की हरियाई (गिरी), इन सब को पीस कर सहप में, मनार के शर्यत में, ममगा मिभी की चासनी में वमन (उम्टी) के होते ही चाटना चाहिये तमा फिर भी पण्टे पर भर के पाद पाटना पाहिये, इस से त्रिवोष की भी नमन तमा म्वनी क्व हो गती है। अभवा-भुषा की दोनों नसों को खून सीप कर गांपना पाहिये । भयना-नारियर की बोटी, इम्दी, काली मिर्च, उपद और मोर के पन्वे सपूमपान करना पाहिये। मषवा-नीम की मीतरी छास का पानी मिमी रान कर पीना चाहिये । ज्पर म दाई-इस में यदि भीतर वाह हो सो प्राय मह पिपिस्सा हिसकारको जो कि बमन के लिये ठामदायक है, परन्तु यदि बापर वाह होता हो तो करे पापम पोरन में पिसा हुआ चन्दन एक पास तथा पिसी हुई सोठ एक रची छेनी चाहिम, इस में थोड़ा सा शहद मिला कर पाटना पाहिये समा पानी में मिमकर पीना पाहिये । अपमा चन्दन, सोंठ, बाण और निमक, इन काम करना चाहिये । अपवा-मगम पर मुस्तानी मिट्टी न भर मरना चाहिये । यदि पगरी समा रमेमियों में बार रोता हो तो उधम साफ पैदेवाली श्रम (से) की कटोरी मेकर धीरे २ फेरवे राना पाहिये, ऐसा करने से वार भवस्य शान्त हो जायेगा। उपर में पध्य अर्थात् हितकारी फर्सन्॥ १-परिभम के काम, छपन (उपवास) भौर गायु मे परे हुए मर में-दस के साथ भाव साना पप्प (हिवारक), कफ पर में मूंग की दाट का पानी -सरसेन भैरण में प्राय भी पिसाप रिमाका पोका प्रम अम्पामरों में परन्तु इस में इस बात प्रभार समरपना परिये वो ना भर पर भया मागानसम्म उसे भी मारना चाहिये। १-पप भणासमरे 1-पून भारी करने से एक प्रपा प्रेमि पदिरा भार पर निशाना समें भगा लिप रभसामा परि मत 4म से पुरे भारपिस भी 30 मन नदवाव प र पिस HI HIRALो । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४८३ तथा भात पथ्य है, पिचज्वर के लिये भी यही पय्य समझना चाहिये, परन्तु पित्तज्वरवाले को उठा कर तथा थोड़ी सी मिश्री मिलाकर लेना चाहिये । यदि दो दोष तथा त्रिदोष मालूम हो तो उस में केवल मूंग की दाल का पानी ही पथ्य है । २ - मुंग का ओसामण, भात, अथवा साबूदाना, ये सब वस्तुयें सामान्यतया ज्वर में पथ्य है, अर्थात् ज्वर समय में निर्भय खुराक है । इस के अतिरिक्त - यह भी स्मरण रखना चाहिये कि - जहा दूध को पच्य लिखा है वहा दूध के साथ साबूदाना समझना चाहिये अर्थात् दूध के साथ साबूदाना देना चाहिये, अथवा साबूदाना को जल में पका कर तथा उस में दूध मिला कर देना चाहिये । ३- प्रायः सब ही ज्वरों में प्रथम चिकित्मा लङ्घन है, अर्थात् ज्वर की दशा में लघन परम हितकारक है और खास कर कफ तथा आम के ज्वर में, पित्त के ज्वर में, दो २ दोषो से उत्पन्न हुए ज्वर में तथा त्रिदोपजन्यज्वर में तो लङ्घन परम लाभदायक होता 'है', यदि रोगी से सर्वथा निराहार न रहा जावे तो एक समय हलका आहार करना चाहिये, अथवा केवल मूगका ओसामण ( पानी ) पीना चाहिये, क्योंकि ऐसा करना भी लघन के समान ही लाभदायक है । हा केवल वातज्वर, जीर्णज्वर, आगन्तुकज्वर और क्षय तथा यकृत् के वरम से उत्पन्न हुए ज्वर में विलकुल निराहाररूप लघन नहीं करना चाहिये, क्योकि इन ज्वरो में निराहाररूप लघन करने से उलटी हानि होती है । ४- तरुणज्वर में अर्थात् १२ दिन तक दूध तथा परन्तु क्षय, शोथ, राजरोग और उरःक्षत के ज्वर में, और आगन्तुकज्वर में दूध हितकारक है, इस में भी के पीछे इक्कीस दिन के बाद तो दूध अमृत के समान है । घी का सेवन विप के समान है, यकृत् के ज्वर में, जीर्णज्वर में जीर्णज्वर में कफ के क्षीण होने ५ - जो ज्वरवाला रोगी शरीर में दुर्बल हो, जिस के शरीरका कफ कम पड़ गया हो, जिस को जीर्णज्वर की तकलीफ हो, जिस को दस्त का वद्धकोष्ठ हो, जिस का शरीर रूखा हो, जिस को पित्त वा वायु का ज्वर हो तथा जिस को प्यास और दाह की तकलीफ हो उस रोगी को भी ज्वर में दूध पथ्य होता है । १–क्योंकि लघन के करने से दोपों का पाचन हो जाता है ॥ २ - तरुण ज्वर में दूध और घी आदि स्निग्ध पदार्थों के सेवन से मूर्छा, वमन, मद और अरुचि आदि दूसरे रोग उत्पन्न हो जाते 11 ३- शरीर मे दुर्बल रोगी की दूध पीने से शक्ति बनी रहती है, जिसके शरीर का कफ कम पड गया हो उस के दूध पान से कफ की वृद्धि होकर दोपों की समता के द्वारा उसे शीघ्र आरोग्यता प्राप्त होती है, जीर्णज्वर मे दूध पीने से शक्ति का क्षय न होने के कारण ज्वर की प्रबलता नहीं होती है, बद्धकोष्ठवाले को दूध के पीने से दस्त साफ आता रहता है, रूक्ष शरीरवाले के शरीर में दुग्धपान से रूक्षता मिट कर स्निग्धता ( चिकनाहट ) आती है, वातपित्तज्वर में दुग्धपान से उक्त दोपों की शान्ति हो कर ज्वर नष्ट हो जाता है तथा जिस रोगी को प्यास और दाह हो उस के भी उक्त विकार दूध के पीने से मिट जाते है ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० चैनसम्प्रदायशिमा ॥ ६-ज्वर के प्रारम्म में ठपन, मध्य में पापन सपा का सेवन, अन्त में कहा तमा फपैसी दवा का सेवन तथा सम से मन्त में दोष के निकाल्ने के मेि जुभव प्रमेना, यह चिकिस्साका उखम कम है। ७-ज्जर का दोप यदि कम हो तो पन से ही आता रहता है, यदि दोष मध्यम हो सो लंपन भौर पाचन से नाता है, यदि दोप बहुत पढ़ा हुभा हो तो वोप संयो पनप उपाय करना चाहिये । या मी स्मरण रखना चाहिये कि सात दिन में वायु का दस दिन में पिच प्र भोर गारह दिन में कफ का ज्वर पकता है, परन्तु मदि दोपमा मपिक मधेप हो तो उपर को हुए समय से दुगुना समयता मग बाता है। ८-ज्वर में नमतफ दोपों के भावकी सवर न पड़े तमतक सामान्य चिकित्सा फरनी चाहिये। ९-मर के रोगी को निर्यात (पास से रहित ) मकान में रखना चाहिये तमाला की भावपकसा होने पर पंसे की हवा करनी चाहिये, भारी तथा गर्म कपड़े पहराना भौर मोताना पाहिये तपा पातु मनुसार परिपक (पत्र हुमा) पर पिाना चाहिये । १०-वरवाले को कमा पानी नहीं पिगना पाहिसे' सबा गारवार बहुत पानी ना॥ पिगना चाहिम, परन्तु बहुत गमी तमा पिच के ज्वर में यदि प्यास हो तगा वार होता हो तो उस समय प्यास को रोकना नहीं चाहिये फिन्तु पाकी के सब ज्वरों में समान -सर प्रारम्म में पनपने से रोपाप्रपात सेवा, मप पापन बाके सेवन से मन से भी म पोए रका रोपों पाप से भावासमन्त में मां वप पका * सेक्स से भमि परोपन तथा रोपों पसंहमम होता या पप से मत में गुमय मेने से रोचक संपोषन मेने केश परिये पाव जिस से सीघ्र हीयेमता प्राप्त होती है। नोहा-सप्त रिसस पर उम्मबीरा मपम बन । विसम्पर पुष बबई गरी पुरातन मान ।। पर पित्तवर परिणाम पर वापस प्य। एस मिस माम्स पणन मि सम मार ॥१॥ भीषण भने प्रप में पर मानो के स म्मान मिले बाम । सो गररे प्रेम प्रेसे पासिमने से सर में रविवाद: ४-भव पिता -पाय रोकने से (प्यार में पाक देने से) प्राय रे रो प्या । और बेहोशी कीमा में प्रामों सभी माम ऐकस लिये सब रमानों में 4 मास ला पाहिम इसी प्रपर रात मे ल-तुप ममम्वर व त्या मानो प्रमाप नेगी सहिये तमत्त (पास है पीडित) प्राप पारप ( माप्रपारप रवैयम्स) काय पनि लामो सनी लिय वा -याच प्रेरोमा पर प्ररिने या बहुत बोग जाना चाहिये। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४८५ रखकर थोड़ा २ पानी देना चाहिये, क्योकि-ज्वर की प्यास में जल भी प्राणरक्षक (प्राणों की रक्षा करनेवाला) है। ११-ज्वरवाले को खाने की रुचि न भी हो तो भी उस को हितकारक तथा पथ्य भोजन ओपधि की रीति पर ( दवा के तरी के ) थोड़ा अवश्य खिलाना चाहिये। १२-ज्वरवाले को तथा ज्वर से मुक्त (छूटे) हुए भी पुरुष को हानि करनेवाले आहार और विहार का त्याग करना चाहिये, अर्थात् स्नान, लेप, अभ्यङ्ग (मालिश), चिकना पदार्थ, जुलाब, दिन में सोना, रात में जागना, मैथुन, कसरत, ठढे पानी का अधिक पीना, बहुत हवा के स्थान में बैठना, अति भोजन, भारी आहार, प्रकृतिविरुद्ध भोजन, क्रोध, बहुत फिरना तथा परिश्रम, इन सब बातों का त्याग करना चाहिये', क्योंकि-ज्वर समय में हानिकारक आहार और विहार के सेवन से ज्वर बढ़ जाता है तथा ज्वर जाने के पश्चात् शीघ्र उक्त वर्ताव के करने से गया हुआ ज्वर फिर आने लगता है। १३-साठी चावल, लाल मोटे चावल, मूग तथा अरहर (तूर ) की दाल का पानी, चॅदलिया, सोया ( सोवा), मेथी, घियातोरई, परवल और तोरई आदि का शाक, घी में बघारी हुई दाख अनार और सफरचन्द, ये सब पदार्थ ज्वर में पथ्य हैं। १४-दाह करनेवाले पदार्थ (जैसे उड़द, चवला, तेल और दही आदि ), खट्टे पदार्थ, बहुत पानी, नागरवेल के पान, घी और मद्य इत्यादि ज्वर में कुपथ्य है ।। फूट कर निकलनेवाले ज्वरों का वर्णन ॥ फूट कर निकलनेवाले ज्वरों को देशी वैद्यकशास्त्रवालों ने ज्वर के प्रकरण में नहीं लिखा किन्तु इन को मसूरिका नाम से क्षुद्र रोगों में लिखा है तथा जैनाचार्य योगचिन्तामणिकार ने मूधोरा नाम से पानीझरे को लिखा है, इसी को मरुस्थल देश में निकाला तथा सोलापुर आदि दक्षिण के देश के महाराष्ट्र ( मराठे) लोग भाव कहते हैं, १-ऐसा करने से शक्ति क्षीण नहीं होती है तथा वात और पित्त का प्रकोप भी नहीं बढता है। २-देखो ! ज्वर में स्नान करने से पुन ज्वर प्रवलरूप धारण कर लेता है, ज्वर में कसरत के करने से ज्वर की वृद्धि होती है, मैथुन करने से देह का जकडना, मूर्छा और मृत्यु होती है, निरव (चिकने) पदार्थों के पान आदि से मूर्छा, वमन, उन्मत्तता और अरुचि होती है, भारी अन्न के सेवन से तथा दिन में सोने से विष्टम्भ (पेट का फूलना तथा गुड गुड शब्द का होना), वात आदि दोषों का कोप, अग्नि की मन्दता, तीक्ष्णता तथा छिद्रों का वहना होता है, इस लिये ज्वरचाला अथवा जिस का ज्वर उतर गया हो वह भी (कुछ दिनों तक ) दाहकारी भारी और मसात्म्य (प्रकृति के प्रतिकूल) अन्न पान आदि का, विरुद्ध भोजन का, अध्यशन ( भोजन के ऊपर भोजन) का, दण्ड कसरत का, डोलना फिरना आदि चेय का, उबटन तथा नान का परित्याग कर दे, ऐसा करने से ज्वररोगी का ज्वर चला जाता है तथा जिस का ज्वर चला गया हो उस को उक्त वर्ताव के करने से फिर ज्वर वापिस नहीं आता है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसम्प्रदायश्चिक्षा || ४८६ इसी प्रकार इन के मित्र २ देशों में प्रसिद्ध उबर है, इस कवर में प्राय पिचर के सब भनेक नाम हैं, संस्कृत में इसका नाम मन् क्षण होते हैं । विचार कर देखा जाये तो मे ( फूट कर निकलनेवाले ) ज्वर अधिक मगानक होते हैं अर्थात् इन की यदि ठीक रीति से चिकित्सा न की जाये तो ये शीघ्र ही प्राणांतक हो जाते हैं परन्तु बड़े अफसोस का विषय है कि लोग इन की मयंकरता को न समय कर मनमानी चिकिस्सा कर अन्स में प्राणों से हाथ पो बैठते हैं। मारवाड़ देश की ओर जब इधि उठा कर देखा जाये तो विदित होता है किवहां के भविधा देवी के उपासकों ने इस ज्वर की चिकित्सा का अधिकार मूर्ख रण्डा ( विधवाओं) को सौंप रक्खा है, जो कि (रेडायें ) डाकिनी रूप हो कर इस की मान पिचगिरोषी चिकित्सा करती है' 'भर्भाद इस ज्वर में मस्यन्व गर्म लौंग सोठ और प्राणी दिलाती हैं, इसका परिणाम यह होता है कि इस चिकित्सा के होने से सौ में से प्राम नम्बे मादमी गर्मी के दिनों में मरते हैं, इस बात को इम ने वहां लर्म देखा है पौर सौ में से दक्ष भादमी भी जो बसे हैं ने भी किसी कारण से ही बचते हैं सो भी अत्यन्त कष्ट पाकर बचते हैं किन्तु उन के लिये भी परिणाम यह होता है कि वे जन्म भर अत्यन्त कष्टकारक उस गर्मी का भोग भोगते इस किये इस बात पर मारवाड़ के निवासियों को अवश्य ही ध्यान देना चाहिये । हैं, मोती भगवा सरसों के दानों के मुख्यतया ज्वर का ही उपवन इन रोगों में यद्यपि मसूर के दानों के समान तथा समान शरीर पर फुनसियां निकती है सभापि इन में दोता है इसलिये यहां हमने ज्वर के प्रकरण में इनका समावेश किया है । मेद ( प्रकार ) फूट कर निकलनेवाले ज्यरों के बहुत से मेद (मकार ) हैं, उन में से धीता, मोरी और मचपड़ा ( इस को मारवाड में माया काका कहते हैं) भावि मुख्म है, इन के सिवाय मोतीझरा, रंगीमा, विसर्प, हैजा और द्वेग यादि सब भयंकर ज्वरों का भी समावेश इन्हीं में होता है । कारण- नाना प्रकार के उबरों का कारण जितना घरीर के साथ सम्बन्ध रखता है उस की अपेक्षा बाहर की दवा से विशेष सम्बन्ध रखता है । १र में पित्तविशेषी वर्षमा निषेव किया गया है अत्र में पित्तविरोधी कभी करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करने से अनेक मरे भी उपाय अपने हो दवा की मरोपियों में समा जाती है और जब १-क्योंकि श्रीम बहती है तब उन के शरीर में दिन वर्मा जी का सहन नहीं होता है भी आखिरकार मर ही ३-अ वे जारी दवा से विशेष का है Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४८७ ऐसे फूट कर निकलनेवाले रोग कही तो एकदम ही फूट कर निकलते है और कहीं कुछ विशेष विलम्ब से फूटते है', इन रोगों का मुख्य कारण एक प्रकार का ज़हर (पाइज़न ) ही होता है और यह विशेष चेपी है इस लिये चारों ओर फैल जाता है अर्थात् बहुत से आदमियों के शरीरो में घुस कर बडी हानि करता है, इस के फैलने के समय में भी कुछ आदमियों के शरीर को यह रोग लगता है तथा कुछ आदमियो के शरीर को नहीं लगता है, इस का क्या कारण है इस बात का निर्णय ठीक रीति से अभीतक कुछ भी नहीं हुआ है परन्तु अनुमान ऐसा होता है कि कुछ लोगो के शरीर के कन्धेज विशेष के होने से तथा आहार विहार से प्राप्त हुई निकृष्ट (खराब ) स्थितिविशेष के द्वारा उन के शरीर के दोप ऐसे चेपी रोगो के परमाणुओं को शीघ्र ही ग्रहण कर लेते है तथा कुछ लोगों के शरीर के वन्धेज विशेप ढग के होने से तथा आहार विहार के द्वारा प्राप्त हुई उत्कृष्ट ( उत्तम ) स्थिति विशेष के द्वारा उन के शरीर के तत्त्वोपर ऐसे रोगों के चेपी तत्त्व शीघ्र असर नहीं कर सकते हैं, इस का प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि-एक ही स्थान में तथा एक ही घर में किसी को यह रोग लग जाता है और किसी को नहीं लगता है, इस का कारण केवल वही है जो कि अभी ऊपर लिख चुके है। लक्षण-फूट कर निकलनेवाले रोगों में से शीतला आदि रोगों में प्रथम तो यह विशेषता है कि ये रोग प्रायः बच्चों के ही होते है परन्तु कभी २ ये रोग किसी २ बड़ी अवस्थावाले के भी होते हुए देखे जाते हैं, इन में दूसरी विशेषता यह है कि जिस के शरीर में ये रोम एक बार हो जाते हैं उस के फिर ये रोग प्रायः नहीं होते है, इन में तीसरी विशेषता यह है कि जिस बच्चे के शीतला का चेप लगा दिया गया हो अर्थात् शीतला खुदवा डाली हो (टीका लगवा दिया हो) उस को प्रायः यह रोग फिर नहीं होता है, यदि किसी २ के होता भी है तो थोडा अर्थात् बहुत नरम (मन्द) होता है १-तात्पर्य यह है कि जव रोग के कारण का पूरा असर शरीर पर हो जाता है तव ही रोग उत्पन्न हो जाता है ॥ २-अर्थात् स्पर्श से अथवा हवा के द्वारा उड कर लगनेवाला है । ३-सात्पर्य यह है कि प्रत्येक कार्य के लिये देश काल और प्रकृति आदि के सम्बन्ध से अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, इस लिये जिन लोगों का शरीर उक्त रोगों के कारणों का आश्रयणीय (आश्रय लेने योग्य) होता है उन के शरीर में चेपी रोग प्रकट हो जाता है तथा जिन का शरीर उक्त सम्बध से रोगों के कारणों का आश्रयणीय नहीं होता है उन के शरीर में चेपी रोग के परमाणुओं का असर नहीं होता है। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ मैनसम्प्रदायशिक्षा | फिन्तु शीतग न सुवाये हुए पां में से इस रोग से सौ में से प्रायः चार्गस मरते हैं और शीतला को खुदामे हुए बचों में से प्राय सौ में से छ' ही मरते हैं। इस प्रकार का विष शरीर में प्रविष्ट (वासिल ) होने के पीछे पूरा असर कर लेने पर प्रथम नर के रूप में दिखाई देता है मौर पीछे शरीर पर दाने फ्ट कर निकते हैं, यही उस के होने का निश्चय करानेवाला पियो । शील, शीतला वा माता (स्मालपाक्स) का वर्णन ॥ भेद (प्रकार)-धीवग दो मधर की होती है-उन में से एक प्रकार की बीवम में तो दाने गोरे भौर दूर २ निकलते हैं तथा दूसरे प्रकार की शीतला में वाने बहुत होते हैं समा समीप २ (पास २) होते हैं भर्मात् दूसरे प्रकार की शीतठा सब शरीर पर फूट पर निकलती है, इस में वाने इस प्रकार भापस में मिल जाते हैं कि-सिस भर भी (नरा मी) बगह सारी नहीं राती है, यह दूसरे प्रकार की शीतला बहुस करवाया भार मयकार होती है। १-या रोम दिममव में भी पहिले पात वा मा गरर मर साहस रिवेक-थान में पा गध के प्रमित होने से पहिले प्रमेकपए मछु में एक पत्यु पीतम परम होती थी परमा प्रमेक पचासी मृत्यु में पर एक सीवम से होती पना वर्ष तक समन के भीतमयस में पौवा रोगियों में से पंधीय मनुषों के मगमग मरते परम्त पप से भी बाम नमा गई। तब से दो सौ मनुषों में से बिना मेका मगपापा पा पर एकही मरा। बिन बाविया में बीस मगामे म प्रचार परगणा एकम्मर में से मात्र पो म्युचो पीवण मिश्ठी । पान पन मे-ये टीघ्रम्पएकार में से पानी सौवमा निकासी॥ र समसब साग मित-म ने स्पटी में सन् १ से हिसार सन् १८१५ तक ५ ६ सीवम रोगों का भी निर में से १५ ने मेम न ममममा बारम में से १ मरे, सचर को मिमें ने यन पनामा पा पिरीवम निम्मे और न में से बम वीर मरे मममम मनुष्यों में से पिता ने मारी बार ममपागा का एक ही मरा सन् १८५014 मेघ के मासेम्स मबर में महामारी फैमें उस समय उस पगर में ४ पास इशार) मामा पसते पे चित्र में से। (समर) पगामा बा. (योगार) सफर तराम मरम्म्य पामोर (मागार) ने मैच नहाँ पपागापा तीस हमार मंत्र मोहुए मनुषों में सेरोगार के सीता निकम्म भौर ग्न में से बम बीस मो इस मेस से पाठक गम नगान मम मम प्रपर से समाप्त मरेगे ताप पान-सम्म प्रमाणे से पर बाव सिख हो पु प मामा मनुषको मौतम से पचाता है और पार से ऐफ मई पता वो उस में प्रयाभरणी कम कर देताइल्ने पर भी मारवनिवासी बब मनुमति , मग पारपसम्म पेमामे मारेलीचर भरे इस सेपिल क्या पावणेसातीहै। पोबर विपवर-मिन उपायों से सप प्रापरवा की संभावना ऐवी और नियमप्रतिषिव गल ने परीक्षा र मममरी मयमा माप मपनी मृर्वतार परम उन उपाय मी मिरपर भवरे। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४८९ लक्षण~-शरीर में शीतला के विष का प्रवेश होने के पीछे बारह वा चौदह दिन में शीतला का ज्वर साधारण ज्वर के समान आता है अर्थात् साधारण ज्वर के समान इस ज्वर मे भी ठढ का लगना, गर्मी, शिर में दर्द, पीठ में दर्द तथा वमन (उलटी) का होना आदि लक्षण दीख पडते है, हां इस में इतनी विशेषता होती है कि-इस ज्वर में गले में शोथ (सूजन), थूक की अधिकता (ज्यादती), आखो के पलको पर शोथ का होना और श्वास में दुर्गन्धि (बदबू ) का आना आदि लक्षण भी देखे जाते हैं । ___ कभी २ यह भी होता है कि-किशोर अवस्थावाले वालकों को शीतला के ज्वर के प्रारम्भ होते ही तन्द्रा (मीट वा ऊँध ) आती है और छोटे बच्चो के लैचातान (श्वास में रुकावट ) तथा हिचकिया होती है।। ___ ज्वर चढ़ने के पीछे तीसरे दिन पहिले मुंह तथा गर्दन में दाने निकलते हैं, पीछेशिर, कपाल ( मस्तक) और छाती में निकलते है, इस प्रकार क्रम से नीचे को जाकर आखिरकार पैरों पर दिखलाई देते हैं, यद्यपि दानों के दीखने के पहिले यह निश्चय नहीं होता है कि यह ज्वर शीतला का है अथवा सादा ( साधारण) है परन्तु अनुभव तथा त्वचा (चमडी ) का विशेप रग शीघ्र ही इस का निश्चय करा देता है । ___ जब शीतला के दाने बाहर दिखलाई देने लगते है तब ज्वर नरम (मन्द) पड़ जाता है परन्तु जब दाने पक कर भराव खाते है (भरने लगते हैं ) तब फिर भी ज्वर वेग को धारण करता है, अनुमान दशवें दिन दाना फूट जाता है और खरूट जमना शुरू हो जाता है, प्रायः चौदहवें दिन वह कुछ परिपक्क हो जाता है अर्थात् दानों के लाल चढे हो जाते है, पीछे कुछ समय बीतने पर वे भी अदृश्य हो जाते है ( दिखलाई नहीं देते है ) परन्तु जब शीतला का शरीर में अधिक प्रकोप और वेग हो जाता है तब उस के दाने भीतर की परिपक्क (पकी हुई ) चमड़ी में घुस जाते हैं तथा उन दानों के चिह्न मिटते नहीं है अर्थात् खड्डे रह जाते हैं, इस के सिवाय- इस के कठिन उपद्रव में यदि यथोचित चिकित्सा न होवे तो रोगी की आँख और कान इन्द्रिय भी जाती रहती है। चिकित्सा-टीका का लगवा लेना, यह शीतला की सर्वोपरि चिकित्सा है अर्थात् इस के समान वर्तमान में इस की दूसरी चिकित्सा ससार में नहीं है, सत्य तो यह है कि-टीका लगाने की युक्ति को निकालने वाले इगलैंड देश के प्रसिद्ध डाक्टर जेनर साहब के तथा इस देश में उस का प्रचार करने वाली श्रीमती वृटिश गवर्नमेंट के इस परम उपकार से एतद्देशीय जन तथा उन के चालक सदा के लिये आभारी है अर्थात् उन के इस परम उपकार का बदला नहीं दिया जा सकता है', इस बात को प्रायः सब ही १-क्योंकि ससार मे जीवदान के समान कोई दान नहीं है, अत एव इस से वढ कर कोई भी परम उपकार नहीं है। ६२ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरान में ऐसा प्रम) के विषय में सातमके नाम सीतादेवी पार्वती के उपास १९० बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ बानते हैं कि जब से उस कटर साहम ने लोन करके पीप (रेसा) निघ्रण है तब से छालों पाये इस भयकर रोग की पीरा से मुक्ति पाने और मृत्यु से अपने मो, इस उपकार की नितनी प्रशसा की बाने मह मोड़ी है। इस से पूर्व इस देश में माय इस रोग के होने पर अरियादेपी के उपासकों में फेरर इस की यही चिकित्सा जारी कर रस्सी थी कि-धीम्मदेवी की पूगा परते में जो कि भभी तक शीवासप्तमी (धीर सातम) के नाम से मारी है। इस (शीता रोग) के विषय में इस पवित्र आर्यावर्त के सोगों में भौर विशेपर भी गाति में ऐसा भ्रम (माम) मुस गया है कि यह रोग किसी देवी के कोप से प्रकट होता है, इस लिये इस रोग की दवा करने से पह देवी फुल हो गाती है इस लिये इस की कोई भी एवा नहीं करनी चाहिये, यदि दगा की भी जाये तो मैग साठ और फिसमिस आदि साधारण वस्तुमों को कुतिये (कुल्हड़ी) में छक कर देना चाहिये भौर उनें मी देवी के नाम की मास्मा (भदा) रस कर देना पाहिये' इत्यादि ऐसे म्यर्थ भोर मिय्या प्रम (महम) चरण इस रोग की दवा न करने से हमारी मये इस रोग से दुस पाकर सपा सर २ कर मरते थे। यपि यह मिथ्यामम मात्री २ से नष्ट हुमा है समापि पहुत से सानो में यह मग तक भी मपना निवास किये हुए है, इस कारण केवल यही है कि वर्षमान समय में हमारे देश की भी याति में मविपान्मार (भवानरूपी अमेरा) मधिक प्रसरित हो रहा है (फैल रहा है, ऐसे समय में सार्थी और पासपी मनों ने सियों ने मह र देवी के नाम से अपनी जीविका घमी , न केवल इतना ही मिन्सु ग्न भूतों में भपने जाल में फंसाये रसने हेतु कुछ समय से शीतसापक मादि भी बना गठे है, इस दिये उन पलों के कपट का परिणाम यहाँ की सियों में पूरे ठौर से पा रहा है कि खियो भभी तक उस सीता देवी की मानठा किया करती हैं, पो भफसो १-भर्षात् पूर्ण समय में (प्रसपाने प्रगति प्रति ऐम सेकस रोपौ विरिया मईप पे मिर्ष धीम्यान पूरन मोर भारापर पर पे दबा रसीप्रमाप्रमोरी पठे मीवम मावा मपण मग सम परिवार के पेज मा पा सबसे प्रे विदित है मा उपरेमियमे पनिष भामसम्ता न बार ऐसा न हो भम्म उपयोग मिसानों ने मेरमों पौसम ममता प्रभात सिमरा रन पर भी भ्रम माम माम्पम रयमी दुई पागरण बठ भी 30 अमर सम्बभीर पेनने से भी रखी पिकपुरोगामे मार नापत सरनिरवीरोमपन रिपो सम्बो . ५-पर्णा गुर रिभरपा पम्मत (प ) गावे परम्नु मिया वर भी पुरुषों मरने पर वहमपान प्रपन मेरो (नयरि उन (भूत) भीम रमन। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४९१ सका स्थान है कि हमारे देशवासी जन डाक्टर जेनर साहब की इस विषय की जाच का शुभकारी प्रत्यक्ष फल देख कर भी अपने भ्रम (वहम ) को दूर नहीं करते है और न अपनी स्त्रियो को समझाते हैं यह केवल अविद्या देवी के उपासकपन का चिह्न नहीं तो और क्या है ? हे आर्यमहिलाओ ! अपने हिताहित का विचार करो और इस बात का हृदय में निश्चय कर लो कि-यह रोग देवी के कोप का नहीं है अर्थात् झूठे वहम को बिलकुल छोड़ दो, देखो ! इस बात को तुम भी जानती और मानती हो कि अपने पुरुषा जन (बडेरे लोग) इस रोग का नाम माता कहते चले आये है सो यह बहुत ही ठीक है परन्तु तुम ने इस के असली तत्त्व का अब तक विचार नहीं किया कि पुरुषा जन इस रोग को माता क्यों कहते है, असली तत्त्व के न विचार ने से ही धूर्त और स्वार्थी जनो ने तुम को धोखा दिया है अर्थात् माता शब्द से शीतला देवीका ग्रहण करा के उस के पुजवाने के द्वारा अपने स्वार्थ की सिद्धि की है, परन्तु अब तुम माता शब्द के असली तत्त्व को विद्वानों के किये हुए निर्णय के द्वारा सोचो और अपने मिथ्या भ्रम को शीत्र ही दूर करो, देखो ! पश्चिमीय विद्वानों ने यह निश्चय किया है कि-गर्भ रहने के पश्चात् स्त्रियों का ऋतुधर्म वन्द हो जाता है तब वह रक्त (खून) परिपक होकर स्तनों में दूधरूप में प्रकट होता है, उस दूध को बालक जन्मते ही (पैदा होते ही) पीता है, इस लिये दूध की वही गर्मी कारण पाकर फूट कर निकलती है, क्योकि यह शारीरिक ( शरीरसम्बधी) नियम है कि-ऋतुधर्म के आने से स्त्री के पेट की गर्मी बहुत छंट जाती है (कम हो जाती है) और ऋतुधर्म के रुकने से वह गर्मी अत्यन्त ' बढ़ जाती है, वही मातृसम्बन्धिनी (माता की ) गर्मी फूट कर निकलती है अर्थात् शीतला रोग के रूप में प्रकट होती है, इसी लिये वृद्ध जनो ने इस रोग का नाम माता रक्खा है। ___ वस इस रोग का कारण तो मातृसम्बन्धिनी गर्मी थी परन्तु खार्थ को सिद्ध करने वाले पूर्वजनों ने अविद्यान्धकार (अज्ञान रूपी अँधेरे ) में फंसे हुए लोगों को तथा विशेप कर स्त्रियों को इस माता शब्द का अर्थ उलटा समझा दिया है अर्थात् देवी ठहरा दिया है, इस लिये हे परम मित्रो। अव प्रत्यक्ष फल को देख कर तो इस असत्य श्रम (वहम ) को जड़ मूल से निकाल डालो, देखो ! इस बात को तो प्राय. तुम स्वयं १-केवल यही कारण है कि ऋतुधर्म के समय अत्यन्त मलीनता (मैलापन) और गर्मी होने के सवव से ही मैथुन का करना निषिद्ध (मना ) है, अर्थात् उस समय मैथुन करने मे गर्मा, सुजाख, शिर में दर्द, कान्ति (तेज वा शोभा) की हीनता (कमी) तथा नपुसकत्ल (नपुसकपन ) आदि रोग हो जाते हैं। . अर्थात् माता के सम्बन्ध से प्राप्त होने के कारण इस रोग का भी नाम माता रक्खा गया है परन्तु मुखंजन और अज्ञान महिलाये इसे शीतला माता की प्रसादी समझती है । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ जैनसम्प्रदायशिक्षा - (खुद) ही जानते होगे कि श्रीतम देवी के नाम से जो शीतला सप्तमी (श्री सातम) के दिन ठड़ा (बासा अन्न) स्वामा जाता है उस से कितनी हानि पहुँचती है'। अब अन्त में पुन' यही कमन है कि मिष्या विश्वास को दूर कर अर्थात् इस रोग के समय में शीतला देवी के कोप का विचार छोड़ कर उस की वैधक वासानुसार नीचे छिली हुई चिकिस्सा करो जिस से तुम्हारा और तुम्हारे सन्तानों का सदा कस्याण हो । १- नींव की भीतरी छाल, पित्तपापड़ा, काळी पाठ, पटोक, चन्दन, रक (छाछ) चन्दन, लक्ष, बाला, कुटकी, बगला, अडूसा और काल धमासा, इन सब भौमों को समान भाग लेकर तथा पीस कर उस में मिश्री मिला कर उस का पानी बना कर रखना चाहिये तथा उस में से थोड़ा २ पिठाना चाहिये, इस से वाह और ज्गर आदि धान्य हो खता है तथा मसूरिका मिट जाती है । २ - मजीठ, बड़ ( भगद) की छाम, पीपर की छाल, सिरस की छाल और गूम फी छाळ, इन सब को पीसकर दानों पर छेप करना चाहिये । ३- यदि दाने बाहर निकल कर फिर मीतर घुसते हुए मासूम दे तो वृक्ष की छाल का काम कर तथा उस में सोनामुखी (सनाम) का थोड़ा सा कर पिलाना चाहिये, इस के पिलाने से दाने फिर बाहर आ जाते हैं। ४ - यदि मुँह में सभा गले में मण हो या चाँदी हो तो माछा तथा मौकेठी का काम कर उस में शहद डालकर कुरसे कराने चाहियें । ५-येगी नामक दानों को तथा मौकेठी को पीस कर उन का पानी का आँखों पर सींचना चाहिये, इस के सींचने से भागों का मभाग होता है । ६-मोठी त्रिफला, पीड़ी, वालहम्दी, कमल, बाला, कोष तथा मम्मीठ, इन पोष को पीस कर इनका आँखों पर सेप करने से या इन के पानी की बूँदों को भैंस में कचनार के चूर्ण मिला १- जिसका कुछ वर्णन कर चुके है तुम्हारा यह मिया विश्वास है इस बात को हम ऊपर दिख ही चुके है और तुम अब इस बा कोम भी सकते हो कि तुम्हारा में मिभ्या विश्वास है या नहीं? देखो! जब एक कार्यका कारण बैंक रीति से विषय का किया पषा तथा कारण श्री निति के द्वारा विज्ञान में कार्य की विवि मी प्रमाण द्वारा सहकों उपहरणों से सर्वसाधारणको मसक्ष विवम् दी फिर उस को न मानकर अपने हरम में उम्मत के सम्मान मिया ही कम्पना को बनाये रखना मिना विश्वास नहीं तो और क्या है। परन्तु प्रसिद्ध है - 'सुबह का भूला हुआ साम को भी पर था जाने से वह भूध्य ह कता है बस इस कमन के अनुसार अब निया के प्रथम के समय में बने मध्या विवा को दूर कर दो जिस से तुम्हारा और तुम्हारे माताओं का सा काम होने ३-भवान् उस पानी के छींटे पर समाये ह ४-मवात् श्रधों में किसी तरह की घराची ५-अपात्र हेर उत्तम नेपाली ६ ॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। ४९३ डालने से आँखों के व्रण मिट जाते हैं और कुछ भी तकलीफ नहीं होती है, अथवा गूंदी (गोंदनी) की छाल को पीस कर उस का ऑख पर मोटा लेप करने से आँख को फायदा होता है। ___७-जब दाने फूट कर तथा किचकिचा कर उन में से पीप वा दुर्गन्धि निकलती है तब मारवाड़ देश में पञ्चवल्कल का कपडछान चूर्ण कर दबाते है अथवा कायफल का चूर्ण दबाते है, सो वास्तव में यह चूर्ण उस समय लाभ पहुंचाता है, इस के सिवायरसी को धो डालने के लिये भी पञ्चवल्कल का उकाला हुआ पानी अच्छा होता है। ८-कारेली के पत्तों का क्वाथ कर तथा उस में हलदी का चूर्ण डाल कर उसे पिलाने से चमड़ी में घुसे हुए ( भीतरी ) व्रण मिट जाते है तथा ज्वर के दाह की भी शान्ति __ हो जाती है। ९-यदि इस रोग में दस्त होते हों तो उन के बद करने की दवा देनी चाहिये तथा यदि दस्त का होना बन्द हो तो हलका सा जुलाब देना चाहिये। १०-जब फफोले फूट कर खलॅट आ जावें तथा उन में खाज (खुजली ) आती हो तब उन्हें नख से नहीं कुचरने देना चाहिये किन्तु उन पर मलाई चुपडनी चाहिये, अथवा केरन आइल और कार बोलिक आइल को लगाना चाहिये, जब फफोले फूट कर मुझाने लगें तब उन पर चावलों का आटा अथवा सफेदा भुरकाना चाहिये, ऐसा करने से चढे ( चकत्ते ) और दाग नहीं पड़ते है। विशेष सूचना-यह रोग चेपी है इस लिये इस रोग से युक्त पुरुष से घर के आदमियों को दूर रहना चाहिये अर्थात् रोगी के पास जिसका रहना अत्यावश्यक (बहुत ज़रूरी) ही है उस के सिवाय दूसरे आदमियों को रोगी के पास नही जाना चाहिये, क्योंकि प्राय. यह देखा गया है कि रोगी के पास रहनेवाले मनुष्यों के द्वारा यह चेपी रोग फैलने लगता है अर्थात् जिन के यह शीतला का रोग नहीं हुआ है उन बच्चों के भी यह रोग रोगी के पास रहनेवाले जनों के स्पर्श से अथवा गन्ध से हो जाता है। १-वड (वरगद), गूलर, पीपल, पारिस पीपल और पाखर (प्लक्ष), ये पाच क्षीरी वृक्ष अर्थात् दूधवाले वृक्ष है, इन पाचों की छाल (वक्कल) को पञ्चवल्कल कहते हैं । २-हलका सा जुलाव देने का प्रयोजन यह है कि उक्त रोग के कारण रोगी को निर्वलता (कमजोरी) हो जाती है इस लिये यदि उस में तीक्ष्ण (तेज) जुलाव दिया जावेगा तो रोगी उस का सहन नहीं कर सकेगा और निर्वलता भी अधिक दस्तों के होने से विशेप वढ जावेगी । ३-इन को पूर्वीय (पूर्व के) देशो मे खुट कहते हैं अर्थात् व्रण के ऊपर जमी हुई पपडी ॥ ४-क्योंकि नख (नासून ) से कुचरने (खुजलाने) से फिर व्रण (घाव) हो जाता है तथा नख के विप का प्रवेश होने से उस मे और भी सरावी होने की सम्भावना रहती है ।। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ मैनसम्मवामशिक्षा । इस रोग में जो यह प्रमा देसी बासी है कि- शीठ और पोरी मादिवाळे रोगी को परदे में रखते हैं तथा दूसरे भादमियों को उस के पास नहीं जाने देते हैं, सो श प्रया तो प्राय उत्तम ही है परन्तु इस के मसरी सस्व को न समझ पर छोग प्रम (पाम) के मार्ग में घने को है, देखो। रोगी को परदे में रखने तमा उसके पास दूसरे वनों ने न जाने देने का कारण तो बस यही है कि—पर रोग चेपी है, परन्तु प्रम में पड़े हुए बन उस का तात्पर्य यह समझते हैं कि रोगी के पास दूसरे बनो जाने से शीतग देवी कुन्द हो जायेगी इत्यादि, यह फेमन उन की मूर्सता मोर मश नवा ही है। रोगी के सोने के सान में सच्छता (सफाई ) रखनी चाहिये, वहाँ साफ इना को भाने देना चाहिये', भगरमती मादि मनी चाहिये मा धूप भादिके द्वारा उस सान को मुगन्धित रखना चाहिये कि जिस से उस सान की हया न बिगड़ने पाने । रोगी के पच्छे होने के माद उस के कपड़े और बिछौने आदि बना देने चाहिये अपना घुलना कर साफ होने के बाद उन में गन्भक न धुंषा देना चाहिये। स्खुराक-शीतला रोग से युक्त पधेको तथा गरे भावमी को सान पान में दूध, भारत, परिया, रोटी, प्रा डा र बनाई हुई रानड़ी, मग तश मरहर (तूर) की वार, पाल, मीठी मारगी तथा बजीर भादि मीठे मोर ठो पदार्थ प्रायः देने चाहिम, परन्तु यदि रोगी के कफन मोर हो गया हो तो मीठे पदार्ग तथा फर नहीं देने का हिये, उसे कोई भी गर्म वस्तु साने को नहीं देनी चाहिये । रोग की पहिणे अवसा में तथा दूसरी मिति में फेमळ दूप भाव ही देना भाई तीसरी सिति में केगर ( मसा) दूप ही अच्छा है, पीने के लिये ठंा पानी भरना बर्फ फा पानी देना पाहिये । रोग मिटने के पीछे रोगी मशक (माता) हो गया हो तो जप ठक पत्र 1-स पिप में परिव ७ प प पुरे गित से पाठकों ने विधिवत पन ऐन्ध है मासर में पान मेयो मूर्यता और ममता ५-अर्पद पार से भाव रसायनाट गरमी पारिपे । -पौरपलियाने से परे रोस पो ने (उत्तम से प्यने) सम्भावना रही । -शिरोम्पो धीरने में उपरोपके परमाणु प्रति पते परि पनपनयन पर अपप साफ और से पिमा पुस म साना गारो परमाणु सरे मनुप्पो परीर में प्रशिदोरम प्रेमपत्र पर ५-41 मरे पर भार भी दिसते शिससे सम्पमा उत्पागने मामा राख Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ चतुर्थ अध्याय ।। न आ जावे तब तक उसे धूप, गर्मी, वरसात तथा ठढ में नहीं जाने देना चाहिये तथा उसे थोड़ा और पथ्य आहार देना चाहिये तथा रोग के मिटने के पीछे भी बहुत दिनों तक ठढे इलाज तथा ठंढे खान पान देते रहना चाहिये । रोगी को जो दवा के पदार्थ दिये जाते है उन के ऊपर खुराक में दूध के देने से वे बहुत फायदा करते है ॥ ओरी (माझल्स) का वर्णन ॥ लक्षणयह रोग प्रायः बच्चो के होता है तथा यह ( ओरी) एक बार निकलने के वाद फिर नहीं निकलती है, शरीर में इस के विप के प्रविष्ट (दाखिल) होने के बाद यह दश वा पन्द्रह दिन के भीतर प्रकट होती हैं तथा कर्फ से इस का प्रारंभ होता है अर्थात् ऑख और नाक झरने लगते है। ___ इस में-कफ, छीक, ज्वर, प्यास और वेचैनी होती है, आवाज़ गहरी हो जाती है, गला आ जाता है, श्वास जल्दी चलता है, ज्वर सख्त आता है, शिर में दर्द बहुत होता है, दस्त वहुत होते हैं, वफारा बहुत होता है। ___ इस ज्वर में चमड़ी का रंग दूसरी तरह का ही बन जाता है, ज्वर आदि चिह्नों के दीखने के बाद तीन चार दिन पीछे ओरी दिखाई देती है, इस का फुनसी के समान छोटा और गोल दाना होता है, पहिले ललाट (मस्तक ) तथा मुख पर दाना निकलता है और पीछे सव शरीर पर फैलता है। जिस प्रकार शीतला में दानो के दिखाई देने के पीछे ज्वर मन्द पड़ जाता है उस प्रकार इस में नहीं होता है तथा शीतला के समान दाने के परिमाण के अनुसार इस में ज्वर का वेग भी नहीं होता है', ओरी सातवें दिन मुरझाने लगती है, ज्वर कम हो जाता है, चमड़ी की ऊपर की खोल उतर कर खाज (खुजली) बहुत चलती है। १-जैसे गुलकन्द आदि पदार्थ । २-यह भी शीतला रोग का ही एक भेद है अर्थात् शीतला सात प्रकार की मानी गई है उन्ही सात प्रकारों में से एक यह प्रकार है ॥ __ ३-क्योंकि विप शरीर में प्रविष्ट होकर दश वा पन्द्रह दिन में अपना असर शरीर पर कर देता है तव ही इस रोग का प्रादुर्भाव (उत्पत्ति) होता है । ४-कफ से अर्थात् प्रतिश्याय ( सरेकमा वा जुखाम) से इस का प्रारम्भ होता है, तात्पर्य यह है किइस के उत्पन्न होने के पूर्व प्रतिश्याय होता है अर्थात् नाक और आँस में से पानी झरने लगता है ।। ५-गहरी अर्थात् गम्भीर वा भारी॥ ६-गला आ जाता है अर्थात् गला कुछ पक सा जाता है तथा उस मे छाले से पड़ जाते है । ७-अर्थात् चमडी का रंग पलट जाता है। 4-अर्थात् इस मै दानों के दिखाई देने के पीछे भी ज्वर मन्द नहीं पड़ता है। ९-अर्थात् शीतला मे तो जैसे अधिक परिमाण के दाने होते हैं वैसा ही ज्वर का वेग अधिक होता है परन्तु इस में वह वात नहीं होती है। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ यह रोग ययपि शीवा के समान मयकर नहीं है तो मी इस रोग में माय भनेक समयों में छोटे बचों को हाफनी तमा फेफसेका परम (योग) हो जाता है, उस पक्षाने मह रोग भी भयकर हो जाता है मर्यात् उस समय में तन्द्रादि सनिपात हो जाता है, ऐसे समय में इस का खूब सावपानी से इलाज करना चाहिये, नहीं तो पूरी हानि पहुंचती है। ___ यह भी स्मरण रसना पाहिये कि सस्त मोरी के माने कुछ गहरे चामुनी रग के होते हैं। चिकित्सा-इस रोग में चिकित्सा माय धीसग के भनुसार ही करनी चाहिये, क्योकि इस की मुमतया चिकित्सा कुछ भी नहीं है, हां इस में भी मा भवास होना पाहिये कि रोगी को हवा में तमा ठंर में नहीं रखना चाहिये। खुराक--मात वास मौर दठिया बादि हलकी सुराक देनी चाहिये सका वास मौर पनिये को मिगा कर उस का पानी पिसाना पाहिये। इस रोगी को मासे मर सोंठ को सह में रगडकर (पिस कर ) सात दिन सक दोनों समम (प्रात' काठ भौर सायकल ) बिना गर्म पिसे हुए ही पिमना पाहिमे ॥ अछपडा (चीनक पाक्स) का वर्णन ॥ यह रोग छोटे पयों के होता है तथा यह महुत साधारण रोग है, इस रोग में एक दिन कुछ २ ज्वर भाकर दूसरे दिन छाती पीठ ममा न्पे पर छोटे २ मा २ दाने उत्पन्न होते हैं, दिन मर में अनुमान दो २ दाने पोजावे सपा उन में पानी भर जाता है, इस लिये ये दाने मोती के दाने के समान हो जाते हैं तथा ये दाने भी लगभग पीता के दानों के समान होते हैं परन्तु बहुत थोड़े मोर पूर २ होते हैं। इस रोग में पर थोड़ा होता है तथा दानों में पीप नहीं होता है इस सिप इस में कुछ र नहीं है, इस रोग की साधारणमा मास यहाँ तक है कि-कभी २ इस राम केवाने पीके सेम्ने २ही मिट जाते हैं, इस रिपे इस रोग में चिपिरसा की छ भी मावस्यकता नहीं है। - मीसा भपप्रमरपन से परान र भिया में पारा गलम हरेपपी. -पभोर पनि भिन्न र सपोनि से माम पदीय भारत प्रपन कप भरी . - पर-पीतम्प प्र भा . HTulsमाप्रमाणेीम मेमो ऐसी प्रेय and anton) thatMUNat पOn44. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४९७ रक्तवायु वा विसर्प (इरीसी पेलास ) का वर्णन ॥ भेद (प्रकार)-देशी वैद्यक शास्त्र के अनुसार भिन्न २ दोप के तथा मिश्रित (संयुक्त) दोष के सम्बन्ध से विसर्प अर्थात् रक्तवायु उत्पन्न होता है तथा वह सात प्रकार का है, परन्तु उस के मुख्यतया दो ही भेद है-दोपजन्य विसर्प और आगन्तुक विसर्प, इन में से विरुद्ध आहार से शरीर का दोप तथा रक्त (खून ) विगड़कर जो विसर्प होता है उसे दोषजन्य विसर्प कहते हैं और क्षत ( जखम ), शस्त्र के विष अथवा विषैले जन्तु (जानवर ) के नख ( नाखून) तथा दाँत से उत्पन्न हुए क्षत (जखम ) और ज़खम पर विसर्प के चेप के स्पर्श आदि कारणों से जो विसर्प होता है उसे आगन्तुक विसर्प कहते है। __कारण-प्रकृतिविरुद्ध आहौर, चेप, खराब विपैली हवा, जखम, मधुप्रमेह आदि रोग, विषैले जन्तु तथा उन के डक का लगना इत्यादि अनेक कारण रक्तवायु के हैं। इन के सिवाय-जैनश्रावकाचार ग्रन्थ में तथा चरकऋपि के बनाये हुए चरक ग्रन्थ में लिखा है कि यह रोग विना ऋतु के, विना जाँच किये हुए तथा बहुत हरे शाकों के खाने का अभ्यास रखने से भी हो जाता है । इन ऊपर कहे हुए कारणों में से किसी कारण से शरीर के रस तथा खून में विषैले जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं और शरीर में रक्तवायु फैल जाता है। लक्षण-वास्तव में रक्तवायु चमड़ी का वरम है और वह एक स्थान से दूसरे स्थान में फिरता और फैलता है, इसीलिये इस का नाम रक्तवायु रक्खा गया है, इस रोग में ज्वर आता है तथा चमड़ी लाल होकर सूज जाती है, हाथ लगाने से रक्तवायु के स्थान में गर्मी मालूम होती है और अन्दर चीस (चिनठा) चलती है। १-वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज (त्रिदोषज), वातपित्तज, वातकफज तथा पित्तकफज, ये सात भेद हैं। २-अर्थात् इन दो ही भेदों में सब भेदों का समावेश हो जाता है । ३-प्रकृतिविरुद्ध आहार अर्थात् प्रकृति को अनुकूल न आनेवाले खारी, खट्टे, कडए और गर्म पदार्थ आदि। ४-बहुत से घृक्षों में विना ऋतु के भी फल आ जाते है, (यह पाठकों ने प्राय देखा भी होगा), उन के खाने से भी यह रोग हो जाता है। ५-बहुत से जगली फल विपैले होते हैं भयवा विषैले जन्तुओं से युक्त होते हैं, उन्हें भी नहीं खाना चाहिये ॥ ६-वैसे तो वनस्पति का आहार लाभदायक ही है परन्तु उस के खाने का अधिक अभ्यास नहीं रखना चाहिये। ७-इसी लिये इसे विसर्प भी कहते हैं। ८-यह भी स्मरण रखना चाहिये कि दोपों के अनुसार इस रोग में भिन्न २ लक्षण होते हैं। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैनसम्प्रदायटिका ।। सब से प्रथम इस रोग में ठंड से कम्पन, घर का बेग, मन्दामि भौर प्यास, से स्पष होते हैं, रोगी क नगर मूत्र उतरता है, नाड़ी मस्दी घम्सी हे तमा कमी २ रोगी के वमन (उल्टी) और मम भी हो जाता है जिस से रोगी पाने माता सोपान मी करता है', इन पिहों के होने के बाद दूसरे मा वीसरे दिन शरीर के किसी भाग में रक पायु दीसमे लगता है समा वार मोर लाल शोष (सूबन ) भी हो जाती है। आगन्तुक रकमायु कुरूपी के दान के समान होर फफोगे से शुरू होता है तथा उस में काम खून, शोभ, मर मौर वाह बहुत होता है, जप यह रोग म्पर की धमकी में होता है सब तो ऊपरी चिकित्सा से ही थोड़े दिनों में शान्त हो आता है, परन्तु बम उस का पिप गहरा (पमड़ी के भीतर ) मग आता तब यह रोग पड़ा भयंकर होता है पर वह पकसा है, फफोला होकर झटता है, सोम बहुस होता है, पीड़ा याद रोधी हे, रोगी की शक्ति कम हो पाती है, एक स्थान में मश्या भनेक स्थानों में मुंह के (छेद करके) फूटता है तथा उस में से मांस के टुको निकल करते हैं, मीवर का मांस सरने जाता है, इस प्रकार यह अन्त में हाहातक पहुंच जाता है उस समय में रोगी का सपना अतिकठिन हो पाता है और सासकर जर या रोग गले में होता है तब भत्पन्स भयंकर होता है। भिकिस्सा --१-स रोग में शरीर में वाह न करनेवाग सुगम देना चाहिमे तमा वमन (उमटी), छेप और सींचने की विकिस्सा करनी चाहिये तथा मवि मागश्याम्य समझी बाये तो योक लगानी चाहिये । २--सवेनिया, फाग इसराम, हेमकन्द, साबचीनी, सोना गेस, बरम और पवन मादि सीतर पदार्थों का लेप करने से रकगायु का वाह मौर घोष सान्त हो पाता है। ३-पन्दन भवना पसनष्ठ, माग सपा मोठी, इन मौषपों को पीस कर मया उकाल कर देखा करके उस पानी की पार देने से यान्ति होती है सबा फूटने के बाद भी इस बछ से भोने से ठाम होता है। ४-पिरायसा, असा, कुटकी, पटोग, त्रिफला, रफपन्दम तमा नीम की भीवरी पार, इन का काम बना कर पिमाना पाहिये, इसके पिम्मने से ज्वर, मम, दाह, शोष, मुनी भीर विस्फोटक भादि सब उपद मिट जाते हैं। ५-रकमा भी पिकिरमा किसी भच्छे इमर (चतर) पपाडास्टर से करानी पारिमे । - ट से पन मावि इस रोग पूर्वप समझे प्रवे १-ऐसे समय में इसकी पिरिसा मा पनप पा सर से पानी चाहिये। 1ोसरनेम सुमनने से राऐग की विधापन । -नम्मी पापी सम्म -निम सिपों में पचासे ममें सुम्मा देवा पार मिनु मेष (दिन में रो रो सिम में उम्मए नाना पाहिये। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ विशेष सूचना-इस रोग से युक्त पुरुष को खुराक अच्छी देनी चाहिये, इस रोगी के लिये दूध अथवा दूध डाल कर पकाई हुई चावलों की कांजी उत्तम पथ्य है, रोगी के आसपास स्वच्छता (सफाई ) रखनी चाहिये तथा रोगी का विशेप स्पर्श नहीं करना चाहिये, देखो ! अस्पतालों में इस रोगी को दूसरे रोगी के पास डाक्टर लोग नहीं जाने देते है, उन का यह भी कथन है कि-डाक्टर के द्वारा इस रोग का चेप दूसरे रोगियों के तथा खास कर जखमवाले रोगियों के शरीर में प्रवेश कर जाता है, इस लिये जखमवाले आदमी को इस रोगी के पास कभी नहीं आना चाहिये और न डाक्टर को इस रोगी का स्पर्श कर के जखमवाले रोगी का स्पर्श करना चाहिये ॥ यह चतुर्थअध्यायका ज्वरवर्णन नामक चौदहवा प्रकरण समाप्त हुआ। पन्द्रहवां प्रकरण-प्रकीर्णरोगवर्णन ॥ प्रकीर्णरोगे और उन से शारीरिक सम्बन्ध ॥ यह वात प्रायः सब ही को विदित है कि वर्तमान समय में इस देश में प्रत्येक गृह में कोई न कोई साधारण रोग प्रायः बना ही रहता है किन्तु यह कहना भी अयुक्त न होगा कि प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य प्रक्षिप्त (फुटकर ) रोगों में से किसी न किसी रोग में फंसा ही रहता है, इस का क्या कारण है, इस विषय को हम यहा अन्थ के विस्तार के भय से नहीं दिखलाना चाहते है, क्योकि प्रथम हम इस विषय में संक्षेप से कुछ कथन कर चुके है तथा तत्त्वदर्शी बुद्धिमान् जन वर्तमान में प्रचरित अनेक रोगो के कारणों को जानते भी है क्योकि अनेक बुद्धिमानों ने उक्त रोगो के कारणों को सर्व साधारण को प्रकट कर इन से बचाने का भी उद्योग किया है तथा करते जाते है । हम यहा पर ( इस प्रकरण में) उक्त रोगो में से कतिपय रोगोंके विशेषकारण, लक्षण तथा शास्त्रसम्मत (वैद्यकशास्त्र की सम्मति से युक्त) चिकित्सा को केवल इसी प्रयोजन १-क्योंकि यह रोग भी चेपी (स्पर्शादि के द्वारा लगनेवाला) है ॥ २-ग्रकीर्ण रोग अर्थात् फुटकर रोग ॥ ३-क्योंकि वर्तमान समय में लोगो को आरोग्यता के मुख्य हेतु देश और काल का विचार एवं प्रकृति के अनुकूल आहार विहार आदि का ज्ञान विलकुल ही नहीं है और न इस के विषय में उन की कोई चेष्टा ही है, वस फिर प्रलेक गृह मे रोग के होने में अथवा प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य के रोगी होने में आश्चर्य ही क्या है॥ __कतिपय रोगो के अर्थात् जिन रोगो से गृहस्थी को प्राय पीडित होना पडता है उन रोगों के कारण लक्षण तथा चिकित्सा को लिसते है ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ से मिलते हैं फि-साधारण गृहस्थ जन सामान्य कारणों से उत्पन्न होनेवाले तक रोगों से उन के कारणों को बान कर परे रहें सपा देववध वा भारमदोष से' यदि उक रोमो में से कोई रोग उत्पन हो माने तो लक्षणों के द्वारा उसमा निमय तथा चिकित्सा पर उस (रोग) से मुकि पास, क्योंकि वर्तमान में मह पात प्रायः देसी जाती है कि-एक साधारण रोग के भी उत्पन्न हो जानेपर सर्व साधारण फो वैपके अन्वेपण (रने) भौर विनय द्रव्यन्मया पपने कार्य का स्याग, समय का नाम तमा शेवसहन भावि के द्वारा मविकट उपना परसा है। इस प्रकरण में उन्हीं रोगों का वर्णन किया गया है जो कि वर्चमान में प्राम' प्रपरित हो रहे सपा जिन से प्राणिमों भनेक कर पहुँप हे हैं, वैसे-भवीर्म, ममिमान्य (भमि की मन्दता), शिर का दर्द, अतीसार, संग्रहणी, रुमि, उपवन मोर प्रमेह मादि । इन के वर्णन में यह भी विशेषता की गई है जिनके कारण और स्लमों को मसी मासि समझा कर पिकिस्सा का यह उत्तम कम रक्सा गया है कि-बिसे समाप्त कर एक सापारण पुरुप भी मम उठा सकसा है, इस पर मी मोपपियों के प्रयोग प्राम' ये किसे गये हैं ओ कि रोगोंपर अनेकवार छाभकारी सिद्ध हो चुके हैं। इस के सिवाय ममासस रोगविक्षेप पर भप्रेमी प्रयोग भी दिखा दिये गये यो कि-अनेक विद्वान् राक्टरों के द्वारा मायः मभकारी सिद्ध हो चुके हैं। माशा है कि-सर्वसापारण तमा ग्रास मन इस से भवम्म साम उठावेंगे । अप फारम रूक्षण तथा चिफित्सा के कम से भारश्यक रोगों का वर्णन किया यावा । अजीर्ण (इराइजेधन) का वर्णन ॥ भवीर्ण का रोग यपपि एक बहुत साधारण रोग माना जाता है परन्तु विधार पर देखने से यह भच्छे प्रकार से विदित हो जाता है कि यह रोग कुछ समय के पमात् प्रवरूप को धारण कर लेता है भाव इस रोग से भरीर में भनेक दूसरे रोगों की जा सिस (कायम ) हो पाती है, इस लिये इस रोग को सापारण न समझकर इस पर पूरा पक्ष्म (प्याम ) देना चाहिये, तात्पर्य यह है कि यदि शरीर में मरा भी भजीर्ण माराम पड़े तो उप्त का शीघ्र ही इमा करना चाहिये, देसो! इस पात से प्रायः सन ही समस वैषध भात् पूर्णास मागम फोन से तमा मारमोप से भर्षात पेम से बचानेपाने कारों प्रतिभा पर भी कभी न कभी भूड पामे से । २-पस पाने प्रास होम मेक तौर पे जानते है कि इस प्रमभनुमय से पुभ.. १-यम और मामिमाम पे पे रोग को प्रामापमान में मनुमो प्रेममन्त पाप हे। और विचार कर देखा जाये तो ये हो ऐ रोप सब रोमाने मूकपरम भर्षात् नी दोनों से म रोम स्पन वे ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ चतुर्थ अध्याय || सकते हैं कि शरीर का बन्धेज (बन्धान ) खुराक पर निर्भर है परन्तु वह खुराक ही जब अच्छे प्रकार से नहीं पचती है तब वह (खुराक) शरीर को दृढ़ करने के बदले उलटा शिथिल ( ढीला ) कर देती है, तथा खुराक के ठीक तौर से न पचने का कारण प्रायः अजीर्ण ही होता है', इस लिये अजीर्ण के उत्पन्न होते ही उसे दूर करना चाहिये। ___ कारण-अजीर्ण होने का कारण किसी से छिपा नहीं है अर्थात् इस के कारण को प्रायः सब ही जानते है कि अपनी पाचनशक्ति से अधिक और अयोग्य खुराक के खाने से अजीर्ण होता है, अर्थात् एक समय में अधिक खा लेना, कचे भोजन को खाना, बेपरिमाण (विना अन्दाज अर्थात् गलेतक ) खाना, पहिले खाये हुए भोजन के पचने के पहिले ही फिर खाना, ठीक रीति से चबाये विना ही भोजन को खाना तथा खान पान के पदार्थों का मिथ्यायोग करना, ये सब अजीर्ण होने के कारण है। ___ इन के सिवाय-बहुत से व्यसन भी अजीर्ण के कारण होते है, जैसे मद्य (दारू), भंग ( भाग), गांजा और तमाखू का सेवन, आलस्य (सुस्ती), वीर्य का अधिक खर्च करना, शरीर को और मन को अत्यन्त परिश्रम देना तथा चिन्ता का करना, इत्यादि अनेक कारणों से अजीर्णरूपी शत्रु शरीररूपी किले में प्रवेश कर अपनी जड़ को दृढ़ कर लेता है और रोगोत्पत्तिरूपी अनेक उपद्रवों को करता है। लक्षण-अजीर्ण यद्यपि एक छोटासा रोग गिना जाता है परन्तु वास्तव में यह सब से बड़ा रोग है, क्योंकि यही ( अजीर्ण ही) सब रोगों की जड़ है, यह रोग शरीर में स्थित होकर (ठहर कर ) प्रायः दो क्रियाओं को करता है अर्थात् या तो दस्त लाता है अथवा दस्त को बन्द करता है, इन (दोनों) में से पूर्व क्रिया में दस्त होकर न पचा हुआ अन्न का भाग निकल जाता है, यदि वह न निकले तो प्रायः अधिक खराबी करता है परन्तु दूसरी क्रिया में दस्त की कब्जी होकर पेट फूल जाता है, खट्टी डकार आती है, जी मिचलाता है, उबकी आती है, वमन होता है, जीभपर सफेद थर (मैल) जमजाती है, छाती और आमाशय (होजरी ) में दाह होता है तथा शिर में दर्द होता है, इन के सिवाय कभी २ पेट में चूक चलती है और नींद में अनेक प्रकार के दुःस्वप्न (बुरे सुपने) होते है, इत्यादि अनेक चिह्न अजीर्णरोग में मालूम पड़ते है । १-अजीर्ण शरद का अर्थ ही यह है कि खाये हुए भोजन का न पचना ॥ २-क्योंकि उत्पन्न होते ही इस का इलाज कर लेने से यह शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है अर्थात् शरीर मे इस की जड नहीं जमने पाती है । ३-पाचनशक्ति से अधिक खुराक के खाने से अर्थात् आधसेर की पाचनशक्ति होनेपर सेरभर सुराक के खा लेने से तथा अयोग्य खुराक के खाने से अर्थात् प्रकृति के विरुद्ध खुराक के खाने से अजीर्ण . रोग उत्पन्न होता है। ४-लिखने पढने और सोचने आदि के द्वारा मन को भी अधिक परिश्रम देने से अजीर्ण रोग होता है, क्योकि-दिल, दिमाग और अग्न्याशय, इन तीनों का बडा घनिष्ठ सम्बध है ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जैनसम्पदामशिक्षा || भेद (प्रकार) देशी वैद्यक शास्त्र में भजीर्ण के प्रकरण में अठराभि के विकारों का बहुत सूक्ष्मरीति से विचार किया है' परन्तु मन्य के मढ़ जाने के भय से उन सब का विस्तारपूर्वक वर्णन महां नहीं लिख सकते हैं किन्तु आवश्यक जान कर उन का सार मात्र सक्षेप से यहां दिखाते हैं न्यूनाधिक तथा सम विपम मभाव के अनुसार बठराभि के चार भेव माने गये हैंमन्यामि', तीक्ष्णामि, विपमामि और समाभि । इन चारों के सिवाय एक अतितीक्ष्णामि भी मानी गई है जिस को भस्मक रोग कहते हैं। इन सब भमियों का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये कि मन्दामियाले पुरुष ૐ मोड़ा स्वामा हुआ भोजन सो पच जाता है परन्तु किञ्चित् मी अधिक स्वामा हुमा भोजन कभी नहीं पचता है, तीक्ष्णामिवाले पुरुष का अधिक भोजन भी अच्छे प्रकार से प सकता है, विपमामियाले पुरुष का खाया हुआ मोबन कभी हो अच्छे प्रकार से पत्र माता है और कभी अच्छे प्रकार से नहीं पता है, इस पुरुष की भमि का बल भनियमित होता है इसलिये इस के माय अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, समामिगाळे पुरुष का किया हुआ भोजन ठीक समय पर ठीक रीति से पचगाता है तथा इस का शरीर भी नीरोम रहता है तथा वीक्ष्माभिगाला ( भस्मकरोगनाला ) पुरुष जो कुछ स्लाता है यह श्रीमदी १-क्योकि भजी से और जयमि के विकारों से परस्पर में बडा सम्बंध है या कहना चाहिने कि- अजीर्ण पटरामिकेवर ही है 1-चीपाई - - सम्म माय मोजन याने मिनिअम पर सेवा ॥ मन्द श्रमिमामो मस्प हु भाषिक मावरा हे बस नति गर्न वा घारै Д पर्ष अन का पुपुर पहर में भाख चिम भगनि के मे है लिए प्रमाण मावरा अमीप राम अपनी बहू नाम बानो राम अम्मी के बोरे म अनि जान हो तो हूँ मोह पर बुद्ध पावे ॥ १ ॥ श्रीस जठर भवि भारी बेस १० वा कफ प्रथम परिचय सो पनि भाग प्राण सुख देने ४ पिप्रधान तीन गुना ॥ ५० नारा उदर रहा६॥ ॥ कबक मक सायक अति वा या बस मधू ॥ महिन चार अपने में भेजा पूर जन्म पुसोई गय पम्यान व अति भोजन से हिन्ा पुग्न श्री क्षेत्र की योगपिठ बापू या ॥१४ १ ភ ११॥ १९० १२० अमि बाबू कर रही अपक भ्रम भरि १५० जादो भयाचा प भोजन यम जर्मन कर दी मोदी१७ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५०३ __ भस्म हो जाता है तथा उस को पुनः भूख लग जाती है, यदि उस भूख को रोका जावे तो उस की अतितीक्ष्णाग्नि उस के शरीर के धातुओं को खा जाती है (सुखा देती है)। इन्हीं ऊपर कही हुई अमियों का आश्रय लेकर वैद्यक शास्त्र में अजीर्ण के जितने भेद कहे हैं उन सब का अब वर्णन किया जाता है: १-आमाजीर्ण-यह अजीर्ण कफ से उत्पन्न होता है तथा इस में अंग में भारीपन, ओकोरी, आंख के पोपचों पर थेथैर और खट्टी डकार का आना, इत्यादि लक्षण होते है। २-विदग्धाजीर्ण-यह अजीर्ण पित्त से उत्पन्न होता है तथा इस में अमे का होना, प्यास, मुर्छा, सन्ताप, दाह तथा खट्टी डकार और पसीने का आना, इत्यादि चिह्न होते है। ३-विष्टधाजीर्ण-यह अजीर्ण वादी से होता है तथा इस में शूल, अफरा, चूक, मल तथा अधोवायु (अपानवायु) का अवरोध ( रुकना), अंगों का जकड़ना और दर्द का होना, इत्यादि चिह्न होते है। ४-रसशेषाजीर्ण-भोजन करने के पीछे पेट में पके हुए अन्न का साररूप रस (पतला भाग) जब नहीं पकने पाता है अर्थात् उस के पकने के पहिले ही जब भोजन कर लिया जाता है तब अजीर्ण उत्पन्न होता है, उस को रसशेषाजीर्ण कहते हैं, इस अजीर्ण में हृदय के शुद्ध न होने से तथा शरीर में रस की वृद्धि होने से अन्नपर अरुचि होती है। ___ अजीर्णजन्य दूसरे उपद्रव-जब अजीर्ण का वेग बहुत बढ़ जाता है तब उस अजीर्ण के कारण विचिका (हैज़ा), अलसक तथा विलम्बिका नामक रोग हो जाता है', इन का वर्णन सक्षेप से करते हैं: १-आमाजीर्ण अर्थात् आम के कारण अजीर्ण ॥ २-ओकारी अर्थात् वमन होने की सी इच्छा ।। ३-आँख के पोपचों पर थेथर अर्थात् आँख के पलकों पर सूजन ॥ ४-यह अजीर्ण कफ की अधिकता से होता है ।। ५-भ्रम अर्थात् चकर ॥ ६-इस अजीर्ण में पित्त के वेग से धुएँ सहित खट्टी डकार आती है। ७-चूक अर्थात् शूलभेदादि वातसम्बन्धी पीडा ॥ ८-(प्रश्न ) आमाजीर्ण में और रसशेपाजीर्ण में क्या भेद है, क्योंकि आमाजीणं आम (कच्चे रस के सहित होता है और रसशेपाजीर्ण भी रस के शेप रहनेपर होता है ? (उत्तर) देखो ! आमाजीर्ण मे तो मधुर हुआ कच्चा ही अन्न रहता है, क्योंकि-मधुर हुए कच्चे मन की आम सज्ञा है और रसशेपा. जीर्ण में भोजन किये हुए पके पदार्थ का रस पेट में शेष रहता है और वह रस जवतक जठराग्नि से नहीं पकता है तबतक उस की रसशेपाजीर्ण सज्ञा है, वस इन दोनों में यही भेद है ॥ ९-स्मरण रखना चाहिये कि- विचिका, अलमक और विलम्विका, ये तीनों उपद्रव प्रत्येक अजीर्ण से होते हैं ( अर्थात् मामाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण और विष्टधाजीर्ण, इन तीनों से यथाक्रम उक्त उपद्रव होते हों यह वात नहीं है)। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ जैनसम्प्रदायसिसा ॥ पिचिफा-दस रोग में अतीसार ( यस्तों का उगना), मूळ (बेहोशी), मन (उल्टी,) प्रम (पपर का आना), दाह (जठन), शूल (पी), पदय में पीड़ा प्यास, हाथ भीर पेरों में खचातान (पाइटा), अतिमम्भा (जभाइयों का भाषिक माना), देह पा विवण (शरीर फे रंग का पद नामा), रिसता (पनी) और फम्प (फापना), ये रक्षण होवे है। __ अलसफइस रोग में आहार न तो नीचे उतरता है न उपर को जाता है। भोर न परिपक दी होता है, किन्तु भारुसी पुरुष फे समान पेट में एक जगह ही पड़ा रहता दे', इस के सिपाय इस रोग में भफरा, मल मूत्र भोर गुदा की पपन (भपानवायु) का रुकना सभा अति सूपा (प्यास फा अधिक लगाना), इत्यादि सदम भी होते हैं, इस रोग में माप मनुष्य को भविष्ट होता है। पिलम्पिका-स रोग में किया हुआ भोजन कफ और बात से दूषित होरन तो ऊपर को जाता है और न नीचे फो ही जाता है भर्भात न मो यमन के द्वारा नि:Bहा है बार म विरेचन (वन) ही के द्वारा निरसता है, इस रोग में अठसा रोम से यह भेद है फि-मम्स रोग में वो पूल मादि पोर पीरा होती है परन्तु इस में पेसा पीड़ा नही होसी दे। जर मिरिता भीर मल्सफ रोग में रोगी दाँत नस मोर भोट (भोठ) पते से चा, मत्य त पमन हो, शान (मा) नाश हो जाये , मय भीतर पुस जाने, सर धीण दो बारे मा सन्धियां विधित हो जाने सप इन 8ोहोन के मार रोगी मही मटा दे। निद्रा का नाश, मन का न लगना, पम्प, म्प का हाना भोर सभी का नाम, प पार पिरिपोर उसपर । परितेहपुरेनिगुपा भोजन में विषमता से मनुष्य पनीत रोग हो जाता 1- तोरMAHICHIEROAarta पोnut 1-1 भी पिसिनाने समान • E010पया. ५- 4 1411 1-14 माराम भगो . --भाग-tamil -uERT4100 . Int (IRVAN) 44. 414 danRN H Intra . Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५०५ है तथा वही अजीर्ण सब रोगों का कारण है, इस लिये जहांतक हो सके अजीर्ण को शीघ्र ही दूर करना चाहिये, क्योंकि अजीर्ण रोग का दूर करना मानो सब रोगों को दूर करना है । अजीर्ण जाता रहा हो उस के लक्षण - शुद्ध डकार का आना, शरीर और मन का प्रसन्न होना, जैसा भोजन किया हो उसी के सदृश मल और मूत्र की अच्छे प्रकार से प्रवृत्ति होना, सब शरीर का हलका होना, उस में भी कोष्ठ ( कोठे अर्थात् पेट ) का विशेष हलका होना तथा भूख और प्यास का लगना, ये सब चिह्न अजीर्ण रोग के नष्ट होनेपर देखे जाते हैं, अर्थात् अजीर्ण रोग से रहित पुरुष के भोजन के पच जाने के बाद ये सब लक्षण देखे जाते है । अजीर्ण की सामान्यचिकित्सा - १ - आमाजीर्ण में गर्म पानी पीना चाहिये', विदग्धाजीर्ण में ठढा पानी पीना तथा जुलाब लेना चाहिये, विष्टब्धाजीर्ण में पेटपर सेंक करना चाहिये और रसशेपाजीर्ण में सो जाना चाहिये अर्थात् निद्रा लेनी चाहिये । २-यद्यपि अजीर्ण का अच्छा और सस्ता इलाज लंघन का करना है परन्तु न जाने मनुष्य इस से क्यों भय करते है ( डरते है ), उन में भी हमारे मारवाडी भाई तो मरना स्वीकार करते हैं परन्तु लघन के नाम से कोसों दूर भागते है और उन में भी भाग्यवानो का तो कहना ही क्या है, यह सब अविद्या का ही फल कहना चाहिये कि उन को अपने हिताहित का भी ज्ञान बिलकुल नहीं है । ३ - सैंधानिमक, सोंठ तथा मिर्च की फंकी छाछ वा जल के साथ लेनी चाहिये । ४- चित्रक की जड़ का चूर्ण गुड़ में मिला कर खाना चाहिये । ५-छोटी हरड़, सोंठ तथा सैंधानिमक, इन की फकी जल के साथ वा गुड़ में मिला कर लेनी चाहिये । ६-सोंठ, छोटी पीपल तथा हरड़ का चूर्ण गुड के साथ लेने से आमाजीर्ण, हरेंस और कब्जी मिट जाती है । १ - अर्थात् जीर्णोद्दार ( पचे हुए आहार ) के लक्षण ॥ २ - इस (आमाजीर्ण) में वमन कराना भी हितकारक होता है ॥ ३ - विदग्धाजीर्ण में लघन कराना भी हितकारक होता है ॥ ४- अर्थात् इस (विष्टब्धीजीर्ण ) मे सेंक कर पसीना निकालना चाहिये | ५-क्योंकि निद्रा लेने (सो जाने ) से वह शेष रस शीघ्र ही परिपक्व हो जाता ( पच जाता ) है | ६- अच्छा इस लिये है कि ऊपर से आहार के न पहुचने से उस पूर्वाहार का परिपाक हो ही गा और सस्ता इस लिये है कि इस द्रव्य का खर्च कुछ भी नहीं है, अत गरीब और अमीर सब को ही सुलभ है अर्थात् सव ही इसे कर सकते हैं ॥ ७- इरस अर्थात् ववासीर ॥ ६४ f Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ बैनसम्पदामशिक्षा | ० पनिमा तथा सौंठ का काम पीने से भामाजीर्ण और उस का धूल मिट जाता है। ८ - अममायन तथा सोंठ की फंकी अजीर्ण तथा अफरे को शीघ्र ही मिटाती है। ९- काळा मीरी दो से चार बाउसक निमक के साथ चावनी चाहिये । १० - म्हसुन, जीरा, सञ्चल निमक, सैषा निमक, हींग और नींबू आदि दवाइयां भी पति को प्रदीत करती तथा अमीर्ण को मिटासी है, इस खिमे इन का उपयोमै करना चाहिये, अथवा इन में से ओ मिले उस का ही उपयोग करना चाहिये, यदि नींबू का उपयोग किया जावे तो ऐसा करना चाहिये कि नींबू की एक फांफ में काली मिर्च और मिश्री को तथा दूसरी फांक में काली मिर्च और सैषेनिमक को डाल कर उस फॉक को अभिपर रख कर गर्म कर उतार कर सहता २ भूसना चाहिम, इस मकार पांच साव नींबुओं को भूस लेना चाहिये, इस का सेवन बजीर्ण में सभा उस से उत्पन्न हुई प्यास और उलटी में बहुत फायदा करता है । ११ - सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल, दोनों खीरे ( सफेद और काल्म ), सैंपानिमक, घुठ में मूनी हुई हींग और मनमोवें, इन सब वस्तुओं को समान भाग लेकर तथा हींग के सिवाज सन चीखों को कूट सवा छान लेना चाहिये, पीछे उस में हींग को मिला देना चाहिये, इस को हिंगाष्टक चूर्ण कहते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार इस में से घोड़े से चूर्ण को घृत में मिला कर भोजन के पहिले ( प्रथम कवल के साथ ) खाना चाहिये, इस के खाने से अजीर्ण, मन्दाग्मि, शुरू, गुल्म, अरुचि और बायुजन्म ( बासुसे उत्पन्न हुए) सर्व रोग शीघ्र ही मिट जाते हैं तथा अजीर्ण के लिये तो यह पूर्ण अति उत्तम औषध है । १२ - चार माग सौंठ, दो भाग सैघानिमक, एक भाग हर हुमा गन्धर्क इन सब को मिला कर नींबू के रस की सात पुट १–उपप्रेष भर्वाद सेवन सभा एक भाग छोभा देनी चाहियें, पीछे एक १-एक पांक में अर्थात् आनींबू में ३-विश्व के सेवन से अभी तथा उस से उत्पन्न हुई प्यास और उच्च मिट जाती है, इस के सिवाय इसके सेवन से बात भादि दोषों की शान्ति होती है, मनपर उषित है, आती है सुख का ठीक हो जाता है तथा ठाम मत क्षेती है कार ४-अजमोद के मान में अजवायन डालनी चाहिये वह किन्हीं कोयों की सम्मति है, क्योंकि जब अन्त सम्मार्जनी (कोठे को करनेवाली ) है परन्तु अजमोद में वह शुभ नहीं है ५-यदि म होटो बिजौरे के रस के साथ एस चूर्ण की गोलियां क्या कर उनका सेवन करना चाहिने ६-म्भक के घोषने की विधि यह है कि वीमेंसे की कोपर्म कर उस में पन्धक का पूर्ण डाक देना चाहिये जब वह एक जाये तब उसे पानी मिष्यये हुए धूप में खाक देना चाहिये इसी तरह सब म्भक को भाकर बुच में डाल देना चाहिये तथा अच्छी तरह से धोख प्रेमा चाहिने Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५०७ एक मासे की गोलिया बनानी चाहिये तथा शक्ति के अनुसार इन गोलियो का सेवन करना चाहिये, इस गोली का नाम राजगुटिका है, यह अजीर्ण, वमन, विपूचिका, शुल और मन्दामि आदि रोगों में शीघ्र ही फायदा करती है । इन ऊपर कहे हुए साधारण इलाजो के सिवाय इन रोगों में कुछ विशेष इलाज भी है जिन में से प्रायः रामबाण रस, क्षुधासागर रस, अजीर्णकण्टक रस, अग्निकुमार रस तथा शूलदावानल रस, इत्यादि प्रयोग उत्तम समझे जाते हैं । विशेष सूचना-अजीर्ण रोगवाले को अपने खाने पीने की संभाल अवश्य रखनी चाहिये क्योंकि अजीर्ण रोग में खाने पीने की संभाल न रखने से यह रोग प्रवल रूप वारण कर अतिभयंकर हो जाता है तथा अनेकरोगों को उत्पन्न करता है इस लिये जब अजीर्ण हो तब एक दिन लंघन कर दूसरे दिन हलकी खुराक खानी चाहिये तथा ऊपर लिखी हुई साधारण दवाइयों में से किसी दवा का उपयोग करना चाहिये, ऐसा करने से अजीर्ण शीघ्र ही मिट जाता है, परन्तु इस रोग में प्रमाद (गफलत) करने से इस का असर शरीर में बहुत दिनोंतक बना रहता है अर्थात् अजीर्ण पुराना पड़ कर शरीर में अपना घर कर लेता है और फिर उस का मिटना अति कठिन हो जाता है। बहुधा यह भी देखा गया है कि बहुत से आदमियों के यह अजीर्ण रोग सदा ही बना रहता है परन्तु तो भी वे उस का यथोचित उपाय नहीं करते है, इस का अन्त में परिणाम यह होता है कि-वे उस रोग के द्वारा अनेक कठिन रोगों में फंस जाते है और रोगों की फर्यादी (पुकार ) करते हुए तथा अत्यन्त व्याकुल होकर अनेक मूर्ख वैद्यों से अपना दुःख रोते हैं तथा मूर्ख वैद्य भी अजीणे के कारण को ठीक न जान कर मनमानी चिकित्सा करते हैं कि जिस से रोगी के उदर की अग्नि सर्वदा के लिये बिगड़ कर उन को दुःख देती है तथा अजीर्णरोग मृत्युसमय तक उन का पीछा नहीं छोडता है, इस लिये मन्दाग्नि तथा अजीर्णवाले पुरुष को सादी और वहुत हलकी खुराक खानी चाहिये, जैसेदाल भात और दलिया आदि, क्योंकि यह खुराक ओषधि के समान ही फायदा करती है, यदि। इस से लाभ प्रतीत (मालूम ) न हो तो कोई अन्य साधारण चिकित्सा करनी चाहिये, अथवा किसी चतुर वैद्य वा डाक्टर से चिकित्सा करानी चाहिये। १-इन सब का विधान आदि दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देस लेना चाहिये ॥ २-परन्तु शाम को अजीर्ण मालूम हो तो थोडा सा भोजन करने में कोई हानि नहीं है, तात्पर्य यह है कि--प्रात काल किये हुए भोजन का अजीर्ण कुछ शाम को प्रतीत हो तो उस में शाम को भी योडा सा भोजन कर लेने में कोई हानि नहीं है परन्तु शामको किये हुए भोजन का अजीर्ण यदि प्रात काल मालूम हो तो ओपधि आदि के द्वारा उस की निवृत्ति कर के ही भोजन करना चाहिये अर्थात् उसी अजीर्ण में भोजन नहीं कर लेना चाहिये । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विन भर परेर तवा परिमाया है, पेलिपे गले के सपरे । ५०८ भेनसम्प्रदायशिक्षा ।। ___ पुराने अजीर्ण (डिसपेपसिया) का वर्णन ॥ पर्वमान समय में यह अनीर्म रोग बड़े २ नगरों के मुघरे हुए भी समाज का उपा प्रत्येक पर का सास मर्न पन गया है', देखिये ! अनेक प्रकार के मनमाने भोजन करने के शौक में पड़े हुए सबा परिमम न करनेवासे मर्थात् गद्दी तफियों का सहारा लेकर दिन भर पड़े रहनेवाले अनेक सम्म पुरुयोपर यह रोग उन की सभ्यता म कुछ विचार न करे वारंवार भाक्रमण (हम) करता है परन्तु मो लोग चमचमाइटदार मा साविष्ट खान पान के आनन्द और उनके शौफ से पत्र में समा मो लोग रात को नाच तमाशे और नाटक आदि के देसने की मत से पप कर सापारमतमा भपने जीवन का निर्वाह करते हैं उनपर यह रोग प्रामा दया करता है भात् घे पुरुप मायः इस रोग से नये रहते हैं। पाठकगण इस के उदारम को प्रत्यक्ष ही देख सकते हैं कि-पई, हैदराबाद, कर पसा, बीकानेर, महमदाबाद और सूरत भावि जैसे शौकीन नगरों में इस रोग का अधिक फैलाव है वमा साधारणतया निर्वाह परने योम्म सर्वत्र माम मावि सानों में दूरने पर भी इसके मिह नहीं दीसते हैं, इस का कारण फेवल मही है वो भभी पर पुरे हैं। __ इस बात म भनुभव तो प्रायः सब ही को होगा कि बिन धनवानों के पास सुस सब सापन मौजूद है उन की अमानतासे उन के कुटुम्म में सदा मादी और बदहजमी रहती है तथा उसी के कारण शरीर भौर मन की अकि उन पर भी पीछा नहीं छोड़ती है। लक्षण-भूस तथा चि का नाश, छाती में वाह, सही उकार, उपफी, नमन (उम्टी), होनरी में दद, यायु का सनो, मरोरा, भरक (पदय का पाना), भास पा हाना, शिर में दर्द, मन्दन्नर, भनिद्रा (नीद पा न माना), बहुत समान माना, उवासी, मन में बुरे विचारों का उत्पत होना तथा मुंह में से पानी गिरना, ये इस भनीण के क्षण हैं, इस रोग में अस ननरों से भी देसे नदी मुहाता है और न 1-OR E-पहिले पोभान रोम रत्तम दुभा पा उस वैबर से निमियम प्यने से पाप मानेनने मिभ्य भार भीर कि सेवन से रख पर प्रस्म रोस पर प्रोक पर एक प्यम मर्म बन पगारे १-अन्त्य सम्म पुरन यसकाई, दस पाव भी पारमर १-उमरियाने पीने भारिरिक्षेत्र परम पार तथा यानि RAR पर भम र भाव र सवारोपमा 1- प्र मभी नियरे मी दरियरपोरiu ५-भरावाचार मनायुविषबम माnिाप्रमा Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५०९ खाया हुआ अन्न पचता है, परन्तु हा कभी २ ऐसा भी होता है कि इस रोग से युक्त पुरुष को अधिक भूख लगी हुई मालूम होती है यहातक कि खाने के बाद भी भूख ही मालम पड़ती है तथा खुराक के पेट में पहुंचने पर भी अंग गलता ही जाता है, शरीर में सदा आलस्य बना रहता है, कभी २ रोगी को ऐसा दुःख मालूम पड़ता है कि वह यह विचारता है कि मै आत्मघात (आत्महत्या) कर के मर जाऊँ, अर्थात् उस के हृदय में अनेक बुरे विचार उत्पन्न होने लगते है। कारण-मसालेदार खुराक, घी वा तेल से तर ( भीगा हुआ) पक्वान्न ( पकमान) वा तरकारी, अधिक मेवा, अचार, तेज़ और खट्टी चीजें, बहुत दिनोतक उपवास करके पशु के समान खाने का अभ्यास, बहुत चाय का अभ्यास, जल पीकर पेट को फुला देना (अधिक जल का पी लेना), भोजन कर के शीघ्र ही अधिक पानी पीने का अभ्यास और गर्मागर्म ( अति गर्म ) चाय तथा काफी के पीने का अभ्यास, ये सब बादी और अजीर्ण को बुलानेवाले दूत हैं। इस के सिवाय-मद्य, ताडी, खाने की तमाखू, पीने की तमाखू, सूंघने की तमाखू, भाग, अफीम और गाजा, इत्यादि विषैले पदार्थों के सेवन से मनुष्य की होजरी खराब हो जाती है', वीर्य का अधिक क्षय, व्यभिचार, सुज़ाख और गर्मी आदि कारणों से मनुप्य की आंतें नरम और शक्तिहीन (नाताकत ) पड़ जाती हैं, निर्घनावस्था में किसी उद्यम के न होने से तथा जाति और सासारिक ( दुनिया की) प्रथा ( रिवाज ) के कारण औसर और विवाह आदि में व्यर्थ खर्च के द्वारा धन का अधिक नाश होने से उत्पन्न हुई चिन्ता से अनि मन्द हो जाती है तथा अजीर्ण हो जाता है, इत्यादि अनेक कारण अग्नि की मन्दता तथा अजीर्ण के है। चिकित्सा-१-इस रोग की अधिक लम्बी चौड़ी चिकित्सा का लिखना व्यर्थ है, क्योंकि इस की सर्वोपरि (सब से ऊपर अर्थात् सब से अच्छी) चिकित्सा यही है कि ऊपर कहे हुए कारणो से बचना चाहिये तथा साधारण हलकी खुराक खाना चाहिये, शक्ति के अनुसार व्यायाम (कसरत ) करना चाहिये तथा सामान्यतया शरीर की आरोग्यता को बढ़ानेवाली साधारण दवाइयों का सेवन करना चाहिये, बस इन उपायों के सिवाय और कोई भी ऐसी चतुराई नहीं है कि जिस से इस रोग से बचाव हो सके। १-क्योंकि इस रोग का कष्ट रोगी को अत्यन्त पीडित करता है । २-बहुत से लोग यह समझते हैं कि मद्य और भाग आदि के पीने से तथा तमाखू आदि के सेवन से (साने पीने आदि के द्वारा) भूस खूव लगती है, अन्न अच्छे प्रकार से खाया जाता है, पाचनशक्ति वढ जाती है तथा शरीर में शक्ति आती है इत्यादि, सो यह उन की भूल है, क्योंकि परिणाम में इन सव पदार्थी से आमाशय और जठराग्नि मे विकार हो कर बहुत खरावी होती है अर्थात् कठिन अजीर्ण होकर अनेक रोगों को उत्पन्न कर देता है, इस लिये उक्त विचार से इन पदार्थों का व्यसनी कभी नहीं बनना चाहिये ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० चैनसम्प्रदायशिक्षा n २-न पचनेवासी भगवा अधिक काल में पचनेवासी वस्तमों का स्याग करना पाहिये, जैसे-सरपरी, सब प्रकार की वा, मेवा, अधिक घी, मक्खन, मिठाई सम्म खटाई भादि । ३-दूम, ख्यिा, समीर फी अममा माटे में मषिक मोयन (मोवन) देकर गर्म पानी से उसन फर बनाई हुई पतछी २ भोड़ी रोटी, महुत नरम भौर गोड़ी भीम, काफी, वार समा मूंग का मोसामण भावि खुराक बहुत दिनों तक खानी चाहिये। -भोवन करने का समय नियत कर लेना चाहिये मर्यात् समय और इसमय में नहीं साना चाहिये, न वारंवार समम को बदम्ना चाहिये और न बहुत देर करके खाना पाहिल, रात को नहीं खाना चाहिये, क्योंकि रात्रि में भोजन करने से सनदुरुस्ती निगरती है। _बहुत से मशान लोग रात्रि में मोवन करते हैं तथा इस विषय में भयो व उदार रण देते हैं पर्यात् ये करते हैं कि-"प्रेष गेग रात्रि में सदा साते हैं और ये सदा नीरोग रहते हैं, यदि रात्रि में भोजन करना हानिकारक (नुकसान करनेवाम) है तो उन के रोग क्यों नहीं होता।" इस्पादि, सो मह उन की मनानता है तथा उन नपा ना कि-"ममेमों को रोग क्यों नहीं होता है।" निस्कुस मर्ष है क्योंकि रात्रि में भोमन करने से उन को भी रोग तो अवश्य होता है परन्तु यह रोग भोग होता हे पार गोरेही समयटक ठारता है, क्योंकि प्रभम तो उन लोगों के रहने के मन ही ऐसे होते हैं कि भन्न चीन प्रपम तो उनके मकानों में प्रमेश ही नही र सकते हैं, दूसरे में योग नियत समय पर पहुत बोरा २ खाते हैं तथा साने के पश्चात् विकार न करनेवाले यि हाममा करनेवाले पदार्थों का सेवन करते हैं कि जिस से उन को भजीर्ण भी नही होता है, वीसरे-या मी उन पो रोग होता है सर सीप ही में मिद्वान् राक्टरों से उस की पिटिसा करा छेते हैं कि जिस से रोग उनके शरीर में सान नहीं करने प्रता है, चौथे-ये नियमानुसार शारीरिक (शरीर का) और मानसिक (मनका) परिभम करते है कि जिस से उन परीर रोग के योम्प की नहीं होता है, पाप-नियमानुसार सर्व कामों के करने तमा निरुप्प (मुरे) कायों से पचने से उन को मामि (मानसिक रोग) 1-बहुत से मेप स (अ )रोप में दम कम पप्पात रपटे र परम्नु पण प्रपरा मह पठारे व शिप रोम भार से पम्मा दे दो समय पभ्मपूर्वक पम्मे परपहोवा परिपप्प परे ऐसा समपम पम और पप भाषि परोपाप्र उपयोगसमे सपठे, सो पा सी मूबी बोनस रोब में पारदरिया तक पपपूर्वक पने में भी प्रया गऐ सम्बी मिस्तु एस बता (पुर रियो तर) पभपूर्वक पन्ना पीयेप प्रपरा माधम व पोल पम्पपपचाप र फिर प्रेगनेमे तो रम्येभोर भी हामि स्वीगो पर धीर भाम्पस बिया प्यार उससे मरे भी भने रोप उत्पन्न पे गाव Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५११ और व्याधि ( शारीरिक रोग ) सताती ही नहीं है, इत्यादि अनेक बातों से रोग उन के पास तक नहीं आता है, परन्तु सब जानते है कि-हिन्दुस्थानी जनों के कोई भी व्यवहार उन के समान नहीं है, फिर हिन्दुस्थानी जन निषिद्ध (शास्त्र आदि से मना किया हुआ) कार्य कर के दुःखरूपी फल से कैसे वचसकते हैं ? अर्थात् हिन्दुस्थानी जन शरीर को वाधा पहुँचानेवाले कार्यों को करके उन (अग्रेजों) के समान तनदुरुस्ती को कभी नहीं पा सकते है। वर्चमान में यह भी देखा जाता है कि बहुत से आर्य श्रीमान् लोग अंग्रेजों के समान व्यवहार करने में अपना पैर रखते हैं परन्तु उस का ठीक निर्वाह न होने से परिणाम (नतीजा ) यह होता है कि वे बिना मौत आधी ही उम्र में मरते है, क्योंकि प्रथम तो अग्रेजो का सव व्यवहार उन से यथोचित वन नहीं आता है, दूसरे-इस देश की तासीर और जल वायु अग्रेजों के देश से अलग है, इस लिये हिन्दुस्थानियो को उचित है किउन के अनुकरण ( नकल करने ) को छोड कर अपनी प्राचीन प्रथा (रिवाज़) पर ही चलते रहें अर्थात् प्रजापति भगवान् श्री नाभिकुलचन्द्र ने जो दिनचर्या (दिन का व्यवहार), रात्रिचर्या (रात्रि का व्यवहार ) तथा ऋतुचर्या (ऋतु का व्यवहार ) अपने पुत्र हारीत को वतलाई थी (जिस को हम सक्षेप से इसी अध्याय में लिख चुके है ) उस के अनुसार ही व्यवहार करें, क्योंकि उस पर चलना ही उन के लिये कल्याणकारी है, तात्पर्य यह है कि-आर्यावर्त के निवासियों को इस ( आर्यावर्त्त) देश के अनुसार ही अपना पहिराव, भेप, खान, पान तथा चाल चलन रखना चाहिये, अर्थात् भाषा (बोली), भोजन, भेष और भाव, इन चार बातों को अपने देश के अनुसार ही रखना चाहिये, ये ऊपर कही हुई चार वार्ते मुख्यतया ध्यान में रखने की है। ५-मद्य का सेवन नहीं करना चाहिये अर्थात् मद्य को कभी नही पीना चाहिये। ६-भोजन करने के समय में अथवा भोजन करने के पीछे शीघ्र ही अधिक जल नहीं पीना चाहिये तथा बहुत गर्म चाय वा काफी को नहीं पीना चाहिये, यदि कोई पतला पदार्थ पीने में आवे तो वह बहुत गर्म वा बहुत ठंढा नहीं होना चाहिये । १-हिन्दुस्थानी जनों के व्यवहार उन के समान ही नहीं है, यह वात नहीं है किन्तु हिन्दुस्थानियों के सव व्यवहार ठीक उन (अग्रेजों) के विरुद्ध (विपरीत) हैं, फिर ये (हिन्दुस्थानी ) लोग उन के समान आरोग्यता के सुख को कैसे पा सकते है। २-इस का अनुभव पाठकों को वर्तमान में अच्छे प्रकार से हो ही रहा है, इस लिये इस विषय के विवरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ३-इन चारों वातों को ध्यान में रख कर देश, काल और प्रकृति आदि को विचार कर जो वर्ताव करेगा वही कभी धोखे में नहीं पडेगा ॥ ४-यद्यपि प्रारम्भ में इस से कुछ लाभ सा प्रतीत होता है परन्तु परिणाम मे इस से वटी भारी हानि पहुँचती है, यह सुयोग्य वैद्य और डाक्टरों ने ठीक रीति से परीक्षा कर के निर्धारित किया है ॥ ५-क्योंकि भोजन करने के समय में अथवा भोजन करने के पीछे शीघ्र ही अधिक जल पीने से खाये हुए अन्न का ठीक रीति से पाचन नहीं होता है ।। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैनसम्पदामशिक्षा || ७- तमाखू को नहीं सूषना चाहिये, यदि कयाचित् नकसीर रोग के बन्द करने के लिये या कफ और नवसे के निकालने के लिये उस के सूमने की आवश्यकता हो या उस का व्यसन पड़ गया हो तो ममाचक्य ( महांतक हो सके ) उसे छोड़ कर दूसरी दवा से उस का काय लेना चाहिये, यदि कदाचित् मविष्मसन हो जाने के कारण मह न छूट सके तो इतना समान तो भवश्य रखना चाहिये कि मोजन करने से प्रथम उसे कभी नहीं संपना चाहिये, क्योंकि भोजन करने से प्रथम समाखू के सूपने से भूख बन्द हो जाती है, इस बात की परीक्षा प्रत्येक सूचनेवाला पुरुष कर सकता है। ८-खाने की तमाखू भी सूपने की तमाखू के समान ही अषगुण करती है, परन्तु समाखू खानेपाने खोग यह समझते हैं कि-तमास्तू के खाने से खुराक हजम होती है, सो उन यह स्वमाछ करना भत्यन्त गस्त है, क्योंकि तमासू के खाने से उसटा भजीर्ण रहता है। ९ - बहुत परिश्रम नहीं करना चाहिये', खुली हुई स्वच्छ (साफ) हवा में मच्छे मार प्रमण करना (घूमना) चाहिये, यदि बहुत नींद लेने की (सोने की) भारत हो तो उसे छोड़ घेना चाहिये सभा मात काल शीघ्र उठ कर झूठी हुई स्वच्छ हवा में घूमना फिरना चाहिये। १० - भोजन करने के पीछे क्षीपदी बांचने, जिखने, पढ़ने तथा सूक्ष्म ( भारीफ ) विषयों के विचार करने के लिये नहीं बैठना चाहिये, किन्तु कम से कम एक घंटा बीव जाने के बाद तक काम करने चाहिये । ११ - मन के पश्चाने (इजम करने) के लिये गर्म दवाइयां, गर्म खुराक वथा साक दस्त खानेकी दवा (जुखाम यादि) नहीं बेनी चाहियें । मस मब्बी रोग से बचने के लिये उमर किसे नियमों के अनुसार घरूना चाहिये, होमरी ( मामा ) को सुधारने के सिमे कुछ समय तक बच्चों की मांति घूम से ही निर्वाह करना चाहिये, भारोम्पता को रखनेवाली सितोपकादि साधारण औषधों का सेवन करना चाहिये तथा घोड़े पर सवार होकर भगवा पैवस ही माताकाक और सामका स्वच्छ वायु के सेवन के किये भ्रमण करना चाहियें, क्योंकि होवरी के सुधारने के लिये वह सर्वोचम उपाय है ॥ १-पचपि सारीरिक ( सरीरसम्बन्धी ) परिभ्रम भी विशेष नहीं करना चाहिये किन्तु मासिक (मसणी) परिश्रम ये भूख कर भी विशेष करना चाहिये क्योंके मानसिक परिश्रम से यह रोग विशेषता है। १- हवा मैं भ्रमच करने (घूमने से इस रोग में बहुत ही कम होता है, यह बात पूरे तौर से अनुमद में था चुकी है ३- भोजन करने के पीछे की हो किसने पढ़ने यादि का कार्य करने से भोजन का सो सम्मानम में स्थित रह जाता है अर्थात् परिक माँ होता है ४-क्योंकि ऐसा करने से जठराम का बाभाविक बस म कर उस मैं विश्र उत्पन्न हो वा है । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ चतुर्थ अध्याय ॥ अतीसार (डायरिया) का वर्णन ॥ कारण-अजीर्ण रोग के समान अतीसार (दस्त ) होने के भी बहुत से कारण हैं तथा इन दोनों रोगों के कारण भी प्राय. एक से ही है', इन के सिवाय अतिशय ( अधिक) और अयोग्य खुराक, कच्चा फल, कच्चा अन्न, बासी तथा भारी खुराक, इत्यादि पदार्थों के उपयोग से भी अतीसार रोग होता है, एवं खराब पानी, खराव हवा, ऋतु का बदलना, शर्दी, भय तथा अचानक आई हुई विपत्ति, इत्यादि कई एक कारण भी इस रोग के उत्पादक ( उत्पन्न करनेवाले ) माने जाते है । लक्षण-वारंवार पतले दस्त का होना, यह इस रोग का मुख्य चिह्न है, इस के सिवाय-जी मचलाना, अरुचि, जीभपर सफेद अथवा पीली थर का जमना, पेट में वायु का बढ़ना तथा उस की गडगडाहट का होना, चूंक तथा खट्टी डकार का आना, इत्यादि दूसरे भी चिह्न इस रोग में होते है। इस बात को सदा ध्यान में रखना चाहिये कि अतीसार रोग के दस्तों में तथा मरोड़े के दस्तों में बहुत फर्क होता है अर्थात् अतीसार रोग में पतला दस्त जलप्रवाह ( जल के बहने ) के समान होता है और मरोड़े में आतें मैल से भरी हुई होती है, इस लिये उस में खुलासा दस्त न होकर व्यथा (पीडा) के साथ थोडा २ दस्त आता है तथा आतों में से आँव, जलयुक्त पीप और खून भी गिरता है, यदि कभी अतीसार के दस्तों में खन गिरे तो यह समझना चाहिये कि यह खून या तो मस्से के भीतर से वा खून की किसी नली के फूटने से अथवा आतों वा होजरी में ज़खम (घाव ) के होने से गिरता है। अतीसार के भेद-देशी वैद्यक शास्त्र में अतीसार रोग के बहुत से भेद माने है। अर्थात् जिस अतीसार में जिस दोष की अधिकता होती है उस का उसी दोष के अनुसार नाम रक्खा है, जैसे-वातातीसार, पित्तातीसार, कफातीसार, सन्निपातातीसार, शोकातीसार, आमातीसार तथा रक्तातीसार इत्यादि, इन सब अतीसारों में दस्त के रंग में तथा दूसरे भी लक्षणों में भेद होता है जैसे-देखो ! वातातीसार में-दस्त झाँखा तथा धूम्रवर्ण का (धुएँ के समान रगवाला) होता है, पित्तातीसार में-पीला तथा रक्तता (सुर्सी ) लिये हुए होता है, कफातीसार में तथा आमातीसार में-दस्त सफेद तथा चिकना होता है और १-अर्थात् अजीर्ण रोग के जो कारण कहे हैं वे ही अतीसार रोग के भी कारण जानने चाहिये ।। २-खराव पानी के ही कारण प्राय यात्रियों को दस्त होने लगते हैं ॥ ३-अर्थात् साधारण भतीसार और मरोड़े को एक ही रोग नहीं समझ लेना चाहिये ॥ ४-किन्हीं आचार्यों ने इस रोग के केवल छ ही भेद माने हैं अर्थात् वातातीसार, पित्तातीसार, कफातीसार, सन्निपातातीसार, शोकातीसार और आमातीसार ॥ ५-दूसरे लक्षणों में भी भेद पृथक् २ दोपों के कारण होता है ॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनसम्प्रदायशिक्षा । रसातीसार में खून गिरता है, इस प्रकार वस्तों के सूक्ष्म (बारीक) मेदों को समय पर यदि असीसार रोग की चिकित्सा की वाये तो उस (चिकित्सा) का प्रमान बहुत सीप होता है', पपपि इस रोग की सामान्य (सापारप) चिकित्सा मी महुत सी ओ कि सम प्रचार के दतों में उगम पहुँचाती हैं परन्तु तो भी इस बात का बान लेना अत्यान श्यक (बहुत महरी)ो कि-मिस रोग में सो दोप प्रबल हो उसी दोप के मनुसार उस. फी चिकित्सा होनी चाहिये, क्योंकि-ऐसा न होने से रोग उम्टय बढ़ बावा है ना सय न्तर (दूसरे रूप) में पहुँच जाता है, जैसे देसो ! यदि पावातीसार की पिपिरसा पिचर तीसारपर की जाये ममात् पिचातीसार में यदि गर्म मोपधि दी जाये तो दस्त न रूक र उग्य पढ़ जाता है और रकातीसार हो जाता है, इसी प्रकार दूसरे दोपों के विषय में मी समझना चाहिये। ___ मनीर्ण से उत्पन्न अतीसार में दस्त का रंग मासा मौर सफेव होता है परन्तु व बह अजीर्ण कठिन ( मस्त ) होता है तब उस से उत्सत भतीसार में देने के समान सूब पिन मावस होते हैं। चिकित्सा -नस रोग की चिकित्सा करने से पहिले दस (मस) की परीक्षा करनी चाहिये, दस्त की परीक्षा के दो मेव -आमावीसार अर्थात् कथा वस्व और पमतीसार मोर पञ्च वस्स, इस के बानने का सहब उपाय यह है कि यदि बठ में पाउने से मत दून जाये तो उसे माम का मत अर्थात् भपक (कथा) समझना चाहिये और बस में गठने से यदि यह (मठ) पानी के उपर तिरने (उतराने) सगे सो उसे पक (पत्र हुमा) मह समझना पारिसे', यदि मस भाम र (कथा) हो अर्थात् भाम से मिम हुमा हो तो उसके एकदम बन्द करने की ओपभि नहीं देनी चाहिये, स्पोकि भाम के वस्त को एवम पन्द कर देने से कई घर के निधरों की उसधि होती है, बसे-भ• फरा, संपदणी, मस्सा, भगन्दर, सोष, पा, विकी, गोठा, प्रमेह, पेट रोग तमा ज्यर यादि, परन्तु हो इसके साथ यह बात भी भरश्य याद रखनी चाहिये सि-पदि -सारिसमस पर पा रोगप्रमियर र सिमिया रने से बाप मतिरेरा रोपनीमही नितिपदा -पत्रिपुर-रेममुपर म म भारि में भैर मेख ये मन में मपम हो गरेर मिसा परन्न परिये पोर ऐन प्रने से रोप । मामिति पत्र प्रवीर और सामने से उस समय है। - सिवम और प्रेमी पापा मम दुभा भाम या Arraबा उसमें पिरण१८ मत मिममिम्प माप पिमर प Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५१५ रोगी वालक, बुड्ढा, अथवा अशक्त ( नाताकत ) हो तथा अधिक दस्तों को न सह सकता हो तो आम के दस्तो को भी एकदम रोक देना चाहिये। १-इस रोग की सब से अच्छी चिकित्सा लंघन है परन्तु पित्तातीसार तथा रक्तातीसार में लंघन नही कराना चाहिये, इन के सिवाय शेष अतीसारों में उचित लघन कराने से रोगी को प्यास बहुत लगती है, उस को मिटाने के लिये धनियां तथा बाला को उकाल कर वह पानी ठढा कर पिलाना चाहिये, अथवा धनियां, सोंठ, मोथा और पित्तपापड़े का तथा बाला का जल पिलाना चाहिये । २-यदि अजीर्ण तथा आम का दस्त होता हो तो लंघन कराने के पीछे रोगी को प्रवाही तथा हलका भोजन देना चाहिये तथा आम को पचानेवाला, दीपन ( अग्नि को प्रदीप्त करनेवाला), पाचन ( मल और अन्न को पचानेवाला) और स्तम्भन (मल को रोकनेवाला ) औषध देना चाहिये । अब पृथक् २ दोषों के अनुसार पृथक् २ चिकित्सा को लिखते है:१-वातातीसार--इस में भुनी हुई भाग का चूर्ण शहद के साथ लेना चाहिये । अथवा चावल भर अफीम तथा केशर को शहद में लेना चाहिये तथा पथ्य में दही चावल खाना चाहिये। २-पित्तातीसार-इस में बेल की गिरी, इन्द्रजौ, मोथा, बाला और अतिविप, इन औषधों की उकाली लेनी चाहिये, क्योंकि यह उकाली पित्त तथा आम के दस्त को शीघ्र ही मिटाती है। ___ अथवा-अतीस, कुड़ाछाल तथा इन्द्रजौ, इन का चूर्ण चावलों के घोवन में शहद डाल कर लेना चाहिये। ३-कफातीसार-इस में लङ्घन करना चाहिये तथा पाचनक्रिया करनी चाहिये । अथवा-हरड़, दारुहलदी, बच, मोथा, सोंठ और अतीस, इन औपधों का काढा पीना चाहिये। १-वातपित्त की प्रकृतिवाला जो रोगी हो, जिस का बल और धातु क्षीण हो गये हों, जो अत्यन्त दोपों से युक्त हो और जिस को वे परिमाण दस्त हो चुके हों, ऐसे रोगी के भी आम के दस्तों को रोक देना चाहिये, ऐसे रोगियों को पाचन औषध के देने से मृत्यु हो जाती है, क्योंकि पाचन औषध के देने से और भी दस्त होने लगते हैं और रोगी उन का सहन नहीं कर सकता है, इस लिये पूर्व की अपेक्षा और भी अशक्कि (निर्वलता) वढ कर मृत्यु हो जाती है । __ २-प्रवाही अर्थात् पतले पदार्थ, जैसे-यवागू और यूष आदि । (प्रक्ष) वैद्यक ग्रन्थों मे यह लिखा है कि-शूलरोगी दो दल के अन्नों को (मूग आदि को), क्षयरोगी बीसग को, अतीसाररोगी पतले पदार्थों और खटाई को तथा ज्वररोगी उक्त सव को त्याग देवे, इस कथन से अतीसाररोगी को पतले पदार्थ तो वर्जित हैं, फिर आपने प्रवाही पदार्य देने को क्यों कहा 2 (उत्तर) पतले पदार्थों का जो अतीसार रोग में निपेध किया है वहा दूध और घृत आदि का निषेध समझना चाहिये किन्तु यूप और पेया आदि पतले पदार्यों का निपेध नहीं है। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ भैनसम्मदामशिक्षा ॥ अपरा-हिमाष्टक चूर्ण में हरर तथा सज्जीसार मिला कर उस की फकी मेनी चाहिये। १-आमातीसार-इस में भी ययाप्तस्य वपन करना चाहिये । अबमा-परंडी का सेग पीकर को आम को निम्नस गरना चाहिये । ममवा-गर्म पानी में घी डालकर पीना चाहिये । भना-सोंठ, सौंफ, सससस भौर मिभी, इन का पूर्ण खाना चाहिये । मयमा सौंठ के पूर्ण को पुटपाक की तरह पन पर तथा उस में मिमी यस पर खाना चाहिये। ५-रफाप्तीसार इस में पिचातीसार की चिकित्सा करनी चाहिये। अमगा–जावों के धोनन में सफेद चन्दन को घिस पर सया उस में शहद और मिमी को गठ कर पीना चाहिये । अभया माम की गुठली को छाछ में बरवा पावलों के धोनन में पीस कर साना चाहिये। भगवा-कचे पेट की गिरी को गुरु में ना चाहिये । ममवा नामुन, बाम तपा इमठी के फचे पचों को पीस कर समा इन न रस निष्पक कर उस में शहर पी मौर दूष को मिण पर पीना चाहिये । सामान्यचिफिस्सो-१–भाम की गुठली का मर्गर (गिरी) मा पेठ की गिरी, इन के पूर्ण को भपया इन के काम को शहद तथा मिमी राह कर लेना चाहिये। २-अफीम तथा केशर की भाभी पिरमी के समान गोली को शहद के साथ लेना चाहिये। ३-बायफल, अफीम तया सारक (सुमारे) को नागरपेठ पान के रस में पोट कर तथा पास के परिमाण की गोरी बनाकर उस गोरी को छाछ के साथ लेना चाहिम । १-जीरा, मांग, मेक की गिरी समा मफीम को दही में पोट कर मात परिमाण की गोरी बना कर एक गोली लेनी चाहिये। विशेषवतव्य-चन किसी को दस्त होने लगते हैं तब बहुत से लोग यह सम मते हैं कि-नामिकेबीप की गांठ (परन वा पेशेंटी) लिसक गई है इस मिये वस्व होते, ऐसा समस पर ये मूर्स सियों से पेट को मसमते (मत्माते) है, सो उन कम यह सममना विलकर ठीक नहीं है और पेट के मसलाने से पड़ी भारी हानि पहुंपती, 1-सामाष्प पिपिसा मर्यात् यो सप प्रभर मवीधाएँ मे पाया मरे। २-परन्तु गाम की गुम ममम (गिरी) पर गो एक प्रकार प्रमोय मिसा सेवा उसे रिह गम्य बाहिये भाव रखे उपयोग में मई माया चारिपे । -ष में जाति म पापमा प्रयभर राना आदि। -चिरमी बर्षद प्रमा पिसे भाग में पते Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय || ५१७ देखो ! शारीरिक विद्या के जाननेवाले डाक्टरो का कथन है कि धरन अथवा पेचोंटी नाम का कोई भी अवयव शरीर में नहीं है और न नाभि के बीच में इस नाम की कोई गाठ है और विचार कर देखने से डाक्टरो का उक्त कथन बिलकुल सत्य प्रतीत होता है', क्योकि किसी ग्रन्थ में भी घरन का स्वरूप वा लक्षण आदि नही देखा जाता है, हा केवल इतनी बात अवश्य है कि-रगो में वायु अस्तव्यस्त होती है और वह वायु किसी २ के मसलने से शान्त पड जाती है, क्योंकि वायु का धर्म है कि मसलने से तथा सेक करने से शान्त हो जाती है, परन्तु पेट के मसलने से यह हानि होती है कि-पेट की रंगें नाताकत (कमजोर) हो जाती हैं, जिस से परिणाम मे बहुत हानि पहुँचती है, इस लिये धरन के झूठे ख्याल को छोड़ देना चाहिये क्योंकि शरीर में वरन कोई अवयव नहीं है । अतीसार रोग में आवश्यक सूचना - दस्तो के रोग में खान पान की बहुत ही सावधानी रखनी चाहिये तथा कभी २ एकाध दिन निराहार लघन कर लेना चाहिये, यदि रोग अधिक दिन का हो जावे तो दाह को न करनेवाली थोड़ी २ खुराक लेनी चाहिये, जैसे-चावल और साबूदाना की कुटी हुई घाट तथा दही चावल इत्यादि । पथ्य - इस रोग में - वमन (उलटी) का लेना, लघन करना, नींद लेना, पुराने चावल, मसूर, तूर (अरहर ), शहद, तिल, बकरी तथा गाय का दूध, दही, छाछ, गाय का घी, बेल का ताजा फल, जामुन, कवीठ, अनार, सब तुरे पदार्थ तथा हलका भोजन इत्यादि पथ्य है" । कुपथ्य - इस रोग में स्नान, मर्दन, करड़ा तथा चिकना अन्न, कसरत, सेक, नया अन्न, गर्म वस्तु, स्त्रीसंग, चिन्ता, जागरण करना, बीड़ी का पीना, गेहूँ, उड़द, कच्चे आम, १- क्योंकि प्रथम तो उन लोगों का इस विषय मे प्रत्यक्ष अनुभव है और प्रत्यक्ष अनुभव सव ही को मान्य होता है और होना ही चाहिये और दूसरे -जय वैद्यक आदि अन्य ग्रन्थ भी इस विषय में वही साक्षी देते हैं तो भला इस मे सन्देह होने का ही क्या काम है ॥ २-अस्तव्यस्त होती है अर्थात् कभी इकट्ठी होती है और कभी फैलती है ॥ ३- पेट के मसलने से प्रथम तो रंगें नाताकत हो जाती हे जिस से परिणाम मे बहुत हानि पहुँचती है, दूसरे - यदि वायु की शान्ति के लिये मसला भी जावे तो आदत विगड जाती है अर्थात् फिर ऐसा अभ्यास पड जाता है कि पेट के मसलाये विना भूख प्यास आदि कुछ भी नहीं लगती है, इस लिये पेट को विशेष आवश्यकता के सिवाय कभी नहीं मसलाना चाहिये ॥ ४-क्योंकि कभी २ एकाध दिन निराहार लघन कर लेने से दोपों का पाचन तथा अमि का कुछ दीपन हो जाता है | ५-जब अतीसार रोग चला जाता है तब मल के निकले विना मूत्र का साफ उतरना अधोवायु ( अपानवायु) की ठीक प्रवृत्ति का होना, अग्नि का प्रदीप्त होना, कोष्ठ ( कोठे) का हलका मालूम पडना शुद्ध डकार का आना, अन्न और जल का अच्छा लगना, हृदय में उत्साह होना तथा इन्द्रियों का स्वस्थ होना, इत्यादि लक्षण होते हैं ॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनसम्प्रदायशिक्षा । पूरनपोठी, कोला, ईस, मप, गुरु, सराप जल, फस्तूरी, पर्या के सम साफ, की तमा खरे पदार्थ, ये सब कुपथ्य हैं ममात् ये सब पदार्थ इस रोग में हानि करते हैं। यह मी स्मरण रखना चाहिये कि-इस रोग में चाहे भोपथि कुछ देरी से ली चाय तो कोई हानि नहीं है परन्तु पग्य खान पान करने में पिलकुल ही गलती (भूम) नहीं करनी चाहिये । मरोड़ा, आमातीसार, संग्रहणी (डिसेण्टरी) का वर्णन ॥ मरोरा, आमातीसार और संग्रहणी, ये तीनों नाम लगमग एक ही रोग के हैं, क्योंकि इन सप रोगों में प्राय समान ही रक्षण पाय बाते हैं, वैपक शान में बिस को अमा सीसार नाम से करा गया है उसी को ठोग मरोरा फारसे हैं, अतीसार और भामातीसार अब पुराने हो जाते हैं तब उनी को समहणी करते हैं, इस मिमे यहां पर तीनों को साथ में ही विसावे हैं, पोषिअस्मा (स्मिति वा हाम्त ) के भेद से यह माय एकही रोग।। ___ यह रोग प्राय सब ही वर्ग के लोगो को होता है, जिस प्रकार एक विशेष प्रकार निपेली हना से मिशेप बाति के रोग फुट कर निकलते हैं उसी प्रकार मरोड़े रोग का मी कारण एक विशेप मकार की विपेठी हवा और विवेप प्रत होती है, क्योंकि-मरोडमा रोग सामान्यतया (सापारण रीति से) तो किसी २दी और फमी २ ही होता परन्तु किसी २ समम यह रोग बहुत फेसता है तथा वसन्त और पर्या पातु में प्रार इस का चोर भाषिक होता है। फारण-मरोड़ा होने के मुस्मतया दो कारण है-उन में से एक भरण इस रोप की नाहै भार एक प्रकार की टरी हना इस रोग को उत्पम करती है मीर उस हमा का मसर प्राय एक सान के रहने वाले सब लोगों पर पपपि एक समान ही होता १-पापात पाइसी रोग में नीतु सब ऐप में म्याम रखनेोग्य मोर-परि सिरे-पम्प न रम्ने से मोपपि से भी अम नही होता है मा पथ्य रने से मोपपि *ने मी विशेप मापश्यता यईराध परम् श्मी बात बासी रोमों में रुपम बहुप निम्न से सपा पोग हो पनि करता है परन्तु मर्मसार भारि रोपों में पम पीघ्र ही वर्ग मारी पनि रवास लिसेस (बीसार भावि रो) में पपि पेमा पभापर भपिर ध्यान देमा प्रदिसे ॥ -पर्व में स्पिति (हाम्त) * मेर से भटीपार रोमनों नाम प र मत एस म मे वहांपर न चम्प्रे पाप में किया है बब यो स में स्थिति में मेर (रस अपन पकायेम भामे म्मिा से पायेण । -इस पाने के समय मनुषों में भविप मा एच रोप से पीड़ित था । -हसत भार पर्म का मैम से का और कामु सपने से प्रय' भमि मम पती॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५१९ है तथापि अशक्त (नाताकत ) मनुष्य और पाचनक्रिया के व्यतिक्रम ( गड़बड़ ) से युक्त मनुष्यपर उस हवा का असर शीघ्र ही होता है' । इस रोग का दूसरा कारण खुराक है अर्थात् कच्चा और भारी अन्न, मिर्च, गर्म मसाले और शाक तरकारी आदि के खाने से वादी तथा मरोड़ा उत्पन्न होता है ' । इस रोग की उत्पत्ति का क्रम यह है कि जब दस्त की कब्जी रहती है तथा उस के कारण मल आँतों में भर जाता है तथा वह मल आँतों के भीतरी पड़त को घिसता है तब मरोड़ा उत्पन्न होता है । इस के सिवाय-गर्म खुराक के खाने से तथा ग्रीष्म ऋतु (गर्मी की मौसम ) में सख्त जुलाव के लेने से भी कभी २ यह रोग उत्पन्न हो जाता है । लक्षण - मरोडे का प्रारंभ प्रायः दो प्रकार से होता है अर्थात् या तो सख्त मरोडा होकर पहिले अतीसार के समान दस्त होता है अथवा पेट में कब्जी होकर सख्त दस्त होता है अर्थात् टुकडे २ होकर दस्त आता है, प्रारम्भ में होनेवाले इस लक्षण के सिवाय बाकी सब लक्षण दोनों प्रकार के मरोडे में प्राय समान ही होते है । इस रोग में दस्त की शका वारवार होती है तथा पेट में ऐंठन होकर क्षण २ में थोड़ा २ दस्त होता है, दस्त की हाजत वारंवार होती है, कॉख २ के दस्त आता है ( उतरता है ), शौचस्थान में ही बैठे रहने के लिये मन चाहता है तथा खून और पी गिरता है । कभी २ किसी २ के इस रोग में थोडा बहुत बुखार भी हो जाता है, नाडी जल्दी चलती है और जीभपर सफेद थर ( मैल) जम जाती है । में ज्यों २ यह रोग अधिक दिनो का ( पुराना ) होता जाता है त्यों २ इस पीप अधिक २ गिरता है तथा ऐंठन की पीडा बढ़ जाती है, बडी ऑत के और खून पड़त में १- अशक्त और पाचन क्रिया के व्यतिक्रम से युक्त मनुष्य की जठराग्नि प्राय पहिले से ही अल्पवल होती है तथा आमाशय में पहिले से ही विकार रहता है अत उक्त हवा का स्पर्श होते ही उस का असर शरीर में हो कर शीघ्र ही मरोडा रोग उत्पन्न हो जाता है ॥ २ - तात्पर्य यह है कि उक्त खुराक के ठीक रीति से न पचने के कारण पेट मे आमरस हो जाता है वही आँतों में लिपट कर इस रोग को उत्पन्न करता है ॥ ३- मल आतों में और गुदा की भीतरी वली में फॅसा रहता है और ऐसा मालूम होता है कि वह गिरना चाहता है इसी से वारंवार दस्त की आशङ्का होती है ॥ ४- काँख २ के अर्थात् विशेष वल करने पर ॥ ५- वारवार यह प्रतीत होता है कि अब मल उतरना चाहता है इस लिये शोचस्थान से उठने को जी नहीं चाहता है ॥ ६- पीप अर्थात् कच्चा रस ( आम वा गिलगिला पदार्थ ) ॥ ७-क्योंकि ऑतों में फॅसा हुआ मल आँतों को रगडता है ॥ 1 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० चैनसम्प्रवामशिक्षा ॥ शोष (सूजन ) हो पाता है, जिस से वह पात लाल हो जाता है पीछ उस में भो और गोल असम हो जाते हैं तथा उस में से पहिले खून मोर पीछे पीप गिरता है, इस प्रकार का तीक्ष्ण (वेब पा सस्त ) मरोड़ा अब तीन वा चार षठवाडेतक बना रहता है तन वह पुराना गिना जाता है, पुराना मरोड़ा वर्पोतक घनता (ठहरवा) है तथा वन इस का मन्छा भौर भोग्स (मुनासिन) इगन होता है न ही यह माता है, इसी पुराने मरोड़े को संग्रहणी कहते हैं पूरे पथ्य और गोम्प पवा के न मिग्ने से इस रोग से हमारों ही पादमी मर जाते हैं। चिकित्सा-इस रोग की चिकित्सा करने से प्रथम यह देखना चाहिये कि-मौतों में सूजन है या नहीं, इस की परीक्षा पेट के दबाने से हो सकती है मर्मात् निस जगह पर पनाने से दर्द मावम पड़े उस बगह सूमन का होना चानना चाहिम', मदि सूबन मानम हो तो पहिछे उस की चिकित्सा करनी चाहिये, सूबन के रिसे यह विकिस्सा उत्तम है कि-बिस बगह पर दबाने से दर्द मातम परे उस बगह राई का पगप्टर (पलस्तर ) लगाना चाहिये तमा यदि रोगी सह सफे तो उस जगह पर योक लगाना चाहिये और पीछे गर्म पानी से सेक करना चाहिये तवा पससी की पोस्टिस म्गानी चाहिये, ऐसी अवस्था में रोगी को सान नहीं करना चाहिये मोर न टी हरा में माहर निकलना चाहिये किन्तु निलोनेपर ही सोते रहना पाहिये, भाँतों में से मठ से मरे हुए मैट को निकालने के लिये छ मासे छोटी हररों का भयमा सौंठ की उकामी में मंडी में तेर फा जुगल देना चाहिये, स्मोकि माम प्रारमारखा में मरोड़ा इस प्रकार के जुगर से ही मिट जाता है मर्यात् पेट में से मैन से मुफ मन निफळ पाठारे, दस साफ होने माता है तपा पेट की ऐंठन मौर वारंवार वन की हायत मिट जाती है। यह भी स्मरण रहे कि मरोड़ेबा को परीके सेट के सिवाय दूसरा भारी जुलत कमी नहीं देना चाहिये, यदि स्वाचित किसी कारण से मंडी के तेल का अगव न देना -मात् पुरान्य मरोग से पानेपर एपित हरे पठामि प्राणी माम म्टी एम ने भी एपित कर देवी (मनिपराम्प में मानी पा पापी प्रवे) -पोल सूमम के स्थान में ही मार पड़ने से दर्द ऐ समता है बम्पप (समम न ऐनेपर) रगामे से पर ऐसाt. कि पूरन पिस्सिा ऐ पाने से भी मिसिहारा सूचनमरत हो पाने से व बरम पर सोभीर मौतोमरम पर पाने से मरोगमिरे विमिस्सा से श्रीघ होसम पहुँच - मारमारियाने समय में माम पाने से भषमा पीलापने से किस पेम सपप ऐसद र सपा भी पूरन में भी मेमा सिमर ऐजाता किया मरो बारमा पारने मामातीमये एमोबपा में मान भारिन परापान रणय पारि। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५२१ हो तो अंडी के तेल में भूनी हुई छोटी हरड़ें दो रुपये भर, सोंठ ५ मासे, सोफ एक ___ रुपये भर, सोनामुखी ( सनाय) एक रुपये भर तथा मिश्री पाच रुपये भर, इन औषधो का जुलाव देना चाहिये, क्योंकि यह जुलाब भी लगभग अण्डी के तेल का ही काम देता है। मरोड़ावाले रोगी को दूध, चावल, पतली घाट, अथवा दाल के सादे पानी के सिवाय दूसरी खुराक नहीं लेनी चाहिये । ___ बस इस रोग में प्रारंभ में तो यही इलाज करना चाहिये, इस के पश्चात् यदि आवश्यकता हो तो नीचे लिखे हुए इलाजो में से किसी इलाज को करना चाहिये । १-अफीम मरोड़े का रामबाण के समान इलाज है, परन्तु इसे युक्ति से लेना चाहिये अर्थात् हिंगाष्टक चूर्ण के साथ गेहूँ भर अफीम को मिला कर रात को सोते समय लेना चाहिये। __ अथवा-अफीम के साथ आठ आनेभर सोये को कुछ सेककर (भूनकर ) तथा पानी के साथ पीसकर पीना चाहिये । यह भी स्मरण रखना चाहिये कि मरोडा तथा दस्त को रोकने के लिये यद्यपि अफीम उत्तम औषध है परन्तु अण्डी का तेल लेकर पेट में से मैल निकालेविना प्रथम ही अफीम का लेना ठीक नहीं है, क्योंकि पहिले ही अफीम ले लेने से वह बिगडे हुए मल को भीतर ही रोक देती है अर्थात् दस्त को बन्द कर देती है। २-ईशवगोल अथवा सफेदजीरा मरोडे में बहुत फायदा करता है, इस लिये आठ २ आने भर जीरे को अथवा ईशबगोल को दिन में तीन बार दही के साथ लेना चाहिये, यह दवा दस्त की कन्जी किये विना ही मरोड़े को मिटा देती है। __३-यदि एक बार अण्डी का तेल लेनेपर भी मरोडा न मिटे तो एक वा दो दिन ठहर कर फिर अण्डी का तेल लेना चाहिये तथा उसे या तो सोंठ की उकाली में या पिपरमेट के पानी में अथवा अदरख के रस में लेना चाहिये अथवा लाडेनम अर्थात् अफीम के अर्क में लेना चाहिये, ऐसा करने से वह पेट की वायु को दूर कर दस्त को मार्ग देता है। ४-बेल का फल भी मरोडे के रोग में एक अकसीर इलाज है अर्थात् बेल की गिरी को गुड़ और दही में मिला कर लेने से मरोड़ा मिट जाता है। १-अर्थात् यह जुलाव भी अण्डी के तेल के समान मल को सहज मे निकाल देता है तथा कोठे में अपना तीक्ष्ण प्रभाव उत्पन्न नहीं करता है ॥ २-यही अर्थात् ऊपर कहा हुआ ॥ -अर्थात् दोनों में से किसी एक पदार्थ को दिन में दो तीन वार दही के साथ लेना चाहिये तथा एक समय मे आठ आने भर मात्रा लेनी चाहिये ॥ ४-मरोडे की दूसरी दवाइया प्राय. ऐसी हैं कि वे मरोडे को तो मिटाती हैं लेकिन कुछ दस्त की कम्जी करती हैं लेकिन यह दवा ऐसी नहीं है ॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ नैनसम्पदापक्षिया ।। ___ उपर मिले हुए इनाओं में से यदि किसी इगब से भी फायदा न ऐ तो उस रोग को असाध्य समझ लेना चाहिये', पीछे उस भसाम्म मरोरे में दस्त पसेला (पानी समान ) आता है, शरीर में नुसार बना रहसा है तमा नाड़ी शीन परवी है। इसके सिवाय यदि इस रोग में पेट का सूसना बराबर बना रहे तो समझ लेना पाहिये कि बातों में ममी चोम (सूचन) है वमा अन्दर जसम है, ऐसी हाम्न में अपना इस से पूर्व ही इस रोग का किसी कुशल वैप से इमय फरमाना पाहिये । संग्रहणी-पहिसे कह चुके है कि पुराने मरोरे को संमहेमी कते हैं, उस ( संभ हणी) का निवान (मूग कारण) अषक शासघरों ने इस प्रघर निसारे कि कोठ में ममि के रहने न चो सान है वही मन को मापनसा है इस सिये उस सान को प्राणी कहते हैं, भर्मात् प्ररणी नामक एक मा हे यो किक बनने प्रहण कर पारप परवी रे तथा पके हुए मन को गुदा के मार्ग से निकाल देती है, इस प्राणी में बो ममि हे वास्तव में यही प्राणी सहमती , जब ममि पिसी पनर दूषित (सराब) होकर मन्य पर बाती है सब उसके रहने त्र स्थान प्रहपी नामक आत भी पित (सराप)ो बाती है । पैपक श्वास में यपपि ग्रहणी भौर सग्रहणी, इन दोनों में भोरा सा भेद विसमाया है मर्थात् यहाँ यह कहा गया है कि मो भामवायु का संग्रह करती है उसे संग्रहमी इत है, यह (समहणी रोग) मामी की अपेक्षा अधिक भयदायक होता है परन्तु हम यहापर दोनों की भिन्नता का परिगणन (विचार) न कर ऐसे इगन सिलेंगे नो कि सामा न्यतया दोनों के लिये उपयोगी है। फारण-जिस कारण से तीक्ष्ण मरोरा होता है उसी कारण से संग्रहपी भी होती. अथवा तीक्ष्ण मरोहा धान्स होने (मिटने) के माद मन्दामिबासे पुरुष के सथा कुपव आहार और निहार फरनेपाते पुरुस फे पुराना मरोड़ा भर्षात् समहणी रोग हो जाता है। लक्षण-पहिसे परे है कि महणी भात काये मन को महण कर धारण करती है तथा पर हुए को गुदा द्वारा पादर निमस्ती है, परन्तु पर उस में किसी प्रकार १-भान रसे पिपिस्तारा भीम मानवाम पारमेना पदये। पारमा पनि रामप्रसाद वध भोम्स ATए भमप्रापर उपभाभी बरेमा प्रमाण तथा परमपावरती" 1- पण्यत्तिपा बामसपा भामाठप भार पसायबर । ४- पिपरीमर रोप में उम्मय मा यस परिय ५-राभर प्रपन पर सपा पुम. -स में प्रसर रोष पित ने भी पर ना मी अपित राम भरवा बाप मरनी भी परमर पापा भी प्या. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमी २५ रह कर फिर होहता है, क्योंकि भारत की संख्या में चतुर्थ अध्याय ॥ ५२३ का दोष उत्पन्न हो जाता है तब ग्रहणी वा संग्रहणी रोग हो जाता है, उक्त रोग में ग्रहणी फच्चे अन्न का ग्रहण करती है तथा कच्चे ही अन्न को निकालती है अर्थात् पेट छूट कर कच्चा ही दस्त हो जाता है, इस रोग में दस्त की संख्या भी नहीं रहती है और न दस्त का कुछ नियम ही रहता है, क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि-थोड़े दिनोंतक दस्त बन्द रह कर फिर होने लगते हैं, इस के सिवाय कभी २ एकाध दस्त होता है और कभी २ बहुत दस्त होने लगते हैं। इस रोग में मरोड़े के समान पेट में ऐंठन, आमवायु, पेट का कटना, वारंवार दस्त का होना और बद होना, खाये हुए अन्न के पचजानेपर अथवा पचने के समय अफरे का होना तथा भोजन करने से उस अफरे की शान्ति का होना तथा बादी की गांठ की छाती के दर्द की और तिल्ली के रोग की शंका का होना, इत्यादि लक्षण प्रायः देखे जाते है। ___ अनेक समयों में इस रोग में पतला, सूखा, कच्चा, शब्दयुक्त ( आवाज के साथ ) तथा झागोंवाला दस्त होता है, शरीर सूखता जाता है अर्थात् शरीर का खून उडता जाता है, इसकी अन्तिम (आखिरी) अवस्था में शरीर में सूजन हो जाती है और आखिरकार इस रोग के द्वारा मनुष्य बोलता २ मर जाता है। इस रोग के दस्त में प्रायः अनेक रंग का खून और पीप गिरा करता है। चिकित्सा-१-पुरानी संग्रहणी अतिकष्टसाध्य हो जाती है अर्थात् साधारण चिकित्सा से वह कभी नहीं मिट सकती है, इस रोग में रोगी की जठरामि ऐसी खराब हो जाती है कि उस की होजरी किसी प्रकार की भी खुराक को लेकर उसे नहीं पचा . सकती है, अर्थात् उस की होजरी एक छोटे से बच्चे की होजरी से भी अति नाताकत हो जाती है, इस लिये इस रोग से युक्त मनुष्य को हलकी से हलकी खुराक खानी चाहिये। २-संग्रहणी रोग में छाछ सर्वोत्तम खुराक है, क्योंकि यह (छाछ ) दवा और पथ्य दोनों का काम निकालती है, इस लिये दोषों का विचार कर भूनी हुई हींग, जीरा और सेंधा निमक डाल कर इसे पीना चाहिये, परन्तु वह छाछ थर (मलाई) निकाले हुए १-अर्थात् इस रोग में अन्न का परिपाक नहीं होता है । २-अर्थात् वेशुमार दस्त होते हैं। ३-इस रोग मे ये सामान्य से लक्षण लिखे गये हैं इन के सिवाय-दोषविशेष के अनुसार इस रोग में भिन्न २ लक्षण भी होते है, जिन को बुद्धिमान् जन देख कर दोपविशेप का ज्ञान कर सकते हैं अथवा दोपों के अनुसार इस रोग के पृथक् २ लक्षण दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में वर्णित हैं वहा देख कर इस विषय का निश्चय कर लेना चाहिये ॥ ४-वढी ही कठिनता से निवृत्त होनेयोग्य ॥ ५-इस लिये इस रोग की चिकित्सा किसी अतिकुशल वैद्य वा डाक्टर से करानी चाहिये। ६-हलकी से हलकी अर्थात् अत्यन्त हलकी । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ जैनसम्प्रदायरिया ॥ वही में चौमा हिस्सा पानी सठ कर रिगेई हुई होनी चाहिये, मशात् दही में चौगाई हिस्से से भपिफ पानी सरकार नहीं विडोना पाहिय', स्पोंकि गादी छाउ इस रोम में उत्तम खुराफ है, मात् अपिक फायदा करती है, संग्रहणीपा रोगी के लिये अनी मछ ही पर लिसे भनुसार उपम खुराक है, क्योंकि यह पोपप कर मठरामि ने प्रमक प्रती है। इस रोग से युक मनुप्प को चाहिये कि किसी पूर्ण निदान् वैष श्री सम्मति से सब काय करे, किन्तु मूल पैप के फन्दे में न पड़े। __ छाछ के कुछ समयत सेवन करने के पीछे मात मादि हमकी सुराका सेना मारंम करना चाहिये तथा इतकी खुराफ के लेने के समय में भी छाछ के सेएन ने नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि मृत्यु के मुल में पड़े हुए तमा अस्ति (ग) मात्र शेप हुए मी संग्रहणी के रोगी को विद्वानों की सम्मति से भी हुइ छाउ ममृतरूप होपर जीवन घान देती है, परन्तु यह स्मरण रहे कि-धीरज रसकर का महीनासक मोठी अण ही मने पीकर रोगी को सना चाहिये, सत्म तो यह है कि-इस के सिवाय दूसरा सापन इस रोग के मिटाने के लिये किसी अन्य में नहीं देखा गया है।। इस रोग से युछ पुरुष के म्मेि उसेवन का गुणानुवाद जैनाचार्यरचित योगभिन्तामणि नामक पक मन्म में बहुत कुछ म्सिा है तथा इसके विपस में हमारा प्रत्यक्ष अनुमन भी है अर्मात् इस को हमने पथ्य और दया के रूप में ठीक रीति से पाया है। ३-मूंग की ठास घ पानी, पनियां, जीरा, संपा निमफ भोर सोंठ राज कर छाछ प्रे पीना पाहिये। ____-दाई मासे पेट की गिरी को छमाह में मिग र पीना चाहिये समा चल पाक की ही सराफ रसनी पाहिये। ५-दुग्मयटी-शुद्ध पस्सनाग पार पाठ मर, भफीम पार पास भर, यस्म पाप रची मर तवा अनक एक मासे मर, इन सपने दूप में पीस कर दो दो रची की गोमियां बनानी पाहिमें समा उन का शफिके मनुसार सेवन करना चाहिये, या संग्रहपी वमा सूजन की सर्वाधम ओपमि है, परन्तु स्मरण रहे कि अब तक इस दुग्पवटी का सेवन पिया जाये तम फ दूप सिवाय दूसरी सुराक नहीं सानी चाहिये । -मस्तामषित पानी गार फर्मवी कर बनी अहिले ।। १-क्या पूर्व सिनन् पम्मति से मुखार सबपर मारे फमे में पंस गये से पह रोपाप्रा प्रभावीपर्माद प्रापपरमेिरक्षा: २-तय भम्प प्रन्यो में मी समय में पाक का प्रयासर्वात इस AT में पर तकमा मया सपमेयरकामों के लिये मुसरी मस्ती उसी प्रपर इस घर में मठ के समान मुख्य भाव में परी माठ एक रिमेषखा परीके सेवन से मार दोष पिर मरम्व (रमन) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५२५ विशेषसूचना-अतीसार रोग में लिखे अनुसार इस रोग में भी अधिक लान नहीं करना चाहिये, अधिक जल नहीं पीना चाहिये, निग्ध (चिकना) अधिक खान पान नहीं करना चाहिये, जागरण नहीं करना चाहिये, बहुत परिश्रम (मह्नत ) नहीं करना चाहिये तथा खच्छ (साफ) हवा का सेवन करते रहना चाहिये, इस रोग के लिये सामुदिक पवन ( दरियाव की हवा ) अथवा यात्रासम्बधी हवा अधिक फायदेमन्द है'। कृमि, चूरणिया, गिंडोला (वर्मस) का वर्णन ॥ विवेचन--कृमियों के गिरने से शरीर में जो २ विकार उत्पन्न होते है यद्यपि वे अति भयंकर हैं परन्तु प्रायः मनुप्य इस रोग को साधारण समझते है, सो यह उन की बड़ी भूल है, देखो । देशी वैद्यक शास्त्र में तथा डाक्टरी चिकित्सा में इस रोग का बहुत कुछ निर्णय किया है अर्थात् इस के विषय में वहा बहुत सी सूक्ष्म (वारीक) वातें बतलाई गई है, जिन का जान लेना मनुष्यमात्र को अत्यावश्यक (बहुत जरूरी) है, यद्यपि उन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन करना यहापर हमें भी आवश्यक है परन्तु ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से उन को विस्तारपूर्वक न बतला कर सक्षेप से ही उन का वर्णन करते है । भेद-कृमि की मुख्यतया दो जाति है-बाहर की और भीतर की, उन में से बाहर की कृमि ये हैं-जुए, लीख और चर्मर्जुए, इत्यादि, और भीतर की कृमि ताँतू आदि हैं । इन कृमियों में से कुछ तो कफ में, कुछ खून में और कुछ मल में उत्पन्न होती है। कारण-बाहर की कृमि शरीर तथा कपडे के मैलेपन अर्थात् गलीजपन से होती है और भीतर की कृमि अजीर्ण में खानेवाले के, मीठे तथा खट्टे पदार्थों के खानेवाले के, पतले पदार्थों के खानेवाले के, आटा, गुड और मीठा मिले हुए पदार्थ के खानेवाले के, दिन में सोनेवाले के, परस्पर विरुद्ध अन्न पान के खानेवाले के, बहुत वनस्पति की खुराक के खानेवाले के तथा बहुत मेवा आदि के खानेवाले के प्रकट होती है । प्रायः ऐसा भी होता है कि-कृमियों के अण्डे खुराक के साथ में पेट में चले जाते हैं तथा आँतों में उन का पोषण होने से उन की वृद्धि होती रहती है। १-ग्रहणी के आधीन जो रोग है उन की अजीर्ण के समान चिकित्सा करनी चाहिये, इस (ग्रहणी) रोग में लघन करना, दीपनकर्ता औषधों का देना तथा अतीसार रोग में जो चिकित्सायें कही गई हैं उन का प्रयोग करना लाभदायक है, दोपों का आम के सहित होना वा आम से रहित होना जिस प्रकार अतीसार रोग में कह दिया गया है उसी प्रकार दम में भी जान लेना चाहिये, यदि दोप आम के सहित हों तो अतीसार रोग के समान ही आम का पाचन करना चाहिये, पेया आदि हलके अन को खाना चाहिये तथा पञ्चकोल आदि को उपयोग में लाना चाहिये ॥ २-ताँतू कृमि गोल, चपटी तथा २० से ३० फीटतक लम्बी होती हैं। ३-अर्थात् बाहरी कृमि वाहरी मल (पसीना आदि) से उत्पन्न होती है ॥ ४-पतले पदार्थों के अर्थात् कढी, पना और श्रीखण्ड आदि पदार्थों के सानेवाले के ॥ ५-अर्थात् यह भीतरी कृमियों का वाह्य कारण है ॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्पदामशिक्षा || लक्षण -बाहर के जैम तथा लीलें मद्यपि प्रत्यक्ष ही दीसत है तथापि चमड़ीपर दोने, फोडे, नसी, सुबकी और गड़गुमड़ का होना उन की सता (विद्यमानता ) क प्रत्यश्न चिह्न दे' | अब म ५२६ २ कारणों से उत्पन्न होनेवाली कमियों के लक्षणों को किसते - १-कफ से उत्पन्न हुछ कमियों में कुछ तो चमड़े की मोटी डारी के समान, कुछ अबसिये के समान, कुछ अम के भकुर के समान, कुछ बारीक और सम्मी तमा कुछ छोटी २ होती है। इन क सिवाय कुछ सफेद भीर ठाक इवाकी मी कृमि होती है, जिन की सात जातियां है इनके शरीर में होने से जीका मचाना, मुँह में से कार का गिरना, भम कान पचना, अरुचि, मूछा, उलटी, बुखार, पेट में अफरा, खांसी, छीक ओर उमदव ई । म २- खून से उत्पन्न होननाकी कृमि छ प्रकार की होती है, और वे इस पर सूक्ष्म होती है कि सूक्ष्मवृक्ष मन्त्र से ही उन को देख सकत दें इन कमियों से कुछ मादि अर्थात् चमड़ी के रोग उत्पन्न होते हैं। ३ - विष्ठा भवात् वा से रपन होनवाली कृमि गोड, मद्दीन, मोटी, सफेद, पीछे, प्र तथा अधिक का रंग की भी होती है, ये कृमि पांच प्रकार की होती है जब *मि दोजरी के सम्मुख जाती है तब दस्त, गांठ, मक का अवरोध ( रुकना ), शरीर में दुबला, गण का फीफापन, रोंगटे खड़े होना, मन्नामि वभा बैठक में सुजली, इत्पादि हि हाते हैं। कृमि विशेषकर वर्षो के उत्पन्न होती है उस दक्षा में उन की भूख मा तो कुछ ही जाती रहती है मा सब दिन मूल ही भूम बनी रहती है। उनकी विद्यमानानि १- पापी) और नया क्योंकोपिदियों स १- गुरुपदी भार मिरका इन नामों का सेवन है तथा कर्मियों सामान में प्रकरपा बरस नेजा है-बारा (मतों को धानेरा) ( का पानवारी) महागृह पुरव (विन्ना) दमा समान) और ४-पेण धर्मात् पैरो करन से प्रती में विचरती है ६-मेरे अधिया दे राय (फट लिस्टीनेशन) ( डाम भान कुछ के भविष्यामीर, उम्बर, भरत भार भातर मुह व्यतिषां रचन कृतियों की मा पनि Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५२७ इन के सिवाय-पानी की अधिक प्यास, नाक का घिसना, पेट में दर्द, मुख में दुर्गन्धि, वमन, बेचैनी, अनिद्रा (नीद का न आना ), गुदा में काटे, दस्त का पतला आना, कभी दस्त में और कभी मुख के द्वारा कृमियो का गिरना, खुराक की अल्पता (कमी), वकना, नींद में दांतों का पीसना, चौक उठना, हिचकी और खैचातान, इत्यादि लक्षण भी इस रोग में होते है। इस रोग में कभी २ ऐसा होता है कि लक्षणों का ठीक परिज्ञान न होने से वैद्य वा डाक्टर भी इस रोग का निश्चय नहीं कर सकते है । जब यह रोग प्रबल हो जाता है तब हैज़ा, मिरगी और क्षिप्तचित्तता (दीवानापन) इत्यादि रोग भी इसी से उत्पन्न हो जाते है । चिकित्सा -१-यदि कृमि गोल हो तो इन के दूर करने के लिये सेंटोनोईन सादी और अच्छी चिकित्सा है, इस के देने की विधि यह है कि एक से पाच ग्रेन तक सेंटोनाईन को मिश्री के साथ में रात को देना चाहिये तथा प्रातःकाल थोडा सा अडी का तेल पिलाना चाहिये, ऐसा करने से दस्त के द्वारा कृमिया निकल जावेंगी, यदि पेट में अधिक कृमियो की शंका हो तो एक दो दिन के बाद फिर भी इसी प्रकार करना चाहिये, ऐसा करने से सब कृमिया निकल जावेंगी। ऊपर कही हुई चिकित्सा से बच्चे की दो तीन दिन में ५० से १०० तक कृमियां निकल जाती हैं। बहुत से लोग यह समझते है कि जब कृमि की कोथली (थैली) निकल जाती है तब बच्चा मर जाता है, परन्तु यह उन का मिथ्या भ्रम है ।। १-यदि सेंटोनाईन न मिल सके तो उस के बदले ( एवज ) में बाज़ार में जो लोझेन्लीस अर्थात् गोल चपटी टिकिया विकती हैं उन्हें देना चाहिये, क्योंकि उन में भी सेंटोनाईन के साथ वूरा वा दूसरा मीठा पदार्थ मिला रहता है, इन में एक सुभीता यह भी है कि वचे इन्हें मिठाई समझ कर शीघ्र ही खा भी लेते है । १-अर्थात् हैजा और मिरगी आदि इस रोग के उपद्रव हैं । २-यह एक सफेद, साफ तथा कडए खादवाली वस्तु होती है तथा अंग्रेजी औषधालयों मे प्राय. सर्वत्र मिलती है। ३-रात को देने से दवा का असर रातभर में खूव हो जाता है अर्थात् कृमिया अपने स्थान को छोड देती ह तथा नि सल सी हो जाती है तथा प्रात काल अण्डी के तेल का जुलाव देने से सब कृमिया शीच के मार्ग से निकल जाती है और अग्नि प्रदीप्त होती है । ४-क्योंकि कृमियों की कोथली के निकलने से और बच्चे के मरने से क्या सम्बन्ध है। ५-ये प्राय. सफेद रंग की होती है तथा सौदागर लोगों के पास विका करती है। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैनसम्प्रदामशिक्षा || २ - टरपेंटाईन कृमि को गिराती है इस लिये इस की चार ट्राम मात्रा को चार म अंडी के तेल, चार ड्राम गोंव के पानी और एक औस सोए के पानी को मिला कर पिछाना चाहिये । ३ –मनार की जड़ की छाल एक रुपये भर खेकर तथा उस का चूर्ण कर उस में से भाषा प्रात काल तथा आषा धाम को घूरा के साथ मिला कर फेंकी बनाकर लेना चाहिये । ४ - मायविड़ दो माछ, निसोत के छाल का चूर्ण एक माल मोर फपीका एक नास, इन सन औपभों को एक भौंस उकळते ( उमलते ) हुए जल में पान घंटे ( १५ मिनट ) तक भिगा कर उस का निसरा हुआ पानी लेकर दो २ नमसे भर सीन २ घंटे के बाव दिन में दो तीन बार खेना चाहिये, इस से मि निकल जाती हैं, परन्तु स्मरण रहे कि बुखार में यह दवा नहीं लेनी चाहिये । ५- यदि पेट में चपटी कृमि हों तो पहिले जुलाब देना चाहिये, पीछे क्यालोने देना चाहिये तथा फिर जुलाब देना चाहिये । ६-मेलर फे वेळ फी ३० बा ४० दूवें सौंठ के जल में देनी चाहियें और चार घंटे के पीछे अंडी का तेल अथवा जुखफे का जुलाब देना चाहिये । ७- दिवांतू के समान कमि हो यो क्यामोमेल तथा सेंटोनाईन के देने से वे निकल जाती हैं, परन्तु ये कमियां बारभार हो जाती है, इस किये निमक के पानी की, कपासियों के पानी की, अथवा लोहे के अर्क में पानी मिला कर उस की पिचकारी गुणा में मारनी चाहिये, ऐसा करने से कभि भुल कर निकल जाती है । ८- आप सेर निमक को मीठे जल में गला कर तथा उसमें से तीन वा चार मौस लेकर उस की पिचकारी गुदा में मारनी चाहिये, इस से सब कमियां निकल जाती हैं। ९- पिचकारी के लिये इस के सिमाम- चूने का पानी भी मुफीद ( फायदेमन्द) है, अथमा टिंफचर आफ स्टीक की पिचकारी मारनी चाहिये, यदि किपर भाफ स्टीम न मिले तो इस के बदले (एबन) में सिताम के पदों को बफा कर अथवा उन्हें पीस कर पानी निकाछ सेना चाहिय तथा इस पानी की पिचकारी मारनी चाहिये, यह भी १-फळ (अक्की) वायविडग ही कृति राय का बहुत अच्छा समय है, वर्षादीन से पण मियां मिट जाती १ उधार में इस दवा के देने से मन आदि से संभावना रहती है। -यह एक अमजी भोप पर भी है यह मस्कों में मि -ससे कृषिय - अर्थात् विनी के बाकी ॥ में बहुत न्यायात उपच है # Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ चतुर्थ अध्याय ॥ वहुत फायदा करती है, परन्तु पिचकारी सदा मारनी चाहिये, और तीन चार दिन के बाद जुलाब देते रहना चाहिये । १०-पलासपोपडे की बुरकी (चूर्ण) पाव तोला (चार आने भर ) और बायविउग पाव तोला, इन दोनों को छाछ में पिला कर दूसरे दिन जुलाव देना चाहिये । ११-वायविडग के काथ में उसी ( वायविडग ) का चूर्ण डाल कर पिलाना चाहिये, अथवा उसे शहद में चटाना चाहिये। १२-पलासपापड़े को जल में पीस कर तथा उस में शहद डाल कर पिलाना चाहिये। १३-नीव के पत्तों का वफाया हुआ रस शहद मिला कर पिलाना चाहिये । १४-कृमियों के निकल जाने के पीछे बच्चे की तन्दुरुस्ती को सुधारने के लिये टिंकचर आफ स्टील की दश वूदों को एक औस जल में मिला कर कुछ दिनों तक पिलाते रहना चाहिये। विशेषसूचना-इस रोग में तिल का तेल, तीखे और कडए पदार्थ, निमक, गोमूत्र ( गाय की पेशाव), शहद, होग, अजवायन, नींबू, लहसुन और कफनाशक (कफ को नष्ट करने वाले ) तथा रक्तशोधक (खून को साफ करने वाले) पदार्थ पथ्य है, तथा दूध, मास, घी, दही, पत्तों का शाक, खट्टा तथा मीठा रस और आटे के पदार्थ, ये सब पदार्थ कुपथ्य अर्थात् कृमियों को बढ़ाने वाले है, यदि कृमिवाले बच्चे को रोटी देना हो तो आटे में निमक डाल कर तवे पर तेल से तल कर देनी चाहिये, क्योंकि यह 7 के लिये लाभदायक ( फायदेमन्द ) है ॥ आधाशीशी का वर्णन ॥ कारण-आधाशीशी का दर्द प्रायः भौओं में विशेष रहता है तथा यह (आधातीशी का ) दर्द मलेरिया की विषैली हवा से उत्पन्न होता है और ज्वर के समान नियत समय पर शिर में प्रारम्भ होता है, इस रोग में आधे दिनतक प्रायः शिर में दर्द अधिक रहता है, पीछे धीरे २ कम होता जाता है अर्थात् सायकाल को विलकुल वंद १-पलासपापडे की बुरकी अर्थात् ढाक के वीजों का चूर्ण ॥ २-वायविडग डालकर औटाये हुए जल में बायविडग का ही वधार देकर तैयार कर लेना चाहिये, इस के पीने से कृमिरोग और कृमिरोगजन्य सव रोग दूर हो जाते हैं । ३-धतूरे के पत्तों का रस भी शहद डाल कर पीने से कृमिरोग नष्ट हो जाता है । ४-क्योंकि टिंक्चर आफ स्टील शक्तिप्रद ( ताकत देनेवाली) ओपधि है ॥ ५-ग्यारह प्रकार के मस्तक रोगों ( मस्तक सम्बधी रोगों) मे से यह आधाशीशी नामक एक भेद है, इस को सस्कृत में अधीवभेदक कहते हैं, इस रोग में प्राय आधे शिर मे महाकठिन दर्द होता है ।। ६-नियत समय पर इस का प्रारंभ होता है तथा नियत समय पर ही इस की पीडा मिटती है। ७-अर्थात् ज्यों २ सूर्य चटता है यों २ यह दर्द वढता जाता है तथा ज्यों २ सूर्य ढलता है त्यों २ यह दर्द भी कम होता जाता है । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जनसम्प्रदायशिक्षा । हो माता है, परन् पिसी २२ वह नई सम दिन रहता है तथा विधी २ समम भषिक हो जाता है। कभी २ यह आपाधीशी फा रोग भीग से भी हो पाया है तथा पारमार मभरे रहने से, मदुत दिनों तक पपे को धूप पिमने से तथा पातुएम में अधिक सून से पाने से मनोर (नाठामत) मिमां के भी यह रोग हो जाता है। लक्षण-स रोग में रोगी को अनेक काट रहे हैं अभए रोगी माया से ही सिर का दन रिये सुप उठता है, उस से कुछ भी साया नहीं जाता है, घिर पास्ता है, मोग्ना पासना अच्छा नहीं गया है, पेदा फीका रहता है, मास के किनारे सं वित होते है, माण फा सहन नहीं होता है, मुसफ आदि देसा नहीं पाता है तथा तिर गम रहता है। पिफिरसा-१-यह रोग शीतल उपचारा से प्रायः शान्त हो जाता है, इस लिये यथासक्य (जहाँ धफ हो सके) शीतल उपचार दी करने चादिय । २-पहिरे पर जुई कि मह रोग मलेरिया की विपेसी दमासे उत्पन दाता इस लिये इस राग में किनाइन का सेपन गभवामक (फामदमन्द) , फिनाइन की पार प्रेम की गापा धीन २ पटे बाद पेनी पाठिये था मदि दमा की करनी हो यो। जुमान देना चाहिये । ३-दोनरी, लीपैर धपा भांता ग फछ विषमर दो मा वस्त्र को प्रा गने पाग सपा मुश्किारक दया देनी पाहिये । -पर्धमान समय में पास्यपियाह (जेटी भयम्मा में शादी) भरण मियों के माया प्रदर रोग हो जाता है समा उससे उन अवर निर्म: (मागाव) हो जाता है भीर उसी निम्ता के पारण माया उन यह भामाशीशी म रोग भी दी जावा है, इस पि मिया के इस रोग की निरिसा करने से पूर यमासम्म उनी निस्ता मे मिटामा भादिये, क्योकि निम्ता के मिटने से पह रोग मयं दी मात दो बारेगा। ५-पदिसे पर पुरे हि-पह रोग धीवर उपधारो से शान्त होगदे, इस लिसे इस सचीवर ही इसान करमा माहिये, पाकिधीवस इगम इस रोग में धीमी फायदा करता है। Millen मासी गरेवापसम पुए सर मारियों ने पो( ने)fta १-ie भासवर। 1- 44a mमावेसने से नारामारावा? 1-1 मारप्रसार मापको सामान्य ५ पाजी भएका Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { चतुर्थ अध्याय || ५३१ ६ - लवेंडर अथवा कोलन वाटर में दो भाग पानी मिला कर तथा उस में कपडे को भिगा कर शिर पर रखना चाहिये, गुलावजल अथवा गुलाबजल के साथ चन्दन को घिस कर अथवा उस में सांभर के सींग को घिस कर लगाना चाहिये चाहिये तथा पैरों को गर्म जल ७- अमोनिया अर्थात् नौसादर और चूने को सुँघाना में रखना और शिर को दवाना चाहिये । ८- भौंओ पर दो जोंके लगानी चाहियें । ९ - इस रोगी को नकळीकनी सूँघनी चाहिये तथा सूर्योदय ( सूर्य निकलने ) के पहिले तुलसी और धतूरे के पत्तो का रस सूँघना चाहिये । १०- घी में पीसे हुए संधे निमक को मिला कर उसे दिन मे पाच सात बार सूंघना चाहिये, इस से आधाशीशी का दर्द अवश्य जाता रहता है । ११ - इस रोग में ताजी जलेवी तथा ताजा खोवा (मावा) खाना चाहिये | १२-नींत्र पर की गिलोय का हिम पीने से भी इस रोग में बहुत फायदा होता है । उपदंश (गर्मी), चाँदी, टांकी, का वर्णन ॥ चाँदी का रोग बहुधा मनुष्य के वेश्यागमन ( रडीवाजी के करने ) से होता है, तात्पर्य (मतलब ) यह है कि- स्वाभाविक अर्थात् कुदरती नियम के अनुसार न चल कर उस का भग करने से चुरे कार्य की यह जन्म भर के लिये सजा मिल जाती है । जिस प्रकार यह रोग पुरुष के होता है उसी प्रकार स्त्री के भी होता है ! चॉदी एक प्रकार का चेपी रोग है, अर्थात् चॉदी की रसी (पीप) का चेप यदि किसी के लग जावे वा लगाया जावे तो उस के भी चॉदी उत्पन्न हो जाती है । पहिले चॉदी और सुजाख, इन दोनो रोगों को एक ही समझा जाता था परन्तु अब यह बात नही मानी जाती है, अर्थात् बुद्धिमानों ने अब यह निश्चय किया है कि-चॉदी और सुज़ाख, ये दोनों अलग २ रोग है, क्योंकि सुजाख के चेप से होता है और चॉदी के चेप से चाँदी ही उत्पन्न होती है, सुजाख ही उत्पन्न इस लिये इन दोनों को १- इस के सुँघाने से मगज में से विकृत ( विकारयुक्त) जल नासिका के द्वारा निकल जाता है, अत यह रोग मिट जाता है ॥ २-पैरो को गर्म जल में रखने से पानी की गर्मी नाडी के द्वारा मगज में पहुँच कर वायु का शमन कर देती है, जिस से रोगी को फायदा पहुँचता है ॥ ३~क्योंकि जोंकों के लगाने से वे (जोके ) भीतरी विकार को चूस लेती है, जिस से रोग मिट आता हे ॥ ४–ऐसा करने से मगज में शक्ति के पहुंचने से यह रोग मिट जाता है ॥ ५- और चाँदी तथा सुजारा के स्वरूप में तथा लक्षणों मे बहुत भेद है ॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ वैनसम्प्रदायश्चिषा ॥ भलग २ ही मानना ठीफ दे, तात्पम यह है कि वास्तव में ये दो प्रचार के रोग अनाचार (नवग्नी ) से होते हैं। चाँदी दो प्रकार की होती है-मृदु भोर कठिन, इन में से सूदु चाँदी उसे प्रते हैं कि नो इन्द्रिय के निस भाग में होती है उसी जगह अपना असर करती है मर्मात् उस भाग के सिवाय शरीर के दूसरे मागपर उस का मुछ भी मसर नहीं माराम होता है। हां इस में यह बात तो मपश्य होती है कि जिस जगहपर यह पाँदी हुई हो वहां से इस की रसी ठेकर यदि उसी आवमी के शरीरपर दूसरी जगह म्गाद बावे तो उस मगहपर भी वैसी ही चाँदी पर बाती है। दूसरे प्रकार की कठिन (जी वा सस्त) घाँदी वह होती है जिस का मसर सब शरीर के ऊपर मालम होता है', इस में यह मड़ी भारी विक्षेपता (खासियत) कि इस (दूसरे प्रकार की) चाँदी का पेप सेकर यदि उसी भावमी के भरीरपर दूसरी जगह लगाया जाये तो उस जगहपर उस प कुछ मी मसर नहीं होता है, इस कठिन चाँदी को तीक्ष्म गर्मी भर्मात् उपदंश का मर्यकर रोग समझना चाहिये, क्योंकि इसके होने से मनुष्य के शरीर को पड़ी हानि पहुंचती है, परन्तु नरम चाँदी में विशेष हानि की सम्भावना नहीं रहती है, इस के सिवाय नरम चाँदी के साथ यदि बदगांठ होती हे तो यह प्रायः पकती है मौर घटती है परन्तु कठिन-चाँदी के साथ जो मदाँठ होती है वह पफसी नहीं है, किन्तु पहुस दिनोंतकनी और सूची हुई राती है, इस प्रकार से ये दो तरह की चाँदी मिन २ होती है और इन का परिणाम ( फस) भी मिल २ होठा है, इस लिमे यह महुत मावश्यक ( बहरी) पात है कि इन दोनों को मच्छे प्रकार पहिपान कर इन की योम्म ( उधित) चिहिस्सा करनी चाहिये। नरम टाकी (साफ्ट शांकर)-पह रोग प्राय सी के साथ सम्मोग करते समय इन्द्रिय के भाग के छिस बाने से समा पूति (पहिले कहे हुए ) रोग के चेप के रुगने से होता है, यह पाँदी प्राय दूसरे ही दिन अपना विसाप देती (दीस परती हे) मवषा पांच सास दिन के भीतर इस का उदय (उत्पपि) होता है। यह (टांकी) स (सुपारी मत् इन्द्रिय मप्रिम भाग) के उपर पिछले गड्ढे में 1-भाव पापपर के मन्य मामें में बस्ती २-त् एव पापी मसर से पसरपर मननपर (ऊसी रोकते मौर बॉमी भार) यस ऐता ३-अर्षात् सप्रेरती पाने से परे सानपर पॉरी बाई परचम -योगाम से प्रभर चरस पाउपानिमय देवि विपिसारने से मना पिमिसा ही सर्व बारेश्युत (कन्तु) रमी सनि हो जाती है। -साफ्र मात् मुममप मा मम ॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५३३ चमड़ीपर होती है, इस रोग में यह भी होता है कि आसपास चेप के लगने से एक में से दो चार चाँदिया पड़ जाती है, चॉदी गोल आकार ( शकल) की तथा कुछ गहरी होती है, उस के नीचे का तथा किनारे का भाग नरम होता है, उस की सपाटी के ऊपर सफेद मरा हुआ (निर्जीव ) मास होता है तथा उस में से पुष्कल (बहुतसी) रसी निकलती है। ____ कभी २ ऐसा भी होता है कि-चमडी फूल के ऊपर चढ़ी रहती है और फूलपर सूजन के हो जाने से चमडी नीचे को नहीं उतर सकती है परन्तु कई वार चमड़ी के नीचे को उतर जाने के पीछे चॉदी की रसी भीतर रह जाती है इस लिये भीतर का भाग तथा चमड़ी सूज जाती है और चमड़ी सुपारी के ऊपर नहीं चढती है, ऐसे समय में भीतर की चॉदी का जो कुछ हाल होता है उस को नजर से नहीं देख सकते हैं। ___ कभी २ सुपारी के भीतर मूत्रमार्ग में (पेशाब के रास्ते में ) चॉदी पड जाती है तथा कभी २ यह चॉदी जब जोर में होती है', उस समय आसपास की जगह खजती जाती हैं तथा वह फैलती जाती है, उस को प्रसरयुक्त टाकी (फाजेडीना ) कहते है, इस चॉदी के साथ बदगाठ भी होती है तथा वह पककर फूटती है, जिस जगह बद होती है उस जगह गड्डा पड़ जाता है और वह जल्दी अच्छा भी नहीं होता है', कभी २ इस चॉदी का इतना जोर होता है कि इन्द्रिय का बहुत सा भाग एका एक (अचानक ) सड़ कर गिर जाता है, इस प्रकार कभी २ तो सम्पूर्ण इन्द्रिय का ही नाश हो जाता है, उस के साथ रोगी को ज्वर भी आ जाता है तथा बहुत दिनोंतक उसे अतिकष्ट उठाना पड़ता है, इस को सडनेवाली चॉदी (स्लफीग ) कहते है, ऐसी प्रसरयुक्त और सड़नेवाली टाकी प्रायः निर्वल (कमजोर) और दुःखप्रद (दुःख देनीवाली) स्थिति ( हालत ) के मनुष्य के होती है। ___ कभी २ ऐसा भी होता है कि-नरम अथवा सादी चाँदी मूल से तो नरम होती है परन्तु पीछे कहीं २ किन्हीं २ दूसरे क्षोभक (क्षोभ अर्थात् जोश दिलानेवाले) कारणो से कठिन हो जाती है तथा कहीं २ नरम और कठिन दोनो प्रकार की चॉदी साथ में ही एक ही स्थान में होती है, किन्ही पुरुषों के इन्द्रिय के ऊपर सादी फुसी और चॉदी होती १-अर्थात् फल का भाग खुला रह जाता है । २-अर्थात् तीक्ष्ण वा वेगयुक्त होती है ॥ ३-खजती जाती है अर्थात् निकम्मी पडती जाती है ॥ ४-प्रसरयुक्त अर्थात् फैलनेवाली ॥ ५-अर्थात् वह गदा वहुत कठिनता से बहुत समय में तथा अनेक यत्नों के करनेपर मिटता है ॥ ६-नरम अर्थात् मन्द वेगवाली ॥ ७-क्षोभक कारणों से अर्थात् उस में वेग वा तीक्ष्णता को उत्पन्न करनेवाले कारणों से ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैनसम्प्रदामशिक्षा | है, उस का निश्चय करने में अधात् यह कुंसी वा भावी गर्मी की है या नहीं, इस बात के निर्णय करने में बहुत कठिनता ( विकत घा मुश्किल ) होती है। चिकित्सा - १ -प्रथम जब सादी चाँदी हो उस समय उस को नाइट्रिक एसिड से जमा देना चादिमे, भवात् एसिड की दो बूँदें उस के ऊपर डाल देनी चाहियें, अभवा रुह को एसिड में मिगा कर लगा देना चाहिये, परन्तु एसिड के लगाते समय इस बात का अवश्य स्वयाल रखना चाहिये कि एसिड चाँदी के सिवाम दूसरी जगह न लगने पौधे, यदि नाइट्रिक एसिड लगाने से जलन मास पड़े तो उसपर पानी की धारा देनी (डालनी) चाहिये, ऐसा करने से विशेष एसिड ( भानश्यकता से अधिक एसिड का भाग) जल जानेगा मोर जलन बंद हो जायेगी । २- यदि समयपर नाइट्रिक एसिस्ट न मिले तो उसके मवले (एनज) में सिल्वर तथा पोटास कास्टिफ लगाना चाहिये । ३ - इस रीति से जिस जगह चांदी हुई हो उस जगह को जला कर उस के ऊपर एक दिन पोस्टिस लगानी चाहिये कि जिस से जला हुआ भाग अग होकर नीचे वाल जमीन दीखने लेंगे । ४- यदि किसी जगह सफेद भाग हो और वह अच्छा न होता हो तो पहिले थोड़ा सा मोरबोधा गाना चाहिये, पीछे उस के भकुरों के भाने के लिये इस नीचे लिखे हुए पानी में कपड़े को भिगा पर लगाना चाहिये - विकसलफास वृत भेन, टिफचर कमांडर कम्पाउंड यो काम तथा पानी पार भस, इन सब को मिला लेना चाहिये, यदि इस स भाराम न हो तो न्याकमाच में कपड़े की मीट ( भज्जी ना छीरी) को भिगा कर छपेटना चाहिये । ५- इस प्रकार की चौदियों को अच्छा करने के लिये भामडोफार्म अति उत्तम वबा है, उस को चाँदीपर बुरफा कर ऊपर से पटी को रूपेट पर मांध देना चहिये । ६-यदि बॉबी सुपारी के छित्र में अभया मनी के बीच में हो तो उस के बीच में हमेशा कपड़ा रखना चाहिये, क्योंकि ऐसा न करने से उस में से निकलती हुई रसी के दूसरी जगह लग जाने से विशेप टॉफी के पड़ जाने की सम्भावना रहती है । १ एक प्रस्सर का मान होता है १-क्योंकि बौदीक शिवाय दूसरी जगहपर एसिड के गिरने से पह मह भी पक जायेगी पोस्टिय के द्वारा पद जमी हुई भ्रमी पोस्टिय के साथ ही उतर मणी यथा उ का जमीन दी पर ऐसा करने ३उतरने ५ गयी पाब भर जाता है तथा निर्माण चमड़ी अम्पा नरेन Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५३५ ७-यदि फूल चमडी से ढका हुआ हो और भीतर की चाँदी न दीखती हो तो वोएसीक लोशन के पानी की चमडी और फूल के बीच में पिचकारी लगानी चाहिये । ८-यदि प्रसरयुक्त चाँदी हो तो उसपर भी कास्टिक लगा कर पीछे उसपर पोल्टिस बांधनी चाहिये कि जिस से उस के ऊपर का मृत ( मरा हुआ अर्थात् निर्जीव) मांस अलग हो जावे। ९-इन ऊपर कही हुई दवाइयो में से चाहे किसी दवा का प्रयोग किया जावे परन्तु उस के साथ में रोगी को शक्तिप्रद ( ताकत देनेवाली) दवा अवश्य देते रहना चाहिये कि जिस से उस की शक्ति क्षीण (नष्ट ) न होने पावे, शक्ति बनी रहने के लिये टाट आफ आयर्न बहुत अच्छी दवा है, इस लिये पाच से दश ग्रेनतक इस दवा को पानी के साथ दिनभर में तीन बार देते रहना चाहिये। १०-यदि चमडी का भाग सड जाये तो प्रथम उसपर पोल्टिस बॉव कर सड़े हुए भाग को अलग कर देना चाहिये तथा उस के अलग हो जाने के पीछे ऊपर लिखी हुई दवाइयों में से किसी एक दवा को लगाना चौहिये । ११-यदि इन दवाइयों में से किसी दवा से फायदा न हो तो रेड प्रेसीपीटेट का मल्हम, कार्बोलिक तेल, अथवा वोएसिक मल्हम लगाना चाहिये । बद-टाकी के होने से एकतरफ अथवा दोनोंतरफ जाँघ के मूल में जो मोटी गांठ हो जाती है उस को वद कहते है, नरम टाकी के साथ जो बद होती है वह बहुधा पकेविना नहीं रहती है अर्थात् वह अवश्य पकती है तथा उस का दर्द भी बहुत होता है परन्तु कभी २ ऐसा भी होता है कि एक ही गाठ न होकर कई गाठे होकर पक जाती है तथा जाघ के मूल में गड्ढा पड जाता है जिस से रोगी बहुत दिनोंतक चल फिर नहीं सकता है। ___ यह भी स्मरण रहे कि-इन्द्रिय के ऊपर जिस तरफ चॉदी होती है उसी तरफ बद भी होती है और बीच में अथवा दोनों तरफ यदि चाँदी होती है तो दोनो तरफ बद उठती है और वह पक जाती है तथा उस के साथ ज्वर आदि चिह भी मालूम होते है। ___ पहिले कह चुके हैं कि कठिन चॉदी के साथ जो वद होती है वह प्रायः पकती नहीं है, इसी कारण उस में दर्द भी अधिक नहीं होता है। १-क्योंकि काष्टिक के लगाने से चाँदी का स्थान जल जावेगा, पीछे उसपर पोल्टिस वाँधने से वह जला हुआ भाग अर्थात् निर्जीव मास अलग हो जावेगा और नीचे से साफ जगह निकल आवेगी। २-क्योंकि शक्ति के नष्ट हो जाने से इस रोग का वेग वठता है ॥ ३-क्योंकि पोल्टिस को लगाकर सडे हुए मास के अलग किये विना दवा का उपयोग करने से उस (दवा) का असर भीतरतक नहीं पहुँच सकता है किन्तु उस सडे हुए मांस के बीच में आ जाने से दवा का असर अन्दर पहुँचने से रुक जाता है । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनगम्भवायशिक्षा ॥ बादी के साथ म जो पर होती है उसके होने का कारण यही पर उस धन (पानी) ही विपदमार हाने का मूल कारण प्रत्येक परिजका विशिष्ट पिपर, यद शिक्षापण नरिया में भाग मे पक्षण ( मात्र) के भीतरी पिण्ट में पाहुमता दे, उस विप क पाने से उस भागका नाम हो जाता है और पदी मापसी गोटसप गेंदा जाता है। टिन पानी का पिप रुधिर के मार्ग से राम शरीर में फंस जाता है परन्तु गू (नरम) पाँदी का विप फेवल 1 पिपण मी मानता भवात् सबमरीर में दी प.सतार। घिफिरसा-१-चदमारंभ में रागी का पलने फिरने का निषेध करना पाहिये, भार से अधिक पठन रिने नहीं देना हमे, गर्म पानी का रोकना चाहिये वा उस पर घेळाडाना, भापोटीन टियर, अषमा लीनीगेंट लगाना पारिसे हवा भार स्मता अनुसार कि लगानी पादिय ।। २-नाम से पा को पाकर माधना नादिपे, भषया गिन्नर सपा पक्षमीनी का चीरा पापना भाहिये। ३भने भार गुरको पानी में पाट फर (पीसकर ) 31 का सप करना चाहिये। -जब पर पड़नेपर पापे तब उसपर पारयार भडसी ही पास्टिग पधिनी पाहिले, पीछे उस फो शमसे पोर देना चादिमे, जपा उस निमर (उपरी भाग) प फास्टिग पाटास लगा कर मार देमा पादिप पाटोगे माद उस से उपर गरम पट्टी छगानी चाहिये । ___५-कभी २ ऐसा भी होता है कि उस का मोटा सा गदरा धन पा जाता है और उस पर पगड़ी की माटी फोर सरक जाती है परन्तु उस में पदमी हाया दे, पन कभी ऐसा दो या उस पगली की माटी फोर अनिल राणा भादिक्ष मा उस पर प्याग भेस और भागोमग पुरफाना पाहिये सबारे प्रेसी पीटेट का गम्हग लगाना पालि मममा रराफर प पानी लगाना पाहिये। ६-टिन भाती ने साल मूर पर होती भात् प६ Tो पाती है और न पहे. भषिक पद परती है, पह पर इन ऊपर कटे हुए उपचार (उपापा) से भी मी को १- franfi भारी धारणा र समाधी प्रभा भाभी मत्सरनेमा प्रभारीभर पार sathबर पास भारगर पर गभाना दुसरा - पापा UANTA पापीर पर जाने बार va परोसने । on बार (सी) मामा घरमा Janu - - - - - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५३७ सकती है किन्तु वह तो उपदेश (गर्मी) के शारीरिक ( शरीरसम्बन्धी ) उपायों के साथ दूर हो सकती है | कठिन तथा मृदु चाँदी के भेदों का वर्णन | संख्या ॥ मृदु चॉदी के भेद || १ मलीन मैथुन करने के पीछे एक दो दिन में अथवा एक सप्ताह ( हफ्ते ) में दीखती है । २ प्रारंभ में छोल अथवा चीरा होकर पीछे क्षत का रूप धारण करता है । ३ दबाकर देखने से तलभाग में नरम लगती है । क्षत की कोर तथा सपाटी बैठी हुई होती है, उसपर मृत मास का थर होता है और उस में से तीत्र और गाढ़ा पीप निकलता है । t ४ संख्या ॥ कठिन चॉदी के भेद | १ मलीन मैथुन करने के लेकर तीन अटवाड़ो में टती है। ५ बहुधा एक में बहुत से क्षत होते है । ६ क्षत का चेप उसी मनुष्य के शरीरपर दूसरी जिस २ जगह लग जाता है वहा २ वैसा ही मृदु क्षेत पड जाता है । ८ वद एक अथवा दोनों वक्षणों में होती है तथा वह प्रायः पकती है । इस क्षत में विशेष पीड़ा और शोथ होता है तथा प्रसर ( फैलाव ) करने - वाले और सड़नेवाले क्षत का उद्भव ( उत्पत्ति ) होता है और उसके सूखने में विलम्ब लगता है । २ ३ ४ ५ ७ पीछे एक से टीख प प्रारम्भ में फुनसी होकर फिर वह फूट कर क्षत (बाव ) पड जाता है । क्षत प्रारंभ से ही तलभाग में कठिन होता है । क्षत छोटा होता है, कोर बाहर को निकलती हुई होती है तथा सपाटी लाल होती है और उस में से पतली रसी निकलती है | बहुधा एक ही क्षत होता है । क्षत का चेप उसी मनुष्य के शरीरपर दूसरी जिस २ जगह लग जाता है वहा २ दूसरा कठिन क्षैत नही होता है । एक तरफ अथवा दोनो तरफ वद होती है उस में दर्द कम होता है। और वह प्रायः पकती नही है । इस क्षत में पीडा तथा शोथ नही होता है तथा इस में प्रसर ( फैलाव ) करनेवाला और सडनेवाला क्षत क्वचित् ( कही २ ) ही पैदा होता है और वह जल्दी ही सूख जाता है। १- मृदु क्षत अर्थात् नरम चॉदी ॥ २- वक्षणों अर्थात् अण्डकोशों में अथवा उन के अति समीपवर्ती भागों मे ॥ ३- कटिन क्षत अर्थात् तीक्ष्ण चॉदी ॥ ६८ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ९ इस क्षत्र का असर स्वानिक है अमात् उसी बगहपर इस का असर होता है फिन्स वद के स्थान के सियाम शरीर जैनसम्पदामशिक्षा | ९ पर दूसरी जगह असर नहीं होता है। इस रीति से दोनों प्रकार की पौंदियों के भिन्न २ चिह्न ऊपर के कोष्ठ से मालूम हो सकते है और इन चिह्नों से बहुधा इन दोनों का नियम होना सुगम है' परन्तु कभी २ अम क्षत की दुर्दशा होने के पीछे ये चिह्न देखने में आते हैं तब उन का निर्णय होना कटिन पड़ जाता है" । इस क्षत के होने के पीछे बाड़े समय में इस का दूसरा हि शरीर क ऊपर मालूम होने लगता है ॥ कमी २ किसी दशा में विभ के ऊपर कठिन और नरम दोनों साथ में ही होती है और कभी २ ऐसा होता है कि द्वितीय हि के पूर्व चाँदी के भेद का निम्य नहीं हो सकता है ॥ ३ ४५ मा मुखेन्द्रिय (क) यह नहीं कठिन टांकी (ॉर्ड शांकर ) - कठिन टांकी के होने के पीछे शरीर के दूसर भागोंपर गर्मी का असर मालूम होने लगता है, जिस प्रकार नरम टोकी होने के पीछे श्रीघ्र ही एक या दो दिन में दीखने सगती है उस प्रकार यह नहीं दीखती है किन्तु इस में तो यह क्रम होता है कि बहुभा इस में चार अथवा एक पटवाड़े से लेकर वीन अठवाडां के भीतर एक गौरीक फुसी मह फूट जाती है तथा उस की चाँदी पड़ जाती है, इस पानी में से प्राम नहीं निकता है किन्तु पानी के समान थोड़ी सी रसी आती है, इस टाकी का मुख्य गुप यह है कि इस को दबा कर देखने से इस का भाग कठिन मालूम होता है, कठिन इस भाग के द्वारा ही भद्द निश्चय कर लिया जाता है कि गर्मी के बिमने घरीर में प्रवेश कर किया है', यह टोकी महुषा एक ही होती है तथा इस के साथ में एक अपना सहज में ही पहिचान स्वीसंसर्ग के कठिन टोकी पांच दिन में होती है और गाड़ा पीप १-अर्थात् ऊपर लिखे हुए पुष १ मि से दोनों प्रकार की १-क्योंकि वह बाने क बाद निभितवत् जाने कारण पिका की पाव है । प्रकार की चाँदिमां समय के माने से होता है कि यह की प्रकार की च कम पास ॥ ६-अर्थात् घरीर के अम्प मापेपर भी गर्मी का कुछ न कुछ विकार जलन हो भाता है। बारीक अर्थान् ब -वादी मीच का भाप सक्न प्रतीत होता है ९-क्योंकि उस वसभाप के निहोन से बहन से जाता है इसका उभार (सूक निता साथ ने Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५३९ दोनों वक्षणों में वद हो जाती है अर्थात् एक अथवा दो मोटी गांठें हो जाती है परन्तु उस में दर्द थोड़ा होता है और वह पकती नहीं है, परन्तु यदि वद होने के पीछे वहुत चला फिरा जावे अथवा पैरों से किसी दूसरे प्रकार का परिश्रम करना पडे तो कदाचित् यह गांठ भी पक जाती है' । चिकित्सा - १ - इस चॉदी के ऊपर आयोडोफार्म, क्यालोमेल, रसकपूर का पानीअथवा लाल मल्हम चुपड़ना चाहिये, ऐसा करने से टाकी शीघ्र ही मिट जावेगी, यद्यपि इस टाकी के मिटाने में विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता है परन्तु इस टाकी से जो शरीरपर गर्मी हो जाती है तथा खून में विगाड़ हो जाता है उस का यथोचित ( ठीक २ ) उपाय करने की बहुत ही आवश्यकता पडती है अर्थात् उस के लिये विशेष परिश्रम करना पड़ता है । २- रसकपूर, मुरदासीग, कत्था, शखजीरा और माजूफल, इन प्रत्येक का एक एक तोला, त्रिफले की राख दो तोले तथा धोया हुआ घृर्त दश तोले, इन सब दवाइयों को मिला कर चाँदी तथा उपदश के दूसरे किसी क्षत पर लगाने से वह मिट जाता है । ३ - त्रिफले की राख को घृत में मिला कर तथा उस में थोडा सा मोरथोथा पीस कर मिला कर चाँदी पर लगाना चाहिये । ४ - ऊपर कहे हुए दोनों नुसखों में से चाहे जिस को काम में लाना चाहिये परन्तु यह स्मरण रहे कि - पहिले त्रिफले के तथा नीव के पत्तों के जल से चॉदी को धो कर फिर उस पर दवा को लगाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से जल्दी आराम होता है | गर्मी द्वितीयोपदंश (सीफीलीस ) का वर्णन || कठिन चॉदी के दीखने के पीछे बहुत समय के बाद शरीर के कई भागों पर जिस का असर मालूम होता है उस को गर्मी कहते है । यद्यपि यह रोग मुख्यतया ( खासकर ) व्यभिचार से ही होता है परन्तु कभी २ यह किसी दूसरे कारण से भी हो जाता है, जैसे- इसका चेप लग जाने से भी यह रोग हो जाता है, क्योंकि प्रायः देखा गया है कि -- गर्मी वाले रोगी के शरीरपर किसी भाग के काटने आदि का काम करते हुए किसी २ डाक्टर के भी जखम होगया है और उस के १- तात्पर्य यह है कि वह गाँठ विना कारण नहीं पकती है | २- क्योंकि यह मृदु होती हैं ॥ ३ - उस रक्तविकार आदि की चिकित्सा किसी कुशल वैद्य वा डाक्टर से करानी चाहिये ॥ ४- घृत के धोने का नियम प्राय सौ वार का है, हा फिर यह भी है कि जितनी ही वार अधिक धोया जावे उतना ही वह लाभदायक होता है ॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदामशिक्षा ॥ ५१० चेप के मविष्ट ( वास्तिक ) हो जाने से उस जखम के स्थान में टोकी पड़गई है और पीछे से उसके शरीर में भी गर्मी फूट निफली है, यह तो बहुत से खोगों ने देखा ही होगा किवीता का टीका लगाते समय उस की गर्मी का पेप एक मानक से दूसरे बालक के लग जाता है, इस से सिद्ध है कि यदि गर्मीमाला खड़का नीरोग धाम का भी दूष पीये तो उस पाप के भी गर्मीका रोग हो जाता है तथा गर्मीवासी नीरोग भी हो तो भी उस घाम का दूध पीने से उस लड़के के भी गर्मीका रोग हो जाता है, तात्पर्य यह है कि इस रीति से इस गर्मी देवी की मसावी एक दूसरे के द्वारा पैंटती है' । पाय हो और गर्मी का रोग प्रायः वारसा में जाता है। इस सरह व्यभिचार, रोगी के रुधिर के रस काप और बारसा से यह रोग होता है' । यद्यपि यह भाव तो निर्विवाद है कि फठिन भाँदी के मकट होती है परन्तु कई एक डाक्टरों के देखने में हो जाने तक अर्थात् टांकी के होने के पीछे उस के asमाग में कुछ भी कठिनता न मालूम देने पर फमी २ वरीर पर गर्मी प्रकट होने लगती है । कठिन चाँदी की यह सासीर है कि जब से वह टोकी उत्पन्न होती है उसी समय से उस का तल भाग तथा कोर ( किनारे का भाग) कठिन होती है, इस के समान दूसरा कोई भी भाव नहीं होता है अर्थात् सम ही घाव प्रथम से ही नरम होते हैं, वह दूसरी बात है कि- दूसरे शवों को छेड़ने से वे कदाचित् कुछ कठिन हो जायें परन्तु मूल से दी (मारंभ से ही ) वे कठिन नहीं होते हैं ॥ होने के पीछे शरीर की गर्मी यह भी माता है कि टांकी के मरम मिटने तक उस के पास पास और भी उस नरम टांकी के होने के पीछे इस दो प्रकार की (मृदु और कठिन ) चाँदी के सिवाम एक प्रकार की चाँदी और भी होती है जिस में उक्त दोनों मार की चौदियों का गुण मिश्रित ( मिला हुमा ) होता है", अर्थात् यह तीसरे प्रकार की भौदी व्यभिचार के पीछे शीघ्र ही दिखाई देती है और उस में से रसी निकलती है तथा थोड़े दिनों के बाद वह कठिन हो जाती है मौर मास्लिरकार वरीर पर गर्मी विस्वलाई देने लगती है ॥ कई बार तो इस मिश्रित ( मृदु और कठिन ) टांकी के चिह्न स्पष्ठ (साफ) होते हैं १-पह कि वह रोम सामक है इस विर्य मात्र से ही एक से दूसरे में है अर्थात् यह रोग गम में भी पहुँच कर बाकी उत्पत्ति के साथ ही कम होता है। ३- यह है कि उच्च व्यभिचार आदि की कारण इस रोग की उत्पत्ति है ४- निर्विवाद अर्थात् प्रस्थान मानों के द्वारा अनुभव ि ५- भत्रे मारी भी में दोनों प्रकार को चादी के दिने हुए होते है ६- और टिम भभवास ॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५४१ और उन के द्वारा यह वात सहज में ही मालूम हो सकती है कि उसका आखिरी परिणाम कैसा होगी, ऐसी दशा में परीक्षा करनेवाले वैद्यजन रोगी को अपना स्पष्ट विचार प्रकट कर सकते है, परन्तु कभी २ इस के परिवर्तन ( फेरफार) को समझना अच्छे २ परीक्षककों (परीक्षा करने वालों) को भी कठिन हो जाता है, ऐसी दशा में पीछे से गर्मी के निकलने वा न निकलने के विषय में भी ठीक २ निर्णय नहीं हो सकता है, तात्पर्य यह है कि इस मिश्रित टाकी का ठीक २ निर्णय कर लेना बहुत ही बुद्धिमत्ता (अक्लमन्दी ) तथा पूरे अनुभव का कार्य है, क्योकि देखो ! यदि गर्मी निकलेगी इस बात का निश्चय पहिले ही से ठीक २ हो जावे तो उस का उपाय जितनी जल्दी हो उतना ही रोगी को विशेष लाभकारी ( फायदेमन्द ) हो सकता है । कठिन टाकी के होने के पीछे चार से लेकर छःसप्ताह ( हफ्ते ) के पीछे अथवा आठ सप्ताह के पीछे शरीर पर द्वितीय उपदेश का असर मालूम होने लगता है, गर्मी के प्रारंभ से लेकर अन्त तक जो २ लक्षण मालूम होते है उन के प्रायः तीन विभाग किये गये हैंइन तीनों विभागों में से पहिले विभाग में केवल आरभ में जो टाकी उत्पन्न होती है तथा उस के साथ जो वद होती है इस का समावेश होता है, इस को प्राथमिक उपदेश, कठिन चाँदी अथवा क्षत कहते है । दूसरे विभाग में टाकी के होने के पीछे जो दो तीन मास के अन्दर शरीर की त्वचा ( चमड़ी ) और मुख आदि में छाले हो जाते हैं, आँख, सन्धिस्थान ( जोड़ों की जगह ) तथा हाडों में दर्द होने लगता है और वह ( दर्द ) दो चार अथवा कई वर्ष तक बना रहता है, इस सर्व विषय का समावेश होता है इस को सार्वदेहिक (सब शरीर में होनेवाला) अथवा द्वितीयोपदश कहते है । तीसरे विभाग में उन चिह्नों का समावेश होता है कि जो चिह्न सर्व गर्मी के रोग वालों के प्रकट नही होते है किन्तु किन्ही २ के ही प्रकट होते है तथा उन का असर प्रायः छाती और पेट के भीतरी अवयवों पर ही होता है, बहुत से लोग इस तीसरे विभाग के चिह्नों को दूसरे ही विभाग में गिन लेते हैं अर्थात् वे लोग दो ही विभागों में उपदश रोग का समावेश करते है । १-क्योंकि इस के स्पष्ट चिह्नों के द्वारा उस पहिले कही हुई दोनों प्रकार की (मृदु और कठिन ) चॉदी के परिणाम के अनुभव 'इस का भी परिणाम जान लिया जाता है ॥ २- अर्थात् वैद्यजन रोगी को भी इस रोग का भावी परिणाम वतला सकते हैं ॥ ३- तीन विभाग किये गये हैं अर्थात् तीन दर्जे बाँधे गये है | ४- अर्थात् टाँकी की उत्पत्ति और वद का होना प्रथम दर्जा है ॥ ५-प्राथमिक उपदश अर्थात् पूर्वखरूप से युक्त उपदश ॥ ६- अर्थात् उत्पत्ति से लेकर तीन मास तक की सर्व व्यवस्था दूसरा दर्जा है ॥ ७- द्वितीयोपदश अर्थात् दूसरे स्वरूप से युक्त उपदश ॥ ८- अर्थात् वे उपदेश के दो ही दर्जे मानते हैं ॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैनसम्पदामशिक्षा || जब द्वितीयपक्ष के चिह्नों का प्रारंभ होता है उस समय महुषा टोकी तो मि मुर्झाई हुई होती है तथापि उस स्थान में कुछ माग कठिन अवश्य होता है, यह भी सम्भव है कि रोगी पूर्व के चिह्नों को भूल जाता होगा परन्तु बहुत छीम ( थोड़े ही समय में) अंग में थोड़ा बहुत ज्भर आजाता है, गला मा गया हो' ऐसा प्रतीत ( मान्दम ) होने लगता है तथा उस में थोड़ा बहुत दर्द भी मालूम होता है, यदि मुख को खोल कर देखा जाये तो गले का द्वार, पड़ट, खीम सभा गले का पिछला भाग कुछ सूखा हुआ तथा बाळ रंग का मालूम होता है, तात्पर्य यह है कि बहुधा इसी क्रम से दूसरे विभाग के चिह्नों का प्रारंभ होता है', परन्तु कभी २ ऐसा भी होता है कि उभर गोड़ा सा बता है तथा गला भी थोड़ा ही आता है, उस दशा में रोगी उस पर कुछ ध्यान भी नहीं देता है परन्तु इस के पश्चात् अर्थात् कुछ भागे बढ़ कर उपक्ष का मिमिन (मिचित्र ) प्रकार का दर्द उत्पन्न हो जाता है और जिस का कोई भी ठीक क्रम नहीं होता है" अर्याय किसी के पहिले आँख का वर्व उत्पन्न होता है, किसी की सन्धिर्मावड़ जाती हैं, किसी के हाड़ों में दर्द उत्पन्न हो आता है तथा किसी को पहिले स्वचा की गर्मी माम होती है इत्यादि इस के सिमाम इस विभाग के चिह्न बहुधा दोनों तरफ समान ही देखे जाते हैं, जैसे कि दोनों हथेलियों में घटें हो जाती है, अथवा समा सन्धि एक साथ ऊपर को उठ जाती है । दोनों तरफ के हाड यह गर्मी का रोग शरीर के किसी विशेष भाग का रोग नहीं है (खून) के विकार ( बिगाड ) से उत्पन्न होता है, इस लिये शरीर के इस का असर होता है, फिर देखो ! जिस को यह रोग हो चुकता है वह आदमी बहुधा निर्बल फीका मौर तेवहीन हो जाता है इस का कारण भी ऊपर कहा हुआ ही जानना चाहिये । किन्तु यह रोग रक हरएक भाग में इस रोग में जैसी टांकी प्रथम होती है उसी के परिमाण के अनुसार शरीर की गर्मी मकट होती है, इस लिये जिस रोगी के पहिले ही टोकी मोटी, बहुत कठिन तथा पसर १- आप हो अर्थात् में छाले पड़ ये ह १-मत् दूसरे दर्जे के चिउरा पूर्वता है । ३-अर्थात् रोगी थे इस बात का ध्यान नहीं होता है कि आगे बढ़ कर दूसरे दर्जे के मिरे घर पर पूर्णतया आक्रमण करेंगे -भर्षात्का क्रम को ऊपर किया है वह ठीक रीति से होता है उसमें विक जाता है ५-इस विभाग के अर्थात् दूसरे दर्जे के ॥ ६-दोनों तरफ भवान् परीर के दाहिने और बायें तरफ -अत्यारोप भारि गुण उत्पन्न नहीं जानेपर भी मनुष्य में गम और कादि Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५४३ युक्त (फैलती हुई ) मालूम होती है उस रोगी के पीछे से गर्मी के चिह्न भी वेग के साथ में उठते है । (प्रश्न ) जिस आदमी के एक वार उपदंश का रोग हो जाता है वह रोग पीछे समूल (मूल के साथ ) जाता है अथवा नहीं जाता है' ? (उत्तर) निस्सन्देह यह एक महत्व (दीर्घदर्शिता) का प्रश्न है, इस का उत्तर केवल यही है कि यदि मूल (मुख्य ) टांकी साधारण वर्ग की हुई हों तथा उस का उपाय अच्छे प्रकार से और शीघ्र ही किया जावे तथा आदमी भी दृढ़ शरीर का हो तो इस रोग के समूल नष्ट हो जाने का सम्भव होता है, परन्तु बहुत से लोगों का तो यह रोग अन्तसमय तक भी पीछा नहीं छोडता है, इस का कारण केवल-रोग का कठिन होना, शीघ्र और योग्य उपाय का न होना तथा शरीर की दुर्वलता ही समझना चाहिये, यद्यपि औषध, उपाय तथा परहेज़ से रहने से यह रोग कम हो जाता है तथा कुछ कालतक दीख भी नहीं पड़ता है तथापि जिस प्रकार बिल्ली चूहे की ताक (घात) लगाये हुए बैठी रहती है उसी प्रकार एक वार हो जाने के पीछे यह रोग भी आदमी के शरीरपर घात लगाये ही रहता है अर्थात् इस का कोई न कोई लक्षण अनेक समयों में दिखाई दिया करता है और जब किसी कारण से शरीर में निर्बलता बढ़ जाती है त्यों ही यह रोग अपना जोर दिखलता है । (प्रश्न) आप पहिले यह कह चुके हैं कि यह रोग चेप से होता है तथा वारसा में जाता है, परन्तु इस में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस रोगवाले आदमी को स्त्रीसंग करना चाहिये वा नहीं करना चाहिये । (उत्तर) जबतक टाकी हो तबतक तो कदापि स्त्रीसंग नहीं करना चाहिये, किन्तु जब यह रोग योग्य उपचारों ( उपायों) के द्वारा शान्त हो जावे तब ( रोग की शान्ति के पीछे ) स्त्रीसंग करने में हानि नहीं है, इस के सिवाय इस बात का भी स्मरण रखना चाहिये कि-बहुधा ऐसा भी होता है कि स्त्री अथवा पुरुष को जब यह रोग होता है और उन के संयोग से गर्भ रहता है तब वह गर्भ पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं होता है किन्तु चार वा पाच महीने में उस का पात ( पतन ) हो जाता है, इस लिये १-क्योंकि बहुतों के मुख से यह सुना है कि यह रोग मूलसहित कभी नहीं जाता है परन्तु वहुत से मनुष्यों को रोग हो चुकने के बाद भी बिलकुल नीरोग के समान देखा है अत यह प्रश्न उत्पन्न होता है, क्योंकि इस विपय मे सन्देह है। २-क्योंकि यदि वह पुरुप कारणविशेष के विना ऋतुकाल मे भी खस्त्रीसग न करे तो उसे दोप लगता है (देखो मनु आदि ग्रन्थों को) और यदि स्त्रीसग करे तो चेप के द्वारा स्त्री के भी इस रोग के हो जाने की सम्भावना है, क्योंकि आप भी प्रथम कह चुके है कि यह रोग समूल तो किसी ही का जाता है। ३-तात्पर्य यह है कि रोगदशा में स्त्रीसग कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से दोनों को ही हानि पहुँचती है किन्तु जव योग्य चिकित्सा आदि उपायो से रोग विलकुल शान्त हो जावे अर्थात् चॉदी आदि कुछ मी विकार न रहे उस समय स्त्रीसग करना चाहिये, ऐसी दशा में स्त्री के इस रोग के सक्रमण की सम्भावना प्राय नहीं रहती है, क्योंकि रसी निकलने आदि की दशा मे उस का चेप लगने से इस रोग की उत्पत्ति का पूरा निश्चय होता है अन्यथा नहीं ॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ बेनसम्प्रदायशिक्षा ॥ यह बहुत ही आवश्यक (बहरी) मात है कि जिस भी मभना मिस पुरुष के यह रोए । हो उस को चाहिये कि प्रथम अच्छे प्रकार से इस रोग की चिकित्सा करा ले, पीछे सपत्य करे, क्योंफि ऐसा करने से सयोगद्वारा स्थित हुए गर्भ में हानि नहीं पहुँचती है। (मम) निस पुरुष के उपदंश रोग हो चुका है वह पुरुष यदि विवाह करने की सम्मति मगि तो उसे विवाह करने की सम्मति देनी चाहिये भगवा नहीं देनी चाहिये। (उत्सर) इस विषय में सम्मति देने से पूर्व की एक पावें विचारणीम ( विचार करने योग्य) है, क्योकि देसो ! प्रथम तो उपदंश की व्यापि एक बार होने के पीछे शरीर में से समूल नष्ट होती है भबमा नहीं होती है इस विषय में सपपि पूरा सन्देह रावा तयापि मोग्य चिकिस्सा करने के बाद उपर्वच रोग के शान्स होने के पीछे एक दो पा तक उस की प्रतीक्षा करनी चाहिये, यदि उक्त समयक मह न्यामि न दीस पईसा विवाह करने में कोई भी हानि प्रतीत नहीं होती है, दूसरे अन्य विषों के समान उपदं न मी विप समय पाकर मत बहुत दिन व्यतीत हो जाने से श्रीर्ण मौर रमील (फमनोर) रोगाता है, इस का मस्मथ ममाप यही है कि जिन को पहिले यह रोग हो शुका या पीछे योम्प उपायों के मारा छान्त ऐ जाने पर तमा फिर बहुत समय तक दिख माई न देने पर मिन भी पुरुषों ने विवाह किया उन चोड़ों की सन्तति बहुषा सन्दुस्ख वीस पाती है, मही विपय जूनागढ़ के एम् एम् प्रिमुवनवास बैन वास्टरने भी मिला है। __ गर्मी से यो २ रोग होते हैं वे प्राय स्वपा (चमडी), मुस, हार, साँपे, भास, नच और केस में दिखाई देते हैं, उन ध्र वर्षन संक्षेप से किया आता है १-सपा के उपर महुपा सास तौर से रंग के समान पकवे देखने में भावे , में (पा) गोस होते हैं सभा छोटे पकते तो दुमनी से भी छोटे मौर पर पार रुपये से भी अछ विछेप मोहोते हैं, ये प्रायः शरीर की सम्पूर्ण त्वचा पर होते हैं अर्थात् पेर, छाती, पेर भोर राम इत्यादि सब अवयवों पर दीस पाते, परन्तु कभी २ ये पर पर दोनों हथेसियों में भौर पैर के सत्रयों में ही माखन होते हैं, कमी २ ऐसा भी होता है कि-दन पाठों के साम में सपा के छारे मभवा सोग भी निकट माते हैं, या उपदेश का एक सास किमी २ गर्मी के फफोले भी हो चास उनको पूपि टिप तमा रम पिटिका प्रवे, मनुष्य की नियत दक्षा में तो ये भी पक कर बही २ पानी कप में दो बात भपरा सून चाने के बाद उनी पर पो २ सरोट जम बाठ है, इस प्रचार के पास सरांट कभी २ पैरों के उपर देखने में भाते हैं। दन सिराय उपक रण परती भौर गुमई भी बाते हैं, वालम यह -िसाबितन साधारण रोग हात है उन्दी के किसी न रिसी बस में उपदेश भी -पपरम भवा II Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५४५ रोग प्रकट होता है, इस रोग से त्वचा के ऊपर छोटी बडी सब प्रकार की पिटिकायें (फुसियें ) भी हो जाती है। उपदश सम्बधी त्वयोग (त्वचा का रोग ) ताम्रवर्ण (तावे के रग के समान रॅगवाला) तथा गोलाकार (गोल शकल का) होता है और वह शरीर के दोनो तरफ प्रायः समान (एक सा ) ही होता है तथा उस के मिट जाने के पीछे उस के काले दाग पड कर रह जाते हैं। २-इस रोग के कारण कभी २ केश (वाल ) भी नि.सत्त्व (निर्बल ) होकर गिर पड़ते है, अर्थात् मूछ दाढ़ी और मस्तक पर से केश विलकुल जाते रहते है । ____३-नख का भाग पक कर उस में से रसी निकला करती है, नख निकल जाता है और उस स्थान में चाँदी पड़ जाती है। ___-पहिले कह चुके है कि गर्मी के प्रारम्भ में मुख आता है" ( मुखपाक हो जाता है) तथा उस के साथ में अथवा पीछे से गले के भीतर चॉदे पड़ जाते हैं, मसूडे सूज जाते है, जीभ, ओष्ठ (ओठ वा होठ) तथा मुख के किसी भाग में चॉदे हो जाते है और उन पर बड़ी २ पिटिकायें भी हो जातीहैं, इन के सिवाय लारीक्ष अर्थात् स्वर (आवाज) की नली सूज जाती है अथवा उस के ऊपर चॉदियां पड़ जाती है, गर्मी के कारण जब ये ऊपर लिखे हुए मुख सम्बंधी रोग हो जाते हैं उस समय रोग के भयकर चिह्न समझे जाते है, क्योंकि इन रोगों के होने से श्वास लेने का मार्ग सँकुचित (सॅकड़ा) हो जाता है तथा कभी २ नाक भी भीतर से सड़ जाती है, उस का पडदा फूट जाता है और वह बाहर से भी झर झर के गिरने लगती है, ताल में छिद्र (छेद) होकर नाक में मार्ग हो जाता है कि जिस से खाते समय ही खुराक और पीते समय ही पानी नाक में होकर निकल जाता है तथा जीम और उस का पड़त भी झर झर के गिर जाता है। ५-हाड़ों पर का पडत सूज जाता है, उस पर मोटा टेकरा हो जाता है तथा उस में या तो स्वय ही ( अपने आप ही) बहुत दर्द होता है अथवा केवल दवाने से वह दर्द करता है और उस में रात्रि के समय विशेष वेदना ( अधिक पीड़ा) होती है कि जिस १-दोनों तरफ अर्थात् दाहिनी और वाई ओर ॥ २-अर्थात् उस के कारण पडे हुए काले दाग नहीं मिटते हैं । ३-तात्पर्य यह है कि रोग के सवव से पूर्व के वाल नि सब हो कर गिर जाते हैं और पीछे जो निकलते हैं ये भी निर्वल होने के कारण वढने से पूर्व ही गिर जाते हैं। ४-मुख आता है अर्थात् मुख में छाले भादि पड जाते हैं ।। ५-क्योकि श्वास के मार्ग के बहुत से स्थान को उक रोग घेर लेते हैं। ६-अर्थात् नि सत्वता के द्वारा योडे २ भाग से गिरने लगती है। ७. अर्थात् खान पान उसी समय ( तालु में पहुँचते ही) नाक के मार्ग से बाहर निकल जाता है ॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ से रोगी की निद्रा (नीव) में मग (विम) परता है', पैरों के हारों पर, पाप के हाड़ों पर सपा बोस की हाँसी के हाड़ों पर इस मकार के टेकरे विक्षेप वेसने में आते हैं, इस के सिवाय सुनी भौर सोपड़ी के ऊपर भी ऐसे टेफरे हो बासे हैं तमा हारम मीवरी माग भी सड़ने लगता है जिस से वह हार गर कर आखिरकार मृत्यु हो जाती है। ६-कमी २ सन्धिवायु के समान पहिले से ही सॉषे (मोरों के सान ) बकर बाते हैं मौर विशेषकर बने साँचे नकर जाते है मिस से रोगी को हम पैरों प हिलना उमना भी पति कठिन हो जाता है, कमी २ छोटी मगुरियों के तमा पैरों के भी समि बकर नाते हैं तमा सूत्र आते हैं मोर कमर में भी यादी भर जाती है, यपपि सौपे गोरे ही दिनों में अच्छे हो आते हैं तथापि वे पहुत समय तक रोगी को कष्ट पहुँचाते रहते हैं। __ --कमी २ शरीर के किसी दूसरे स्थान में विसई देने के पूर्व माँस दुमनी भावी है सपा भी २ मॉल का दर्द पीछे से उठता है, आँस में कनीनिका (माफन ) का परम (शोष) हो वाता है, कनीनिका के सूम बाने पर उस के उपर डीफ (स) नाम का रस उत्पन हो जाता है जिस से कनीनिका पिफ माती है मौर फीकी विस्तृत नही होती है, मौल मस हो माती है तथा उस में भौर मस्तक ( माने) में मतिसम वेदना (बहुत ही पीरा) होती है, इस लिये रोगी को रात्रि में निद्रा का माना कठिन हो जाता है, केवल इसना ही नहीं किन्तु मदि ठीक समय पर बोस की समान (सपरगीरी) ने की चापे तो आँस निकम्मी हो जाती है और ष्टि का समूल नाण -~-हो नाता है। तीसरे विभाग के विज छ अनों के होते हैं तथा इछ अनों के नहीं होते हैं परन्त जिन गेगों के ये (सीसरे विभाग के) पिड होते हैं उनके मे पिया तो कई वर्षों एक क्रम २ से (एक के पीछे दूसरा इस क्रम से) हुमा कासे है अथवा पारंबार एक ही प्रकार का चित्र होता रहता है अर्थात् एक ही पर्व उठसा रहता है, इस विभाग के चिहों का प्रारम बोरे महुत पर्षों के पीछे होता हैवमा अब रोगी की सवियत महुत ही भठक हो जाती है उस समय उन का मोर विशेष मानस पड़ता है। छीफ मामक यो रस उत्पन्न होता रे उस रस का साव (सरार) शेकर भवयों में गांठे प नावी रे तथा यह परिवर्तन (फेरफार) लेना, फेफसा, मगम और दूसरे - रोपे गरेभरमाराम पूरपार मई मादी है। -शघिमायु समाम भात् मिस प्रसार सम्पियामुग में अपनापसी प्रमर 1-सामिपुर -अमर तोमरे व पिक निस मनुष्प सप सप विक एक पिर समय तक कार्य पेठेवरभपरा न खिों में प्रमी या एसी विद पार पम्ता भन्न पसाव रोपावा भी मिय Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५४७ कई एक भागों में होता है तथा इस परिवर्तन से भी बहुत हानि पहुँचती है अर्थात् यदि यह परिवर्तन फेफसे में होता है तो उस के कारण क्षयरोग की उत्पत्ति हो जाती है, यदि मगज में होता है तो उस के कारण मस्तकशूल ( माथे में दर्द), वाय, उन्मत्तता (दीवानापन) और लकवा आदि अनेक भयंकर रोगों का उदय हो जाता है, कभी २ हाड़ों के सड़ने का प्रारम्भ होता है-अर्थात् पैरों के, हाथो के तथा मस्तक के हाड़ ऊपर से सड़ने लगते हैं, नाक भी सड कर झरने लगती है, इस से कभी २ हाड़ों में इतना बड़ा विगाड़ हो जाता है कि- उस अवयव को कटवाना पडता है', आँख के दर्पण में उपदंश के कारण होनेवाले परिवर्तन ( फेरफार ) से दृष्टि का नाश हो जाता है तथा उपदश के कारण वृषणों ( अडकोशों) की वृद्धि भी हो जाती है, जिस को उपदशीय वृषणवृद्धि कहते है। चिकित्सा -१-उपदंश रोग की मुख्य (खास ) दवा पारा है इस लिये पारे से युक्त किसी औपधि को युक्ति के साथ देने से उपदंश का रोग कम हो जाता है तथा मिट भी जाता है। २-पारे से उतर कर ( दूसरे दर्जे पर ) आयोडाइड आफ पोटाश्यम नामक अंग्रेजी दवा है, अर्थात् यह दवा भी इस रोग में बहुत उपयोगी ( फायदेमंद ) है, यद्यपि इस रोग को समूल (जड़ से ) नष्ट करने की शक्ति इस (दवा) में नहीं है तथापि अधिकाश में यह इस रोग को हटाती है तथा शरीर में शान्ति को उत्पन्न करती है। ३-इन दो दवाइयों के सिवायें जिन दवाइयों से लोहू सुधरे, जठरामि (पेट की अमि) प्रदीप्त (प्रज्वलित अर्थात् तेज़ ) हो तथा शरीर का सुधार हो ऐसी दवाइया इस रोग पर अच्छा असर करती हैं, जैसे कि---सारसापरेला और नाइट्रो म्यूरियाटक एसिड इत्यादि । ४-इन ऊपर कही हुई दवाइयों को कव देना चाहिये, कैसे देना चाहिये तथा कितने दिनों तक देना चाहिये, इत्यादि बातों का निश्चय योग्य वैद्यों वा डाक्टरों को रोगी की स्थिति ( हालत ) को जाँच कर स्वयं (खुद) ही कर लेना चाहिये। ५-पारे की साधारण तथा वर्तमान में मिल सकने वाली दवाइया रसकपूर, क्यालोमेल, चाक, पारे का मिश्रण तथा पारे का मल्हम है। १-यदि उस अवयव को न कटवाया जावे तो वह विकृत अवयव दूसरे अवयव को भी विगाड देता है। २-अर्थात् उपदश से हुई धृपणों की वृद्धि । ३-अर्थात् यह दवा उस के वेग को अवश्य कम कर देती है ॥ ४-इन दो दवाइयों के सिवाय अर्थात् पारा और आयोडाइड आफ पोटाश्यम के सिवाय ॥ ५-क्योंकि देश, काल, प्रकृति और स्थिति के अनुसार मात्रा, विधि, अनुपान और समय आदि वातों में परिवर्तन करना पड़ता है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ बैनसम्पदावशिक्षा ॥ ६-पारा देने से मपपि मुंद आता है (मुलपाक हो जाता है) तथापि उस में प्रोई हानि नहीं है, क्योकि वास्तव में बहुत से रोगों में औपप सेवन से मुसपाक हो ही जाता है, परन्तु उस से हानि नहीं होती है, क्याफि-स्थितिमेव से वह मुसपा भी रोग के दूर होने में सहायक रूप होता है, इसी लिये देशी अधजन गर्मी मावि रोगों में जान घूम कर मुसपाक रनेपाली औषधि देते है तथा उपर्दछ की शान्ति हो जाने पर मुमपाक को नित करने ( मिटाने मारी दया दे दते हैं, मयपि पारे की दवा के देने से अपिक मुसपाफ हो जाने से शरीर में माय पर पड़ी सरानी हो जाती है जिसमें माम महुत से लोग जानते इंगि कि-कभी २ मुखपा से अधिक हो पाने से बहुत से रोगियों की मृत्यु सक हो जाती है, सिर्फ यही कारण है कि- वर्षमान में इस मुस पाक का मोगा में तिरम्बार (अनादर ) दसा जाता है परन्तु इस हानि का परम हम तो मही कह सकते हैं कि बहुत से पनन श्रीपपि के द्वारा मसपाक को तो वेग साथ उत्पक्ष र देते हैं परन्तु उसके इटाने के (शान्त परमे के) नियम में नहीं जानते हैं', मस ऐसी दशा में मुम्नपाक से हानि होनी ही पाहिले, पोकि मुसपा की निति के न होने से रोगी कुछ सा भी नहीं सकता है, उसे कठिन परहेम ही परहेन करना पाता है, उस के दाँत हिमने उग समा दाँत गिर भी माते हैं भोर मुसपा फारम पहुव से हार भी सर चाते है, कभी २ जीम सून कर सभा मोटी हो पर बार भा जाती है तथा भीतर से श्वास (साँस ) फा भवरोध ( रुकावट) हो र रोगी मृत्यु हो पाती है, इस सिये मशाम प को औपपि द्वारा भविष्य ( पहुव मनिक) मुसपा कभी नदी उत्पन्न करना चाहिये किन्तु गड साधारणतया भाषश्यकता पड़ने पर मुसपा को उत्पन्न करना चाहिसे गिस फो लोग फूल मुसपारपते, फूल मुसपक प्राय उसे कहते है कि जिस में थोड़ी सी भूक में विवेपता होती है सस्पम महो किदाँता के मसूडो पर जिस बोड़ा सा ही भसर हो बस उतना ही पारा देना चाहिये, इस से पिझप पारा देने की कोई भावश्यकता नहीं है , परन्तु इस विषय में मा समाउ रसना पारिये कि पारे को केरा उतना देना पाहिमे फि-मितना पारा ठोई पर भपन्न असर पर्नुमा सके। बहुत से मम वेप तथा नमरे छोग यह समझते हैं कि- मुस में से सिवमा पूर - प्रात भार सिसभेव से मुपप्रभाषा वो रोम माति में एक मात्र मा मरि विमगा उसी परमातोम - मुगापिस रत्तम सा वा पति परम पवि से मातम मबार 1-4म मुपास्य प (गरम पाप) मुरापा ४-HRस परेमाया परनाम में भी GAAN (सामरगम)ोन Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५४९ अधिक निकले उतना ही विशेष फायदा होता है, क्योंकि थूक के द्वारा गर्मी निकल जाती है, परन्तु उनका ऐसा समझना बहुत ही भूल की बात है, क्योंकि लाभ तब विशेष होता है जब कि पार से मुखपाक तो कम हो अर्थात् थूक में थोडी सी विशेषता ( अघिकता) हो परन्तु वह बहुत दिनों तक बनी रहे', किन्तु मुखपाक विशेष ( अधिक ) हो और वह थोड़े ही दिनों तक रहे उस से बहुत कम फायदा होता है। ___ बहुधा यह भी देखा गया है कि---मुखपाक के विना उत्पन्न किये भी युक्ति से दिया हुआ पारा पूरा २ (पूरे तौर से ) फायदा करता है, इस लिये अधिक मुखपाक के होने से अर्थात् अधिक थूक के बहने ही से लाभ होता है यह विचार विलकुल ही भ्रमयुक्त (बहम से भरा हुआ ) है। __७-डाक्टर हचिनसन की यह सम्मति ( राय ) है कि-- पारे की दवा को एक दो मास तक थोड़ी २ बराबर जारी रखना चाहिये, क्योंकि उन का यह कथन है कि" उपदश पर पारद (पारे) को जल्दी देओ, बहुत दिनोंतक उस का देना जारी रक्खो और मुखपाक को उत्पन्न मत करो" इत्यादि । ८-गर्मीवाले रोगी को पारा देने की चार रीतिया है- उन में से प्रथम रीति यह है कि- मुख के द्वारा पारा पेट में दिया ( पहुँचाया ) जाता है, दूसरी रीति यह है किपारे का धुआँ अथवा भाफ दी जाती है, तीसरी रीति यह है कि- पारे की दवा न तो पेट में खानी पड़ती है और न उसका धुआँ वा भाफ ही लेनी पड़ती है किन्तु केवल पारा जॉघ के मूल में तथा कॉख में लगाया जाता है और चौथी रीति यह है किसप्ताह (हफ्ते ) में तीन वार त्वचा (चमड़ी) में पिचकारी लगाई जाती है। इस प्रकार पहिले जब गर्मी के दूसरे विभाग के चिह्न मालूम हो तब अथवा उस के कुछ पहिले इन चारों रीतियों में से किसी रीति से यदि युक्ति के साथ पारे की दवा का सेवन कराया जावे तो उपदश के लिये इस के समान दूसरी कोई दवा नहीं है, परन्तु पारे सम्बधी दवा किसी कुशल (चतुर ) वैद्य वा डाक्टर से ही लेनी चाहिये अर्थात् मूर्ख वैद्यों से यह दवा कभी नहीं लेनी चाहिये। (प्रश्न) सर्व साधारण को यह बात कैसे मालूम हो सकती है कि- यह कुशल वैद्य है अथवा मूर्ख वैद्य है ? (उत्तर) जिस प्रकार सर्व साधारण लोग सोने, चाँदी, जबाहिरात तथा दूसरी भी अनेक अस्तुओं की १-थूक में थोडी विशेषता होकर बहुत दिनोंतक बनी रहने से वडा लाभ होता है अर्थात् रोगी को खाने पीने आदि की तकलीफ भी नहीं होती है तथा काम भी बन जाता है । २-ऐसा करने से रोगी को विशेप कष्ट न होकर फायदा हो जाता है। ३-दूसरे विभाग (दूसरे दर्जे) के चिछ ज्वर मादि, जिन को पहिले लिख चुके हैं। ४-क्योंकि मूर्ख वैद्यों से पारे की दवा के लेने से कभी २ महा भयङ्कर (बड़ा खतरनाक) परिणाम हो। जाता है। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जैनसम्मवायशिक्षा परीक्षा करते हैं अमया दूसरे किसी के द्वारा उन की परीक्षा फरा लेते है उसी प्रकार फुचल तथा मूम पैच की परीक्षा का भी फर स्ना पानसरे से फरा लेना सर्वसाधारण से भत्यावश्यक (पात जसरी) है, परन्तु महान् चोक का विषय है कि-पमान में गये साधारण और गरीप लोग तो क्या फिन्तु पो २ भीगान् सोग भी इस पिपय में कुछ भी ध्यान नहीं देते है, इसी फा यह फल है. फि-सुखस अपपा मूस पैप की परीक्षा कारन यासा शायद ही सो में से एकाध मिळवा दे, इस सिय सर्वसाधारण से उमारा यही निय दन दे कि-दूध को मथ (निगे) पर घुत निकाम्ने के समान जो हममे इस प्रप इसी अध्याप के मारम्भ में पापिया का सार लिसा है उस को भरफास (फुर्सत ) : समय में पाठकगण दूसरी प्य (फिजूल ) गप्पा में Bथा नाना प्रभार स्पित रिसो पदानिमा की पुस्तकों के पढ़ने में भपने भमत्य (पेशकीमती) समय को न गैया कर यदि पिपारा फरें तो उन को अनेक प्रकार का साम हो सकतामा इसके प्रभाव से उन में कुसन भा मूर्स पेप की परीक्षा करने की क्षति भी उत्तम दो सकती है। ___भम पर फदी हुई पिस्सिामों के सियाप-जो अंग्रेजी सभा देवी दवाइमा इस रोग पर पूर्ण छाभ फरती हैं उन्हें विसते दी १-पोटास भायोगाइड १५ मेन, सीकर हाइसार पीरी परकारीट २ राम, एक्स्ट्रार सारसापरीछा ३ राम और चिरायते की पाप ३ भास, इन सब भोपों को मिला फर उस फे सीन भाग परने पाहिमे सभा उन में से एक भाग को सपेरे, एक भाग को गभ्याए में (दोपहर फो) और एक भाग को शाम को पीना पारिये, यह दवा मति उपम दे अर्थात् गाफे सर्म रोगों में भति उपयोगी ( फायदेमन्द) गानी गई है, इस दपा में जो पोटास भामोहर फी १५ मेन की मात्रा मिसी है उस के नाम में एक इप के पार २० मेन श्रीमाप्रा पर देनी पाहिमे मार हफ्ते के पाद उफ पा २० प्रेम टासना पाटिये तथा नसरे हफ्ते में २५ मेन प्रफ पड़ा देना भादिमे, इस दवा को पारंग पर दी यपपि तीन दिन तफ शेपा (फ भर्थात् गुफाम) हो जाता है परन्तु वह पीछे माप ही दो पार दिन में पन्द हो पाता है, इस लिये हेमा के हो जाने से सरना नहीं पाहिसे तभा दपा को परापर खेते रहना चाहिये भीर इस दपा ऐपन पो मदीने क फरना पाहिये, यदि किसी कारण से इस का दो महीने तक सेवन नबन -समान भी ममुप पा पपा डिसेमा बिभा पधारा पाने भारिपोपहाँ पालो पोवारी पनि भय बना पता -11मिन। मधमाकपा-मार पाको मभ नेपाले भरणे प्रपरमे मा सिराप्रपामा AIR पहा भारि भने पर RC का पापो ग म पानपूरणपारण मन भी ममम भीर 1 व परीक्षा की नई un - - Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५५१ सके तो चार हफ्ते तक तो इस का सेवन अवश्य ही करना चाहिये, इस दवा के समान अग्रेजी दवाइयों में गर्मी पर फायदा करने वाली दूसरी कोई दवा नहीं है, इस दवा का सेवन करने के समय दूध भात तथा मिश्री का खाना बहुत ही फायदेमद है अर्थात् इस दवा का यह पूरा पथ्य है, यदि यह न बन सके तो दूसरे दर्जे पर इस का यह पथ्य है कि-सेंधानमक डाल कर तथा वीज निकाली हुई जयपुर की थोडी सी लाल मिर्च डाल कर बनाई हुई मूंग की दाल फुलके तथा भात को खाना चाहिये, किन्तु इन के सिवाय दूसरी खुराक को नहीं खाना चाहिये तथा इस पथ्य ( परहेज ) को गर्मी की प्रत्येक दवा के सेवन में समझना चाहिये । २-पोटास आयोडाइड १२ ग्रेन, लीक्वीड एक्स्ट्राक आफ् सारसापरेला २ ड्राम, इन दोनों को मिलाकर ३ भाग ( तीसरा हिस्सा) दिन में तीन वार देना चाहिये । ३-उसवा मगरवी दो तोले, पित्तपापडा छः मासे, काशनी छः मासे, चन्दन का चूरा ६ मासे तथा पुटास आयोडाइड छः ग्रेन, इन में से प्रथम चार औपधियो को आध पाव उबलते हुए गर्म पानी में एक घंटे तक चीनी वा काच के वर्तन में भिगोवें, फिर छान कर उस में पुटास आयोडाइड मिलावें और दिन में तीन बार सेवन करें, यह दवा एक दिन के लिये समझनी चाहिये तथा इस दवा का एक महीने तक सेवन करना चाहिये । ४-मजीठ, हरड़, बहेड़ा, ऑवला, नीम की छाल, गिलोय, कड्ड और वच, इन सत्र औपधों को एक एक तोले लेकर उस के दो भाग करने चाहिये तथा उस में से एक भाग का प्रतिदिन काथ बना कर पीना चाहिये । __५-उपलसरी, जेठीमधु (मधुयष्टि अर्थात् मौलेठी), गिलोय और सोनामुखी ( सनाय ), इन सब को एक एक तोले लेकर तथा इन का काथ बना कर प्रतिदिन पीना चाहिये, यदि इस के पीने से दस्त विशेष हों तो सोनामुखी को कम डालना चाहिये । ६-उपदंश गजकेशरी अंक यह अर्क यथा नाम तथा गुण है, अर्थात् यह अर्क उपदंश रोग पर पूर्ण (पूरा ) फायदा करता है, जो लोग अनेक दवाइयों को खाकर १-ऊपर लिखी हुई चारों औपधों को मिलाकर तैयार की हुई यह दवा हमारे औषधालय में सर्वदा उपस्थित रहती है तथा चार सप्ताह ( हफ्ते) तक पीने योग्य उक्त दवा के दाम १०) रुपये है, पोटेज (डाकव्यय) पृथक् है, जिन को आवश्यकता हो वे द्रव्य भेज कर अथवा वेल्यूपेविल के द्वारा मगा सकते हैं। २-यह अर्क शुद्ध वनस्पतियों से बना कर तैयार किया जाता है, जो मगाना चाहे हमारे औपधालय से द्रव्य भेज कर अथवा वी पी द्वारा मँगा सकते है, इस के सेवन की विधि आदि का पत्र (पची) दवा के साथ में भेजा जाता है, एक सप्ताह (हफ्ते )तक पीने लायक दवा की शीशी का मूल्य ३) रुपये हैं, पोटेज (डाकव्यय) पृथक् लगता है ॥ ३-अर्थात् यह अर्क उपदशरूपी गज (हाथी) के लिये केशरी (सिंह) के समान है ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ बैनसम्प्रदायश्चिचा || निराश्च ( नाउम्मेद) हो गये हों उन को चाहिये कि इस भ का अवश्य सेवन करें, क्योंकि उपदेश की सब व्याधियों को यह भई अवश्य मिटाता है' । ७- उपर्दशविध्यसिनीगुटिका -- यह गुटिका भी उपदक्ष रोग पर बहुत ही फायदा करती है, इस किये इस का सेवन करना चाहिये || नाल उपदेश का वर्णन ॥ पहिले कह चुके हैं कि गर्मी का रोग बारसा में उत्पन्न होता है, इस लिये कुछ वर्षोंतक उपवंश का भारसा में उतरना सम्भव रहता है, परन्तु उस का ठीक निःश्वम नहीं हो सकता है तथापि पहिले उपवध होने के पीछे वर्ष वा छ महीने में गर्भ पर उसका मसर होना विशेष संभव होता है, इस के पीछे यद्यपि यो २ गर्मी पुरानी होती जाती है और उस का और कम पड़ता जाता है तथा दूसरे दर्ज में से सीसरे दर्जे में पहुँचती है त्यों २ कम हानि होने का सम्मय होता जाता है तथापि बहुत से ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि कई वर्षों के व्यतीत हो जाने के पीछे भी ऊपर किले अनुसार गर्मी बारसा में उतरती है, पिठा के गर्मी होनेपर चाहे माता के गर्मी न भी हो तो भी उस के बचेको गर्मी होती है और बच्चे के द्वारा वह गर्मी माया के लग जाना भी सम्भव होता है तथा माता के गर्मी होने से बच्चे को भी उपदध हो जाता है । पद्मे का जन्म होने के पीछे यदि माता के उपदच होने तो दूध पिल्मने से भी बच्चे के उपदेश हो जाता है, उपदध से युक्त बच्चा यदि नीरोग भाग का वूम पीने हो उस भाग के भी उपक्ष के हो जाने का सम्मन होता है तथा स्तन का जो भाग बच्चे के मुख में आता है यदि उस के ऊपर फाट हो तो उसी मार्ग से इस रोग के चेप के फैलने का विशेष सम्भव होता है । - ना उपदेश तीन मकार से प्रकट होता है, जिसका विवरण इस प्रकार है१-कभी २ गर्भावस्था में प्रकट होता है जिस से बहुत सी स्त्रियों के गर्भ का पाठ ( पतन भयात् गिरना ) हो जाता है। २-कभी २ गर्भका पात न होकर सभा पूरे महीनों में गधे के उत्पन हो जाने पर जन्म के होते ही गधे के भग पर उपबंध के चिन्ह मासूम होते हैं । १- अर्क सहस्रों बार उपकरोमियों पर परीक्षा कर अनुभव राना मना है भा इगम अवश्य ही होता १-बार उपर काम करने वा कभी हमारी बनाई हुई हमारे भारत में उपस्थित जिन थे भाग ममध्ये मूल्य एक हिन्दी (जिनमे २३) पावन दिपिका पा जगा Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५५३ ३-कभी २ बच्चे के जन्मसमय में उसके शरीरपर कुछ भी चिन्ह न होकर भी थोड़े ही अठवाड़ो में, महीनों में अथवा कुछ वर्षों के पीछे उस के शरीर में उपदश प्रकट होता है। लक्षण (चिह्न)-उपदश रोग से युक्त माता पिता से उत्पन्न हुआ वालक जन्म से ही दुर्बल, गले हुए हाथ पैरों वाला तथा मुर्दार सा होता है और उस की त्वचा (चमड़ी) में सल पडे हुए होते है, उस की नाक श्लेष्म के समान ( मानों नाक में श्लेष्म अर्थात् जुकाम भरा है इस प्रकार ) बोला करती है और पीछे नितम्ब ( शरीर के मध्य भाग) पर तथा पैरों पर गर्मी के लाल २ चकत्ते निकलते है, मुखपाक हो जाता है तथा ओष्ठ ( ओठ वा होठ) पर चॉदे पड़ जाते हैं। ___ इस प्रकार के (उपदश रोग से युक्त) वालक के जो दॉत निकलते है उन में से आगे के ऊपरले (ऊपर के ) दो चार दाँत चमत्कारिक (चमत्कार से युक्त) होते हैं, वे वूठे होते है, उन के बीच में मार्ग होता है और वे शीघ्र ही गिर जाते है, किन्तु जो स्थिर ( कायम ) रहने वाले दाँत निकलते है वे भी वैसे ही होते है तथा उन के ऊपर एक गड्ढा होता है। चिकित्सा --१-पहिले कह चुके है कि-पारा गर्मी के रोग पर मुख्य औषधि है, इस लिये वारसों की गर्मी पर भी उस का पूरा असर होता है अर्थात् उस का फायदा शीघ्र ही मालूम पड़ जाता है, गर्मी के कारण यदि किसी स्त्री के गर्भ का पात हुआ करता हो और उस को पारे की दवा देकर मुखपाक कराया जावे तो फिर गर्भ के ठहर कर बढ़ने में कुछ भी अड़चल नहीं होती है तथा उस के गर्भ से जो सन्तति उत्पन्न होती है उस के भी गर्मी नहीं होती है, यदि वालक का जन्म होने के पीछे थोड़े दिनों में उस के शरीर पर गर्मी दीख पड़े तो उस बालक की माता को किसी कुशल वैद्य से पारे की दवा दिलानी चाहिये', अथवा यदि वालक कुछ बड़ा हो गया हो तो उस के __१-तात्पर्य यह है कि उपदश का असर तो वालक के शरीर मे पहिले ही से रहता है वह कुछ ही अठवाडों मे, महीनों मे अथवा वर्षों में अपने उद्भव (प्रकट) होने की कारण सामग्री को पाकर प्रकट हो जाता है। २-क्योंकि माता पिता के द्वारा पहुँचा हुभा इस रोग का असर गर्म ही में वालक को दुर्वल आदि ऊपर कहे हुए लक्षणोंवाला बना देता है। ३-वारसा का स्वरूप पहिले लिख चुके है ॥ ४-अर्थात् पारे की दवा के देने से स्त्री के गर्भ का पात नहीं होता है तथा वह गर्भ नियमानुसार पेट में बढ़ता चला जाता है । ५ क्योंकि पारे की दवा के देने से माता ही में गर्मी का विकार शान्त हो जाता है अत वह वालक के शरीर पर असर कैसे कर सकता है। ६-अर्थात् पारे की दवा देने पर भी माता की गर्मी ठीक रीति से शान्त न होवे और वालक पर भी उस का असर पहुँच जावे ॥ ७-कि जिस से आगे को माता की गर्मा का असर वालक पर पड कर उस के लिये भयकारी न हो ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. चैनसम्प्रवामशिक्षा। पारे का मलम मगाना चाहिये, ऐसा करने से गर्मी मिट बावेगी, महम के अपने श्री रीति यह है कि-पो की पीट पर पारे के मरहम को चुपड़ कर उस पीट को गरे। पैरों पर भषदा पीठ पर बांध देना चाहिये, यह कार्य अब तक उपदंश न मिट जो सब तक करखे रहना पारिये, इस से महुत फायदा होता है मौषि-मरहम के भीतर प पारा शरीर में बाकर उपदंश को मिटासा है, पारे की औपषि से पिस प्रमर पी पासा वाले पुरुष के साम में ही मुस पाक हो जाता है उस प्रश्वर पाठक के नहीं होता है। ___ एक यह मात भी भरश्म ध्यान में रसनी पाहिये कि-उपदंश बाले मचे ओ माता फे दूप के पिठगने के बदले ( एवन में) गाय भावि र दूप पिम कर पाना मच्छा है। पथ्यापथ्य-स रोग में वप, भाव, मिमी, मूंग, गेऔर संपानिमक इत्यादि सापारण सुराक का साना तथा शव (साफ) पापु का सेवन करना पण और गर्म पदार्थ, मप (दाह), बहुत मि, वेन, गुरु, सटाई, धूप में फिरना, पषिक परिभम करना समा मैपुन इत्यादि भपप्प हैं। विशेष सूचना-पर्चमान समय में गर्मी देवी की प्रसादी से अपने पाछे बारे ही पुण्पनान् पुरुष रष्टिगत होते हैं' (देसे नाते हैं), इस के सिवाम प्राय मह भी देख्य जाता है कि-हुत से लोग इस रोग के होने पर इसे छिपाये रसते है तथा बहुत से भाम्पमाना (धनमानों) के गरे माता पिता के निहाम वा रर से भी इस रोम छिपाये रखते हैं परन्तु यह तो निमप ही है कि मोड़े ही दिनों में उन से मेवान में भवश्य माना ही पाया है (रोग को प्रकट करना ही पाता है षायों समझिये कि रोप प्रकट हो ही जाता है) इस लिये इस रोग का कभी छिपाना नहीं पारिये, क्योंकि इस रोग को छिपा कर रसने से महुस हानि पहुँपती है सभा या रोग कभी छिपा भी महा रह सकता है, इस सिमे इस का डिपाना विठकुछ म्पर्भ, भव (इस लिसे) इस रोग के होते ही उस को ध्मिाना नहीं चाहिये किन्तु उसका उपित उपाय करना पारिने । ज्या ही यह रोग उत्पन से स्मों ही सबसे प्रभम विपळे (रस बसा भार बापग) जुगार का सेमा प्रारंभ कर देना चाहिये सपा यह जुलाव तीन दिन सा सेना पाहिमे, जुलाब के दिन में खिचड़ी के सिवाय और कुछ भी नहीं साना पारिन, गपती (पती) हुई सिपड़ी में बोड़ासा पूत (पी) गठ सकते हैं। -न -मूहम प्रेमना दिन में सोग मारी जान पाय तपा पापा ये भीमग्रेन से युपपुरसहभपन मपत् सनियर - राम से परे दुर पुन र मार 1-प्रपा परप प्रपमरवा निमार पप्रमोरसरिरितारोगा भरणारापरे गाया। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५५५ जुलाब के ले चुकने के पीछे ऊपर लिखे अनुसार इलाज करना चाहिये, अथवा किसी अच्छे वैद्य वा डाक्टर से इलाज कराना चाहिये, परन्तु मूर्ख वैद्यो से रसकपूर तथा हीगल आदि दवा कभी नही लेनी चाहिये' । यदि कुछ दिनों तक दवा का योग न मिल सके तो उस के यन में लगना चाहिये परन्तु ऊपर लिखे पथ्यानुसार खुराक को जारी रखने में भूल नहीं करना चाहिये' । जो मनुष्य इस रोग से मुक्ति ( छुटकारा ) पाने के बाद पुन: (फिर) कुकर्म ( बुरे (काम) करते है अर्थात् ठोकर खाकर भी नहीं चेतते है उन को पञ्चाख्यानी गधा ही समझना चाहिये | प्रमेह अर्थात् सुजाख ( गनोरिया) का वर्णन || सुजा का रोग यद्यपि स्त्री तथा पुरुष दोनों के होता है परन्तु पुरुष की अपेक्षा स्त्री के इस का दर्द कम मालूम होता है, इस का कारण केवल यही है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री का मूत्रमार्ग बड़ा होता है, इस के सिवाय प्रायः यह भी देखा जाता है कि स्त्री की अपेक्षा यह रोग पुरुष के विशेष होता है । शु कारण --- यह रोग व्यभिचार करने से उत्पन्न होता है तथा वेश्या और ढावे वाली स्त्रिया ही इस रोग का मूल (मुख्य) कारण होती है, तात्पर्य यह है कि व्यभिचार के हेतु ( लिये ) जिस स्थान में बहुत से स्त्री पुरुषों का आगमन तथा परिचय ( मुलाकात ) होता है वही से इस रोग की उत्पत्ति की विशेष सम्भावना होती है । १- क्योंकि मूर्ख वैद्य अपनी अज्ञानता से रसकपूर और हींगलू आदि दवा तो रोगी को दे देते हैं परन्तु न तो वे उस के देने के विधान को ही जानते हैं और न अनूपान तथा पथ्य आदि को समझते हैं, इस लिये रोगी को उक्त दवाओं को मूर्ख वैद्य से लेने में परिणाम मे बडी भारी हानि पहुँचती है, अत उक्त दवाओं को मूर्ख वैयों से भूलकर भी नहीं लेना चाहिये ॥ २- क्योंकि पथ्य का वर्ताव दवा से भी अधिक फायदा करता है, (प्रश्न ) यदि पथ्य का सेवन दवा से भी अधिक फायदा करता है तो फिर दवा के लेने की क्या आवश्यकता है, केवल पथ्य का ही सेवन कर लेना चाहिये ? (उत्तर) वेशक ! पथ्य का सेवन दवा से भी अधिक फायदा करता है, परन्तु पथ्य सेवन के समय में दवा के लेने की केवल इतने अश में आवश्यकता होती है कि रोग शीघ्र ही मिट जावे ( क्योंकि दो सहायक मिल कर वैरी को जल्दी ही जीत लेते हैं) यो तो दवा को न लेकर भी केवल पथ्य का सेवन किया जावे तो भी रोग अवश्य मिट जावेगा परन्तु देर लगेगी, इस के विरुद्ध यदि केवल दवा का ही सेवन किया जावे और पथ्य का वर्ताव न किया जावे तो कुछ भी लाभ नहीं हो सकता ( इस विषय मे पहिले लिख चुके हैं ), तात्पर्य यह है कि पथ्य का सेवन मुख्य और दवा का लेना गौण साधन है ॥ ३- इस कलिकाल में वेश्याओ के समान यह एक नया व्यभिचार का ढंग चला है अर्थात् कलकत्ता और चम्बई आदि अनेक बड़े २ नगरों मे कुट्टिनी ( व्यभिचार की दलाली करनेवाली ) स्त्री के मकान में आकर गृहस्थों की स्त्रिया और व्यभिचारी पुरुष कुकर्म करते है ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेनसम्प्रदायसिया ॥ इम प सिपाय रसना मी क साथ मेधुन परन स तमा विस मी प्रदर रोम हो भात् किमी प्रकार की भी भातु जाती हा भमना जिस मोनिमाग में वामन में किसी प्रकार की कोई माथि उम्न मी माम भी संभोग करने से यह राग । जाता है। परन्तु मामय की मात्र तो यह कि-जिन क यह रोग हो जाता है उन में न प्रार बहुत से लोग विपप सम्रप में भी दुइ अपनी मूल से मीभर नही करत र नुि यही करते है दिगम पीनसान में भा जान फेहेनु भया पूप में पने स हमार यह रागरा गया है, परन्तु मह उन की मूल है, पाकि बुद्धिमान् पुरुष कार के शरा पारण का टीफ निपय पर नते हैं, दमा ! यह निश्चित पात है कि तीक्ष्म मा यम पीन के सान आदि कार स मुजासही नहीं सकता है, क्यापि सुनाम प्रमाग पा सास परम (शा) मा मह पप छान ही से होता है, सो ! यदि मुम्स फा प प मामी का न दूसर के लगा विमा जाने तो उसके भी मह राम हर पिना नहीं बता पात् मपरसही हो पातादिनास प्रगुण ही वर्ग __ यदि किसी दूसरे साधारण असम की रसी को पार गामा जाने तो पेमा असर नही रोगा, पमाफि छाधारण नमम की रसी में मनास पफ के समान गुण ही नही दोसा है। ___ गर्मी की पाली भोर मुनाम य दाना जुद २ राग र क्यालि पाली पप सपा ही दासी और सुनाम फे पप स सुनाम ही होसार परन्तु परीर की सरानी करम में (र फोहानि पहुँचान में) पदार्मा राग भाइ पनि भार पानी पाल भौर सुनाम मार है। सुनाम सिवाय-मूग माग सापारम शोम विभ में स मी रसीक समान पाव निपाता है। मर रोग हरम, महुत मि, मसाग भार मय भादिक उपमाग से (सरन में) होता है, परन्तु इसका टीक मुनगम मह समझना चाहिये। 1- मों मन (मम्मान किनमय में सनी मामा गमापम में मय, र)भामारपरकर पसरण व रसायास (विभ) मापस परिन (रमा) पर बंपर ने परतत सामग्रेभप्रानी में मार पवन सर संयम् प्रम और कर्मिय प्रति भी मठ पापीय रस्त भार मानुष्य रूपम frur परपरी मसि ममार में प्रम मा पttar मनु सम्परा माप बना मिरर मनुपम भरणे पार40 Hatam प्रयभरमा मे मनाया ( प्रमा) मनुपरम्पमतामा (अमरनारा) मनुप मात्र Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५५७ लक्षण --- स्त्री गमन के होने के पश्चात् एक से लेकर पाच दिन के भीतर सुजाख का चिह्न प्रकट होता है, प्रथम इन्द्रिय के पूर्व भाग पर खाज ( खुजली ) चलती है, उस (इन्द्रिय ) का मुख सूज कर लाल हो जाता है और कुछ खुल जाता है तथा उस को दबाने से भीतर से रसी का बूँद निकलता है, उस के पीछे रसी अधिक निकलती खराविया होती मनुष्य जाति में के लिये सब पापों का स्थान और सब दुर्गुणों का एक आश्रय है अर्थात् इसी से सब पाप और सव दुर्गुण उत्पन्न होते हे, इस की भयङ्करता का विचार कर यही कहना पडता है कि यह पाप सब पापों का राजा है, देखो ! दूसरी सब खराबियों को अर्थात्-चोरी, लुच्चाई, ठगाई, खून, वदमाशी, अफीम, भाग, गॉजा और तमाखू आदि हानिकारक पदार्थों के व्यसन, सब रोग और फूटकर निकलने वाली भयकर चेपी महामारियों को इकट्ठा कर तराजू के एक पालने ( पलडे ) मे खखा जावे और दूसरे पालने में हाथ के द्वारा ब्रह्मचर्य भङ्ग की खराबी को रक्खा जावे तथा पीछे दोनों की तुलना ( मुकाविला ) की जाये तो इस एक ही खरावी का पालना दूसरी सब खरावियों के पालने की अपेक्षा अधिक नीचा जावेगा, यद्यपि स्त्री पुरुषों के अयोग्य व्यवहार के द्वारा उत्पन्न हुए भी ब्रह्मचर्यभङ्ग से अनेक खराविया होती हैं परन्तु उन सव खरावियों की अपेक्षा भी अपने हाथ से किये हुए ब्रह्मचर्यभन से तो जो वडी २ हैं उन का स्मरण करके तो हृदय फटता है, देखो ! यह वात विलकुल ही सत्य हैं कि पुरुषत्व (पराक्रम) के नाशरूपी महाखरायी, वीर्य सम्वधी अनेक खराविया और उन से उत्पन्न हुई अनेक अनीतियों का इसी से जन्म होता है, क्योकि मन की निर्बलता से सब पाप और सब दुर्गुण उत्पन्न होते हैं और मन की निर्बलता को जन्म देनेवाला यही निकृष्ट शारीरिक पाप ( ब्रह्मचर्य का भङ्ग अर्थात् माष्टर वेशन) है, सत्य तो यह है कि इस के समान दूसरा कोई भी पाप ससार में नहीं देखा जाता है, यह पाप वर्तमान समय मे बहुत कुछ फैला हुआ है, इस पर भी आश्चर्य और दुख की बात इस पाप से होनेवाले अनयों को जान कर भी इस पाप के आचरण से उत्पन्न हुई खराबियों के देखने से पहिले नही चेतते हैं अर्थात् अनभिज्ञ ( अनजान ) के समान हो कर अँधेरे ही में पड़े रहते हैं और अपने होनहार सन्तान को इस से बचाने का उद्योग नही करते हैं, तात्पर्य यह है कि एक जवान लडका इस पापाचरण से जव तक अपने शरीर की दुर्दशा नहीं कर लेता है तब तक उस के माता पिता सोते ही रहते हैं, परन्तु जब यह पापाचरण जवान मनुष्यों पर पूरे तौर से आक्रमण ( हमला) कर लेता है और उनकी भविष्यत् की सर्व आशाओं को तोड़ डालता है तब हाय २ करते हैं, यदि वाचकवृन्द गम्भीर भाव से विचार कर देखेंगे तो उन को मालूम हो जावेगा कि इस गुप्त पापाचरण से मनुष्यजाति की जैसी २ अवनति और कुदशा होती है वैसी अवनति और कुदशा ऊपर कही हुई चोरी जारी आदि सब खरावियों से भी ( चाहे वे सब इकट्ठी ही क्यों न हों ) कदापि नहीं हो सकती है, यह बात भी प्रकट ही है कि दूसरे सब दुराचरणों से उत्पन्न हुई वा होती हुई खराविया शीघ्र ही विदित हो जाती हैं और स्नेही तथा सहवासी गुणीजन उन से मनुष्य को शीघ्र ही बचा लेते हैं परन्तु यह गुप्त दुराचरण तो अति प्रच्छन्न रीति से अपनी पूरी मार देकर तथा अनेक खराबियों को उत्पन्न कर प्रकट होता है, ( इस पर भी भाश्चर्य तो यह है कि प्रकट होने पर भी अनुभवी वैद्य वा डाक्टर ही इस को पहिचान सकते है ) और पीछे इस पापाचरण से उत्पन्न हुई खराबी और हानियों से बचने का समय नहीं रहता है अर्थात् व्याधि असाध्य हो जाती है । तो यह है कि लोग Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ मेनसम्प्रदायशिक्षा || है, यह रसी पीछे रंग की सभा गाड़ी होती है, किसी २ के रसी का थोड़ा दाग पड़ता है और किसी २ के अत्यन्त रसी निकलती है भर्थात् घार के मन्द धार के साम में थोड़ी २ कई बार उतरती है और उस के समान गिरती है, पेशान उतरने के समय बहुत के शरीर के पती है, अपने हाथ से मात्र के मह करने को एक अति खराब और मद्य चरामक व्याभि चाहिये इस यानि के मन इस रोग से युत पुरुष में इस प्रकार पाये जाते है-शरीर दुर्गा है, प्रभाव चिडने वाम्म तथा चेहरा पीका भोर चिन्ता बुत रहता है सुखाकृति विपी हुई दोन पद्म चिमटी है, बैठती है, सुख सम्या साप्रद है, वह नीचे को रहती है, इस पाप कम करनेवाब्य बन इस प्रकार भयभीत और विवातुर दीख पड़ता है कि मानो उसका पापाचरण दूसरे को झट से भागा उस का समाद डरपोक कम जाता है और उसकी छाती (या या दिक) बहुत श्री साहसी (नाहिम्मत) हो जाती है, यहाँ तक कि वह एक साधारण कारण से भी भड़कता है, उसे श्री कम भाती है और सम बहुत भाते हैं, उस के सब पैर बहुधा ठेके होते है (शरीर की हो जाने का यह एक खास चि है) इस प्रदेष का शीघ्र ही अवशेष (फ) पर सुधरने का पोम्य उपाय म किया जाये तो श्ररीर का प्रतिदिन कम होता जाता है, म दिने गर्ने तन बाती है और संकुचित हो जाती है तथा धाम और औक का रोग उत्पन हो जाता है, बहुत इस खराबी से अपस्मारभत् सुगी का असाध्य रोग हो जाता है, दिधीरिया का भूत मी उस के सरीर में मुझे बिना नहीं रहता है (अवश्य बुस जाता है) उस के बुसाने से बेचारा के समान अथवा सर्वकाही उम्मादी (पापा) बन पा है उपर की हुई रानियों के तिवारी मी भेट १ गुप्तचरामियां होती है को रोपी कयं ही समझ सकता है तथा प्राथाना के कारण उनको बहारों से नहीं सकता है और यदि का भी है तो उब के मूल कारण को गुप्त रखता है और विशेषकर माता पिता भनि गरे बमों को तो इन सब खरालियों से भी रखता है, म गुप्त रानियों का एक वर्ष इस प्रकार है कि स्मरणचि कम हो जाती है, वपुटी में अम्मा (गड़बड़ हो जाती है, समाब में एकदम परिवर्तन ( फेरफार) से पता है, कम हो जाती है, काम काम में आम और निस्सा रहता है, मन ऐसा अव्यवस्थित भीर स्थिर क जाता है उससे कोई नियम के साथ तथा नियमपूर्वक वहाँ से सकता है, ममय सम्बन्धी कार्य निर्णय पड़ जाते है, पेशाब करते समय उसके कुछ वर्ष क्षेत्र है भगवा पेशाल की जवान मनुष्य का हुआ करती है, सूत्रस्थान का सुख वारंवार करंप को भाता है, बीर्य काय बारे बार हुआ करता है, मारण कारण के होने पर भी यह मभीर भीड़ और साहसाहीन हो जाता है की पानी के समान करता है, वीर्यपात के साथ समक सी हुआ करती है, कोकी में दर्द हुआ करता है तथा उत में भार अधिक मत होता है और कम में बार बार बीर्यपात होता है, कुछ समय के बाद भाव सम्बन्धी अनेक महत् हो है वसेर स्कुलख विक्रम्मा हो पता है, इस प्रकार शरीर के विकम्मे पर आने से यह बेचारा बीरे ९ पुस्पल से हीन हो जाता है, इसी प्रकार ज कोई भी ऐसे पुराचरण में पड़ जाती है तो उस में से सीन के सब सम मह हो जाते है दबाव का धर्म भी नाम को प्राप्त हो वा है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५५९ जलन होती है तथा चिनग भी होती है इस लिये इसे चिनगिया सुज़ाख कहते है, इस के साथ में शरीर में बुखार भी आ जाता है, इन्द्रिय भरी हुई तथा कठिन जेवडी (रस्सी) के समान हो जाती है तथा मन को अत्यन्त विकलता (वेचैनी) प्राप्त होती शरीर के सम्पूर्ण बॉधों के बंध जाने के पहिले जो वालक इस कुटेव में पड़ जाता है उस का शरीर पूर्ण गृद्धि और विकाश को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि इस कुटेव के कारण शरीर की वृद्धि और उस के विकाश में अवरोध (रुकावट ) हो जाता है, उस की हहिया और नर्स झलकने लगती हैं, ऑसं बैठ जाती हैं और उन के आस पास काला कुंडाला मा हो जाता है, आँख का तेज कम हो जाता है, दृष्टि निर्वल तया कम हो जाती है, चेहरे पर फुसिया उठ कर फूटा करती है, बाल झर पडते है, माथे में टाल (टाट) पड जाती है तथा उस में दर्द होता रहता है, पृष्ठवश (पीठका वास) तथा कमर में शुल (दर्द) होता है, सहारे के विना सीधा बैठा नहीं जाता है, प्रातःकाल विछाने पर से उठने को जी नहीं चाहता है तथा किसी काम में लगने की इच्छा नहीं होती है इत्यादि । सत्य तो यह है कि अखाभाविक रीति से ब्रह्मचर्य के भग करने रूप पाप की ये सब खराविया नहीं किन्तु उस से बचने के लिये ये सब शिक्षाय हैं, क्योंकि सृष्टि के नियम से विरुद्ध होने से सृष्टि इस पाप की शिक्षाओं (सजाओ) को दिये विना नहीं रहती है, हम को विश्वास है कि दूसरे किसी शारीरिक पाप के लिये सृष्टि के नियम की आवश्यक शिक्षाओं में ऐसी कठिन शिक्षाओं का उल्लेख नहीं किया गया होगा और चूकि इस पापाचरण के लिये इतनी शिक्षायें कहीं गई है, इस से निश्चय होता है कि-यह पाप वडा भारी है, इस महापाप को विचार कर यही कहना पड़ता है कि-इस पापाचरण की शिक्षा (सजा) इतने से ही नहीं पर्याप्त ( काफी) होती है, ऐसी दशा में सृष्टि के नियम को अति कठिन कहा जाने वा इस पाप को अति वडा कहा जावे किन्तु सृष्टि का नियम तो पुकार कर कह रहा है कि इस पापाचरण की शिक्षा (सजा ) पापाचरण करनेवाले को ही केवल नहीं मिलती है किन्तु पापाचरण करनेवाले के लडकों को भी योडी बहुत भोगनी आवश्यक है, प्रथम तो प्राय इस पाप का आचरण करने वालों के सन्तान उत्पन्न ही नहीं होती है, यदि दैवयोग से उस नराधम को सन्तान प्राप्त होती है तो वह सन्तान भी थोडी बहुत मा वाप के इस पापाचरण की प्रसादी को लेकर ही उत्पन्न होती है, इस में सन्देह नहीं है, इस लेस से हमारा प्रयोजन तरुण वयवालों को भड़काने का नहीं है किन्तु इन सव सत्स वातों को दिखला कर उन को इस पापाचरण से रोकने का है तथा इस पापाचरण में पड़े हुओं को उस से निकालने का है, इस के अतिरिक्त इस लेख से हमारा यह भी प्रयोजन है कियोग्य माता पिता पहिले ही से इस पापाचरण से अपने वालकों को वचाने के लिये पूरा प्रयत्न कर और ऐसे पापाचरण वाले लोगों के मी जो सन्तान होवें तो उन को भी उन की अच्छी तरह से देख रेख और सम्भाल रखनी चाहिये क्योंकि मा बाप के रोगों की प्रसादी लेकर जो लडके उत्पन्न होते हैं उस प्रसादी की कुटेव भी उन में अवश्य होती है, इसी नियम से इस पापाचरण वालों के जो लडके होते हैं उन में भी इस (हाय से वीर्यपात करनेरूप ) कुटेव का सञ्चार रहता है, इस लिये जिन मा बापों ने अपनी अज्ञानावस्था में जो २ भूलं की हैं तथा उन का जो २ फल पाया है उन सव वानों से विज्ञ होकर और उस विषय के अपने अनुभव को ध्यान में लाकर अपनी सन्तति को ऐसी कुटेव में न पड़ने देने के लिये प्रतिक्षण उस पर दृष्टि रखनी चाहिये और इस कुटेव की सरावियो को अपनी सन्तति को युक्ति के द्वारा बतला देना चाहिये। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैनसम्प्रदामशिक्षा है, कभी २ इन्द्रिय में से छोड़ भी गिरता है, कभी २ इस रोग में रात्रि के समय इन्द्रिय जागृत (चैतन्य) होती हे और उस समय बांकी (टेशी) उस के कारण रोगी के असम ( न सहने योग्य अर्थात् बहुत ही हाकर रहती है सभा पीड़ा होती है, कभी २ अवस्था में अति मि वाचक प्रजा! भाप ने देखा होगा कि सड़क में भी दस वर्ष की श्री जो बुद्धिमान था जिस पागा ) पर मुर्ती भी तथा पेहरे पर बार कांति प विना निवाह आदि किसी हेतु कुछ समय के बाद मठीन पदव और का ओर हो बा है, इसका क्या कारण है? इसका कारण नहीं पापाचरण की विभूतियों वह अप मूद्धि के निगम से ही गुप्त न रहकर उसके चहरे आदि भी पर जाता है। बहुत से व्यभिचारी और दुराचारी जन संसार को दिखाने लिये अनेक कार से रहकर अपने प्रसिद्ध है तथा नाके भार महान को भी उन क कप पकन उन्हें नई परन्तु पाकर इस बात का विषय र पहरा ही उस ब्रह्मभन की गवाही दे दा बस सोय जिन को उग यदि उनका राजन की गवाही न द तो आप उन्हें चारी कभी न समते । (प्रस) या अपन इम्प में इसके दावों को है इसका एक भी मानक यह संसार विवि पारसे करना कम में सब एक जो मनुष्य है उन मनुष्य होता शिवारी (भ भावार बा ) भी होत है तथा दुराचारी भी दक्षत है, संसार की मायादी यही विचित्र इस संसार में सब एकस नहीं है और ऐसा न दूसरे मान पहुंचता है जब इसका (द्वान से वीर्यपात करने के जब कुछ हानि पहुँचती है तब बेदों से मम पहुँका ६, भब्ध सोपने की है हिदि सही करा मामा भीर नीरोग बन जाने को बचारे विद्वान् किरा से उपदेश र तारक विकला अबद है कि इस संसार में सदा से ही विक्ि भाई भर भी जागी इमो (दान) (मादि९) नचाहिने (उत्तर) ग्रह मारेकरी आपकी बाडितुम काम करन सा नहीं भाई भार तुम भीमादिका भवनका मन इन प्रथ में इन प्रकार की बाकि है उन से हमारा प्रयोजन इन दो प्रकर प्रथि की गुरिया उनसे बचान भरने का दास धरता है, हमने उपदान में बना स की मून और सेनानामनुमात्र अर कोबार में मनु नाम का किराती बन ग में बन र Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ वृषण ( अण्डकोप) सूज कर मोटे हो जाते है और उन में अत्यन्त पीड़ा होती है, पेशाब के बाहर आने का जो लम्बा मार्ग है उस के किसी भाग में सुजाख होता है, जब अगले भाग ही में यह रोग होता है तब रसी थोडी आती है तथा ज्यो २ अन्दर के को हटाना तथा भावी सन्तान को उस से बचाना हमारा अभीष्ट है, हमारा ही क्या, किन्तु सर्व सज्जनों और महात्माओं का वही अभीष्ट है और होना ही चाहिये, क्योंकि विज्ञान पाकर जो अपने भूले हुए भाई को कुमार्ग से नहीं हटाता है वह मनुष्य नहीं किन्तु साक्षात् पशु है, अव जो तुम ने हानि लाभ की वात कही कि एक की हानि से दूसरे का लाभ होता है इत्यादि, सो तुह्मारा यह कथन विलकुल अज्ञानता और वालकपन का है, देखो । सज्जन वे हैं जो कि दूसरे की हानि के विना अपना लाभ चाहते हैं, किन्तु जो परहानि के द्वारा अपना लाभ चाहते हैं वे नराधम (नीच मनुष्य ) हैं, देखो ! जो योग्य वैद्य और डाक्टर हैं वे पानापात्र (योग्यायोग्य ) का विचार कर रोगी से द्रव्य का ग्रहण करते हैं, किन्तु जो (वैद्य और डाक्टर ) यह चाहते हैं कि मनुष्यगण बुरी आदतों मे पड कर खूब दुख भोगें और हम सूव उन का घर लूटें, उन्हे साक्षात् राक्षस कहना चाहिये, देसो ! ससार का यह व्यवहार है कि-एक का काम करके दूसरा अपना निर्वाह करता है, वस इस प्रथा के अनुकूल वर्ताव करनेवाले को दोपास्पद ( दोष का स्थान) नहीं कहा जा सकता है, अत वैद्य रोगी का काम करके अर्थात् रोग से मुक्त करके उस की योग्यतानुसार द्रव्य लेवें तो इस में कोई अन्यथा ( अनुचित) वात नहीं है, परन्तु उन की मानसिक वृत्ति खार्थतत्पर और निकृष्ट नहीं होनी चाहिये, क्योंकि मानसिक वृत्ति को खार्थ में तत्पर तथा निकृष्ट कर दूसरों को हानि पहुँचा कर जो स्वार्थसिद्धि चाहते हैं वे नराधम और परापकारी समझे जाते हैं और उन का उक्त व्यवहार सृष्टिनियम के विरुद्ध माना जाता है तथा उस का रोकना अत्यावश्यक समझा गया है, यदि उस का रोकना तुम आवश्यक नहीं समझते हो तथा निकृष्ट मानसिक वृत्ति से एक को हानि पहुँचा कर भी दूसरे के लाभ होने को उत्तम समझते हो तो अपने घर में घुसते हुए चोर को क्यों ललकारते हो ? क्योंकि तुझारा धन ले जाने के द्वारा एक की हानि और एक का लाभ होना तुह्मारा अभीष्ट ही है, यदि तुमारा सिद्धान्त मान लिया जावे तव तो ससार में चोरी जारी आदि अनेक कुत्सिताचार होने लगेंगे और राजशासन आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी, महा खेद का विषय है कि-व्याह शादियों में रण्डियो का नचाना, उन को द्रव्य देना, उस द्रव्य को बुरे मार्ग में लगवाना, बच्चों के सस्कारों का विगाडना, रण्डियो के साथ में (मुकाविले में) घर की स्त्रियों से गालियाँ गवा कर उन के संस्कारों का बिगाडना, आतिशवाजी और नाच तमाशों में हजारों रुपयों को फूंक देना, वाल्यावस्था में सन्तानों का विवाह कर उन के अपक्क (कचे) वीर्य के नाश के लिये प्रेरणा करना तथा अनेक प्रकार के बुरे व्यसनों मे फँसते हुए सन्तानों को न रोकना, इत्यादि महा हानिकारक वातों को तो तुम अच्छा और ठीक समझते हो और उन को करते हुए तुहमें तनिक भी लज्जा नहीं आती है किन्तु हमने जो अपना कर्त्तव्य समझ कर लाभदायक ( फायदेमन्द) शिक्षाप्रद (शिक्षा अर्थात् नसीहत देने वाली) तथा जगत् कल्याणकारी बातें लिखी हैं उन को तुम ठीक नहीं सममते हो, वाह जी वाह ! धन्य है तुह्मारी बुद्धि । ऐसी २ बुद्धि और विचार रखने वाले तुझी लोगों से तो इस पवित्र आर्यावर्त देश का सत्यानाश हो गया है और होता जाता है, देखो ! बुद्धिमानों का तो यही परम (मुख्य) कर्तव्य है कि जो बुद्धिमान् जन गृहस्थों को लाभ पहुंचाने वाले तथा शिक्षाप्रद उत्तम २ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ अनसम्प्रदायविधा। (पिछम भमान भीतरी) भाग में मह रांग आता र स्यां २ रसी पिप निकली? भोर यमी (पेठ) माग में मार (मौन) सा प्रतीत (मास) दाय मिर पीरा विप टोती, कभी २ सिम के अंदर भी चाँदी पर बाती मोर उस में म रसी निष्लती परन्तु उसे सुनाम का राग नही समझना चाहिय, पानी पाप नाम से होती है और यह मुम पर दीदीमती, परन्तु जन भीतरी भाग में ही है सब इन्दिर का माग कटिन भार, गीला सा प्रतीत (मामा) हाठा है। सुनाम कार को हुए ये पनि चिद वन से पन्द्रह दिन तक रह रमन (नरम ) पर गनेरगी फम भोर पतली हो जाती है तथा पीठी मदक (मार में) पन्न रंगी भान माती, जमन भोर निनग कम आबादी तमा भामिरभर यि पर बन जाती है, सापय यह वि-दा तीन हटा में रसी विसर पर हार मुत्राम मिट बाठा, परन्तु जब सफेद रसी भाडा २ भाग का महीना निकाय सदमा ३ सप उसका मान प्रमेद (पुराना सुबाम) है, इस पुराने मुबास मिटना महत दिन (मुसिळ) नासामधान दा चार मास मात्र (२)मा गहत, पिन कुछ गम पदार माने में मात्रामा ताहीर मारमा परन मगमा भभात पुन सुनाम हो जाता सुवास पुराना जान भीम दी दस में मे पहा अमाम् मूगार उत्पन्न हा बाठी भोर पहनना। देवी किरागी भार व उस परम ग्रन हो तेसमा मह निम्मित (निमय श्री मान है कि पुराने सुनाम म प्राय म्यासछादी गाना। भी सवाम ग्राम पर भी छा बानी पानी २ सवाम पारप इन्द्रिय पर मस्मा भी दानाका इन्तिम पसराव वाठारभार उस पार र गोप्रति (नादि) artviartit नाम बतमा मात्र प, उन ENA सर माइयो (m) प्रमाण २५49Pमान (ग) में पारिगर dिain san (माHA) RETORIEनपरेमा पी(hat प्र)बार ससाना में पिर नगा JANला Patrikakaikat RA (RA) Julturarta भार। Aalha Rm इमाम FORIENT बिर 41804 -मारीसपिन (B)नना मान माप्रपा(2016)मा प्रा Arpur) (LUMIA) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ चतुर्थ अध्याय ॥ (चकत्ते ) पड जाते है, मूत्राशय अथवा वृपण का बरम (शोथ ) हो जाता है और कभी २ पेशाब भी रुक जाता है। यद्यपि सुजाख शरीर के केवल इन्द्रिय भाग का रोग है तथापि तमाम शरीर में उस के दूसरे भी चिह्न उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे-शरीर के किसी भाग का फूट निकलना, सन्धियों में दर्द होना, पृष्ठवंश (पीठ के वांस ) में वायु का भरना तथा आँखों में दर्द होना इत्यादि, तात्पर्य यह है कि सुजाख के कारण शरीर के विभिन्न भागों में भी अनेक रोग प्रायः हो जाते हैं। चिकित्सा -१-सुजाख का प्रारभ होने पर यदि उस में शोथ (सूजन) अधिक हो तथा असह्य (न सहने योग्य ) वेदना (पीड़ा) होती हो तो वेसणी के ऊपर थोड़ी सी जोंके लगवा देनी चाहिये, परन्तु यदि अधिक शोथ और विशेप वेदना न हो तो केवल गर्म पानी का सेक करना चाहिये । २-इन्द्रिय को गर्म पानी में भिगोये हुए कपड़े से लपेट लेना चाहिये। ३-रोगी को कमर तक कुछ गर्म ( सहन हो सके ऐसे गर्म ) पानी में दश से लेकर बीस मिनट तक बैठाये रखना चाहिये तथा यदि आवश्यक हो तो दिन में कई वार भी इस कार्य को करना चाहिये। ४-पेशाब तथा दस्त को लानेवाली औषधियों का सेवन करना चाहिये । ५-इस रोग में पेशाब के अम्ल होने के कारण जलन होती है इस लिये आलकली तथा सोडा पोटास आदि क्षार (खार) देना चाहिये। ६-इस में पानी अधिक पीना चाहिये तथा एक भाग दूध और एक भाग पानी मिला कर धीरे २ पीते रहना चाहिये। ७-अलसी की चाय बनवा कर पीनी चाहिये तथा जौ का पानी उकाल ( उबाल) कर पीना चाहिये, परन्तु आवश्यकता हो तो उस पानी में थोड़ा सा सोडा भी मिला लेना चाहिये। ८-गोखुरू, ईशवगोल, तुकमालम्बा, बीदाना, बहुफली तथा मौलेठी, इन में से चाहे जिस पदार्थ का पानी पीने से पेशाव की वेदना (पीडा) कम हो जाती है। ९-सब से प्रथम इस रोग में यह औषधि देनी चाहिये कि-लाइकर आमोनी एसेटेटिस दो औंस, एसेटेट आफ पोटास नब्बे (९०) ग्रेन, गोंद का पानी एक औंस तथा कपूर का पानी तीन औंस, इन सब दवाओं को मिला कर (चौथाई ) भाग दिन में चार वार देना चाहिये, परन्तु स्मरण रहे कि उक्त दवा का जो प्रथम भाग (पहिला चौथाई हिस्सा) दिया जाये उस के साथ दस्त लाने के लिये या तो चार ड्राम विलायती निमक मिला देना चाहिये अथवा समय तथा प्रकृति के अनुसार दूसरी किसी औषधि को Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ चैनसम्प्रदामरिया ॥ गिला देश चाहिये, भगा गुलाब की फली का, सोनामुरली ( रानाय) का या एका हेश मास ऐपसम सापट या एक जुलाम बना भादिय । १०-यदि उपर मिसी दया से फायदा न हा घो माएर पोटास ६० मिनिम, मारा मार १ नाम, निर भाग दायासाग २ नाम वषा धूनेका पानी, भोग, इन ७३ को मिला कर 3 भाग दिन में पार पार देना पाहिस । ११-पाषाणभेद, धनिया, धमासा, गोराम, किरमासा (भमसताग ) सभा गुरुन सम को मस्का मारे २ वाले कर तथा मम का पार पानी में भिगा कर अन सेना पाहिम, पीछे दिन में दो तीन बार में यह पानी पिसा बना चाहिये। १२-पापा का घोपन पक सेर, फेसू के एम एफ होग, दाम (मनपा) पफ साम सभा प्रिफर का पूर्ण पाला, इन सप भोपी को पाप के पोषन का पटना भिगा पर जा बस पर उन में पानी को छान ना पाहिये और पही अस सरे भार वाम को पिलाना चाहिये। १३-पापभी आग पीर सारा ३० प्रन, इन मोना भीपगियों को गिल कर पीन पुरिया पना सेनी पारिस पनि म यार (सपेरे, गुपहर भोर शाम का) मा दिया देनी चाहिम । विशेष पराम्य-उपर जिसी मुई भनी समाधी गपा पनि मिक सकेमा मारे nिt on उस पर रापन पर उसमे को देना चाहिये परन्तु उसके साथ साधारण पुरा पा साना चाहिये, मप, मिर्च, गसाम दांग भोर वेल मादि गर्म पनामा पापा नहीं करना चादिमे । बसी पर शान ने यपपि सुभाम में गंध पीने का निम किया है परना मार विशुपना की गम्मति दे कि-ग रोग में भी समन स किसी प्राधर भी नि महस दोती है, इस परम्पर विराम विनार पर इस पिम परीक्षा (आप) की गह सिदित (मामा) गुभा दिगम सपन से मार और छ पिमा पो नदी होता। परना शुभम मिटन में देरी कराती है (पनास पाव दिना में मछ। पाठा)। पप गुमामगाटन पिद गन्न (फम) पर नाम नीर निमी दयामा पिकारी या उगमाग करना चाहिये, परना पर मामा को काग में महामना पाहिम । भारी मभान (म) या गुमाम म माग दावे ही विनमरी छगपात, या पद टीम1३, मातिमा परनरी साम दाने पदम मायाकी देसी न है इस मिये यादा पवे पार प नाम इतनपा आरममा जम्न कहा जाप बार सी पाली गद वा पीआोग पटने के लिये (साो लिय) प्रया पिपरी के गाने के छिमे मीन मिी गुई दवाइमा का काम म साना पारस । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चतुर्थ अध्याय ॥ ५६५ ऊपर कहे हुए कार्य के लिये कोपेवा, कबाबचीनी और चन्दन का तेल, ये मुख्य पदार्थ है, इस लिये इन को उपयोग में लाना चाहिये । १४ - आइल कोपेवा ४ ड्राम, आइल क्युबब २ ड्राम, म्युसिलेज अकासिया २ औस, आइलसिनेमान १५ बूँद और पानी १५ औस, पहिले पानी के सिवाय चारो औषधियों को मिला कर पीछे उस में पानी मिलावें तथा दिन में तीन बार खाना खाने के पीछे एक एक औस पीवें, इस दवा के थोड़े दिनों तक पीने से रसी (मवाद) का आना बंद हो जावेगा । १५ - यदि ऊपर लिखी हुई दवा से रसी का आना बंद हो तो कबाबचीनी की वूकी ( बुरकी) 2 से 3 तोला तथा कोपेवा वालसाम ४० से ६० मिनिम, इन दोनों को एकत्र करके (मिला कर ) उस के दो भाग कर लेने चाहियें तथा एक भाग सवेरे और एक भाग शाम को घृत, मिश्री, अथवा शहद के साथ चाटना चाहिये । अथवा केवल ( अकेली ) कवावचीनी की वूकी ( बुरकी अथवा चूर्ण) दो दुअन्नीभर दिन में तीन वार घृत तथा मिश्री के साथ खाने से भी फायदा होता है । इस के सिवाय—चन्दन का तेल भी सुजाख पर बहुत अच्छा असर करता है तथा वह अग्रेजी वालसाम कोपेवा के समान गुणकारी ( फायदेमन्द ) समझा जाता है । १६- लीकर पोटास ३ ड्राम, सन्दल ( चन्दन ) का तेल ३ ड्राम, टिंकचर आरेनशियाई ९ औंस तथा पानी १६ औस, पहिले पानी के सिवाय शेप तीनों औषधियों को मिला कर पीछे पानी को मिलाना चाहिये तथा दिन में तीन वार खाना खाने के पीछे इसे एक एक औस पीना चाहिये । १७ - दश से बीस मिनिम ( बूँद ) तक चन्दन के तेल को मिश्री में, अथवा बतासे में डाल कर सवेरे और शाम को अर्थात् दिन में दो वार कुछ दिन तक लेना चाहिये, यह ( चन्दन का तेल ) बहुत अच्छा असर करता है । १८- पिचकारी -- जिस समय ऊपर कही हुई दवाइया ली जाती हैं उस समय इन के साथ इन्द्रिय के भीतर पिचकारी के लगाने का भी क्रम अवश्य होना चाहिये, क्योंकि - ऐसा होने से विशेष फायदा होता है । Š पिचकारी के लगाने की साधारण रीति यही है कि - काच की पिचकारी को दवा के पानी से भर कर उस (पिचकारी ) के मुख को इन्द्रिय में डाल देना चाहिये तथा एक हाथ से इन्द्रिय को और दूसरे हाथ से पिचकारी को दबाना चाहिये, जब पिचकारी खाली होजावे (पिचकारी का पानी इन्द्रिय के भीतर चला जावे ) तब उस को शीघ्र ही बाहर निकाल लेना चाहिये और दवा को थोड़ी देर तक भीतर ही रहने देना चाहिये अर्थात् इन्द्रिय को थोड़ी देर तक दवाये रहना चाहिये कि जिस से दवा बाहर न निकल Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ मेनसम्मवानशिक्षा || 1 सके, गोड़ी देर के बाद हम को छोड़ देना चाहिये ( हाथ को जमा कर सेना चाहिये भर्थात् हाथ से इन्द्रम को छोड़ देना चाहिये ) कि जिस से दवा का पानी गर्म होकर भाहर निकल जाये । - पिचकारी के लगाने के उपयोग (काम) में आने वाली दवाइयां नीचे लिखी जाती है:१९ - सखफोकार बोलेट बाफ जिंक २० प्रेन सभा टपकाया हुआ (फिस्टर वि क्रिया से शुद्ध किया हुआ ) पानी ४ औंस इन दोनों को मिला कर उपर मिले क्नु सार पिधकारी खगाना चाहिये । २०- सेन्ड गाटर ३० से ४० मिनिम, जस्त का फूल १ से ४ प्रेन, अच्छा मोरयोगा १ से ३ मेन सथा पानी ५ भैंस, इन सब को मिला कर ऊपर कही हुई रीति के अनु सार पिचकारी लगाना चाहिये । २१ – कारबोलिक एसिड २० प्रेन तथा पानी ५ भौंस, इन को मिलाकर दिन में वार मा पांच बार पिचकारी लगाना चाहिये | २२ - पुटासीपर मेंगनस २ मेन को ४ मोंस पानी में मिला कर दिन में तीन मित्र कारी लगाना चाहिये । २३- नींबू के पते, इमली के पत्ते, नींव के पत्ते और मेहदी के पत्ते, प्रत्येक दो दो सोछे, इन सब को नाम सेर पानी में मटा कर दिन में तीन बार उस पानी की पिचकारी गाना चाहिये । २४ - मोरोमा १ रची, रसोत १ मासा, अफीम १ मासा, सफेदा गरी १ मासा, गेरू ६ मासे, बबूल का गोंद १ दोला, फखमी धोरा ३ रसी तथा माजूफक १ मास्रा, पहिले गोंद को १५ सोले पानी में घोंटना ( सरल करना) चाहिये, पीछे उस में रसोव डाल कर घोंटना चाहिये, इस के बाद सब औषधियों को महीन पीस कर उसी में मिटा देना चाहिये तथा उसे छान कर दिन में सीन बार पिचकारी लगाना चाहिये । विशेष षक्तम्प – उमर किसी हुई दवाइयों को अनुक्रम से (क्रम २ से ) काम में मना पाहिजे अर्थात् यो दवाई प्रथम जिसी है उस की पहिले परीक्षा कर देवी चाहिये, यदि उस से फायदा न हो तो उस के पीछे एक एक का अनुभव करना चाहिये अर्थात् पांच दिन तक एक दवा को काम में खाना चाहिये, यदि उस से फायदा न माम हो तो दूसरी वना का उपयोग करना चाहिये । उछ दामों में जो पानी का सम्मेल ( मिळाना ) किखा है उस (पानी) के बदले ( एवम ) में गुरुमय बल भी डाल सकते है । पिचकारी के किये एक समय के लिये जल का परिमाण एक भौस मर्यात् २ ||) रुपये भर है, दिन में दो तीन बार पिचकारी लगाना चाहिये, यह भी स्मरण रखे कि -पहिले Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्म पाना ने मुजाख के के सुजा चतुर्थ अध्याय ॥ ५६७ गर्म पानी की पिचकारी को लगाकर फिर दवा की पिचकारी के लगाने से जल्दी फायदा होता है, पुराने सुजाख के लिये तो पिचकारी का लगाना अत्यावश्यक समझा गया है । स्त्री के सुजाख का वर्णन ॥ पुरुष के समान स्त्री के भी सुजाख होता है अर्थात् सुजाख वाले पुरुष के साथ व्यभिचार । __करने के बाद पाच सात दिन के भीतर स्त्री के यह रोग प्रकट हो जाता है। ___ इस की उत्पत्ति के पूर्व ये चिह्न दीख पड़ते हैं कि-प्रथम अचानक पेडू में दर्द होता है, वमन (उलटी) होता, है, पेट में दर्द होता है, अन्न अच्छा नहीं लगता है, किसी २ के ज्वर भी हो जाता है, दस्त साफ नहीं होता है तथा किसी २ के पेशाब जलती हुई उतरती है इत्यादि, ये चिह्न पाच सात दिन तक रह कर शान्त हो (मिट) जाते है तथा इन के शान्त हो जाने पर स्त्री को यद्यपि विशेप तकलीफ नहीं मालूम होती है परन्तु जो कोई पुरुष उस के पास जाता है ( उस से संसर्ग करता है) उस को इस रोग की प्रसादी के मिलने का द्वार खुला रहता है । स्त्री के जो सुजाख होता है वह प्रदर से उपलक्षित होता है ( जानलिया जाता है)। सुजाख प्रथम स्त्री की योनि में होता है और वह पीछे बढ़ जाता है अर्थात् बढ़ते २ वह मूत्रमार्ग तक पहुंचता है, इस लिये जिस प्रकार पुरुष के प्रथम से ही कठिन चिह्न होते हैं उस प्रकार स्त्री के नहीं होते हैं, क्योंकि स्त्री का मूत्रमार्ग पुरुष की अपेक्षा बड़ा होता है, इसी लिये इस रोग में स्त्रीको कोपेवा तथा चन्दन का तेल इत्यादि दवा की विशेष आवश्यकता नहीं होती है किन्तु उस के लिये तो इतना ही करना काफी होता है कि उस को प्रथम त्रिफले का जुलाब तीन दिन तक देना चाहिये, फिर महीना वा बीस दिन तक साधारण खुराक देनी चाहिये तथा पिचकारी लगाना चाहिये, क्योंकि स्त्री के लिये पिचकारी की चिकित्सा विशेष फायदेमन्द होती है । देशी वैद्य इस रोग में स्त्री को प्राय बग भी दिया करते हैं। सुचना-इस वर्तमान समय में चारो तरफ दृष्टि फैला कर देखने से विदित होता है कि इस दुष्ट सुजाख रोग से वर्तमान में कोई ही पुण्यवान् पुरुष बचे हैं नहीं तो प्रायः यह रोग सब ही को थोड़ा बहुत कष्ट पहुँचाता है। __इस रोग के होने से भी गर्मी के रोग के समान खून में विकार (विगाड़) हो जाता है, इस लिये खून को साफ करनेवाली दवा का महीने वा बीस दिन तक अवश्य सेवन करना चाहिये। ___ यह रोग भी गर्मी के समान वारसा में उतरता है अर्थात् यह रोग यदि माता पिता के हो तो पुत्र के भी हो जाता है। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ५६८ जैनसम्प्रदायशिक्षा || इस दुष्ट रोग से अनेक ( कई ) दूसरे भी भयंकर राग उत्पन्न हो जाते है परन्तु उन राम का अधिक यमन यहां पर अन्य के भवजान के गय से नदीं फर राफ्न्त ई | बहुत से अज्ञान (गर्भ) छाग इस रोग के विद्यमान (गौजूद ) होन पर भी भीगम फरते है जिस से उन को सभा उन के साथ संगम करने यात्री खिया को बड़ी भारी दानि पहुँचती है, इस किये इस रोग के समय में श्रीभगग कदापि ( कभी ) नहीं कर दिये । बहुत से लोग इस रोग के महाकष्ट का भोग कर के भी पुनः उसी मार्ग पर चलते हैं, यह उन की परग मासा ( बड़ी मूर्खता) है और उन के सगा मू ाई नहीं दे पर्याकि ऐसा करने से वे मानो अपने ही हाथ से अपने पैर में गुरुबाड़ी मारते ई भर उनके इस व्यवहार से परिणाम में जो उा को दानि पहुँचती है उस पे दी जान दें, इस लिये इस रोग के होने के समय से वापि खीसंगम नहीं करना चाहिये ॥ कास ( खांसी ) रोग का वर्णन ॥ फारण - नाक और भुगर्ग मूल तथा गुआ के जाने से, प्रतिदिन (गे) अम और अधिक न्यायाग के सेवा से, आहार के पथ्य से, श भार भूत्र के राकन स सभा छीक के रोकने से भाणवायु अत्यन्त मुए होकर भा गुठ उवा पागुर मिल कर कास (साँसी) को उत्पन्न करती है। भद - कास रोग के पाघ भेद द-यातजन्य, पिपजन्य, फफज य, जम्य और यजन्य, द्दा पाँच में से प्रा से पूर्व की अपेक्षा उपरोधर बना लक्षण -पास के फारा रोग में मामा हृदय, कनपटी, माका उदर और धूल (पीड़ा ) होता है, मुद्द उतर जाता है, पल (शद्धि ) पर ( आवाज ) और परा छथा सुमी सांसी उठती है जोर स्वरगद हो जाता ता क्षीण दा जाता है, घारंवार ( भावाज बदल सी जाती है ) । विश्व कास रोग में माया में भारा, प्यास फागना, पील रंग का पीना हो जाता था सब देह में वाद सथा दोना, इत्यादि लक्षण दोते ई । फफ के कास रोग में फस युग का लिए (लिया) रहना, अमेझरीर का भारी रद्द, कण्ठ में मान (सुजी ) प भलना, वारंवार सांसी का उठना, ग्रथा गून के राग कफ की गाँ गिरना, इत्यादि लक्षण होवे दे | क्षत्र (पान) होता है। पसवाड़ में F वाद (लन ), स्वर, गुरा का सूचना तथा यमन का दोना, धरीर के रंग क्षत (भार) के कास रोग में प्रथम सुगी खाँसी का होना, पीछे सिर से गुफ मू का गिरना, कण्ठम पीड़ा होना, सुह के नुमने के समान पीड़ा होना, नाफा होना, समियों में पीड़ा, पर, शास, प्यास समार दाना इत्यादि उन दाव दे | Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५६९ यह क्षतजन्य कास रोग बहुत स्त्रीसंग करने से, भार के उठाने से, बहुत मार्ग चलने से, कुश्ती करने से तथा दौडते हुए हाथी और घोडे आदि के रोकने से उत्पन्न होता है अर्थात् इन उक्त कारणों से रूक्ष पुरुष का हृदय फट जाता है तथा वायु कुपित होकर खासी को उत्पन्न कर देता है । क्षय के कास रोग में शरीर की क्षीणता, शूल, ज्वर, दाह और मोह का होना, सूखी खासी का उठना, रुधिर मास और शरीर का सूख जाना तथा थूक में रुधिर और कफसयुक्त पीप का आना, इत्यादि लक्षण होते है । यह क्षयजन्य कास रोग कुपथ्य और विषमाशन के करने से, अतिमैथुन से, मल और मूत्र आदि वेगों के रोकने से, अति दीनता से तथा अति शोक से, अग्नि के मन्द हो जाने से उत्पन्न होता है । चिकित्सा - १ - वायु से उत्पन्न हुई खासी में बथुआ, मकोय, चौपतिया का शाक खाना चाहिये, तैल आदि स्नेह, दूध, ईख का रस, दही, कांजी, खट्टे फल, खट्टे मीठे पदार्थ और नमकीन पदार्थ, इन का सेवन करना चाहिये । कच्ची मूली और गुंड के पदार्थ, अथवा - दश मूल की यवागू का सेवन करना चाहिये, क्योंकि - यह यवागू श्वास खासी और हिचकी को शीघ्र ही दूर करती है तथा यह दीपन ( अग्नि को प्रदीप्त करने वाली ) और वृष्य ( बलदायक ) भी है । २- पित्त से उत्पन्न हुई खासी में छोटी कटेरी, बडी कटेरी, दाख, कपूर, सुगन्धवाला, सोंठ और पीपल का क्वाथ बना कर तथा उस में शहद और मिश्री डाल कर पीना चाहिये । ३ - कफ से उत्पन्न हुई खासी में - पीपल, कायफल, सोंठ, काकड़ासिंगी, भारगी, काली मिर्च, कलौंजी, कटेरी, सम्हाल, अजवायन, चित्रक और अडूसा, इन के काथ में पीपल का चूर्ण डाल कर पीना चाहिये । ४ - क्षत से उत्पन्न हुई खासी में - ईख, कमल, इक्षुवालिका ( ईख का भेद ), कमल की डडी, नील कमल, सफेद चन्दन, महुआ, पीपल, दाख, लाख, काकड़ासिंगी और सतावर, इन सब को समान भाग ले, वशलोचन दो भाग तथा सब से चौगुनी मिश्री मिलावे, पीछे इस में शहद और मक्खन मिला कर प्रकृति के अनुसार इस की यथोचित मात्रा का सेवन करे । ५-क्षय से उत्पन्न हुई खासी में - कोह के चूर्ण में अडूसे के रस की अनेक भावनायें दे कर तथा उस में शहद मिश्री और मक्खन मिला कर उस का सेवन करना चाहिये । ६ - बेर के पत्ते को मनशिल से लपेट कर उस लेप को धूप में सुखा लेना चाहिये, ७२ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० भैनसम्प्रदायशिक्षा ।। पीछे उस फे धुएं का पान (धनपान ) कराना चाहिये, इस से सय प्रकार की साँसी गिट जाती है। ___७-फटेरी फी छाल भीर पीपल के पूर्ण फो पहन के साथ में पाटने से उन पर फी खांसी दूर होती है। ८-प्रभम पहेले फो घृत में सान फर सभा गोषर से उपेट पर पुटपाक पर मेना पाहिये, पीछे इस के छोटे २ टुफ कर मुम में रम्पना पाहिमे, इस से मम प्रकार की सांसी अवश्य ही दूर हो जाती है । ९-मिग्रम की पा और छाल तथा पीपल, इन का चूर्ण फर शहद से पाटना पाहिले, इस से खांसी, श्वास और हिचफी दूर हो जाती है। १०-नागरमोभा, पीपर, दास सभा पका हुआ फटेरी का फस, इन से पूर्ण को भूत भौर शहद में मिग फर चाटना चाहिये, इस के सेवन से धमनन्म सांसी दूर हो जाती है। ११-ौंग, जायफल और पीपल, ये प्रत्येक दो २ खोसे, काली मिर्ष चार पोते, तमा सोंठ सोछह बोले, इन सम फो पारीक पीस फर उस में सप पूर्ण के परामर मिभी में पीस फर मिठाना पाहिये तथा इस का सेवन करना पाहिये, इस का सेवन करने से सांसी, उमर, भरुचि, प्रमेह, गोग, वास, मन्दामि भौर संग्रहणी आदि रोग नर हो पाते है॥ अरुचि रोग का वर्णन ॥ मेव ( प्रकार )-भरुनि रोग भाउ फार फा होता है बावजन्य, पिसजन्य, • जन्य, सजिपातमन्म, शोमपन्य, गयनन्य, अतिलोमनन्म और भविझोपजन्म । फारण यह भरपि मा रोग माय मन को नेश देने मासे मान रूप भीर गन्न मावि कारण से उत्पन होता है, परना सुभुत भादि की भाषायों ने यात, पिच, कार सलिपात तथा मन फा सन्ताप, में पांच ही फारण इस रोग के माने , अतपर उन्होने इस रोग के कारण के मामय से पांच दी भेद भी माने हैं। लक्षण-मासजन्य भरपि में-दाँतों का सा होना मा मुख फा का होना, ये पो कसण हाते दें। पिसमन्य भरुचि गें-गुस-फडमा, म्वष्टा, गर्म, विरस भीर दुर्गन्ध युक रहता है। फफरन्प अरुधि म-गुण-सारा मीठा, पिरछस, भारी भोर पीतल रहता है तथा ति फफ से लिप्त (पिसी) रहती है। घोक, मम, भतिणेग, मोभ भीर मन को पुरे आनेपाळे पदार्था से उत्पन पुरे भरुनि में-मुरा का सार साभाविफ दी रहसा हे भात् पावसम्म भावि परुनिर्मा Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५७१ समान मुख का खाद खट्टा आदि नहीं रहता है, परन्तु शोकादि से उत्पन्न अरुचि में केवल भोजन पर ही अनिच्छा होती है । सन्निपातजन्य अरुचि में-अन्न पर रुचि का न होना तथा मुख में अनेक रसों का प्रतीत होना, इत्यादि चिह्न होते हैं। चिकित्सा-१-भोजन के प्रथम सेंधा निमक मिला कर अदरख को खाना चाहिये, इस के खाने से अन्न पर रुचि, अग्नि का दीपन तथा जीभ और कण्ठ की शुद्धि होती है। २-अदरख के रस में शहद डाल कर पीने से अरुचि, श्वास, खासी, जुखाम और कफ का नाश होता है। ३-पकी हुई इमली और सफेद बूरा, इन दोनों को शीतल जल में मिला कर छान लेना चाहिये, फिर उस में छोटी इलायची, कपूर और काली मिर्च का चूर्ण डाल कर पानक तैयार करना चाहिये, इस पानक के कुरलो को वारंवार मुख में रखना चाहिये, इस से अरुचि और पित्त का नाश होता है । ४-राई, भुना हुआ जीरा, भुनी हुई हींग, सोठ, सेंधा निमक और गाय का दही, इन सब को छान कर इस का सेवन करना चाहिये, यह तत्काल रुचि को उत्पन्न करती है तथा जठराग्नि को बढ़ाती है। ___५-इमली, गुड़ का जल, दालचीनी, छोटी इलायची और काली मिर्च, इन सव को मिला कर मुख में कवल को रखना चाहिये, इस से अरुचि शीघ्र ही दूर हो जाती है। ६-यवानी खाण्डव-अजवायन, इमली, सोंठ, अमलवेत, अनार और खट्टे वेर, ये सव प्रत्येक एक एक तोला, धनिया, संचर निमक, जीरा और दालचीनी, प्रत्येक छः २ मासे, पीपल १०० नग, काली मिर्च २०० नग और सफेद बूरा १६ तोले, इन सब को एकत्र कर चूर्ण बना लेना चाहिये तथा इस में से थोडे से चूर्ण को क्रम २ से गले के नीचे उतारना चाहिये, इस के सेवन से हृदय की पीडा, पसवाडे का दर्द, विबंध, अफरा, खासी, श्वास, सग्रहणी और बवासीर दूर होती है, मुख और जीभ की शुद्धि तथा अन्न पर रुचि होती है। ७-अनारदाना दो पल, सफेद वूरा तीन पल, दालचीनी, पत्रज और छोटी इलायची, ये सब मिला कर एक पल, इन सब का चूर्ण कर सेवन करने से अरुचि का नाश होता है, जठराग्नि का दीपन और अन्न का पाचन, होता है एवं पीनस, खासी तथा ज्वरका नाश होता है । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खैनसम्प्रदाय शिक्षा || छर्दि रोग का वर्णन | अपने वेग से मुख को पूरण कर तथा सन्वि पीड़ा के द्वारा सब जग में वर्ष को उत्पन्न कर दोषों का ओ मुख में आना है उस को छर्दि कहते है । ५७२ लक्षण – वायु की छर्दि में हृदय और पसवाड़ों में पीड़ा, मुस्लोप (मुख सूम्बना ), मस्तक और नाभि में शुरू, खांसी, स्वर भेव ( आवाज का बदल जाना), सुई चुमने के समान पीड़ा, ढकार का शव, प्रबल वमन में झाग का आना, ठहर २ वमन का होना सभा मोड़ा होना, वमन के रंग का काला होना, कपैले और पतले भ्रमन का होना सभा घमन के वेग से अधिक केश का होना, इत्यादि चिह्न होते हैं । पिच की छवि में मूर्छा, प्यास, मुस्वचोप, मस्तक साल और नेत्रों में पीड़ा, परे और कर का माना और पीले, हरे, कडुप, गर्म, दाहयुक्त सभा धूम्रवर्ण नमन का होना, ने चिब होते हैं । कफ की छर्दि में तन्त्रा ( मीट ), मुख में मीठा पन, कफ का गिरना, सन्तोष ( अब में रुचि ), निद्रा, चित्त का न लगना, शरीर का भारी होना तथा विफने, गाने, मीठे और सफेद कफ के बमन का होना, ये चिह्न होते हैं। सन्निपात अर्थात् त्रिदोष की छर्दि में-झूठ, अञीण, मरुचि, वाद, प्यास, श्वास मौर मोह के साथ उलटी होती है सभा वह उम्रटी स्वारी, खड्डी, नीली संघ ( गाड़ी ); पोर ठाठ होती है । गर्म मागन्तुच छर्दि में यणायोग्य दोषों के अनुसार अपने २ लक्षण होते हैं' । कमि की छर्दि में धूल तथा साठी उकैटी होती है, एवं इस रोग में कृमि रोग और हृदय रोग के समान सम लक्षण होते हैं । छर्दि के उपष-खांसी, श्वास, उबर, हिचकी, प्यास, अचेतनता ( बेहोसी । हृदय रोग तथा नेत्रों के सामने अँधेरे का भाना, ये सम उपष माय छर्दि रोग में होते हैं । फारण - अत्यन्त पतले चिकने अमिम सभा वार से युक्त पदार्थों का खनन करने से समय भोजन करने से, अधिक भोजन करने से, बीभत्स पदार्थों के देखन से, परिष्ठ (भारी) पदार्थों के खाने से, श्रम भय उगा अजीण; और कृमिदोष से गर्मिणी श्री की गर्भ सम्पधी पीड़ा से उभा पारंबार भोजन करने से सीनों दोष कुपित हो कर पस पूर्वक भुख का आच्छादन पर छत हूँ सभा भंगों में पीड़ा का उत्पन्न फर मुख के द्वारा पेट में पहुँच हुए भोजन का बाहर निकाल ई । १ १ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५७३ चिकित्सा-१-आमाशय (होजरी) के उत्क्लेश के होने से छर्दि होती है, इस लिये इस रोग में प्रथम लघन करना चाहिये । २-यदि इस रोग में दोपों की प्रबलता हो तो कफपित्तनाशक विरेचन (जुलाब ) लेना चाहिये। ___३-वातजन्य छर्दि रोग में जल को दूध में मिला कर औटाना चाहिये, जब जल जल कर केवल दूध शेप रह जावे तव उसे पीना चाहिये । ४-भूमिऑवले के यूप में घी और सेंधे निमक को मिला कर पीना चाहिये । ५-गिलोय, त्रिफला, नीम की छाल और पटोलपत्र के काथ में शहद मिला कर पीने से छर्दि दूर हो जाती है। ६-छोटी हरड़ के चूर्ण में शहद को मिला कर चाटने से दस्त के द्वारा दोषों के निकल जाने से शीघ्र ही छर्दि मिट जाती है । ___७-वायविडग, त्रिफला और सौंठ, इन के चूर्ण को शहद में मिला कर चाटना चाहिये। ८-वायविडग, केवटी, मोथा और सोंठ, इन के चूर्ण का सेवन करने से कफ की छर्दि मिट जाती है। ९-ऑवले, खील और मिश्री, ये सब एक पल लेकर तथा पीस कर पाव भर जल में छान लेना चाहिये, पीछे उस में एक पल शहद को डाल कर पुन कपडे से छान लेना चाहिये, पीछे इस का सेवन करना चाहिये, इस का सेवन करने से त्रिदोप से उत्पन्न हुई छर्दि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। १०-गिलोय के हिम में शहद डाल कर पीने से त्रिदोष की कठिन छर्दि भी मिट जाती है। ११-पित्तपापडे के काथ में शहद डाल कर पीने से पित्त की छर्दि मिट जाती है । १२-एलादि चूर्ण-इलायची, लौग, नागकेशर, बेरै की गुठली, खील, प्रियङ्गु, मोथा, चन्दन और पीपल, इन सब औषधियों को समान भाग लेकर तथा इन का चूर्ण कर मिनी और शहद को मिला कर उसे चाटना चाहिये इस से कफ, वायु और पित्त की छर्दि मिट जाती है। १३-सूखे हुए पीपल के बक्कल (छाल) को लेकर तथा उस को जला कर राख कर लेना चाहिये, उस राख को किसी पात्र में जल डाल कर घोल देना चाहिये, थोड़ी देर में उस के नितरे हुए जल को लेकर छान लेना चाहिये, इस जल के पीने से छर्दि और अरुचि शीघ्र ही मिट जाती है । १-हिम की विधि औषधप्रयोग वर्णन नामक प्रकरण में पहिले लिख चुके हैं। २-वेर की अर्थात् झडवेरी के बेर की ॥ ३-भूने हुए वान (जिन में से चावल निकलते हैं ) ॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मानिया ॥ गीराग (प्रार) का यणा ॥ कारण-परम्पर मिसान, ग, मगम (गासाकार मान मना), मीण, गाय, HEYI, मति fre, गाभार (मागि भरीराम दाना, मार भ मानासीमारिना यानि म गाना, इन कारण मा, प, प्रारमिना मार मारदा मन राग नहाना। लक्षण- LIKE गाना Mere at म पानी। पा111 मार-पा, 4, सागस मिसा भा, गांख मा सEA पानी समा। पाहा र म ॥ सपा मम tar गानमा पाडा) मार भाप यायु पहा है। f मर-'पी41, नी41, I, SITE मम हता, मग पिचर पादनमार गुपीत मा मरगति | मर-माम ग (प) सगु, नगर र गान मिना 14 Uषा मांग पुनमगान गिगा मरने । मनिपालय पर रंग RI, भी भोरममा ममान दासा का में गरीमगा। नती, माई शिपाय A यमर रोग ममाता। अति पदर क 'उपद्रप-भर • म मिसे-पा, भम, , म मा (प्पाम), गाद (HI), HRIL (AII), पारामा (नीट) मार पान जग मायाराम नाई। भगाय प्रदरग लक्षण-मिरमिर का सार निरभर हा हा गुपा 11 मार परामर्षामा पिर पण हा गया दोन या राग मारगाना गाया है। चिकित्सा--१-दीवार पर 141FREE मासाजीरा भाग, मोठा गागाभी MAHATTगाम भीर मार मारा, समरमान म पाचन यमराह २.- UP 4 बार निमी Milful, RT II भाभा पीस नाम से मर मिटाया | -मानी पूर्ण मी मीर बार AIME भर गाना। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५७५ उतराफाल्गुनी नक्षत्र में उखाड कर उसे कमर में बाँधने से रक्तप्रदर अवश्य मिट जाता है । ५- रसोत और चौलाई की जड को वारीक पीस कर चावलो के जल में इसे तथा शहद को मिला कर पीने से त्रिदोष जन्य प्रदर नष्ट हो जाता है। ६-अशोक वृक्ष की चार तोले छाल को बत्तीस पल जलमें औटावे, जब आठ पल शेप रहे तब उस में उतना ही ( आठ पल) दूध मिला कर उसे पुनः औटावे, जब केवल दूध शेष रह जावे तब उसे उतार कर शीतल करे, इस में से चार पल दूध प्रातःकाल पीना चाहिये, अथवा जठराग्नि का बलावल विचार न्यूनाधिक मात्रा का सेवन करे, इस से अति कठिन भी रक्तप्रदर शीघ्र ही दूर हो जाता है। ___७-~-कुश की जड को चावलो के धोवन में पीस कर तीन दिन तक पीने से प्रदर रोग शान्त हो जाता है। ८-दारुहलदी, रसोत, चिरायता, अडूसा, नागरमोया, वेलगिरी, लाल चन्दन और कमोदिनी के फूल, इन के काथ को शहद डाल कर पीना चाहिये, इस के पीने से सब प्रकार का प्रदर अर्थात् लाल सफेद और पीडा युक्त भी शान्त हो जाता है । राजयक्ष्मा रोग का वर्णन ॥ कारण-अधोवायु तथा मल और मूत्रादि वेगो के रोकने से, क्षीणता को उत्पन्न करने वाले मैथुन, लघन और ईर्ष्या आदि के अतिसेवन से, बलवान् के साथ युद्ध करने से तथा विषम भोजन से सन्निपातजन्य यह राजयक्ष्मा रोग उत्पन्न होता है । लक्षण-कन्ये और पसवाडो में पीडा, हाथ पैरो में जलन और सब अगों में ज्वर, ये तीन लक्षण इस रोग में अवश्य होते हैं, इस प्रकार के यक्ष्मा को त्रिरूप यक्ष्मा कहते है। __ अन्न में अरुचि, ज्वर, श्वास, खासी, रुधिर का निकलना और खरंभग, ये छः लक्षण जिस यक्ष्मा में होते है उस को पप राजयक्ष्मा कहते है। वायु की अधिकता वाले यक्ष्मा में-खरभेद, शूल, कन्वे और पसवाडों का सूखना, ये लक्षण होते हैं। पित्त की अधिकता वाले यक्ष्मा में-ज्वर, दाह, अतीसार और थूक के साथ में रुधिर का गिरना, ये लक्षण होते हैं। कफ की अविकता वाले यक्ष्मा में-मस्तक का कफ से भरा रहना, भोजन पर अरुचि, खासी और कण्ठ का विगडना, ये लक्षण होते है । सन्निपातजन्य राजयक्ष्मा में-सव दोपों के मिश्रित लक्षण होते है। १-खरभङ्ग अर्थात् आवाज का टूट जाना, अर्थात् वैठ जाना ॥ २-मिश्रित अर्थात् मिले हुए ॥ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनसम्प्रदायशिक्षा । साभ्यासाभ्यविचार—बो यक्ष्मा रोग उस ग्यारह लक्षणों से युफ हो, भगवा छ क्षणों से वा तीन लक्षणों (पर सांसी और रुधिर का गिरना इन तीन सायों) से युक्त हो उस को असाप्प समझना राहिये । हा इस में इतनी विशेपसा अवश्य है कि उक्त तीनों प्रकार फा (म्पारर यक्षों माला, छ क्षणों नाला सया तीन लक्षणों वाग) यक्ष्मा मांस भौर रुपिर से पीण मनुप्पा असाम सथा वस्वान् पुरुप का फप्टसाध्य समझा जाता है। इस के सिपाय-बिस यक्ष्मा रोग में रोगी भत्यन्त मोबन करने पर भी क्षीण होना चावे, भतीसार होते हो, सब मंग सूज गये हों तमा रोगी फा पेट सूख गया हो यह यक्ष्मा भी मसाध्य समझा जाता है। घिफिस्सा -१-जिस रोगी के दोप मत्पन्स पढ़ रहे हों तथा यो रोगी, समान् हो ऐसे यक्ष्मा रोगवा के प्रथम पमन और विरेपन भावि पाँच कर्म करने चाहिन १-बसाप्प मर्यात् बिम्सिा से भी म मिटने याम्म । २-साम मर्धत् सरिका से मिटने नाम । १-मन परेषन मनुवासम निसन मोर नाबम (मस), ये पांच मै पावन में से बात मारिस पम पूर्ण कर पुरे वापि यहाँ पर इन पॉपी को प्रतिवार पूर्वक पनन परत सब से परिम कर्म गमग मात्र उम्दी कराना है, इस सामिपि -परव या वर्षा भर बसम्त में यमन कराना चाहिये । घमन के योग्य प्राणी-पम्प, मिस फ धराए हमासात फरोगा से पारित से मिनमो नमन राना हितोतया प्ये पीर पित्त वाम में इन धब पमम राना पारिये पमम योग्य पेग-विषयोप षसम्वी बामरोग मम्मामि सागर भगुर परोप विसर्प प्रमेह भगीर्ष भ्रम निदानमा भपनी वासी भास पीनस माग मपी पर सम्मार, रबादासार बार पाठ और भोण्म पाना न प पाना भपिथि पमम्म मसार पित्तपर रोग मोरोम भार बापि म रोमों में बमन रामा पारिने बमन कराना मिपेष-विमिररोगी गुस्मरोमी उपरोपी रुप ममम्व रख पर्मनी की भसम्त स्पून र धन भरि पार पाम्म मप से पारित वाण म्प माप सि जिसपणे बापत ठा कर्मचरित पाप और पावसम्म ऐप युग इन पो सम्म गरी मीनता से होना, इस " इस रापपोभीर पनरोगी कृमिरोपी परने ४ विस प्र पाठ शपया पे भीम सेम्पषित भोर से ििार से दुपित । सप बमन पराना चाहिये जो प म्याप्त ८न को मार पामि र मन पराना परिपे पनि पु¥मार पुत्र प्रकार मन से सने गायक मन परान यमागू Vार मा परी भावि पराप रिग र पमम राना पाहिम पर ना ना नियम रिसबमन पराना ऐ सगे पर भमुखन भमा पार वापस एम पदार्थको रिमर प्रपम पो ग्याषित (माने पाण पर रिनार सरपरसमस पराप पर एसा करने से मन या मता " Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५७७ परन्तु क्षीण और दुर्बल रोगी के उक्त पञ्च कर्म नहीं करने चाहिये, क्योंकि क्षीण और दुर्बल रोगी उक्त पंच कर्मों के करने से शीघ्र ही मर जाता है, क्योंकि क्षीण पुरुष के शरीर में उक्त पांचों कर्म विष के समान असर करते है, देखो ! आचार्यों ने कहा है कि“राजयक्ष्मा वाले रोगी का बल मल के आधीन है और जीवन शुक्र के आधीन है" इस लिये यक्ष्मा वाले रोगी के मल और वीर्य की रक्षा सावधानी के साथ करनी चाहिये । वमनकारी पदार्थों में सैंधानिमक और शहद हितकारी हैं, वमन में वीभत्स ( जो न रुचे ऐसी ) औषधि देनी चाहिये तथा विरेचन में रुचिकारी औषधि देनी चाहिये, काढे की ४ पल औपधों को चार सेर जल मे औटावे, जव दो सेर जल शेष रहे तव उतार कर तथा छान कर वमन के लिये रोगी को देवे । मात्रा - वमन के लिये पीने योग्य क्वाथ की आठ सेर की मात्रा वडी है, छ सेर की मध्यम है और तीन सेर की मात्रा हीन होती है, परन्तु वमन, विरेचन और रुधिर के निकालने मे १३ ॥ पल अर्थात् ५४ तोले का सैर माना गया है । कल्क वा चूर्णादि की मात्रा -- वमनादि में कल्क चूर्ण और अवलेह की उत्तम मात्रा वारह तोले की है, आठ तोले की मध्यम तथा चार तोले की अधम मात्रा है । वमन में वेग-वमन में आठ वेगों पीछे पित्त का निकलना उत्तम है, छ वेगों के पीछे पित्त का निकलना मध्यम है तथा चार वेगों के पीछे पित्त का निकलना अधम है, कफ को चरपरे तीक्ष्ण और उष्ण पदार्थोंसे दूर करे, पित्त को स्वादिष्ट और शीतल पदार्थों से तथा वात मिश्रित कफ को स्वादिष्ट, नमकीन, खट्टे और गर्म मिले पदार्थों से दूर करे, कफ की अधिकता में पीपल, मैनफल और सैंधानिमक, इन के चूर्ण को गर्म जल के साथ पीवे, पित्त की अधिकता मे पटोलपत्र, अहूसा और नीम के चूर्ण को शीतल जल के साथ पीवे तथा कफ युक्त वात की पीडा में मैनफल के चूर्ण की फकी ले कर ऊपर से दूध पीवे, अजीर्ण रोग में गर्म जल के साथ संघेनिमक के चूर्ण को खाकर चमन करे, जव वमन कर्त्ता औषध को पी चुके तच ऊँचे आसन (मेज वा कुर्सी ) पर बैठ कर कण्ठ को अण्ड के पत्ते की नाल से वारवार खुजला कर वमन करे । वमन ठीक न होने के अवगुण - मुख से पानी का बहना, हृदय का रुकना, देह में चकत्तों का पढ जाना तथा सव देह मे खुजली का चलना, ये सब वमन के ठीक रीति से न होने से उत्पन्न होते है । अत्यन्त वमन के उपद्रव - अत्यन्त वमन के होने से प्यास, हिचकी, डकार, वेहोशी, जीभ का निकलना, आँख का फटना, मुख का खुला रह जाना, रुधिर की वमन का होना, वारं वार थूक का आना और कण्ठ में पीडा का होना, ये अति वमन के उपद्रव हैं । अति वमन का यज्ञ - यदि वमन अत्यन्त होते होवें तो साधारण जुलाव देना चाहिये, यदि जीभ भीतर चली गई हो तो स्निग्ध खट्टे खारे रस से युक्त घी और दूध के कुल्ले करने चाहिये तथा उस प्राणी के आगे बैठ कर दूसरे लोगों को नीबू आदि खट्टे फलों को चूसना चाहिये, यदि जीभ बाहर निकल पडी हो तो तिल वा दाख के कल्क से लेपित कर जिह्वा का भीतर प्रवेश कर दे, यदि अति वमन से आँख फट कर निकल पडी हो तो घृत चुपड कर धीरे २ भीतर को दवावे, यदि जावडा फटे का फटा (खुला ही रह गया हो तो खेदन कर्म करे, नस्य देवे तथा कफ वात हरणकर्त्ता यत्न करे, यदि अति वमन से रुधिर गिरने लगे तो रक्तपित्त पर लिखी हुई चिकित्सा को करे, यदि अति वमन से तृपा आदि उपद्रव हो गये हों तो ऑवला, रसोत, खस, खील, चन्दन और नेत्रवाला को जल मे मथ कर ( मन्थ तैयार कर ) उस में घी, शहद और साड डाल कर पिलावे । ७३ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५३८ बेनग्रम्पदामविया २-भर की छाल, मिस्टी भोर अंरक भीन, इन काम कर ना उस में पर, पी भोर मिश्री मिल कर बसाय पीना चाहिये, रापान से राज मामा ठमा मन्त्रि मीप ही मिट जाती है। ३-बहन, रण मधिम (माना मामी) की मम्म, पायविरग, सिमीत, मरी मम्म, पी भार हर इन समामिम सबन परन स पार मी पदमा राग नारा जाताद, परन्त इग भापपिक सपन समय पूर पप्प से रहना चाहिम । उत्तम पमनममण-स रमा मरामि प्रास्टरपम नाभिराम ATTERNपमन में पध्यापन बागमन प्राली मन HRS पास- पास मानामा परमान, मंसपी- म्यामान मर कर मापनगरापाति स ब पि -बम मलमार बमन fukti (३) faमनी 40 सदिय मन धन frainन में भारप्राय (अपमान) I ERS ममानिस भार प्रभार पारय प्राम पक्षमा माम nिe ktv नाम पर मार मणम्त तुम Hingnature प्रामस 44मरम्म में मी recate ति म भामरात सरप्त Visit I n HEORE1 में बात huitm म य पारमारित wिase aruwara landम 4 पावर rasi la turj 1 krukj 13 roos w na stran kip thith tun dibh si BABDay Lire hanumane pr krju ktrehink PHuman NEP HrjALD Dr mhanjir Instite A APPetun Durinjh r-Haribany Impr DIH rime In the valin Bhim P P IATICAR Xia Ir a ni aurat Minariya Aru few पास ना मध TOTA laund TRANमी बम E ntriesta KHANEnttpt - Hin ("LumAryan hintu" aon miminal.pnifnatioLibrartmn Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय || ५७९ ४-मिश्री, घी और शहद, इन को मिला कर सेवन करना चाहिये तथा इस के ऊपर दूध पीना चाहिये, इस के सेवन से यक्ष्मा का नाश तथा शरीर में पुष्टि होती है। ___ ५-सितोपलादि चूर्ण-मिश्री १६ तोले, वंशलोचन ८ तोले, पीपल ४ तोले, छोटी इलायची के वीज २ तोले और दालचीनी १ तोले, इन सब का चूर्ण कर शहद और घी मिला कर चाटना चाहिये, इस के सेवन से राजयक्ष्मा, खांसी, श्वास, ज्वर, पसवाड़े का शूल, मन्दामि, जिह्वा की विरसता, अरुचि, हाथ पैरों का दाह, और ऊर्ध्वगत रक्तपित्त, ये सब रोग शीघ्र ही नष्ट होते है। तीक्ष्ण मात्रा देनी चाहिये, (मृदु, मध्यम और तीव्र औषधों से मृदु, मध्यम और तीव्र मात्रायें कहलाती हैं) नरम कोठे वाले प्राणी को दाख, दूध और अण्डी के तेल आदि से विरेचन होता है, मध्यम कोठे वाले को निसोत, कुटकी और अमलतास से विरेचन होता है और क्रूर कोठे वाले को थूहर का दूध, चोक, दन्ती और जमालगोटे आदि से विरेचन होता है । विरेचन के वेग-तीस वेग के पीछे आम का निकलना उत्तम, वीस वेग के पीछे मध्यम और दश वेग के पीछे अधम होता है । विरेचन की मात्रा-आठ तोले की उत्तम, चार तोले की मध्यम और दो तोले की अधम मात्रा मानी जाती है, परन्तु यह परिणाम क्वाथादि की औषधि की मात्रा का है, विरेचन के लिये कल्क, मोदक और चूर्ण की मात्रा एक तोले की ही है, इन का सेवन शहद, घी और अवलेह के साथ करना चाहिये, मात्रा का यह साधारण नियम कहा गया है इस लिये मात्रा एक तोले से लेकर दो तोले पर्यन्त वुद्विमान् वैद्य रोगी के वलावल का विचार कर दे सकता है। दोषानुसार विरेचन-पित्त के रोग मे निसोत के चूर्ण को द्राक्षादि क्वाय के साथ में, कफ के रोगों में सोंठ, मिर्च और पीपल के चूर्ण को त्रिफला के काढे और गोमूत्र के साथ मे, वायु के रोगों में निसोत, सेंधानिमक और सोंठ के चूर्ण को खहे पदार्थों के साथ मे देना चाहिये, अण्डी के तेल को दुगुने गाय के दूध में मिला कर पीने से शीघ्र ही विरेचन होता है, परन्तु अण्डी का तेल स्वच्छ होना चाहिये । ऋतु के अनुसार विरेचन-वर्षा ऋतु में निसोत, इन्द्रजौं, पीपल और सोंठ के चूर्ण में दाख का रस तथा शहद डाल कर लेना चाहिये, शरद् ऋतु मे निसोत, धमासा, नागरमोथा, खाड, नेत्रवाला, चन्दन, दाख का रस और मौलेठी, इन सब को शीतल जल में पीस कर तथा छान कर ( विना आटाये ही) पीना चाहिये, शिशिर और वसन्त ऋतु में पीपल, सोंठ, सेंधानिमक, सारिवा और निसोत का चूर्ण शहद में मिला कर खाना चाहिये । अभयादि मोदक-विरेचन के लिये अभयादि मोदक भी उत्तम पदार्थ है, इस का विधान वैद्यक ग्रन्थों में देख लेना चाहिये, यह विरेचन के लिये तो उत्तम है ही. किन्तु विरेचन के सिवाय यह विषमज्वर, मन्दाग्नि, पाण्डुरोग, खासी, भगन्दर तथा वातजन्य पीठ; पसवाडा, जाघ और उदर की पीडा को भी दूर करता है । विरेचन में नियम-विरेचनकारक औषधि को पी कर शीतल जल से नेत्रों को छिडकना चाहिये तथा सुगन्धि (अतर आदि) को सूंघ कर पान साना चाहिये, हवा में नहीं बैठना चाहिये तथा दस्त के वेग को रोकना नहीं चाहिये, इन के सिवाय नींद का लेना तथा शीतल जलस्पर्श का त्याग करना चाहिये, वारं वार गर्म जल को वा सोंफ आदि के अर्क को पीना चाहिये, जैसे वमनकारक औषधि के लेने से कफ, पी हुई औपधि, पित्त और वात निकलते हैं उसी प्रकार विरेचन की औषधि के लेने से मल, पित्त, पी हुई औपधि और कफ निकलते हैं। उत्तम विरे Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ ६-जाप्तीफलादि चूर्ण-जायफल, पाममिदंग, चित्रफ, तगर, विक, साठीसपत्र, चन्दन, साट, गंग, छोटी इलायची के धीज, भीमसेनी फार, हरक, भामग, धठी मित्र, पीपल और बंशलोचन, ये प्रत्येक तीन २ सोरे, पतुजा तक की पारों भोपपियों के तीर तोले तमा भाग सात पर, इन सम का पूण करके सप पूर्ण के समान मिभी मिमी पाहिये, इस फे सेवन से क्षम, मांसी, श्वास, संग्रहणी, अरुचि, जुसाम भोर मन्त्रापि, न सप रोग धीम ही नष्ट होत हैं। चन न होन मसण-गि उत्तम प्रपर सेरेमन म भा से उस मामि में पोप व्यरवा भय में पर महबार पोचपा समनाम मुगठी प्रपना पाने परम्प प्रमार रामावि भम्भीर बमन प्रोग्र प्रसाद म्यन होवर. एपीपा में पापन भाव दर पाल करना पारिस, अब मम पर जाम भोर भिम होपाल तब पुनः एमप देना बार एस परने पशुत्व म सने उपाय मिररमा पनि प्रारीत सरपरीर मरो प्राव है। भषिक पिरचन हाम फ उपद्रप-वधिक पिरेषन एनेस मुच्छा गुरप (अप्रमिळना) . सभाम प्रबपित गिरमा तपस में भिरबारमा भारिममा इमार उपार व पणी रसा में एमी भरीर पर धौनदी पीतमपम निम्ना पारित पाप मापन में सरकार पर दिमामा बाहिरी हसन या बमन परामा पाहिये माम महत परामरा कार्य में पीगर पाभि पर प रन पर प्रपार पर भी मर पाम भो म प्राय पनि पाप पटी पावर परीप्रसधीवम पदार्थ मा माही पा स्पति परा पिक एक जाने पररा । उत्तम यिरपम होन फसण-परप्रहमन पन मन में प्रत तपा भाराभल पम्ना ये राम उत्तम परेषन के मन पिरधन क गुण-मिय बनाना, परि में सपा मरामि का पेपर पा रणारिभातु भार भराभरना सब रिपन गुणपिरचम में पथ्यापथ्य-सतसा पठमा विसपा प्रताप मानिनी प्रभावन म्यागमारिपरमार मधुन वे सब किन में परमान भारA पाप भूप भारिप मराग सरपरा रेषम में पप भर्मात दिवाकर गिराम भमुनाम पर यि (पुरा मरमसगारे)प्रपम भरत पार d भारिप पिसम ममागभनुममन पशि की सीमा नाम सा मात्रा में मृत भारी मात्रा भार नपा पारवाही भयाभनुपर मन पनि भधिकारी-धमा नमामि नामासम पाराम पाहा मग एक पास भरिभरीभापासन पम्ति भनधिकारी-कारोमी प्रमाणेमी बसन्त र पर माना परमी में मयसपमिया की सर पान सम्पापुम पापी मूति अर्थ पुष भबनी भापरोपी का प्रस it us Taता पर(नुमानन) atialaNAATल मति (lana मा ) पति पिधान-वधिसना (मप्र) शुस गरि पावर " पत माप * NARArya RRAIt मनपा Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ चतुर्थ अध्याय ॥ ७ - असे का रस एक सेर, सफेद चीनी आधसेर, पीपल आठ तोले और घी आठ तोले, इन सब को मन्दाग्नि से पका कर अवलेह ( चटनी ) बना लेना चाहिये, इस के शीतल हो जाने पर ३२ तोले शहद मिलाना चाहिये, इस का सेवन करने से राजयक्ष्मा, खासी, श्वास, पसवाड़े का शूल, हृदय का शूल, रक्तपित्त और ज्वर, ये सब रोग शीघ्र ही मिट जाते हैं । ८ - वकरी का घी चार सेर, बकरी की मेंगनियों का रस चार सेर, बकरी का सूत्र चार सेर, बकरी का दूध चार सेर तथा बकरी का दही चार सेर, इन सब को एकत्र पका मटर के चाहिये, एक वर्ष से लेकर छ वर्ष तक के चालक के लिये छ अगुल के, छ वर्ष से लेकर वारह वर्ष तक के लिये आठ अंगुल के तथा वारह वर्ष से अधिक अवस्था वाले के लिये बारह अगुल के लम्बे वस्ति के नेत्र बनाने चाहियें, छ अगुल की नली में मूग के दाने के समान, आठ अंगुल की नली में समान तथा चारह अगुल की नली में वेर की गुठली के समान छिद्र रक्खे, नली चिकनी तथा गाय की पूँछ के समान ( जड में मोटी और आगे क्रम २ से पतली ) होनी चाहिये, नली मूल में रोगी के अंगूठे के समान मोटी होनी चाहिये और कनिष्ठिका के समान स्थूल होनी चाहिये तथा गोल मुख की होनी चाहिये, नली के तीन भागों को छोड कर चतुर्थ भाग रूप मूल में गाय के कान के समान दो कर्णिकार्ये बनानी चाहियें तथा उन्हीं कर्णिकाओं में चर्म की कोयली (शैली) को दो बन्धनों से खूब मजबूत बाध देना चाहिये, वह वस्ति लाल वा कषैले रंग से रंगी हुई, चिकनी और दृढ होनी चाहिये, यदि घाव में पिचकारी मारनी हो तो उस की नली आठ अगुल की मूग के समान छिद्र वाली और गीध के पाख की नली के समान मोटी होनी चाहिये । वस्ती के गुण-- वस्ति का उत्तम प्रकार से सेवन करने से शरीर की पुष्टि, वर्ण की उत्तमता, बल की वृद्धि, आरोग्यता और वायु की वृद्धि होती है । ऋतु के अनुसार वस्ति - शीत काल और वसन्त ऋतु में दिन में स्नेह वस्ति देना चाहिये तथा ग्रीष्म वर्षा और शरद ऋतु में नेह वस्ति रात्रि में देना चाहिये । वस्ति विधि -- रोगी को बहुत चिकना न हो ऐसा भोजन करा के यह वस्ति देनी चाहिये किन्तु वहुत चिकना भोजन कराके वस्ति नहीं देनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दो प्रकार से (भोजन मे और वस्ति मे ) स्नेह का उपयोग होने से मद और मूर्छा रोग उत्पन्न होते हैं तथा अत्यन्त रूक्ष पदार्थं खिला कर वस्ति के देने से वल और वर्ण का नाश होता है, अत. अल्पस्निग्ध पदार्थों को खिला कर वस्ति करनी चाहिये । वस्ति की मात्रा - यदि वस्ति हीन मात्रा से दी जावे तो यथोचित कार्य को नहीं करती है, यदि अधिक मात्रा से दी जावे तो अफरा, कृमि और अतीसार को उत्पन्न करती है इस लिये वस्ति न्यूनाधिक मात्रा से नहीं देनी चाहिये, अनुवासन वस्ति मे स्नेह की छ पल की मात्रा उत्तम, तीन पल की मध्यम और डेढ पल की मात्रा अधम मानी गई है, स्नेह में जो सोंफ और संधे नमक का चूर्ण डाला जावे उस की मात्रा छ मासे की उत्तम, चार मासे की मध्यम और दो मासे की हीन है । वस्ति का समय - विरेचन देने बाद ७ दिन के पीछे जब देह मे वल आ जावे तव अनुवासन वस्ति देनी चाहिये । वस्ति देने की रीति-- रोगी के खूव तेल की मालिश कराके धीरे २ गर्म जल से बफारा दिला कर तथा भोजन कराके कुछ इधर उधर घुमा कर तथा मल मूत्र और अधोवायु का त्याग करा के स्नेह वस्ति देनी चाहिये, इस की रीति यह है कि रोगी को वायें करवट मुला के बाई Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्प्रदायविधा। र उगा में पद पर जवामार पूर्ण ना भाहिम, इस मृत के सेवन से रायमा, साधी भोर धाग, 4 रोग नए दो भान है। ___-पासा पर UR | सर वा स सर, इन पोटाप, स १५ र पद मम मम १२॥ सर मिमी मिमा र पा र, 44 गाहा जान र में विटा, पानीनी, पर, इलामभी, भात, मापा, कुष्ठ (P), भार, पीपराम, नीला, पम्प, म नन, करपी, गवपीपम, तामीसपन भोर पनिर्मा सपना २ गियर, पीपदा भान पर उसार तथा श्रीन दान पर पीली Husnet marAMA मासमा मदन मपम पीस वित 44 मिश्राव रोमी माई गाबा Aachar Fulu मात्रा पर पाराम सिमापारी मात्रामा मन परामर बम मि मागमा Matange4141 44 मा NIRANI मान)REntrafakfy unnat K 44 MANNAIना - KHASAN MANMEN randuisitinainaurusपान भीमना मदन भर PARTनमा नाग 14 माह HINICHATuf41 AM K मामा परी गीगाम कम पर माना HARRAH ATHI Milk WE निका म ना , प्रभUE पात wwwda Nafrate writa ( रात में पानी रनी पा)। पति गुण-41 4 4IEntritinसन पाना tamilaiyaभार बार पनि भार र प्रिय भनtal Rf Advt HARTA YAKANT IC गार मना 14 भरना HIRICI NALERT Inteममा हाल समान मानकीरामनार मा भाषा नुमानsh Khan नातिन मननीय माधM44 गभानाममा भाभी HTTY44100 falam 0 THAN माग नागाRTAI MIMARAHI141 मत्पर Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५८३ इस में एक सेर शहद मिलावे, पीछे इस को औटा कर शीतल किये हुए जल के साथ अग्नि का बलाबल विचार कर लेवे, इस के सेवन से राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, क्षतक्षय, वातजन्य तथा पित्तजन्य श्वास, हृदय का शूल, पसवाड़े का शूल, वमन, अरुचि और ज्वर, ये सब रोग शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं। ___१०-जीवन्त्यादिघृत-घृत चार सेर, जल सोलह सेर, कल्क के लिये जीवन्ती, मौलेठी, दारव, त्रिफला, इन्द्रजौ, कचूर, कूठ, कटेरी, गोखुरू, खिरेटी, नील कमल, मूंय देने के पीछे तत्काल ही केवल स्नेह पीछा निकले उस के वहुत थोडी मात्रा की वस्ति देनी चाहिये, क्योंकि स्निग्ध शरीर में दिया हुआ स्नेह स्थिर नहीं रहता है । वस्ति के ठीक न होने के अवगुण-वस्ति से यथोचित शुद्धि न होने से (विष्ठा के साथ तेल के पीछा न निकलने से) अगों की शिथिलता, पेट का फूलना, शूल, श्वास तथा पक्वाशय मे भारीपन, इत्यादि अवगुण होते हैं, ऐसी दशा में रोगी को तीक्ष्ण औषधों की तीक्ष्ण निरूहण वस्ति देनी चाहिये, अथवा वस्त्रादि की मोटी वत्ती बना कर उस में औषधों को भर कर अथवा भोपधों को लगा कर गुदा मै उस का प्रवेश करना चाहिये, ऐसा करने से अधोवायु का अनुलोमन (अनुकूल गमन) हो कर मल के सहित स्नेह वाहर निकल जावेगा, ऐसी दशा मे विरेचन का देना भी लाभकारी होता है तथा तीक्ष्ण नस्य का देना भी उत्तम होता है, अनुवासन वस्ति देने पर यदि नेह वाहर न निकलने पर भी किसी प्रकार का उपद्रव न करे तो समझ लेना चाहिये कि शरीर के रूक्ष होने से वस्ति का सव स्नेह उस के शरीर मे काम में आ गया है, ऐसी दशा में उपाय कर स्नेह के निकालने की कोई आवश्यकता नहीं है, वस्ति देने पर यदि स्नेह एक दिन रात्रि मे भी पीछा न निकले तो शोधन के उपायों से उसे बाहर निकालना चाहिये, परन्तु स्नेह के निकालने के लिये दूसरी वार स्नेह वस्ति नहीं देनी चाहिये । अनुवासन तैल-गिलोय, एरड, कजा, भारंगी, अडूसा, सौधिया तृण, सतावर, कटसरैया और कौवा ठोडी, ये सव चार २ तोले, जौ, उडद, अलसी, वेर की गुठली और कुलथी, ये सव आठ २ तोले लेवे, इन सव को चार द्रोण (धोन) जल मे औटावे, जब एक द्रोण जल शेप रहे तव इस मे चार २ रुपये भर सव जीवनीयगण की औषघों के साथ एक आढक तेल को परिपक्क करे, इस तेल का उपयोग करने से सव वातसम्बधी रोग दूर होते हैं, वस्ति क्रिया में कुछ भी विपरीतता होने से चौहत्तर प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, ऐसी दशा जव कभी हो जावे तो सुश्रुत मे कहे अनुसार नलिका आदि सामग्रियों से चिकित्सा करनी चाहिये, इस वस्ति कर्म में पथ्यापथ्य स्नेह पान के समान सव कुछ करना चाहिये। चौथा कर्म निरूहण है-यह वस्ति का दूसरा भेद है-तात्पर्य यह है कि काढे, दूध और तैल आदि की पिचकारी लगाने को निरूण वस्ति कहते हैं, इस वस्ति के पृथक् २ ओपधियों के सम्मेल से अनेक टोता होते हैं तथा इसी कारण से उन भेदों के पृथक् २ नाम भी रक्खे गये हैं, इस निरूहण वस्ति का दुरी आस्थापन वस्ति भी है, इस नाम के रखने का हेतु यह है कि इस वस्ति से दोपों और धातु है । २ स्थान पर स्थापन होता है । निरूहण वस्तिकी मात्रा-इस वस्ति की सवा प्रस्थ की र प्रस्थ की मात्रा मध्यम और तीन कुडव (तीन पाव) की मात्रा अधम मानी गई हैं। दिन में न सोना तथा अनधिकारी-अत्यन्त स्निग्ध शरीर वाला, जिस के दोप परिपक कर न निकाले ग्ध शरीर वाला, जिस क दाप पारपक कर न पथ्यापथ्य स्नेहनवस्ति के Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा | १४- अधिक मार्ग में चलने से जिस के क्षोप रोग उत्पन्न हुआ हो उस को धैर्य वेका चाहिये, बैठाना चाहिये, दिन में सुखाना चाहिये तथा शीतल, मधुर भौर बृहण ( पुष्टि करने अर्थात् धातु आदि को पढ़ाने वाले ) पदार्थ देने चाहियें । ५८६ १५-यम (भाव) के कारण जिस के शोप उत्पन्न हुआ हो उस रोगी की चिकित्सा स्निग्ध (चिकने ), अग्निदीपनफर्सा, स्वादिष्ठ ( जायकेदार ), श्रीवल, कुछ स्वटाईमाले तथा मणनाक पदार्थों से करनी चाहिये । समान जानना चाहिये इस पति का एक भैर उत्तरपति ( तथा योनि में परी ज्याना ) भी है, जिम्र का गफैन जहाँ अनावस्यक समझ कर नहीं किया जाता है, उस का विषय भाषश्यकतानुसार दूसरे कयों में देखना चाहिये ॥ के पाँचो कर्म नाचन (नस) मा छ, तात्पर्य यह है कि भोपभि मासिका से महब की जो नावन वा मम कहते है, इस कर्म के मावन और मस्वकर्म मे दो नाम है इसको मस्क है कि इससे नासिका की चिकित्सा होता है, ममकर्म के दो भेद है-रेचन और जेहन स्म में से घि फर्म से भीतरी पदार्थों को कम किया जाये उसे रेवन कहा है तथा जिस कर्म से भीतरी पक्षों की वृद्धि की जावे उसे स्नेहन का है। समयानुसार नस्य के गुण- प्रातःकाल को नाम फो करती है मध्याह की नस्म पित्त को और सायक की मध्य बादी को तर करती है, मस्म को प्रयाग में छेना चाहिये परन्तु मरि घोर रोम हो तो रात्रि में भी के क्रेता चाहिये। नस्य का निषेध पीछे तस्का मिस दिम गाव से उस दिन वचन के दिन मशीन शाम के समय में मर्मी, विपरोगी अजीर्मरोगी जिस को पति की गई हो जिसने नेहा भसब पिया हो प्यास्य उस बालक भय मून के बैग का रोकने बाछा परिश्रमी और थे नाम करना चाहता है, इन को नाम वा निषिद्ध है। नस्य की अवस्था जब पाठ वर्ष का न हो जाये तब तक भस्म नहीं देना चाहिये तथा अस्सी गर्म के पीछे नस्य नहीं देना चाहिये। रेचननस्य की विधिवीक्ष्ण तैस से अथवा तीन औषधों से पके हुए कों से कानों से अथवा की केनी चाहिये यह मम नासिक के दोनों किन्नरों में चाहिये यह उत्तम मात्रा है, छ १ मूरों की मध्यम नस्य में औषधों की मात्रा का परिमाण झींस एक जै। भर सेंषा निमक छ रत्ती धूप चार धाम पानी टी भरा चाहिये । चननस्य के भेद-रेचनस्य के क्यपीडन और प्रथम येथे मेद - नस्य देऊन मारू को बाकी करना हो तो गाम्ब रीति से इन योगो भेदों का प्रप्रेम करना चाहिये जिस के साथ में दौक्ष्य पदार्थों को मिया हो उन का करके रस निचोड केला इस को भी भी रसों से रेप स्व नी चाहिये मात्रा है स्वर में प्रत्येक चित्र में भाऊ १ और चार २ हूँ की भभम मात्रा है। न भीपन रची भर देना चाहि रूपये भर तथा मधुर जन्म एक रूपये औरछ अगुवा हो की नही में ४४ रची दौरान चूर्म भरकर सुख की फेंक देकर उस चूर्ण को माफ में बड़ा बन्ध इस को प्रथमनाते है। मयों के पोम्प रोग--(प्र में कफ के स्वरभय म भरचि प्रविश्यान भए पौमस सूमम मृगी और कुप्रथेम में रेचक्मस बता चाहिये उनवाली रुक्ष मनुष्य और बालक को मेहनमस्व देना चाहिये गले के रोम Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५८७ १६- महाचन्दनादि तैल-तिली का तेल चार सेर, काथ के लिये लाल चन्दन, शालपर्णी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी, गोखुरू, मुद्गपर्णी, विदारीकन्द, असगन्ध, मापपर्णी, ऑवले, सिरस की छाल, पद्माख, खस, सरलकाए, नागकेशर, प्रसारणी, मूर्वा, फूलप्रियगु, कमलगट्टा, नेत्रवाला, खिरेटी, कगही, कमल की नाल और मसीदे, ये सब सन्निपात, निद्रा, विषम ज्वर, मन के विकार और कृमिरोग में जवपीडन नस्य देना चाहिये तथा अत्यन्त कुपित दोपवाले रोगों में ओर जिन म सक्षा नष्ट हो गई हो ऐसे रोगों में प्रधमननस देना चाहिये । विरेचननस्य -- सोट के चूर्ण को तथा गुट को मिलाकर अथवा संधे निमक और पीपल को पानी में पीसकर नस्य देने से नाक, मस्तक, कान, नेत्र, गर्दन, टोडी और गले के रोग तथा भुजा और पीठ के रोग नष्ट होते हे, महुए का सत, वच, पीपल, काली मिर्च और संधा निमक, इन को थोडे गर्म जल में पीसकर नस्य देने से मृगी, उन्माद, सन्निपात, अपतनक और वायु की मूछी, ये सब दूर होते हैं, संधानिमक, सफेद मिर्च ( सहजने के बीज ), सरसों और कृठ, इन को बकरे के मूत्र मे बारीक पीस कर नस्य देने से तन्द्रा दूर होती है, काली मिर्च, वच और कायफल के चूर्ण को रोहू मछली के पित्ते की भावना देकर नली से प्रधमननस्य देना चाहिये । वृणनस्य के भेद - बृहणनस्य के मर्श और प्रतिमर्श, ये दो भेद है, इन में से शाण से जो स्नेहन नस्य दी जाती है उसे मर्श कहते है, (तर्जनी अलि की आठ बूदों की मात्रा को शाण कहते है ) इस मर्श नस्य में आठ शाण की तर्पणी मात्रा प्रत्येक नथुने में देना उत्तम मात्रा है, चार शाण की मध्यम और एक शाण की मात्रा अधम है, प्रत्येक नथुने मै मात्रा की दो २ वृदो के डालने को अतिमर्श कहते है, दोपो का बलावल विचार कर एक दिन में दो वार, वा तीन वार, अथवा एक दिन के अन्तर से, अथवा दो दिन के अन्तर से मर्श नस्य देनी चाहिये, अथवा तीन, पाँच वा सात दिन तक निरन्तर इस नस्य का उपयोग करना चाहिये, परन्तु उस में यह सावधानता रखनी चाहिये कि रोगी को छीक आदि की व्याकुलता न होने पावे, मर्श नस्य देने से समय पर स्थान से भ्रष्ट हो कर दोप कुपित हो कर मस्तक के मर्म स्थान से विरेचित होने लगता है कि जिस से मस्तक में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है, अथवा दोपों के क्षीण होने से रोग उत्पन्न हो जाते है, यदि दोप के उल्लेश (स्थान से भ्रष्ट ) होने से रोग उत्पन्न हो तो वमनरूप शोधन का उपयोग करना चाहिये और यदि मेद आदि का क्षय होने से रोग उत्पन्न हो तो पूर्वोक्त स्नेह के द्वारा उन्हीं क्षीण दोपों को पुष्ट करे, मस्तक नाक और नेत्र के रोग, सूर्यावर्त्त, आधाशीशी, दॉत के रोग, निर्वलता, गर्दन भुजा और कन्धा के रोग, मुखशोप, कर्णनाद, वातपित्तसम्वधी रोग, विना समय के वालों का श्वेत होना तथा वाल और डाढी मूँछ का झर २ कर गिरना, इन सब रोगो मे स्नेहों से अथवा मधुर पदार्थों के रसो से स्नेहननस्य को देना चाहिये । वृहणनस्य की विधि-साड के साथ केशर को दूध में पीस कर पीछे घी में सेंक कर नस्य देने से वातरक्त की पीडा शान्त होती है, भौंह, कपाल, नेत्र, मस्तक और कान के रोग, सूर्यावर्त्त और आधाशीशी, इन रोगों का भी नाश होता है, यदि स्नेहननस्य देना हो तो अणुतैल ( इस की विधि सुश्रुत मे देखो ), नारायण तैल, मापादि तैल, अथवा योग्य औषधों से देना चाहिये, यदि कफयुक्त वादी का दर्द हो तो तेल की और यदि केवल वादी की नस्य देनी चाहिये, पित्त का दर्द हो तो सर्वदा घी की नस्य देनी चाहिये, उडद, कोच के बीज, परिपक्क किये हुए घृत से का ही दर्द हो तो मज्जा Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ बैनसम्पदापरिक्षा ॥ मिलाए ५० टके भर वे तमा सिरी ५० टके भर लो, पास के गास्ते जठ १५ सर लवे, जब जल चार मेर माफी रहे. उप मफरी का दूप, सतासर पा रस, सामु प रस, फांजी भोर दद्दी का जल, प्रत्पफ पार २ मेर सभा प्रत्येक के पास के लिये जम १५ सेर लरे, जन पार सेर रह जाव तब उसे छान ल, फिर प्रथा २ काध और पत्त रामा भैरगा मा रोप नम भार भासम्म न प्रसपर मास में मारमा निमा र क गर्म भरमस प इन पम्पमुच पधापान (भषाम) त पर (RAI) गर्दन पर पाना भीर भपबाम (रामों का पाना) गए गा । म का प्रतिमपनामा म मम्म भरकर पु.र उन में से प्रतिम नम उमर मान स. ना --प्राव गस नम करनपार परसार निमत समय म्याम पाया। परभान पचात्, मयुन या ममपाग पर मन परन फ पी. भवन पास (मगान) पीछ म मिनिक पीछ भान पीछ मन में सन पर बमन पाउन यापकास में प्रतिमप मम्प ने मर परिचान २ रि-पोती भान से कर पप्रमुग में भापार्यता ग्रन ना दिस प्रितिमन नम्म उत्तम रीति से पार मुड में भाप हुप पानिममय मह वाहिय मिन उसे भूना पाहिम । मतिमई मस्य । मधिकारी-तीन मनु तुपयेगी मुरापोपरोगी पामा भीर . स प्रतिय तिमी है। प्रतिमश नम्य फगुण-प्रतिमा मम्म उपयोग से मारक रोग का मही रोवर में गुमसरन परत पामें प्रश्न समा मिरवा समय नम्म से इम्तियों चिपरी है.मा भीम भारी गा, पर भार मानपनी समर पापम्प मा भम्मान रपन मृ सब पापा से जाम की विधि मन करन र पधात्, मग भीर मप्रातिप्राम रमे व धूमपान आप प्रसव मत पर गीभे पपन और पम रहित स्थान ENA (सीमा) म्य बन्न हिसे तप म माता मा एममा पाईये सपने पसार ला पानी में बम में कि पारिस पछि मारमनी पर मसदनी पारिस 4 साने बारी भारिती पर पा चीप से या किसी स मुचि पापम पमा स प पारम ठने पाय रीति मैना मार में पपी पारिक जिस समय मास में मम शाम चार पस गेगी ग्रेवारिक माप महिला पनघोग मई महभीर सिपर मार स्मिन भारि महारराव पापापात मीवर मी पापामार ऐसा भने से ta मा मनपा भार नपीमा रसा मस प्रेम (मार भीतरी जी)" पहुंचने परन्त सिर रखना चाहिसे भषा नियह मई माया पारि पाउडर मुख में बाये पुरा साभारिप मसकने पाम् मन में मम्ठाप म करे भूम पान साग में श्राम बसपा पमा मिनर काम सोपे पौवा पा रहे कामस मघा राने के पश्चात् पूमपान तथा प्रसपान रिचारी ना? मसरा मचा मान पाने में पर प्रसाना माभपतरमा भागारमा मानि प्रमा सिन भानियों में प्रणमात्र स्माधिन एव। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५८९ लिये-सफेद चन्दन, अगर, ककोल, नख, छारछवीला, नागकेशर, तेजपात, दालचीनी, कमलगट्टा, हलदी, दारुहल्दी, सारिवा, काली सारिया, लाल कमल, छड़, कूठ, त्रिफला, फालसे, मूर्वी, गठिवन, नलिका, देवदारु, सरलकाष्ठ, पद्माख, खस, धाय के फूल, वेलगिरी, रसोत, मोथा, सिलारस, सुगन्धवाला, वच, मजीठ, लोध, सौंफ, जीवन्ती, प्रियगु, कचूर, इलायची, केसर, खटासी, कमल की केशर, रास्ना, जावित्री, सोंठ और धनिया, ये सब प्रत्येक दो २ तोले लेवे, इस तैल का पाक करे, पाक हो जाने के पश्चात् इस में केशर, कस्तूरी और कपूर थोडे २ मिलाकर उत्तम पात्र में भर के इस तेल को रख छोडे, इस तेल का मर्दन करने से वातपित्तजन्य सब रोग दूर होते है, धातुओं की वृद्धि होती है, घोर राजयक्ष्मा, रक्तपित्त और उरःक्षत रोग का नाश होता है तथा सब प्रकार के क्षीण पुरुषो की क्षीणता को यह तेल शीघ्र ही दूर करता है। १७-यदि रोगी के उर.क्षत (हृदय में घाव ) हो गया हो तो उसे खिरेटी, अस. गन्ध, अरनी, सतावर और पुनर्नवा, इन का चूर्ण कर दूध के साथ नित्य पिलाना चाहिये। १८-अथवा-छोटी इलायची, पत्रज और दालचीनी, प्रत्येक छः २ मासे, पीपल दो तोले, मिश्री, मौलेठी, छुहारे और दाख, प्रत्येक चार २ तोले, इन सव का चूर्ण कर शहद के साथ दो २ तोले की गोलिया बनाकर नित्य एक गोली का सेवन करना चाहिये, इस से उरःक्षत, ज्वर, खासी, श्वास, हिचकी, वमन, भ्रम, मूर्छा, मद, प्यास, शोष, पसवाड़े का शूल, अरुचि, तिल्ली, आढयवात, रक्तपित्त और खरभेद, ये सब रोग दूर हो जाते हैं तथा यह एलादि गुटिका वृष्य और इन्द्रियों को तृप्त करने वाली है ॥ आमवात रोग का वर्णन ॥ कारण-परस्पर विरुद्ध आहार और विरुद्ध विहार ( जैसे भोजन करके शीघ्र ही दण्ड कसरत आदि का करना), मन्दामि का होना, निकम्मा बैठे रहना, तथा स्निग्ध (चिकने ) पदार्थों को खाकर दण्ड कसरत करना, इत्यादि कारणों से आम ( कच्चा रस) वायु से प्रेरित होकर कफ के आमाशय आदि स्थानों में जाकर तथा वहा कफ से अत्यन्त ही अपक्क होकर वह आम धमनी नाडियों में प्राप्त हो कर तथा वात पित्त और कफ से दूपित होकर रसवाहिका नाड़ियों के छिद्रो में सञ्चार करता है तथा उन के छिद्रों को बन्द कर भारी कर देता है तथा अग्नि को मन्द और हृदय को अत्यन्त निर्वल कर देता है, यह आमसज्ञक रोग अति दारुण तथा सब रोगों का स्थान माना जाता है। लक्षण-भोजन किये हुए पदार्थ के अजीर्ण से जो रस उत्पन्न होता है वह क्रमरसे इकट्ठा होकर आम कहलाता है, यह आम रस शिर और सब अगों में पीड़ा को उत्पन्न करता है। १-आमवात अर्थात् आम के सहित वायु ॥ २-रसवाहिका नाडियों के अर्थात् जिन में रस का प्रवाह होता है उन नाडियों के ॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० जैनसम्प्रदायशिया ॥ इस राग सामान्य रक्षम म हि -मर बात और कफ याना एक ही समय में कुपित होकर पीड़ा के साथ निकम्मान भौर सन्धिर्मा म मनम अब है कि विस इस मापी पारीर मम्मित (बका गुनासा) हा वासा, इसी राग भाममात प्रते।। का आचार्या ने यह भी कहा है कि-आमवास में भर्गा मा दटना, महरि, पार, भाउम्प, मरीर का मारी रहना, 'बर, अम का न पपना और दर में शून्मता, में सर उक्षण हाद। __ परन्तु जब भामगात भत्यन्त या जाना है तम उस में भी मयफरता हाती हे मात् यदि फी दमा म यह राग मरे गम रोगों की अपक्षा मपिफ करवाया जाता ६का हुप मामबान म-हाय; पर, मम्तफ, पहि विस्थान जानु भोर जपा, इन की सन्धिमा म पीरा युक्त मूजन हाती है, जिस २ म्मान में यह भाम रस पहुँचता हरा २ पियू' कफ लगने के समान पीड़ा होती है। इस राग म-मन्दामि, मुम से पानी का गिरना, भरधि, देह का भारी रहना, समा का नाश, मुम में निरममा, वार, अविक मूय का उतरना, झूम म पटिनसा, शूल, पान म निद्रा का भाना, गनि म निद्रा भ न माना, प्यास, पमन, प्रम (पार), मम (महोत्री), परम में माम दाना, मला भवराव (काना), जाता, माना पन गूंजना, अफरा पा पातजन्य (वायु से उत्पम दानबा) यापर्मज भावि भवा उपद्रवी का होना, इत्यादि तपम हाते। इनफे सिमाय-बादा से उत्पम हुए भामयात में-पूल हातारे, पिस से उसम र मामरात म-माद ओर रसषमता (मफ रंग न होना) हाती। तमाफ से उसन हुए भामबान मं-रफी मारसा (गीता रहना) आती है तथा अत्यन्त सात्र (मुठी) बस्ती। माध्यामाध्य विपार-एपोप का भामनात रोग साध्य (चित्रिमा स प्रार हीरान माग्म), वा दोपी का भामबाट रोग माप्य (उपम मार टीम निस्सिा रन म दूर दाने मोम्म परन्तु उराम भोर भीम चिनिसा न करने स न मिटने याम भवाम् टसाप्म) तमा तीन दा का भामबाट भसाम्प (पिपिरसावारा भी न मिग्न याम्प) साता। पिफिरमा-१-भामबाट राग म-उपन करना अति उत्तम पिचिरसा। 1-0नो भवन सभापमान भिमपान काम -पीपमुलगा 1-रिसा alkपारन भाम भ णपनमा म पाचन माला" Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९१ चतुर्थ अध्याय ॥ २-लंघन के सिवाय-स्वेदन करना ( पसीने लाना), अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले कडुए पदार्थों का खाना, जुलाब लेना, तैल आदि की मालिश कराना और वस्तिकर्म करना (गुदा में पिचकारी लगाना) हितकारक है।। ३-इस रोग में-बाल की पोटली बना कर उसे अग्नि में तपाकर रूक्ष स्वेद करना चाहिये तथा नेहरहित उपनाह (लेप ) भी करना चाहिये। ४-आमवात से व्याप्त और प्यास से पीडित (दु.खित ) रोगी को पञ्चैकोल को डाल कर सिद्ध (तैयार ) किया हुआ जल पीना चाहिये। ___५-सूखी मूली का यूष, अथवा लघु पञ्चमूर्ल का यूप, अथवा पञ्चमूल का रस, अथवा सोंठ का चूर्ण डाल कर काजी लेना चाहिये। . ६-सौवीर नामक काजी में बैगन को उबाल कर अथवा कडुए फलों को उबाल कर लेना चाहिये। ___७-बथुए का शाक तथा अरिष्ट, सांठ (गदहपूर्ना ), परबल, गोखुरू, वरना और करेले, इन का शाक लेना चाहिये। ८-जौ, कोदों, पुराने साठी और शालि चावल, छाछ के साथ सिद्ध किया हुआ कुलथी का यूष, मटर, और चना, ये सब पदार्थ आमवात रोगी के लिये हितकारक है । ___९-चित्रक, कुटकी, हरड, सोंठ, अतीस और गिलोय, इन का चूर्ण गर्म जल के साथ लेने से आमवात रोग नष्ट होता है। १०-कचूर, सोंठ, हरड़, बच, देवदारु और अतीस, इन औषधो का क्वाथ पीने से तथा रूखा भोजन करने से आमवात रोग दूर होता है । ११-इस प्राणी के देह में विचरते हुए आमवातरूपी मस्त गजराज के मारने के लिये एक अडी का तैल ही सिंह के समान है, अर्थात् अकेला अडी का तैल ही इस रोग को शीघ्र ही नष्ट कर देता है। १२-आमवात के रोगी को अंडी के तेल को हरड़ का चूर्ण मिला कर पीना चाहिये। . १३-अमलतास के कोमल पत्तों को सरसो के तेल में भून कर भात में मिला कर खाने से इस रोग में बहुत लाभ होता है । १-तैल की मालिश वातशामक अर्थात् वायु को शान्त करनेवाली है ॥ २-रूक्ष स्वेद अर्थात् शुष्क वस्तु के द्वारा पसीने लाने से और स्नेहरहित (विना चिकनाहटके ) लेप करने से भीतरी आम रस की स्निग्धता मिट कर उस का वेग शान्त होता है । ३-पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक और सोंठ, इन पॉचों का प्रत्येक का एक एक कोल (आठ २ मासे) लेना, इस को पञ्चकोल कहते हैं। ४-शालपर्णी, पृष्टपर्णी, छोटी कटेरी, वडी कटेरी और गोखरू, इन पांचों को लघु पञ्चमूल कहते हे ॥ ५-वेल, गम्भारी, पाडर, अरनी और स्योनाक, इन पाँची वृक्षों की जड़ को पञ्चमूल वा वृहत्पञ्चमूल कहते है ।। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ नसम्प्रदायशिक्षा॥ ११-सौंठ और गोसुरु का काम मात काठ पीने से आमवात और कमर मा (वर्ष) शीघ्र ही मिट बाता है। १५-इस रोग में यदि कटिशूट (कमर में पद) विशेप होठा हो तो सोठ पर गिलोय के काम (काटे ) में पीपल का पूर्ण राव कर पीना चाहिये । १६-गुद्ध (साफ) ही के नीनों को पीस कर दूप में शहर सीर बनाने का इस का सेवन फरे, इस के साने से कमर का दर्द भविवीध मिट माता रे अमोत् कमर के वर्ष में मह परमौर्पधि है। १५-सहर खेद-पास के पिनाले, कुसभी, तिल, जौ, गह परण की या भससी, पुनर्नवा बोर क्षण (सन) के बीज, इन सब को (यदि ये सप पवा न मा तो ओ २ मिल सकें उन्हीं को लेना पाहिसे) लेकर झट कर तथा काँबी में मिगार दो पोटम्मिा बनानी चाहिये, फिर प्रमेम्ति पूस्हे पर कांनी से मरी हुई होड़ी को रत कर उस पर एक छेदमासे सकोरे को दासदे तथा उस की सन्धि को बंद कर दे तमा सफोरे पर दोनों पोटरियों को रस थे, उन में से जो एक पोटगी गर्म हो मापे उससे पर नीष भाग में, पेट, शिरसे, दाम, पैर, मगुलि, एडी, भे भोर कमर, त सम भंगों में सेफ करे समा मिन २ स्थानों में दर्द हो यहां २ सेक करे, इस पोटम खीत हो जाने पर उसे सकोरे पर रस दे तमा दूसरी गर्म पोटगी को उठाकर सा करे', इस प्रकार करने से सामनात (भाम के सहित वादी) की पीड़ा सीन । शान्त हो चावी है। १८-महारालादि काप-राखा, भर की अर, भासा, पमासा, कपूर, देयक सिरेटी, नागरमोबा, सोठ, भतीस, हरस, गोस्लुरू, भमम्तास, कसौली, पनिर्मा, पुनन असगन्म, गिोय, पीपल, विषायरा, शतावर, बन, पियानासा, पन्य, सभा पोना (मा बही) कटेरी, ये सब समान माग सेये परन्तु राणा की मात्रा तिगुनी मेये, इन सब । भावक्षेप (नस का माठमां हिस्सा क्षेप रखकर ) मा पना कर सका उस में साठ.. पूर्ण गर कर पीने, इसके सेवन से पादी के सम वोप, सामरोगे, पापात, भारत 1-परमोपरि मात् सर से उत्तम मोपभि । २-प्रगति पर्वत बम्व हुए ॥ -बिभर्षद पदार -घरम पमै पोरसी से करवा चार प्रपा मोरं पोरी ममै करम सरे पर रखता जाये। ५-मनमर्गत एरण पा भन्म प्रमा -प्रमरोप मात भाम (मास) परिव रोय । -बापत मादि ष वावग . Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५९३ कम्प, कुब्ज, सन्धिगत वात, जानु जंघा तथा हाडो की पीड़ा, गृध्रसी, हनुग्रह, ऊरुस्तम्भ, वातरक्त, विश्वाची, कोटुशीर्षक, हृदय के रोग, बवासीर, योनि और शुक्र के रोग तथा स्त्री के बंध्यापन के रोग, ये सब नष्ट होते है, यह काथ स्त्रियों को गर्भप्रदान करने में भी अद्वितीय (अपूर्व ) है । ये सव १९ - रास्नापञ्चक — राखा, गिलोय, अड की जड, देवदारु और सोंठ, औषध मिलाकर एक तोला लेवे, इस का पावभर जल में क्वाथ चढ़ावे, जब एक छटांक जल शेष रहे तब इसे उतार कर छान कर पीवे, इस के पीने से सन्धिगत वात, अस्थिगत वात, मज्जाश्रित वात तथा सर्वागगत आमवात, ये सब रोग शीघ्र ही दूर हो जाते है । २० - रास्नासप्तक --- राखा, गिलोय, अमलतास, देवदारु, गोखुरू, अड की जड़ और पुनर्नवा, ये सब मिला कर एक तोला लेकर पावभर जल में क्वाथ करे, जब छटाक भर जल शेष रहे तब उतार कर तथा उस में छः मासे सोंठ का चूर्ण डाल कर पीवे, इस काथ के पीने से जघा, ऊरु, पसवाडा, त्रिक और पीठ की पीडा शीघ्र ही दूर हो जाती है । २१- इस रोग में- दशमूल के काथ में पीपल के चूर्ण को डालकर पीना चाहिये । २२- हरड और सोंठ, अथवा गिलोय और सोंठ का सेवन करने से लाभ होता है । २३- चित्रक, इन्द्रजौ, पाढ, कुटकी, अतीस और हरड़, इन का चूर्ण गर्म जल के साथ पीने से आमाशय से उठा हुआ वातरोग शान्त हो जाता है । L २४ - अजमोद, काली मिर्च, पीपल, बायविडंग, देवदारु, चित्रक, सतावर, सेंधा निमक और पीपरामूल, ये सब प्रत्येक चार २ तोले, सोंठ दश पल, विधायरे के वीज दश पल और हरड़ पाच, पल, इन सब को मिलाकर चूर्ण कर लेना चाहिये, पीछे सब औषधों के समान गुड़ मिला कर गोलिया बना लेना चाहिये अर्थात् प्रथम गुड़ में थोड़ा सा जल डाल कर अभिपर रखना चाहिये जब वह पतला हो जावे तब उस में चूर्ण डालकर गोलिया बाँध लेनी चौहियें, इन गोलियों के सेवन से आमवात के सब रोग, विषूचिका (हैजा ), प्रतूनी, हृद्रोग, गृध्रसी, कमर, बस्ती और गुदा की फूटन, फूटन, सूजन, देहसन्धि के रोग और वातजन्य सब रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते है, ये गोलियों क्षुधा को लगानेवाली, आरोग्यकर्ता, यौवन को स्थिर करनेवाली, वली और पलित (बालों की श्वेतता ) का नाश करनेवाली तथा अन्य भी अनेक गुणों की करनेवाली है । हड्डी और जङ्घा की १- अर्थात् मिश्रित सातों पदार्थों की मात्रा एक तोला लेकर ॥ २-गुड के योग के विना यदि केवल यह चूर्ण ही गर्म जल के साथ छ मासे लिया जावे तो भी बहुत करता है | ७५ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदाममिक्षा । २५-आमगाठरोग में-पप्मादि गगुले समा योगराज गृगुस सेवन करना अति गुम पर माना गया है। २१-शुण्ठीम्बर (साटपा)-सतको सोट ३२ वाले, गाम मपी पारमर, प पार सेर, पीनी मांर २०० तार (दाइ मेर), सौट, मिप, पीपक, दाउमीनी, पार भोर इसमची, में सन प्रस्पेठ चार २ तोले छना चाहिये, प्रथम सांट के पूर्ण ग्रेन में सान कर दूध में पकाकर सोपा (मावा) र लेना चाहिय, फिर माह की पासनी र उस में इस साये को कर उमा मिलाकर पन्दे से नीचे उतार लना चाहिय, प्रेम उस में प्रिकटा और प्रिनौतम पूण गाउपर पाफ बमा दना पाहिम, पीठ इन में से पक टकेमर अषमा ममि के बलावल न पिपार कर उपित मात्रा का संगन पर चाहिय, इस के सेवन से भामगात रोग नए हाता, पान (रस और रफ भाति) हात ६,शरीर में कि टस्सम दोठी, भापु और भात्र की पदि हाती देसमा पनि का पाना सभा मार्ग का अंत सेना मिटता है। २७-मेधी पाक-मानामरी पाठ टोमर (भाट पर) और सठि भाठ के पर, इन दोन कोट कर कपड़छान पूर्ण कर लेना चाहिये, इस पूण ने माठ कर पी में सान फर मार सेर दूप में बाल मोपा मनाना पाहिस, फिर भाठ सेर सार पासनी में इस साचे फो राक कर मिठा देना चाहिये, परन्तु पासनीक छ नरम रमना पाहिये, पीछे पूस्ते पर से नीचे उतार कर उस में काली मिर्च, पीपल, मात्र पीपरामूड, चिप्रक, भजनामन, जीरा, धनियां, फलोबी, साफ, जायफल, पूर, दालचीन, वेजपात भोर मद्रमोमा, इन सबका प्रस्मेफन पक पक टन भर लेकर काजल पूणर उस पारी पामनी में मिग देना चाहिय तमा रम२ भरी जम भषा सपना ने पाहिसे, इन पमिरे पगमक प्रपिचार र साना पाहिला पन गरन से मामगास, वादी सब राग, पिपम ज्यर, पामराग, प्रमठा, उन्मार (हिटीरिया), भपम्मार (मृगी राग), प्रमा, पावरफ, भम्पपिण, रमपिण, प्रीतपिथ, मममीरा, नेप्रराग भार प्रदर, ये सब रोग मादा जान, देश में पुरता होती रस्त पर भोर बीप की दिदाती। - - - १-पम्पारगुजारामतर्गत पगी कविधिमा मा पामार मास काप पारामिना में मार रिम मार सय साने पर मेल + भारिपपिपनी मालि - जिरेस मामि दान भसम + AL गरा मोर मा. 1- A ND - मी मरमान pि4मीले Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५९५ २८-लहसुन १०० टकेभर, काले तिल पावभर, हींग, त्रिकुटा, सज्जीखार, जवाखार पाचो निर्मक, सौंफ, हलदी, कूठ, पीपरामूल, चित्रक, अजमोदा, अजवायन और धनिया, ये सब प्रत्येक एक एक टकाभर लेकर इन का चूर्ण कर लेना चाहिये तथा इस चूर्ण को घी के पात्र में भर के रख देना चाहिये, १६ दिन बीत जाने के बाद उस में आध सेर कडुआ तेल मिला देना चाहिये तथा आधसेर कांजी मिला देना चाहिये, फिर इस में से एक तोले भर नित्य खाना चाहिये तथा इस के ऊपर से जल पीना चाहिये, इस के सेवन से आमवात, रक्तवात, सौगंवात, एकागवात, अपस्मार, मन्दाग्नि, श्वास, खांसी, विष, उन्माद, वातभम और शूल, ये सब रोग नष्ट हो जाते हैं। २९-लहसुन का रस एक तोला तथा गाय का घी एक तोला, इन दोनों को मिला कर पीना चाहिये, इस के पीने से आमवात रोग अवश्य नष्ट हो जाता है । . ३०-सामान्य वातव्याधि की चिकित्सा में जो ग्रन्थान्तरों में रसोनाष्टक औषध लिखा है वह भी इस रोग में अत्यन्त हितकारक है। ३१-लेप-सोंफ, वच, सोंठ, गोखुरू, वरना की छाल, पुनर्नवा, देवदारु, कचूर, गोरखमुंडी, प्रसारणी, अरनी और मैनफल, इन सब औषधों को काजी अथवा सिरके में वारीक पीस कर गर्म २ लेप करना चाहिये, इस से आमवात नष्ट होता है। ___३२-कलहीस, केवुक की जड, सहजना और बमई की मिट्टी, इन सब को गोमूत्र में पीसकर गाढ़ा २ लेप करने से आमवात रोग मिट जाता है। ३३-चित्रक, कुटकी, पाढ, इन्द्रजौ, अतीस, गिलोय, देवदारु, बच मोथा, सौंठ और हरड, इन ओषधियों का काथ पीने से आमवात रोग शान्त हो जाता है। ३४-कचूर, सोंठ, हरड, वच, देवदारु, अतीस और गिलोय, इन ओषधियों का काथ आम को पचाता है परन्तु इस वाथ के पीने के समय रूखा भोजन करना चाहिये । __३५-पुनर्नवा, कटेरी, मरुआ, मूर्वा और सहजना, ये सब ओषधिया क्रम से एक, दो, तीन, चार तथा पाच भाग लेनी चाहिये तथा इन का काथ बना कर पीना चाहिये, इस के पीने से आमवात रोग शान्त हो जाता है । १-त्रिकुटा अर्थात् सोंठ, मिर्च और पीपल ॥ २-पाँची निमक अर्थात् संधानिमक, सौवर्चलनिमक, कालानिमक, सामुद्रनिमक और औद्भिदनिमक ॥ ३-कधुआ तेल अर्थात् सरसों का तेल ॥ ४-सर्वागवात अर्थात् सव अंगो की वादी और एकानवात अर्थात् किसी एक अग की वादी ॥ ५-अपस्मार अर्थात् मृगीरोग ॥ ६-इसे मापा में पसरन कहते है, यह एक प्रसर जाति की (फैलनेवाली ) वनस्पति होती है । ७-इसे हिन्दी में केउऑ भी कहते हैं ।। ८-वमई को सस्कृत मे वल्मीक कहते हैं, यह एक मिट्टी का ढीला होता है जिसे पुत्तिका ( कीटविशेष) इकट्ठा करती है, इसे भाषा में वमोटा भी कहते हैं। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ जैनसम्पदामशिक्षा || ३६ - आमपात से पीड़ित रोगी को गूम के साथ अंडी का तेल फिला कर रेचन (जुलाब) फराना चाहिये । ३७- गोमूत्र के साथ में सांठ, हर और गूगुरू को पीने से यह रोग मिट जाता है। २८ - साठ, एरह और गिलोय, इन के गग २ काथ को गूगल डाल कर पीने से फमर, बांध, उरु और पीठ की पीड़ा श्रीम ही दूर हो जाती है । ३० - हिंग्वादि चूर्ण- दींग, चम्म, विष्ट निमक, राठि, पीपल, जीरा भार पुहकर गूल, ये सभ आधियम स अधिक भाग लेनी चाहियें', इन का पूर्ण गर्म जस साथ देने से आमपात और उस के विकार दूर हो जाते हैं । २०- पिप्पल्यादि चूर्ण पीपल, पीपलामूल, सैंधा निमक, काला जीरा, धम्म, चित्रफ, पाळीसपत्र और नागकेसर, मे सम मत्थका २ पल, काला निमफ ५ प फाली मिर्च, जीरा और सोंठ, मरयेक एक एफ पल, अनारदाना पाय भर भोर म रूपेव वो पल, सब को फूट फर चूर्ण बना लेना चाहिये, इरा का गर्म जल के साथ सेवन फरने से दी है, बवासीर, ग्रहणी, गोमा, उदररोग, भगन्दर, मिरोग, सुजली और अरुचि, इन सम का नाश होता है । धीर्मा को समान भाग कांजी के साथ पीने से ४१ पन्यादि चूर्ण-हरह, साँठ और अजवायन, इन छेफर घूर्ण करना चाहिये, इस भूजे को छाछ, गर्ग जल, भपा भागपाठ, सूजन, गन्दामि, पीनरा, सांसी, पदमरोग, सरंभव और भरुनि, इन राब रोमों का नाच होता दे । ३२- रसोनादि फाथ – लहसुन, सांठ और निगुण्डी, शन का काम भाम को श्रीमदी नए फरता है, यह सर्वाम भोप दे | ४३ - शय्यादि फाध-धी (कपूर) भोर ग मिलाकर सात दिन तक पीना चाहिम इस के हो जाता है । सांट, इन के फरक को सांठ के पीने से आमपास रोग पनाह 6- पुनर्नयादि चूर्ण-पुनीषा, गिलाम, खांठ, राजापर, विधामरा, फपूर भोर गोरखमुण्डी, इन का पूर्ण यमा कर फौजी से पीमा घाटिये, इसके पीने से भामाश १- एक भाव, धन्य भाग बनीन भागोबा भाग, वनपा श्री छः भाग और करगुल प्रात भाग मन -विवारचात् आमवारा कोष और आदि विकार -रमेव भाषा का बहना ॥ षा की बड़ी गारण्डी भी प्रवरा कीर्ण होती है वह अमीन तथा समान स्थान बहुत होती है ॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५९७ ( होजरी ) की वादी दूर होती है तथा गर्म जल के साथ लेने से आमवात और गृधेसी रोग दूर हो जाते है । ४५-घी, तेल, गुड, सिरका और सोंठ, इन पाचों को मिला कर पीने से तत्काल देह की तृप्ति होती है तथा कमर की पीड़ा दूर होती है, निराम ( आमरहित) कमर की पीडा को दूर करनेवाला इस के समान दूसरा कोई प्रयोग नहीं है । ४६ - सिरस के बक्कल को गाय के मूत्र मे भिगा देना चाहिये, सात दिन के बाद निकाल कर हींग, बच, सोंफ और सेंधा निमक, इन को पीस कर पुटपाक करके उस का सेवन करना चाहिये, इस का सेवन करने से दारुण ( घोर ) कमर की पीडा, आमवृद्धि, वृद्धि के सब रोग तथा वादी के सब रोग दूर हो जाते हैं । ४७- अमृतादि चूर्ण — गिलोय, सोंठ, गोखुरू, गोरखमुंडी और वरैना की छाल, इन के चूर्ण को दही के जल अथवा काजी के साथ लेने से सामवात ( आम के सहित वादी) का शीघ्र ही नाश होता है । ४८ - अलम्बुषादि चूर्ण-- अलम्बुषा ( लजालू का भेद ), गोखरू, त्रिफला, सोठ और गिलोय, ये सब क्रम से अधिक भाग लेकर चूर्ण करे तथा इन सब के बरावर निसोत का चूर्ण मिलावे, इस में से एक तोले चूर्ण को छाछ का जल, छाछ, काजी, अथवा गर्म जल के साथ लेने से आमवात, सूजन के सहित वातरक्त, त्रिक, जॉनु, ऊरु और सन्धियों की पीड़ा, ज्वर और अरुचि, ये सब रोग मिट जाते है तथा यह अलम्बुषादि चूर्ण सर्वरोगो का नाशक है । ४९ - अलम्बुषा, गोखुरू, वरना की जड, गिलोय और सोठ, इन सब औषधियो को समान भाग लेकर इन का चूर्ण करे, इस में से एक तोले चूर्ण को काजी के साथ लेने से आमबात की पीड़ा अति शीघ्र दूर हो जाती है अर्थात् आमवात की वृद्धि में यह चूर्ण अमृत के समान गुणकारी ( फायदेमन्द ) है 1 १० - दूसरा अलम्बुषादि चूर्ण - अलम्बुषा, गोखरू, गिलोय, विधायरा, पीपल, निसोत, नागरमोथा, वरना की छाल, साठ, त्रिफला और सोंठ, इन सब ओषधियों को १ - यह रोग वातजन्य है ॥ २-अर्थात् आमरहित ( विना आम की ) यानी केवल वादी की पीडा शीघ्र ही इस प्रयोग से दूर हो नाती है ॥ 2- वरना को संस्कृत में वरुण तथा वरण भी कहते हैं ॥ ४-क्रम से अधिक भाग लेकर अर्थात् अलम्बुषा एक भाग, गोखुरू दो भाग, त्रिफला तीन भाग, सौठ चार भाग और गिलोय पाँच भाग लेकर ॥ ५- जानु अर्थात् घुटने ॥ ६- साठ अर्थात् लाल पुनर्नवा, इस (पुनर्नवा ) के बहुत से भेद है, जैसे- वेत पुनर्नवा, इसे हिन्दी में विपखपरा कहते हैं तथा नीली पुनर्नवा, इसे हिन्दी में नीली साठ कहते है, इत्यादि ॥ ७- त्रिफला अर्थात् हरड बहेडा और ऑवला, ये तीनों समान भाग वा क्रम से अधिक भाग ॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ पनाना चाहिए, इस गमान भाग साल धूण का दर्द का कोनी, छाछ भभवा दूध के साथ उन चाहिय, इस का मंचन फान भामान, सूजन भोर भिमाद, य राग प्रान्त हा नावे ई । ०१-६श्वानर पूर्ण-गंधा नमक या सामान या मात्र अजमा तीन मान, सॉट पांच वाल और बारह ताल, इन राप आपका पारीक क दान छ, पत्री, भी और गम जन, इन में साहे जिस पदायक माग उनलाइ सेवन से नामबान, गुरूम, भारती राग, विशी, मोट शुक, अफग, गुदा राग, निप भोर उदर के सत्र राग भीम ही प्रान्त हा नाम दें भामभावायु (अपानवायु) का अनुसामन (नीच का गमन ) दाता है । 1 ७२- मसीतकादि चूर्णकाम, पीपक, गिलोय, निमोध, बाराहीन्द्र, ग (माक का मेर ) और गोठ, इन सब माधियों का समान भाग कर चूल कर तथा इसका गर्म, मोड़, यूप, छाछ और दही का जल, इन में से किसी एक के माग नाक, गृमग्री, सपात, विश्वाची, सूनी, मनूनी, जंपा के राज, आमगाव, भर्दिन (का), मातरह, कमर की पीड़ा, गुरुम (गोडा ), गुत के रोम प्र रोग, पाण्डुरोग, सूजन सभा का सत्र रोग मिट जाते है । ५३- शुण्ठीपान्यकत-साठ का चूर्ण छ दा टकमर, इनमें भोगुना काम पर एक सैर भी का परिएक करना (पाना) चाहिय, यहया के राग का दूर है, अमिका माता दे तथा गमासी श्राम और योगी का नष्ट करभरण का उत्पाता है। टफे भर ( छ: पक) तथा भनिन् नापाि ॥ २- शुण्ठीत यदि मनाना हा या गावर क एक साथ भी का पाना भादियमा यदि भमिरीपन छाछ के साथ भी का पकाना चाहिम, इसी कार का मागुनी फनी का डालकर सिद्ध करना चाहिम, मद पुत्र अमिकारक व्रमा नामगाव एकता है । कर तथा ५' - दूसरा शुण्ठी और १- गुम्म भो वा नई -नवा मीरादिका ॥ भगवान राम है - ६- ॥ ततका विद वही, गामून भोर सिप मनाना एफसर श्र्व और चार Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतु अध्याय ॥ ५९९ सेर जल से अथवा केवल उक्त क्वाथ और कल्क से ही घृत को सिद्ध करना चाहिये, यह शुण्ठीघृत वातकफ को शान्त करता है, अग्नि को प्रदीप्त करता है तथा कमर की पीड़ा और आम को नष्ट करता है । ५६ - कांजिकादिघृत- हींग, त्रिकुटा, चव्य और सैंधा निमक, इन सब को प्रत्येक को चार २ तोले लेवे तथा कल्क कर इस में एक सेर वृत और चार सेर काजी को डाल कर पचावे, यह कांजिकघृते उदररोग, शूल, विबन्ध, अफरा, आमवात, कमर की पीड़ा और ग्रहणी को दूर करता है तथा अग्नि को प्रदीप्त करता है । ५७ - शृङ्गवेरादिघृत - अदरख, जवाखार, पीपल और पीपरामूल, इन को चार २ तोले लेकर कल्क करे, इस में एक सेर घृत को तथा चार सेर काजी को डाल कर पकावे, यह घृत विबन्ध, अफरा, शूल, आमवात, कमर की पीडा और ग्रहणी को दूर करता है तथा नष्ट हुई अग्नि को पुनः उत्पन्न करता है । ५८ - प्रसारणीलेह - प्रसारणी ( खीप ) के चार सेर क्वाथ में एक सेर घृत डाल कर तथा सोंठ, मिर्च, पीपल और पीपरामूल, इन को चार २ तोले लेकर तथा कल्क बना कर उस में डाल कर वृत को सिद्ध करे, यह घृत आमवात रोग को दूर कर देता है । ५९ - प्रसारणीतैल- प्रसारणी के रस में अडी के तेल को सिद्ध कर लेना चाहिये तथा इस तेल को पीना चाहिये, यह तेल सब दोषों को तथा कफ के रोगों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है । ६० - द्विपञ्चमूल्यादितैल - दशमूले का गोंद, फल, दही और खट्टी कांजी, इन के साथ तेल को पकाकर सिद्ध कर लेना चाहिये, यह तैल कमर की पीड़ा, ऊरुओं की पीड़ा, कफवात के रोग और बालग्रह, इन को दूर करता है तथा इस तेल की वस्ति करने से (पिचकारी लगाने से ) अग्नि प्रदीप्त होती है । ६१- आमवातारिरस — पारा एक तोला, गन्धक दो तोले, हरड तीन तोले, आँवला चार तोले, बहेड़े पाच तोले, चीते ( चित्रक ) की छाल छः तोले और सात तोले, इन सब का उत्तम चूर्ण करे, इस में अडी का तेल मिलाकर पीवे, इस से गूगुल आमवात रोग शान्त हो जाता है, परन्तु इस औषधि के ऊपर दूध का पीना तथा मूग के पदार्थों का खाना वर्जित ( मना ) है 1 १–त्रिकुटा अर्थात् सोंठ, मिर्च और पीपल, इसे त्रिकटु भी कहते हैं ॥ २ - कॉजी में सिद्ध होने कारण इस घृत को काजिक घृत कहते हैं ॥ ३- अर्थात् अभि की मन्दता को मिटाता है ॥ ४ - इसे पसरन भी कहते हैं जैसा कि पहिले लिख चुके हैं ॥ ५- वेल, गॅभारी, पाडर, अरनी और स्योनाक, यह वृहत्पश्ञ्चमूल तथा शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी और गोखुरू, यह लघुपबमूल, ये दोनों मिलकर दशमूल कहा जाता है ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जनसम्प्रदायधिशा ॥ पथ्यापथ्य--इस रोग म दही, गुरु, दूध, पार फा साग, उद तथा पिसाब अप्न (चून भोर मेदा मादि), इन पनामा को त्याग देना चाहिम अर्थात् ये पदार्थ इस रोग म अपथ्य है, इन फे सिपाय जो पनाथ अभिप्यन्दी (वेद के छिद्रपद रन घास), भारी तथा मगर फे समान गिठगिठे है उन सब का भी त्याग पर दना चाहिय । उन्माद अर्थात् हिष्टीरिया ( Iysteria ) रोग का वणन ॥ लक्षण–पयपि इस राग म यिपिष प्रकार के (अनेक तरह) सते ।। अपाम् पेस पाव पारदी रोग हांगे कि जिन फे पिड इस (हिपीरिमा रोग) में न हार हो सधापि इस का मुम्प पिद भनवान है। नरिवरियापी भाति या बगा नाता मत प्रिम प्राप र पहुन ग मार भगान राम मा (भ ) म म ममम मून या माग मान तयार पाम् पत्तमान में परणामामा-पपा गम लियो दानाम रंगना भार ना भारि मौको पर प्रिया प्रमती गगमम हमारे भार धीमान 4 गाधारण म राम भार रगतुन जान पर भूत भारि पापा मम मेरमा GET यत्र मन भारा प्रपन्य भारि बनाने में भी पा नही रपार पर गरम पारसग सग भी पनापन जारभपमा मवमय गान में भी काम र प्रमा यत्र मन्त्र भराडार भरा मHI MIR Kाव उमा का भारभार पाव। परन्तु पी10 प्रम मारा दिमाम्पी भूत मिसौरीपना भाशिरभर परनाम (मोना) arti गबली पनप मम म पर पछतादभार बागमा म प म प्रमा पारकर भारसमा रमप्राप्त जाना। बिस वापस भर ur at भार भाषणापण र पिया की उपासना ।। भवान् भून प्रत पारिश्रम (बाम) मारी थी भीर मरीभार " प्रमन रमा भारिपामोदरम नामान पाश्रम र यमानाय " भार माठ गमन मार विमानन सामा पाय प. प्रमापार ( सर) प्राम (44) में बन पहमी बने पर भी नाम ' पना ग म पनीसमभ- भूत प्रभार भ RA (परम) मात्र पापा का भाप भी अपनी परने पानपान पूरानो सपनो की मिना मगन BITHर-विमामा मापामा पप 1 ममा नायरा भार नपान र म बाप माननपा पार पाना मगमगों परम पद को भग 11 पनों 40 मानना ना भ र माग्नमा महाबर ५ (1 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ चतुर्थ अध्याय ।। यह खैचतान निद्रावस्था (नीद की हालत ) और एकाकी ( अकेले ) होने के समय में नहीं होती है किन्तु जब रोगी के पास दूसरे लोग होते है तब ही होती है तथा एकाएक (अचानक ) न होकर धीरे २ होती हुई मालूम पडती है, रोगी पहिले हँसता है, बकता है, पीछे डसके भरता है और उस समय उस के गोला भी ऊपर को चढ़ जाता है, खैचतान के समय यद्यपि असावधानता मालूम होती है परन्तु वह प्राय अन्त में मिट जाती है । महात्मा, परोपकारी (दूसरो का उपकार करनेवाले ) और सत्यवादी (रात्य बोलनेवाले) थे तथा उन का वचन इस भव (लोक) और पर भव ( दूसरा लोक) दोनों में हितकारी (भलाई करनेवाला) है, इसी लिये हम ने भी इस ग्रन्य में उन्ही महात्माओ के वचनों को अनेक शास्त्रों से लेकर सग्रहीत (इकट्ठा) किया है, किन्तु जिन लोगो ने उक्त महात्माओं के वचनों को नहीं माना, वे अविद्या के उपासक समझे गये और उसी के प्रसाद से वे धर्म को अधर्म, सत्य को असत्य, असत्य को सत्य, शुद्ध को अशुद्ध, अशुद्ध को शुद्ध, जड को चेतन, चेतन को जड तथा अधर्म को धर्म समझने लगे, वस उन्हीं लोगों के प्रताप से आज इस पवित्र गृहस्थाश्रम की यह दुर्दशा हो रही है और होती जाती है तथा इस आश्रम की यह दुर्दशा होने से इस के आश्रयीभूत (सहारा लेनेवाले) शेप तीनों आश्रमो की दुर्दशा होने मे आश्चर्य ही क्या है ? क्योंकि-"जैसा आहार, वैसा उद्गार" वस-हमारे इस पूर्वोक्त (पहिले कहे हुए) वचन पर थोडा सा ध्यान दो तो हमारे कयन का आशय (मतलव ) तुम्हें अच्छे प्रकार से मालूम हो जावेगा। (प्रश्न ) आपने भूत प्रेत आदि का केवल वह्म बतलाया है, सो क्या भूत प्रेत आदि है ही नहीं ? (उत्तर) हमारा यह कथन नहीं है कि-भूत प्रेत आदि कोई पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि हम सव ही लोग शास्त्रानुसार खर्ग और नरक आदि सव व्यवहारो के माननेवाले हे अत हम भूत प्रेत आदि भी सब कुछ मानते हैं, क्योंकि जीवविचार आदि ग्रन्थों में व्यन्तर के आठ भेद कहे हे-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किनर, किम्पुरुप, महोरग और गन्धर्व, इस लिये हम उन सब को यथावत् (ज्यों का त्यों) मानते हैं, इस लिये हमारा कथन यह नहीं है कि भूत प्रेत आदि कोई पदार्य नहीं है किन्तु हमारे कहने का मतलब यह है कि-गृहस्थ लोग रोग के समय में जो भूत प्रेत आदि के वहम मे फंस जाते हैं सो यह उन की मूर्खता है, क्योंकि-देखो! ऊपर लिसे हुए जो पिशाच आदि देव है वे प्रत्येक मनुष्य के शरीर मे नहीं आते हैं, हां यह दूसरी बात है कि पूर्व भव (पूर्व जन्म ) का कोई वैरानुवन्ध (वैर का सम्बध ) हो जाने से ऐसा हो जावे ( किसी के शरीर मे पिशाचादि प्रवेश करे ) परन्तु इस बात की तो परीक्षा भी हो सकती है अर्थात् शरीर में पिशाचादि का प्रवेश है वा नहीं है इस वात की परीक्षा को तुम सहज मे थोडी देर में ही कर सकते हो, देखो ! जब किसी के शरीर मे तुम को भूत प्रेत आदि की सम्भावना हो तो तुम किसी छोटी सी चीज को हाथ की मुट्ठी में वन्द करके उस से पूछो कि हमारी मुट्ठी में क्या चीज है ? यदि वह उस चीज को ठीक २ वतला दे तो पुन भी दो तीन वार दूसरी २ चीजो को लेकर पूछो, जव कई वार ठीक २ सव वस्तुओं को बतला दे तो वेशक शरीर मे भूत प्रेत आदि का प्रवेश समझना चाहिये, यही परीक्षा भैरू जी तथा मावळ्या जी आदि के भोपों पर ( जिन पर भैरू जी आदि की छाया का आना माना जाता है ) भी हो सकती है, अर्थात् वे (भोपे ) भी यदि वस्तु को ठीक २ वतला देवे तो अलवत्तह उक्त देवों की छाया उन के शरीर मे समझनी चाहिये, परन्तु यदि मुट्ठी की चीज को न वतला सकें तो Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जैनसम्प्रदायशिक्षा कभी २ भचतान थोड़ी और कभी २ अधिक होती है, रोगी अपने हाथ पैरों मे फैला दे तथा पछाई गारता है, रोगी के दात चँ जाते हैं परन्तु माय जीभ नहीं राती है और न गुम से फेन गिरता है, रोगी का दम घुटता है, वह अपना वोड़ता है, कपड़ों को फाड़ता है तथा छड़ना मारम्भ करता है । बा तुमको पर हुए दोनों धमकाना पाहिले ( मन ) महाक्षम 1 इग में आप की कसम को तो कभी किया कि यह बात भाग इसको मादी नहीं भी, परन्तु हम न भू निमल को अपनी भौर्याय (पक्ष) बाद, आता हूँ, गुनियरी श्रीकरी में मदीने में का धीन बार भूानी आया की घी में में बहुत उ छाड़ा पाकर या आदि करपान तथा उनके कहने के भनु तर बहुत यह भीगने किया परन्तु कुछ भी हुआ, आकार शाषा बनवासा एक उधार गिम्म, उस ने भूविनी को रियाल मा एषा जरा निकला परन्तु तुम से एक थी एक कामे ने उ पाव को स्वीकार कर लिया पीछे सलवार के दिन धामको महभर पाग भागा और गु मागम का आपा धीर (पस्या) भंगगामा और उप (1) मकर भरी श्री के हाथ में उले रिया भर लोगान की धूप बंधा रहा पीछ मन्त्र पढ़ कर बात की उस ने मारी और मेरी श्री में तुम्हें कुछ पीता मेरी श्रीनसभा धरण अब कुछ सही कहा तब मैं ने उन उप प्राधाद भूतनी ही पड़ा सुनको भा भीर भूतनी निकम पर पीछ जय पदो के अनुसार मैनएको एक उसने एक यन्त्र भी बना कर मेरी कदर पापा एक महीने तक मेरी श्री अच्छी रही पर पे जा का के समान ) हो गई पहने बाकी भीभरिका भो नहीं मा १ (उचर ) तुम बधाई उसको की काम माम नहीं देनेवाले માઈગ્રંથી ( વર્લ્ડ ( નો {x race કોં 4 nu મેં જમી ની આ વો ર્ ી વન પ્રય ही सात्यकि तुम्हारे 43 सोपे जाते तुम स्प्रे ( श्री वृद्धि) भारि उत्तम काम के पिन का भी माने तो तुम कभी नहीं पाकी बस कायम तुम हो कि उड़ा देनेवाल धारामा प्रथम हम तुमसे ने પ્રથમ બંને નિમય ર માં જ ૬ માની પ્ર પણ હું મીસ તુમ ન કરો. હની મૂર્વ रहीम का वह निकाहुए मूर्तिमान पवित्र बेडर भी वह पार्थ जाना जाता है विना भूतनी માની જ પડે ધ નિષદ દર હે મુતરી મામા નતુ તો આ ગ ૨}(sa) 4 ન भूतनी का जब को पूरी भारी नहीं दीन राम में भा गया ह दिया सकते परंतु राप्रपा ( क Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ '६०३ जब खैचतान बन्द होने को होती है उस समय जम्मा (जुभाइयों वा उवासियों) अथवा डकारें आती है, इस समय भी रोगी रोता है, हॅसता है अथवा पागलपन को प्रकट (जाहिर) करता है तथा वारवार पेशाव करने के लिये जाता है और पेशाव उतरती भी बहुत है। कागज मे आ गया इस से यह ठीक निश्चय होता है कि वह विद्या मे पूरा उस्ताद था और जव उस की उस्तादी का निश्चय हो गया तो उस के कथनानुसार कागज मे भूतनी के चेहरे का भी विश्वास करना ही पड़ता है। (उत्तर) उस ने जो तुम को कागज मे साक्षात् चेहरा दिखला दिया वह उस का विद्या का वल नहीं किन्तु केवल उस की चालाकी थी, तुम उस चालाकी को जो विद्या का वल समझते हो यह तुम्हारी विलकुल अज्ञानता तया पदार्थविद्यानभिज्ञता (पदार्थविद्या को न जानना) है, देखो ! विना लिखे कागज में चित्र का दिसला देना यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पदार्थविद्या के द्वारा अनेक प्रकार के अद्भुत (विचित्र ) कार्य दिखलाये जा सकते हैं, उन के यथार्थ तत्त्व को न समझ कर भूत प्रेत आदि का निश्चय कर लेना अत्यन्त मूर्खता है, इन के सिवाय इस वात का जान लेना भी आवश्यक (जरूरी ) है कि उन्माद आदि कई रोगों का विशेष सम्बध मन के साथ है, इस लिये कभी २ वे महीने दो महीने तक नहीं भी होते हैं तथा कभी २ जब मन और तरफ को झुक जाता है अथवा मन की आशा पूर्ण हो जाती है तव विलकुल ही देखने में नहीं आते हैं। उन्माद रोग में रोना वकना आदि लक्षण मन के सम्बव से होते हैं परन्तु मूर्ख जन उन्हें देख कर भूत और भूतनी को समझ लेते हैं, यह भ्रम वर्तमान में प्राय देखा जाता है, इस का हेतु केवल कुसस्कार (बुरा सस्कार ) ही है, देखो! जब कोई छोटा वालक रोता है तव उस की माता कहती है कि-"हौआ आया" इस को सुन कर वालक चुप हो जाता है, वस उस बालक के हृदय में उसी हौए का सस्कार जम जाता है और वह आजन्म (जन्मभर) नहीं निकलता है, प्रिय वाचकन्द ! विचारो तो सही कि वह होआ क्या चीज है, कुछ भी नहीं, परन्तु उस अभावरूप हौए का भी बुरा असर वालक के कोमल हृदय पर कैसा पडता है कि वह जन्मभर नहीं जाता है, देखो! हमारे देशी भाइयों में से बहुत से लोग रात्रि के समय में दूसरे ग्राम मे वा किसी दूसरी जगह अकेले जाने में डरते हैं, इस का क्या कारण है, केवल यही कारण है कि-अज्ञान माता ने बालकपन में उन के हृदय मे हौआ का भय और उस का बुरा सस्कार स्थापित कर दिया है।। यह कुसस्कार विद्या से रहित मारवाड आदि अनेक देशों में तो अधिक देखा ही जाता है परन्तु गुजरात आदि जो कि पठित देश कहलाते हैं वे भी इस के भी दो पैर आगे वढे हुए हैं, इस का कारण स्त्रीवर्ग की अज्ञानता के सिवाय और कुछ नहीं है । यद्यपि इस विषय में यहा पर हम को अनेक अद्भुत वातें भी लिखनी थीं कि जिन से गृहस्थों और भोले लोगों का सव भ्रम दूर हो जाता तथा पदार्थविज्ञानसम्वधी कुछ चमत्कार भी उन्हें विदित हो जाते परन्तु ग्रन्थ के अधिक वढ जाने के भय से उन सव वातों को यहां नहीं लिख सकते हैं, किन्तु सूचना मात्र प्रसंगवशात् यहा पर वतला देना आवश्यक (जरूरी) था, इस लिये कुछ वतला दिया गया, उन सब अद्भुत वातों का वर्णन अन्यत्र प्रसगानुसार किया जाकर पाठकों की सेवा मे उपस्थित किया जावेगा, आशा है कि समझदार पुरुप हमारे इतने ही लेख से तत्त्व का विचार कर मिथ्या भ्रम (झूठे वहम ) को दूर कर धूर्त और पाखण्डी लोगों के पजे में न फंस कर लाभ उठावेंगे ॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ अनसम्प्रदायशिक्षा || सेंचतान के सिवाम- इस रोग में अनेक प्रकार का मनोविकार भी हुआ करता है अगात् रोगी किसी समय तो अति आनन्द को प्रकट करता है, किसी समय अति उम हो जाता है, फभी २ अति आनन्ददशा में से भी एकदम उदासी को पहुँच बाह्य है इससे २ रोने लगता है, उसके भरता है तथा कड़ाई करने लगता है, इसी प्र कभी २ उदासी की दशा में से भी एकदम आनन्द को प्राप्त हो जाता है भगात् रोते २ हँसने लगता है। रोगी का चिए इस बात का उत्सुक ( चादपाळा ) रहता है फि-खोग मेरी तरफ ध्यान देकर दमा फो प्रकट करें तथा जत्र ऐसा किया जाता है तब वह अपने पागलपन को और भी अधिक प्रकट करने लगता है । इस रोग में स्पधसम्बन्धी भी कर एक चिद प्रकट होते दें, जैसे-मस्तक, फोड़ और छाती आदि स्थानों में चसके चलते हैं, अथवा धूल होता है, उस समय रोगी का पक्ष पावान म जाता है भात् मोड़ा सा भी स्पा होने पर रोगी को अधिक मात्रम होता हे भोर यह पक्ष उस को इतना असम (न महने के योग्य) मालूम होता है कि-रोगी किसी को हाथ भी नहीं लगाने देखा है, परन्तु यदि उस ( रोगी) के सश्य (ध्यान) को दूसरे किसी विषय में लगा कर ( दूसरी तरफ से जाकर ) रक्त स्थानों में स्पर्ध किया जावे सो उस को कुछ भी नहीं मान होता है, तात्पर्य यही है कि इस रोग में बालविक (भसली ) विकार की अपेक्षा मनोविकार विशेष होता है, नाक, कान, जल और जीभ, इन इन्द्रियों के फट् प्रकार के विकार माम होते है अभोत् फानों में घोघाट ( २ श्री आयाज ) होता है, आँखों में विभित्र दर्शन प्रतीत (माम ) होते हैं, जीम में मिचिन लाय सभा नाक में विचित्र गन्ध प्रतीत होते हैं, पेट अर्थात् पेडू में से गोल्ला उपर को चढ़ता दे सभा बद्द छाती और गले में जाकर ठहरता है जिस से ऐसा प्रतीत होता है कि रागी को अधिक म्याकुलता हो रही दे तथा यह उस (गोल) को निकलवाने के लिये प्रयस कराना चाहता है, कभी भ भ शान बढ़ने के बदले ( पनज में ) उस (स्पर्म) का ज्ञान न्यून ( कम ) हा जाता है, अभ्रपा केवल शून्यता (वरीर की सुमता ) सी मतीय दान लगती है भवान् शरीर के किसी २ भाग में स्पक्ष पत्र ज्ञान ही नहीं होता है । इस रोग में गतिसम्बन्धी भी अनेक विकार होते हैं, जैस-प्रमी २ गति का बिना हो जाता है, भी दाँती सग जाती है, एफ अथवा दोनों हाथ पैर मिलते है, सिंचने के समय कभी २ सायु रह जाते हैं और मभाग ( भापे भंग का रह जाना) अथवा उससम्म (उलभ का रुकना मधात् बँध जाना ) हो जाता है, एक या दोनों हाथ पैर रह जाते है अथवा तमाम घरीर रद्द जाना दे और रोगी को धम्मा (चारपाई) का आश्रम (सहारा) केना पड़ता है, कभी २ भाषाज बैठ जाती दे और रोगी से विकुल ही नहीं बोला जाता है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६०५ इस रोग में कभी २ स्त्री का पेट बडा हो जाता है और उस को गर्भ का भ्रम होने लगता है, परन्तु पेट तथा योनि के द्वारा गर्भ के न होने का ठीक निश्चय करने से उस का उक्त भ्रम दूर हो जाता है, गर्भ के न रहने का निश्चय क्लोरोफार्म के सुघाने से अथवा विजुली के लगाने से पेट के शीघ्र बैठ जाने के द्वारा हो सकता है । ___ इस रोग से युक्त स्त्रियों में प्राय अजीर्ण, वमन (उलटी), अम्लपित्त, डकार, दस्त की कनी, चूक, गोला, खासी, दम, अधिक आर्तव का होना, आर्तव का न होना, पीडा से युक्त आर्तव का होना और मूत्र का न्यूनाधिक होना, ये लक्षण पाये जाते हैं, इन के सिवाय पेशाव में गर्मी आदि विचित्र प्रकार के चिह्न भी होते है। रोगी के यथार्थ वर्णन से तथा इस रोग के चिह्नों के समुदाय (समूह) का ठीक मिलान करने से यद्यपि इस रोग का ठीक २ निश्चय हो सकता है परन्तु तथापि कभी २ यह अवश्य ( जरूर ) सन्देह (शक ) होता है कि रोग हिष्टीरिया के सदृश (समान) है अथवा वास्तविक है अर्थात् कभी २ रोग की परीक्षा ( जाँच ) का करना अति कठिन ( बहुत मुश्किल ) हो जाता है, परन्तु जो बुद्धिमान् ( अक्लमन्द अर्थात् चतुर ) और अनुभवी ( तजुर्वेकार ) वैद्य है वे इस रोग की खैचतान को वायुजन्य आदि रोग के द्वारा ठीक २ पहिचान लेते है। कारण-इस रोग का वास्तविक ( असली) कारण कोई भी नहीं मिलता है, क्योंकि इस (रोग) के कारण विविधरूप ( अनेक प्रकार के ) और अनेक है। __ स्त्रीजाति में यह रोग विशेष (प्रायः ) देखा जाता है तथा पुरुष जाति में कचित् ही दीख पडता है। __इस के सिवाय-पन्द्रह बीस वर्ष की अवस्थावाली, विधवा तथा बन्ध्या (वाझ) स्त्रियों के वर्ग में यह रोग विशेष देखने में आता है । स्पर्शविकार, गतिविकार, मनोविकार, गर्भाशय तथा दिमाग की व्याधि, मन की चिन्ता, खेद, भय, शोक, विवाहसम्बधी सन्ताप (दुःख ), अजीर्ण (कली), हथरस (हाथ के द्वारा वीर्य का निकालना ), मन का अधिक श्रम ( परिश्रम ), अति विषयसेवन तथा मन को किसी प्रकार का धक्का पहुँचना, इत्यादि अनेक कारणों से यह रोग हो जाता है। १-यथार्थ वर्णन से अर्थात् सत्य २ हाल के कह देने से ॥ २-वास्तविक अर्थात् असली ॥ ३-क्योंकि इस रोग की उत्पत्ति रजोविकार से प्राय होती है, अर्थात् रज में विकार होने से वा मासिकधर्म (रजोदर्शन) मे रज की तथा समय की न्यूनाधिकता होने से यह रोग उत्पन्न होता है ॥ ४-स्पर्शविकार और गतिविकार की अपेक्षा मनोविकार प्रधान कारण है ॥ ५-वास्तव में तो दिमाग की व्याधि, मन की चिन्ता, खेद, भय, शोक और विवाहसम्बधी सन्ताप का समावेश मनोविकार में ही हो सकता है परन्तु स्पष्टता के हेतु इन कारणों को पृथक् कह दिया गया है। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जनसम्पानिशा॥ विपिम्मा-ग गरी मरतान क य निी पिनप (मास) प्राण (11) मन की आपसना (मन) नहीं है, क्याडि पर (मपटार) राग का अरी शि म राम श्री निति का सबसे अच्छा उपाय 40 भीष मामि घर का विधी प्रकार काहानि न परि तथा मन का मथा (भाराम नाम) प्रामस: उमी भरपयाग (INR) में जाना चाहिय । मणिपाम-रागीकर की विप (माम वीर म) गम्माड रमनी पास, । पानी टि मुम पर लगाना चादिम, मानिस सुपाना चाहिम मा बि गानी पादप, यदि गगीको दाँतावान ताना मार मुम मिनरी नई पद र दना सादिय, सना (भमरी) में पिरी मगानी बारिस Bा र माटी पाहिय भोर रागाभा पानी मिलना माहिये। इस राग कामना मा भारम सिदिस (मा) उस पीपीएम पाम भना भारिप अब उसकारणीनिरनी पाहिम, मन वाम रमन पाश्मि या गीमित मार मार त्मिना माहिस. उस मनाभकामप्र 14 भना भादि। नि काम ग़ग विचार करन स अश्वा पप जन्मन ग बाना नाममा कारण यदी-ममम प्रमोरमनधि पदमन इन विधाम-रागम पाप ५ इमार उपपानी हाजिन राम नगर पर भार मप्रति मानना भारीरिक (खरीप) भार माना (मन ) पापाम भाइस गग में अधिक समय (मरमन) मान गया १६ पास पारीन गगमन नामक पन्द्रमा प्रकरण समाम हुन। इति भान नाम्पर पिता, मनिपामाप, विसम्मिबिया, जम्मामाम्प-नर्मिना, जनसम्प्राय शिधापा, पामायः ॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय॥ मङ्गलाचरण ॥ वर्धमान के चरणयुग, नित वन्दों कर जोर ॥ ओस वाल वंशावली, प्रकट करूँ चहुँ ओर ॥१॥ श्री सरखति देवो सुमति, अविरल वाणि अथाह ॥ ओसवाल उपमा इला, सकल कला साराँह ॥२॥ दान वीर सब जगत में, धनयुत गुण गम्भीर ॥ राजवंश चढ़ती कला, जस सुरधुनि को नीरें ॥३॥ सकल बारहों न्यौत में, धनयुत राज कुमार ॥ शूर वीर मछराल है, जानै सब संसार ॥४॥ प्रथम प्रकरण-ओसवाल वंशोत्पत्ति वर्णन ॥ ओसवाल वंशोत्पत्ति का इतिहास ॥ चतुर्दश (चौदह ) पूर्वधारी, श्रुतकेवली, अनेक लब्धिसयुत, सकल गुणो के आगार, विद्या और मन्त्रादि के चमत्कार के भण्डार, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय, एवं समस्त १-चरणयुग अर्थात् दोनों चरण ॥ २-हाथ ॥ ३-अच्छी बुद्धि ॥ ४-निरन्तर ठहरने वाली ॥ ५-वेपरिमाण ॥ ६-पृथिवी॥ ७-सकल कला साराह अर्थात् सब कलाओ में प्रशसनीय ॥ ८-ऐश्वर्ययुक्त ॥ ९-गङ्गा ॥ १०-जल ॥ ११-जाति ॥ १२-विदित हो कि जैनाचार्य श्री रमप्रभसरि जी महाराज ने ओसिया नगरी में राजा आदि १८ जाति के राजपूतों को जैनधर्म का प्रहण कराके उन का "माहाजन" ( जो कि 'महाजन' अर्थात् 'वडे जन' का अपभ्रश है ) वश तथा १८ गोत्र स्थापित किये थे, इस के पश्चात् जिस समय खेडेला नगर मे प्रथम समस्त वारह न्यातें एकत्रित हुई थी उस समय जिस २ नगर से जिस २ वशवाले प्रतिनिधिरूप मे (प्रतिनिधि वन कर ) आये थे उन का नाम उसी नगर के नाम से स्थापित किया गया था, ओसियाँ नगर से माहाजन वश वाले प्रतिनिधि वन कर गये ये अत उन का नाम ओसवाल स्थापित किया गया, वस उसी समय से माहाजन वश का दूसरा नाम 'ओसवाल' प्रसिद्ध हुआ, वर्तमान में इस ही (ओसवाल ही) नाम का विशेष व्यवहार होता है ( माहाजन नाम तो लुप्तप्राय हो रहा है, तात्पर्य यह है कि इस नाम का उपयोग किन्हीं विरले तथा प्राचीन स्थानों में ही होता है, जैसे-जैसलमेर आदि कुछ प्राचीन स्थानों Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ बेनसम्प्रदायशिक्षा | आचार्यगुणों से परिपूर्ण, उपकेसगच्छीय जैनाचार्य श्री रसप्रभसूरि जी महाराज पाँच सौ साधुओं के साथ बिहार करते हुए श्री बापू श्री अचलगढ़ पर पधारे थे, उन का यह नियम था कि वे (उच्छ सूरि जी महाराज ) मासक्षमण से पारणा किया करते थे, उन की ऐसी कठिन तपस्या को देख कर अचलगढ की अधिष्ठात्री अम्बा देवी प्रसन्न होकर श्री गुरु महाराज की भक्त हो गई, भव जब उक्त महाराज ने वहाँ से गुजरात की तरफ बिहार करने का विचार किया तय अम्बा देवी ने हाथ जोड़ कर उन से प्राथना की कि “हे परम गुरो ! आप मरुधर ( मारवाड़ ) देव की तरफ बिहार कीजिये, क्योंकि स के उभर पधारने से दयामूल धर्म ( बिनधर्म) का उद्योत होगा" देवी की इस प्रार्थना को सुन कर उक माचार्य महाराज ने उपयोग देकर देखा तो उन को देवी का उक वचन ठीक माख्म हुआ, तब महाराज ने अपने साथ के पाँच सौ मुनियों (सानुओं) को धर्मोंप्रवेश देने के लिये गुजरात की तरफ विवरने की आशा दी तथा भाप एक छिप्य को साथ में रख कर मामानुग्राम ( एक ग्राम से दूसरे ग्राम में ) विहार करते हुए भोसिमाँ पट्टेन में माये तथा नगर के बाहर किसी देवालय में घ्यानारूढ होकर श्रीजी ने मास में अब तक माहाजन नाम का ही व्यवहार होता है जिस को बने हुए अनुमान साथ सौ बर्ष हुए है) इस इसी नाम का किया है। सम्मेर में माहाजनसर" मामक एक कुआ है लिये हम ने मी इतिहास में तथा अन्यन सी बहुत से स्पेय माह्मजनबच्चनाओं (ओसणाओं) को पनियाँ या बालियाँ (वैश्य) जन की बड़ी मूक है, क्योंकि उच्च महणाले जैन क्षत्रिय (जिनधर्मानुयारी राजपूत) है, इस वैश्य समझना महाभ्रम है । हमारे बहुत से भोळेभावे भोखाल भादा भी दूसरों के मन से अपनी बेदम यति सुख अपने को मैदन ही समझने बगे है, यह जन की भाता है, उन को चाहिये कि दूसरों के कथन से अपने को पैन कापि न समझे किन्तु ऊपर किये अनुसार अपने को चैमक्षत्रिय माने । करते है, म इनको हमने श्रीमान् माम्पवर सेठ श्री चौदस की हड्डा (बीकानेर) से सुना है कि बनारसमियासी राज्य शिवप्रसार सितारे इन्य ने मनुष्यख्या के परिगणन (मधु॑मनुमारी श्री मिनती) में अपने को जैवक्षनिष किखाया है, हमें यह झुन कर ममन्त प्रसनता हुई क्या कि बुद्धिमान् का यही धर्म है कि अपने प्राचीन जन्म को ठीकरीति से क्षमा कर ही अपने को माने और करे १- इस नगरी के बसने का कारण यह है कि श्रीमान नगर ( जिस को अब मीनमा राणा पंवार बाकी सीमसैन का पुत्र भौपुत्र था उसका पुत्र उत्पस (उप) कुमार और सार मन्त्री मैं बन्ध जन भारह हजार कुटुम्ब के सहित कैसी काम से बसरा नगर बसाने के लिये श्रीमान वपर सेनिक मे और वर्तमान म जिस स्थान पर जोनपुर बसा है उस से पह कोल के पास पर उतर शिक्षा में कार्बोों मनुष्यों की बच्चीरूस उपकेक्षपान (बाक्षियों ) नामक नगर बसाया था यह नगर बोठे दो समय में अच्छी होस् से कुछ ( रौनकमार ) से पना तेरेसने टीपुर श्रीषर्धनाब खामी के छठे Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६०९ का प्रारम्भ किया, आचार्य महाराज का शिप्य अपने वास्ते आहार लाने के लिये सदा ओसियाँ पट्टन में गोचरी जाता था परन्तु जैन साधुओं के लेने योग्य शुद्ध आहार उसे किसी जगह भी नहीं मिलता था, क्योकि उस नगरी में राजा आदि सब लोग नास्तिक मतानुयायी अर्थात् वाममार्गी (कूड़ा पन्थी) देवी के उपासक तथा चामुण्डा (साचिया देवी) के भक्त थे इस लिये दयाधर्म (जैनधर्म) के अनुसार साधु आदि को आहारादि के देने की विधि को वे लोग नहीं जानते थे। पाटधारी श्री रत्नप्रभसूरि महाराज वीर सवत् ७० (महावीर खामी के निर्वाण से ७० वर्ष पीछे ) अर्थात् विक्रम संवत् ते ४०० (चार सौ ) वर्ष पहिले विहार करते हुए जब ओसियों पधारे थे उस समय यह नगर गड, मठ, वन, धान्य, वन और सर्व प्रकार के पण्य द्रव्यादि (व्यापार करने योग्य वन्तुओ आदि) के व्यापार से परिपूर्ण (भरपूर ) या ॥ १-कपाली, भस लगानेवाले, जोगी, नाथ, कौलिक और ब्राह्म आदि, इन को वाममागा ओर नास्तिक कहते है, इन के नत का नाम नास्तिक मत वा चावांक मत है, ये लोग स्वर्ग, नरक, जीव, पुण्य और पाप आदि कुछ भी नहीं मानते है, किन्तु केवल चानुभौतिक देह मानते है अर्थात् रन का यह मत है कि-वार भूता से ही मद्यशक्ति के समान (जैसे मद्य के प्रत्येक पदार्थ में मादक शक्ति नहीं है परन्तु सव के मिलने से मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है इस प्रकार ) चैतन्य उत्पन्न होता है तथा पानी के बुलबुले के समान शरीर ही जीवल्प है (अर्थात् जैसे पानी में उत्पन्न हुआ वुलवुला पानी से भिन्न नहीं है किन्तु पानीरूप ही है इसी प्रकार शरीर में उत्पन्न हुआ जीव शरीर से भिन्न नहीं है किन्तु गरीररूप ही है ), इस मत के अनुयायी जन मद्य और मास का सेवन करते है तथा नाता वहिन और कन्या आदि अगम्य (न गमन करने योग्य ) भी नियों के साथ गमन करते है, ये नास्तिक वाममार्गी लोग प्रतिवर्ष एक दिन एक नियत स्थान में सव मिल कर इकट्ठे होते है तथा वहाँ त्रियों को नग्न करके उन की योनि की पूजा करते है, इन लोगो के मत मे कामसेवन के सिवाय दूसरा कोई धर्म नहीं है अर्थात् ये लोग कामसेवन को ही परम धर्म मानते हैं, इस मत में तीन चार फिरके हे-यदि किसी को इस मत की उत्पत्ति के वर्णन के देखने की इच्छा हो तो शीलतरङ्गिानामक ग्रन्थ ने देख लेना चाहिये, व्यभिचार प्रधान होने के कारण यह मत संसार में पूर्व समय में वहुत फैल गया था परन्तु विद्या के संसर्ग से वर्तमान में इस मत का पूर्व समय के अनुसार प्रचार नहीं है तथापि राजपूताना, पजाव, वगाल और गुजरात आदि कई देशो में अव भी इस का थोडा वहुत प्रचार है, पाठकगण इस मत की अधमता को इसी से जान सकते हैं किइस मत में सम्मिलित होने के बाद अपने मुख से कोई भी मनुप्य यह नहीं कहता है कि-म वाममार्ग में हूँ, राजपूताने के वीकानेर नगर में भी पच्चीस वर्ष पहिले तक उत्तम जातिवाले भी वहुत से लोग गुप्त रीति से इस मत में सम्मिलित होते थे परन्तु जव से लोगों को कुछ २ शान हुआ है तब से वहाँ इस मत के फन्दे से लोग निकलने लगे, अब भी वहाँ शूद्र वर्गों में इस मत का अधिक प्रचार है परन्तु उत्तम वर्ण के भी योडे वहुत लोग इस में गुप्ततया पसे हुए है, जिन की पोल किसी २ समय उन की गफलत से खुल जाती है, इस का कारण यह है कि मरनेवाले के पीछे यदि उस का पुत्रादि कोई कुटुम्बी उस की गद्दी पर न बैठे तो वह (नृत पुरुप) व्यन्तरपन में अनेक उपद्रव करने लगता है, सवत् १९९४ के माघ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६१० चैनसम्प्रवामशिक्षा || तथा बड़े ही सेव की एक महीने के निदान दोनों गुरु और चेठों का मासक्षमण तप पूरा हो गया खाने से उक्त महाराज ज्योंही बिहार करने के लिये उद्यत हुए त्योंही छात्री सचियाम देषी ने अयभि ज्ञान से देख कर यह विचारा कि- दाम! बात है कि ऐसे मुनि महात्मा इस पाँच छाल मनुष्यों की वस्ती में से भूसे इस नगरी से विदा होते हैं, यह विचार कर उक्त ( साचियाय) देवी गुरुबी के पास आकर तथा चन्दन और नमन आदि शिष्टाचार करके सन्मुख खड़ी हुई और गुरुजी से कहा कि "हे महाराज! कुछ चमत्कार हो तो दिलायो" देवी के इस बचन को सुनकर गुरुजी ने कहा कि “हे देवि ! कारण के बिना सानुखन सन्धि को नहीं फोरवे "दें" इस पर पुन देवी ने आचार्य से कहा कि - "दे महाराज 1 भ्रम के लिये मुनि जन लब्धि को फोरते ही है, इस में कोई दोष नहीं है, इस सम विषय को आप जानते ही हो यत में विशेष भाप से क्या कहूँ, यदि भाप यहाँ उन्धि को फोरेंगे तो यहाँ दयामून धर्म फैलेगा जिस से सब को बड़ा भारी लाभ होगा" देवी के मन को सुन कर सूरि महाराज ने उस पर उपयोग दिया तो उन्हें देवी का फभन ठीक माकम हुआ, निवान af का फोरना उचित जान महाराम ने दभी से रुप की एक पोनी मँगवाई और उस का एक पोनिया सर्प ( साँप ) बन गया तथा उस सर्प ने भरी सभा में जाकर राजा उप दे पेंमार के राजकुमार महीपाल को काटा, सर्प के काटते ही राजकुमार मूर्छित होकर पृथ्वीधामी हो गया, सर्प के विष की निवृति के लिये राजा ने मन्त्र मात्र रात्र और मोपधि आदि अनेक उपचार करवाये परन्तु कुछ भी खाभ न हुआ, अब पमाथा-समाम रनिवास तथा भोसियाँ नगरी में हाहाकार मच गया, एकसौवे कुमार की यह वक्षा देख कल्प के पूरे हो नगरी की भभि मदीन की बात है कि (मीनर) कार में बाकी गुवाड़ में दिन को चारों दिशाओं से भा भा कर परवर गिरव मे तथा उन को देखन क लिये पैकड़ों मनुष्य जमा हो व्यव में इस प्रश्र दीन दिन तक परमरवर रहे हम ने भी उतना में जाकर अपनी आधों से किये हुए परों में दया इस मठ का अधिक वर्णन यहां पर अनावश्यक समय पर नहीं है कि काम कुछ रस शव (मान) दोन सलना बहुत ही बोसा) का वर्णन कर दिया गया है, इस विषय में हम अपनी ओर समय संसार में अनक निह ( घरान) मत प्रचरित इतन से न्य पर्याप्त ( वा म मतबाजे से पूछिये सन्तु से धर्म साम 1 fat मत समान दूसरा कोई भी मत नहीं है, दधिये । आप हे किमी व्यविवार को कभी धर्म नहीं रहेगा परन्तु इस मत को इम में कैसे हुए उनसे बरसो प्राप्त होता है, हम इस व्यभिचार चाहिने रोममुध्यसम्म बहुत में न वरा करम इय पर ध्यान धार अर परमपुरुषास सम्मान का भाव कम करना ही थे उनमे में और ध्य Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६११ राजा के हृदय में जो शोक ने बसेरा किया भला उस का तो कहना ही क्या है | एकमात्र आँखों के तारे राजकुमार की यह दशा होने पर भला राजवंश में अन्न जल किस को अच्छा लगता है और जब राजवंश ही निराहार होकर सन्तप्त हो रहा है तब नगरीवासी खामिभक्त प्रजाजन अपनी उदरदरी को कैसे भर सकते है ? निदान भूखे प्यासे और शोक से सन्तप्त सब ही लोग इधर उधर दौड़ने लगे, यन्त्र मन्त्रादिवेत्ता अनेक जन ढूँढ २ कर उपचारादि के लिये बुलाये गये परन्तु कुछ न हुआ, होता कैसे कही मायिक ( माया से बने हुए ) सर्प का भी उपचार हो सकता है ? लाचार होकर राजा आदि सर्व परिवारजन तथा नागरिक जन निराश हो गये और कुमार को मरा हुआ जान कर श्मशानभूमि में जलाने के लिये लेकर प्रस्थित ( रवाना ) हुए, जब कुमार की लाश को लिये हुए राजा आदि सब लोग नगर के द्वार पर पहुँचे उस समय रत्नप्रभ सूरि जी का शिष्य आकर उन से बोला कि - "यदि तुम हमारे गुरुजी का कहना स्वीकार करो तो वे बोले कि - " यह आज्ञा होगी वह दर्दी सब कुछ इस मृत कुमार को जीवित कर सकते है" यह सुन कर वे सब लोग कुमार किसी प्रकार जीवित हो जाना चाहिये, तुम्हारे गुरु की जो कुछ अवश्य ही हम सब लोगों के शिरोधार्य होगी" ( सत्य है - गरजी और स्वीकार करते हैं ) निदान शिष्य के कथनानुसार राजा आदि सब लोग कुमार की लाश को गुरुजी के पास ले गये, उस समय सूरिजी ने राजा से कहा कि- “यदि तुम अपने कुटुम्बसहित मिथ्यात्व धर्म का त्याग कर सर्वज्ञ के कहे हुए दयामूल धर्म का ग्रहण करो तो हम कुमार को जीवित कर सकते है" राजा आदि सब लोगों ने गुरु जी का कहना हर्पपूर्वक स्वीकार कर लिया, फिर क्या था वही पोनिया सर्प आया और कुमार का सम्पूर्ण विप खींच कर चला गया, कुमार आलस्य में भरा हुआ तथा जॅभाइयों को लेता हुआ निद्रा से उठे हुए पुरुष के समान उठ खडा हुआ और चारों ओर देख कर कहने लगा कि- " - " तुम सब लोग मुझे इस जङ्गल में क्यो लाये" कुमार के इस वचन को सुन कर राजा आदि सब लोगों के नेत्रो में प्रेमाश्रु ( प्रेम ऑसू ) वहने लगे आनन्द की तरङ्गे हृदय में उमड़ने लगी, उपलदे राजा ने इस कौतुक आनन्दित होकर तथा सूरि जी को परम चमत्कारी महात्मा जान कर अपने मुकुट को उतार कर उन के चरणों में रख दिया और कहा कि - " हे परम गुरो । यह सर्व राज्य, कोठार, भण्डार, बरु मेरे प्राण तक सब कुछ आपके अर्पण है, दयानिधे ! इस मेरे सर्व राज्य को लेकर मुझे अपने ऋण से मुक्त कीजिये" राजा के ऐसे विनीत ( विनययुक्त ) वचनों को सुन कर सूरि जी बोले कि – “हे नरेन्द्र ! जब हम ने अपने पिता के ही राज्य को छोड दिया तो अब हम नरकादि दुःखप्रद राज्य को लेकर क्या करेंगे 2 इसलिये हम को राज्य से कुछ भी प्रयोजन नहीं है किन्तु हमें प्रयोजन केवल श्रीवीतराग भगवान् के के से तथा हर्ष और विस्मित और Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ बैनसम्प्रदायशिक्षा॥ परे हुए धर्म से है, मत तुम्हें प्रवाल देख हम यही राहते हैं कि-दम भी भीगीतराग मगमान् के करे हुए सम्यक्त्वयुक्त दमामूल धर्म को मुनो और परीवा परके उस अमाप करो कि-जिस से तुमारा इस भर भौर पर मब में फल्यान हो तबा तुमारी सन्तठि मी सदा के लिये मुसी हो, क्योंकि क्या है कि घुरो फल तस्वविचारणं प, वेहस्य सारो प्रतधारणा ॥ अर्यस्य सार किल पात्रदान, वाय फलं प्रीतिकर भराणाम् ॥ १॥ मर्थात् बुद्धि के पाने का फस-तत्तों प विचार करना है, मनुष्य सरीर के पामे प्रसार (फल)बत का (पाखाण आदि नियम का) पारण करना है, पन (क्ष्मी) के पाने का सारमुपात्रों को वान देना है तथा पचन के पाने का फर सब से प्रीति करना है" ॥१॥ " नरेन्द्र !, नीतिशास में कहा गया है कि यथा चतुर्मि: कनक परीक्ष्यते । निर्पणछेदनतापतानः ॥ सधैष धर्मों पितुपा परीक्ष्यते । अतेन शीलेन तपोदयागुण ॥१॥ "अपात्-कसौटी पर पिसने से, छेनी से काटने से, ममि में तपाने से बौर पौडे द्वारा कटने से, इन चार प्रकारों से मैसे सोने की परीक्षा की माती है उसी पचर मुदि मान् लोग धर्म की भी परीक्षा पार प्रमर से करते हैं पर्भात् भुत (शाम के सपन) से, शीनसे, तप से तथा दया से" ॥१॥ __ "इन में से भुस अर्थात् शाम के वचन से धर्म की इस प्रघर परीक्षा होती है कि वो धर्म शामीय (शामक)वपनों से विस्व न हो चिन्तु धामीप पचनों से समर्षित (पुष्ट किया हुभा) हो उस धर्म का माण करना पाहिये मोर ऐसा धर्म सस श्री पीठ रागकषित है इस लिये उसी ग्रहण करना चाहिये, रे रामन् ! मैं इस बात को किसी पक्षपाव से नहीं करता है किन्तु यह बात विसकट सस्प है, हम समझ सकते हो किवा हम ने ससार को छोड़ दिया तग हमें पक्षपाठ से क्या प्रयोजन है! हे रामन् ! भाप निमय भानो किन हो पीपराम महावीर सामी पर मेरा हा पक्षपाच महीर सामी ने जो कुछ पा है यही मानमा पारिसे मोर दूसरे का मन नहीं मानना पाहिये) और न कपिट भावि जन्म प्रापियों पर मेरा ऐप (किपिट मावि प्रवरम मही मामना पाहिये) किन्तु हमारा यह सिद्धान्त है कि जिस प्र पपन शास भोर मुफि से भविरुद्ध (पप्रतिकर भर्षात् भनुन)ो उसी प्रहम करना पारि ॥१॥ -समीर भयर पारित - फ्नरा प्रे मात म्मरणम्न मे समा जाम. -वही ममस परिमाना भी निराम्तम Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६१३ "धर्म की दूसरी परीक्षा शील के द्वारा की जाती है-शीले नाम आचार का है, वह (शील) द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है-इन में से ऊपर की शुद्धि को द्रव्यशील कहते है तथा पाँचों इन्द्रियों के और क्रोध आदि कपायो के जीतने को भावशील कहते है, अतः जिस धर्म में उक्त दोनों प्रकार का शील कहा गया हो वही माननीय है। "धर्म की तीसरी परीक्षा तप के द्वारा की जाती है-वह (तप) मुख्यतया बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है, इस लिये जिस धर्म में दोनो प्रकार का तप कहा गया हो वही मन्तव्य है"। ___ "धर्म की चौथी परीक्षा दया के द्वारा की जाती है-अर्थात् जिस में एकेन्द्रिय जीव से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक जीवों पर दया करने का उपदेश हो वही धर्म माननीय है"। ___"हे नरेन्द्र ! इस प्रकार बुद्धिमान् जन उक्त चारों प्रकारों से परीक्षा करके धर्म का अङ्गीकार ( स्वीकार ) करते है"। _ "श्री वीतराग सर्वज्ञ ने उस धर्म के दो भेद कहे है-साधुधर्म और श्रावकधर्म, इन में से साधुधर्म उसे कहते है कि-ससार का त्यागी साधु अपने सर्वविरतिरूप पञ्च महाव्रतरूपी कर्तव्यों का पूरा वर्ताव करे" । ___ "उन में से प्रथम महाव्रत यह है कि-सव प्रकार के अर्थात् सूक्ष्म और स्थूल किसी जीव को एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक को न तो खय मन वचन काय से मारे, न मरावे और न मरते को भला जाने” । , "दूसरा महावत यह है कि मन वचन और काय से न तो स्वयं झूठ बोले, न बोलाव और न वोलते हुए को भला जाने" । "तीसरा महाव्रत यह है कि-मन वचन और काय से न तो स्वयं चोरी को, न करावे और न करते हुए को मला जाने"। "चौथा महाव्रत यह है कि-मन वचन और काय से न तो स्वय मैथुन का सेवन करे, न मैथुन का सेवन करावे और न मैथुन का सेवन करते हुए को भला जाने"। "तथा पाँचवॉ महावत यह है कि-मन वचन और काय से न तो स्वय धर्मोपकरण के सिवाय परिग्रह को रक्खे न उक्त परिग्रह को रखावे और न रखते हुए को भला जाने"। "इन पाँच महाव्रतों के सिवाय रात्रिभोजनविरमण नामक छठा व्रत है अर्थात् मन १-"शील खभावे सद्वृत्ते" इत्यमर ॥ -विचार कर देखा जाये तो इस व्रत का समावेश ऊपर लिम्वे व्रतों में ही हो सकता है अर्थात् यह त उक्त व्रतों के अन्तर्गत ही है । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ चैनसम्मवाना || वचन और काम से न तो स्वयं रात्रि में भोजन करे, न रात्रि में मोजन कराने और न रात्रि में भोजन करते हुए को भला जाने" "इन मतों के सिवाय साधु को उचित है कि- मूख और प्यास भादि माईस परीषदों को जीते सत्रह मकार के सयम का पालन करे तथा भरणसचरी और करणसरी के गुणों से युक्त हो, भावितात्मा होकर भी वीतराग की आशानुसार चल कर मोक्षमार्ग का साधन करे, इस प्रकार अपने कर्तव्य में तत्पर बो साधु ( मुनिराम ) हैं वे ही ससार सागर से स्वयं सर नेपाले तथा दूसरों को तारनेवाले और परम गुरु होते हैं, उन में भी उत्सर्गनम, अपणायनम, वम्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार चल कर संगम के निर्वाह करनेवाले तथा सोमा, मुँहपची, घोळपट्टा, चद्दर, पॉंगरणी, छोमड़ी, दण्ड मौर पात्र के रस्खनेवाले श्वेताम्बरी शुद्ध धर्म के उपदेशक यति को गुरु समझना चाहिये, इस प्रकार के गुरुमों के भी गुणस्थान के आश्रम से, निषष्ठे के योग से और काम के प्रभाव से समयानुसार उत्कृष्ट, मध्यम और वषन्य, ये तीन वर्षे होते हैं" । " दूसरा भावधर्म अर्थात् गृहस्थधर्म है - इस धर्म का पालन करनेवाले गृहस्य कोई यो सम्पवस्वी होते हैं जो कि नब तत्वों पर मायावस्यरूप से श्रद्धा रखते हैं, पाप को पाप समझते हैं, पुष्प को पुण्य समझते हैं और कुगुरु कुवेव तथा कुषम को नहीं मानते हैं किन्तु सुगुरु सुवेष मौर मर्म को मानते हैं अर्थात् अठारह मकार के वूपयों से रहित श्री धीतराग देव को देव मानते हैं और पूर्वाक क्षणों से युक्त गुरुषों को अपना गुरु मानते हैं तथा सर्वेश के कड़े हुए वयामूळ धर्म को मानते है ( मे सम्मक्स्वी भवक के स्थान हैं), ये पहिले वर्ज के भावक है, इन के कृष्ण वासुदेव तथा श्रेणिक राजा के समाने मत और स्यास्मान (पचक्लाण ) किसी वस्तु का त्याग नहीं होता है" । " दूसरे दर्जे के मानक वे हैं जो कि सम्मवस्व से युक्त बारह व्रतों का पासन करते हैं, बारह से है-स्थूल माणातिपाठ, स्थूलमुपावाद, स्थूम अदद्यादान, स्थूममैथुन, स्थूलपरिमा दिवापरिमाण, भोगोपभोग मठ मनवण्डत, सामायिक मत देखाaat as, पौषोपणास व सभा भतिषिविभाग व्रत" । "हे रावेन्द्र ! इन भारद क्यों का सारांश संक्षेप से तुम को सुनाते हैं ध्यानपूर्वक सुनो-पूर्वा साधु के मेि तो बीस विश्वा दया है अर्थात् उक साधु योग बीस विश्वा दया का पालन करते हैं परन्तु गृहस्त्र से तो केवळ समा विश्वा दी दमा का पालन करना बन सकता है, देखो" १- प्रमादी और भारी बारि २-यह भी कम के भय से पहले दर्जे के ग्रम्भका पांच गुन सम्यक्तयुक अनुहा Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ॥ " गाथा - जीवा सुहमा थूला, संकप्पा आरंभा भवे दुविहा ॥ सवराह निरवराह, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥ १ ॥ अर्थ-जगत् में दो प्रकार के जीव है- एक स्थावर और दूसरे त्रस, इन में से स्थावरो के पुनः दो भेद हैं-सूक्ष्म और वादर, उन में से जो सूक्ष्म जीव है उन की तो हिंसा होती ही नही है, क्योंकि अति सूक्ष्म जीवो के शरीर में बाह्य ( बाहरी ) शस्त्र ( हथियार ) आदि का घाव नहीं लगता है' परन्तु यहाँ पर सूक्ष्म शब्द स्थावर जीव पृथ्वी, पानी, अग्नि, पवन और वनस्पति रूप जो बादर पाँच स्थावर है उन का वाचक है, दूसरे स्थूल जीव है वे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय माने जाते है, इन दो भेदों में सर्व जीव आ जाते है" । ६१५ “साधु इन सब जीवों की त्रिकरण शुद्धि ( मन वचन और काय की शुद्धि ) से रक्षा करता है, इस लिये साधु के बीस विश्वा दया है परन्तु गृहस्थ ( श्रावक ) से पॉच स्थावर की दया नहीं पाली जा सकती है, क्योंकि सचित आहार आदि के करने से उसे अवश्य हिंसा होती है, इस लिये उस की दश विश्वा दया तो इस से दूर हो जाती है, अब रही दश विश्वा अर्थात् एक त्रस जीवों की दया रही, सो उन त्रस जीवों में भी दो भेद होते हैं-संकल्पसन (सङ्कल्प अर्थात् इरादे से मारना) और आरम्भसंहनन ( आरम्भ अर्थात् कार्य के द्वारा मारना ), इन में से श्रावक को आरम्भहिंसा का त्याग नही है किन्तु सङ्कल्पहिंसा का त्याग है, हा यह ठीक है कि आरम्भहिंसा में उस के लिये भी यत्न अवश्य है परन्तु त्याग नहीं है, क्योकि आरम्भहिंसा तो श्रावक से हुए विना नही रहती है, इस लिये उस शेष दश विश्वा दया में से पाँच विश्वा दया आरम्भहिंसा के कारण जाती रही, अब शेष पाँच विश्वा दया रही अर्थात् सङ्कल्प के द्वारा त्रस जीव की हिसा का त्याग रहा, अब इस में भी दो भेद होते है - सापराधसहनन और निरपराधसहनन, इन में से निरपराधसहनन गृहस्थ को नहीं करना चाहिये अर्थात् जो निरपराधी जीव है यतना रखने का अधिकार है सिद्ध हुआ कि अपराधी जीवों उनको नही मारना चाहिये, शेष सापराधसहनन में उसे अर्थात् अपराधी जीवो के मारने में यत्नमात्र है, इस से की दया श्रावक से सदा और सर्वथा नही पाली जा सकती है क्योंकि जब चोर घर में घुस कर तथा चोरी करके चीज को लिये जाता हो उस समय उसे मारे कूटे विना कैसे काम चल सकता है, एव कोई पुरुष जब अपनी स्त्री के साथ अनाचार करता हो तब उसे देख कर दण्ड दिये बिना कैसे काम चल सकता है, इसी प्रकार जब कोई श्रावक राजा हो अथवा राजा का मन्त्री हो और जब वह (मन्त्रित्व दशा में ) राजा के आदेश १–क्योंकि शस्त्रों की धार से भी वे जीव सूक्ष्म होते हैं इस लिये शस्त्रों की धार का उन पर असर नही होता है ॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जैनसम्प्रदायश्चिक्षा (भन ) से भी युद्र करने को बाये तव पाहे पावक प्रथम शम को न भी चगो परन्तु जन शत्रु उस पर सन को पगये मभवा उसे मारने को भाये उस समय उस भाका मी मधु को मी मारना ही पड़ता है, इसी प्रकार का कोई सिंहादि हिंस (हिंसक) बन्नु भावक को मारने को मापे तम रस को मी मारना ही पड़ता है, ऐसी दक्षा में समय से भी हिंसा का पता नहीं हो सकता है, इस सिये उस शेप पाँच विश्वा दया में से मरे पापी माती रही, पब केवल गई विधा ही दमा रह गई अर्थात् पर यह निबम रहा कि-मो निरपरापी प्रस मात्र नीर टिगोपर हो उसे न मा, बब इस में भी वो मेव होते हैं-सापेक्ष और निरपेय, इन में से मी सापेक्ष निरपराधी जीन की क्या भाषक से नारी पारी मा सकती है, क्योंकि जब भाषक घोड़े, पेठ, रम मोर गाली मावि सगरी पर चढ़ता है सप उस पोरे भाविको हाँकते समम उस के पातुक आदि मारचा पाव है, यपपि उन पोड़े और मैक मावि ने उस का कुछ अपराप नहीं मिला है क्योंकि परे पात से भाजपा के भोरे भावरमठवभाव कमी पुस मारमा अहिले परम्त मनपा करम निम्म्म ममी क्यालिनिसाम म भाव से स्थानों में भार पर परवानिया रोधी निरामिन सूत्र सबा भी मममी सत्र में पाई-परमान पर नायक बाप प्रवभारी बैम पत्रिन ने पारम के समय सागुम पुग र मम पर सरासेपारे प्रिये उद में परमपमा पएम्म शिवमाया भम्स में एक कीमों में से अपमी मनु पाप मन र बारा रा (मापन पर करेए रोनों सूओं में मोरा) यो । उचजब पत्रिम मे मफमा सांसात्तब भी पूराना और धार्मिक मने भी पूरा पिसा उस विपर में पुन सूत्रभर साथी रेवा परचमार से रमेश गम के किमान सूत्रों में यह भी बनी मगवीर सामी के मध पीर पारातपाय भाग म राय मे बिक राजा के साथ बाण सुरकिरे भीर र में से एक रीपुर में 14 (एक भोरमस्य समस) मनुष्य मरे, इसी प्रभा पाप से प्रमाण इस विषय में जगमा वापर पालिकामा मेरमा में पास में मेरे निपेष परिवार पाले मापात मप्ले प्रचार माम ये समय-सरेपरमा किनेबाज एब्ध प्रणय प्राय ने रे से पासप्रेसर मिलेगा मा बपरापी मे सिवा बनेल ने) मयी समि भाप्रपरिम्स (प्रायविनत) मवरण इस पग में पर सवा (जोपाराम में से परिसत प्रया) पाना हमारे सबसेपर समक्ष पेरियारसप्रेस में जाने मेरे ऐप की हमारे प्रयास परम पापमपुरमाने से मारक परिपन पर तास पब में नम्पम को हो भने पक्लिाजिमममम मममी ने मd पर समय समय पर निभा पासोहर पाने सरिता सिना पास (अ) भी मोहब। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ वेचारे तो उस को पीठ पर चढ़ाये हुए ले जा रहे है और वह प्रथम तो उन की पीठ पर चढ़ रहा है दूसरे यह नही समझता है कि इस वेचारे जीव की चलने की शक्ति है वा नहीं है, जब वे जीव धीरे २ चलते है वा नही चलते है तब वह अज्ञान के उदय से उन को गालियाँ देता है तथा मारता भी है, तात्पर्य यह है कि-इस दशा में यह निरपराधी जीवों को भी दु.ख देता है, इसी प्रकार अपने शरीर में अथवा अपने पुत्र पुत्री नाती तथा गोत्र आदि के मस्तक वा कर्ण (कान) आदि अवयवों में अथवा अपने मुख के दातों में जब कीड़े पड जाते है तब उन के दूर करने के लिये उन (कीडों) की जगह में उसे ओषधि लगानी पड़ती है, यद्यपि यह तो निश्चय ही है कि-इन जीवों ने उस श्रावक का कुछ भी अपराध नही किया है, क्योंकि वे बेचारे तो अपने कर्मों के वश इस योनि में उत्पन्न हुए हैं कुछ श्रावक का बुरा करने वा उसे हानि पहुँचाने की भावना से उत्पन्न नहीं हुए है, परन्तु श्रावक को उन्हें मारना पड़ता है, तात्पर्य यह है कि इन की हिसा भी श्रावक से त्यागी नहीं जा सकती है, इस लिये ढाई विश्वों में से आधी दया फिर चली गई, अब केवल सवा विश्वा दया शेष रही, बस इस सवा विश्वा दया को भी शुद्ध श्राचक ही पाल सकता है अर्थात् संकल्प से निरपराधी त्रस जीवों को विना कारण न मारूँ इस प्रतिज्ञा का यथाशक्ति पालन कर सकता है, हा यह श्रावक का अवश्य कर्तव्य है कियह जान बूझ कर ध्वसता को न करे, मन में सदा इस भावना को रक्खे कि मुझ से किसी जीव की हिंसा न हो जावे, तात्पर्य यह है कि इस क्रम से स्थूल प्राणातिपात व्रत का श्रावक को पालन करना चाहिये, हे नरेन्द्र ! यह व्रत मूलरूप है तथा इस के अनेक भेद और भेदान्तर है जो कि अन्य ग्रन्थो से जाने जा सकते है, इस के सिवाय बाकी के जितने व्रत हैं वे सब इसी व्रत के पुष्प फल पत्र और शाखारूप है" इत्यादि । इस प्रकार श्रीरत्नप्रभ सूरि महाराज के मुख से अमृत के समान उपदेश को सुन कर राजा उपलदे पँवार को प्रतिबोध हुआ और वह अपने पूर्व ग्रहण किये हुए महामिथ्यात्वरूप तथा नरकपात के हेतुभूत देव्युपासकत्वरूपी स्वमत को छोड कर सत्य तथा दया से युक्त धर्म पर आ ठहरा और हाथ जोड़ कर श्री आचार्य महाराज से कहने लगा कि'ह परम गुरो ! इस में कोई सन्देह नहीं है कि-यह दयामूल धर्म इस भव और परभव दोनों में कल्याणकारी है परन्तु क्या किया जावे भै ने अबतक अपनी अज्ञानता के उदय से व्यभिचारप्रधान असत्य मत का ग्रहण कर रक्खा था परन्तु हाँ अब मुझे उस की निःसारता तथा दयामूल धर्म की उत्तमता अच्छे प्रकार से मालूम हो गई है, अब मेडी आप से यह प्रार्थना है कि इस नगर में उस मत के जो अध्यक्ष लोग हैं उन के साथ आप शास्त्रार्थ करें, यह तो मुझे निश्चय ही है कि शास्त्रार्थ में आप जीतेंगे क्योंकि सत्य धर्म के आगे असत्य मत कैसे ठहर सकता है ? बस इस का परिणाम यह होगा कि मेरे Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ नैनसम्पदामशिक्षा । कुटुमी भौर सगे सम्बपी मावि सय लोग प्रेम के साथ इस क्यामूठ धर्म का प्रहम प्रे" राबा के इस वरन को सुन कर भीरसमम सरि महाराज पोते कि-"निस्सन्देह (नेस) ये गेग मामें हम उनके साम धामार्य करेंगे, क्योंकि हे नरेन्द्र | ससार में ऐसा कोई मत नहीं हे खो कि दयामूळ अर्थात् माहिसापपान इस बिनपर्म को शास्त्रार्य के द्वारा हा सके, उस में मी मग व्यभिचारमधान यह ऋणपन्थी मत तो कोई चीन ही नहीं है यह मस तो महिसामपान पर्मरूपी सूर्य के सामने सपोववत् (जुगुन के समान) है, फिर मग यह मस उस धर्म के आगे फन ठहर सकता है पर्यात् कभी नहीं ठहर सकता है, निस्सन्देह उक मवारसम्नी भावे हम उनके साथ शाबार्य करने को तैयार है" गुम्न बी के इस वपन को सुनकर रामा ने अपने कुटुम्मी और सगे सम्माधियों से कहा कि "जाकर अपने गुरु को मुग लामो" राजा की माझा पाकर वक्ष पीस मुस्म २ मनुष्य गये मौर मपने मस के नेता से कहा कि-"मैनाचार्य अपने मत ने न्ममिचार प्रधान समा बहुत ही बुरा बतगते हैं और महिंसामून पर्म को सम से उपम नवा र उसी का स्थापन करते हैं, इस सिमे माप रुपा कर उन से शामा करने के लिये शीम परिष" उन लोगों के इस पाप को सुन कर मयपान किये हुए तथा उसके नशे म उन्मच उस मत का नेता भीरसमम परि महाराज के पास आया परन्तु पाठगण मान सकते हैं रिसर्य के सामने मन्मकार से ठहर सकता है। बस दमामूल पर्मरूसी सूर्य के सामने उस का मनानतिमिर (अनानरूपी अमेरा) दूर हो गया म त यह शामार्य में हार गमा तभा परम गजित हुआ, सत्य है कि-ठा का मोर रात्रि में ही रहता है किन्तु अब सूर्योदय होता है तब यह नेत्रों से मी नहीं देख सकता है, अब क्या भा-मीरसमम सरि का उपदेश मोर वानरूपी सूर्य का उदय भासिमापान में हो गया भोर वहाँ का अवानरूपी सब भन्मकार दूर हो गया भर्थात् उसी समय रामा उपसरे पवार ने हाथ मोड़ पर सम्पफ्ससहित भाव से बारह मतों का ग्रहण किया मौर दर मोरपणम्प पीहेमाबाग महारान सबा भीभा सरिकी समाये हुए सेसत में बना परम्परा भाषा पानने पाकिसे ये प्रम्ब सनरी मरे मत भाषा पाने कम्म र र सिप रंगना भीगिरानमनी मुनिम्न सहानुभा रहार माम प्रय रेपाना चाहिये जिस प्रवर्मन हम इसी प्रबोसो अभाव में बोर में रपुर सरप्राय प्रधमात्र गबन पामे व उपमेयी १० -पना गरेकार ने सामूम धर्म के माप परने बार भीमहार सामी प्रमभिर भोखिमों में बरपाया मोर उस प्रविश परमप्रभ मूर मारनेर पो पर मर भाभी भारियों में रिपमान (म्प्रेसर पर पाच समर व गाने परपर मनर शिरपरमात जान ऐसा भोमिया में भारपोरेसने से पम भारिपन परत बही मा मन मोशी (मार मणपोवामान् और मान +II Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। ६१९ छत्तीस कुली राजपूतों ने तत्काल ही दयामूल धर्म का अङ्गीकार किया, उस छत्तीस कुली में से जो २ राजन्य कुल वाले थे उन सब का नाम इस प्राचीन छप्पय छन्द से जाना जा सकता है:छप्पय-वार्द्धमान तणे पछै वरष बावन पद लीयो। श्री रतन प्रभ सूरि नाम तासु सत गुरु व्रत दीयो॥ भीनमाल हुँ ऊठिया जाय ओसियाँ बसाणा। क्षत्रि हुआ शाख अठारा उटै ओसवाल कहाणा ॥ इक लाख चौरासी सहस घर राजकुली प्रतिबोधिया। श्री रतन प्रभ ओस्याँ नगर ओसवाल जिण दिन किया ॥१॥ जीर्णोद्धार में अत्यन्त प्रयास (परिश्रम ) किया है अर्थात् अनुमान से पॉच सात हजार रुपये अपनी तरफ से लगाये हैं तथा अपने परिचित श्रीमानों से कह सुन कर अनुमान से पचास हजार रुपये उक्त महोदय ने अन्य भी लगवाये हैं, तात्पर्य यह है कि-उक्त महोदय के प्रशसनीय उद्योग से उक्त कार्य में करीब साठ हजार रुपये लग चुके है तथा वहाँ का सर्व प्रवन्ध भी उक्त महोदय ने प्रशसा के योग्य कर दिया है इस शुभ कार्य के, लिये उक्त महोदय को जितना धन्यवाद दिया जावे वह थोडा है क्योंकि मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाना बहुत ही पुण्यस्वरूप कार्य है, देखो! जैनशास्त्रकारों ने नवीन मन्दिर के वनवाने की अपेक्षा प्राचीन मन्दिर के जीर्णोद्धार का भाठगुणा फल कहा है (यथा च-नवीनजिनगेहस्य, विधाने यत्फल भवेत् ॥ तस्मादष्टगुण पुण्य, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ १ ॥ इस का अर्थ स्पष्ट ही है) परन्तु महाशोक का विषय है कि-वर्तमान काल के श्रीमान् लोग अपने नाम की प्रसिद्धि के लिये नगर में जिनालयों छ होते हुए भी नवीन जिनालयों को वनवाते हैं परन्तु प्राचीन जिनालयों के उद्वार की तरफ विलकुल प्यान नहीं देते हैं, इस का कारण केवल यही विचार में आता है कि-उन का उद्धार करवाने से उन के नाम की प्रसिद्धि नहीं होती है-वलिहारी है ऐसे विचार और बुद्धि की ! हम से पुन. यह कहे विना नहीं रहा जाता है कि-धन्य है श्रीमान् श्रीफूलचन्द जी गोलेच्छा को कि जिन्हों ने व्यर्थ नामवरी की ओर तनिक भी ध्यान न देकर सच्चे सुयश तथा अखण्ड धर्म के उपार्जन के लिये ओसिगॉ में श्रीमहावीर खामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करा के "ओसवाल वशोत्पत्तिस्थान" को देदीप्यमान किया। __ हम श्रीमान् श्रीमानमल जी कोचर महोदय को भी इस प्रसग में धन्यवाद दिये विना नहीं रह सकते है कि-जिन्हों ने नाजिम तथा तहसीलदार के पद पर स्थित होने के समय वीकानेरराज्यान्तर्गत सर्दारशहर, लूणकरणसर, कालू, भादरा तथा सूरतगढ आदि स्थानो मे अत्यन्त परिश्रम कर अनेक जिनालयो का जीर्णोद्धार करवा कर सच्चे पुण्य का उपार्जन किया ॥ १-बहुत से लोग ओसवाल वश के स्थापित होने का सवत् वीया २ वाइसा २२ कहते हैं, सो इस छन्द से वीया वाइसा सवत् गलत है, क्योंकि श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ७० वर्ष पीछे ओसवालवश की स्थापना हुई है, जिस को प्रमाणसहित लिस ही चुके हैं ॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ प्रथम साम्य पंचार सेस सीसौद सिंगाला। रणथम्मा राठोऊपंस घंषाल पपाला॥ वैया भाटी सौनगए फाषा धनगौड़ कही। जादम माला जिंद लाज मरजादू लडीज ॥ परदरा पाट औ पेखरा लेणों पटा जला सरा। एक दिवस इसा माहाजन या सर पा मिसासरा ॥२॥ उस समय भीरमपम सरि महाराज ने उपर कहे हुए रामपूठों की शासामों का माहामन पर और भठारह गोत्र स्थापित किये में मो कि निमछिलिप्त ८-१-Jहा गोत्र । २-बाफमा गोत्र । -फोट गोत्र । ५-पगहरा गोत्र । ५-मोरक्ष गोम। ६-कूलहट गोत्र । -निरहट गोत्र । ८-भीभीमाल गोत्र । ९-मेष्ठिगोत्र । १०-मुर्मिती गोत्र । ११-माईचांग गोत्र । १२-मरि ( मटेनरा) गोत्र । १३-भाद्रगोत्र । १४पीचर गोत्र । १५--कुमट गोन। १६-हिंदू गोन। १७-कनोम गोत्र । १८-समु भेष्ठि गोत्र || इस प्रकार ओसिया नगरी में माहामन पन मौर उफ १८ गोत्रों का स्मापन कर थी हि बी महाराम विहार कर गये और इस के पचात् दश वर्ष के पीछे पुन म्मसी बात नामक नगर में सरि जी महाराष विहार करते हुए पपारे और उन्हों ने राज पूतों के वश इनार परों को प्रतिपोप देकर उन का माजजन बंश भौर मुपड़ादि पहुत से गोत्र स्मापित किये। प्रिय मापक इन्द ! इस प्रकार उपर जिसे अनुसार सब से मथम माहावन की स्थापना अनाचार्य श्री राममरि जी महाराब मे की, उसके पीछे विक्रम संपत् सोमा सौ तक पहुत से अनाचार्या मे राजपूत, महेश्वरी श्म भोर असम जासिमालों को प्रति मोप देकर ( अपात् उपर पहुए माहागन पक्ष मा विस्तार कर) उनके माहाजन पश भोर भनेक गो का स्भासन दिया है जिस का मामाणिक इतिराम अत्यन्त मोर परने पर चा छ हम को प्राप्त हुभा हे उस फोहम सब मानने सिये लिमते है। माहाजन महिमा का पिच महायम सरोव व बागार मार माहान गरी दवा मारमा मार। पामगर्तवदेन विपि पार मापन प र प्रभात मसार गोल नही मनोपर पर माराम Hdस । मानव समाराम dad ca वि सम्बर 1 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ पचम अध्याय ॥ प्रथम संख्या-संचेती (सचंती) गोत्र ॥ विक्रम संवत् १०२६ (एक हजार छब्बीस ) में जैनाचार्य श्री वर्धमानमूरि जी महाराज ने मोनीगरा चौहान बोहित्य कुमार को प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वश और सचेती गोत्र म्यापित किया। अजमेरनिवासी संचतीगोत्रभूषण मेट श्री वृद्धिचन्द्र जी ने सरतरगच्छीय उपाध्याय श्री रामचन्द्र जी गणी (जो कि लश्कर में बड़े नामी विद्वान् और पट् शास्त्र के ज्ञाता हो गये हैं ) महाराज से भगवतीसूत्र सुना और तदनन्तर शत्रुजव का मह निकाला, कुछ समय के बाद शेत्रुजय गिरनार और आव आदि की यात्रा करते हुए माम्बलदास्थ (नारवाड देश में स्थित ) फलोधी पार्थनाय नामक स्थान में आये, उस समय फलवी पाधनाथ खामी के मन्दिर के चाग और काटी की बाड का पडकोटा था, उक्त विद्वर्य उपा-याय जी महागन ने वर्मोपदेश के समय यह कहा कि-"वृद्विचन्द्र ! लदमी लगा कर उस का लाभ लेने का यह म्यान है।" इस वचन को सुन कर सेट वृद्धिचन्द्रजी ने फल. वा पाधनाथ न्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा दिया और उस के चारो तरफ पछा मगीन पडकोटा भी बनवा दिया जो कि जब भी मौजूद है ॥ १-नदा त्रयोदय मायाण उत्रोद्दालक चन्द्रावती नगरी स्थापफ पोरवाट ज्ञानी श्री विमल मन्धिणा श्री भदाचले हरभदेवनामाद चारित.। तत्राद्यापि पिमल वसही इति प्रशिद्धिरन्ति । तत श्रीवर्धमानसरि सवत् १०८८ मध्य प्रतिष्टा रला प्रान्तऽनगन गृहीला वर्ग गत ॥ दस तीर्थ पर वापिरोत्सव प्रतिवर्ष नासाज दि नपणी और दगी को हुआ करता है, उस समय मापारणतया (आम तौर पर ) ममम्न देशों के और विगेपतया (माम तौर पर ) राजपूताना और मार. पार के यात्री जन अनुमान दश पन्द्रह सहस्र इस्टे होते ह, हम ने सन से प्रथम सवत् १९५८ के शास मास में मुर्शिदाबाद (अजीमग ) से बीकानेर को जाते समय इस स्थान की यात्रा की थी, दर्शन के समय गुहटत्तानाय से अनुमान पन्द्रह मिनट तक हम ने ध्यान किया था, उस समय इम तीर्थ का जो चमत्कार हम ने देखा तथा उम से हम को जो आनन्द प्राप्त हुआ उरा का हम वर्णन नहीं कर सकते हैं, उस के पश्चात् चित्त में यह जमिलापा वरावर वनी रही कि किसी समय वार्षिकोत्सव पर अपय चलना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से एक पन्थ दो कान होंगे परन्तु कार्यवश वह अभिलापा बहुत समय के पश्चात् पूर्ण हुई अर्थात् सवत् १२६३ में वार्षिकोत्सव पर हमारा वहा गमन हुआ, वहाँ जाकर यद्यपि हम अनेक प्रकार के मानन्द प्राप्त हुए परन्तु उन में से कुछ आनन्दों का तो वर्णन किये विना लेसनी नहीं मानती है अत वर्णन करना ही पड़ता है, प्रथम तो वहाँ जोवपुरनिवासी श्री कानमल जी पटवा के मुस से नवपटपूना का गाना मुन कर हम अतीन आनन्द प्राप्त हुआ, दुसरे उसी कार्य में पूजा के समय जोधपुरनिवासी विद्वर्य उपाध्याय श्री जुहारमल जी गणी वीच २ में अनेक जगहों पर पूजा का अर्थ कर रहे थे (जो कि गुदगमशेली से अर्थ की धारणा करने की वाठा रखनेवाले तथा भव्य जीवों के मुनने Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मैनसम्मपायरिया । द्वितीय सख्या-बरढिया (वरदिया) गोत्र ।। धारा नगरी में यहाँ के राजा मोय के परसोफ हो जाने के बाद उस नगरी का राज्य विस समय ३वरों को उन की बहादुरी के कारण प्राप्त हुआ उस समय मोजतष (मोब की मोसाद वाले ) लोग इस प्रकार हैसोम पा) से मी पुन पर में मानीव मावाद प्राप्त मा सरे-रात्रि समप सरन पर भीमान् भी पम्पन्द जी गोमा साप "भी फलोधी तीयोप्रति समा" रे रसम में यो म समन को भागन हमने प्राप्त हुमा गरमपापि (मग मी) व भूम पाता पस समग सा में बरपुर निवासी भी जनतामार कान्फ्रेंस के जनर सेक्रेटरी भी गुणवन्द जी रा एम ए. मिति के विषय में मपमा भाषणात वर्षा कर मेगा साधुणे (रस्कमा में ) विसिव र हेरे हम ने पहिले पहिस उप माप घ मातम सही एना बा रपमा के दिन प्रातस हमाणे रस महोपस (भीमान् श्री गुलामचन्द जी डा) से मुमत की और उनके साप बनेर रिफ्नों में गाठ देर समपातमिप होता रम उन पम्मीरता और पौजम्प रेस पर हमें ममन्त बारम प्राप्त मा मन्त में उप महाप्नर ने इस से कहा कि-बार रात्रि में पी पुचमार भारि विमों में भारम हागे मतः बाप भी किसी पर में भगत मापन कर भलु इस में भी उप महोरर मनुरोप से पिपुरसार विपक्ष में भापप रना सीघर र मिया मिरान रात्रि में पेष मौ बजे पर उप लिपस में हम ने अपनी प्रक्षिा मनसार मेज के समीप बोर पण सभा में मान प्रबस्ति रीति मावि प्र गोप पर भापमा सरे दिन जब उर मोरम से हमारी बात पुरे उस समय रनों ने हम से या कि-"मति पाप सम्स में तरफ से प्रसपूताने में परेप पर पो सम्मेर है कि पाव सी बाट म अपार से बर्षात् परपूताने मोप मी स्पेत होकर तम्म में पसर इससे उत्तर में हमने प्राक-"ऐसे उत्तम प्रमों परने में हो म सर्व वसर गरेपर्षद समापन 5० न का उपदेश करते है क्योंकि हम मेवों प्र म दीनही परम्त सभा साप से अभी इस प्रर्य करने में में मापारी पोलिस में एक परम-प्रथम गो-मारा पीर असम पय सोपतमान में प्रेसमामयोत्पत्ति विसपने में समचममापम मिति का भरम से इस म प्र प्रेमीकतिपक्षमा प्रराब करा मारमा रोजी री इस पपत् हम एमसी ग्रेवीप्रमेर पसे पसे परेशर पारेपी दिनों में मरमर से भी समर प्रससरफ से पुबा एप पर रम प्राप्त मा विष नकम यों भी सो मिति :भी जैन (Malम्पर) कोम्फरम्स भजमेर १५परपर . पुरा भी महापत्र भी भी श्रीरामय यो भी सेवा में--पनगरसिया--रला माहम ऐन-भर मुसा प रिण-भीर प्रमोपी में मा भाषण मेमोनम से पखाना मारवार में मातबसे मुमपान पुर पयाम है सिप मागण-माप सारपसे अपराधी -भमेवार भी भार मे माममा Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६२३ १ - निहंगपाल । २ - तालणपाल ३ - तेजपाल । ४- तिहुअणपाल ( त्रिभुवनपाल ) । ५- अनंगपाल । ६ - पोतपाल । ७- गोपाल । ८ - लक्ष्मणपाल । ९ - मदनपाल । १०कुमारपाल | ११ - कीर्त्तिपाल । १२ - जयतपाल, इत्यादि । वे सब राजकुमार उक्त नगरी को छोड़ कर जब से मथुरा में आ रहे तब से वे माथुर कहलाये, कुछ वर्षों के वीतने के बाद गोपाल और लक्ष्मणपाल, ये दोनों भाई केकेई आम में जा बसे, सवत् १०३७ ( एक हजार सैतीस ) में जैनाचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी महाराज मथुरा की यात्रा करके विहार करते हुए उक्त (केकेई ) ग्राम में पधारे, उस समय लक्ष्मणपाल ने आचार्य महाराज की बहुत ही भक्ति की और उन के धर्मोपदेश को सुनकर दयामूल धर्म का अङ्गीकार किया, एक दिन व्याख्यान में शेत्रुञ्जय तीर्थ का माहात्म्य आया उस को सुन कर लक्ष्मणपाल के मन में सघ निकाल कर शेत्रुञ्जय की यात्रा करने की इच्छा हुई और थोड़े ही दिनों में सघ निकाल कर उन्होंने उक्त तीर्थयात्रा की तथा कई आवश्यक स्थानों में लाखों रुपये धर्मकार्य में लगाये, जैनाचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी महाराज ने लक्ष्मणपाल के सद्भाव को देख उन्हें संघपति का पद दिया, यात्रा करके जब केकेई ग्राम में वापिस आ गये तब एक दिन लक्ष्मणपाल ने गुरु महाराज से यह प्रार्थना की कि - " हे परम गुरो ! धर्म की तथा आप की सत्कृपा ( बदौलत ) से मुझे सब प्रकार का आनन्द है परन्तु मेरे कोई सन्तति नहीं है, इसलिये मेरा हृदय सदा शून्यवत् रहता है" इस बात को सुन कर गुरुजी ने खरोदय ( योगविद्या ) के ज्ञान - बल से कहा कि-"तुम इस बात की चिन्ता मत करो, तुम्हारे तीन पुत्र होंगे और उन से तुम्हारे कुल की वृद्धि होगी" कुछ दिनों के बाद आचार्य महाराज अन्यत्र विहार कर गये विचरवो बहुत जरूरी है वडा २ शहरा में तथा प्रतिष्ठा होवे तथा मेला होवे जठे - कानफ्रेन्स आप को जावणी हो सके या किस तरह जिस्का समाचार लिखावें-क्योंकि उपदेशक गुजराती आये जिनकी जवान इस तरफ के लोगों के कम समझ मे आती है-आप की जवान में इच्छी तरह समझ सकते हें और आप इस तरफ के देश काल से वाकिफकार हैं-सो आप का फिरना हो सके तो पीछा कृपा कर जवाब लिखें-और खर्च क्या महावार होगा और आप की शरीर की तदुरुस्ती तो ठीक होगी समाचार लिखावे - बीकानेर मे भी जैनक्लब कायम हुवा है- सारा हालात वहा का शिववख्श जी साहव कोचर आप को वाकिफ करेंगे-चीकानेर मे भी बहुत सी बातो का सुधारा की जरूरत है सो वणें तो कोशीश करसी - कृपादृटी है वैसी बनी रहे आप का सेवक, धनराज कांसटिया- सुपर वाईझर यद्यपि हमारे पास उक्त पत्र भाया तथापि पूर्वोक्त कारणों से हम उक्त कार्य को स्वीकार नहीं कर मके ॥ १ - एक स्थान में श्रीवर्द्धमान सूरि के बदले में श्रीनेमचन्द्र सूरि का नाम देखा गया है ॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ और उन के कानानुकूल लक्ष्मणपाल के क्रम से ( एक के पीछे एक) चीन के उस्मा हुए, जिन का नाम लक्ष्मणपाल ने यशोपर, नारायण मौर महीचन्द रस्सा, अब ये तीनों पुत्र मौवनावस्था को प्राप्त हुए सब मणपाल ने इन सब का विवाह पर दिया, उन में से नारायण की मी के अब गर्मस्थिति हुई तब प्रथम जापा ( प्रस्त ) कराने के मि नारायण की मी को उस के पीहरपाले ले गये, यहाँ जाने के भाव समासमय उस के एक मोड़ा उत्पन्न हुमा, निस में एक वो साकी थी और दूसरा सर्पारुति (साँप की शुरपाला ) मका उत्पन्न हुआ था, इछ महीनों के बाद बच नारायण की भी पीहर से मुस राठ में भाई तन उस गोरे को देखकर लक्ष्मणपाल आदि सन लोग अस्पन्स पछिस हुए तमा लक्ष्मणपाठ ने मने लोगों से उस साकति मातक के उत्सम होने का कारण पूछा परन्तु किसी ने ठीक २ उस का उधर नहीं दिया (अर्थात् किसी ने कुछ कहा मौर किसी ने कुछ कहा ), इस लिये लक्ष्मणपास के मन में किसी के कहने का ठीक वौर से विश्वास नहीं हुआ, निदान वह मात उस समय यों ही रही, पर सर्पाकति माता का हास सुनिये कि वह शीत ऋतु के कारण सवा धूस्हे के पास आकर सोने लगा, एक दिन भवितणता के पच क्या हुमा किवा सारुति पाठक सो प्रस्हे की रास में सो रहा था भौर उसकी बहिन ने पार घड़ी के वरके उठ कर उसी पुस्से में ममि बना दी, उस ममि से परकर यह सारुति बालक मर गया और मर फर व्यन्तर हुआ, तम पह पन्तर नाग के रूप में वहाँ माफर भपनी बहिन को पहुत पियरने लगा तगा करने उगा कि-बर तक मैं इस म्पन्तरपन में रईगा सर सर सक्ष्मणपास के वंश में कहकिमां कमी मुसी नहीं रहेंगी भात् वरीर में कुछ न कुछ तकरीफ सदा ही बनी रहा करेगी। इस मसँग को सुनफर यहाँ महुस से लोग एकत्रित (वमा) दो गये और परस्पर भनेक प्रकार की बातें करने मगे, पोड़ी देर के नाव उन में से एक मनुष्य ने मिस की कमर में दर्द हो गया था इस म्मन्तर से कहा कि-"यदि सू देवता है वो मेरी कमर के दर्द को दूर कर दे" तब उस मागरूप पन्तर ने उस मनुष्य से कहा कि-"इस लक्ष्मणपास पर की दीवार (मीत) का तू स्पर्श कर, तेरी पीड़ा मठी जायेगी" निदान उस रोगी ने लक्ष्मण पाउ मनन की दीवात का स्पर्श किया और दीमाठ का स्पचे करते ही उस की पीड़ा पती गई, इस प्रत्यक्ष पमस्कार को देख कर ममणपास ने विचारा किया नागरुप में फर तक रहेगा ममात् यह तो वास्तव में म्पन्तर दे, भभी भाप हो जायेगा, इरा लिये इस से वह परन से सेना पाहिये कि मिस से सोगो उपनर हो, यह विपार पर कामपाल ने उस नागरूप म्मन्तर से कहा कि- नागदेरहमारी सन्तति (भौलाद) कोर पर देभा शिलिस से मुमारी कीर्ति इस ससार में बनी रहे" सममग्रह भी बात को सुन कर नागदेव ने उनसे कहा कि-' पर दिया ' " पर यही तुम्हारी Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग कर दिया के कारण अत्यन्त मात्र विख्यात हुआन में सर्प का उपकी पञ्चम अध्याय ॥ ६२५ सन्तति (औलाद ) का तथा तुम्हारे मकान की दीवाल का जो स्पर्श करेगा उस की कमर में चिणक से उत्पन्न हुई पीड़ा दूर हो जावेगी और तुम्हारे गोत्र में सर्प का उपद्रव नही होगा' बस तब ही से 'वरदिया, नामक गोत्र विख्यात हुआ, उस समय उस की बहिन को अपने भाई के मारने के कारण अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ और उस ने शोकवश अपने प्राणा का त्याग कर दिया और वह मरकर व्यन्तरी हुई तथा उस ने प्रत्यक्ष होकर अपना नाम भूवाल प्रकट किया तथा अपने गोत्रवालो से अपनी पूजा कराने की स्वीकृति ले ली, तब स यह वरदियो की कुलदेवी कहलाने लगी, इस गोत्र में यह बात अब तक भी सुनने में आती है कि नाग व्यन्तर ने वर दिया ॥ तीसरी संख्या-कुकुड़ चोपड़ा. गणधर चोपड़ा गोत्र ॥ खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिन अभयदेवसूरि जी महाराज के शिष्य तथा वाचनाचार्यपद में स्थित श्री जिनवल्लभसूरि जी महाराज विक्रम संवत् ११५२ (एक हजार एक सौ बावन ) में विचरते हुए मण्डोर नामक स्थान मे पधारे, उस समय मण्डोर का राजा नानुदे पड़िहार था, जिस का पुत्र धवलचन्द गलित कुष्ठ से महादुःखी हो रहा था, उक्त सूरि जी महारान का आगमन सुन कर राजा ने उन से प्रार्थना की कि-"हे परम गुरो! हमारे कुमार के इस कुष्ठ रोग को अच्छा करो" राजा की इस प्रार्थना को सुन कर उक्त आचार्य महाराज ने कुकड़ी गाय का घी राजा से मॅगवाया और उस को मन्त्रित कर राजकुमार के शरीर पर चुपड़ाया, तीन दिन तक शरीर पर घी के चुपड़े जाने से राजकुमार का शरीर कचन के समान विशुद्ध हो गया, तब गुरु जी महाराज के इस प्रभाव को देखकर सब कुटुम्ब के सहित राजा नानुदे पडिहार ने दयामूल धर्म का ग्रहण किया तथा गुरुजी महाराज ने उस का महाजन वश और कुकुड चोपड़ा गोत्र स्थापित किया, राजा नानुदे पड़िहार का मन्त्री था उस ने भी प्रतिबोध पाकर दयामूल जैनधर्म का महण किया और गुरु जी महाराज ने उस का माहाजन वंश और गणेधर चोपड़ा गोत्र स्थापित किया। राजकुमार धवलचन्दजी से पॉचवी पीढ़ी में दीपचन्द जी हुए, जिन का विवाह ओसवाल महाजन की पुत्री से हुआ था, यहाँ तक ( उन के समय तक) राजपूतों से सम्बध होता था, दीपचन्द जी से ग्यारहवाँ पीढ़ी में सोनपाल जी हुए, जिन्हों ने संघ निकाल कर शेत्रुञ्जय की यात्रा की, सोनपाल जी के पोता ठाकरसी जी बड़े बुद्धिमान् तथा चतुर हुए, जिन को राव चुडे जी राठौर ने अपना कोठार सुपुर्द किया था, उसी १-"वर दिया" गोन का अपभ्रश "वरदिया" हो गया है ॥ २-इस गोत्र वाले लोग बालोतरा तथा पञ्चभद्रा आदि मारवाड के स्थानों में हैं । Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ चैनसम्पदा शिक्षा ॥' विन से ममा ठाकरसी जी को फोठारी जी के नाम से पुकारने लगी, इन्हीं से कोठारी नल हुमा भर्मात् ठाकरसी भी की औलादनाले खोग कोठारी कहलाने बगे, कुकुड़ पड़ा गोत्र की मे (नीचे लिखी हुई) चार शाखायें हुई १-कोठारी । २-जुबकिया । २ -- धूपिया । ४--जोगिया ॥ इनमें से जुभक्रिया मावि सीन चाखा वाले पहिरने की स्वास मनाई की गई है परन्तु यह ( मनाई ) का क्या कारण है इस बात का ठीक २ पता नहीं लगा है ।। arat सस्या - धाडीवाल गोत्र || - लोगों के कुटुम्ब में बजने वाले गहनों के मनाइ क्यों की गई है भर्षात् इस गुजरात देव में डीडी जी नामक एक स्त्रीची रामपूर्व भाड़ा मारता मा, उस को क्रिम संवत् ११५५ ( एक हजार एक सौ पचपन ) में बानायाम पद पर स्थित श्री मिन पलभरि भी मद्दाराम ने प्रतिवोष देकर उस का माहाजन मश और पाड़ीवाल गोत्र स्थापित किया, डीडों बी की सातवीं पीढी में चांवल भी हुए, बिम्हों ने राम के कोठार का काम किया था, इसलिये उन की मौसादवाले लोग कोठारी कहछाने लगे, सेडो श्री writers aषपुर की रियासत के तिंवरी गांव में आकर बसे थे, उन के सिर पर टॉट भी इस लिये गाँववाले लोग सेडो जी को हौटिमा २ ह कर पुकारने लगे, अब पुन उनकी मौचाववाले लोग भी टॉटिया कमाने लगे ॥ पाँचवीं सम्या - लालाणी, वाँठिया, विरमेचा, हरखावत, साह और महावत गोत्र ॥ विक्रम संवत् ११६७ ( एक हजार एक सौ सड़सठ ) में पॅबार राजपूत छालसिंह को खरतरगच्छाधिपति मैनाचाम श्री जिनबलमसूरि जी महाराज न प्रतिबोध देकर उसक माहाजन बंध और वाणी गोत्र स्थापित किया, साबसिंह के साथ पुत्र थे जिनमें से बड़ा पुत्र बहुत वठ भर्षात् जोरावर या, उसी से वॉठिया गोत्र माया, इसी प्रकार दूसरे चार पुत्रों के नाम से उन के भी परिवार बाछे खोग विरमेचा, हरसाठ, साह भर मला मत कहलाने को || सूचना - युगप्रधान जैनाभाय भी जिनदधसूरि जी (जो कि बड़े वादा भी के नाम से चैनसंप में प्रसिद्ध दें) महाराज ने विक्रम संवत् ११०० (एक हजार एक स सत्तर) से लेकर विक्रम संवत् १२१० (एक हजार दो सौ दक्ष ) तक में राजपूत, मह श्वरी वैश्य और माम्रण बनवालों को प्रतिबोध बेकर सपा का भाव मनाव में, इसके १९६९ में १३५११३९ में शेषा ११४१ मे 1311 आभार ११ दिन अजगर मगर वहु Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। ६२७ प्रमाणरूप बहुत से प्राचीन लेख देखने में आये है परन्तु एक प्राचीन गुरुदेव के स्तोत्रं म यह भी लिखा है कि-प्रतिबोध देकर एक लाख तीस हजार श्रावक बनाये गये थे, उक्त श्रावकसघ में यद्यपि ऊपर लिखे हुए तीनो ही वर्ण थे परन्तु उन में राजपूत विशेष थ, उन को अनेक स्थलों में प्रतिबोध देकर उन का जो माहाजन वश और अनेक गोत्र स्थापित किये गये थे उन में से जिन २ गोत्रो का इतिहास प्राप्त हुआ उन को अव लिखते है ॥ ' छठी संख्या-चोरडिया, भटनेरा, चौधरी, सावणसुखा, गोलेच्छा, बुच्चा, पारख और गद्दहिया गोत्र ॥ ___ चन्देरी के राजा खरहत्थसिंह राठोर ने विक्रम सवत् ११७० ( एक हजार एक सौ सत्तर) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज के उपदेश से दयामूल जनधर्म का ग्रहण किया था, उक्त राजा (खरहत्थ सिंह ) के चार पुत्र थे-१-अम्बदव । २-नींबदेव । ३- सासाह और ४-आसू । इन में से प्रथम अम्बदेव की औलाढवाले लोग चोर बेरडिया (चोरडिया) कहलाये। चोर बेरडियों में से नीचे लिखे अनुसार पुनः शाखायें हुई: १-तेजाणी । २-धन्नाणी । ३-पोपाणी । ४-मोलाणी । ५-गल्लाणी । ६-देवसयाणा । ७-नाणी। ८-श्रवणी । ९-सदाणी । १०-कक्कड । ११-मक्कड । १२-भक्कड़ १३-लुटकण । १४-ससारा । १५-कोबेरा । १६-भटारकिया । १७-पीतलिया। दूसरे नीवदेव की औलादवाले लोग भटनेरा चौधरी कहलाये । तीसरे भंसासाह के पाँच स्त्रियाँ थीं उन पाँचों के पॉच पुत्र हुए थे१-कुँवर जी । २-गेलो जी । ३-बुच्चो जी । ४-पास जी और ५-सेल्हस्थ जी। इन में से प्रथम कुँवर जी की औलादवाले लोग साहसुखा ( सावणसुखा ) कहलाये। १-वड वडे गामे ठाम ठाम भूपती प्रतिवोधिया ॥ इग लक्खि ऊपर सहस तीसा कलू मे श्रावक किया। परचा देखाख्या रोग झाझ्या लीक पायल सतए ॥ जिणदत्त सूरि सूरीस सद गुरु सेवता सुख सन्तए ॥२१॥ २-कनोज में आसथान जी राठौर ने युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज से कहा था कि-"राठौर आज से लेकर जैनधर्म को न पालनेवाले भी खरतरगच्छवालो को अपना गुरु मानेगे। आसथान जी के ऊपर उक्त महाराज ने जव उपकार किया था उस समय के प्राचीन दोहे वहुत से हैं-जो कि उपाध्याय श्री मोहन लाल जी गणी के द्वारा हम को प्राप्त हुए हैं, जिन मे से इस एक दोहे को तो प्राय बहुत से लोग जानते भी है दोहा-गुरु खरतर प्रोहित सेवड, रोहिडियो वार॥ घर को मगत दे दडो, राठोड़ां कुल भट्ठ ॥ १॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ बैनसम्प्रदामविया ॥ दूसरे गेलो बी की मोसादवारे लोग गोमबख्या (गोरेगा) प्रगये। सीसरे उचो बी की औसावकारे लोग तुरा कागये। चौरे पासू बी की बोलावबारे ठोग पारस कहलाये। पारस कराने काहेत यह है कि-माहा नगर में रामा चन्द्रसेन की सभा में विस समम मन्य देश का निवासी एक जौहरी हीरा पेंचने के लिये छामा भौर रामा ने उस हीरे को विसगया, राना ने उसे देल र पपने नगर के वौहरियों को परीक्षा के मि बुग्गा कर उस हीरे को दिसगया, उस हीरे को देस फर नगर के सब बोहरिमों ने उन हीरे की बड़ी सारीफ की, देवयोग से उसी समय किसी कारण से पासू बी का भी राब सभा में भागमन हुमा, रामा चन्द्रसेन ने उस हीर को पास बी को दिसलारा भर पून कि-"यह हीरा सा पासू ची नस हीरे को अच्छी वर देस र बोडे कि"पीनाय ! यदि इस हीरे में एक मागुण न होता तो या हीरा पावर में प्रसंसनीय (तारीफ के गपक) मा, परन्तु इस में एक भबगुण है इस छिये माप के पास रात योम्म यह हीरा नहीं। रामा ने उन से पूछा कि-"इस में क्या भवगुण । पास् वा ने काा कि-"पीनाम! या हीरा मिस के पास रहता है उसके सीनही ठारती, यदि मेरी बात में पापा सन्देश हो छो इस मौहरी भाप वर्मास का रामा ने उस बौहरी से पूछा कि-"पास जी यो काते हैं क्या यह बात ठीक भौबारी यस्पन्त सष्ट होकर या कि-"पृप्पीनाथ ! निस्सन्देह पाम् बी माप नगर में एक नामी मोहरी हैं, मैं बहुत र २ तक धूमा है परन्तु इन समाम कोई मोहरी मेरे देखने में नहीं पाया है, इन कहना विनकुम सत्य है क्योंकि जब मा हीरा मेरे पास मागा था उसके गोरे ही दिनों के बाद मेरी भी गुमर गई थी, उसके मरमे के बाद मैं ने दूसरा विवाह किया परन्म का सी भी नहीं रही, भव मेरा विचार है कि में अपना तीसरा विवाह इस हीरे को निझाम कर (पंचकर) करुगा" जौहरी के सस्पमामण पर राजा बहुत शुश हुभा और उस को ईनाम देकर विदा किया, उसके माने के बाद राय चन्द्रसेन ने मरी सभा में पास जी से कहा कि-"वाह ! पारस ची पाहभाप ने खन ही परीया की" बस उसी दिन से रामा पम् बी पारस पीके नाम से पुचरने म्गा, फिर क्या था यथा रामा हा प्रया मर्थात् नगरवासी भी उ३ पारस पीपर पुरने भगे। परिव सेनरम पीसी मौसममा सोग गहिमा कराये ॥ या भी पुराने में भागापार (मेय या भा) भीमा पारे र पहिंग मलये। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ पञ्चम अध्याय | भैंसा साह ने गुजरात देश में गुजरातियों की जो लॉंग छुड़वाई उस का वर्णन ॥ भैसा साह कोट्यधिपति तथा बड़ा नामी साहूकार था, एक समय भैसा साह की मातु:श्री लक्ष्मीबाई २५ घोड़ों, ५ रथों, १० गाडियों और ५ ऊँटो को साथ लेकर सिद्धगिरि की यात्रा को रबाना हुईं, परन्तु दैवयोग से वे द्रव्य की सन्दूक (पेटी) को साथ में लेना भूल गई, जब पाटन नगर में (जो कि रास्ते में था ) मुकाम किया तब वहाँ द्रव्य की सन्दूक की याद आई और उस के लिये अनेक विचार करने पड़े, आखिरकार लक्ष्मीबाई ने अपने ठाकुर (राजपूत) को भेज कर पाटन नगर के चार बड़े २ व्यवहारियों को बुलवाया, उन के बुलाने से गर्धमसाह आदि चार सेठ आये, तब लक्ष्मीबाई ने उन से द्रव्य ( रुपये ) उधार देने के लिये कहा, लक्ष्मीबाई के कथन को सुन कर गर्वभसाह ने पूछा कि - " तुम कौन हो और कहाँ की रहने वाली हो" इस के उत्तर में लक्ष्मीबाई ने कहा कि “मैं भैंसे की माता हूँ" लक्ष्मीबाई की इस बात को सुन कर गर्धभसाह ने उन डोकरी लक्ष्मीबाई से हॅसी की अर्थात् यह कहा कि - "भैसा तो हमारे यहाँ पानी की पखाल लाता है" इस प्रकार लक्ष्मीबाई का उपहास (दिल्लगी ) करके वे गर्धभसाह आदि चारों व्यापारी चले गये, इधर लक्ष्मीबाई ने एक पत्र में उक्त सब हाल लिखकर एक ऊँटवाले अपने सवार को उस पत्र को देकर अपने पुत्र के पास भेजा, सवार बहुत ही शीघ्र गया और उस पत्र को अपने मालिक भैसा साह को दिया, भैंसा साह उस पत्र को पढ़ कर उसी समय बहुत सा द्रव्य अपने साथ में लेकर रवाने हुआ और पाटन नगर में पहुँच कर इधर तो स्वय गर्धमसाह आदि उस नगर के व्यापारियों से तेल लेना शुरू किया और उधर जगह २ पर अपने गुमाश्तों को भेज कर सब गुजरात का तेल खरीद करवा लिया तथा तेल की नदी चलवा दी, आखिरकार गर्धमसाह आदि माल को हाजिर नही कर सके अर्थात् बादे पर तेल नहीं दे सके और अत्यन्त लज्जित होकर सब व्यापारियों को इकट्ठा कर लक्ष्मीबाई के पास जा कर उन के पैरों पर गिर कर बोले कि "हे माता | हमारी प्रतिष्ठा अब आप के हाथ में है" लक्ष्मीबाई अति कृपालु थीं अतः उन्हों ने अपने पुत्र भैसे साह को समझा दिया और उन्हें क्षमा करने के लिये कह दिया, माता के कथन को भैंसे साह ने स्वीकार कर लिया और अपने गुमाश्तों को आज्ञा दी कि यादगार के लिये इन सब की एक लॉग खुलवा ली जावे और इन्हें माफी दी ! जावे, निदान ऐसा ही हुआ कि भैसा साह के गुमाश्तों ने स्मरण के लिये उन सब गुज १-इन का निवासस्थान मॉडवगढ़ था, जिस के मकानों का खंडहर अब तक विद्यमान है, कहते हैं कि-इन के रहने के मकान में कस्तूरी और अम्बर आदि सुगन्धित द्रव्य पोते जाते थे, इन के पास लक्ष्मी इतनी थी कि जिस का पारावार (गोर छोर ) नहीं था, भैसा साह और गद्दा साह नामक ये दो भाई थे ॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० बैनसम्प्रदायशिक्षा रातियों की घोसी की एक डॉग खुसवा कर सब को माफी वी भौर पे सप अपने २ पर गये, वहाँ पर भैंसे साह को रुपारेले बिरुद मिठा ॥ सातवीं सख्या-भण्डशोली, भूरा गोत्र ॥ भी लोद्रयापुर पटन (बो कि सम्मेर से पाच कोस पर है) के भाटी राजपूत सागर रावल के श्रीपर और रावधर नामक दो रामकुमार थे, उन दोनों को विक्रम सबत् ११७३ (एक इबार एक सौ सेहत्तर) में युगमपान वैनाचार्य भी भिनवचसरि जी महाराय ने प्रविनोध देकर उन का माहाबन वंश भोर मचाती गोत्र स्थापित किया, मणमाती गोत्र में विरु साह नामक एक परा माग्यसाठी पुरुप हो गया है, इसके विपर में यह बात प्रसिद्ध है कि यह षी का रोमगार करता था, किसी समय इस ने रुपासमा गाँव की रहने वाली घी बेचने के लिये आई हुई एफ सी से विशपेठ की ऐंडरी (इटोमी) किसी चतुराई से ले ली थी, उसी उरी के ममाम से बिल साह रे पास बहुत सा द्रम हो गया था, इस के पश्चात् मिरु साह ने चोदवपुर पटन में सहसफल पार्धनाथ सामी के मन्दिर का मीर्मादार करवाया, फिर पानमण्गर म्बापित किया, इत्यादि, सात्पर्य महर कि उस ने सास क्षेत्रों में पहुत सा द्रव्य सर्च किमो, भण्पशायी गोत्रपाठे मेग गेद्रवपुर पहन से उठ कर भौर २ देशों में जा बसे, ये ही मण्रचाली सम्मेर में प्रमा महामोरे। एक मण्डचाठी बोधपुर में भाकर रहा भौर राम्य की सरफ से उसे प्रम मिम भव' वह राम्प का काम करने म्गा, इसके बाद उस की औलादगाळे गेग महावनी पक्षा पारेस नाम एक मानपर सेवामा मिस के पाम पता है उसके पास मार (मविषय) व्य होता है। १ भगपा में वासभेप रिय पा इस दिये समसामाग पोत्र स्थापित मा सी मामा मपरम पीर से भपसाम (भागामसी) रो पगा। -पानी गावि की गरिने की भीर र पाबने गिसे स्पानिय मांग मेगापुर पाल में गपी मनेशनेब में ये मा (रेस) रखार पर उसकी परी भौर उस पर पी गे रण कर पा विरमान पर भाई, सिसा इसप पीर मिसा और ही में से पो मम मम सरभो निम्न व ई और स ग में से पोलिसपस बसि समसभा ख में निरिसहमी में इसा पीसे Anा पावापर उसने सारी पर से मेरम राबेसमें पीपीपा बसपा) समागमारी प्रभार पासमार सने मन में AuA रिप्रसार सेना पर पार र सिमरा मपीए पुरा समो प्रेभीर रस निकारन भेरी भेग्मर भागीरथम में रण या म ने रयिम मायरे में भी बनारा पा सरसर Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय || ६३१ करने लगे, जोधपुर नगर में कुल ओसवालों के चौधरी ये ही हैं, अर्थात् न्यात ( जाति ) सम्बन्धी काम इन की सम्मति के विना नही होता है, ये लडके के शिर पर नौ वर्ष तक चोटी को नहीं रखते है, पीछे रखते है, इन में जो बोरी दासोत कहलाते है वे ब्राह्मणो को और हिजड़ों को व्याह में नहीं बुलाते है, जोधपुर में भोजकों (सेवकों) से विवाह करवाते है | एक भण्डशाली बीकानेर की रियासत में देशनोक गॉव में जा बसा था वह देखने में अत्यन्त भूरा था, इस लिये गाँववाले सब लोग उस को भूरा २ कह कर पुकारने लगे, इस लिये उस की औलाद वाले लोग भी भूरा कहलाने लगे । ये सब ( ऊपर कहे हुए ) राय भण्डशाली कहलाते हैं, किन्तु जो खड भणशाली कहलाते है वे जाति के सोलखी राजपूत थे, इस के सिवाय खडभणशालियो का विशेष वर्णन नही प्राप्त हुआ || आठवीं संख्या - आयरिया, लूणावत गोत्र ॥ सिन्ध देश में एक हजार ग्रामों के भाटी राजपूत राजा अभय सिंह को विक्रम संवत् ११७५ ( एक हजार एक सौ पचहत्तर) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज ने प्रतिबोध देकर माहाजन वंश और आयरिया गोत्र स्थापित किया, इस की औलाद में लूणे नामक एक बुद्धिमान् तथा भाग्यशाली पुरुष हुआ, उस की औलाद वाले लोग लूणावत कहलाने लगे, लूणे ने सिद्धाचल जी का सघ निकाला और लाखों रुपये धर्मकार्य में खर्च किये, कोलू ग्राम में काबेली खोडियार चारणी नामक हरखू ने ल को वर दिया था इस लिये लूणावत लोग खोड़ियार हरखू को पूजते हैं, ये लोग बहुत पीढ़ियों तक बहलवे ग्राम में रहते रहे, पीछे जैसलमेर में इन की जाति का विस्तार होकर मारवाड़ में हुआ ॥ नवीं संख्या - बहूफणी, नाहटा गोत्र ॥ विक्रम धारा नगरी का राजा पृथ्वीधर पॅवार राजपूत था, उस की सोलहवाँ पीढ़ी में जोवन और सखू, ये दो राजपुत्र हुए थे, ये दोनों भाई किसी कारण धारा नगरी से निकल कर और जागल, को फतह कर वही अपना राज्य स्थापित कर सुख से रहने लगे थे, संवत् ११७७ ( एक हजार एक सौ सतहत्तर) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज ने जोबन और सच्चू ( दोनो भाइयों ) को प्रतिबोध देकर उन का माहाजन वंश और बहूफणागोत्र स्थापित किया । इन्ही की औलादवाले लोग युद्ध में नहीं हटे थे इस लिये वे नाहटा कहलाये । १- हूणा नाम का अपभ्रंश बाफणा हो गया है ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनसम्प्रदायशिक्षा ॥ इस के पश्चात् उखनौ के नपाप ने इन को राना का पद प्रदान किया था बिस से राना पच्छराज जी के परानेवाले लोग भी राजा कहलाने लगे थे। उपर कहे हुए गोत्रपाठों में से एक बुद्धिमान पुरुप ने फतहपुर के नमान ने मपनी घसुराई का अच्छा परिचय दिया था, मिस से नवान ने प्रसन्न होकर कहा था कि-"या रायादा है।" तब से नगरवासी लोग भी उसे रापवादा हने को और उस की मौसाद घाले लोग मी रापजादा कहलाये, इस प्रकार उपर पड़े हुए गोत्रम निरन्तर विचार होता रहा और उस की नीचे लिखी हुई १७वालामें हुई-बाफमा । २-नाहटा । २-रापजावा । १-पुछ। ५-घोरगाह। ६-इंडिया । ७-चोगा। ८-सोमम्मिा । ९-बाहतिया । १०-पसाह । ११-मीठनिया । १२-पापमार । १३-भाम् । १४-पतू रिया । १५-भगविया । १६-पटषा (जैसम्मेरवाला) १७-नानगाणी । दशवीं सख्या-रतनपुरा, कटारिया गोत्र ॥ विक्रम सनत् १०२१ ( एक इवार कीस) में सोनगरा पौहान रामपूत रवनसिंह ने रतनपुरनामक नगर रसापा, जिसके पाप पाट पर मिक्रम संवत् १९८१ (एकागार एक सौ झ्यासी) में भमय तृतीया के दिन घनपाठ रामसिंहासन पर मैठा, एक दिन राना पनपाठ सिकार करने के रिसे अंगत में गमा भौर सुप न रहने से बहुत दूर पम गया परन्तु कोई भी शिकार उसकेम न लगी, भासिरकार यह निराश होकर वापिस छोय, छौटते समय रास्से में एक रमणीक सागव दीस पराग यह पोरेको एक नीचे मॉम कर तालाब के किनारे बैठ गया, मोड़ी देर में उस को एक मम सर्प मोड़ी ही दूर पर दीस पड़ा भोर मोक्ष में माकर ज्यों ही राजा ने उसके सामने एक पत्थर फेंका स्पो ही यह सर्प मस्यन्त गुस्से में मर गया और उस ने रामा पनपाठ कोशीम ही घट खाया, पाटसे ही सर्प का दिन पा गया मौर राचा मूर्षित (बेहोश ) होकर गिर गया, देपयोग से उसी मवसर में पहो चान्स, दान्त, निवेन्द्रिय तथा अनेक विधामों के निमि युगमपान चैनाचार्य भीबिनवत रिमी महाराग मनेफ साभुमों के सम विहार करते हुए मा निकले मौर मागे में मृततुस्म परे हुए मनुष्य को देस फर भाचार्य महारान सो हो गये और एक शिष्य से कहा कि-"इस के समीप बाफर देसो कि-इसे क्या हम है" चिप्प मे देस कर बिनम के साप हा कि-" महाराम ! मास होता है कि-सो सर्प ने काटा है" इस बात को मुन कर परोपकारी क्यामिमि भाचार्य महाराज उसके। पास अपनी क्रमठी विणा कर पेठ गये और ष्टिपाच विषा के द्वारा उस पर भपमा/ भोमा फिराने मो, मोरी ही देर में पनपाल सन्म होकर उठ पेय मौर मपने पास महा प्रतापी भानावे महाराम को मैठा हुषा देख कर उस ने धीमही सरेहोकर उन ममम और बन्दन किया तथा गुरु महाराम ने उस से पर्ममम मा, उस समय राय मनपाल Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। ६३३ ने गुरु जी से अपने नगर में पधारने की अत्यन्त विनति की अतः आचार्य महाराज रत्नपुर नगर में पधारे, वहाँ पहुँच कर राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि-"मै अपने इस राज्य को आप के अर्पण करता हूँ, आप कृपया इसे स्वीकार कर मेरे मनोवाछित को पूर्ण कीजिये" यह सुन कर गुरुजी ने कहा कि-"राज्य हमारे काम का नहीं है, इस लिये हम इस को लेकर क्या करें, हम तो यही चाहते है कि तुम दयामूल जैनधर्म का ग्रहण करो कि जिस से तुम्हारा इस भव और पर भव में कल्याण हो" गुरु महाराज के इस निर्लोम वचन को सुन कर धनपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और महाराज से हाथ जोड़ कर वोला-कि-"हे दयासागर ! आप चतुर्मास में यहाँ विराज कर मेरे मनोवाछित को पूर्ण कीजिये" निदान राजा के अत्यन्त आग्रह से गुरु महाराज ने वहीं चतुर्मास किया और राजा धनपाल को प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वंश और रत्नपुरा गोत्र स्थापित किया, इस नगर में आचार्य महाराज के धर्मोपदेश से २४ खापे चौहान राजपूतों ने और बहुत स महेश्वरियो ने प्रतिबोध प्राप्त किया, जिन का गुरुदेव ने माहाजन चश और मालं आदि अनेक गोत्र स्थापित किये, इस के पश्चात् रत्नपुरा गोत्र की दश शाखायें हुई जो कि निम्नलिखित है: १-रत्नपुरा । २-कटारिया। ३-कोचेटा । ४-नराण गोता। ५-सापद्राह । ६-भलाणिया । ७-सॉभरिया । ८-रामसेन्या । ९-चलाई । १०-बोहरा । रत्नपुरा गोत्र में से कटारिया शाखा के होने का यह हेतु है कि-राजा धनपाल रत्नपुरा की औलाद में झॉझणसिंह नामक एक बड़ा प्रतापी पुरुष हुआ, जिस को सुलतान ने अपना मन्त्री बनाया, झॉझणसिंह ने रियासत का इन्तिजाम बहुत अच्छा किया इस लिये उस की नेकनामी चारों तरफ फैल गई, कुछ समय के वाद सुलतान की आज्ञा लकर झाँझणसिंह कार्तिक की पूर्णिमा की यात्रा करने के लिये शत्रुञ्जय को रवाना हआ. वहाँ पर इस की गुजरात के पटणीसाह अवीरचद के साथ (जो कि वहाँ पहिले आ पहुंचा था) प्रमु की आरति उतारने की बोली पर वदावदी हुई, उस समय हिम्मत बहादुर मुहते झॉझणसिंह ने मालवे का महसूल ९२ (वानवे ) लाख (जो कि एक वर्ष के इजारह में आता था) देकर प्रभुजी की आरती उतारी, यह देख पटणीसाह भी चकित हो गया और उसे अपना साधर्मी कह कर धन्यवाद दिया, झाँझणसिंह पालीताने से रवाना हो कर मार्ग में दान पुण्य करता हुआ वापिस आया और दर्वार में जाकर १-१-हाडा। २-देवडा। ३-सोनगरा । ४-मालडीचा । ५-कूदणेचा। ६-वेडा। ७-बालोत । ८चीवा। ९-काच । १०-खीची। ११-विहल । १२-संभटा। १३-मेलवाल । १४-वालीचा। १५-माल्हण । १६-पावेचा। १७-कावलेचा। १८-रापडिया। १९-दुदणेच । २०-नाहरा । २१-ईवरा । २२-राकसिया । २३-वाघेटा । २४-साचोरा ॥ २-माल जाति के राठी महेश्वरी ये ॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० मैनसम्प्रवाक्षिक्षा || सुलखान से सलाम की, झुकतान उसे देख कर बहुत प्रसन्न हुमा तथा उसे उसका पूर्व काम सौंप दिया, एक दिन इन्कारे ने सुल्तान से झाँक्षणसिंह की चुगळी वाई मर्षात् यह कहा कि - " हजूर सामत ! शाँझमसिंह ऐसा जबरदस्त है कि उस ने अपने पीर के किये करोड़ों रुपये स्वमाने के स्वर्भ कर दिये और भाप को उस की खबर तक नहीं बी" इसका की इस बात को सुन कर सुल्तान बहुत गुस्से में बागया और झाँझणसिंह को उसी समय वर्वार में मुळवाया, साँझणसिंह को इस भाव की स्वबर पहिले ही से हो गई भी इस लिये वह अपने पेट में कटारी मार कर तथा ऊपर से पेटी बाँध कर वर में हामिर हुआ और सुल्तान को सकाम कर अपना सब हाल कहा और यह भी कहा कि“हजुर ! आप की बोवाला पीर के भागे मैं कर आया हूँ" इस बात को सुन कर सुब सान बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु कमरपेटी के खोलने पर शॉझणसिंह की जान निकल गई, बस यहीं से कटारिया नाला मकट हुई अर्थात् झझिणसिंह की मौकाव वाले लोग कटा रिमा कहलाये, कुछ समय के बाद इनकी भौताव का निवास मॉडलगढ़ में हुआ, किसी कारण से मुसलमानों ने इन लोगों को पकड़ा और माईस हजार रुपये का दण्ड किमा, उस समय जगरूप जी यति ( जो कि खरतरभहारकगच्छीय भे) ने मुसम्मानों को कुछ नमस्कार दिला कर कटारियों पर जो बाईस हजार रुपये का que मुसलमानों ने किया था वह छुड़वा दिया, रमपुरा गोत्रवाळे एक पुरुष ने मछाइयाँ (डेड जाति के छोगों ) के साथ खेन देन का व्यापार किया था वहीं से मलाई वास्ता हुई अर्थात् उस की औसादमाले सोग मलाई कहलाने लगे || ग्यारहवीं सख्या - रोका, काला, सेठिया गोत्र ॥ पाली नगर में राजपूत भाति के काकू और पाताक नामक दो भाई थे, विक्रमसंवत् १९८५ ( एक हजार एक सौ पचासी ) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदध सूरि जी महाराज विहार करते हुए इस नगर में पधारे, महाराज के धर्मापदेश से काकू को मति मोष प्राप्त हुआ, पाठाक ने गुरु जी से कहा कि- “महाराज ! हम्म धो मेरे पास बहुत परन्तु सन्तान कोई नहीं है, इस लिये मेरा चित सदा दु.लिख रहया दे" यह सुन कर दे गुरु महाराज ने कहा कि- "तू वषामुळे धर्म का प्रण कर तेरे पुत्र होनेंगे" इस बचन पर श्रद्धा रख कर पावाफ ने दमामूल धर्म का महण किया तथा आचार्य महाराज अन्यन बिहार फर गये, काकू बहुत तु घरीर का था इसलिये लोग उसे शंका नाम મે पुफा रो, पावक के दो पुत्र हुए जिनका नाम काटा और बांका था, इनमें से रोका फो नगर सेठ का पद मिला, रोक सेठ की भोलादपाचे होग रोका और सेठिया कदम, पाठाक के प्रथम पुत्र का की बाद वाले लोग पपा और बक फलामे तथा बांध की भौठा बायोग मा गोरा और दक माये, मस इन का वर्णन यही निम्नलिखित है६-गोरा । ७ । १ नका । २-पोठिया । ३ता । ४ । ५- माँका ―― Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। , ६३५ बारहवीं संख्या-राखेचाह, पूगलिया गोत्र ॥ पूगल का राजा भाटी राजपूत सोनपाल था तथा उस का पुत्र केलणदे नामक था, उस के शरीर में कोढ़ का रोग हुआ, राजा सोनपाल ने पुत्र के रोग के मिटाने के लिये अनेक यत्न किये परन्तु वह रोग नहीं मिटा, विक्रमसंवत् ११८७ ( एक हजार एक सौ सतासी) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज विहार करते हुए वहाँ पधार, राजा सोनपाल बहुत से आदमियों को साथ लेकर आचार्य महाराज के पास गया आर नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर बैठ गया तथा गुरु जी से हाथ जोड़ कर बोला कि-"महाराज ! मेरे एक ही पुत्र है और उस के कोढ़ रोग हो गया है, मैं ने उस के मिटने के लिये बहुत से उपाय भी किये परन्तु वह नहीं मिटा, अब मैं आप की शरण में आया हूँ, यदि आप कृपा करें तो अवश्य मेरा पुत्र नीरोग हो सकता है, यह मुझ को दृढ़ विश्वास है" राजा के इस वचन को सुन कर गुरु जी ने कहा कि-"तुम इस भव आर पर भव में कल्याण करने वाले दयामूल धर्म का ग्रहण करो, उस के ग्रहण करने से तुम को सव सुख मिलेंगे" राजा सोनपाल ने गुरु जी के वचन को आदरपूर्वक स्वीकार किया, तब गुरु जी ने कहा कि-"तुम अपने पुत्र को यहाँ ले आओ और गाय का ताजा घी भी लेते आओ" गुरु जी के वचन को सुन कर राजा सोनपाल ने शीघ्र ही गाय का ताजा घी मँगवाया और पुत्र को लाकर हाजिर किया, गुरु महाराज ने वह घृत केलणदे के शरीर पर लगवाया और उस पर दो घटे तक खय दृष्टिपाश किया, इस प्रकार तीन दिन तक ऐसा ही किया, चौथे दिन केलणदे कुमार का शरीर कञ्चन के समान हो गया, राजा सोनपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उस के मन में अत्यन्त भक्ति और श्रद्धा की चाह को देख कर आचार्य महाराज ने वासक्षेप देने के समय उस का माहाजन वंश और राखेचाह गोत्र स्थापित किया । राखेचाह गोत्रवालों में से कुछ लोग पूगल से उठ कर अन्यत्र जाकर वसे तथा उन को लोग पूगलिया कहने लगे, वस तब से ही वे पूगलिया कहलाये ॥ तेरहवीं संख्या-लूणिया गोत्र ॥ सिन्ध देश के मुलतान नगर में मुंधडा जाति का महेश्वरी हाथीशाह राजा का देश दीवान था, हाथीशाह ने राज्य का प्रवध अच्छा किया तथा प्रजा के साथ नीति के अनु. १-एक जगह इस का नाम धींगडमल्ल लिखा हुआ देखने में आया है तथा दो चार वृद्धों से हमने यह भी सुना है कि मुंधडा जाति के महेश्वरी धींगडमल्ल और हाथीशाह दो भाई थे, उन में से हायी. शाह ने पुत्र को सर्प के काटने के समय में श्री जिनदत्त जी सूरि के कथन से दयामूल धर्म का ग्रहण किया था, इत्यादि, इस के सिवाय लुणिया गोत्र की तीन वशावलियाँ भी हमारे देखने में आई जिन में प्राय लेख तुल्य है अर्थात तीनों का लेख परस्पर में ठीक मिलता है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जैनसम्पदामशिक्षा | सार बर्ताव किया, इस लिये राजा भौर पचा उस पर बहुत नुक्ष हुए, कुछ समय के भाव हामीचाद के पुत्र उत्पन हुआ और उस ने दसोहन का उत्सव बड़ी धूमधाम से क्रिया सभा पुत्र का नाम नक्षत्र के अनुसार भ्रूणा रक्सा, अब वह पाँच वर्ष का हो ग सब दीवान ने उस को विद्या का पढ़ाना प्रारंभ किया, बुद्धि के वीक्ष्ण होने से वा ने विद्या तथा फछाकुञ्चलता में अच्छी निपुणता प्राप्त की, जब कणा की अवस्था भीस वर्ष की हुई वन दीवान हामी चाह ने उस का विवाह मड़ी धूमधाम से किया, एक वि मसग है कि-रात्रि के समय रूणा और उस की भी पर्कंग पर सो रहे थे कि इतने में वैदवस सोते हुए ही कणा को साँप ने काट खाया, इस भाव की सवर कणा के पिता को मात काळ हुई, तब उस ने झाड़ा झपटा और योषधि आदि बहुत से उपाय करवाये परन्तु कुछ भी फायदा नहीं हुआ, विप के वेग से छणा बेहोश हो गया तथा इस समा चार को पाकर नगर में चारों ओर हाहाकार मच गया, सब उपायों के निष्फळ होने से दीवान मी निराश हो गया अर्थात् उस ने पुत्र के जीवन की आशा छोड़ दी तथा सू की स्त्री सती होने को तैयार हो गई, उसी दिन भर्मात् विक्रमसंवत् १९९२ ( एक हजार एक सौ बानवे) के अक्षयतृतीया के दिन युगमपान जैनाचार्य श्री जिनवधसूरि बी महाराय विहार करते हुए वहाँ पधारे, उन का आगमन सुन कर बीवान हामीसाम माचार्य महाराम के पास गया और नमन वन्दन आदि करके अपने पुत्र का सब पृच्छन्त कह सुनाया तथा यह भी कहा कि-"यदि मेरा जीवनाधार कुछदीपक प्यारा पुत्र जीवित हो माये तो मैं छात्रों रुपयों की बनाहिरात आप को भेंट करूँगा और भाप जो कुछ आशा प्रदान करेंगे बद्दी में स्वीकार करूँगा" उस के इस बधन को सुन कर आचार्य महा राम ने कहा कि - "हम त्यागी है, इस लिये व्रन्म लेकर हम क्या करेंगे, हाँ यदि तुम अपने कुटुम्ब के सहित दयामूख भ्रम का महण करो तो तुम्हारा पुत्र भीमित हो सकता बगहाभीसा ने इस बात को स्वीकार कर लिया तब आचार्य महाराज ने चारों रफ पड़वे डलवाकर जैसे रात्रि के समय खुणा और उस की स्त्री पढेंग पर सोते उसी प्रकार सुरूबा दिया और ऐसी कि फिराई कि नही सर्प आकर उपस्थित हो गया, हुए बे सन व्यापार्य महाराज मे उस सर्प से कहा कि- "इस का सम्पूर्ण निव स्लीप से" मह सुनते ही सर्प पग पर घर गया और विप का चूसना प्रारम्भ कर दिया, इस प्रकार कुछ देर में सम्पूर्ण निप को खींच कर वह सर्प चला गया और पूजा सचेत हो गया, नगर में रंग होने और भानन्य पाजन बमने लगे तथा दीवान हामीचाद ने उसी समय बहुत कुछ दान पुण्य कर कुटुम्बसहित दयामूळ धर्म का महण किया, भाचार्य महाराज मे उस का माहाजन वंश भार वणिया गोत्र स्थापित किया || राग सूचना-प्रिय वाचकवृन्द ! पहिले जिस चुके हैं कि दादा साहब पुरामधान सेना Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६३७ चार्य श्री जिनदत्त सूरि महाराज ने सवा लाख श्रावकों को प्रतिबोध दिया था अर्थात् उन का माहाजन वश और अनेक गोत्र स्थापित किये थे, उन में से जिन २ का प्रामाणिक वर्णन हम को प्राप्त हुआ उन गोत्रों का वर्णन हम ने कर दिया है, अब इस के आगे खरतरगच्छीय तथा दूसरे गच्छाधिपति जैनाचार्यों के प्रतिबोधित गोत्रों का जो वर्णन हम को प्राप्त हुआ है उस को लिखते है: चौदहवीं संख्या - साँखला, सुराणा गोत्र ॥ विक्रमसंवत् १२०५ ( एक हजार दो सौ पॉच) में पॅवार राजपूत जगदेव को पूर्ण तल्लगच्छीय कलिकाल सर्वज्ञ जैनाचार्य श्री हेमंचन्द्रसूरि जी महाराज ने प्रतिबोध देकर जैनी श्रावक किया था, जगदेव के सूर जी और सॉवल जी नामक दो पुत्र थे, इन में से सूर जी की औलादवाले लोग सुराणा कहलाये और साँवल जी की औलाद वाले लोग सॉंखला कहलाये ॥ पन्द्रहवीं संख्या - आघरिया गोत्र ॥ सिन्ध देश का राजा गोसलसिंह भाटी राजपूत था तथा उस का परिवार करीब पन्द्रह सौ घर का था, विक्रमसंवत् १२१४ ( एक हजार दो सौ चौदह ) में उन सब को नरमणि मण्डित भालस्थल खोड़िया क्षेत्रपालसेवित खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वश और आघरिया गोन्न स्थापित किया || १ - इन का जन्म विक्रमसंवत् ११४५ के कार्तिक सुदि १५ को हुआ, ११५४ मे दीक्षा हुई, ११६६ में सूरि पद हुआ तथा १२२९ में स्वर्गवास हुआ, ये जैनाचार्य बडे प्रतापी हुए हैं, इन्हों ने अपने जीवन मैं साढे तीन करोड श्लोकों की रचना की थी अर्थात् संस्कृत और प्राकृत भाषा में व्याकरण, कोश, काव्य, छन्द, योग और न्याय आदि के अनेक ग्रन्थ बनाये थे, न केवल इतना ही किन्तु इन्हों ने अपनी विद्वत्ता के वल से अठारह देशों के राजा कुमारपाल को जैनी बना कर जैन मत की बडी उन्नति की थी तथा पाटन नगर में पुस्तकों का एक वडा भारी भण्डार स्थापित किया था, इन के गुणों से प्रसन्न होकर न केवल एतद्देशीय (इस देश के ) जनों ने ही इन की प्रशसा की है किन्तु विभिन्न देशों के विद्वानों ने भी इन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है, देखिये ! इन की प्रशंसा करते हुए यूरोपियन स्कालर डाक्टर पीटरसन साहब फरमाते हैं कि-“श्रीहेमचन्द्राचार्य जी की विद्वत्ता की स्तुति जवान से नहीं हो सकती है" इत्यादि, इन का विशेष वर्णन देखना हो तो प्रवन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थों में देख लेना चाहिये ॥ २–इन का जन्म विक्रमसंवत् ११९१ के भाद्रपद सुदि ८ के दिन हुआ, १२११ मे वैशास्त्र सुदि ५ को ये सूरि पद पर बैठे तथा १२२३ मे भाद्रपद यदि १४ को दिल्ली में इन का स्वर्गवास हुआ, इन को दादा साहिव श्री जिन दत्त सूरि जी महाराज ने अपने हाथ से सवत् १२११ में वैशाख सुदि ५ के दिन विक्रमपुर नगर में (विक्रमपुर से बीकानेर को नही समझना चाहिये किन्तु यह विक्रमपुर दूसरा नगर था ) Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा || सोलहवीं सख्या- दुगड, सूगड़ गोत्र ॥ पाली नगर में सोमचन्द्र नामक स्त्रीची राजपूत राज्याधिकारी या, किसी कारण से वा राजा के कोम से वहाँ से भाग कर देश के मध्यवर्ती खांगरू नगर में कटाकर क्स ૨૦ गमा, सोमचन्द्र की ग्यारहवीं पीढ़ी में सूरसिंह नामक एक बज्रा नाभी शूरवीर हु सूरसिंह के दो पुत्र मे बिन में से एक का नाम दूगड़ और दूसरे का नाम सूगर था, इन दोनों भाइयों ने मांग को छोड़ कर मेवाड़ देश में आघाट गाँग को आवाजात महीं रहने लगे, वहाँ तमाम गाँववाले लोगों को नाहरसिंह वीर बड़ी तकलीफ देखा था, उस ( तकलीफ) के दूर करने के लिये प्रामनिवासियों ने धनेक भोपे आदि को मुख्मय तभा उन्हों ने भाकर अपने २ अनेक इम दिखलाये परन्तु कुछ भी उपवन शान्त व हुआ और वे (भोपे नावि) हार २ कर चले गये, विक्रमसंवत् १२१७ ( एक हजार दो सौ सह ) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनवरि जी महाराज के पट्ट मार नरमणिमण्डित मास्क खोरिया क्षेत्रपा सेवित जैनाचार्य श्री जिनचन्त्र सूरिजी महा राज विहार करते हुए वहाँ ( आघाट ग्राम में ) पधारे, उन की महिमा को सुनकर दूसर और सुगर दोनों भाई आचार्य महाराज के पास माये और नमन वन्दन भावि ि धार कर बैठ गये तथा महाराज से अपना सब दुख प्रकट कर उस के मिटाने के लिये अत्यन्त धामह करने लगे, उन के अत्यन्त भामह से कृपाल माचार्य महाराज ने पद्मावती जमा और विजया देमियों के प्रभाव से नारसिंह वीर को वश में कर लिया, ऐसा होने से गाँव का सब उपद्रव शान्त हो गया, महाराज की इस अपूर्व शक्ति को देख कर आचार्य पद पर स्थापित किया था तथा बची (पाठ) मोदक ने किया था ये गोनों (गु माचार्य महाप्रतापी हुए थे जहाँ तक होने के बाद भी एहों ने अनेक विभ्रम मे और वर्तमान में भी मे अपने भार दिखा रहे है, इन महाका प्राय प्रमाण नहीं है कि ऐसा कोई भी प्राचीन मन भी मा गयर नहीं है जिसमें इन के चरणों का स्थान किया क्या हो अर्थात् सब दीनमरों में मन्दिरों और दोषों में इन के परम विराजमान है और दादा भी के नाम से विस्मात रे, पद्म श्रीमजी महाराज का रिफ्री में वर्मा हुआ था तब भावों ने उनकी म को दो में जिये एक्सी थी, उस समय मह चमत्कार हुआ कि वहाँ से पीस चमत्कार को देय कर मादाह ने वहीं पर क्म दे दिया तब भी ने यहीं पर नाम दे दिया पुरानी दि पर अभी तक उन के चरण मौजूद है, यदि दनक सेवा उपभाव भी क्षमा में महान् विशन् हो पर्ने ई सीरी आदि अनेक सम्म सेय में रपे रे ) के माने हुए थे पहने स्पाची पण जो बनाई पर म नामक Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६३९ दोनों भाई बहुत प्रसन्न हुए और बहुत सा द्रव्य लाकर आचार्य महाराज के सामने रख कर भेंट करने लगे, तब महाराज ने कहा कि - "यह हमारे काम का नहीं है, अतः हम इसे नहीं लेंगे, तुम दयामूल धर्म के उपदेश को सुनो तथा उस का ग्रहण करो कि जिस से तुम्हारा उभय लोक में कल्याण हो" महाराज के इस वचन को सुन कर दोनों भाइयों ने दयामूल जैनधर्म का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज थोडे दिनों के बाद वहाँ से अन्यत्र विहार कर गये, बस उसी धर्म के प्रभाव से दूगड़ और सूगड़ दोनों भाइयों का परिवार बहुत बढा ( क्यों न बढ़े- 'यतो धर्मस्ततो जयः' क्या यह वाक्य अन्यथा हो सकता है) तथा बड़े भाई दुगड की औलाद वाले लोग दूगड़ और छोटे भाई सुगड़ की औलादवाले लोग सुगड़ कहलाने लगे || ❤ सत्रहवीं संख्या- मोहीवाल, आलावत, पालावत, दूधेड़िया गोत्र ॥ विक्रमसंवत् १२२१ ( एक हजार दो सौ इक्कीस ) में मोहीग्रामाधीश पॅवार राजपूत नारायण को नरमणि मण्डित भालस्थल खोडिया क्षेत्रपाल सेवित जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वंश और मोहीवाल गोत्र स्थापित किया, नारायण के सोलह पुत्र थे अतः मोहीवाल गोत्र में से निम्नलिखित सोलह शाखायें हुई : १ - मोहीवाल | २ - आलावत । ३ - पालावत । ४ - दूधेड़िया । ५ - गोय । ६ –थरावत । ७- खुडघा । ८-टौडरवाल । ९ - माधोटिया । १० - बभी । ११ – गिड़िया । १२ - गोड़वाढ्या । १३–पटवा । १४ - बीरीवत । १५ - गाग । १६-गौध ॥ अठारहवीं संख्या - बोथरा ( बोहित्थरा ), फोफलिया बच्छावतादि ९ खॉपें ॥ श्री जालोर महादुर्गाधिप देवडावशीय महाराजा श्री सामन्त सी जी थे तथा उन के दो रानियाँ थीं, जिन के सगर, वीरमदे और कान्हड़नामक तीन पुत्र और ऊमा नामक एक पुत्री थी, सामन्त सी जी के पाट पर स्थित होकर उन का दूसरा पुत्र वीरमदे जालो - राधिप हुआ तथा सगर नामक बड़ा पुत्र देलवाड़े में आकर वहॉ का खामी हुआ, इस का कारण यह था कि सगर की माता देलवाड़े के झाला जात राना भीमसिंह की पुत्री थी और वह किसी कारण से अपने पुत्र सगर को लेकर अपने पीहर में जाकर (पिता के यहाँ ) रही थी अतः सगर अपने नाना के घर में ही बड़ा हुआ था, जब सगर युवावस्था १ - दोहा - गिरि अठार आबू धणी, गल जालोर दुरंग ॥ तिहाँ सामन्त सी देवडो, अमली माण अभग ॥ १ ॥ २- यह पिङ्गल राजा को व्याही गई थी ॥ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जेनसम्प्रदायशिक्षा । को प्राप्त हुमा उस समय सगर का नाना भीमसिंह (बो कि अपुत्र पा) मृत्यु को प्रात हो गया तथा मरने के समय यह सगर को अपने पाट पर सापित कर देने का परंग कर गया, बस इसी रिये सगर ११० प्रामों के सहित देवरवाड़े का रामा हुआ मोर उसे दिन से वह राना कहलाने लगा, उस का श्रेष्ठ तपस्तेन चारों ओर फैछ गमा, उस समय चिोड़ के राना रतन सी पर माम्नपति मुहम्मद पादशाह की फौब पढ़ पाई वन रामा रखन सी ने सगर को शुरवीर बान कर उस से अपनी सहायता करने के रिसेपम भेजा, उन की समर को पाते ही सगर चतुरङ्गिणी (एभी, पोडे, रम और पैदमे से युफ) सेना को समगा फर राना रसनसी की सहायता में पहुंच गया और मुहम्मद मार शाह से युद्ध किया, बादशाह उस के मागे न सर सफा भोट हार कर माग गया, तर माय देव को सगर ने अपने कजे में कर लिया उमा भान मोर दुहाई को फेर र माने का मालिक हो गया, कुछ समय के बाद गुजरात के मालिक माहिलीम भाव मा मद बादशाह ने राना सगर से यह प्रला भेषा कि-"तू मुच को सलामी दे मौर हमारी नौकरी को मजूर कर नहीं तो माम्य देव को मैं सुप्त से छीन रंगा" सगर ने इस बात को मीकार नहीं किया, इस का परिणाम यह हुमा कि-सगर भौर गाववाह में परस्पर घोर युद्ध हुभा, आखिरकार बादशाह हार कर माग गया और सगर ने सब गुजरात अपने मापीन फर ठिया मर्मात् राना सगर मालव और गुबरात वेश का मालिक हो गया, कुछ समय के बाद पुनः किसी कारण से गोरी नाववाह भौर राना रतन सी में परस्सर में पिरोप उत्पन हो गया भौर बादशाह चित्तौर पर पर आया, उस समय राम जी शूरवीर सगर को मुछामा और सगर ने भार उन दोनों का भापस में मेक करा दिया वमा बादशाह से पण लेकर उस ने मारुप और गुजरात देश को पुन पावशाह को मापिस दे दिया, उस समय राना जी ने सगर की इस उद्धिमधा को देस कर उसे मना भर का पद दिया और वह (सगर) देवनारे में रहने नगा सभा उस ने अपनी प्रति मा से ई एफ घरवीरता के नाम कर दिखाये।। ___ सगर के मोहिरप, गणदास मौर जयसिंह नामक सीन पुत्र थे, इन में से समर के पार पर उस का नोहिरष नामक ज्येष्ठ पुत्र मनीधर होकर देवग्यारे में रहने समा, २९ भी भपने पिता के समान पहा घरपीर तपा मुद्धिमान् भा। बोरिरपी भार्या यहरगदे भी, जिसके भीकरण, सो, जसमछ, माना, भीमसिंह, पदमसिंद, सोमनी और पुण्यपाल नामक आठ पुत्र भोर पदमा माई नामक एक पुत्री थी, इन में से सबसे मरे भीरण के समपर, बीरदास, हरिदास मोर उमण नामफ चार पुत्र हुए। -गि ने गिराया सरमा प्रसार में लिपेपर परम पुर मापा तम उठे भपति पर परमपरा सोनारी से प्रमबाबा या Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४१ यह (श्रीकरण) बड़ा शूरवीर था, इस ने अपनी भुजाओं के बल से मच्छेन्द्रगढ़ को फतह किया था, एक समय का प्रसंग है कि बादशाह का खजाना कहीं को जा रहा था उस को राना श्रीकरण ने लूट लिया, जब इस बात की खबर बादशाह को पहुंची तब उस ने अपनी फौज को लड़ने के लिये मच्छंद्रगढ़ पर भेज दिया, राना श्रीकरण बादशाह की उस फौज से खूब ही लड़ा परन्तु आखिरकार वह अपना शूरवीरत्व दिखला कर उसी युद्ध में काम आया, राना के काम आ जाने से इधर तो बादशाह की फौज ने मच्छेन्द्रगढ़ पर अपना कब्जा कर लिया उधर राना श्रीकरण को काम आया हुआ सुन कर राना की स्त्री रतनादे कुछ द्रव्य (जितना साथ में चल सका) और समधर आदि चारों पुत्रों को लेकर अपने पीहर (खेड़ीपुर ) को चली गई और वही रहने लगी तथा अपने पुत्रों को अनेक प्रकार की कला और विद्या को सिखला कर निपुण कर दिया, विक्रमसंवत् १३२३ ( एक हजार तीन सौ तेईस ) के आपाढ़ वदि २ पुष्य नक्षत्र गुरु. वार को खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनेश्वर सूरि जी महाराज विहार करते हुए वहाँ (खेड़ीपुर में ) पधारे, नगर में प्रवेश करने के समय महाराज को बहुत उत्तम शकुन हुआ, उस को देख कर सूरिजी ने अपने साथ के साधुओं से कहा कि-"इस नगर में अवश्य जिनधर्म का उद्योत होगा" चौमासा अति समीप था इस लिये आचार्य महाराज उसी खेड़ीपुर में ठहर गये और वही चौमासे भर रहे, एक दिन रात्रि में पद्मावती देवी ने गुरु से कहा कि-"प्रातःकाल बोहित्य के पोते चार राजकुमार व्याख्यान के समय आगे और प्रतिबोध को प्राप्त होंगे" निदान ऐसा ही हुआ कि उस के दूसरे दिन प्रातःकाल जब आचार्य महाराज दया के विषय में धर्मोपदेश कर रहे थे उसी समय समधर आदि चारों राजपुत्र वहाँ आये और नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर धर्मोपदेश को सुनने लगे तथा उसी के प्रभाव से प्रतिबोध को प्राप्त हुए अर्थात् आचार्य महाराज से उन्हों ने शास्त्रोक्त विधि से श्रावक के वारह व्रतों का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज ने उन का माहाजन वश और वोहित्थरा गोत्र स्थापित किया, इस के पश्चात् उन्हो ने धर्मकार्यों में द्रव्य लगाना शुरू किया तथा उक्त चारों भाई सघ निकाल कर और आचार्य महाराज को साथ लेकर सिद्धिगिरि की यात्रा को गये तथा मार्ग में प्रतिस्थान में उन्हों ने साधी भाइयों को एक मोहर और सुपारियों से भरा हुआ एक थाल लाहन में दिया, इस से लोग इन को फोफलिया कहने लगे, वस तब ही से बोहित्यरा गोत्र में से फोफलिया शाखा प्रकट हुई, इस यात्रा में उन्हो ने एक करोड द्रव्य लगाया, जब लौट कर घर पर जाये तव सब ने मिल कर समधर को सघपति का पद दिया । समघर के तेजपाल नामक एक पुत्र था, पिता समधर स्वय विद्वान् था अत उसने १-इसी नाम का अपनश वोयरा हुआ है ॥ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ मैनसम्मवाशिमा ।। मपने पुत्र सेबपाठ को भी छः वर्ष की भासा से ही विद्या का पदाना शुरू किया और नीसि के कपन के अनुसार वश वर्ष तक उस से विपाभ्यास में उपम परिभम फरमाया, तेमपाल की बुद्धि मनुस ही तेष मी मस पर विपा में खूब निपुण हो गया तमा पित्य के सामने ही गृहस्थाश्रम का सब काम करने लगा, उस की बुद्धि को देस कर यो २ नामी रस चकित होने लगे मोर अनेक सरा की बातें करने लगे अर्थात् कोई कावा या कि-"विस के माता पिता विद्वान् हैं उन की सन्तति विज्ञान क्यों न हो" और मेरे कदमा का कि-"तेजपाल के पिता ने अपने लोगों के समान पुत्र का गह नहीं किया किन्तु उस ने पुत्र को विपा सिखा कर उसे सुशोभित करना ही परम गा समझा" इत्यादि, सपर्य यह है कि तेजपाल की मुदि की पत्तुराई को देस कर रईस रोग उसके विषय में मनेक प्रकार की बातें करने लगे, देवयोग से समपर देवलोक को पास हो गया, उस समय तेनपाल की अवस्था मामग पचीस पर्प के भी, पाठगप समझ सकते। शि-विपासहित बुद्धि मौर द्रम्म, ये दोनों एक भगह पर हों तो फिर कहना ही क्या है मर्मात् सोना मोर सगन्म इसी से नाम है, मस्त नपास मे गुनराव के रागाने महुत मा प्रन्य देकर देश को मुकाते के लिमा भर्भात् यह पाटन का मालिक बन गया मोर उस ने विक्रमसमत् १३७७ (एक इबार सीन सो सतहवर ) में ज्येष्ठ पवि एष दशी के दिन टीन तास रुपये उगा कर दादा साहिल चैमापार्य भी दिनकर परिबी महाराव का मन्दी (पाट) महोत्सव पाटन नगर में किया तथा उक महाराज को धाम में लेकर शेजप का संप निको भोर पहुत सा व्रम्प शुम मार्ग में प्रगामा, पीछे सम सप ने मिल र गाठा पहिना फर तेप्रपाम को संपपति का पर विमा, सेजपा ने भी सान की एक मोहर, पफ पाठी और पॉप सेर का एफ म प्रतिगृह में छापण गाय इस मघर यह भनेक शुभ यों को करता रह और भम्त में मपने पुत्र पीता जी को पर फा भार सौंप कर मनमन कर सर्ग को पास हुभा, वात्पर्य यह है कि बात की मृत्यु के पभात् उस के पाट पर उस का पुत्र वीना बी पेठा । १- मसम्म जो मप्र में किमतगत् ११३ मा सन् 11 में तप पर 10 मरे पारन में सूरपर परनिराजे पे मी नापाको प्रयाय ऐपये? भो यो प्रसमसार ९ में प्रगुन बार । (भमागमा) पर मकर भारि भयपन र ममप्राप्त ए एमोन मयप्राप्ति मार भी पाने बने भये प्रेरणेन या वया भर भीम भाजपा (म पाने पर भी हो ledom पाने पर पर प्रायःगररापीमा ७५ गिरमा पाही समपरपा पूनमानीय समय पर १-४मय र माना परागर पार AIR Taratमर mta . परमामा मानिसको Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। ६४३ वील्हा जी के कडूवा और धरण नामक दो पुत्र हुए, वील्हा जी ने भी अपने पिता (तेजपाल ) के समान अनेक धर्मकृत्य किये । वील्हा जी की मृत्यु के पश्चात् उन के पाट पर उन का वड़ा पुत्र कडूवा बैठा, इस का नाम तो अलवत्ता कडूवा था परन्तु वास्तव में यह परिणाम में अमृत के समान मीठा निकला। किसी समय का प्रसंग है कि-यह मेवाडदेशस्थ चित्तौड़गढ़ को देखने के लिये गया, उस का आगमन सुन कर चित्तौड के राना जी ने उस का बहुत सम्मान किया, थोड़े दिनों के बाद मांडवगढ़ का बादशाह किसी कारण से फौज लेकर चित्तौडगढ़ पर चढ़ आया, इस बात को जान कर सब लोग अत्यन्त व्याकुल होने लगे, उस समय राना जी ने कडूवा जी से कहा कि-"पहिले भी तुम्हारे पुरुषाओं ने हमारे पुरुषाओं के अनेक बड़े २ काम सुधारे हैं इस लिये अपने पूर्वजो का अनुकरण कर आप भी इस समय हमारे इस काम को सुधारो'' यह सुन कर कडूवा जी ने बादशाह के पास जा कर अपनी बुद्धिमत्ता से उसे समझा कर परस्पर में मेल करा दिया और बादशाह की सेना को वापिस लाटा दिया, इस बात से नगरवासी जन बहुत प्रसन्न हुए और राना जी ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर बहुत से घोड़े आदि ईनाम में देकर कडूवा जी को अपना मन्त्रीश्वर (प्रधान मन्त्री) बना दिया, उक्त पद को पाकर कडूवा जी ने अपने सद्वर्ताव से वहाँ उत्तम यश प्राप्त किया, कुछ दिनो के बाद कडूवा जी राना जी की आज्ञा लेकर अणहिल पत्तन में गये, वहा भी गुजरात के राजा ने इन का बड़ा सम्मान किया तथा इन के गुणों से तुष्ट होकर पाटन इन्हें सौप दिया, कडूवा जी ने अपने कर्त्तव्य को विचार सात क्षेत्रों में बहुत सा द्रव्य लगाया, गुजरात देश में जीवहिंसा को बन्द करवा दिया तथा विक्रम संवत् १४३२ (एक हजार चार सौ बत्तीस ) के फागुन वदि छठ के दिन खरतरगच्छाधिपात जैनाचार्य श्री जिनराज सूरि जी महाराज का नन्दी ( पाट) महोत्सव सवा लाख रुपये लगा कर किया, इस के सिवाय इन्हो ने शेत्रुञ्जय का संघ भी निकाला और मार्ग में एक मोहर, एक थाल और पाँच सेर का एक मगदिया लड्ड, इन का घर दीठ लावण अपने साधर्मी भाइयो को बाँटा, ऐसा करने से गुजरात भर में उन की अत्यन्त कीर्ति फैल , सात क्षेत्रों में भी बहुत सा द्रव्य लगाया, तात्पर्य यह है कि इन्हों ने यथाशक्ति जिनशासन का अच्छा उद्योत किया, अन्त में अनशन आराधन कर ये स्वर्गवास को प्राप्त हुए। कडूवा जी से चौथी पीढ़ी में जेसल जी हुए, उन के बच्छराज, देवराज और हस १-श्री शेजय गिरनार का संघ निकाला तथा मार्ग मे एक मोहर, एक थाल और पाँच सेर का एक मगदिया ल, इन की लावण प्रतिगृह में साधी भाइयों को वाँटी तथा सात क्षेत्रों में भी बहुत सा द्रव्य लगाया ॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ अनसम्प्रदायश्चिक्षा । राम नामक तीन पुत्र हुए, इन में से ज्येष्ठ पुत्र मच्छराज बी भपने भाइयों को साथ छेकर मण्डोवर नगर में राम श्री रिड़मल जी के पास आ रो पौर राब रिसमा बी में बच्छराम नी की बुद्धि के मद्मुत पमस्कार को देस कर उनें अपना मन्त्री निमत पर छिया, बस पच्छरान जी मी मन्त्री मन पर उसी दिन से राबकार्य के सब व्यवहार में पबोषित रीति से करने लगे। कुछ समय के बाद चित्तौर के राना कुम्भकरण में तमा राव रिरमम जी के पुत्र चौपा बी में किसी कारण से मापस में और जप गया, उसके पीछे राग रिसमस वी भौर ममी बच्छराम ची राना कुम्भकरण के पास चिपोर में मिलने के लिये गये, यपपि वहाँ बाने से इन दोनों से राना बी मिठे मुळे वो सही परन्तु उन (राना पी) के मन में कपट वा इस रिये उनों मे छल कर के राम रिदमा भी को पोला देकर मार गम, मत्री पच्कराम इस सर्व व्यवहार को चान कर छल्मस से यहाँ से निकल कर मण्डोर में मा गरे । रान रिडमग मी की मृत्यु हो जाने से उन के पुत्र बोपा मी उन के पाटनसीन हुए भोर उन्हों ने मन्त्री मच्छराव को सम्मान देकर पूर्ववत् ही नर्ने मन्त्री रस कर राबकाय सौंप दिया, गोपा मी ने मपनी पीरता के कारण पूर्व पैर के हेतु राना के वेश को उमा कर दिया भौर मन्स में राना को मी भपने वश में कर रिया, रान भोपा जी के वो नईरग पे रानी मी उस रसगी की कोल से विझम (पीका बी) भौर पीवा नामक वो पुत्र रस हुए सभा दूसरी रानी जसमावे नामक हाड़ी बी, उस के नीषा, सूबा और सावन नामक तीन पुत्र हुए, बीच मी छोटी मास्था में ही बरेचच और बुद्धिमान् थे इस लिये उम के पराक्रम वेष और मुद्धि को देस कर हाहरी रानी ने मन में यह विचार कर कि पीका की विपमानवा में हमारे पुत्र को राव नहीं मिसेगा, अनेक युचियों से राम भोपा भी को पत्र में कर उन के कान भर दिये, राम गोपा भी परे नुद्धिमान् में मतः उनों ने भोरे ही में रानी के भभिप्राम को अच्छे प्रकार से मन में समझ ग्मिा, एक दिन वर में भाई पेटे भौर सार उपसित, इतने ही में कुँवर पीका मी भी भम्बर से मा गये और मुजरा कर अपने काका काम भी के पास बैठ गये, दर में राज्यनीति के विषम में अनेक माते होने सगी, उस समय मनसर पाफर राम बोपा जी ने महरा परम्पधेर म तिस प्र एक रास बना माहेरपीमनेर के बड़े उपाय (पास) में महिमाभरि जनमगार में नियमान: सीक भनुसार यह मिया माण पिाव-मारवाडी भाषा में पियामा एमप भी दी विषय प्रबीसमेरनिमपी प्रभारी पति मोहममम पी नवी मे बर्मा में हम प्रान म्मिा पा पर मेय भी पूरस से प्रार मिम्वा माहीम मेयर प्राप्त होने से हम उस पिप भार मी बरोबई, भताम रकमहोपको इसका भतरण से पम्पयर देवे ।। १-यात्रामा पापाश्री पुनी भी। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४५ कि- "जो अपनी भुजा के बल से पृथ्वी को लेकर उस का भोग करे वही ससार में सुपुत्र कहलाता है, किन्तु पिता का राज्य पाकर उस का भोग करने से ससार में पुत्र की कीर्ति नहीं होती है" भरी सभा में कहे हुए पिता के उक्त वचन कुँवर बीका जी के हृदय में सुनते ही अकित हो गये, सत्य है - प्रभावशाली पुरुष किसी की अवहेलना को कभी नही सह सकता है, बस वही दशा कुँवर बीका जी की हुई, बस फिर अपने काका कान्धलजी तथा मन्त्री वच्छेराज आदि कतिपय स्नेही जनों को साथ चलने के लिये तैयार कर और पिता की आज्ञा लेकर वे जोधपुर से रवाना हुए, शाम को मण्डोर में पहुँचे और वहाँ गोरे भैरव जी का दर्शन कर प्रार्थना की कि - "महाराज ! अब आप का दर्शन आप के हुक्म से होगा" इस प्रकार प्रार्थना कर रात भर मण्डोर में रहे और ज्यो ही गज़रदम उठे त्यों ही भैरव जी की मूर्ति बदली में मिली, उस मूर्ति को देखते ही साथवाले बोले कि - "लोगो रे ! जीतो, हम आप के साथ चलेंगे और आप का राज्य बढ़ेगा।” बीका जी भैरव जी की उस मूर्ति को लेकर शीघ्र ही वहाँ से रवाना हुए और कॉउनी ग्राम के भोमियों को वश में कर वहाँ अपनी आन दुहाई फेर दी तथा वहीं एक उत्तम जगह को देख कर तालाब के ऊपर गोरे जी की मूर्ति को स्थापित कर आप भी स्थित हो गये, यही पर राव बीका जी महाराज का राज्याभिषेक हुआ, इसके पीछे अर्थात् सवत् १५४१ (एक हजार पाँच सौ इकतालीस ) में राव बीका जी ने राती घाटी पर १ - राव बीका जी महाराज का जीवनचरित्र मुशी देवीप्रसाद जी कायस्थ मुसिफ जोधपुर ने सवत् १९५० में छपवाया है, उस में उन्हों ने इस बात को इस प्रकार से लिखा है कि- " एक दिन जोधा जी दरवार में बैठे थे, भाई बेटे और सब सरदार हाजिर थे, कुँवर बीका जी भी अदर से आये और मुजरा कर के अपने काका कांधल जी के पास बैठ गये और कानों में उन से कुछ बातें करने लगे, जोधा जी ने यह देस कर कहा कि-आज चचा भतीजे में क्या कानाफूसी हो रही है, क्या कोई नया मुल्क फतेह करने की सलाह है यह सुनते हीं काधल जी ने उठ कर मुजरा किया और कहा कि मेरी शरम तो जब ही रहेगी कि जब कोई नया मुल्क फतह करूंगा--जब बीका जी और कांधल जी ने जाने की तयारी की तो मण्डला जी और वीदा जी वगेरा राव जी के भाई वेठों ने भी राव जी से अरज की कि हम बीकाजी को आप की जगह समझते हे सो हम भी उन के साथ जावेगे, राव जी ने कहा अच्छा और इतने राजवी बीकाजी के साथ हुये - १ - काका काल जी । २ ३ ४ ६ - भाई जोगायत जी । वीदा जी । ७- " ८- साखला नापा जी । ९- परिहार वेला जी । ५ ” नाथूजी । १०- वेद लाला लाखण जी । २- परन्तु मुशी देवीप्रसादजी ने सवत् १५४२ लिखा है 11 "3 " " रुपा जी । माडण जी । मढला जी । ११ - कोठारी चोयमल । १२- वच्छावत वरसिंघ । १३ - प्रोयत वीकमसी । १४- साहूकार राठी साला जी" । Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मैनसम्प्रदायश्चिया ॥ फिला बना कर एक नगर पसा दिया और उसका नाम पीचनेर मखा, राम बीसी माराव का पत्र मुनकर उक्त नगर में ओसवाल मौर महेनरी वैश्म मादिप २ पनाम साकार भा २पर बसने लगे, इस प्रकार उस नगर में राब पीन श्री महाराज के पुष्प प्रमाव से दिनों दिन मावादी मावी गई। __ मन्त्री पगाराम ने भी मीकानेर के पास मच्छासर नामक एक प्राम वसाया, कुछ काल के पथात् मन्त्री यष्टराज ची को घुमय की यात्रा करने का मनोरम उत्सम हुमा, मता उन्हों ने सप निकाल कर क्षेत्रुजय भौर गिरनार मावि तीयों की यात्रा की, मार्य में सापर्मी माइपों को प्रविग्रह में एक मोहर, एक मास और एक मका गपम घोटा तमा संपपति की पदवी प्राप्त की और फिर भानन्द के साथ बीकानेर में पापिस मा गये । बराम मन्त्री के करमसी, परसिंह, रवी मोर भरसिंह नामक चार पुत्र हुए मौर पछाराम के छोटे भाई देवराज चव, देवा मोर मूम नामक तीन पुत्र हुए। राप भी सूपकरण की महाराज ने भारत करम सी को मपना मन्त्री बनाया, मुहते करमसी ने अपने नाम से फरमसीसर नामक प्राम बसाया, फिर बहुत से स्थानों का संप मुठा कर तमा बहुत सा दन्य समें कर सरतरगच्छानार्म भी मिनास त्रि महाराज का पाट महोत्सब किया, एव विकमसंगत् १५७० में बीकानेर नगर में नेमि नाम सामी का एक मा मन्दिर बनवाया दो कि धर्मस्वम्भरूप भभी सफ मौजूद है। इस के सिवाय इन्हों ने तीर्थयात्रा के लिये संप निकासा तया ऐवजय गिरनार और भार भादि तीयों की मात्रा की तमा मार्ग में एक मोहर, एक पास मोर एक पत्र पतिग्रह में सापी माइयों को कारण माय और आनंद के साथ बीमनेर आ गये। राब भी सपारण जी फे-पाटनशीन राप भी जैसी ची हुए, इनों मे मुरते में मसी के छोटे भाई मरसिंह को मपना मत्री नियत किया। नरसिंह के मेपराम, नगराज, भमरसी, भोजराम, गरेसी मोर हरराम नामक छ पुत्र हुए। इन के द्वितीय पुत्र नगराब के संग्रामसिंह नामक पुत्र हुभा और संग्रामसिंह के कर्म पद मामक पुष दुभा बरसिंह के घर पो माप्त होने से राग भी वसी ची ने उनके स्थानपर उनके विसीय पुष नगरान पो नियत किया। -पासष्टी परणार प्रेभोन्सरमा भय बागवत कराये। २-एनीभाना प्रेम परापोपमाये । २-परमारनौसरे मायाव रे साप मुररी पुर में प्रप भामा -मापी भोगापाले मप्रेम उमरामी परम्पपेर ५-एर में ऐण भी लिया है। ममरसीबपुर समापन Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४७ मन्त्री नगराज को चाँपानेर के बादशाह मुंदफर की सेवा में किसी कारण से रहना पड़ा और उन्हों ने बादशाह को अपनी चतुराई से खुश करके अपने मालिक की पूरी सेवा बजाई तथा बादशाह की आज्ञा लेकर उन्हों ने श्री शेत्रुञ्जय की यात्रा की और वहाँ भण्डार की गड़बड़ को देख कर शेत्रुञ्जय गढ़ की ।ची अपने हाथ में ले ली, मार्ग में एक रुपया, एक थाल और पॉच सेर का एक लड्डु, इन का प्रतिगृह में साधर्मी भाइयों को प्रतिस्थान में लावण बाँटते हुए तथा गिरनार और आबू तीर्थ को भेंट करते हुए ये बीकानेर में आ गये। ___ संवत् १५८२ में जब कि दुर्भिक्ष पडा उस समय इन्हों ने शत्रुकार (सदावर्त ) दिया, जिस में तीन लाख पिरोजों का व्यय किया । . एक दिन इन के मन में शयन करने के समय देरावर नगर में जाकर दादा जी श्री जिनकुशल सूरि जी महाराज के दर्शन करने की अभिलाषा हुई परन्तु मन में यह भी विचार उत्पन्न हुआ कि देरावर का मार्ग बहुत कठिन है, पीने के लिये जलतक भी साथ में लेना पड़ेगा, साथ में सघ के रहने से साधर्मी भाई भी होंगे, उन को किसी प्रकार की तकलीफ होना ठीक नहीं है, इस लिये सब प्रवध उत्तम होना चाहिये, इत्यादि अनेक विचार मन में होते रहे, पीछे निद्रा आ गई, पिछली रात्रि में स्वप्न में श्री गुरुदेव का दर्शन हुआ तथा यह आबाज़ हुई कि-"हमारा स्तम्भ गड़ाले में करा के वहाँ की यात्रा कर, तेरी यात्रा मान लेंगे" आहा ! देखो भक्त जनों की मनोकामना किस प्रकार पूर्ण होती है, वास्तव में नीतिशास्त्र का यह वचन बिलकुल सत्य है कि-"नहीं देव पाषाण में, दारु मृत्तिका माँहि ॥ देव भाव माँही बसै, भावमूल सब माँहि" ॥ १ ॥ अर्थात् न तो देव पत्थर में है, न लकड़ी और मिट्टी में है, किन्तु देव केवल अपने भाव में है, तात्पर्य यह है कि-जिस देवपर अपना सच्चा भाव होगा वैसा ही फल वह देव अपनी शक्ति के अनुसार दे सकेगा, इस लिये सब में भाव ही मूल (कारण) समझना चाहिये, निदान मुहते नगराज ने स्वप्न के वाक्य के अनुसार स्तम्भ कराया और विक्रम सवत् १५८३ में यात्रा की, उन की यात्रा के समाचार को सुन कर गुरुदेव का दर्शन करने के लिये बहुत दूर २ के यात्री जन आने लगे और उन की वह यात्रा सानन्द पूरी हुई। कुछ काल के पश्चात् इन्हों ने अपने नाम से नगासर नामक ग्राम वसाया। राव श्री कल्याणमल जी महाराज ने मन्त्री नगराज के पुत्र सग्रामसिंह को अपना राज्यमन्त्री नियत किया, सग्रामसिंह ने खरतरगच्छाचार्य श्री जिनमाणिक्य सूरि महाराज को साथ में लेकर शेत्रुञ्जय आदि तीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकाला तथा शेत्रुञ्जय, गिरनार और आबू आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए तथा मार्ग में प्रतिगृह में साधर्मी भाइयों को एक रुपया, एक थाल और एक लड्डू, इन का लावण बाँटते हुए चित्तौड़गढ़ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चैनसम्पबामशिक्षा। में भाये, वहाँ राना भी सवयसिंह भी ने इन का बहुत मान सम्मान किया वहाँ से रवाना हो कर बगह २ सम्मान पावे हुए मे धामन्द के साथ बीकानेर में आ गये, इन सब व्यवहार से राम श्री पल्माणमन बी महाराज इनपर बरे असम हुए। इन (मुरता संग्रामसिंह जी) कर्मचन्द नामक एक बड़ा मुद्धिमान् पुष हुवा, चिस को बीकानेर महाराम भी रापसिंह जी ने अपना मन्त्री नियम किया। राज्यमन्त्री बच्छावत कर्मचन्द मुहसे ने क्रिया के उतारी मर्मात् स्यागी पैरागी सर सरगच्छामार्य भी बिनचन्द्र परि मी महाराज के भागमन की बधाई को सुनानेवाले यापकों को बहुत सा द्रव्यप्रदान किया और बरे ठाठ से महाराम को मीकानेर में मने, उनके रहने के लिये अपने पोड़ों की पुरोठ लो कि मीन बनवा कर तैयार करवाई भी प्रदान की भर्मात् उस में महाराम को सराया और विनति पर संवत् १६२५ पतुर्मास परवाया, उन से पिपिपूर्वक मगरतीसूत्र को सुना, चतुर्मास के बाद माचार महाराज गुजरात की तरफ पिहार कर गये। कुछ दिनों के बाद मरणवच बीननेरमहाराब की सरफ से मन्त्री कर्मचन्द र मालर पावशा पास गौर नगर में माना हुमा, वहीं का प्रसंग है कि-पान पर मानन्द में बैठे हुए भनेक गेगों का नामाप हो रहा मा उस समय भानर बाद शाह ने राज्यमत्री कर्मचन्द से पूछा कि-"इस गस्त मनमिया कायी मैन में न " इसके उपर में धर्मपन्द ने कहा कि-जैनाचार्य भी पिनपन्द्र सरि भो कि इस समय गुमरात देश में धर्मोपदेश करते हुए विचरते है" इस बात को सुन कर पादचार में माचार्य महाराज के पधारने के लिये गहौर नगर में अपने भावमियों को मेव र उनसे बहुत भामह मिा, भत उक्त आचार्य महाराज विहार करते हुए कुछ समय में महरि नगर में पपारे, महारान के महाँ पधारने से विनपर्म नमो कुछ उपोस हुभा उसन वर्षन हम पिसार के भय से यहां पर नहीं मिल सकते हैं, यहाँ का हाल पाठी सपाम्माम भी समयमुन्दर मी गणी (मो किपड़े नामी विद्वान् हो गये)मना हुप प्रापीन सोत्र मादि से विदित हो सकता है। १-बापी पी मरेस मा मवर बरे माम पपसीस मे पाये कि हा एप सो पांच मुठो बप उपमे पापे काग्रेडोपान मा की बधाई समरूप पीसरे मामनम्न हैना भी बुपरमार के नाम परमपद पा रिया ॥ महत्व दिन से परे रणपरे नाम मेरमातोश भव मी बोममेर में हो पौर में मोर और पग मासमीर साहस में प्रचार विसिशित मम्मों पर पुखप्रम्य मोसमे पोनर -महरपतिपय छ रोष पाये इस मिमे रोष पौ पर हिथियेएउवम सुप मामि पुषी बियर पिर मरम्ठ पठी । पपपप गुबर में प्रतिबोपत १ मति मोबीपित साल भी पमनमुहर के गुर मापन । पयर परिसर Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४९ कर्मचन्द बच्छावत ने बीकानेर में जातिसम्बंधी भी अनेक रीति रिवाजों में संशोधन किया, वर्तमान में जो उक्त नगर में ओसवालों में चार टके की लावण बॉटने की प्रथा जारी है उस का नियम भी किसी कारण से इन्हीं ( कर्मचन्द ) ने बॉघा था । मुसलमान समखाँ को जब सिरोही देश को लूटा था उस समय अनुमान हजार वा ग्यारह सौ जिनप्रतिमायें भी सर्व धातु की मिली थी, जिन को कर्मचन्द बच्छावत ने लाकर बीकानेर में श्री चिन्तामणि स्वामी के मन्दिर में तलघर में भण्डार करके रख दिया था जो कि अब भी वहाँ मौजूद है और उपद्रवादि के समय में भण्डार से सघ की तरफ से इन प्रतिमाओं को निकाल कर अष्टाही महोत्सव किया जाता है तथा अन्त में जलयात्रा की जाती है, ऐसा करने से उपद्रवादि अवश्य शान्त हो जाता है, इस विषय का अनुभव प्रायः हो चुका है और यह बात वहाँ के लोगों में प्रसिद्ध भी है। __ कर्मचद बच्छावत ने उक्त ( बीकानेर ) नगर में पर्दूषण आदि सब पर्यों में कारू जना ( लहार, घुथार और भड़पूंजे आदि ) से सब कामो का कराना बंद करा दिया था तथा उन के लागे भी लगवा दिये थे और जीवहिंसा को बंद करवा दिया था। ___ पैतीस की साल में जब दुर्भिक्ष ( काल ) पड़ा था उस समय कर्मचन्द ने बहुत से अजब्ब को छाप बोलाए गुरु गच्छ राज गती ॥१॥ ए जु गुज्जर ते गुरुराज चले विच मे चोमास जालोर रहे । मेदिनी तट मडाण कियो गुरु नागोर आदर मान लहै ॥ मारवाड रिणी गुरु वन्द को तरसै सरसै विच वेग वहै । हरख्यो सघ लाहोर आय गुरू पतिसाह अकब्वर पाव ग्रहै ॥ २ ॥ ए जू साह अकबर पवर के गुरु सूरत देखत ही हरखे । हम जोग जती सिध साध व्रती सब ही पट दरशन के निरखे ॥ (तीसरी गाथा के उत्तरार्ध का प्रथम पाद ऊपरली पडत में न होने से नहीं लिख सके हैं )। तप जप्प दया धर्म धारण को जग कोइ नहीं इन के सरखे ॥ ३ ॥ गुरु अम्मृत वाणि सुणी सुलतान ऐसा पतिसाह हुकम्म दिया। सब आलम माँहि अमार पलाय वोलाय गुरू फुरमाण दिया ॥ जग जीव दया धर्म दासिन ते जिनशासन में जु सोभाग लिया। समे सुदर के गुणवत गुरू दृग देखत हरषित होत हिया ॥ ४ ॥ ए जु श्री जी गुरु धर्म ध्यान मिलै सुलतान सलेम अरज करी । गुरु जीव प्रेम चाहत है चित अन्तर प्रति प्रतीति घरी ॥ कर्मचद बुलाय दियो फुरमाण छोडाय खभाइत की मछरी । समे सुदर के सव लोकन में जु खरतर गच्छ की ख्यांत खरी ॥५॥ ए जु श्री जिनदत्त चरित्र सुणी पतिसाह भए गुरु राजी ये रे । उमराव सवे कर जोड खरे पभणे आपणे मुख हाजी ये रे ॥ जुग प्रधान का ए गुरु कू गिगढ दु गिगड दुधु धु पाजीये रे । समय सुदर के गुरु मान गुरू पतिसाह अकव्वर गाजीये रे ॥ ६॥ एज ग्यान विज्ञान कला गुण देख मेरा मन रींशीये जू । हमाउ को नदन एम अखै मानसिंह पटोधर कीजीए ज॥ पतिसाह हजूर थप्यो सघ सूरि मडाण मत्री सर वीजीएजू । जिण चद गुरू जिण सिंह गुरु चद सर ज्य प्रतापी ए ज् ॥ ७ ॥ ए जू रीहड वश विभूपण हस खरतर गच्छ समुद्र ससी । प्रतप्यो जिण माणिक सरि के पाट प्रभाकर ज्यू प्रणम् उलसी ॥ मन शुद्ध अकबर मानत है जग जाणत है परतीत इसी। जिण चद मुणिंद चिर प्रतपो समें सुदर देत असीस इमी ॥ ८ ॥ इति गुरुदेवाष्टक सम्पूर्णम् ॥ ८२ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० बैनसम्पदामविचा छोगों का प्रतिपालन किया था और अपने साधर्मी भाइयों को बारह महीनों (साल भर ) तक अन्न विमा मा तथा वृष्टि होने पर सब को मार्गम्पय सभा स्लेवी मावि करने के लिये ब्रम्प दे दे कर उन को अपने २ स्थान पर पहुँचा दिया था, सत्य है कि सच्चा सामर्मिमात्सम्म यही है । में माट लोग की विदित हो कि मोसमाठों के गोत्रों के इतिहासों की महिमाँ महामो लोगों के पास भी मौर में योग मजमानों से बहुत कुछ व्रम्म पाते थे ( जैसे कि वर्तमान मनमानों से ब्रष्य पाते हैं ), परन्तु न मालूम कि उन पर कर्मचंद क्यों कड़ी ट हुई जो उन्हों ने छठ करके उन सब ( महात्मा मेगों ) को सूचना दी कि - "भाष सब लोग पधारें क्योंकि मुझ को मोसवालों के गोत्रों का वर्णन सुनने की अत्यन्त अभिलापा है, आप लोगों के पधारने से मेरी उक्त अभिलापा पूर्ण होगी मैं इस रूप के बदले में आप लोगों का प्रम्यादि से मगायोम्म सस्कार करूँगा " बस इस वचन को सुन कर सब महात्मा मा गये और श्षर तो उन को कर्मचन्द ने भोजन करने के लिये बिठा दिया, उमर उन के नौकरों ने सब वहियों को लेकर कुप में डाल दिया, क्योंकि कर्मचंद ने अपने नौकरों को पहिले ही से ऐसा करने के लिये भाझा दे रक्खी थी, इस बात पर यद्यपि महात्मा लोग अप्रसन वो बहुत हुए परन्तु मिचारे कर ही क्या सकते भे, क्योंकि कर्मचंव के प्रभाव के आगे उन का क्या बच चल सकता था, इस खिये ये सब छाचार हो कर मन ही मन में दुःशाप देते हुए चले गये, कर्मचंद भी उन की श्रेष्ठा को देख कर उन से बहुत अमसन्न हुए, मानो उन के कोपानल में और भी व की आहुति दी, भस्तु किसी विज्ञान् ने सत्य ही कहा है कि-"न निर्मित केन न चापि दृष्ट । भुवोऽपि नो हेममम कुरन ॥ तथापि तृष्णा रघुनन्वनस्य । विनाशकाले विपरीतबुद्धि " ॥ १ ॥ भर्थात् सुबर्ण के हरिष को न तो किसी ने कभी बनाया है और न उसे कभी किसी ने देखा वा सुना ही है ( अर्थात् सुबर्ण के मृग का होना सर्वमा असम्भव है ) परन्तु तो भी रामचन्द्र जी को उस के लेने की अभिस्मपा हुई ( कि वे उसे पकड़ने के लिये उस के पीछे दौड़े) इस से सिद्ध होता है कि- मिनाकाल के जाने पर मनुष्य की बुद्धि भी विपरीत हो जाती है || १ || बस यही वाक्य कर्मचन्द में भी परि सार्थ हुआ, देखो ! जब तक इन के पूर्व पुष्प की मभक्ता रही तब तक तो इन्हों ने उस के प्रमान से भठारह रजवाड़ों में मान पाया तथा इन की बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर बीकानेर महाराज भी रामसिंह जी साहब से मांग पर मादशाह अकबर ने पास रक्सा, परन्तु जब विनासकार उपस्थित हुआ तब इन की बुद्धि भी इन को अपन विपरीत हो १- महारम् प परवर माके में इनकी जमानी पूर्वगत् अब भी रिचमान है इसी प्रकार के अम्यान महात्माओं के भाव भी यताम्बी की वह हम मे मा है Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६५१ गई अर्थात् उधर तो इन्हों ने ओसवालों के इतिहासों की बहियों को कुए में डलवा दिया ( यह कार्य इन्हों ने हमारी समझ में बहुत ही बुरा किया ) और इधर ये बीकानेर महाराज श्री रायसिंह जी साहब के भी किसी कारण से अप्रीति के पात्र बन गये, इस कार्य का परिणाम इन के लिये बहुत ही बुरा हुआ अर्थात् इन की सम्पूर्ण विभूति नष्ट हो गई, उक्त कार्य के फलरूप मतिभ्रश से इन्हों ने अपने गृह में स्थित तमाम कुटुम्ब को क्षण भर में तलवार से काट डाला, (केवल इन के लड़के की स्त्री बच गई, क्योंकि वह गर्भवती होने के कारण अपने पीहर में थी) तथा अन्त में तलवार से अपना मी शिर काट डाला और दुर्दशा के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए, तात्पर्य यह है कि-इन के दुष्कृत्य से इन के घराने का बुरी तरह से नाश हुआ, सत्य है कि-बुरे कार्य का फल बुरा ही होता है, इन के पुत्र की स्त्री ( जो कि ऊपर लिखे अनुसार बच गई थी) के कालान्तर में पुत्र उत्पन्न हुआ, जिस की सन्तति ( औलाद ) वर्तमान में उदयपुर तथा माडवगढ़ में निवास करती है, ऐसा सुनने में आया है । वोहित्थरा गोत्र की निम्नलिखित शाखायें हुई: १-बोहित्थरा । २-फोफलिया । ३-बच्छावत । ४-दसवाणी । ५-डंगराणी । ६-मुकीम । ७-साह । ८-रताणी । ९-जैणावत ॥ उन्नीसवीं संख्या-गैलड़ा गोत्र ॥ - विक्रम संवत् १५५२ ( एक हजार पाँच सौ बावन ) में गहलोत राजपूत गिरधर को जनाचार्य श्री जिनहंस सूरि जी महाराज ने प्रतिबोध दे कर उस का ओसवाल वश और गेलेडा गोत्र स्थापित किया था, इस गोत्र में जगत्सेठे एक बड़े नामी पुरुष हुए तथा १-अप्रीति के पात्र वनने का इन (कर्मचद जी) से कौन सा कार्य हुभा था, इस वात का वर्णन हम को प्राप्त नहीं हुआ, इस लिये उसे यहाँ नहीं लिख सके हैं, वच्छावतों की वशावलीविषयक जिस लेख का उल्लेख प्रथम नोट में कर चुके हैं उस में केवल कर्मचद जी के पिता संग्रामसिंह जी तक का वर्णन है अर्थात् कर्मचद जी का वर्णन उस में कुछ नहीं है ॥ २-एक वृद्ध महात्मा से यह भी सुनने में आया है कि-गैलडा राजपूत तो गहलोत हैं और प्रतिवोध के समय आचार्य महाराज ने उक्त नाम स्थापित नहीं किया था किन्तु प्रतिवोध के प्राप्त करने के बाद उन में गैलाई (पागलपन ) मौजूद थी अत उन के गोत्र का गैलडा नाम पडा ॥ ___३-प्रथम तो ये गरीवी हालत में थे तथा नागौर में रहते थे परन्तु ये पायचन्द गच्छ के एक यति जी की अत्यन्त सेवा करते थे, वे यति जी ज्योतिप् आदि विद्याओं के पूर्ण विद्वान् थे, एक दिन रात्रि में तारामण्डल को देख कर यति जी ने उन से कहा कि-"यह बहुत ही उत्तम समय है, यदि इस समय में कोई पुरुप पूर्व दिशा में परदेश को गमन करे तो उसे राज्य की प्राप्ति हो" इस बात को सुनते ही ये वहाँ से उसी समय निकले परन्तु नागौर से थोडी दूर पर ही इन्हों ने रास्ते में फण निकाले हुए एक बडे भारी काले सर्प को देखा, उस को देख कर ये भयभीत हो कर वापिस लौट आये और यति जी से सव वृत्तान्त Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ नैनसम्पदामशिक्षा ॥ उन्हीं के कुटुम्ब में बनारसवाले राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द भी बड़े विद्वान् हुए, जिन पर प्रसन्न हो कर श्रीमती गवर्नमेंट ने उन्हें तक उपाधि दी थी । बीसवीं सख्या - लोढा गोन ॥ महाराज पृथ्वीराख चौहान के राज्य में माखन सिंह नामक चौहान अजमेर का सूबे दार था, उस के कोई पुत्र नहीं था, खाखन सिंह ने एक जैनाचार्य की बहुत कुछ से मक्ति की और माघार्म महाराज से पुत्रविषयक अपनी कामना मकट की, जैनाचार्य ने कहा कि- "यदि तू दयामूल जैन धर्म का महण करे तो तेरे पुत्र हो सकता है" छाखन सिंह ने ऊपरी मन से इस भाव का स्वीकार कर लिया परन्तु मन में वगा रकूला अर्थात् मन में यह विचार किया कि पुत्र के हो जाने के बाद दयामूल चैन धर्म को छोड़ दूँगा, निदान arat सिंह के पुत्र तो हुआ परन्तु वह विना हाम पैरों का केवल मांस के छोटे (छोटे) समान उत्पन हुआ, उस को देख कर खाखन सिंह ने समझ किया कि मैं ने जो मन मेंछ रखा था उसी का यह फल है, यह विचार वह श्रीम ही आचार्य महाराज के पास आ कर उन के चरणों में गिर पड़ा और अपनी सब दगाबाजी को प्रकट कर दिया तब भाभा महाराज ने कहा कि "फिर ऐसी वगानामी करोगे" मखन सिंह ने हा जोड़ कर कहा कि" - महाराज ! मन कभी ऐसा न करूँगा" तब सूरि महाराज ने कहा कि- "इस को सो वस्त्र में लपेट कर मर्गव ( बड़) की भोभ ( वोह ) में रख दो और हम से मने हुए पानी को के खा कर उस के ऊपर तीन दिन तक उस पानी के छीटे यो, ऐसा करने से मन की बार भी तुम्हारे पुत्र होगा, परन्तु देखो ! यदि दयामूळ धर्म रहोगे तो तुम इस भव और पर भव में सुख को पाओगे" इस प्रकार उपदेष्ठ वे में हुआ तू अब भी t कह नागा उस को लग कर पति की ने कहा कि-"अरे । अर्प देखा तो क्या माययपि जब पाने से तु राज्य दो माँ होग्य परतु हम तेरे घरों में बेटेगी और तु जयरसेठ के धाम से संसार में होने वहाँ से करिये और बति भी के मन के अनुसार श्री सब बात हुई अर्थात् म को खून की कमी प्राप्त हुई और वे जय इनका विशेष वर्णम यहाँ पर बना के बढ़ने के भय से नहीं कर सकते है तुइन के विषय में इतना ही किया करती है के किये और पानी के बीच में भी इनका स्वस्य सुि बाद में पूर्व में बड़ा सुन्दर का परन्तु अब उम्र को भारी में लिए दिया है, ब उनके स्थान पर योग नाम हुए पुत्र है और वे भी जम के नाम से प्रसिद्ध है, उनका स भी भ्रमगस्युसार अब भी कुछ कम नहीं है जम के दो पुत्ररम है उन की बुद्धि और क्षेत्र को देख कर बा की जाती है कि ने भी अपने क्यों की किस वृक्ष का विबन कर भवन अपने काम को प्रदीत करेंगे क्योंकि अपने पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही पुत्रों का करम १- पोत्र की उत्पति के हो के हमारे देखने में आा है तथा एक और विशेष देने माना का नाम नहीं देखने में माना है है । है पर भी सुनने में Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय ॥ ६५३ कर आचार्य महाराज ने लाखन सिंह को दयामूल जैन धर्म का अङ्गीकार करवाया और उस का ओसवाल वंश तथा लोढा गोत्र स्थापित किया। _ महाराज के कथनानुसार लाखन सिंह के पुनः पुत्र उत्पन्न हुआ और उस का परिवार बहुत बढ़ा अर्थात् दिल्ली, अजमेर नागौर और जोधपुर आदि स्थानों में उस का परिवार फैल कर आवाद हुआ। लोढों के गोत्र में दो प्रकार की मातायें मानी गई अर्थात् एक तो बड़ की पाटी बना कर उस पाटी को ही माता समझ कर पूजने लगे और कई एक बड़लाई माता को पूजने लगे। लोढा गोत्र में पुनः निम्नलिखित खापें हुई:१-टोडर मलोत । २-छज मलोत । ३-रतन पालोत । ४-भाव सिन्धोत ॥ सूचना-ऊपर लिख चुके हैं कि-लोढों की कुलदेवी बड़लाई माता मानी गई है, अतः जो लोढे नागौर में रहते है उन की स्त्रियों के लिये तो यह बहुत ही आवश्यक बात मानी गई है कि-सन्तान के उत्पन्न होने के पीछे वे जा कर पहिले माता के दर्शन करे फिर कहीं दूसरी जगह को जाने के लिये घर से निकलें, इन के सिवाय जो लोढे बाहर रहते हैं वे तो बड़ी लड़की का और प्रत्येक लड़के का झडूला वहाँ जा कर उतारते हैं तथा काली बकरी और भैंस को न तो खरीदते है और न घर में रखते हैं, ये लोग चाक को भी व्याह में नहीं पूजते हैं, जोधपुर नगर में लोढों को राव का खिताव है, कुछ वर्षों से इन लोगों में से कुछ लोग दयामूल जैन धर्म को छोड़ कर वैष्णव भी हो गये हैं। ओसवालों के १४४४ गोत्र कहे जाने का कारण॥ लगभग १६०० सवत् में इस बात को जानने के लिये कि ओसवालों के गोत्रों की कितनी सख्या है एक सेवक ( भोजक ) ने परिश्रम करना शुरू किया तथा बहुत अर्से म उसने १४४३ ( एक हजार चार सौ तेतालीस ) गोत्रों को लिख कर संग्रहीत किया. उस समय उस ने अपनी समझ के अनुसार यह भी विचार लिया कि अब कोई भी गोत्र बाकी नहीं रहा है, ऐसा विचार कर बह अपने घर लौट आया और देशाटन का सब हाल अपनी स्त्री से कह सुनाया, तब उस की स्त्री ने कहा कि-"तुम ने मेरे पीहरवाले ओस. वालों की खाप लिखी है" यह सुन कर सेवक ने चौंक कर अपनी स्त्री से पूछा किलोगों की क्या खाप है" स्त्री ने कहा कि "डोसी" है, यह सुन कर सेवक ने कहा १-टोडर मल और छजमल को दिल्ली के वादशाह ने शाह की पदवी दी थी अत. सव ही लोढे शाह कहलाते हैं। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५१ मैनसम्मवामशिक्षा ॥ कि-"फिर भी कोई होसी" इस मकार कह र उक सौप को भी मिस लिग, बस तन ही से ओसवारों के ११११ गोत्र को माये हैं। सूचना-हमारी समझ में ऊपर मिसा हुमा न केवल पन्तयारप प्रवीत होता है, भता इस विपय में हम सो पाठकगणों से यही कर सकते हैं कि-मोसमाये के १५५१ गोत्र करने की केवल एक प्रभामान चल पड़ी, क्योंकि वे सन मूठ गोत्र नहीं है किन्तु एक एक मूस गोम में से पीछे से सासाये तमा मविश्वासामें निकली है,ये सब ही मिला कर ११११ संस्सा समझनी चाहिये, उही को शासा, सांप, नस और मोम्साण इत्यादि नामों से भी कर सकते हैं, मवः मिन वास्तामों के प्ररित होने का हाल मिला हे नन को हम मागे "शाखा गोत्र" इस नाम से मिलेंगे, क्योकि सा सो व्यापार आदि मनेक प्ररणों से होसी गई है मर्मात् राख का काम करने से, किसी नगर से उठ कर भन्यन मा फर यसने से, म्मापार पन्मा करने से भौर मेकित प्रया भादि भनेक कारणों से बहुत सी साप हुई है, उन के कुछ उदाहरण भी गाँ सिसते-देलिये ! राम के सजाने का काम करने से लोगों को सब लोग समांची पाने सो तमा उन की भौठाववाले लोग भी समापी फागमे, राम कोठार काम करने से लोगों को सब छोग गरी करने मगे मोर उन की ओगावपाले ठोग मी कोठारी करगमे, राम में ठिसने से काम करने से कोपरों को फगेभी मारपार में सब सोग 'कानूंगा कहने सगे (वे मम 'बगा' कहलाते हैं) छाजेड़ों को बीकानेर में निरसी का सितारो समा मेगाणियों को मी निरसी समा मुसरफ का खिताब मिन्म बस ने उक्त नामों से ही पुकारे जाते हैं, इसी प्रकार पाठियों में से हरसा बी में योमदवाने सोग हरसावत प्राये, ऐसे ही योपरों के गोत्रपाले सोग पीसनेर में मुभीम और साह भी कहलाते हैं, रासेमा गोषवाले कुछ पर पूगस'को छोड़ कर भन्यत्र या १- प्रवीसरी भारत में इस बात प्रमाणे प्रभार से समस्या रिला अस्पताल से म पेत्रोम १ सौ पचाप तथा प्रविपासा, इसलिये एप मोसमात पासपनों को सचिव है मपनी पाति समय में मास सम्म प्रभान परे सवा हम कैग पाते म पमे । भूब पेन और रस में साथ मारपये हा पमें मार से रत र मिस कर हमारे नियमारिप बीसौम्यम्म पुसमी पाम (नामनेर) में भेज देने वा मोर पात बब परिवरित रोमेस्वर रसे भी स्पा पर मेरते ररे, सिरप व मेव पमा पर पोरस प्रामामा और मप्रामालिना मावि र प भी पास पर्याप गरिन मात् तमा, प्राचीन रवा भाय के पास को समापनास पानि को मिलेगा भेवरेन्द्र पापे परत पाल में पस प्रभाम मास मय मा पहिले हमारी इस प्रपन पर मानर परिसामोपपास मषय स विषय में सामा करेंगे ये मोदी समय में बोसपायर सम्मम योगों का विश्व पूर्ण रोपि से मार से सीमा । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय | ६५५ वसे थे अतः उन को सब लोग पूगलिया कहने लगे, वेगवाणी गोत्र का एक पुरुष मकसूदाबाद में गया था उस के शरीर पर रोम ( बाल ) बहुत थे अतः वहाँ वाले लोग उस को “रुँवाल जी” कह कर पुकारने लगे, इसी लिये उस की औलादवाले लोग भी रुँवाल कहलाये, बहूफणा गोत्रवाले एक पुरुष ने पटवे का काम किया था अतः उस की औलादवाले लोग पटवा कहलाये, फलोधी में झावक गोत्र का एक पुरुष शरीर में बहुत दुबला था इस लिये सब लोग उस को मड़िया २ कह कर पुकारते थे इस लिये अब उस की औलादवाले लोग वहाँ मडिया कहलाते है, इस रीति से ओसवालों में बलाई चण्डालिया और भी ये भी नख है, ये (नख ) किसी नीच जाति के हेतु से नहीं प्रसिद्ध हुए है-किन्तु बात केवल इतनी थी कि इन लोगों का उक्त नीच जातिवालो के साथ व्यापार ( रोजगार ) चलता था, अतः लोगों ने इन्हें वैसा २ ही नाम दे दिया था, उन की औलादवाले लोग भी ऊपर कहे हुए उदाहरणों के अनुसार उन्हीं खापो के नाम से प्रसिद्ध हो गये, तात्पर्य यह है कि - ऊपर लिखे अनुसार अनेक कारणों से ओसवाल वंश में से अनेक शाखायें और प्रतिशाखाये निकलती गई । ओसवालो में बलाई और चण्डालिया आदि खांपो के नाम सुन कर बहुत से अक्ल के अन्धे कह बैठते है कि-जैनाचार्यों ने नीच जातिवालो को भी ओसवाल वश में शामिल कर दिया है, सो यह केवल उन की मूर्खता है, क्योंकि ओसवाल वश में सोलह आने में से पन्द्रह आने तो राजपूत ( क्षत्रियवश ) है, बाकी महेश्वरी वैश्य और ब्राह्मण है अर्थात् प्रायः इन तीन ही जातियो के लोग ओसवाल बने है, इस बात को अभी तक लिखे हुए ओसवाल वशोत्पत्ति के खुलासा हाल को पढ़ कर ही बुद्धिमान् अच्छे प्रकार से समझ सकते हैं'। पहिले लिख चुके है कि–एक सेवक ने अत्यन्त परिश्रम कर ओसवालों के १४४४ गोत्र लिखे थे, उन सब के नामो का अन्वेषण करने में यद्यपि हम ने बहुत कुछ प्रयत्न किया परन्तु वे नही मिले, किन्तु पाठकगण जानते ही है कि - उद्यम और खोज के करने से यदि सर्वथा नहीं तो कुछ न कुछ सफलता तो अवश्य ही होती है, क्योंकि यह १- गुजरात देश मे कुमारपाल राजा के समय में अर्थात् विक्रम संवत् वारह सौ मे पूर्णतिलक गच्छीय जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि जी महाराज ने श्रीमालियों को प्रतिबोध दे कर जैनधर्मी श्रावक बनाया था जो कि गुजरात देश मे वर्त्तमान में दशे श्रीमाली और वीसे श्रीमाली, इन दो नामो से पुकारे जाते हैं तथा जैनी श्रावक कहलाते हैं, इन के सिवाय उक्त देश मे छीपे और भावसार भी जैन धर्म का पालन करते हैं और वे भी उक्त जैनाचार्य से ही प्रतिवोध को प्राप्त हुए हैं, उन में से यद्यपि कुछ लोग वैष्णव भी हो गये हैं परन्तु विशेष जैनी हैं, उक्त देश मे जो श्रीमाली तथा भावसार आदि जैनी हें उन के साथ ओसवालों का कन्या का देना लेना आदि व्यवहार तो नही होता है, परन्तु जैन धर्म का पालन करने से उन को ओसवाल वशवाले जन साधर्मी भाई अलवत्ता समझते हैं ॥ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ बैनसम्पदामशिक्षा || एक लामानिक नियम है, बस इसी नियम के अनुसार हमारे परम मित्र यतिर्म पण्डित श्रीयुत श्री अनूपचन्द्र श्री मुनि महोदय के स्थापित किये हुए इसलिखित पुस्तकालय ओसवालों के गोत्रों के वर्णन का एक छन्द हमें प्राप्त हुआ उस छन्द में करीब ६०० ( छ सौ ) गोत्रों के नाम है-छन्दोरभमिता (छन्द के बनाने वाले ) ने मूसगोत्र, छाला तथा मविशाला, इन सब को एक में ही मिम्ा दिया है और सब को गोत्र के ही नाम से मिला है कि मिस से उक्त गोत्र भादि बातों के ठीक २ जानने में भ्रम का रहना सम्भव है, मत हम उक्क छन्द में कड़े हुए गोत्रों की नामावलि पाठकों के जानने के लिये अकारादि क्रम से लिखते को छाँट कर हैं सं । गोत्रों के नाम 1 म १ भमर २ अनुभ ३ मसोचमा 8 अमी आ ५ भाईचांग ६ आकाशमार्गी • चकिया ८ माछा ९ आयरिमा १० भामदेव ११ आवझाड़ा १२ भानावत १३ अव से । मोत्रों के नाम । १४ भावगोत १५ आसी १६ आम् १७ आखा I १८ इछदिमा ठ १९ उनकण्ठ २० उर भो २१ ओसवाल २२ मोदीचा 5 २३ फक २४ कटारिया २५ कठियार २६ कणोर गोत्रों के नाम | १- महान की कृप से उच्च स है जय कदम उच्च महान को भी भी धमकी दी और बुद्ध भार जैनविकार के भन्छ प्रदान कम उधम २७ कनिया २८ कनोजा २९ करणारी ३० करहेडी ३१ कड़िया ३२ कठोसिया ३१ कठफोड़ ३४ कहा ३५ कसाण सेत्रों के माम ४० कवाडिया ४१ कालिया ४२ का ४३ काँवसा ४४ फाग ४५ कोकरिमा ४६ साल ४७ जन ४८ काटेक २६ कठ १७ कठाल ३८ फनफ ३० फकड़ की प्राप्ति के द्वारा जो हम को योनि में ि करण से भम्यवाद देवे हैं, इन क शिवाय उद्यमान परि गतिवर्ष पति भी है) ने भी से भी धन्यधर बसे है भी अगर कीमोन ( धानविद करने में हम को बह ४९ कामेड़िया ५० कांधा ५१ कापड़ ५२ कौंधिया Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ कानरेला ५४ काला ५५ काउ ५६ का विया ५७ किराड ५८ कुम्भज ५९ कुंकुंरोल ६० कुकुम ६१ कुणन ६२ कुंड ६३ कुम्भट ६४ कुचोर्या ६५ कुबुद्धि ६६ कुलवन्त ६७ कुक्कुड़ ६८ कुलहट ६९ कूकड़ा ७० कूट ७१ कूहड़ ७२ केड़ ७३ केराणी ७४ केलवाल ७५ कोचर ७६ कोठारी ७७ कोठेचा ७८ कोवेड़ा ७९ कोल्या ८० कोलर ८१ कठीर ख ८२ खगाणी ८३ पञ्चम अध्याय || ८३ खड़भणशाली ११३ गाँची ८४ खटवड़ ८५ खाटेड ८६ खाटोड़ा ८७ खारीवाल ८८ खाव्या ८९ खिलची ९० खीचिया ९१ खीची ९२ खीमसरा ९३ खुडधा ९४ खेचा ९५ खेड़िया ९६ खेतरपाल ९७ खेती ९८ खेमास रिया ९९ खेमानदी १०० खैरवाल १०१ खुतड़ा ग १०२ गणधर १०३ गटागट १०४ गट्टा १०५ गढवाणी १०६ गलुंडक - १०७ गदैया १०८ गधिया १०९ गहलड़ा ११० गहलोत १११ गाग ११२ गाँधी ११४ गाय - ११५ गावड़िया ११६ गिडिया ११७ गिणा ११८ गिरमेर १९९ गुणहडिया १२० गुवाल - १२१ गुलगुलिया १२२ गूगलिया १२३ गूदेचा १२४ गूजडिया १२५ गेमावत १२६ गेरा १२७ गोवरिया १२८ गोढा १२९ गोठी १३० गोसल १३१ गोलेच्छा १३२ गोहीलाण १३३ गोखरू १३४ गोध १३५ गोलेचा घ १३६ घाँघरोल १३७ घिया १३८ घोखा १३९ घघवाल च t १४० चतुर १४१ चवा + → १४२ चम १४३ चामड़ १४४ चाल १४५ चितोड़ा १४६ चित्रवाल १४७ चीचट १४८ चीचंड १४९ चीपट १५० चीपड़ १५१ चुखड़ १५२ चोधरी १५३ चोल १५४ चोपड़ा १५५ चोरड़िया १५६ चौहाण १५७ चंचल - १५८ चंडालिया छ. १५९ छछोहा · -१६० छजलाणी १६१ छाजेड़ . १६२ छागा .१६३ छाँटा १६४ छाडोरिया १६५ छीलिया १६६ छेर १६७ छैल १६८ छोहरिया १६९ छोगाला ज १७० जडिया ६५७ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ १७१ वणिया १७२ जग १०३ जम्मर १०४ मसेरा १०५ चल १७६ अनाराव १७७ बलागत १७८ चक्षयोता १७९ मागक १८० भाछोरी १८१ पड़ा १८२ जोगी १८३ जागा १८४ बालाणी १८५ जीस १८६ बीमाणी १८७ बीरावसा १८८ जुगठिया १८९ जेम्मी १९० जोगनेरा १९१ बोपुरा १९२ जोगड़ १९३ बंदू E १९० सफ १९५ सावक १९६ झगड़ १९७ सौभागद १९८ वरपाक १९९ छोटा २०० झड + 7 - V मैनसम्प्रदानशिक्षा || ट २०१ टाटिया २०२ टापरिमा २०३ टहुलिया २०४ टागी २०५ ट्रॅकलिया २०६ टोडराया २०७ टंच २०८ टेक 어 २०९ ठगाणा २१० ठाकुर २११ ठावा २१२ ठंठमाल २१३ टेर र २१४ उफरिया २१५ जागा २१६ डाँगी २१७ डा २१८ डाकलिया २१९ डाकूपाठिमा २२० डी २२१ डुंगरिया २२२ लूँगरोल २२३ गरेबा २२४ डोडिया २२५ कोठण २२६ डोटा २२७ टोसी २२८ डायरिया ४ २२९ उठ्ठा २३० ढाचरिया २३१ विठोबाल २१२ डेडिया २३३ बेलड़िया स २३४ वळेरा २३५ तवाह २९६ साल २३७ सॉप २३८ सालड़ २३९ साखेड़ २४० तिरपेकिमा २४१ विमलाणा २०२ विरणाक २४३ विलेरा २४४ तुकास २४५ तूंगा २४६ सेममा २४७ तेलडिया २४८ तोडरवास भ २४९ पटेरा २५० भा २५१ भारावत २५२ भिरावाल २५३ मोरवाक व २५४ व २५५ दर L २ 2 २५६ वहा २५७ वरगेड़ा २५८ वाठ २५९ दिल्लीबा २६० दीपग २६१ युग्ग २१२ बुठाहा २१३ वूग २६४ यूणीवाढ २६५ भेड़िया २६६ देवानन्दी २६७ देशवास २६८ देगा २६९ देहरा २७० देवमहरा प २७१ धनपाल २७२ पर २७३ धम्माणी २७४ परा २७५ पम्मष्ठ २७६ भन २७७ घनडाम २७८ धनमा २७९ धाकड़ २८० भाड़ीवाल २८१ धाँगी २८२ पिया २८३ भींगा २८४ धूपिया २८५ भूपिया Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ घोखिया २८७ घोल न २८८ नवलक्खा २८९ नपावलिया २९० नलवाह्या २९९ नखत २९२ नरायण २९३ नगगोत २९४ नखित्रेत २९५ नक्षत्रगोता २९६ नरसिंघ २९७ नागपुरा २९८ नाडोलिया २९९ नाणवट ३०० नॉदेचा ३०१ नारिया ३०२ नाहटा ३०३ नागोरी ३०४ नावरिया ३०५ नावटी ३०६ नावेडा ३०७ नाहर ३०८ निधी ३०९ निंबेडा ३१० नीमाणी ३११ नीसटा ३१२ नेणसर ३१३ नेर प ३१४ पगारिया " पञ्चम अध्याय || ३१५ मार ३१६ परजा ३१७ पहु ३१८ पल्लीवाल ३१९ पठाण ३२० पटोल ३२१ पड़गतिया ३२२ पटणी ३२३ पद्मावत ३२४ पटवा ३२५ पटविद्या ३२६ पडियार ३२७ पडाइया ३२८ परघाला ३२९ पापडिया ३३० पामेचा ३३१ पालडेचा ३३२ पाहणिया ३३३ पाँचा ३३४ पारख ३३५ पालावत ३३६ पीपलिया ३३७ पीतलिया ३३८ पीपाड़ा ३३९ पूनमिया ३४० पूगलिया ३४१ पुद्दाड ३४२ पूराणी ३४३ पोकरवाल ३४४ पोकरणा ३४५ प्रोचाल फ ३४६ फलसा ३४७ फलोधिया ३४८ फाल ३४९ फूलफगर ३५० फोकटिया ३५१ फोफलिया ब ३५२ बच्छावत ३५३ बड़गोता ३५४ बड़लोया ३५५ बड़ोल ३५६ बणभट ३५७ बरडेचा ३५८ बरड़िया ३५९ बरवत ३६० बराड ३६१ बडेर ३६२ बलदेवा ३६३ बट ३६४ बल्लड़ ३६५ बहुबोल ३६६ बलहरी ३६७ बलाही ३६८ बवाल ३६९ बवेल ३७० वण ३७१ वधाणी ३७२ बघेरवाल ३७३ वव्चर ३७४ वद्धड ३७५ बढाला ३७६ बडला ३७७ बाँका ३७८ बागरेचा ३७९ बाघमार ३८० बॉगाणी ३८१ बानेता ३८२ बातड़िया ३८३ चाफणा ३८४ बादरिया ३८५ बादवार ३८६ बामाणी ३८७ बालड़ ३८८ बालवा ३८९ बावेला ३९० बाहरिया ३९१ बॉवलिया ३९२ विदामिय ३९३ बिनसट ३९४ विनायक ३९५ बिरमेचा ३९६ विनय ३९७ बिरदाल ३९८ बिशाल ३९९ विरहट ४०० बीराणी ४०१ वीरावत ४०२ वुरड ४०३ बुच्चा ४०४ बूवकिया ४०५ वूड़ ६५९ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ४०६ बेगर ४०७ बेसाख ४०८ मेगामी १०९ बेसीम १० मेहड़ ४११ बेदमता ४१२ बोकड़िया ४१३ गोपीचा ४१४ बोरभिया ४१५ बोरुविना ४१६ मोहिस्वरा ४१७ पोरोचा ४१८ मोहरा ४१९ मठिया ४२० मंका ४२९ मंभ ४२२ बोई ४२३ बंगाळ म ४२४ भक् ४२५ भगतिया ४२६ भटेवरा ४२७ भड़कसिया ४२८ मगोठा ४२९ भरवाक ४३० भयाणा ४३१ मडासर ४३२ भरमाण ४३३ मद्रा ४१४ भड़िया ४३५ भवासिया मैनसम्पदामशिक्षा || ४३६ भागू ४३७ भादर ४३८ मामू मांडावत ४३९ भाषेस ४४० भागा ४४१ मॉमठ १४२ मीनमाछ ४४३ भीर ४४४ मुगड़ी ४४५ मूरटिया ४४६ मूरी १४७ मूरा १४८ भूतड़ा ४४९ मूतेड़िया ४५० भूषण ४५१ भोर ४५२ भोल ४५३ भोगर ४५४ भोरड़िया ४५५ भंसाली ४५६ मेडारी भ ४५७ मकुमाण ४५८ मगदिमा ४५९ मत्राणा ४६० महेला ०६ मणहरा ४६२ मण हाड़िया ४६३ मरहिमा ४६४ मसरा ३६५ महामन्त्र ४६६ महेच ४६७ मत ४६८ मन ४६९ मट्टा ४७० मकुड़ १७१ भालू ४७२ माळफस ४७२ मा सा ४७४ मास ४७५ मोडलेचा ४७६ माछविया ४७७ भाँडोता ४७८ माभोटिया ४७९ मिमी ४८० मिछेला ४८१ मिण ४८२ मीठड़िया ४८३ मुखतरपाठ ४८४ मुद्दामाणी ४८५ मुणोस ४८६ भड़ा १८७ हिमबाल ४८८ मुरग ४८९ मुद्दिलाम ४९० मुगरोस ४९१ मूमेरा ४९२ मेब्रदवाक ४९५ मेहुँ ४९४ मैरान ४९५ मोगरा ४९६ मोरष ४९७ मोहनामी ४९८ मोदी ४९९ मोगिया ५०० मोडोठ ५०१ मोहन्ना ५०२ मोहीबाल ५०६ मौतिया ५०४ मंगलिया ५०५ मंडोचित ५०६ मंडोवरा ५०७ मंगीवाल ५०८ मसीक र ५०९ रतनपुरा ५१० खनगोवा ५११ रखनाम ५१२ राम ५१३] रामजादा ५१४ रामपाठी ५१५ राठोड़ ५१६ का ५१७ राखेमा ५१८ रातड़िया ५१९ रागस ५२० रीसॉप ५२१ रुणवाल ५२२ रूप ५२३ रूपपरा ५२४ पा ५२५ रेहड़ ५२६ रोमाँ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ रोटागण ५२८ रंक ५४७ श्रीश्रीमाल स ल ५४८ समघडिया ५२९ लघुश्रेष्ठी ५४९ सही ५३० लक्कड ५३१ ललवाणी ५५० सफला ५५१ सराहा ५३२ लघु खँडेलवाल ५५२ समुदरिख ५५३ सवरला ५५४ सवा ५५५ सरभेल ५५६ साँखला ५५७ सॉड ५३३ लालण ५३४ लिंगा ५३५ लीगा ५३६ लुबक ५३७ लुडा ५३८ लुछा ५३९ लॅकड़ ५४० लूणावत ५४१ लूणिया ५४२ लेल ५४३ लेवा ५४४ कोटा ५४५ लोलग पञ्चम अध्याय | श ५४६ श्रीमाल ५५८ साहिबगोत ५५९ सॉडेला ५६० साहिला ५६१ सावणसुखा ५६२ सॉबरा ५६३ सागाणी ५६४ साहलेचा ५६५ साचोरा ५६६ साचा ५६७ सिणगार ५६८ सियाल ५६९ सीखा ५७० सीचा-सीगी ५७१ सीसोदिया ५७२ सीरोहिया ५७३ सुदर ५७४ सुराणा ५७५ सुधेचा ५७६ सूर ५७७ सूधा ५७८ सूरिया ५७९ सूरपुरा ५८० सुरहा ५८१ स्थूल ५८२ सूकाली ५८३ सूँडाल ५८४ सेठिया ५८५ सेठियापावर ५८६ सोनी ५८७ सोनीगरा ५८८ सोलखी ५८९ सोजतिया ५९० सोभावत ५९१ सोठिल ५९२ सोजन ५९३ संखलेचा ५९४ सचेती ५९५ संड ५९६ संखवाल ह ५९७ हगुड़िया ५९८ हरसोरा ५९९ हड़िया ६०० हरण ६०१ हिरण ६०२ हुब्बड़ ६०३ हुड़िया ६०४ हेमपुरा ६०५ हेम ६०६ हीडाउ ६०७ हींगड ६०८ हडिया ६०९ हस ६६१ शाखागोत्रों का संक्षिप्त इतिहास ॥ १ - ढाकलिया - पूर्व समय में सोढा राजपूत थे जो कि दयामूल जैन धर्म का ग्रहण किये हुए थे, कालान्तर में ये लोग राज का काम करते २ किसी कारण से रात को भाग निकले परन्तु पकड़े जा कर वापिस लाये गये, अत ये लोग ढाकलिया कहलाये क्योंकि पकड़ कर लाये जाने के समय ये लोग ढके हुए लाये गये थे । २- कोचर-इन लोगों के बड़रे का नाम कोचर इस कारण से हुआ था कि उस के जन्म समय पर कोचरी पक्षी ( जिस की बोली से मारवाड़ में शकुन लिया करते हैं ) बोला था । १-इन ( शाखागोत्र ) को मारवाड में खॉप, नख और शाख आदि नामों से कहते हे तथा कच्छ देश के निवासी ओमवाल इन को "ओलख" कहते है, मारवाड़ से उठ कर ओसवाल लोग कच्छ देश मे जा बसे थे, इस बात को करीब तीन सौ वा चार सौ वर्ष हुए हैं ॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ चैनसम्प्रदामशिक्षा || ३ - घाम - पूर्व काल में भांधल राठोड़ मे तथा दयामूळ जैन धर्म का ग्रहण करने के भाव ये छोग स्वान का व्यापार करने लगे थे इस लिये ये चामर कहलाये । ४ - बागरेचा पूर्व समय में सोनगरा चौदान मे तथा चामोर में दमामूल जैन धर्म का ग्रहण करने के बाद वे वागरे गाँव में रहने लगे थे इस लिये वे वागरेच कहलाने परन्तु कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि बाघ के मारने से उन की जात बापरेघा हुई । ५- वेदमता - पूर्व काल में ये पैवार रामपूत थे, भोसियों में दमामूळ जैन धर्म न ग्रहण करने के भाव इन के किसी पूर्वज ( बड़ेरे) ने दिल्ली के वादशाह की पाँख का इलाज किया था जिस से इन को वेद का खिताब मिला था, बीकानेर में राजा की तरफ से इन को राब तथा महाराज की पदमी भी मिली भी, असल में ये बीदावतों के कामदार भे इस इन्हें मोहता पदवी भी मिली थी, बस दोनों (बेद और मोहटा ) पवनियों के मिलने से मे लोग वेदमूता कहलाने लगे । ६- लुक - पहिले ये चौहान रामपूत थे, दमामूछ जैन धर्म का ग्रहण करने के पीछे इन के एक पूर्बन ( घड़ेरे) को एक बती ( मति ) ने सन्दूक में छिपा कर उसी राजा के आदमियों से बचाया था कि जिस राजा की वह नौकरी करता था, चूकि छिपाने को लकाना भी कहते है इस खिये उस का और उस की औलाद का नाम हो गया । ७- मिश्री - (मिश्रिया ) - पहिले मे चौहान राजपूत थे, दमा मूल जैन धर्म का ह करने के बाद इन का एक पूर्वज ( बडेरा) (बिस के पास में धन माल था) किसी गाँव को जा रहा था परन्तु रास्ते में उसे लुटेरे मिल गये और उन्हों ने उस से कम कि-"सेठ! राम राम" सेठ ने कहा कि-"कूड़ी गोत" फिर लुटेरों ने कहा कि- "सेठ ! अच्छे हो” सेठ ने फिर अमाब दिया कि - "ड़ी बात" इस प्रकार लुटेरों ने दस बीस बातें पूछी परन्तु सेठ उसी ( कूड़ी बात ) शब्द को कहता रहा, भाखिरकार लुटेरों ने कहा कि-- तेरे पास भो मार और गहना मावि सामान है वह सब दे दे" तब सेठ बोला कि - “हाँ आ सौंची मास, म्हें तो बैण देण रोही भषो करो छ, ये माँ ने स्वत लिख दो और के खो" ठटेरों ने विचारा कि यह सेठ मोछा है स्वत दिखने में अपना क्या हर्ज है, अपने को कौन सा देना पड़ेगा यह सोच कर उन्हों ने सेठ के कहने के अनुसार स्वव वि प्रिया सेठ ने भी इच्छा के अनुसार अपने माल से चौगुने माछ का स्वत मिलना लिया और लुटेरों से कहा कि- "इस स्वत में साल की दो" लुटेरों ने कहा कि-" पर तुम हम यस कोर १-कूटी बात अर्थात् २-अर्थात् यह है बात है, हम तो बने बने का ही भम्पा कर हमारा सब सामान के २-साथ अपात् किसी की भी बाहरी दो Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६६३ किस की साख डलवायें, यहाँ तो कोई नहीं है, हाँ यह एक लेोकडी तो खडी है तुम कहो तो इस की साख डलवा दें" सेठ ने कहा कि - " अच्छा इसी की साख डलवा दो" बस लुटेरों ने लकडी की साख लिख दी और सेठ ने गहना आदि जो कुछ सामान अपने पास में था वह सब अपने हाथ से लुटेरों को दे दिया तथा कागज लेकर वहाँ से चला आया, दो तीन वर्ष बीतने के बाद वे ही लुटेरे किसी साहूकार का माल लूट कर उसी नगर में बेंचने के लिये आये और सेठ ने ज्यो ही उन को बाजार में देखा त्यों ही पहिचान कर उन का हाथ पकड लिया और कहा कि - " व्याजसमेत हमारे रुपये लाओ" लुटेरे बोले कि - "हम तो तुम को पहिचानते भी नहीं है, हमने तुम से रुपये कब लिये थे?" लुटेरों की इस बात को सुन कर सेठ जोर में आ गया, क्योंकि वह जानता था कि—यहाँ तो बाजार है, यहाँ ये मेरा क्या कर सकते है, ( किसी कवि ने यह दोहा सत्य ही कहा है कि - ' जगल जाट न छेडिये, हाटा वीच किराड़ ॥ रंगड कदे न छेडिये, मारे पटक पछाड़, ॥ १ ॥ ) निदान दोनो में खूब ही हुज्जत ( तकरार ) होने लगी और इन की हुज्जत को सुन कर बहुत से साहूकार आकर इकट्ठे हो गये तथा सेठ का 'पक्ष करके वे सब लुटेरों को हाकिम के पास ले गये, हाकिम ने सेठ से रुपयों के मागने का सबूत पूछा, इधर देरी ही क्या थी - शीघ्र ही सेठ ने उन ( लुटेरों ) के हाथ की लिखी हुई चिट्ठी दिखला दी, तब हाकिम ने लुटेरों से पूछा कि - "सच २ कहो यह क्या बात है” तब लुटेरों ने कहा कि-“साहब ! सेठ ने यह चिट्टी तो आप को दिखला दी परन्तु इस ( सेठ ) से यह पूछा जावे कि इस बात का साक्षी ( साखी वा गवाह ) कौन है लुटेरों की बात को सुनते ही ( हाकिम के पूछने से पहिले ही ) सेठ बोल उठा कि“मिन्नी" यह सुन कर लुटेरे वोले कि - " हाकिम साहब ! वाणियो झूठो है, सो लकड़ी ने मिन्नी कहे छे” यह सुन कर हाकिम ने उस खत को उठा कर देखा, उस में लकड़ी की साख लिखी हुई थी, बस हाकिम ने समझ लिया कि - बनिया सच्चा है, परन्तु उपहास के तौर पर हाकिम ने सेठ से धमका कर कहा कि - "अरे ! लोकड़ी को मिनी कहता है” सेठ ने कहा कि - " मिन्नी और लकड़ी में के फरक है? मिन्नी २ सात वार मिन्नी” अस्तु, हाकिम ने उन लुटेरों से कागज में लिखे अनुसार सव रुपये सेठ को दिलवा दिये, बस उसी दिन से सब लोग सेठ को 'मिन्नी, कहने लगे और उस की औलाद वाले भी मिन्नी कहलाये । 219 2 ८-सिंगी-पहिले ये जाति के नन्दवाणे ब्राह्मण थे और सिरोही के ढेलड़ी ग्राम में १-लोंकडी को मारवाडी वोली मे जगली मिन्नी ( विल्ली ) कहते हैं ॥ २–“लोंकडी ने मिन्नी कहे छे" अर्थात् लॉकडी को मिन्नी बतलाता है ॥ ३–“के फरक है” अर्थात् क्या भेद है ॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 स्वैनसम्भवामशिक्षा || रहते थे, इसी से इन को सब लोग टेलड़िया बोहरा कहने लगे थे, इन में सोनपास नामक एक बोहरा बड़ा आदमी था, उस को वैववत्र सर्प ने काट खागा था तथा एक बसी (मति ) ने उसे अच्छा किया था इसी लिये उस ने दयामूल जैन धर्म का महण किया था, उस के बहुत काल के पीछे उस ने अजय की मात्रा करने के लिये अपने स्वर्ग से सघ निकाला था तथा मात्रा में ही उस के पुत्र उत्पन्न हुआ था, संघ मे मिल कर उसे सनी ( संपपति) का पद दिया था भतः उस की मौचाववाले लोग सिंमी कलमैये, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि संघवी का अपभ्रंस सिंगी हो गया है, इन ( सिंगियों) के भी मद्देवावत, गडावत, भीमरामोस और मूलमन्दोष नावि कई फिरके हैं । ओसवाल जाति का गौरव ॥ मिम पाठकगण ! इस जाति के विषय में भाप से विशेष क्या करें | यह वही यावि है जो कि कुछ समय पूर्व अपने धर्म, विद्या, एकता और परस्पर मीर्तिमान आदि सद गुणों के बल से उन्नति के शिखर पर विराजमान भी, इस जाति का विशेष मोसनीय गुण यह था कि वैसे यह धर्मकामों में कटिबद्ध भी वैसे ही सांसारिक धनोपार्जन धाि कामों में भी कटिवद्ध थी, सात्पर्य यह है कि जिस प्रकार यह पारमार्थिक कामों में बम भी उसी मकार सौकिक कार्यो में भी कुछ कम न भी अर्थात् भपने- 'भा 1-ड़िया अडी के निवासी १-गुजरात और कच्छ पानि देशों में संगको गोत्र अन्य प्रकार से भी अनेकनिप ( कई तरह का ) मांना पाचा t ● ३-सिपी (संघ) जोधपुर आदि मारवाड़ वाजे समझने चाहि ॥ ४-प्रीति के तीन भेद है-मचि भाबर और इस में से किसे कहते है कि पुरुष अप अपेक्षा पर में श्रेष्ठ हो के द्वारा मान्य हो और दिया तथा जाति में बडा हो उस की सेवा की चाहिने वा उस पर सामान रखना चाहिये क्योंकि वही मति का पात्र है, वो गह पण गुणों से उत्कृत है, क्योंकि वही सप गुणों की प्राप्ति का मूल धरण है अर्थात् इसके से मनुष्य को क्षण गुण प्राप्त हो सकते है, इसकी पतिगामिनी है प्रीति का दूसरा र बाबर है-समर हैरुष अवस्था हव्य पिया भरें जयति भादि पुमा में अपने समान उथ के उसे पूर्व करना चाहिये इस (आवर) श्रीमति समताहिक व प्रीति का रा -उसे-म्य विद्या और बुद्धिसम्म में अपने स उत हित को विचार कर बस की वृद्धि का उपाय करना चाहिये इस (मेह) का प्रवाह अबस्य के समान अोमामी है बस प्रीति के में प्रीति नहीं हो ध्यान रखना भागस्यक देव है, क्योंकी बातों के हक पाखा रूप को जान कर गायोग इन के का सदनों Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६६५ परमो धर्मः, रूप सदुपदेश के अनुसार यह सत्यतापूर्वक व्यापार कर अगणित द्रव्य की प्राप्त करती थी और अपनी सत्यता के कारण ही इस ने 'शाह, इन दो अक्षरों की अनुपम उपाधि को प्राप्त किया था जो कि अब तक मारवाड तथा राजपूताना आदि प्रान्तों में इस के नाम को देदीप्यमान कर रही है, सच तो यह है कि-या तो शाह या बादशाह, ये दो ही नाम गौरवान्वित मालूम होते है। __ इस के अतिरिक्त-इतिहासों के देखने से विदित होता है कि-राजपूताना आदि के प्रायः सब ही रजवाडो में राजों और महाराजों के समक्ष में इसी जाति के लोग देशदीवान रह चुके हैं और उन्हों ने अनेक धर्म और देशहित के कार्य करके अतुलित यश को प्राप्त किया है, कहाँ तक लिखें-इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि-यह जाति पूर्व समय में सर्वगुणागार, विद्या आदि में नागर तथा द्रव्यादि का भण्डार थी, परन्तु शोक का विषय है कि-वर्तमान में इस जाति में उक्त बातें केवल नाममात्र ही दीख पड़ती हैं, इस का मुख्य कारण यही है कि-इस जाति में अविद्या इस प्रकार घुस गई है कि-जिस के निकृष्ट प्रभाव से यह जाति कृत्य को अकृत्य, शुभ को अशुभ, बुद्धि को निवुद्धि तथा सत्य को असत्य आदि समझने लगी है, इस विषय में यदि विस्तारपूर्वक लिखा जावे तो निस्सदेह एक बड़ा ग्रन्थ बन जावे, इस लिये इस विषय में यहाँ विशेष न लिख कर इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि वर्तमान में यह जाति अपने कर्तव्य को सर्वथा भूल गई है इसलिये यह अधोदशा को प्राप्त हो गई है तथा होती जाती है, यद्यपि वर्तमान में भी इस जाति में समयानुसार श्रीमान् जन कुछ कम नहीं है अर्थात् अब भी श्रीमान् जन बहुत है और उन की तारीफ-घोर निद्रा में पड़े हुए सब भायोवत्ते के भार को उठानेवाले भूतपूर्व बड़े लाट श्रीमान् कर्जन खय कर चुके हैं परन्तु केवल द्रव्य के ही होने से क्या हो सकता है जब तक कि उस का बुद्धिपूर्वक सदुपयोग न किया जावे, देखिये! हमारे मारवाड़ी ओसवाल भ्राता अपनी अज्ञानता के कारण अनेक अच्छे २ व्यापारों की तरफ कुछ भी ध्यान न दे कर सट्टे नामक जुए में रात दिन जुटे ( सलग्न ) रहते है और अपने भोलेपन से वा यों कहिये किसाथै में अन्धे हो कर जुए को ही अपना व्यापार समझ रहे हैं, तब कहिये कि इस जाति की उन्नति की क्या आशा हो सकती है ? क्योंकि सब शास्त्रकारों ने जए को सात महाव्यसनों का राजा कहा है तथा पर भव में इस से नरकादि दुःख का प्राप्त होना बतलाया है, अब सोचने की बात है कि-जब यह जुआ पर भव के भी सुख का नाशक है तो इस भव में भी इस से सुख और कीर्ति कैसे प्राप्त हो सकती है, क्योंकि सत्कर्त्तव्य वही माना गया है जो कि उभय लोक के सुख का साधक है। इस दुर्व्यसन में हमारे ओसवाल नाता ही पड़े हैं यह बात नहीं है, किन्तु वर्तमान में Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ मागः मारवाड़ी वैश्य ( महेश्वरी और अगरवाल आदि ) भी सब ही इस तुर्मसन में निमम है, हा विचार कर वेसने से यह कितने शोक का सिय प्रतीत होता है इसी लिये वो कहा जाता है कि वर्तमान में वैश्य बाति में भविपा पूर्णरूप से पुस रही है, देखिये ! पास में प्रष्य के होते हुए भी इन (येश्य बना ) फो अपने पूर्वजों के माचीन व्यवहार (पापारादि) तथा वर्तमान फाल के भनेक व्यापार बुद्धि को निनुद्धि रूप में फरने पाठी भयिपा के निकट प्रभाव से नहीं सूझ पाते हैं भर्यात् । सिवाय इन्हें और फोर व्यापार ही नहीं सूमता है! भला सोचने की पात र-िमा फा करने पाण पुरुप साहकार वा धार कभी कहछा सकता है। कभी नहीं, उन म निश्चयपूर्वक मह समझ लेना चाहिये कि इस दुर्मसन से उन्हें हानि के सिवाय और कुछ भी धाम नहीं हो सफता दे, ययपि यह पात भी कचित् देखने में माती है किन्हीं लोगों के पास इस से भी वन्य भा जाता है परन्तु उस से क्या तुमा ! क्योकि यह व्रम्प वो उन के पास से शीघ्र ही पा जाता है. ( जुर से उन्मपात्र हुमा भाग सक कहीं कोई भी सुना या देखा नहीं गया है, इस के सिपाय यह भी विचारने में पाती फिनस काम से एक को पाटा कग फर ( हानि पहुँच फर ) दूसरे को बन्न प्राप्त होता है मत पर प्रम्य विशुद्ध ( निष्पाप षा दोपरहित ) नहीं हो सकता है, इसी लिये तो ( दोपयुक्त होने ही से वो ) यह द्रष्म दिन के पास ठहरता भी है मामला न्सर में भौसर मादि म्पर्भ कामों में ही सर्प होता, इस फा प्रमाण प्रत्यक्ष ही इस लीजिये कि-बाब स स से पाया हुभा किसी का भी दम्म विपालम, पीपमाम्म, पम धाग और सवावस भावि शुमा कमों में लगा हुमा नहीं दीखता है, सत्य है कि-पापा पेसा शुभ कार्य में कैसे लग सकता है, क्योंकि उस के तो पास भाने से ही मनुष्य का मुनि मलीन हो जाती है, पस नुदि के मर्गन हो माने से पह पैसा शुम कामों में मन न हो कर मुरे मार्ग से ही जाता है। ममी पोरे ही विनों की बात है कि-ता ८ जनवरी सुपवार सन् १९०८ : संयुक्त मान्त (पूनाइटेर प्रापिन्सेम ) के छोटे गट साहन मागरे में झीगन का मुनिगा परवर रसमे के महोत्सय में पपारे पे तमा वहाँ भागरे के तमाम म्यापारी सूजन या उपसित में, उस समय भीमान् छोटे गट साहब ने अपनी सुमोम्म मङ्गता में भाग बननेभोर यमुना जी के नये पुरा के कामों को विखण कर भागरे के मापारमा को यहाँ के म्यापार के मकाने के सिप पहा पा, उच्च मरोदय की पता को भविष्य न किस कर पाठकोशाना हम उसमा सारमात्र सिसते है, पाठकगण उस पर कर समझ सकेंगे किक पाइप पहातुर ने अपनी सफता में प्यापारियों को कसा उधम शिक्षा दी भी, पता फा माराध यही था कि "ईमानदारी भोर सपा मेन इन Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्यायः ॥ ६६७ करना ही व्यापार में सफलता का देने वाला है, आगरे के निवासी तीन प्रकार के जुए में लगे हुए है, यह अच्छी बात नहीं है-क्योंकि यह आगरे के व्यापार की उन्नति का वाधक है, इस लिये नाज का जुआ, चाँदी का जुआ और अफीम का सट्टा तुम लोगो को छोड़ना चाहिये, इन जुओ से जितनी जल्दी जितना धन आता है वह उतनी ही जल्दी उन्ही से नष्ट भी हो जाता है, इस लिये इस बुराई को छोड देना चाहिये, यदि एसा न किया जावेगा तो सर्कार को इन के रोकने का कानून बनाना पड़ेगा, इस लिये अच्छा हो कि लोग अपने आप ही अपने भले के लिये इन जुओ को छोड़ दें, स्मरण रहे कि-सार को इन की रोक का कानून बनाना कुछ कठिन है परन्तु असम्भव नहीं है, फ्रीगंज की भविष्यत् उन्नति व्यापारियो को ऐसे दोषो को छोड़ कर सच्चे व्यापार में मन लगाने पर ही निर्भर है" इत्यादि, इस प्रकार अति सुन्दर उपदेश देकर श्रीमान् लाट साहब ने चमचमाती ( चमकती ) हुई कन्नी और वसूली से चूना लगाया और पत्थर रखने की रीति पूरी की गई, अब सेठ साहूकारों और व्यापारियों को इस विषय पर ध्यान देना चाहिये कि-श्रीमान् लाट साहब ने जुआ न खेलने के लिये जो उपदेश किया है वह वास्तव में कितना हितकारी है, सत्य तो यह है कि-यह उपदेश न केवलं व्यापारियों और मारवाडियों के लिये ही हितकारक है बरन सम्पूर्ण भारतवासियों के लिये यह उन्नति का परम मूल है, इस लिये हम भी प्रसगवश अपने जुआ खेलने वाले माइयों से प्रार्थना करते हैं कि-अंग्रेज जातिरत्न श्रीमान् छोटे लाट साहब के उक्त सदुपदेश को अपनी हृदयपटरी पर लिख लो, नहीं तो पीछे अवश्य पछताना पड़ेगा, देखो! लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है कि-"जो न माने बडों की सीख, वह ठिकरा ले मागे भीख' देखो! सब ही को विदित है कि-तुम ने अपने गुरु, शास्त्रों तथा पूर्वजों के उपदेश की ओर से अपना ध्यान पृथक् कर लिया है, इसी लिये तुम्हारी जाति का वत्तेमान में उपहास हो रहा है परन्तु निश्चय रक्खो कि-यदि तुम अब भी न चेतोगे तो तुम्हें राज्यनियम इस विषय से लाचार कर पृथक् करेगा, इस लिये समस्त मारवाड़ी और व्यापारी सज्जनों को उचित है कि इस दुर्व्यसन का त्याग कर सच्चे व्यापार को करें, हे प्यारे मारवाडियो और व्यापारियो! आप लोग व्यापार में उन्नति करना चाहें तो आप लोगों के लिये कुछ भी कठिन बात नहीं है, क्योंकि यह तो आप लोगों का परम्परा का ही व्यवहार है, देखो! यदि आप लोग एक एक हजार का भी शेयर नियत कर आपस में बेंचे ( ले लेवें ) तो आप लोग बात की बात में दो चार करोड रुपये इकट्ठे कर सकते है और इतने वन से एक ऐसा उत्तम कार्यालय ( कारखाना ) खुल सकता है कि जिस से देश के अनेक कष्ट दूर हो सकते है, यदि आप लोग इस वात से डेरे और कहें कि हम लोग कलो और कारखानों के काम को नहीं जानते हैं. Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जैनसम्प्रदामशिक्षा || सो मद्द आप लोगों का भय और कमन पर्थ है, क्योंकि भर्तृहरि जी ने कहा है कि"सर्वे गुणा काश्चनमाश्रयन्ति" अर्थात् सव गुण कश्चन ( सोने ) का आश्रय देते हैं, इसी प्रकार नीतिशास्त्र में भी कहा गया है कि-" न हि वद्विषते किश्चित, मवर्खेन न सिध्यति" अर्थात् संसार में ऐसा कोई काम नहीं है जो कि घन से सिद्ध न हो सकता हो, वास्पर्य यही है कि-धन से प्रत्येक पुरुष सब ही कुछ कर सकता है, देखो ! यदि भाप छोग कर्मों और कारखानों के काम को नहीं मानते हैं वो द्वन्प का म्यग करके अनेक देशों के उत्तमोत्तम कारीगरों को मुका कर तथा उन्हें स्वामीन रख कर भाप कार स्वामों का काम अच्छे प्रकार से चला सकते हैं । अग भन्त में पुन एक वार भाप लोगों से यही कहना है कि हे प्रिय मित्रो ! सब श्रीमही घेतो, अज्ञान निया को छोड़ कर स्वजाति के सद्गुणों की वृद्धि करो और देश के कस्माणरूप श्रेष्ठ व्यापार की उन्नति कर उमय लोक के सुख को प्राप्त करो ॥ यह पथम अध्याय का भोसवाल वसोत्पत्तिवर्णन नामक प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ || द्वितीय प्रकरण - पोरवाल वंशोत्पत्चिवर्णन || पोरवाल वंशोत्पत्ति का इतिहास ॥ पद्मावती नगरी ( जो कि आबू के नीचे बसी भी ) में बैनाचार्य ने प्रतिमोभ वेकर बोगों को चैनधर्मी बना कर उन का पोरवास बंश स्थापित किया था । दो एक सेल हमारे बेखने में ऐसे भी जाये है जिन में पोरबा को प्रतिबोष देनेगाळा जैनाचार्य श्रीहरिमद्र सूरि जी महाराज को किया है, परन्तु यह बात बिलकु १-ये (पोरवाल ) अब दक्षिण मारवा (मोड़वाड़) और गुजरात में अधिक है, इसका ओसवालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध होता है, किन्तु केवळ भोजमव्यवहार होता है इसका एक फिरका षडानामक है, उस में २४ मोत्र है तथा उसमें बैनी और वैष्णव होगा माइक रहवा बहुत करके अम्बक मदी की छाया में रामपुरा मन्दसौर माया तथा इस्कर सिंव के राज्य में है अर्थात् उच्च स्थानों में मैन्बव पोरवारों के करीब तीन हजार पर बसते है, इन के जैनजमेवारी पोरवाड ऑन है ये मेवपुर और उम्बन आदि में निवास करते हैं, फि-दोषड़ा फिस के वारके पोरवालों को १४ प्येत्र है जब १४ मोत्रों के नाम मे ११परी । १-काव्य । ३-जनगड ४-५-पादोन । ६-मयन्यावस्था) ९-भ्रमस्या । १ मा । ११-कविया । १२ १३ १६-१७-१८ या १९ नया १ मेसोस । ११११वा । ११-महा । १४-सरभा शिवाय बाकी के ऊपर का पु १४-१५-प्रभे । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय | ६६९ गलत सिद्ध होती है, क्योंकि श्री हरिभद्र सूरि जी महाराज का स्वर्गवास विक्रम संवत् ५८५ ( पाच सौ पचासी ) में हुआ था और यह बात बहुत से ग्रन्थों से निर्भम सिद्ध हो चुकी है, इस के अतिरिक्त - उपाध्याय श्री समयसुन्दर जी महाराजकृत शत्रुजय रास में तथा श्री वीरविजय जी महाराज कृत ९९ प्रकार की पूजा में सोलह उद्धार शेत्रुञ्जय का वर्णन किया है, उस में विक्रम संवत् १०८ में तेरहवाँ उद्धार जावड़ नामक पोरवाल का लिखा है, इस से सिद्ध होता है कि विक्रम संवत् १०८ से पहिले ही किसी जैनाचार्य ने पोरवालों को प्रतिबोध देकर उक्त नगरी में उन्हें जैनी बनाया था । सूचना - इस पोरवाल वश में - विमलशाह, धनशाह, वस्तुपाल और तेजपाल आदि अनेक पुरुष धर्मज्ञ और अनर्गल लक्ष्मीवान् हो गये है, जिन का नाम इस ससार में स्वर्णाक्षरो ( सुनहरी अक्षरों ) में इतिहासों में सलिखित है, इन्ही का सक्षिप्त वर्णन पाठकों के ज्ञानार्थ हम यहाँ लिखते है: पोरवाल ज्ञातिभूषण विमलशाह मन्त्री का वर्णन ॥ गुजेरात के महाराज भीमदेव ने विमलशाह को अपनी तरफ से अपना प्रधान अघिकारी अर्थात् दण्डपति नियत कर आबू पर भेजा था, यहाँ पर उक्त मन्त्री जी ने अपनी १ - इन्हों ने मुल्क गोडवाड मे श्री आदिनाथ खामी का एक मनोहर मन्दिर बनवाया था ( जो कि सादरी से तीन कोश पर अभी राणकपुर नाम से प्रसिद्ध है), इस मन्दिर की उत्तमता यहाँ तक प्रसिद्ध है कि–रचना में इस के समान दूसरा मन्दिर नही माना जाता है, कहते हैं कि इस के बनवाने मे ९९ लाख स्वर्ण मोहर का खर्च हुआ था, यह बात श्री समयसुन्दर जी उपाध्याय ने लिखी है ॥ इस २ - आबू और चन्द्रावती के राजकुटुम्वजन अणहिलवाडा पट्टन के महाराज के माण्डलिक थे, इन का इतिहास इस प्रकार है कि यह वश चालुक्य वश का था, इस वश मे नीचे लिखे हुए लोगों ने प्रकार राज्य किया था कि- मूलराज ने ईस्वी सन् ९४२ से ९९६ पर्यन्त, चामुण्ड ने ईस्वी सन् ९९६ से १०१० तक, वल्लभ ने ६ महीने तक, दुर्लभ ने ईस्वी सन् १०१० से १०२२ तक ( यह जैनधर्मी या ), भीमदेव ने ईस्वी सन् १०२२ से १०६२ तक, इस की बरकरारी मे धनराज आवू पर राज्य करता था तथा भीमदेव गुजरात देश पर राज्यशासन करता था, उस समय मालवे मे धारा नगर मे भोजराज गद्दी पर या, आबू के राजा धनराजने अणहिल पहन के राजवंश का पक्ष छोड कर राजा भोज का पक्ष किया था, इसी लिये भीमदेव ने अपनी तरफ से विमलशाह को अपना प्रवान अधिकारी अर्थात् दण्डपति नियत कर आवू पर भेजा था और उसी समय में विमलशाह ने श्री आदिनाथ का देवालय बनवाया था, भीमदेव ने धार पर भी आक्रमण किया था और इन्हीं की वरकरारी मे गजनी के महमूद ने सोमनाथ ( महादेव ) का मन्दिर लूटा था, इस के पीछे गुजरात का राज्य कर्ण ने ईस्वी सन् १०६३ से १०९३ तक किया, जयसिंह अथवा सिद्धराज ने ईखी सन् १०९३ से ११४३ तक राज्य किया ( यह जयसिंह चालुक्य वश एक वडा तेजस्वी और बुरन्धर पुरुष हो गया है), इस के पीछे कुमारपाल ने ईस्वी सन् ११४४ से म ११७३ तक राज्य किया (इस ने जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र जी सूरि से जैन धर्म का ग्रहण किया था, उस Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० चैनसम्प्रदामक्षिक्षा || मोम्यसानुसार राज्यसता का अच्छा मबंध किया था कि जिस से सब लोग उन से प्रसन्न थे, इस के अतिरिक्त उन के सद्वघवहार से भी सम्बादेवी मी साक्षात् होकर उन पर प्रसन्न हुई थी और उसी के प्रभाव से मश्री बी ने भायू पर भी आदिनाम स्वामी के मन्दिर को बनवाना विश्वारा परन्तु ऐसा करने में उन्हें जगह के लिये कुछ विक्त उठानी पड़ी, सब मनी जी ने कुछ सोच समझ कर प्रथम तो अपनी सामर्थ्य को विस्वका कर ममीन को करने में किया, पीछे अपनी उदारता को दिखलाने के लिये उस ममीन पर रुपये बिछा दिये और वे रुपये जमीन के मालिक को दे दिये, इस ર पश्चात् देवान्वरों से मामी कारीगरों को बुलवा कर संगमरमर पत्थर ( श्वेत पाषाण ) से अपनी इच्छा के अनुसार एक अति सुन्दर अनुपम कारीगरी से युक्त मन्दिर बनवाया, जब वह मन्दिर बन कर तैयार हो गया तब उठ मन्त्री जी ने अपने गुरु बृहस्वरतरगच्छीम जैनाचार्य श्री बर्द्धमान सूरि जी महाराज के हाथ से विक्रम संवत् १०८८ में उस की प्रतिष्ठा करवाई । इस के अतिरिक्त अनेक धर्मकार्यों में मन्त्री विमलवार ने बहुत सा प्रष्म लगाया, जिस की गणना (गिनसी) करना अति कठिन है, धन्य है ऐसे धर्मक भावकों को जो कि लक्ष्मी को पाकर उस का सदुपयोग कर अपने नाम को ममल करते हैं | समय चावी और अबू पर बघोषवल परमार राज्य करता था) इसके पीछे कमे सन् १९७३ से ११७६ तक राज्य या इसके पीछे दूसरे मूवराज ने ईसी सन् ११७६ से ११७८ एक राज्य किया इसके पीछ मोम्मा मीमवेष न रेखी सन् १९१७ से १२४१ तक राज्य किया (इसकी अमस्म्बारी में आबू पर कोटपा और मारायन राज्य करते थे कोटपाल के सुमेष नामक एक पुत्र और इछिनी कुमारी नामक एक कम्मा भी भर्वाद दो सम्तान में छिनी कुमारी अस्मत सुमारी बी भीमषेण ने भेटपाछ से उस कुमारी के देने के किये भैया परन्तु कोटपा ने कुमारी को अजमेर के चौहान राजा बेसुदेव को बनेका पहिले ही व्हयन कर किया था इसलिये कोप से भीमदेव से कुमारी के देने के किये इनकार किया उस कार को नये ही भीमदेव ने एक बड़े सैन् को साथ में लेकर कोटपाथ पर चढ़ाई की और भानूमद के बागे दोनों में पून ही बुद्ध हुआ फिर कार उस युद्ध में पान हार गया परन्तु उस के पीछे भीमवेष को पड़ा और उसी उस का मास हो पया) इसके पीछे त्रिभुवन ने ऐसी सन् १९४१ से १९४४ क राज्य किया (यह ही चालुक्य व में व्यतिरी पुरुष था ) इसके पीछे दूसरे भीमदेव अधिकारी वीर भवन मे गापेका बंश को भाकर जमावा इस मे गुजरात का किया और अपनी राजधानी को अमहिय बाडा पश्न में न करक बोलेरे में की इस स के विलम्मदेव अर्जुन और सारंच इन टीमों में राज्य किया और इसी की बरकरारी में बाबू पर प्रसिद्ध देवालय के निमापक (बनवाने वाले) पोरखाक विमूपणमस्तुर तेजपाल का पडा हुआ हाबुद्दीन गोरी का सामना करना १- इस मंदिर की छम्बरमा मन म जहाँ पर मजा करें क्योंकि इस का पूरा रूप तो न भाकर देखने से होता है Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय | ६७१ पोरवाल ज्ञातिभूपण नररत्न वस्तुपोल और तेजपाल का वर्णन ॥ वीरधवल वाघेला के राज्यसमय में वस्तुपाल और तेजपाल, इन दोनों भाइयों का बड़ा मान था, वस्तुपाल की पत्नी का नाम ललिता देवी था और तेजपाल की पत्नी का नाम अनुपमा था । वस्तुपौल ने गिरनार पर्वत पर जो श्री नेमिनाथ भगवान् का देवालय बनवाया था वह ललिता देवी का स्मारकरूप ( स्मरण का चिह्नरूप ) बनवाया था | किसी समय तेजपाल की पत्नी अनुपमा देवी के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि- अपने पास में अपार सम्पत्ति है उस का क्या करना चाहिये, इस बात पर खूब विचार कर उस ने यह निश्चय किया कि - आबूराज पर सब सम्पत्ति को रख देना ठीक है, यह निश्चय कर उस ने सब सम्पत्ति को रख कर उस का अचल नाम रखने के लिये अपने पति और जेठ से अपना विचार प्रकट किया, उन्हों ने भी इस कार्य को श्रेष्ठ समझ कर उस के विचार का अनुमोदन किया और उस के विचार के अनुसार आबूराज १- इन्हीं के समय में दशा और बीसा, ये दो तड पडे है, जिन का वर्णन लेस के वढ जाने के भय से यहाँ पर नहीं कर सकते ह ॥ २ - इन की वशावलि का क्रम इस प्रकार है कि चण्डप चन्द्रप्रसाद अश्वराज ( आसकरण ), इस की स्त्री कमला देवी मदनदेव लुग 1 वस्तुपाल तेजपाल I लावण्यसिंह जे सिंह ३- वम्बई इलाके के उत्तर में आखिरी टॉचपर सिरोही संस्थान में अरवली के पश्चिम में करीब सात माइल पर अरवली की घाटी के सामने यह पर्वत है, इस का आकार बहुत लम्बा और चौडा है अर्थात् इस की लम्बाई तलहटी से २० माइल है, ऊपर का घाटमाथा १४ माइल है, शिखा २ माइल है, इस की दिशा ईशान और नैर्ऋत्य है, यह पहाड बहुत ही प्राचीन है, यह बात इस के स्वरूप के देसने से ही जान ली जाती है, इसके पत्थर वर्तुलाकार (गोलाकार) हो कर सुँवाले ( चिकने ) हो गये है, हेतु यही है कि इस के ऊपर बहुत कालपर्यन्त वायु और वर्षा आदि पश्च महाभूतों के परमाणुओं का परिणमन हुआ है, यह भूगर्भशास्त्रवेत्ताओं का मत है, यह पहाड समुद्र की सपाटी से घाटमाथा तक ४००० फुट है और पाया से ३००० फुट है तथा इस के सर्वान्तिम ऊँचे शिखर ५६५३ फुट है उन्हीं को गुरु शिखर कहते हे, ईस्वी सन् १८२२ मे - राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासलेखक कर्नल टाड साहब यहाँ (आबूराज ) पर आये थे तथा यहाँ के मन्दिरों को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हो कर उन की बहुत. इस स्थिति का Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ चैनसम्प्रदायशिक्षा पर मथम से ही विमलशाह के बनवामे हुए भी भादिनाथ स्वामी के मध्य देवालय के समीप में ही संगमरमर पत्थर का एक सुन्दर देवालय बनवाया सभा उस में श्री नेमिनाथ भगवान् की मूर्ति स्थापित की । उक्त दोनों देवालय केवळ संगमरमर पापाण के बने हुए हैं और उन में माचीन वार्य छोगों की चिपका के रूप में रख मरे हुए हैं, इस शिल्पकला के रखभण्डार को देखने से यह बात स्पष्ट मासूम हो जाती है कि हिन्दुस्थान में किसी समय में शिल्पकला कैसी पूर्णावस्था को पहुँची हुई थी। इन मन्दिरों के बनने से वहाँ की शोभा अक्रमनीम हो गई है, क्योंकि प्रथम तो बापू ही एक रमणीक पर्वत है, दूसरे मे सुन्दर देवाक्रम उस पर बन गये हैं, फिर भता शोभा की क्या सीमा हो सकती है? सब है-"सोना और सुगन्म" इसी का नाम है। वह सुम्दरा का वर्णन है कसाबसा मे राजपूताने धारीफ की थी देखिये | यहाँ के जैन मन्दिरों के विषय में उन के कथन का सार गइ है-" पाठ निर्मिणाय है कि इस भारतवर्ष क सर्व देवानों में ये बाबू पर के देवालय विशेष मध्य है और वाय महल के विषाम एल के साथ करने वाली दूसरी कोई भी इमारत माँ है क्या मकों में से एक के बड़े किये हुए मानक तथा अभिमान बोम्म श्व भर्तिसम्म भै करने में कम मक्षण है" इस पाठकसम जानते इतिहास बहुत सुयोग्य रीति से किया है तथा उन का भाग सब को मान्य है, क्योंकि जो कुछ उन्हों ने सिखा है वह सम्मानसहित किया है, इसी किये एक ऋषि ने उस के विषय में यह है--" ठार समा साहिब बिमा क्षत्रिय यश क्षय थात फार्बस सम साहिब बिना, नहिं उपरत गुजरात” ॥ १ ॥ अर्थात् दाहण न किये तो क्षत्रियों के बस का काम हो जादा फास साम को गुजरात का उद्धार नहीं होता १७ प यह है कि रायपू लाने के इतिहास को कर्नाड साइन में और गुजरात के राजाओं के इतिहास को मि फास साहब ने परिश्रम करके किया है ॥ १ इस पवित्र और रमणीक स्थान की यात्रा हम ने संवत् १९५० के कार्तिक कृष्ण को को भी त दीपमालिका (दिवासी) तक यहाँ ठहरे से इस बात्रा में मक्सूबाबामनिवासी राम बहादुर श्रीमान् श्री मेमराज जी कोठारी के स्पेष्ठ पुत्र भी रखा मामू स्वयैवाधी को बधाविका सुषु कुमारी और जब के मामा मद्यपगत श्री गोविन्दम् श्री तथा मौन पारों सहित कुछ सात भादमी से (हम की अधिक चिमटी होने से हमें भी यात्रायम करना पण मा) इध मात्रा के करने में आपू प्रेम पिरमार, भोगनी और धणपुर आदि पम्रठीनों की यात्रा भी बड़े आनम्द के साथ हुई थी इस यात्रा को इस (आबू) स्थान को अनेक बातों का अनुभव हमें हुआ उन में से कुछ गायक बने ह के यहाँ किये म मावू पर पतमान पस्ती - आपू पर वर्तमान में बखी अच्छी है, यहाँ पर सिरोही महाराज प एक अधिकारी रहा है और वह देलवाड़ा (जिस जमा पर छ मन्दिर बना हुआ है उस को दी नाम से है) को व्यव हुए ग्रवियों से कर (महसूल) वसूल करता है, परन्तु बी Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय ।। - ६७३ उक्त देवालय के वनवाने में द्रव्य के व्यय के विषय में एक ऐसी दन्तकथा है किशिल्पकार अपने हथियार ( औज़ार ) से जितने पत्थर कोरणी को खोद कर रोज़ निकालते थे उन्हीं ( पत्थरों ) के बराबर तौल कर उन को रोज़ मजूरी के रुपये दिये जाते थे, यह क्रम बरावर देवालय के वन चुकने तक होता रहा था। दूसरी एक कथा यह भी है कि-दुप्काल ( दुर्भिक्ष वा अकाल ) के कारण आबू पर बहुत से मजदूर लोग इकट्ठे हो गये थे, बस उन्हीं को सहायता पहुंचाने के लिये यह देवालय वनवाया गया था। और ब्राह्मण आदि को कर नहीं देना पडता है, यहाँ की और यहाँ के अधिकार में आये हुए ऊरिया आदि ग्रामों की उत्पत्ति की सर्व व्यवस्था उक्त अधिकारी ही करता है, इस के सिवाय-यहाँ पर बहुत से सर्कारी नौकरों, व्यापारियों और दूसरे भी कुछ रहवासियों ( रईसो) की वस्ती है, यहाँ का बाजार भी नामी है, वत्तेमान में राजपूताना आदि के एजेंट गवर्नर जनरल के निवास का यह मुख्य स्थान है इस लिये यहाँ पर राजपूताना के राजी महाराजो ने भी अपने २ बॅगले बनवा लिये हैं और वहाँ वे लोग प्राय उष्ण ऋतु में हवा खाने के लिये जाकर ठहरते हैं, इस के अतिरिक्त उन (राजी महाराजों) के दर्वारी वकील लोग वहाँ रहते हैं, अर्वाचीन सुधार के अनुकूल सर्व साधन राज्य की ओर से प्रजा के ऐश आराम के लिये वहाँ उपस्थित किये गये हैं जैसे-म्यूनीसिपालिटी, प्रशस्त मार्ग और रोशनी का सुप्रवन्ध आदि, यूरोपियन लोगों का भोजनालय (होटल), पोष्ट आफिस और सरत का मैदान, इत्यादि इमारतें इस स्थल की शोभारूप हैं। आबू पर जाने की सुगमता-खरैडी नामक स्टेशन पर उतरने के बाद उस के पास में ही साशदावादनिवासी श्रीमान् श्रीबुध सिंह जी रायबहादुर दुधेडिया के वनवाये हुए जैन मन्दिर और घमशाला है, इस लिये यदि आवश्यकता हो तो धर्मशाला में ठहर जाना चाहिये नहीं तो सवारी कर आवू पर चले जाना चाहिये, आबू पर डाक के पहुंचाने के लिये और वहाँ पहुँचाने को सवारी का प्रबंध करने के लिये एक भाडेदार रहता है उस के पास तोंगे आदि भाडे पर मिल सकते हैं, आवू पर जाने का मार्ग उत्तम है तथा उस की लम्बाई सत्रह माइल की है, तोंगे मे तीन मनुष्य वैठ सकते हैं और प्रति मनुष्य ३) रुपये भाडा लगता है अर्थात् पूरे तोंगे का किराया १२) रुपये लगते हैं, अन्य सवारी की अपेक्षा तोंगे * जाने से आराम भी रहता है, आवू पर पहुँचने मे ढाई तीन घण्टे लगते हैं, वहाँ भाडेदार (ठेके वाले) का आफिस है और घोडा गाडी का तवेला भी है, आबू पर सव से उत्तम और प्रेक्षणीय (देखने के योग्य) पदार्थ जैन देवालय है, वह भाडेदार के स्थान से डेढ माइल की दूरी पर है, वहाँ तक जाने के लिये बैल की और घोडे की गाडी मिलती है, देलवाडे में देवालय के बाहर यात्रियों के उतरने के लिये स्थान वने हुए हैं, यहाँ पर वनिये की एक दूकान भी है जिस में आटा दाल आदि सब सामान मूल्य से मिल सकता है, देलवाडा से थोड़ी दूर परमार जाति के गरीब लोग रहते हैं जो कि मजदूरी आदि काम काज करते हे और दही दूध आदि भी वेचते हैं, देवालय के पास एक बावडी है उस का पानी अच्छा है यहाँ पर भी एक भाडेदार घोडों को रखता है इस लिये कहीं जाने के लिये घोड़ा भाडे पर मिल सकता है, इस से अचलेश्वर, गोमुख, नखी तालाव और पर्वत के प्रेक्षणीय दूसरे स्थानों पर जाने के लिये तथा सैर करने को जाने के लिये बहुत आराम है, उष्ण ऋतु में आवू पर बड़ी वहार रहती है इसी लिये वह लोग प्राय उणा ऋतु को वहीं व्यतीत करते हैं ॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७९ चैनसम्प्रदायचिया ॥ इसी रीति से इस के विषय में बहुत सी बातें प्रचलित है बिन का वर्णन अनावश्यक समझ कर नहीं करते हैं, सैर-देवालय के बनने का कारण चाहे कोई ही क्यों न हो किन्तु मसल में सारांश वो यही है कि इस देनाकम्य के मनवाने में अनुपमा और कीमबसी की धर्मबुद्धि ही मुख्य कारणभूत समझनी चाहिये, क्योंकि निस्सीम धर्मबुद्धि और निष्काम भक्ति के विना ऐसे महत् कार्य का कराना षति कठिन है, वो ! भाबू सरीले दुर्गम मार्ग पर सीन इमार फुट ऊँची संगमरमर पत्थर की ऐसी मनोहर इमा रव का उठवाना क्या असामान्म मौदार्य का दर्शक नहीं है । सब ही जानते हैं कि बालू के पहाड़ में सगमरमर पत्थर की खान नहीं है किन्तु मन्दिर में लगा हुआ सग ही पत्थर आबू के नीचे से करीब पच्चीस माइक की दूरी से अरीवा की खान में से बना गया था ( मह पत्थर भम्बा भवानी के गैंगर के समीप वस्तर प्रान्त में मिलता है) परन्तु कैसे लाया गया, कौन से मार्ग से लाया गया, खाने के समय क्या २ परिश्रम उठाना पड़ा और किसने ब्रम्प का वर्ष हुआ, इस की सर्कना करना यति कठिन ही नहीं किन्तु भवम्ययत् प्रतीत होती है, देखो ! वर्तमान में तो भाबू पर गाड़ी मावि के ाने के एक मस्त मार्ग बना दिया गया है परन्तु पहिले ( देवालय के बनने के समय ) सो आबू पर चढ़ने का मार्ग अति दुर्गम था अर्थात् पूर्व समय में मार्ग में गहन झाड़ी भी तथा अघोरी जैसी क्रूर मावि का सधार भावि था, मला सोचने की बात है कि इन सब कठिनाइयों के उपस्थित होने के समय में इस देवालय की स्थापन्य मिन पुरुषों ने करवाई थी उन में धर्म के नियम और उस में स्थिर भक्ति के होने में सन्देह ही क्या है । वस्तुपास और से पास ने इस देवालय के अतिरिक्त मी देवासम्म, प्रतिमा, शिवाय उपाश्रय ( उपासरे ), विद्याशाखा, स्तूप, मस्जिद, कुमा, साबाब, नागड़ी, सदामत और पुस्तकालय की स्थापना आदि अनेक शुभ कार्य किये थे, जिन का वर्णन हम कहाँ तक करें बुद्धिमान् पुरुष ऊपर के ही कुछ वर्णन से उन की धर्ममुद्धि और सक्ष्मीपात्रता अनुमान कर सकते हैं । रखने से यह बात भी इन (वस्तुपाल और तेजपाल ) को उदाहरणरूप में भागे स्पष्ट मासूम हो सकती है कि पूर्व काल में इस कार्यावर्त देश में बड़े २ परोपकारी धर्मात्मा तथा कुबेर के समान भनान गृहस्थ मन हो चुके हैं, भाषा ! ऐसे ही पुरुष रबों से यह रसगर्भा वसुन्धरा छोमायमान होती है और ऐसे ही नररयों की सत्कीर्ति और नाम सदा कामम रहता है, देखो ! शुभ कार्यों के करने माझे मे वस्तुपास और क्षेत्र पास इस संसार से पड़े जा चुके हैं, उन के गृहस्थान आदि के भी कोई चिह्न इस समय मैने पर भी नहीं मिलते हैं, परन्तु उक्त महोदयों के नामाशिवाय से इस भारतभूमि Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय ॥ ६७५ के इतिहास में उन का नाम सोने के अक्षरों में अङ्कित होकर देदीप्यमान हो रहा है और सदा ऐसा ही रहेगा, बस इन्ही सब बातों को सोच कर मनुष्य को यथाशक्ति शुभ कार्यों को करके उन्हीं के द्वारा अपने नाम को सदा के लिये स्थिर कर इस संसार से प्रयाण करना चाहिये कि - जिस से इस ससार में उस के नाम का स्मरण कर सब लोग उस के गुणों का कीर्त्तन करते रहें और परलोक में उस को अक्षय सुख का लाभ हो ॥ यह पञ्चम अध्याय का पोरवाल वंशोत्पत्तिवर्णन नामक दूसरा प्रकरण समाप्त हुआ || तीसरा प्रकरण - खंडेलवाल जातिवर्णन | खंडेलवाल ( सिरावगी ) जाति के ८४ गोत्रों के होने का संक्षिप्त इतिहास ॥ श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ६०९ ( छः सौ नौ ) वर्ष के पश्चात् दिगम्बर मते की उत्पत्ति सहस्रमल्ल साधु से हुई, इस मत में कुमदचन्द्रनामक एक मुनि बड़ा पण्डित हुआ, उस ने सनातन जैन धर्म से चौरासी बोलों का मुख्य फर्क इस मत में डाला, इस के अनन्तर कुछ वर्ष वीतने पर इस मत की नींव का पाया जिनसेनाचार्य से दृढ़ हुआ, जिस का सक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है कि- खडेला नगर में सूर्यवंशी चौहान खडेलगिरि राज्य करता था, उस समय अपराजित मुनि के सिंगाड़े में से जिनसेना - चार्य ५०० ( पॉच सौ ) मुनियों के परिवार से युक्त विचरते हुए इस ( खंडेला ) नगर के उद्यान में आकर ठहरे, उक्त नगर की अमलदारी में ८४ गॉव लगते थे, दैववश कुछ दिनों से सम्पूर्ण राजधानी में महामारी और विषूचिका रोग अत्यन्त फैल रहा था १- यह मत सनातन जैनश्वेताम्बर धर्म में से ही निकला है, इस मत के आचार्यों तथा साधुओं ने नम रहना पसन्द किया था, वर्त्तमान में इस मत के साधु और साध्वी नहीं हैं अत श्रावकों से ही धर्मोपदेश आदि का काम चलता है, इस मत में जो ८४ बोलों का फर्क डाला गया है उन मे मुख्य ये पाँच वाते हैं१ - केवली आहार नहीं करे, २-वस्त्र में केवल ज्ञान नहीं है, ३- स्त्री को मोक्ष नही होता है, ४ - जैनमत के दिगम्बर आम्नाय के सिवाय दूसरे को मोक्ष नहीं होता है, ५-सव द्रव्यों में काल द्रव्य मुख्य है, इन बोलों के विषय में जैनाचार्यों के बनाये हुए सस्कृत मे खण्डन मण्डन के बहुत से ग्रन्थ मौजूद हैं परन्तु केवल भाषा जानने वालो को यदि उक्त विषय देखना हो तो विद्यासागर न्यायरत्न मुनि श्री शान्ति विजय जी का बनाया हुआ मानवधर्मसहिता नामक ग्रन्थ तथा स्वर्गवासी खरतरगच्छीय मुनि श्री चिदानन्द जी का बनाया हुआ स्याद्वादानुभवरत्नाकर नामक ग्रन्थ ( जिस के विषय मे इसी ग्रन्थ के दूसरे अध्याय में हम लिख चुके है ) देखना चाहिये ॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७६ मैनसम्मवायश्चिक्षा ॥ कि-मिस से हमारों भादमी मर चुके थे मोर मर रहे थे, रोग के मफोप को देसर वों का राजा बहुत ही मयानर हो गया और अपने गुरु ग्राममों सषा भाषियों को मुगकर सर से उक्त उपद्रव की शान्ति का उपाय पूछा, रापा के पूछने पर उक पर्य गुरुमों ने कहा कि-" राबन् ! नरमेप पत्र को करो, उसके करने से शान्ति होगी" उन के पपन को सुन कर रामा ने शीघ्र ही नरमेष यज्ञ की सैवारी पाई और गध में होमने के म्पेि एक मनुष्य के छाने की माझा मी, संयोगवश्च राबा के नौकर मनुष कोदते हुए श्मशान में पहुँने, उस समय पहा एक दिगम्बर मुनि ध्यान मगाये हुए सड़े थे, बस उन को देसते ही रामा के मौकर उन्हें पकाकर यहचाम में है गय, मन की विधि कराने प्राों ने उस मुनि को मान परा के समापन पहिरा कर राना साब से विफ करा पर हाथ में सहास वे कर समाबेद का मा पा कर बनकण में स्वाहा र विमा, परन्तु ऐसा करने पर भी उपद्रव शान्त न हुषा किन्तु उस दिन स उन्टा असल्मातगुणा केश भोर,उपद्रव होने म्गा सपा उपक रोगों के सिवाय भमिवार, भनाइट मोर प्रवण हगा (भाषी) मादि भनेक करों से प्रना को अत्यन्त पार होमे गगी भोर मावन अत्यन्त प्याकुल होकर राजा के पास बा २ पर भपना र कर सुनाने लगे, राधा मी उस समय पिन्ता के मारे गिर हो कर मूछोगत (पास) हो गया, मूर्ण होते ही राजा को सम भाया और सम में उस ने पूर्योक (विमम्मर मत के) मुनि को देसा, अब मूळ दर हुई और राजा के नेप्र सुरु गये तब रागा पुन उपयों की शान्ति का विचार परमे मा भौर मोड़ी देर के पीछे भपने ममीर उमरामा को साप कर यह नगर बार निका, बाहर बार उस ने उपान में ५०० दिगम्बर मुनिरागों को मानाहर देसा, उने देखते ही रामादय में विस्मय उस हुमा और वह प्लीम ही उनके परणों में गिरा मोर स्खन करता हुआ मोठा लि महाराम! भाप रुपा कर मेरे देश में शान्ति करो" राधा के इस विनीत ( विनम्मुरु चपन को सुन कर जिमसेमापार्य मोसे कि- रामन् ! त् वमाधर्म की वृदिर' राजा मोहा कि महारान! मेरे देश में मा उपवन क्यों हो रहा।" तर विगम्परा पार्य ने कहा कि-" रामन् ! सू पौर सेरी प्रजा मिष्माल से मन्ये होकर गीचा करने सगे तथा मांससेवन मौर मदिरापान कर अनेक पापापरण किये गये, उन परम सेरे देश भर में महामारी फैशी की मौर उसके विश्वेप पाने का रेटमा हि-तूने ठान्ति के महाने से नरमेप पत्र में मुनि होम कर सर्व प्रकारे का मम दिया, पस इसी परम ये सब दूसरे भी मनेक उपद्रप फेस रहे है, मुझे यह भी स्मरण रोकि-पर्वमान में पो जीवहिंसा से भनेक उपाय हो रहे हैं यह तो एक सामान बात , इसकी विशेषता वो तुझे मवान्तर (परसो) में विदित होगी भर्मात् भवान्तर - Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। तू बहुत दुःख पावेगा, क्योंकि-नीवहिंसा का फल केवल दुर्गति ही है" मुनि के इस वचन को सुन कर राजा ने अपने किये हुए पाप का पश्चात्ताप किया तथा मुनि से सत्य धर्म को पूछा, तब दिगम्बराचार्य बोले कि-'हे राजन् ! जहाँ पाप है वहाँ धर्म कहाँ से हो सकता है ? देख ! जैसा तुझे अपना जीव प्यारा है वैसा ही सब जीवों को भी अपना २ जीव प्यारा है, इस लिये अपने जीव के समान सब के जीव की प्रिय समझना चाहिये, पञ्च महाव्रतरूप यतिधर्म तथा सम्यक्त्वसहित बारह व्रतरूप गृहस्थधर्म ही इस भव और पर भव में सुखदायक है, इस लिये यदि तुझे रुचे तो उस ( दयामय जैन धर्म ) का अङ्गीकार कर और सुपात्रों तथा दीन दुःखियों को दान द, सत्य वचन को वोल, परनिन्दा तथा विकथा को छोड़ और जिनराज की द्रव्य तथा भाव से पूजा कर" आचार्य के मुख से इस उपदेश को सुन कर राजा जिनधर्म के मर्म का समझ गया और उस ने शीघ्र ही जिनराज की शान्तिक पूजा करवाई, जिस से शाध ही उपद्रव शान्त हो गया, बस राजा ने उसी समय चौरासी गोत्रों सहित (८३ उमराव और एक आप खुद, इस प्रकार ८४ ) जैन धर्म का अङ्गीकार किया, ऊपर कहे हुए ८४ गाँवों में से ८२ गॉव राजपूतों के थे और दो गॉव सोनारों के थे, ये ही लोग चारासी गोत्रवाले सिरावगी कहलाये, यह भी स्मरण रहे कि-इन के गाँवो के नाम से हा इन के गोत्र स्थापित किये गये थे, इन में से राजा का गोत्र साह नियत हुआ था भार वाकी के गोत्रों का नाम पृथक् २ रक्खा गया था जिन सव का वर्णन क्रमानुसार निम्नलिखित है:सख्या कुलदेवी १ साह गोत्र चौहान राजपूत खंडेलो गाँव चक्रेश्वरी देवी २ पाटणी , तवर पाढणी आमा ३ पापड़ीवाल चौहान पापड़ी , चक्रेश्वरी ४ दौसा राठौड़ दौसा जमाय ५ सेठी सोमसेठाणियो चक्रेश्वरी ६ भौसा चौहान भौसाणी नादणी ७ गौधा गौघड़ गौघाणी मातणी चंदूवाड़ , मातणी ठीमर १० अजमेरा , अजमेर्यो ११ दरौद्या , चौहान दरौद चक्रेश्वरी १२ गदइया , गदयौ गोत्र वश ८ चाँदूवाड़ ९ मौट्या बँदेला मोठ्या गौड़ औरल नॉदणी चौहान चक्रेधरी Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ चौहान पाहाडी सूर्यवंशी ६७८ संस्मा गोत्र १३ पाहाय्या , १. भूष " १५ वम , १६ पक्षमहाराया,, १७ राजका १८ पाटोपा , १९ गगवान , २० पापड़ा , २१ सौनी , २२ विगहा , २३ बिरलासा , २१ बिन्यायक्या, २५ मांफीबाल, २६ कासगवान, २७ पापळा ॥ २८ सौगापी , २९ जाँसम्पा, २० स्टार्या , हेम सोम संबर छापा बोदान सौम्सी पाणी बनमासी रासोरी पाटोदी गगवाणी पावणी अमेसी पोधरी ॥ भामम भामण मोहनी भोरण फ्यावती जमवार पोधरी भामण सौहनी औरठ बेबी मामपी पंवार कुशी __छोटी निगरी सौतन गागत , सिम्मायकी , मौहिए बाँकती बीपी मौदित काँससी जीपी सौग पापली बामण सूर्यमंशी सौगापी कमवा गौशरी यमबाप कछावा कटार्या , बमबार सौरही बदमासा टोगामी पारी सौतरी इसपाही सोहनी भौहान वरचा , पौरत सूर्यवंशी गाणी भामणी मौरल्या नया । मोसिस सौम्सी भन्सारी भामणी सौम्सी भामग्री बर पनापती गहलोत पारसी सोरा मिमोती भीदेवी सोय ३२ टोम्पा , २१ मोहोरा ३० प्रठा ॥ ३५ छापा, २६ सोम्पा ॥ ३७ वापा, २८ अंसारी, ३९ दगडापस, १. पोपरी । पोहोरी ११ पोटत्मा ॥ ৰীয় पोपत्या पोटा Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय ॥ ६७९ गांव कुलदेवी सौढा चंदेला गौड़ चौहान चौहान सिरवराय मातणी नाँदणी चक्रेश्वरी चक्रेश्वरी चक्रेश्वरी चक्रेश्वरी चक्रेश्वरी चौहान चौहान , औटल संख्या गोत्र ४३ साखूण्या , ४४ अनौपड़या,, ४५ निगौत्या , ४६ पाँगुल्या , ४७ भूलाण्या " १८ पीतल्या ४९ बनमाली ५० अरड़क " ५१ रावत्या , ५२ मौदी , ५३ कोकणराज्या,, ५४ जुगराज्या ,, ५५ मूलराज्या , ५६ छहड़या , ५७ दुकड़ा , ५८ गौती , ५९ कुलभाण्या , ६० वौरखंड्या , ६१ सरपत्या , ६२ चिरडक्या , ६३ निगर्या ६४ निरपोल्या , ६५ सरवड्या , ६६ कड़वड़ा , ६७ साँभर्या , ६८ हलद्या . ६९ सौमगसा , ७० बंबा , ७१ चौवाण्या , ७२ राजहंस , चौहान ठीमरसौम ठीमरसौम कुरुवंशी कुरुवंशी कुरुवशी कुरुवशी दुजाल दुजाल दुजाल , , लौरल सौनल सौनल सौनल सौनल साखूणी , अनौपड़ी नागौती " पाँगुल्यो भूलाणी पीतल्यो वनमाल अरड़क , रावत्यो , मौदहसी , कोकणराज्या,, जुगराज्या , मूलराज्या , छाहड़या , दुकड़ा " गौतड़ा कुलभाणी वौरखंडी सरपती , चिरड़की निरगद निरपाल सरवड्या कड़वगरी सॉभर्यों , हरलौद , सौमद बंबाली चौवरत्या , , राजहंस हेमा हेमा हेमा दुजाल हेमा मौहिल चौहान गौड़ जीणदेवी चक्रेश्वरी नॉदणी नॉदणी नम्न म नोंदणी चौहान नोंदणी चक्रेश्वरी मौहिल गहलौत सौढा जाणिधयाड़ा चौथी सिखराय चक्रेश्वरी चौहान सोढा सिखराय .. Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्देली सौदा मोगर ६८० मैनसम्प्रदायश्चिता ॥ सल्या गोत्र पंच गांव ७३ महकार्या , सौप , मईकर , सिसम्म ७४ मूसावस्या, कुर्वधी मसमरपा, - सौनत ७५ मौम्सरा , मौमसर , सिमराम ७६ माँगड़ा , खीमर औरक ७७ गहरापा, मोरठा , औहट , सपिया । ७८ क्षेत्रपाल्मा , दुमार सेत्रपास्मो, हेमा ७९ रामभव , सासग राषमदरा, सरसती ८० अवास्या , कछाया मुंगाउ ॥ चमवाय ८१ बग्वाम्या, कछाना बल्वामी , गमनाम ८२ वेवाल्या , ठीमर , बनगोड़ा , भौरल ८३ छठीवान, सौग , पटवारा, भीदेवी ८१ निरपास्मा, सोरटा , निपती 1, भमाणी यह पधम अध्याय का सेरेम्बाउ जातिवर्यन नामक वीसरा प्रकरण समाप्त हुमा । चौथा प्रकरण माहेश्वरी यशोत्पचि वर्णन ॥ माहेश्वरी पशोत्पत्ति का सक्षिप्त इतिहास ॥ संग नगर में सूर्यपंधी चौहान नाति का रामा सहगरसेन राग्य परसा था, उस फे कोई पुत्र नहीं था इस सिये रामा के सहित सम्पूर्ण रामपानी पिन्ता में निमम था किसी समय राजा ने प्रापों को मति भावर के साप भपने यहाँ मुगया उषा मन्त्र प्रीति के साथ उन को बहुत सा ब्रम्प मवान किया, तब प्राममों ने प्रसग होफर राम को पर दिया कि-"हेरानन् । सेरा मनोवांछित सिद्ध होगा" राजा मोठा "हे महारान ! मुझे तो जल एक पुत्र की पाम्म हे" मग मामयों ने कहा"हे रामन् ! तू निवशफिकी सेगर ऐसा करने से सिप बी के पर भोर स छोगों के पाठीर्वाद से सरे पहा पुद्धिमान् भौर पम्नान पुत्र रोगा, परन्तु वा सोग 1-परमादेवी भागो गति मनिराम पाप न भाये पाया 10 भानुशार म ने पास भाभमाया मारेभषरापापतिसम्म (ो . साप्रपा )गवान प्रविवार सेसपेरेपपपुरिमाम् सरोगे (मका उससोचि मादम बाद प्रशासन इस सप कर दिया Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ वर्ष तक उत्तर दिशा को न जावे, सूर्यकुण्ड में खान न करे और ब्राह्मणो से द्वेप न करे तो वह साम्राज्य ( चक्रवर्तिराज्य ) का भोग करेगा, अन्यथा ( नहीं तो ) इसी देह से पुनर्जन्म को प्राप्त हो जावेगा" उन के वचन को सुन कर राजा ने उन्हें वचन दिया (प्रतिज्ञा की ) कि-'हे महराज! आप के कथनानुसार वह सोलह वर्ष तक न तो उत्तर दिशा को पैर देगा, न सूर्यकुण्ड में स्नान करेगा और न ब्राह्मणों से द्वेष करेगा" राजा के इस वचन को सुन कर ब्राहाणो ने पुण्याहवाचन को पढ़ कर आशीर्वाद देकर अक्षत ( चावल ) दिया और राजा ने उन्हें द्रव्य तथा पृथ्वी देकर धनपूरित करके विदा किया, ब्राह्मण भी अति तुष्ट होकर वर को देते हुए विदा हुए, उन के विदा के समय राजा ने पुनः प्रार्थना कर कहा कि-'हे महाराज! आप का वर मुझे सिद्ध हो" सर्व भूदेव ( ब्राह्मण ) भी 'तथास्तु' कह कर अपने २ स्थान को गये, राजा के २४ रानिया थी, उन में से चॉपावती रानी के गर्भाधान होकर राजा के पुत्र उत्पन्न हुआ, पुत्र का जन्म सुनते ही चारों तरफ से बधाइयाँ आने लगी, नामस्थापन के समय उस का नाम सुजन कुवर रक्खा गया, बुद्धि के तीक्ष्ण होने से वह बारह वर्ष की अवस्था में ही घोडे की सवारी और शस्त्रविद्या आदि चौदह विद्याओ को पढ़ कर उन में प्रवीण हो गया, हृदय म भक्ति और श्रद्धा के होने से वह ब्राह्मणों और याचकों को नाना प्रकार के दान और मनोवाछित दक्षिणा आदि देने लगा, उस के सद्व्यवहार को देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, किसी समय एक बौद्ध जैन साधु राजकुमार से मिला और उस ने राजकुमार को अहिंसा का उपदेश देकर जैनधर्म का उपदेश दिया इस लिये उस उपदेश के प्रभाव से राजकुमार की बुद्धि शिवमत से हट कर जैन मत में प्रवृत्त हो गई और वह ब्राह्मणों से यज्ञसम्बन्धी हिंसा का वर्णन और उस का खण्डन करने लगा, आखिरकार उस ने अपनी राजधानी की तीनो दिशाओं में फिर कर सब जगह जीवहिंसा को बद कर दिया, केवल एक उत्तर दिशा वाकी रह गई, क्योंकि-उत्तर दिशा में जाने से राजा न पहिले ही से उसे मना कर रक्खा था, जब राजकुमार ने अपनी राजधानी की तीनों दिशाओं में एकदम जीवहिंसा को बंद कर दिया और नरमेध, अश्वमेध तथा गोमेध आदि सव यज्ञ बद किये गये तव ब्राह्मणों और ऋषिजनों ने उत्तर दिशा में जाकर यज्ञ का करना शुरू किया, जब इस बात की चर्चा राजकुमार के कानों तक पहुँची तब वह बड़ा कुद्ध हुआ परन्तु पिता ने उत्तर दिशा में जाने का निषेध कर रक्खा था अतः वह १-यह वात तो अग्रेजों ने भी इतिहासों में वतला दी है कि-चौद्ध और जैनधर्म एक नहीं है किन्तु अलग २ हे परन्तु अफसोस है कि-इस देश के अन्य मतावलम्वी विद्वान् भी इस बात में भूल खाते हैं अर्थात् वे वौद्ध और जैन धर्म को एक ही मानते है, जव विद्वानों की यह व्यवस्था है तो वेचारे भाट वौद्ध और जैनधर्म को एक लिख इस में आश्चर्य ही क्या है ॥ ८६ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ जैनसम्प्रदानशिक्षा || उभर जाने में सङ्कोच करता था, परन्तु प्रारम्परेखा तो बड़ी प्रबल होती है, बस उसे ने अपना भोर किया और राजकुमार की उमरानों के सहित बुद्धि पट गई, फिर क्या था ये सब क्षीघ्र ही उत्तर विष्ठा में चले गये और वहाँ पहुँच कर संभोगमा सूर्यकुण्ड पर ही स्वड़े हुए, वहाँ इन्हों ने देखा कि छ ऋषीश्वरों ( पाराश्चर मौर गौतम आदि ) ने भचारम्भ कर कुण्ड, मण्डप, ध्वजा और कुछ यादि का स्थापन कर रक्खा है और पे वेदध्वनिसहित मन कर रहे हैं, इस कार्यवाही को देख, वेदध्वनि का भरण कर और मशाला के मण्डप की रचना को देख कर राजकुमार को बड़ा भाम्पर्य हुआ और वह मन में विचारने गा कि देखो ! मुझ को तो यहाँ माने से राजा ने मना कर दिया और यहाँ पर छिपा कर यज्ञारम्भ कराया है, राजा की यह चतुराई मुझे भाव मालूम हुई, यह विचार कर राजकुमार अपने साथ के उमरानों से बोला कि "ब्राह्मणों को पकड़ में और सम्पूर्ण यशसामग्री को छीन कर नष्ट कर डालो, राजकुमार का यह वचन रूपों ही ब्राह्मणों और ऋषियों के कणगोचर हुआ त्यों ही उन्हों ने समझा कि रावास भान परे हैं, बस उन्हों ने लेखी में आकर राजकुमार को न पहिचान कर किन्तु उन्हें राक्षस ही जान कर घोर छाप दे दिया कि - "हे निर्बुद्धियो ! तुम लोग पापाणवत् जड़ हो जाओ" शाप के देते ही महचर उमराब और एक रामपुत्र घोड़ों के सहित पाषाणवत् बुद्धि हो गये अर्थात् उन की 'मने फिरने देखने और बोलने भावि की सब शक्ति मिट गई स्मोर षे मोहनिद्रा में नियम हो गये, इस बास को जब राजा और नगर के लोगों ने सुना सो शीघ्र ही वहाँ भाकर उपस्थित हो गये और उन्हों ने कुमार तथा उमरायों को छाप के कारण पाषाभनत् बुद्धि देखा, बस उन्हें ऐसी दशा में देख कर राजा का अन्तकरण विषय हो गया और उस ने उसी दुख से अपने माणों को सम दि उस समय राम्रा के साथ में रानियों मी भाई थी, बिन में से सोलह रानियाँ तो स्त्री हो गईं और शेष रानियाँ ब्राह्मणों और कापियों के घरणागत हुई, ऐसा होते ही मास पास के रजवाड़े वालों ने उस का राज्य वना किया, तब रामकुमार की भी उन्हीं बा उमरागों की स्त्रियों को साथ लेकर स्वन करती हुई वहाँ आई और ब्राह्मणों तथा भाषियों के चरणों में गिर पड़ी, उन के दुःख को देख कर भाषियों ने शिव मी कामाक्षरी मन देकर उन्हें एक गुफा बदला दी और यह वर दिया कि तुम्हारे पति महादेव पाटी के गर से शुद्धबुद्धि हो जायेंगे, तब तो वे सब सिमाँ वहाँ बैठ कर शिवजी का करण करने लगीं, कुछ काम के पीछे पार्वती जी के सहित विष भी वहाँ आगे, उस समय पार्नसी जी ने महादेव जी से पूछा कि यह क्या म्पवस्था है। तब शिव जी ने उन के पूर्व इतिहास का वर्णन कर उसे पार्वती जी को सुनाया, जब राजा के कुँबर की रानी और बहचर उमरानों की ठकुरानियों को यह माषप्त हुआ कि समसुम पार्वती जी के Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६८३ सहित शिव जी पधारे हैं, तब वे सन स्त्रिया आ कर पार्वती जी के चरणो का स्पर्श करने लगी, उन की श्रद्धा को देख कर पार्वती जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि-"तुम सौभाग्यवती धनवती तथा पुत्रवती हो कर अपने २ पतियों के सुख को देखो और तुम्हारे पति चिरञ्जीव रहे" पार्वती जी के इस वर को सुन कर रानिया हाथ जोड़ कर कहने लगी कि-“हे मात.। आप समझ कर वर देओ, देखो ! यहाँ तो हमारे पतियों की यह दशा हो रही है" उन के वचन को सुन कर पार्वती जी ने महादेव जी से प्रार्थना कर कहा कि-"महाराज! इन के शाप का मोचन करो" पार्वती जी की प्रार्थना को सुनते ही शिव जी ने उन सब की मोहनिद्रा को दूर कर उन्हें चैतन्य कर दिया, वस वे सब सुभट जाग पड़े, परन्तु उन्हो ने मोहवश शिव जी को ही घेर लिया तथा सुजन कुँवर पार्वती जा के रूप को देख कर मोहित हो गया, यह जान कर पार्वती जी ने उसे शाप दिया कि-"अरे मॅगते ! तू माँग खा" बस वह तो जागते ही याचक हो कर माँगने लगा, इस के पीछे वे वहत्तरो उमराव बोले कि-"हे महाराज! हमारे घर में अब राज्य ता रहा नहीं है, अब हम क्या करें? तब शिव जी ने कहा कि-"तुम क्षत्रियत्व तथा शल को छोड़ कर वैश्य पद का ग्रहण करो" शिव जी के वचन को सब उमरावों ने अङ्गीकृत किया परन्तु हाथों की जड़ता के न मिटने से वे हाथो से शस्त्र का त्याग न कर सके, तब शिव जी ने कहा कि-"तुम सब इस सूर्यकुण्ड में लान करो, ऐसा करने से तुम्हारे हाथो की जड़ता मिट कर शस्त्र छूट जावेंगे" निदान ऐसा ही हुआ कि सूर्यकुण्ड में स्नान करते ही उन के हाथों की जड़ता मिट गई और हाथो से शस्त्र छूट गये, तब उन्हो ने तलवार की तो लेखनी, भालों की डडी और ढालो की तराजू बना कर वाण पद (वैश्य पद ) का ग्रहण किया, जब ब्राह्मणो को यह खवर हुई कि-हमारे दिये हुए शाप का मोचन कर शिव जी ने उन सब को वैश्य बना दिया है, तब तो वे (ब्राह्मण ) वहाँ आ कर शिव जी से प्रार्थना कर कहने लगे कि "हे महाराज! इन्हों ने हमारे यज्ञ का विध्वस किया था अत. हम ने इन्हें शाप दिया था, सो आप ने हमारे दिय हुए शाप का तो मोचन कर दिया और इन्हें वर दे दिया, अव कृपया यह बतलाइये कि हमारा यज्ञ किस प्रकार सम्पूर्ण होगा" ब्राह्मणों के इस वचन को सुन कर शिव जी ने कहा कि-"अभी तो इन के पास देने के लिये कुछ नहीं है परन्तु जब २ इन के घर में मङ्गलोत्सव होगा तब २ ये तुम को श्रद्धानुकूल यथाशक्य द्रव्य देते रहेंगे, इस लिये अव तुम भी इन को धर्म में चलाने की इच्छा करो" इस प्रकार वर दे कर इधर तो शिव जी अपने लोक को सिवारे, उधर वे बहत्तर उमराव छःवों ऋषियो के चरणो में गिर पड़े और शिष्य बनने के लिये उन से प्रार्थना करने लगे, उन की प्रार्थना Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ जैनसम्प्रदामशिक्षा || को सुन कर कापियों ने भी उन की बात को स्वीकृत किया, इस लिये एक एक ऋषि के बारह २ शिष्य हो गये, बस वे ही भम यजमान कहलाते हैं । कुछ दिन पीछे वे सब खंडेला को छोड़ कर डीडवाणा में था पसे और चूंकि वे बहतर स्वाँपों के उमराव ने इस सिये वे बहतर सौंप के डी महेश्वरी कहलाने लगे, फार मैं ( कुछ काल के पीछे ) इन्हीं बहत्तर साँपों की वृद्धि ( बढ़ती ) हो गई भर्षात् वे भने मुल्कों में फैल गये, वर्तमान में इन की सब खाँपे करीब ७५० है, मद्यपि उन सब खाँपों के नाम हमारे पास विद्यमान ( मौजूद ) हैं तथापि विस्तार के भय से उन्हें यहाँ नहीं किलते हैं। महश्वरी वैश्यों में भी यद्यपि बड़े २ श्रीमान् हैं परन्तु शोक का विषय है कि - विद्या इन लोगों में भी बहुत कम देखी जाती है, विशेप कर मारवाड़ में दो हमारे पोसगारू बन्धु और महेश्वरी बहुत ही कम विज्ञान देखने में जाते हैं, विद्या के न होने से इनक धन मी ब्यर्थ कामों में बहुत उठता है परन्तु विधावृद्धि आदि शुभ कार्यों में से होय कुछ भी खर्च नहीं करते हैं, इस लिये हम अपने मारवाड़ निवासी महेश्वरी सजनों से भी प्रार्थना करते हैं कि-- मथम वो उन को विद्या की वृद्धि करने के लिये कुछ न कुछ भवश्य प्रबन्ध करना चाहिये, दूसरे - अपने पूर्वजों ( बड़ेरों वा पुरुषाओं) के व्यवहार की तरफ ध्यान देकर भौसर और विवाह भावि में व्यर्थव्यम (फिजूस्वर्धी ) को बन्द कर देना चाहिये, तीसरे - कन्याविक्रय, माळविवाह, वृद्धविवाह तथा विवाद में ग्रा सियों का गाना आदि कुरीतियों को बिछकुछ उठा देना चाहिये, चौथे-परिणाम में क्लेश वेने गात्रे तथा निन्दनीय ब्यापारों को छोड़ कर शुभ वाणिज्य तथा कला कौशल के प्रचार की ओर ध्यान देना चाहिये कि जिस से उन की कक्ष्मी की वृद्धि हो और देव की भी हितसिद्धि हो, पाँचवें—सांसारिक पदार्थ और उन की तृष्णा को धन का हेतु मान कर उन में भविसय भासक्ति का परित्याग करना चाहिये, छठे त्रम्म को सांसारिक भा पारलौकिक सुख के सामन में हेतुसूत जान कर उस का उचित रीति से तथा सन्मार्ग से ही भ्यय करना चाहिये, बस आया है कि हमारी इस मार्थना पर ध्यान दे कर इसी अनुसार बर्चाय कर हमारे महेश्वरी आसा सांसारिक सुख को माठ कर पारलौकिक मुख के भी अधिकारी होंगे ! के यह पथम अध्याय का माहश्वरी मोत्पतिवर्णन नामक चौथा प्रकरण समाप्त हुआ " Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८५ पञ्चम अध्याय ॥ पाँचवाँ प्रकरण-बारह न्यात वर्णन ॥ बारह न्यातों का वर्ताव ॥ ____ बारह न्यातों में जो परस्पर में वर्ताव है वह पाठकों को इन नीचे लिखे हुए दो . दोहों से अच्छे प्रकार विदित हो सकता है: दोहा-खण्ड खंडेला में मिली, सब ही बारह न्यात ॥ खण्ड प्रस्थ नृप के समय, जीम्या दालरु भात ॥१॥ बेटी अपनी जाति में, रोटी शामिल होय ॥ काची पाकी दूध की, भिन्न भाव नहिँ कोय ॥२॥ सम्पूर्ण वारह न्यातों का स्थानसहित विवरण ॥ नाम न्यात स्थान से सख्या नाम न्यात स्थान से श्रीमाल भीनमाल से ७ खडेलवाल खडेला से २ ओसवाल ओसियाँ से ८ महेश्वरी डीडू डीडवाणा से ३ मेड़तवाल मेडता से ९ पौकरा पौकर जी से जायलवाल जायल से टीटोड़ा टीटोड़गढ़ से ५ वघेरवाल बघेरा से ११ कठाड़ा खाटू गढ़ से ६ पल्लीवाल पाली से १२ राजपुरा राजपुर से मध्यप्रदेश ( मालवा) की समस्त बारह न्यातें ॥ संख्या नाम न्यात सख्या नाम न्यात सख्या नाम न्यात सख्या नाम न्यात १ श्री श्रीमाल ४ ओसवाल ७ पल्लीवाल १० महेश्वरी डीड़ २ श्रीमाल ५ खंडेलवाल ८ पोरवाल ११ एमड़ ३ अग्रवाल ६ वघेरवाल ९ जेसवाल १२ चौरडिया १-इन दोहों का अर्थ सुगम ही है, इस लिये नहीं लिखा है ।। २-सव से प्रथम समस्त बारह न्यातें खंडेला नगर में एकत्रित हुई थीं, उस समय जिन २ नगरो से जा २ वैश्य आये थे वह सब विषय कोष्ठ मे लिख दिया गया है, इस कोष्ठ के आगे के दो कोनों में देश क अनुसार बारह न्यातों का निदर्शन किया गया है अर्थात् जहाँ अग्रवाल नहीं आये वहाँ चिया शामिल गिने गये, इस प्रकार पीछे से जैसा २ मौका जिस २ देशवालों ने देखा वैसा ही वे करते गये. इस में असली तात्पर्य उन का यही या कि-सव वैश्यों मे एकता रहे और उन्नति होती रहे किन्तु केवल पेट को भर २ कर चले जाने का उन का तात्पर्य नहीं था ॥ ३-'स्थान सहित, अर्थात् जिन २ स्थानों से आ २ कर वे सव एकत्रित हुए थे (देखो सख्या २ का नोटा ४-इन में श्री श्रीमाल हस्तिनापुर से, अग्रवाल अगरोहा से, पोरवाल पारेवा से, जेसवाल जैसलगढ से. हुमड सादवाडा से तथा चौरंडिया चावडिया से आये थे, शेप का स्थान प्रथम लिख ही चुके है। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ बेमसम्पदामशिक्षा । गौढवाड, गुजरात तथा काठियावाड़ की समस्त बारह न्यातें ॥ संस्था माम न्यात संस्पा नाम न्मात संस्था नाम न्यात संख्या नाम मात्र १ भीमाउ : पित्रवार ७ पोरगार १० महेश्वरी २ भीभीमाल ५ पालीवास ८ सम्पास ११ टळपास । ओसमान ६ यमेरपाठ ९ मेहतवाल १२ परसौर यह परम पध्याय का बारह न्याठवर्णन नामक पाँचों प्रकरण समाप्त हुभा ॥ छठा प्रकरण-चौरासी न्यातवर्णन ॥ चौरासी न्यातों तथा उन के स्थानों के नामों का विवरण ॥ संस्सा माम न्यास सान से संख्या नाम त्यात सान से १ भीमाल भीनमास से वाग से २ श्रीमीमास इखिनापुर से १५ पौग नमकोट से ३ श्रीसम्म श्रीनगर से १६ कॉकरिमा फरोमै से . भीगुरु मामूना गेगा से १७ सरमा सेरणा से ५ भीगौर सिरपुर से १८ सगयता सपा से ६ अगरवास भगरोहा से १५ सेमवास सेमानगर से ७ भयमेरा मममेर से २० सरस्वाग सँरेगनगर से ८ भगौभिया भयोप्या से गंगरारा गैंगराह से ९ भसमिया आरमपुर से २२ गाहिन्नास गौरिगढ़ से भवकपवास भगिर भामानगर से २३ गौरपाठ भोसपास मोसिपी नगर से २१ गोगवार गोगा से १२ क्या सद से २५ गादोरिया गीजरगड़ से १५ मेरा करमेर से २६ पोर रणबभषधरा गद महाती से १-न में है HिIोरम से भयान तेवपा रौरा सौर से पारे । परप्रसार प्रथम ठिस 0. - मन जिम १ स्थानों पर पति एम (पामों के। गोमगर से Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६८७ सख्या नाम न्यात स्थान से संख्या नाम न्यात स्थान से २७ चतुरथ चरणपुर से ५६ वदनौरा वदनौर से २८ चीतोड़ा चित्तौडगढ से ५७ वरमाका ब्रह्मपुर से २९ चोरडिया चावडिया से ५८ विदियादा विदियाद से ३० जायलवाल जावल से वागार विलाम पुरी से ३१ जालोरा सौवनगढ़ जालौर से ६० भवनगे भावनगर से ३२ जैसवाल जैसलगढ़ से ६१ गडवार भूरपुर से ३३ जम्बूसरा जम्बू नगर से ६२ महेश्वरी __ डीडवाणे से ३४ टाँटौड़ा टॉटौड़ से ६३ मेडतवाल मेडता से ३५ टटौरिया टंटेरा नगर से ६४ माथुरिया मथुरा से ३६ ट्रेसर ढाकलपुर से ६५ मोड सिद्धपुर पाटन से ३७ दसौरा दसौर से ६६ माडलिया मांडलगढ से ३८ धवलकौष्टी घौलपुर से ६७ राजपुरा राजपुर से ३९ धाकड धाकगढ़ से ६८ राजिया राजगढ़ से ४० नारनगरेसा नराणपुर से ६९ लवेचू लावा नगर से ४१ नागर नागरचाल से ७० लाड लाँवागढ़ से ४२ नेमा हरिश्चन्द्र पुरी से ७१ हरसौरा हरसौर से ४३ नरसिंघपुरा नरसिंघपुर से ७२ एमड़ सादवाड़ा से ४४ नवॉमरा हलदा नगर से ४५ नागिन्द्रा नागिन्द्र नगर से ७४ हाकरिया हाकगढ नलवर से ४६ नाथचल्ला सिरोही से ७५ सॉभरा सॉभर से नाछेला नाडोलाइ से सडौइया हिंगलादगढ़ से ४८ नौटिया नौसलगढ़ से ৩৩ सरेडवाल सादड़ी से ४९ पल्लीवाल पाली से ७८ सौरठवाल गिरनार से परवार पारा नगर से ७९ सेतवाल सीतपुर से ५१ पञ्चम पञ्चम नगर से ८० सौहितवाल सौहित से ५२ पौकरा पोकर जी से सुरन्द्रपुर अवन्ती से ५३ पौरवार पारेवा से सौनैया ५४ पौसरा पौसर नगर से ८३ सौरडिया शिवगिराणा से ५५ वघरवाल वघेरा से ८४ ........ ico हलद ४७ ७६ सौनगढ़ से . . . . . .. ... ........ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫% मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ गुजरात देश की चौरासी न्यातों का विवरण । संमा नाम न्यास संस्था नाम न्यास संस्ता नाम न्यात संस्मा नाम न्यात १ भीमाठी २२ गूजरवाट १३ दसारा ६१ मार २ श्रीभीमाठ २३ गोयख्वाउ १० दोबास ६५ मेपाना १ भगरवाल २१ नफा १५ पदमौरा १६ मीहीरिया , भनेरवाल २५ नरसिंपपुरा १५ पसेवास ६७ मॅगौरा ५ भारवरमी २६ नागर ७ पुष्करपात ६८ मगहुए ६ मारचिवपाल २७ मागेन्द्रा १८ पचमवाल १९ मोठ ७ औरवार २८ नापोरा १९ पटीपरा ७० मोरडिया ८ मौसमाउ २९ पीतौरा ५० पसरी ७१ मेगरा ९ भगेरा ३० मित्रवार ५१ बाईस ७२ लार १० करवास ३१ बारोग ५२ पामीवा ७३ गरीसार ११ पोट २२ जीरपगास ५३ वापरयाउ ७४ गिायत १२ परमेरा १३ मेम्वास ५५ बामणवाड ७५ पारड़ा काकडिया २० जेमा ५५ बासमीवाछ ७६ समी काजोटीवास ३५ जम्बू ५६ बाहौरा ७७ सुररपान औरटबाट ३१ मलियारा ५७ मेग्नोरा ७८ सिरफरा गोपाठ २५ यकरपास ५८ मागेरपास सोनी १७ सहायता २८ र ५९ मारीवा ८० सोमवार १८ सावरवास २९ रोरिया २० मूंगरवास ८१ सारविया १९ सीची १० साँवार ११ भूगड़ा ८२ मोहरबान २० सैटेवाठ ११ सेरोमा १२ मामसपास ८३ साचोरा २१ गसौरा १२ वीपीरा १३ मेहतपास ८१ बरसीरा दक्षिण प्रान्त की चौरासी न्यातों का विवरण ॥ संस्था नाम न्यात संख्या नाम न्याव संख्या नाम न्यास संस्पा नाम न्मात ७ पपेरमास १३ मातात १९ नाथ पठा २ सरेराउ ८ बावरिया ११ पतीराल २० सरपा ३ पोरवान ९ गैनामा १५ गगरपान २१ सदमा ५ अग्रस १० गौसपुरा १६ मायने २२ फटनेरा ५ सपास ११ भीमा १७ माम् २३ कारिया । परपान १२ भासपा १८ म २५ करोग १५ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६८९ नाछला ८३ संख्या नाम न्यात संख्या नाम न्यात संख्या नाम न्यात संख्या नाम न्यात २५ हरसौरा ४२ सारेड़वाल ५९ खंडवरत ७६ जनौरा २६ दसौरा ४३ • मॉडलिया ६० नरसिया ७७ पहासया ४४ अडालिया ६१ भवनगेह ७८ चकौड २८ टंटारे ४५ वरिन्द्र ६२ करवस्तन ___ ७९ वहड़ा २९ हरद ४६ माया ६३ आनदे ८० घेवल ३० जालौरा ४७ अष्टवार ६४ नागौरी ८१ पवारछिया ३१ श्रीगुरु ४८ चतरथ ६५ टकचाल ८२ बागरौरा ३२ नौटिया ४९ पञ्चम ६६ सरडिया तरौड़ा ३३ चौरडिया ५० वपछवार ६७ कमाइया ८४ गीदोडिया ३४ भूगड़वाल ५१ हाकरिया ६८ पौसरा । ८५ पितादी ३५ धाकड़ ५२ कदोइया ६९ भाकरिया ८६ बघेरवाल ३६ वौगारा ५३ सौनया ७० वदवइया । ८७ बूढेला ३७ गौगवार ५४ राजिया ७१ नेमा ८८ कटनेरा ३८ लाड ५५ वडेला ७२ अस्तकी ८९ सिँगार ३९ अवकथवाल ५६ मटिया ७३ कारेगराया ९० नरसिंघपुरा ४० विदियादी ५७ सेतवार ७४ नराया ९१ महता ब्रह्माका ५८ चक्कचपा ७५ मौड़मॉडलिया एतद्देशीय समस्त वैश्य जाति की पूर्वकालीन सहानुभूति का दिग्दर्शन ॥ विद्वानों को विदित हो होगा कि-पूर्व काल में इस आर्यावर्त देश में प्रत्येक नगर और प्रत्येक ग्राम में जातीय पञ्चायतें तथा ग्रामवासियों के शासन और पालन आदि विचार सम्बंधी उन के प्रतिनिधियो की व्यवस्थापक सभायें थीं, जिन के सत्प्रवन्ध (अच्छे इन्तिजाम ) से किसी का कोई भी अनुचित वर्ताव नहीं हो सकता था, इसी कारण उस समय यह आर्यावर्त सर्वथा आनन्द मङ्गल के शिखर पर पहुंचा हुआ था। प्रसगवशात् यहा पर एक ऐतिहासिक वृत्तान्त का कथन करना आवश्यक समझ कर पाठको की सेवा में उपस्थित किया जाता है,आशा है कि उस का अवलोकन कर प्राचीन प्रया से विज्ञ होकर पाठकगण अपने हृदयस्थल में पूर्वकालीन सद्विचारो और सदतीवो को स्थान देंगे, देखिये-पद्मावती नगरी में एक धनाढ्य पोरवाल ने पुत्रजन्ममहोत्सव में अपने अनेक मित्रों से सम्मति ले कर एक वैश्यमहासभा को स्थापित करने का विचार Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ कर जगह २ निमन्त्रण मेयो, निमप्रण को पाकर यमासमय पर बहुत दूर २ नगरों प्रतिनिपि मा गमे भौर समाकर्ता पोरयाठ ने उन का भोमनादि से भत्यन्त सम्मान कि समा सर्व मतानुसार उक सभा में यह ठहराग पास किया गया कि-बो कोई सानदा पनाम वेश्य इस समा का उत्सव करेगा उस को इस सभा के सभासदो ( मेम्परों) प्रनिट ( मरती) फिया मायेगा । १-पाठमों ने उपमेय पदर रिमित (माधर्म से पुण) मई सेना दिने गौरव निसार पाना पाहिले-पूर्व समय में समा सती भी सभागों की प्रपा (Rषाम) में पा समय पूर्व से मपजिव माविमो समानों मप्रपार भाधुनिक (भोरे समय पूर्व प्र) किन्तु प्राचीन ही हो यह बात सम कि-कुछ गत धमाभों की प्रथा कमरा नाम पोरे समय से इस प्र पुष प्ररार हमारे इसी पिये प्राचीन माह में इस प्रथा के प्रचलित ऐने में पाठ में प्रेरिसम (माय) स्पा हो सकता है परन्तु मावन में महगाव नोति-समाक भी प्रपा प्रीम बर्षात् प्राचीन पस में समान प्रधान सूप प्रचार रा पुत्र पर प्र पाठ प्रेकरी से निमोयरे इस दिन हम वा २ मोगर सन् १९ोपर सफर बार पत्र में से हुए (सी भाग) रोगह पर भरिका (मों प्रमो) प्रभाषित र उसके पड़ने से पाम्रो प्रभार से विवि (माम) से बायेगा कि प्राचीन प्रा में प्रभार मप्रपा प्रमामों के हारास प्रमा से मास्था पेट पी रेसिया-- "गांवों में पापव-सन् १८१९ में एपिनसा सामने दिन्नुस्मामालियरों क लिस Thoir village Communities and almost efficant to protect that members of all other Gozemnonts are withdrawn. भार रिमुस्पानालियों में पानी पचायत इतनी खम्सिी प्रभर की मनमर मन पर भी अपने भपीक्रम मेमो रक्षा करने में एम । सन् १4 में भर पावं मेला मझपय ने किया बा:-- The villago Communities are littlo ropublice havlog nearly onery tblog they want withio thommalven, Thoy soon to last whoro wotbing cibe lasta Dynasty after dynasty tumblew dowa rovolation muoverds rovolation Hiodu, Pathan Bloghul Baharatta, Sikh, Engliuli aro master u tom but tbe village Cominontics romain tho amo. The wiona Tillago communitiev ouch ono forming a littlo roparato Stato in italiane Iconogro contributod more than any other come to the properti of tho poopila of Lodu through all rorolations and changow which 17 haro wulfurod and it is in a bugh deguo conducive to thoir Lappen and to tlo unjoywont of met portion of freedom and iadeczulenou Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६९१ इस सभास्थापन के समय में जिस २ नगर के तथा जिस २ जाति के वैश्य प्रतिनिधि आये थे उन का नाम चौरासी न्यातो के वर्णन में लिखा हुआ समझ लेना चाहिये, अर्थात् चौरासी नगरों के प्रतिनिधि यहाँ आये थे, उसी दिन से उन की चौरासी न्यातें भी कहलाती है, पीछे देशप्रथा से उन में अन्य २ भी नाम शामिल होते गये है, जो कि पूर्व दो कोष्ठो में लिखे जा चुके है । अर्थात् हिन्दुस्थान की गाँवों की पञ्चायतें विना राजा के छोटे २ राज्य है, जिन में लोगों की रक्षा के लिये प्राय सभी वस्तुये है, जहां अन्य सभी विषय विगडते दिखाई देते है तहाँ ये पञ्चायत चिरस्थायी दिसाई पडती है, एक राजवंश के पीछे दूसरे राजवंश का नाश हो रहा है, राज्य में एक गडवडी के पीछे दूसरी गडवडी खडी हो रही है, कभी हिन्दू, कभी पठान, कभी मुगल, कभी मरहठा, कभी सिख, कभी अग्रेज, एक के पीछे दूसरे राज्य के अधिकारी वन रहे है किंतु ग्रामों की पश्चागतें सदैव वनी हुई है, ये ग्रामों की पश्चायते जिन में से हर एक अलग २ छोटी २ रियासत सी मुझे जँच रही है सब से वढ कर हिन्दुस्थानवासियों की रक्षा करने वाली है, ये ही ग्रामों की पचायतें सभी गडवडियों से राज्येश्वरों के सभी अदल बदलों से देश के तहस नहस होते रहने पर भी प्रजा को सब दुखों से बचा रही हैं, इन्हीं गाँवों की पश्चायतों के स्थिर रहने से प्रजा के सुख खच्छन्दता में वाधा नहीं पढ रही है तथा वह खाधीनता का सुख भोगने को समर्थ हो रही है । 2 अग्रेज ऐतिहासिक एलफिनस्टन साहव और सर चार्ल्स मेटकाफ महाशय ने जिन गाँवों की पञ्चायतों को हिन्दुस्थानवासियों की सब विपदो से रक्षा का कारण जाना था, जिन को उन्हों ने हिन्दुस्थान की प्रजा के सुख और स्वच्छन्दता का एक मात्र कारण निश्चय किया था वे अब कहाँ हैं ? सन् १८३० ईवी में भी जो गॉवों की पश्चायतें हिन्दुस्थानवासियों की लौकिक और पारलौकिक स्थिति में कुछ भी ऑच आने नहीं देती थीं वे अव क्या हो गई ? एक उन्हीं पञ्चायतों का नाश हो जाने से ही आज दिन भारतवासियों का सर्वनाश हो रहा है, घोर राष्ट्रविप्लवों के समय में भी जिन पञ्चायतों ने भारतवासियों के सर्वस्व की रक्षा की थी उन के विना इन दिनों अग्रेजी राज्य में भारत की राष्ट्रसम्वन्धी सभी अशान्तियों के मिट जाने पर भी हमारी दशा दिन प्रतिदिन बदलती हुई, मरती हुई जाति की घोर शोचनीय दशा यन रही है, शोचने से भी शरीर रोमाश्चित होता है कि - सन् १८५७ देखी के गदर के पश्चात् जय से स्वर्गीया महाराणी विक्टोरिया ने भारतवर्ष को अपनी रियासत की शान्तिमयी छत्रछाया मे मिला लिया तव से प्रथम २५ वर्षों मे ५० लाख भारतवासी अन्न विना तडफते हुए मृत्युलोक में पहुँच गये तथा दूसरे २५ वर्षों मे २ करोड साठ लाख भारतवासी भूख के हाहाकार से ससार भर को गुँजा कर अपने जीवित भाइयों को समझा गये कि गाँवों की उन छोटी २ पश्चायतों के विसर्जन से भारत की दुर्गति कैसी भयानक हुई है, अन्य दुर्गतियों की आलोचना करने से हृदयवालों की वाक्यशक्ति तक हर जाती है । गाँवों की वे पञ्चायते कैसे मिट गई, सो कह कर आज शक्तिमान् पुरुषों का अप्रियभाजन होना नहीं है, वे पश्चायते क्या थीं सो भी आज पूरा २ लिखने का सुभीता नहीं है, भारतवासियों को सव विपदों से रक्षा करने वाली वे पञ्चायतें मानो एक एक बडी गृहस्थी थीं, एक गृहस्थी के सब समर्थ लोग जिस प्रकार अपने अधीनस्थ परिवारों के पालन पोषण तथा विपदों से तारने के लिये उद्यम और प्रयत्न करते Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ मैनसम्मवापशिक्षा । उस के बाद उफ समा किस २ समय पर सभा किसनी बार एकत्रित हुई और उस के ठहराव किस समय तक निमत रह कर काम में माते रहे, इस बात पर गाना यपपि मति कठिन बात है समापि सोब करने पर उस घ मोड़ा महुत पठा राते से एक मामत ये सब समय मेम अपनी भापीनस्प सब प्राणियों की सप प्रपर रखा प उपम और प्रयास करते पे भार स ममारिए मॉस मारि मिन्ध रागा के सम्म बिव प्रम प्रयम ममुसार उछ मे भने में से पुन पर उम्मी केशारा अपने साम्य पामरा मावि का प्रपंपरा मेरी प्रधर पवाय प्रामवासियों के प्रतिनिधियों में पापन पनर भार म्यास्पासमाय पी राणाबाहे जो क्यों न वा मा उसी पचायत से उस मे सम्पूर्ण प्रामवाति से माम्गुगरी भाति मिन बी पी सम्मेपर पा से प्रामवासियों और प्रो समय मार रारामा पायत भी यास्मा से सब मेय निब संयम पाम्न परवे पे पराव व की म्पपस्था से से मर भरि पाम्म म प्रमपोवा पा पवारत ही मयस्पा से पुष्पा रेमिये मम पावि प्रबंप सेवा का पानी की प्यास्पा से परस्पर समरों प्रयोग होता पा पापात दम्पपस्मा से दुए एमतियों का शासन ऐनपा पचामत हो म्पमस्या से पर माम्मवीरा में प्रमसिनों रखा प्र प्रापरता पा। हिम् यम्ममों नमों में गायों की पमापते रहर मपचे व प्रबों से प्रामवाहिक रवार की मुसम्मान प्रणमामि में पधारों पा रसामरि पधि सिविल पर न पाई भगबममा परिसदपा में भी पाधि पस्येमा पाईपी मनु मरव ममममारी पुरा होने पर पौध पसाब जपनी सारी प्रति असर परषों में नमन प्रे साधर पर मामले माया में समा गई, तब से अमरेली पर रन मारतों काय मायापपोम भारवर्गनिरोपपवित् पास कर रही सपने भाम्मा म से मेरे पापा 1 परस्सर स्पप्रनिगरेन भी कर रस से सम्म परेशराने में प्राव पेनो धमारी प्रतिमाम निम्मा और पमायती सम्पाय पक्षिय पसा पपगार अपरेमा राम्रररररीखे हमारे सभी देणग्रस्ये मध मप में मनुभव करपा भमहीनों से समसमा परीसर्चर नर्सर पती राम के लिये भर में प्परस्परसमा प्रेमी सभी से सस्तारोक पायो रे निवासी अपनी पकवा' पिप्रभार सवपस प्रथा हम भारतवास्प भग सर्वर पर्षय पर प्रेमी सपा भभपना र भीमपने देश में अपनी गतिग्रमै अपहार प्रयन पाम्म भी उस में : सप्रगो पसलमा रिमामारी पयत भौति सी रा मै माप रखा र मनी से पचरताने ने रिश्र भौति माध्यम : हमारे भनित u भूमे गाफमर पुगेरस पर मात्र प्रम मारी - चारों भावमा रमाबरोबर पो पर हम ग्रे मा १F.. बोनसमा मोदी प्रतिमा मनी भरवो nR पर माम पुर ARiसीमा पाऐगी" Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ।। ६९३ लगना कुछ असंभव नहीं है, परन्तु अनावश्यक समझ कर उस विषय में हम ने कोई परिश्रम नहीं किया, क्योंकि सभासम्बधी प्रायः वे ही प्रस्ताव हो सकते हैं जिन्हें वर्तमान में भी पाठकगण कुछ २ देखते और सुनते ही होंगे । ___अब विचार करने का स्थल यह है कि-देखो! उस समय न तो रेल थी, न तार था और न वर्तमान समय की भॉति मार्गप्रबंध ही था, ऐसे समय में ऐसी बृहत् ( बडी ) सभा के होने में जितना परिश्रम हुआ होगा तथा जितने द्रव्य का व्यय हुआ होगा उस का अनुमान पाठकगण स्वय कर सकते है। ___ अब उन के जात्युत्साह की तरफ तो जरा ध्यान दीजिये कि-वह ( जात्युत्साह ) कैसा हार्दिक और सद्भावगर्भित था कि-वे लोग जातीय सहानुभूतिरूप कल्पवृक्ष के प्रभाव से देशहित के कार्यों को किस प्रकार आनन्द से करते थे और सब लोग उन पुरुषों को किस प्रकार मान्यदृष्टि से देख रहे थे, परन्तु अफसोस है कि वर्तमान में उक्त रीति का विलकुल ही अभाव हो गया है, वर्तमान में सब वैश्यों में परस्पर एकता और सहानुभूति का होना तो दूर रहा किन्तु एक जाति में तथा एक मत वालों में भी एकता नहीं है, इस का कारण केवल आत्माभिमान ही है अर्थात् लोग अपने २ बड़प्पन को चाहते हैं, परन्तु यह तो निश्चय ही है कि-पहिले लघु बने विना बड़प्पन नहीं मिल सकता है, क्योंकि विचार कर देखने से विदित होता है कि लघुता ही मान्य का स्थान तथा सब गुणों का अवलम्बन है, इसी उद्देश्य को हृदयस्थ कर पूर्वज महज्जनों ने १-एकता और सहानुभूति की बात तो जहाँ तहाँ रही किन्तु यह कितने शोक का विषय है कि-एक जाति और एक मतवालों में भी परस्पर विरोध और मात्सर्य देखा जाता है अर्थात् एक दूसरे के गुणो. कर्प को नहीं देख सकते हैं और न वृद्धि का सहन कर सकते हैं। २-किसी विद्वान् ने सत्य ही कहा है कि-सर्वे यत्र प्रवत्कार , सर्वे पण्डितमानिन ॥ सर्व महत्त्वमिच्छन्ति, तदृन्दमवसीदति ॥ १॥ अर्थात् जिस समूह में सब ही वका (दूसरों को उपदेश देने वाले हैं अधात् श्रोता कोई भी वनना नहीं चाहता है ), सब अपने को पण्डित समझते हैं और सब ही महत्व (वडप्पन ) को चाहते हैं वह (समूह) दु ख को प्राप्त होता है ॥ १॥ पाठकगण समझ सकते हैं कि वर्तमान मे ठीक यही दशा सव समूहों (सव जातिवालों तया सव मतवालों) में हो रही है, तो कहिये सुधार की आशा कहाँ से हो सकती है ? ॥ ३-स्मरण रहे कि-अपने को लघु समझना नम्रता का ही एक रूपान्तर है और नम्रता के विना किसी गुण की प्राप्ति हो ही नहीं सकती है, क्योंकि नम्रता ही मनुष्य को सव गुणों की प्राप्ति का पान वनाती है, जव मनुष्य नम्रता के द्वारा पात्र बन जाता है तव उस की वह पात्रता सव गुणों को खींच कर उस में स्थापित कर देती है अर्थात् पात्रता के कारण उस में सव गुण खय ही आ जाते हैं. जैसा कि एक विद्वान ने कहा है कि-नोदन्वानर्थितामेति, न चाम्भोभिन पूर्यते ॥ आत्मा तु पात्रता Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ चैनसम्प्रदानशिक्षा || लघुता की अति प्रशंसा की है, देखो! अध्यात्मपुरुष श्री चिदानन्दजी महाराज ने लघुता का एक स्ववन (खोत्र ) बनाया है उस का भावार्थ यह है कि चन्द्र और सूर्य बड़े हैं इस लिये उन को महण लगता है परन्तु ठषु वारागण को ग्रहण नहीं लगता है संसार में यह कोई भी नहीं कहता है कि तुम्हारे मागे लागू किन्तु सब कोई यही कहता है कि-सुम्हारे पगे छागूँ, इस का हेतु यही है कि धरण ( पैर ) दूसरे सब भर्गो से रू है इस लिये उन को सब नमन करते हैं, पूर्णिमा के चन्द्र को कोई नहीं देखता र न उसे नमन करता है परन्तु द्वितीया के चन्द्र को सब ही देखते और उसे नमन करते है क्योंकि यह खषु होता है, कीड़ी एक अति छोटा चन्तु है इस सिये चाहे जैसी रस बती (रसोई ) तैयार की गई हो सब से पहिले उस ( रखबती ) का स्वाद उसी ( कीड़ी ) को मिलता है किन्तु किसी बड़े जीव को नहीं मिलता है, जब राजा किसी पर कड़ी दृष्टि माला होता है तब उस के कान और नाक भादि उत्तमानों को ही कट बाता है किन्तु लघु होने से पैरों को नहीं कटवाता है, यदि बालक किसी के कानों को खींचे, मूँछों को मरोड़ देने अथवा सिर में भी मार देये तो मी वह मनुष्य प्रसव ही होता है, देखिये ! यह चेष्टा कितनी अनुचित है परन्तु लघुतायुक्त बालक की चेष्टा होने से सब ही उस का सहन कर लेते हैं किन्तु किसी बड़े की इस चेष्टा को कोई भी नहीं सह सकता है, यदि कोई बड़ा पुरुष किसी के साथ इस पेष्टा को करे वो कैसा मन हो माने, छोटे बालक को अन्य पुर में जाने से कोई भी नहीं रोकता है यहाँ तक कि महाँ पहुँचे हुए बालक को भन्तपुर की रानियाँ भी खेह से सिखाती है किन्तु बड़े हो जाने पर उसे भन्त पुर में कोई नहीं जाने देता है, यदि यह छा जाने यो सिरछेत्र भादि कम को उसे सहना पड़े, जब तक गाछक छोटा होता है तब तक सब ही उस की मार है मर्थात् माता पिता भारै माइ मावि सब ही उस की संभाल और निरीक्षण रखते है, उस के बाहर निकल जाने पर सब को थोड़ी ही देर में चिन्ता हो जाती है कि बच्चा अभी तक क्यों नहीं आया परन्तु जब वह बड़ा हो जाता है तब उस की कोई चिन्ता नहीं करता है, इन सब उदाहरणों से सारांश यही निकलता है कि जा कुछ मुम्ब दे वह खघुता में ही है, जब हृदय में इस (रूपता) के सम्प्रभाष को स्थान मि जाता है उस समय सम स्वरानियों का मूल कारण मारमाभिमान और महत्वाकाक्षिस्व नेमः, अत्रममवान्ति सम्परा व १० भयात् समुद्र अभी (मनिवास ) नहीं होता है परन्तु (एना होने से ) यह जो से पूरित किया जाता हो यह बात (अत उस को अगरण की पूरित कर है? इस सपने को (बारिक द्वारा भत्र बनाय पाहय होइन निक्स में नयति हमें बहुत कुछ कियने रिवार के भगस गर्दा पनि रे पात्र के पात सम्पति आवश्यक Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६९५ (वड़प्पन की अभिलापा ) आप ही चला जाता है, देखो! वर्तमान में दादाभाई नौरोजी, लाला लाजपतराय और बाल गङ्गाधर तिलक आदि सद्गुणी पुरुषों को जो तमाम आर्यावर्त देश मान दे रहा है वह उन की लघुता ( नम्रता ) से प्राप्त हुए देशभक्ति आदि गुणों से ही प्राप्त हुआ समझना चाहिये। ___ इस विषय में विशेष क्या लिखें क्योंकि प्राज्ञों ( बुद्धिमानों ) के लिये थोडा ही लिखना पर्याप्त ( काफी ) होता है, अन्त में हमारी समस्त वैश्य ( महेश्वरी तथा ओसवाल आदि ) सज्जनों से सविनय प्रार्थना है कि जिस प्रकार आप के पूर्वज लोग एकत्रित हो कर एक दूसरे के साथ एकता और सहानुभूति का वर्ताव कर उन्नति के शिखर पर विराजमान थे उसी प्रकार आप लोग भी अपने देश जाति और कुटुम्ब की उन्नति कीजिये, देखिये! पूर्व समय में रेल आदि साधनों के न होने से अनेक कष्टों का सामना करके भी आप के पूर्वज अपने कर्तव्य से नहीं हटते थे इसी लिये उन का प्रभाव सर्वत्र फैल रहा था, जिस के उदाहरणरूप नररत्न वस्तुपाल और तेजपाल के समय में दसे और बीसे, ये दो फिरके हो चुके है । __ प्रिय वाचकवृन्द ! क्या यह थोड़ी सी बात है कि उस समय एक नगर से दूसरे नगर को जाने में महीनों का समय लगता था और वही व्यवस्था पत्र के जाने में भी था तो भी वे लोग अपने उद्देश्य को पूरा ही करते थे, इस का कारण यही था कि-वे लोग अपने वचन पर ऐसे दृढ़ थे कि-मुख से कहने के बाद उन की बात पत्थर की लकीर के समान हो जाती थी, अब उस पूर्व दशा को हृदयस्थ कर वर्तमान दशा को सुनिये, देखिये! वर्तमान में-रेल, तार और पोष्ट आफिस आदि सब साधन विद्यमान है कि-जिन के सुभीते से मनुष्य आठ पहर में कहाँ से कहाँ को पहुँच सकता है कुछ घटों में एक दूसरे को समाचार पहुंचा सकता है इत्यादि, परन्तु बड़े अफसोस की बात है कि-इतना सुभीता होने पर भी लोग सभा आदि में एकत्रित हो कर एक दूसरे से सहानुभूति को प्रकट कर अपने जात्युत्साह का परिचय नहीं दे सकते है, देखिये ! आज जैनश्वेताम्बर कान्फ्रेंस को स्थापित हुए छः वर्ष से भी कुछ अधिक समय हो चुका है इतने समय में भी उस के ठहराव का प्रसार होना तो दूर रहा किन्तु हमारे बहुत से जैनी भाइयो ने तो उस सभा का नाम तक नहीं सुना है तथा अनेक लोगो ने उस का नाम और चर्चा तो सुनी है परन्तु उस के उद्देश्य और मर्म से अद्यापि अनभिज्ञ है, देखिये! जैनसम्बधी समस्त समाचारपत्रसम्पादक यही पुकार रहे है कि-कान्फ्रेंस ने केवल लाखों रुपये इकट्ठे किये है, इस के सिवाय और कुछ भी नहीं किया है, इसी प्र. कार से विभिन्न लोगों की इस विषय में विभिन्न सम्मतियाँ है, हमें उन की विभिन्न सम्मतियों में इस समय हस्तक्षेप कर सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना है किन्तु हमारा अमीष्ट Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसम्प्रदायशिक्षा । तो यह है कि लोग मापीन प्रथा को मूले हुए हैं इस लिये वे सभा आदि में कम एकत्रित होते हैं सभा उन के उद्देश्यों और माँ को फम समझते हैं इसी रिमे ये उस भोर ध्यान मी बहुत ही कम देते हैं, रहा किसी समा (कान्फ्रेंस पावि ) का निमिव सम्मतियों का विषय, सो समासमंधी इस प्रकार की सम बातों का विचार सो दुरिमान भोर विद्वान् सर्म ही कर सकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि प्रायः सब ही गिरायों में सत्यासत्य का मिश्रण होता दे, प्रचलित पिचारों में बिकु सत्य ही विपय हो मोर नर विचारों में रिसर असत्य ही विषय हो ऐसा मान सेना सर्वपा ममास्पद है, क्योंकि उक वोनो विचारों में न्यूनाधिक भश्च में सस्प रहा करता है। देसो! बहुत से लोग तो यह कहते हैं कि न घेताम्बर फाफ्रेंस पाँच वर्ष से हो रही है मौर उस में लाखों रुपये वर्ष हो चुके हैं भौर उसके समप में अब भी बहुत कुछ सर्प हो रहा है परन्तु कुछ मी परिणाम नहीं निका, महुत से गेग पर प्रवे। कि-बैन घेताम्बर प्रमेंस के होने से जैन धर्म की बहुत उन्नति हुई है, भर उठ दोनों विचारों में सस्प का मंश फिस विचार में भषिको इस का निर्णय बुद्धिमान् भौर वि द्वान् बन कर सकते हैं। __ यह तो निमम ही है कि गणित तमा यूमि के विषय के सिवाय दूसरे किसी विपम में निर्विवाष सिद्धान्त स्थापित नहीं हो सकता है, सो। गणित विषयक सिद्धान्त में यह सर्वमत है कि-पॉप में दो के मिगने से सात ही होते हैं, पाँच प पार से गुणा करने पर पीस ही होते हैं, यह सिद्धान्त ऐसा है कि इस को उम्टने में बमा भी मसमर्भ है परन्तु इस प्रकार त्र निश्चित सिद्धान्त राम्यनीति वा पर्म भार पिनादास्पद विषयों में माननीय हो, या मात पति कठिन वमा असम्भवमत् । क्योंकि-मनुप्मों की महतियों में मेव होने से सम्मति में मेव होना एक स्वाभाविक पात इसी तत्त्व का विचार कर हमारे शामकारों ने स्पाराव प्र वाम स्थापित किया है भौर भिन्न २ नयों के रासों को समझा कर पकान्तवाद का निरसन (म्मणान ) किया है, इसी नियम के भनुसार बिना किसी पभपात के हम या सकस कि-बैन श्रेताम्बर का पेंस ने भीमान भी गुलाबचन्द भीड़ा एम् प न मध्यनीय परिमम कर प्रभम फगेपी वीर्य में स्थापित किया था, इस सभा के स्वाति फरने से उक महोदय का मभीए मम वायुनाति, देशोनति, वियादि, एक्सामगार । धर्मविपरस्पर सानुमति सधा कुरीति निवारण भावि ही भा, भव यह दूसरी है कि-सम्मतिविभिमाने से सभा सरपम पर किसी प्रघर फा भवरोध पर से समाश्म अब तक पूर्ण न हुए दो या कम हुए हो, परन्तु यह विपप पावापास्पद मनाने पास नदीदा सकता है, पाठकगण समा सकसे कि-मनुर Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६९७ से सभा को स्थापित करने वाला तो सर्वथा ही आदरणीय होता है इस लिये उक्त सच्चे वीर पुत्र को यदि सहस्रों धन्यवाद दिये जावें तो भी कम हैं, परन्तु बुद्धिमान् समझ सकते हैं कि-ऐसे बृहत् कार्य में अकेला पुरुष चाहे वह कैसा ही उत्साही और वीर क्यों न हो क्या कर सकता है ? अर्थात् उसे दूसरों का आश्रय ढूँढ़ना ही पड़ता है, बस इसी नियम के अनुसार वह बालिका सभा कतिपय मिथ्याभिमानी पुरुषों को रक्षा के उद्देश्य से सौपी गई अर्थात् प्रथम कान्फ्रेंस फलोधी में हो कर दूसरी बम्बई में हुई, उस के कार्यवाहक प्राय प्रथम तो गुजराती जन हुए, इस पर भी "काल में अधिक मास" वाली कहावत चरितार्थ हुई अर्थात् उन को कुगुरुओं ने शुद्ध मार्ग से हटा कर विपरीत मार्ग पर चला दिया, इस का परिणाम यह हुआ कि वे अपने नित्य के पाठ करने के भी परमात्मा वीर के इस उपदेश को कि-"मित्ती मे सब्ब भूएसु बेर मज्झ न केण इ" अर्थात् मेरी सर्व भूतों के साथ मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर ( शत्रुता ) नहीं है, मिथ्याभिमानी और कुगुरुओं के विपरीत मार्ग पर चला देने से भूल गये', वा यों कहिये किबम्बई में जब दूसरी कान्फ्रेंस हुई उस समय एक वर्ष की बालिका सभा की वर्षगाँठ के महोत्सव पर श्री महावीर खामी के उक्त वचन को उन्हों ने एकदम तिलाञ्जलि दे दी , यद्यपि ऊपर से तो एकता २ पुकारते रहे परन्तु उन का भीतरी हाल जो कुछ था वा उस का प्रभाव अब तक जो कुछ है उस का लिखना अनावश्यक है, फिर उस का फल तो वही हुआ जो कुछ होना चाहिये था, सत्य है कि-"अवसर चूकी डूमणी, गावे आल पपाल" प्रिय वाचकवृन्द! इस बात को आप जानते ही हैं कि-एक नगर से दूसरे नगर को जाते समय यदि कोई शुद्ध मार्ग को भूल कर उजाड़ जंगल में चला जावे तो वह फिर शुद्ध मार्ग पर तब ही आ सकता है जब कि कोई उसे कुमार्ग से हटा कर शुद्ध मार्ग को दिखला देवे, इसी नियम से हम कह सकते है कि-सभा के कार्यकर्ता भी अब सत्पथ पर तब ही आ सकते हैं जब कि कोई उन्हें सत्पथ को दिखला देवे, चूकि सत्पथ का दिखलाने वाला केवल महज्जनोपदेश ( महात्माओं का उपदेश ) ही हो सकता है इस लिये यदि सभा के कार्यकर्ताओं को जीवनरूपी रगशाला में शुद्ध भाव से कुछ करने की अमिलापा हो तो उन्हें परमात्मा के उक्त वाय को हृदय में स्थान दे कर १-शुद्ध मार्ग पर जाते हुए पुरुप को विपरीत मार्ग पर चला देने वाले को ही वास्तव में कुगुरु समझ ना चाहिये, यह सव ही प्रन्यों का एक मत है ॥ २-हमारा यह कथन कहाँ तक सत्य है, इस का विचार उक्त सभा के मर्म को जानने वाले बुद्धिमान ही कर सकते हैं। ___३-इस विषय को लेख के बढ जाने के कारण यहाँ पर नहीं लिख सकते हैं, फिर किसी समय पाठको की सेवा मे यह विषय उपस्थित किया जावेगा ॥ ___४-इस कथन के आशय को सूक्ष्म बुद्धि वाले पुरुष ही समझ सकते है किन्तु स्थूल वुद्धि वाले नहीं समझ सकते हैं। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ जैनसम्मवामशिक्षा || अपने भीतरी नेत्र खोलने चाहिये, क्योंकि अब तक उक्त वाक्य को हृदय में स्थान न दिया जायगा तब तक उन्नति स्थान को पहुँचाने वाला एकतारूपी शुद्ध मार्ग हमारी समझ में स्वम में भी नहीं मिल सकता है, इस लिये कान्फ्रेंस के सभ्पों से तथा सम्पूर्ण भार्यावर्त्तनिवासी वैश्य बमों से हमारी सविनय प्रार्थना है कि "मेरी सब मूर्तीों से मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर नहीं है" इस भगवद्वाक्य को सधे भाव से वय में अवि करें कि जिस से पूर्ववत् पुन इस आर्यावर्त देश की उन्नति हो कर सर्वत्र पूर्म धानना मङ्गल होने मगे ॥ यह पश्चम अध्याय का चौरासी न्यासवर्णन नामक छठा प्रकरण समाप्त हुआ || सातवाँ प्रकरण — ऐतिहासिक व पदार्थविज्ञानवर्णन ॥ ऐतिहासिक तथा पदार्थविज्ञान की आवश्यकता ॥ सम्पूर्ण प्रमाणों और महज्जनों के अनुमन से यह बात मछी भाँति सिद्ध हो है कि मनुष्य के सदाचारी वा दुराचारी बनने में केवल ज्ञान मौर भज्ञान ही कारण होते हैं अर्थात् अन्तकरण के सतोगुण के उद्भासक ( प्रकाशित करने वाले ) तथा तमोगुण के माच्छादक ( डाँकने वाले ) मधेष्ठ साधनों से ज्ञान की प्राप्ति होने से मनुष्य सदाचारी होता है तथा मन्त करण के तमोगुण के उद्मासक और सतोगुण के माध्यम दुत यषेष्ठ साधनों से भज्ञान की प्राप्ति होने से मनुष्य दुराचारी (दुए व्यवहार बाम्म ) हो जाता है । माय सब दी इस बात को जानते होगे कि मनुष्य सुसंगति में पढ़ कर सुधर जाता है तथा कुसङ्गति में पड़ कर बिगड़ जाता है, परन्तु कभी किसी ने इस के हेतु का भी विचार किया है कि ऐसा क्यों होता है ? देखिये ! इस का हेतु विद्वानों ने इस निश्चित किया है ― अन्तकरण की - मन, बुद्धि, पित्त और अहंकार, ये भार वृठियों है, इन में से मन पा फार्य संक्रस्प और विकल्प करना है, बुद्धि का कार्य उस में हानि समम विखजाना है, विश्व का कार्य किसी एक कदम्य का निश्श्रम करा देना है वा सहकार का कार्य मई (मैं) पद का प्रकट करना है। यह भी स्मरण रहे कि अन्य करण सतोगुण, रजोगुण सभा तमोगुप्त रूप है, भर्गात् ये तीनों गुण उस में समानावस्था में विद्यमान है, परन्तु इन ( गुणों) में कारणसा ममी को पा कर न्यूनाधिक होने की स्वाभाविक शक्ति दे। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६९९ जब किसी मनुष्य के अन्तःकरण में किसी कारण से किसी विषय का उद्भास ( प्रकाश ) होता है तब सब से प्रथम वह मनोवृत्ति के द्वारा संकल्प और विकल्प करता है कि मुझे यह कार्य करना चाहिये वा नहीं करना चाहिये, इस के पश्चात् बुद्धिवृत्ति के द्वारा उस ( कर्त्तव्य वा अकर्तव्य ) के हानि लाभ को सोचता है, पीछे चित्तवृत्ति के द्वारा उस ( कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य ) का निश्चय कर लेता है तथा पीछे अहङ्कारवृत्ति के द्वारा अभिमान प्रकट करता है कि मै इस कार्य का कर्त्ता ( करने वाला ) वा अकर्त्ता ( न करने वाला ) हॅू | ) यदि यह प्रश्न किया जावे कि - किसी विषय को देख वा सुन कर अन्त करण की चारों वृत्तिया क्यो क्रम से अपना २ कार्य करने लगती है तो इस मनुष्य को स्वकर्मानुकूल मननशक्ति ( विचार करने की शक्ति हुई है, बस इसी लिये प्रत्येक विषय का विज्ञान होते ही उस चारों वृत्तियाँ क्रम से अपना २ कार्य करने लगती है । बुद्धिमान् यद्यपि इतने ही लेख से अच्छे प्रकार से समझ गये होगे कि मनुष्य सुसङ्गति में रह कर क्यों सुधर जाता है तथा कुसङ्गति में पड़ कर क्यों विगड़ जाता है तथापि साधारण जनों के ज्ञानार्थ थोड़ा सा और भी लिखना आवश्यक समझते है, देखिये :यह तो सब ही जानते है कि - मनुष्य जब से उत्पन्न होता है तब ही से दूसरो के चरित्रों का अवलम्बन कर ( सहारा ले कर ) उसे अपनी जीवनयात्रा के पथ ( मार्ग ) को नियत करना पड़ता है, अर्थात् खय ( खुद ) वह अपने लिये किसी मार्ग को नियत नहीं कर सकता है', हॉ यह दूसरी बात है कि - प्रथम किन्ही विशेष चरित्रो ( खास का उत्तर यह है कि स्वभाव से ही प्राप्त मननशक्ति के द्वारा १- देखिये वालक अपने माता पिता आदि के चरित्रों को देख कर प्राय उसी ओर झुक जाते हैं अर्थात् वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं, इस से बिलकुल सिद्ध है कि मनुष्य की जीवनयात्रा का मार्ग सर्वथा दूसरों के निदर्शन से ही नियत होता है, इस के सिवाय पाश्चात्य विद्वानों ने इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव भी कर लिया है कि यदि मनुष्य उत्पन्न होते ही निर्जन स्थान मे रक्खा जावे तो वह बिलकुल मानुषी व्यवहार से रहित तथा पशुवत् चेष्टा वाला हो जाता है, कहते हैं कि किसी वालक को उत्पन्न होने से कुछ समय के पश्चात् एक भेडिया उठा ले गया और उसे ले जा कर अपने भिटे में रक्खा, उस बालक को भेडिये ने खाया नहीं किन्तु अपने बच्चे के समान उस का भी पालन पोषण करने लगा ( कभी २ ऐसा होता है कि-भेडिया छोटे बच्चों को उठा ले जाता है परन्तु उन्हें मारता नहीं है किन्तु उन का अपने वर्षों के समान पालन पोषण करने लगता है, इस प्रकार के कई एक वालक मिल चुके हैं जो कि किसी समय सिकन्दरे आदि के अनाथलयों में भी पोषण पा चुके हैं ), बहुत समय के बाद देखा गया कि वह बालक मनुष्यों की सी भाषा को न बोल कर भेडिये के समान ही घुरघुर शब्द करता था, भेडिये के समान ही चारों पैरों ( हाथ पैरों के सहारे ) चलता था, मनुष्य को देख कर भागता वा चोट करता था तथा जीभ से चप २ कर पानी पीता था, तात्पर्य यह है कि उस के सर्व कार्य भेडिये के समान ही थे, इस से निर्भम सिद्ध है कि मनुष्य की जीवनयात्रा का पथ बिलकुल ही दूसरों के अवलम्बन पर नियत और निर्भर है अर्थात् जैसा वह दूसरों को करते देखता है वैसा ही स्वय करने लगता है ॥ To Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेनसम्पदामशिक्षा || भाचरण) के द्वारा नियत किये हुए तमा चिरकाल सेवित अपने मार्ग पर गमन करा हुआ वह कालान्तर में ज्ञानविशेष के बल से उस मार्ग का परित्याग न करे, परन्तु नाह बहुत दूर की बात है। यस इसी नियम के अनुसार सत्पुरुषों की सति पा कर भर्थात् सत्पुरुपों के सदाचार को देख वा सुन कर आप भी उसी माग पर मनुष्य जाने लगता है, इसी का नाम सुभरना है, इस के विरुद्ध वह कस्सित पुरुषों की सम्रति को पा कर अर्थात् कुत्सित पुरुषों के दुराचार को देख वा सुन कर भाप भी उसी माग में आने लगता है, इसी क नाम विगड़ना है । ७०० उफ सेल से सब साधारण भी अम अच्छे प्रकार से समझ गये होंगे कि सुसंगठि तथा कुसङ्गति से मनुष्य का सुधार वा विगाड़ क्यों होता है, इस लिये अब इस विषय में विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं है। के अब ऊपर के खेल से पाठकगण अच्छे प्रकार से समझ ही गये होंगे कि मनुष्य सुधार या विगाड़ का द्वार केवल दूसरों के सदाचार वा दुराचार के अवलम्बन पर निर्भर है, क्योंकि दूसरों के व्यवहारों को देख वा सुन कर मनुष्य के अन्त करण की चारों वृधियों क्रम से अपने भी सदस् ( दूसरों के समान ) कर्धम्म वा अकर्तव्य के विषम में अपना २ कार्य करने लगती है । हाँ इस विषय में इतनी विशेषता अवश्य है कि-बब दूसरे सत्पुरूषों के सदाचार अनुकरण करते हुए मनुष्य के अन्त करण में सतोगुण का पूरा उद्भास हो जाता है तथा उस के द्वारा उत्कृष्ट ( उत्तम ) ज्ञान की माठि हो जाती है तब उस की वृषि कुत्सित पुरुषों के व्यवहार की ओर नहीं झुकती है भर्थात् उस पर कुसम का ममान नहीं होता है ( क्योंकि सतोगुण के प्रकाश के भागे समोगुण का जन्मकार उच्छिमा हो जाता है) इसी प्रकार जब दूसरे कुत्सित पुरुषों के कुत्सिताचार का अनुकरण करते हुए मनुष्य के अन्त करण में तमोगुण का पूरा उद्मास हो जाता है तथा उस के द्वारा उस्कृष्ट भन्ज्ञान की माठि हो जाती है तब उस की वृद्धि सत्पुरुपों के व्यवहार की मोर नहीं झुकती है भर्षात् ससंग और सदुपदेश का उस पर प्रभाव नहीं होता है ( क्योंकि तमोगुण की अधिकता से सतोगुण उच्छिन्नमाम हो जाता है ) । इस फमन स सिद्ध हो गया कि प्रारम्भ से ही मनुष्य को दूसरे सत्पुरुषों के स रित्रों के देखने सुनने तथा अनुभम करने की आवश्यकता है कि जिस से वह भी उन के सपरित्रों का अनुकरण कर सतोगुण की वृद्धि द्वारा उत्कृष्ट ज्ञान को अपने जीवन के वास्तविक प्रक्ष्य को समझ कर निरन्तर उसी मार्ग पर चला मनुष्यजन्म के धर्म, अथ, काम और मोक्षरूपी चारों पों को प्राप्त होने प्राप्त हो कर जाने और । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय || ७०१ इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि-दूसरे सत्पुरुषों के वार्त्तमानिक ( वर्तमान काल के ) सच्चरित्र मनुष्य पर उतना प्रभाव नहीं डाल सकते है जितना कि भूतकालिक ( भूत काल के ) डाल सकते है, क्योकि वार्तमानिक सच्चरित्रों का फल आगामिकालभावी ( भविष्यत् काल में होने वाला ) है, इस लिये उस विषय में मनुष्य का आत्मा उतना विश्वस्त नहीं होता है जितना कि भूतकाल के सच्चरित्रो के फल पर विश्वस्त होता है, क्योकि-भूतकाल के सच्चरित्रों का फल उस के प्रत्यक्ष होता है ( कि अमुक पुरुष ने ऐसा सच्चरित्र किया इस लिये उसे यह शुभ फल प्राप्त हुआ) इस लिये आवश्यक हुआ फि-मनुष्य को भूतकालिक चरित्र का अनुभव होना चाहिये, इसी भूतकालिक चरित्र को ऐतिहासिक विषय कहते है। ऐतिहासिक विषय के दो भेद हैं-ऐतिहासिक वृत्त और ऐतिहासिक घटना, इन में से पूर्व भेद में पूर्वकालिक पुरुषों के जीवनचरित्रों का समावेश होता है तथा दूसरे भद में पूर्व काल में हुई सब घटनाओं का समावेश होता है, इस लिये मनुष्य को उक्त दोनों विषयों के ग्रन्थों को अवश्य देखना चाहिये, क्योंकि इन दोनों विषयो के ग्रन्थों के अवलोकन से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते है । स्मरण रहे कि-जीवन के लक्ष्य के नियत करने के लिये जिस प्रकार मनुष्य को ऐतिहासिक विषय के जानने की आवश्यकता है उसी प्रकार उसे पदार्थविज्ञान की भी आवश्यकता है क्योंकि पदार्थविज्ञान के विना भी मनुष्य अनेक समयों में और अनेक स्थानो में धोखा खा जाता है और धोखे का खाना ही अपने लक्ष्य से चूकना है इसी लिये पूर्वीय विद्वानों ने इन दोनो विषयो का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध माना है, अतः मनुष्य को पदार्थविज्ञान के विषय में भी यथाशक्य अवश्य परिश्रम करना चाहिये । यह पञ्चम अध्याय का ऐतिहासिक व पदार्थविज्ञानवर्णन नामक सातवॉ प्रकरण समाप्त हुआ। आठवाँ प्रकरण-राजनियमवर्णन ॥ राजनियमों के साथ प्रजा का सम्बन्ध ॥ धर्मशास्त्रों का कथन है कि-राजा और प्रजा का सम्बध ठीक पिता और पत्रके समान है, अर्थात् जिस प्रकार सुयोग्य पिता अपने पुत्र की सर्वेथा रक्षा करता है उसी प्रकार राजा का धर्म है कि वह अपनी प्रजा की रक्षा करे, एव जिस प्रकार सुयोग्य पुत्र अपने पिता के अनेक उपकारों का विचार कर भक्त हो कर सर्वथा उस की आज्ञा का Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ जैनसम्प्रदामशिक्षा | पालन करता है उसी प्रकार मना का धर्म है कि वह अपने राजा की आज्ञा को माने अर्थात् राजा के नियत किये हुए नियमों का उठान न कर सर्वदा उन्हीं के अनुसार वर्धा करे | प्राचीन श्वास्त्रकारों ने राजभक्ति को भी एक अपूर्व गुण माना है, जिस मनुष्य में यह गुण विद्यमान होता है वह अपनी सांसारिक जीवनमात्रा को सुख से म्पतीस कर सकता है। राममति के दो भेद हैं- प्रथम भेद तो वही है जो अभी लिख चुके हैं अर्थात् राज्य के नियत किये हुए नियमों के अनुसार वर्षाव करना, दूसरा मेव यह है कि-समानु सार आवश्यकता पड़ने पर यथाशकि तन मन धन से राजा की सहायता करना । देखो | इतिहासों से विदित है कि पूर्व समय में बिन छोगों ने इस सर्वोचम पुष रामभक्ति के दोनों भेदों का यथावत् परिपाठन किया है उन की सांसारिक जीवनमात्रा किस प्रकार सुख से व्यतीत हो चुकी है औौर राज्य की भोर से उन्हें इस सद्गुण का परिपालन करने के हेतु कैसे २ उत्तम अधिकार जागीरें तथा उपाधियाँ प्राप्त हो चुकी है। राजमति का मयोचित पासन न कर यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपनी जीवन यात्रा को सुख से व्यतीत करूँ तो उस की यह बात ऐसी असम्मन है जैसे कि पश्चि मीम देश को मात होने की इच्छा से पूर्व दिशा की ओर गमन करना । मिस मकार एक कुटुम्ब के बाल मधे आदि सर्व मन अपने कुटुम्ब के अधिपति की नियत की हुई प्रणामी पर चल कर अपने जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करते हैं सा उस कुटुम्ब में सर्वदा सुख और शान्ति का निवास बना रहता है ठीक उसी प्रकार राजा के नियत किये हुए नियमों के अनुसार बर्चान करने से समस्त मजाबन अपने जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत कर सकते हैं तथा उन में सर्वदा सुख और शान्ति का निवास रह सकता है, इस के मिरुद्ध जब मयाचन राजनियमों का उलाहन कर खेच्छापूर्वक (अपनी मर्जी के अनुसार भर्थात् मनमाना ) बर्चा करते या करने लगते हैं व उन को एक ऐसे कुटुम्ब फे समान कि जिस में सब ही किसी एक को प्रधान न मान कर और उस की मात्रा का अनुसरण न कर सम्रतापूर्वक मर्दान करते हों तथा कोई किसी को आधीनता की न पाहता दो चारों भोर से दुख और आपतियाँ घेर जेठी वह दूसरी बात है कि राजनिगमों में गरि कोई नियम प्रजा के विपरीत हो अर्थात् सौ और कर्तव्य में बाबा पहुंचाने का हो तो उस के विषय में एकमत होकर राजा से निवेदन कर उ संसोधन करना या कहिये प्रयोज्य तथा पुत्रवत् प्रयपाक राजा प्रप्या के शाषक निगम को कमी हाँ रखते है, क्योंकि मस्य के एक किये ही वो विनमा का किया जाता है Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७०३ हैं जिस का अन्तिम परिणाम ( आखिरी नतीजा ) विनाश के सिवाय और कुछ भी नहीं होता है। ___ भला सोचने की बात है कि जिस राज्य में हम सुख और शान्तिपूर्वक निर्भय होकर अपनी जीवन यात्रा को व्यतीत कर रहे हों उस राज्य के नियत किये हुए नियमों का पालन न करना तथा उस में खामिभक्ति का न दिखलाना हमारी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है? ___ सोचिये तो सही कि-यदि हम सब पर सुयोग्य राज्यशासनपूर्वक क्षत्रच्छाया न हो तो क्या कभी सम्भव है कि इस ससार में एक दिन भी सुखपूर्वक हम अपना नि__ वोह कर सकें, कभी नहीं, देखिये ! राज्य तथा उस के शासनकर्ता जन अपने ऊपर कि तनी कठिन से कठिन आपत्तियों का सहन करते है परन्तु अपने अधीनस्थ प्रजाजनों पर तनिक भी ऑच नही आने देते हैं अर्थात् उन आई हुई आपत्तियों का ज़रा भी असर यथाशक्य नहीं पड़ने देते हैं, बस इसी लिये प्रजाजन निर्भय हो कर अपने जीवन को व्यतीत किया करते है। सारांश यही है कि राज्यशासन के विना किसी दशा में किसी प्रकार से कभी किसी का सुखपूर्वक निर्वाह होना असम्भव है, जब यह व्यवस्था है तो क्या प्रत्येक पुरुष का १-यदि इस के उदाहरणों के जानने की इच्छा हो तो इतिहासवेत्ताओं से पूछिये ॥ २-कृतघ्न की कभी शुभ गति नहीं होती है, जैसा कि-धर्मशास्त्र में कहा है कि-मित्रद्वह कृतनस्य, खानस्य गुरुघातिन ॥ चतुर्णा वयमेतेषा, निष्कृतिं नानुशुश्रुम ॥ १॥ अर्थात् मित्र से द्रोह करने वाले, कृतान (उपकार को न मानने वाले ), स्त्रीहत्या करने वाले तथा गुरुघाती, इन चारों की निष्कृति (उद्धार वा मोक्ष ) को हम ने नहीं सुना है ॥१॥ तात्पर्य यह है कि उक्त चारों पापियों की कभी शुभ गति नहीं होती है ॥ ३-यदि राज्यशासनपूर्वक क्षत्रच्छाया न हो तो एक दूसरे का प्राणघातक हो जावे, प्रत्येक पुरुष के सब व्यवहार उच्छिन्न ( नष्ट ) हो जावें और कोई भी सुखपूर्वक अपना पेट तक न भर पावे, परन्तु जव राज्यशासनपूर्वक क्षत्रच्छाया होती है अर्थात् शस्त्रविद्याविशारद राज्यशासक जव स्वाधीन प्रजा की रक्षा करते हुए सव आपत्तियों को अपने ऊपर झेलते हैं तव साधारण प्रजाजनों को यह भी ज्ञात नहीं होता है कि-क्रिधर क्या हो रहा है अर्थात् सव निर्भय हो कर अपने २ कार्यों में लगे रहते हैं, सत्य है कि-"शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे, शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते” अर्थात् शत्र के द्वारा राज्य की रक्षा होने पर शास्त्रचिन्तन आदि सव कार्य होते हैं। ४-ऐसी दशा में विचारशील दूरदर्शी जन अपने कर्तव्यों का पालन किया करते हैं परन्तु अज्ञान जन पैर पसार कर नींद लिया करते हैं। ५-राज्यशासन चाहे पञ्चायती हो चाहे आधिराजिक हो किन्तु उस का होना आवश्यक है ॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसम्प्रदायशिक्षा || यह कन्य नहीं है कि-वद सधी राजमक्ति को अपने हृदय में स्थान दे कर स्वामिभकि का परिचय देखा तुमा राज्य नियमों के अनुकूल सर्वदा अपना निवाह करे । ७०४ वद्यमान समय में हम सब प्रजाजन उस श्रीमती न्यायचीला बुटि गवर्नमेण्ट के अभिशासन में है कि - जिस के न्याय, दया, सोमन्य, परोपकार, विद्योद्यति और सुखपचार मावि गुणों का वर्णन करने में चिड्डा और लेखनी दोनों ही असमर्थ हैं, इस किये ऊपर मिले अनुसार हम सब का परम फर्धम्य है कि-ठक्क गवर्नमेंट के स स्वामिमक्छ मन कर उस के निमत किये हुए सब नियमों को जान कर उन्हीं के अनुसार स वा वर्षाव करें कि जिस से हम सब की संसारमात्रा सुखपूर्वक व्यतीत होता ह सब पारलौकिक सुख के भी अधिकारी हों। सब ही जानते हैं कि-सची स्वामिभक्ति को हृदय में स्थान घेने का मुख्य हेतु प्रत्येक पुरुष का सद्भाव और उस का आत्मिक सद्विचार ही है, इस लिये इस विषय में हम केवल इस उपदेश के सिवाय और कुछ नहीं छिल सकते हैं कि ऐसा करना ( लामिम बनना ) सर्व साधारण का परम कर्तव्य है । स्मरण रहे कि राज्यमति का रखना तथा राज्यनियम के अनुसार बर्चान करना ( जो कि ऊपर खिले अनुसार मनुष्य का परम धर्म है ) सब ही बन सकता है फि मनुष्य राज्यनियम (कानून) को ठीक रीति से मानता हो, इस लिये उभित है कि वह अपने उक्त कम्य का पावन करने के किये राज्यनियम का विज्ञान फो मनुष्यमात्र ठीक रीति से प्राप्त करे । मध्यपि राज्पनियम का मिपम अत्यन्त गहन है इस किये सर्व साधारण राज्यनियम के सम अह को मम्मी भाँति नहीं मान सकते हैं तथापि प्रयम करने से इस (राम्म नियम ) की मुख्य २ और उपयोगी बासों का परिभ्रान सो सर्व साधारण को भी होना कोई कठिन मास नहीं है, इस बिये उपयोगी और मुख्य २ बातों को तो सर्व साधारण को अवश्य मानना चाहिये । यद्यपि हमारा विश्वार इस प्रकरण में राज्यनियम के कुछ आवश्यक विपयों के भी न करने का था परन्तु न्य के विस्तृत हो जाने के कारण उक विषय का वर्णन नहीं किया है, उक्त विषय को देखने की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को सानीरायहिन्द म हिन्दुस्थान का दण्डर्स नामक मन्त्र ( जिस का कानून सा० १९६२ ई० से मब तक जारी है ) देखना चाहिये ॥ १ जनवरी सन् यह पास अध्याय का राजनियमवर्णन मामक भाठा मकरण समाप्त हुआ || Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५ पञ्चम अध्याय ॥ नवाँ प्रकरण-ज्योतिर्विषयवर्णन ॥ ज्योतिपशास्त्र का संक्षिप्त वर्णन ॥ ज्योतिःशास्त्र का शब्दार्थ ग्रहों की विद्या है, इस में ग्रहों की गति और उन के परस्पर के सम्बंध को देख कर भविष्य ( होने वाली ) वार्त्ताओं के जानने के नियमों का वर्णन किया गया है, वास्तव में यह विद्या भी एक दिव्य चक्षुरूप है, क्योंकि-इस विद्या के ज्ञान से आगे होने वाली बातों को मनुष्य अच्छे प्रकार से जान सकता है, इस विद्या के अनुसार जन्मपत्रिकायें भी बनती है जिन से अच्छे वा बुरे कर्मों का फल ठीक रीति से मालूम हो सकता है, परन्तु वात केवल इतनी है कि-जन्मसमय का लग्न ठीक होना चाहिये, वर्तमान में अन्य विद्याओं के समान इस विद्या की भी न्यूनता अन्य देशों की अपेक्षा मारवाड़ तथा गोढ़वाड आदि विद्याशून्य देशो में अधिक देखी जाती है, तात्पर्य यह है कि-विद्यारहित तथा अपनी २ यजमानी में उदरपूर्ति (पेटभराई ) करने वाले ज्योतिषी लोगों को यदि कोई देखना चाहे तो उक्त देशों में देख सकता है, इस लेख से पाठकवृन्द यह न समझें कि-उक्त देशों में ज्योतिप् विद्या के जानकर पण्डित बिलकुल नहीं है क्योंकि उक्त देशों में भी मुख्य २ राजधानी तथा नगरों में यतिसम्प्रदाय में तथा ब्राह्मण लोगों में कही २ अच्छे २ ज्योतिषी देखे जाते है, परन्तु अधिकतर तो ऊपर लिखे अनुसार ही उक्त देशो में ज्योतिषी देखने में आते है, इसी लिये कहा जाता है कि-उक्त देशों में अन्य विद्याओं के समान इस विद्या की भी अत्यन्त न्यूनता है। ___ इस विद्या को साधारणतया जानने की इच्छा रखने वालों को उचित है कि वे प्रथम तिथि, वार, नक्षत्र, योग और कर्ण आदि बातों को कण्ठस्थ कर लेवें, क्योकि ऐसा करने से उन को इस विद्या में आगे बढ़ने में सुगमता पड़ेगी, इस विद्या का काम प्रत्येक गृहस्थ को प्रायः पड़ता ही रहता है, इस लिये गृहस्थ लोगों को भी उचित है कि-कार्ययोग्य ( काम के लायक ) इस विद्या को भी अवश्य प्राप्त कर लें कि जिस से वे इस विद्या के द्वारा अपने कार्यों के शुभाशुभ फल को विचार कर उन में प्रवृत्त हो कर सख का सम्पादन करें। १-देखो ! जोधपुर राजधानी में ज्योतिष विद्या, जैनागम, मन्त्रादि जैनाम्नाय तथा सुभाषितादि विषय के पूर्ण ज्ञाता महोपाध्याय श्री जुहारमल जी गणी वर्तमान में ८० वर्ष की अवस्था के अच्छे विद्वान के पास वहत से ब्राह्मणों के पुत्र ज्योति विद्या को पठ कर निपुण हुए हैं तथा जोधपुर राज्य में पूर्व समय में ब्राह्मण लोगों में चण्ड जी नामक अच्छे ज्योतिषी हो चुके हैं, इन्हीं के नाम से एक पञ्चाङ्ग निकलता है जिस का वर्तमान में बहुत प्रचार है, इन की सन्तति में भी अच्छे २ विद्वान् तथा ज्योतिषी देखे जाते हैं। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ बैनसम्प्रदायशिक्षा। मागे पत कर हम ज्योतिष की कुछ मावश्यक बातों को मिलेंगे उन में सूर्य प्र उदय और मख उमा छम को स्पष्ट जानने की रीति, ये दो विषय मुख्यतया ग्रासों के नाम के लिय रिले जायेंगे, क्योकि गृहल ोग पुत्रादि के बन्मसमय में साभारम (कुछ परे हुए) ज्योतिषियों के द्वारा जन्मसमय को मसला कर मन्मपुरती बसाठे हैं, इस के पीछे भन्य देश के या उसी देश के किसी विद्वान् ज्योतिमी से उन्मपी बनवाते हैं, इस दशा में प्राय यह देसा बाता है कि बहुत से लोगों की बन्मपत्री म शुमाशुम फउ नहीं मिलता है सब के गेग मन्मपत्री के पनाने वाले विद्वान् को या ज्योति विधा को दोष देते हैं भर्यात् इस पिया को मसस्य (मठा) मनात , परन्तु विपार कर देसा बावे तो इस विषय में न तो मन्मपत्र के बनाने वाले द्विान का दोप है और न ज्योति विया का ही दोष है किन्तु चोप केवल चन्मसमय में ठीक उम न खेन का दे, सारार्य यह है कि-यदि मन्मसमय में ठीक रीति से समम्पि चाये समा उसी के अनुसार सन्मपत्री बनाई आये तो उस का शुभाशुभ फल मास मिक सकता है. इस में कोई भी सन्देह नहीं है, परन्तु शोक का निपय तो यह है कि नाममात्र के योतिपी गेग र यनाने की क्रिया को भी तो ठीक रीति से नहीं बनत हैं फिर उन की बनाई हुई अन्मकुणा (टेवे ) से शुभाशुम फस से विदित हो सकता है, इस सिमे हम डम के पनाने की क्रिया का वर्णन भवि मर रीति से करे । सोलह तिथियों के नाम ॥ सम्या संस्कृत नाम हिन्दी नाम संस्मा संस्कृत नाम हिन्दी नाम मतिपम् ९ नवमी नौमी द्वितीया य १० दशमी वटी तृतीया एकादशी भ्पारस चतुपी मावती बारस प्रमोदष्टी ६ पष्ठी छठ ११ पर्दधी चौदस - सप्तमी सातम १५ पर्णिमा गा पूर्ण- पूनम का प्रममासी पडिया वाम १२ पचमी पापम तेरस मासी ८ भरमी माठम १९ भमानासा अमावस सूचना-कृष्ण पक्ष (बदि) में पन्द्री विपि अमावास्या प्रगती है मा शुक्ल पक्ष (मुवि ) में पन्द्रही तिथि पूर्णिमा वा पूर्णमासी लाती है। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७०७ मन्डे मगल ५ गुरुवार फ्राइडे सात वारों के नाम ॥ संख्या संस्कृत नाम हिन्दी नाम मुसलमानी नाम अंग्रेज़ी नाम १ सूर्यवार इतवार आइतवार सन्डे २ चन्द्रवार सोमवार पीर ३ भौमवार मंगलवार ट्यूजडे बुधवार बुधवार बुध वेड्नेडे बृहस्पतिवार जुमेरात थर्सडे ६ शुक्रवार शुक्रवार जुमा ७ शनिवार शनिश्चर शनीवार सटर्डे सूचना-सूर्यवार को आदित्यवार, सोमवार को चन्द्रवार, बृहस्पतिवार को विहफै। तथा शनिवार को शनैश्चर वा शनीचर भी कहते है ॥ सत्ताईस नक्षत्रों के नाम ॥ संख्या नाम नाम संख्या नाम सख्या नाम सख्या नाम १ अश्विनी पूप्य १५ खाति २२ श्रवण २ भरणी ९ आश्लेया १६ विशाखा २३ धनिष्ठा ३ कृत्तिका १० मघा १७ अनुराधा २४ शतभिषा ४ रोहिणी ११ पूर्वाफाल्गुनी १८ ज्येष्ठा २५ पूर्वाभाद्रपद ५ मृगशीर्ष १२ उत्तराफाल्गुनी १९ मूल २६ उत्तराभाद्रपद ६ आ १३ हस्त २० पूर्वाषाढ़ा २७ रेवती ७ पुनर्वसु १४ चित्रा २१ उत्तराषाढ़ा सत्ताईस योगों के नाम ॥ संख्या नाम सख्या नाम संख्या नाम संख्या नाम १ विष्कुम्भ ८ धुति १५ वज्र २२ साध्य २ प्रीति ९ शूल १६ सिद्धि २३ शुभ ३ आयुष्मान् १० गण्ड १७ व्यतीपात २४ शुक्ल ४ सौभाग्य ११ वृद्ध १८ वरीयान २५ ब्रह्मा ५ शोभन १२ ध्रुव १९ परिघ २६ ऐन्द्र ६ अतिगण्ड १३ व्याघात २० शिव २७ वैधृति ७ सुकर्मा १४ हर्षण २१ सिद्ध Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसमवायश्चिक्षा || सात करणों के नाम ॥ अर्थात् यदि तिथि साठ १-मम । २-पालन । १- कौलव । ४-तैतिल । ५-गर। ६ - वणिय । भौर ७ वि सूचना – तिथि की सम्पूर्ण घड़ियों में दो करण भोगते हैं पड़ी की हो तो एक करण दिन में तथा दूसरा करण रात्रि में पक्ष की पड़िया की तमाम घड़ियों के दूसरे भाप भाग से भय और भाव समा कृष्ण पक्ष की सुर्वी की पट्टियों के दूसरे आधे भाग से सदा स्थिर है, जैसे देखो ! मतुर्दशी के दूसरे भाग में कुनि, अमावास्या के पहिले भाग में चतु प्पद, दूसरे भाग में माग और पड़िया के पहिले भाग में किस्तुम, मे ही चार सिर करण कहते हैं | श्रीतता है, परन्तु शुक्र आदि या है करण भाठे ७०८ तिथि प्रथम भाग १ किंस्तुन २ 建 ४ ५ १० ११ शुक्ल पक्ष (सुदि ) के करण ॥ द्वितीय भाग १५ पूर्णिमा मास्य सैविक पणिय बग गर विष्टि बालप सैविर गणिय १२ मय १५ १४ कौन करणों के बीतने का स्पष्ट विवरण || कृष्ण पक्ष ( मवि) के सिभि प्रथम माग १ पाठव वैतिर वणिय गर विडि मव कौलव गर विष्टि याकंन वैखिक पणिय बय कौलव गर विष्टि नाण्य वैविक मणिब गय ४ ७ ८ ܘܐ ११ १२ १३ १४ ३० अमावस बव फोम्ब गर विधि मासम ਰੈਣ गणिय भग कौम्य गर विष्ठि भूवष्यव करण है। द्वितीय भाग क्रोम्य गर विष्टि बालय वैविक बञि भव कौकब गर विष्टि बालप ਰੈਲ गणिन शकुनि नाग शुभ कार्यों में निषिद्ध तिथि आदि का वर्णन || जिस तिथि की वृद्धि हो वह तिथि, जिस तिथि का हो वह विषि, परिष योग Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७०९ का पहिला आधा भाग, विष्टि, वैधृति, व्यतीपात, कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी ( तेरस ) से प्रतिपद् ( पड़िवा ) तक चार दिवस, दिन और रात्रि के बारह बजने के समय पूर्व और पीछे के दश पल, माता के ऋतुधर्म सवधी चार दिन, पहिले गोद लिये हुए लड़के वा लड़की के विवाह आदि में उस के जन्मकाल का मास, दिवस और नक्षत्र, जेठ का मास, अधिक मास, क्षय मास, सत्ताईस योगो में विष्कुम्भ योग की पहिली तीन घड़ियाँ, व्याघात योग की पहिली नौ घड़ियाँ, शूल योग की पहिली पाँच घड़ियाँ, वज्र योग की पहिली नौ घड़ियाँ, गण्ड योग की पहिली छ घड़ियाँ, अतिगण्ड योग की पहिली छः घड़ियाँ, चौथा चन्द्रमा, आठवाँ चन्द्रमा, वारहवाँ चन्द्रमा, कालचन्द्र, गुरु तथा शुक्र का अस्त, जन्म तथा मृत्यु का सूतके, मनोभङ्ग तथा सिंह राशि का बृहस्पति ( सिंहस्थ वर्ष ), इन सब तिथि आदि का शुभ कार्य में ग्रहण नहीं करना चाहिये || १ - सूतक विचार तथा उस में कर्त्तव्य - पुत्र का जन्म होने से दश दिन तक, पुत्री का जन्म होने से वारह दिन तक, जिस स्त्री के पुत्र हो उस (स्त्री) के लिये एक माम तक, पुत्र होते ही मर जावे तो एक दिन तक, परदेश में मृत्यु होने से एक दिन तक, घर मे गाय, भेस; घोडी और फॅटिनी के व्याने से एक दिन तक, घर में इन ( गाय आदि ) का मरण होने से जब तक इन का मृत शरीर घर से बाहर न निकला जावे तब तक, दास दासी के पुत्र तथा पुत्री आदि का जन्म वा मरण होने से तीन दिन तक तथा गर्भ के गिरने पर जितने महीने का गर्भ गिरे उतने दिनो तक सूतक रहता है । उस मे भी करे, इस के जिस के गृह में जन्म वा मरण का सूतक हो वह वारह दिन तक देवपूजा को न करे, मृतकसम्बधी सूतक में घर का मूल स्कध ( मूल कॉधिया ) दश दिन तक देवपूजा को न सिवाय शेष घर वाले तीन दिन तक देवपूजा को न करें, यदि मृतक को छुआ हो तो चौवीस प्रहर तक प्रतिक्रमण ( पडिक्कमण ) न करे, यदि सदा का भी अखण्ड नियम हो तो समता भाव रख कर शम्बरपने मे रहे परन्तु मुख से नवकार मन्त्र का भी उच्चारण न करे, स्थापना जी के यदि मृतक को न छुआ हो तो केवल आठ प्रहर तक प्रतिक्रमण ( पडिक्कमण ) न पर पन्द्रह दिन के पीछे उस का दूध पीना कल्पता है, गाय के वच्चा होने पर ही उस का भी दूध पीना कल्पता है तथा बकरी के बच्चा होने पर उस समय से आठ दिन के पीछे दूध पीना कल्पता है 1 हाथ न लगावे, परन्तु करे, भैंस के बच्चा होने भी पन्द्रह दिन के पीछे ऋतुमती स्त्री चार दिन तक पात्र आदि का स्पर्श न करे, चार दिन तक प्रतिक्रमण न करे तथा पाँच दिन तक देवपूजा न करे, यदि रोगादि किसी कारण से तीन दिन के उपरान्त भी किसी स्त्री के रक्त चलता हुआ दीखे तो उस का विशेष दोष नहीं माना गया है, ऋतु के पश्चात् स्त्री को उचित है कि - शुद्ध विवेक से पवित्र हो कर पॉच दिन के पीछे स्थापना पुस्तक का स्पर्श करे तथा साधु को प्रतिलाभ देवे, ऋतुमती स्त्री जो तपस्या ( उपवासादि ) करती है वह तो सफल होती ही है परन्तु उसे प्रतिक्रमण आदि का करना योग्य नहीं है (जैसा कि ऊपर लिख चुके है ), यह चर्चरी ग्रन्थ मे कहा है, जिस घर में जन्म वा मरण का सूतक हो वहाँ यारह दिन तक साधु आहार तथा पानी को न वहरै (ले), क्योंकि - निशीथसूत्र के सोलहवें उद्देश्य में जन्म मरण के सूतक से युक्त घर दुर्गेछनीक कहा है ॥ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनसम्प्रदायशिक्षा || सात करणों के नाम ॥ मर्षात् यदि तिथि ठ परन्तु शुक बीतता है, १-यय । २-माक्य । १--कौम्य । 8- तैतिल । ५-गर । ६-बमिव । और ७ - विधि ॥ सूचना-तिथि की सम्पूर्ण पड़ियों में दो करण भोगते हैं घड़ी की हो तो एक करण दिन में तथा दूसरा करण रात्रि में पक्ष की पड़िया की समाम परियों के दूसरे आगे भाग से बब और सभा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की घड़ियों के दूसरे आधे भाग से हैं, जैसे देखो ! चतुर्दशी के दूसरे भाग में शकुनि, अमावास्या के प्पद, दूसरे भाग में माग और पड़िया के पहिले भाग में किंस्तुम, ये ही भार सिर करण कहलाते हैं | वाक्य भावि भाते हैं सदा स्थिर करम बाते पहिले भाग में ૧૦૮ सिथि प्रथम भाग १ किंस्तुम ર્ ' १ ८ १० ११ १२ १३ १४ १५ शुक्र पक्ष ( सुदि) के करण ॥ द्वितीय भाग वालय वैतिक गणिम बग कौन गर विष्टि मालय सैखिक बमिज करणों के बीतने का स्पष्ट विवरण | कृष्ण पक्ष ( यदि ) के तिमि मथम भाग १ थब भैय गर विष्टि भय फौम्य गर विष्टि माम्य ਰੈਲ वणिज गम कौलव गर विष्ठि माकन वैविक मिज ४ ५ मन ܐ ११ बालव ਚੈਰਿਜ मणिब मय फोनव गर विष्टि मालय वैविन गणिय मय कोलम करण ॥ द्वितीय माम फोन गर विष्ठि चतुष्पन गर विष्टि १२ R १४ ३० अमावस शुभ कार्यों में निषिद्ध तिथि आदि का वर्णन ॥ जिस तिथि की वृद्धि हो वह तिथि, जिस तिथि का क्षय हो यह तिथि, परिष होय बालय ਬੇਡ मिज कोय गर विष्टि याम्य हैविल मिय शकुनि नाग Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७०९ का पहिला आधा भाग, विष्टि, वैधृति, व्यतीपात, कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (तेरस ) से प्रतिपद् ( पडिवा ) तक चार दिवस, दिन और रात्रि के बारह बजने के समय पूर्व और पीछे के दश पल, माता के ऋतुधर्म संबंधी चार दिन, पहिले गोद लिये हुए लड़के वा लड़की के विवाह आदि में उस के जन्मकाल का मास, दिवस और नक्षत्र, जेठ का मास, अधिक मास, क्षय मास, सत्ताईस योगो में विष्कुम्भ योग की पहिली तीन घड़ियाँ, व्याघात योग की पहिली नौ घड़ियों, शूल योग की पहिली पाँच घडियॉ, वज्र योग की पहिली नौ घड़ियाँ, गण्ड योग की पहिली छ. घडियॉ, अतिगण्ड योग की पहिली छः घड़ियाँ, चौथा चन्द्रमा, आठवाँ चन्द्रमा, वारहवाँ चन्द्रमा, कालचन्द्र, गुरु तथा शुक्र का अस्त, जन्म तथा मृत्यु का सूतके, मनोभङ्ग तथा सिंह राशि का बृहस्पति ( सिंहस्थ वर्ष ), इन सब तिथि आदि का शुभ कार्य में ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ १- सूतक विचार तथा उस में कर्त्तव्य - पुत्र का जन्म होने से दश दिन तक, पुत्री का जन्म होने से वारह दिन तक, जिस स्त्री के पुत्र हो उस (स्त्री) के लिये एक मास तक, पुत्र होते ही मर जावे एक दिन तक, परदेश में मृत्यु होने से एक दिन तक, घर में गाय, भैंस, घोडी और कॅटिनी के व्याने से एक दिन तक, घर में इन ( गाय आदि ) का मरण होने से जब तक इन का मृत शरीर घर से बाहर न निकला जावे तव तक, दास दासी के पुत्र तथा पुत्री आदि का जन्म वा मरण होने से तीन दिन तक तथा गर्भ के गिरने पर जितने महीने का गर्भ गिरे उतने दिनों तक सूतक रहता है । जिस के गृह में जन्म वा मरण का सूतक हो वह वारह दिन तक देवपूजा को न करे, उस मे भी मृतकसम्बधी सूतक मे घर का मूल स्कव (मूल काँधिया ) दश दिन तक देवपूजा को न करे, इस के सिवाय शेष घर वाले तीन दिन तक देवपूजा को न करें, यदि मृतक को छुआ हो तो चौवीस प्रहर तक प्रतिक्रमण ( पडिक्कमण ) न करे, यदि सदा का भी अखण्ड नियम हो तो समता भाव रख कर शम्बरपने में रहे परन्तु मुख से नवकार मन्त्र का भी उच्चारण न करे, स्थापना जी के यदि मृतक को न छुआ हो तो केवल आठ प्रहर तक प्रतिक्रमण ( पडिक्कमण ) न पर पन्द्रह दिन के पीछे उस का दूध पीना कल्पता है, गाय के वच्चा होने पर भी पन्द्रह दिन के पीछे ही उस का भी दूध पीना कल्पता है तथा बकरी के बच्चा होने पर उस समय से आठ दिन के पीछे दूध पीना कल्पता है । हाथ न लगावे, परन्तु करे, भेस के वच्चा होने ऋतुमती स्त्री चार दिन तक पात्र आदि का स्पर्श न करे, चार दिन तक प्रतिक्रमण न करे तथा पाँच दिन तक देवपूजा न करे, यदि रोगादि किसी कारण से तीन दिन के उपरान्त भी किसी स्त्री के रक्त चलता हुआ दीखे तो उस का विशेष दोष नहीं माना गया है, ऋतु के पश्चात् स्त्री को उचित है कि - शुद्ध विवेक से पवित्र हो कर पाँच दिन के पीछे स्थापना पुस्तक का स्पर्श करे तथा साधु को प्रतिलाभ देवे, ऋतुमती स्त्री जो तपस्या ( उपवासादि ) करती है वह तो सफल होती ही है परन्तु उसे प्रतिक्रमण आदि का करना योग्य नहीं है (जैसा कि ऊपर लिख चुके है ), यह चर्चरी प्रन्थ मे कहा है, जिस घर मे जन्म मरण का सूतक हो वहाँ बारह दिन तक साधु आहार तथा पानी को न बहरै ( ले ), क्योंकि - निशीथसूत्र के सोलहवें उद्देश्य में जन्म मरण के सूतक से युक्त घर दुर्गछनीक कहा है ॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ रवि अमृत हाम दिन का चौघड़िया ॥ सोम मङ्गल बुप गुरु शुरु पनि उद्वेग ममत रोग गम शुभ पल काठ पल फाक उद्वेग रोग हाम शुम पल काल उद्वेग अमृत रोग भमत रोग साम शुम पळ काम उद्वेग उद्वेग ममृत रोग लाम शुम । गुम चरमास उद्वेग भमृत रोग मम रोग छाम शुम पर कास उद्वेग ममत वेग ममृत रोग ठाम शुम पर काह विज्ञान-उमर के कोष्ठ से या समझना चाहिये कि-मिस दिन यो गार हो उस दिन उसी पार के नीचे सिसा हुमा पौपरिया सूर्योदय के समय में पैठता है वा परिम समझना चाहिये, पीछे उसके उतरने के बाद उस पार से छठे वार का पोपरिण पेठता है यह दूसरा समझना पाहिये, पीछे उस के उतरने के बाद उस (छठे ) मार से छठे वार का पौषत्रिया पैठता है, यही क्रम भागे भी समझना चाहिये, जैसे देखा। रविवार के दिन पहिल नवेग नामक पौषरिया है उसके उतरने के पीछे रवि से ठे शुक्र का पठ नामक चौपड़िया बैठता है, इसी मनुक्रम से प्रत्येक बार के दिन मर पोपरिया मान भेना पाहिये, एक पौषडिया रेड पण्टे तक रहता है अर्थात् सबेरे । गने से लेकर शाम के छ पने एक बारह पण्टे में माठ पौपरिये व्यतीत होते हैं, इन में से-अमृत, शुमकाम मौर पर, ये पार पौपरिये उधम तमा उठेगा रोग मौर काय, ये तीन चौपहिये निकर है, इस लिये भच्छे चौपड़ियों में शुम काम को करना चाहिये । __ रात्रि का चौघडिया ॥ रवि सोम मत तुप गुरु शुक्र शुभ पर पास वेग अमृत रोग लाम भमूत रोग मम शुम पस कार देग उद्वेग गाम गुम उद्वेग काम उद्वेग ममृत रोग पल पम रोग उद्वेग माभ काठ गुभ पर प्रत उद्वेग अमृत रोग मम शनि ममत तमम शुम काठ भमत साम गुम ताम गुम भमृत देग गुभ ममृत रोय Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७११ विज्ञान-इस कोष्ठ में ऊपर से केवल इतना ही अन्तर है कि-एक वार के पहिले चौघड़िये के उतरने के पीछे उस वार से पाँचवें वार का दूसरा चौघड़िया बैठता है, शेष सब विषय ऊपर लिखे अनुसार ही है ।। छोटी बड़ी पनोती तथा उस के पाये का वर्णन ॥ प्रत्येक मनुष्य को अपनी जन्मराशि से जिस समय चौथा वा आठवां शनि हो उस समय से २॥ वर्ष तक की छोटी पनोती जाननी चाहिये, बारहवाँ शनि वैठे ( लगे ) तब से लेकर दूसरे शनि के उतरने तक बराबर ७॥ वर्ष की बड़ी पनोती होती है, उस में से वारहवें शनि के होने तक २॥ वर्ष की पनोती मस्तक पर समझनी चाहिये, पहिले शनि के होने तक २॥ वर्ष की पनोती छाती पर जाननी चाहिये तथा दूसरे शनि के होने तक २॥ वर्ष की पनोती पैरों पर जाननी चाहिये । जिस दिन पनोती बैठे उस दिन यदि जन्मराशि से पहिला, छठा तथा ग्यारहवाँ चन्द्र हो तो उस पनोती को सोने के पाये जानना चाहिये, यदि दूसरा, पाँचवाँ तथा नवा चन्द्र हो तो उस पनोती को रूपे के पाये जावना चाहिये, यदि तीसरा, सातवॉ तथा दशवॉ चन्द्र हो तो उस पनोती को ताँवे के पाये जानना चाहिये तथा यदि चौथा आठवा और बारहवाँ चन्द्र हो तो उस पनोती को लोहे के पाये जानना चाहिये ।। पनोती के फल तथा वर्ष और मास के पाये का वर्णन ॥ यदि पनोती सोने के पाये बैठी हो तो चिन्ता को उत्पन्न करे, यदि पनोती रूपे के पाये बैठी हो तो धन मिले, यदि पनोती तांबे के पाये बैठी हो तो सुख और सम्पत्ति मिले तथा यदि पनोती लोहे के पाये बैठी हो तो कष्ट प्राप्त हो, इसी प्रकार जिस दिन वर्ष तथा मास बैठे उस दिन जिस राशि का चन्द्र हो उस के द्वारा ऊपर लिखे अनुसार सोने के, रूपे के तथा तांबे के पाये पर बैठने वाले वर्ष अथवा मास का विचार कर सम्पूर्ण वर्ष का अथवा मास का फल जान लेना चाहिये, जैसे-देखो! कल्पना करो किसवत् १९६४ के प्रथम चैत्र शुक्ल पड़िवा के दिन मीन राशि का चन्द्र है वह (चन्द्र) मेषराशि वाले पुरुष को बारहवा होता है इस लिये ऊपर कही हुई रीति से लोहे के पाये पर वर्ष तथा मास बैठा अत उसे कष्ट देने वाला जान लेना चाहिये, इसी रीति से दूसरी राशिवालों के लिये भी समझ लेना चाहिये ॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ चैनसम्प्रदायशिक्षा || चोरी गई अथवा खोई हुई वस्तु की प्राप्ति वा अप्राप्ति का वर्णन ॥ पूर्व विद्या में दक्षिण दिला में श्रीम मिलेगी रोहिणी पुष्य उत्तरा फाल्गुनी विश्वाला पूर्णापाड़ा मनिष्ठा खेती संन्या १ २ २ ● ५ सीन दिन में मिलेगी ་ मृगशीर्ष भाश्लेषा दख अनुरामा उचरापाड़ा समिषा अश्विनी नाम नक्षत्र मदार अश्विनी चू, चे, पो, का, मरणी सी, सु, से, सो कृषिका ष, ई, ऊ, ए, पश्चिम दिशा में एक मास में मिलेगी रोहिणी भो, या भी, बू मृगशिर वे, वो का, की भार्ता, पछ भावा मषा चित्रा ज्येष्ठा ममिजित् पूर्वाभाद्रपद भरणी विज्ञान — ऊपर के कोष्ठ से यह समझना चाहिये कि जिस दिन वस्तु स्लोड़ गई हो अथवा जुराई गई हो ( वह दिन यदि मालूम हो तो) उस दिन का नक्षत्र देखना चाहिये, यदि रोहिणी नक्षत्र हो तो ऊपर मिले अनुसार समक्ष लेना चाहिये कि वह बस्तु पूर्व दिशा में गई है तथा वह शीघ्र ही मिलेगी, यदि वद दिन मासूम न हो तो बिस दिन अपने को उस वस्तु का चोरी खाना वा खोपा जाना मास हो उस दिन का नक्षत्र देख कर ऊपर खिले अनुसार निर्णय करना चाहिये, यदि उस दिन सुमीर्ष नक्षत्र हो तो जान लेना चाहिये कि वस्तु दक्षिण दिशा में गई है तथा वह तीन दिन में मिलेगी, यदि उस दिन भार्द्रा नक्षत्र हो तो जानना चाहिये कि वह वस्तु पश्चिम दिला में गई है तथा एक महीने में मिलेगी और यदि उस दिन पुनर्वसु नक्षत्र हो तो जान लेना चाहिये कि वह वस्तु उधर विद्या में गई है तथा वह नहीं मिलेगी, इसी कार कोष्ठ में मिले हुए सब नक्षत्रों के अनुसार वस्तु के विषय में निश्वय कर लेना चाहिये | नाम रखने के नक्षत्रों का वर्णन ॥ उत्तर दिशा में नहीं मिलेगी पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी स्वाति मूल अपण उपराभाद्रपद कृचिका संख्या नाम नक्षत्र अक्षर ७ पुनर्वसु के, को, हा, ही, पुम्म हे, हो, डा, ९ मापाडी, सु, डे, डो, ८ 1 १० माम, मी, मू, मे, ११ पूर्वाफागुनी मो, टा, टी, टू उत्तराफागुनी टे, टो, प, पी, १२ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७१३ संख्या नाम नक्षत्र अक्षर संख्या नाम नक्षत्र अक्षर १३ हस्त पु, ष, ण, ठ, २१ उत्तराषाढ़ा भे, भो, ज, जी, १४ चित्रा पे, पो, रा, री, २२ अभिजित् जू, जे, जो, खा, १५ खाती रू, रे, रो, ता, २३ श्रवण खी, खु, खे, खो, १६ विशाखा ती, तू, ते, तो, २४ धनिष्ठा ग, गी, गू, गे, १७ अनुराधा ना, नि, नू, ने, २५ शतभिषा गो, सा, सी, सू, १८ ज्येष्ठा नो या, यी, यू, २६ पूर्वाभाद्रपद से, सो, द, दी, १९ मूल ये, यो, भ, भी, २७ उत्तराभाद्रपद दु, ञ, झ, थ, २० पूर्वापाढ़ा भू, ध, फ, ढ, २८ रेवती दे, दो, च, ची, चन्द्रराशि का वर्णन ॥ राशि। नक्षत्र तथा उस के पाद। राशि । नक्षत्र तथा उस के पाद । मेप अश्विनी, भरणी, कृत्तिका का प्रथम तुल चित्रा के दो पाद, खाति, विशाखा के पाद । तीन पाद । वृप कृत्तिका के तीन पाद, रोहिणी, मृग- वृश्चिक विशाखा का एक पाद, अनुराधा, ज्येष्ठा। __ शिर के दो पाद। धन मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरापाढ़ा का प्रथम मिथुन मृगशिर के दो पाद, आर्द्रा, पुनर्वसु पाद । __ के तीन पाद । मकर उत्तराषाढ़ा के तीन पाद, श्रवण, धकके पुनर्वसु का एक पाद, पुण्य, आश्लेषा। निष्ठा के दो पाद । सिंह मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी का कुम्भ धनिष्ठा के दो पाद, शतभिषा, पूर्वाप्रथम पाद। भाद्रपद के तीन पाद । कन्या उत्तराफाल्गुनी के तीन पाद, हस्त, मीन पूर्वाभाद्रपद का एक पाद, उत्तराभाद्रचित्रा के दो पाद। ' पद, रेवती ॥ तिथियों के भेदों का वर्णन ॥ पहिले जिन तिथियों का वर्णन कर चुके है उन के कुल पाँच भेद है-नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा, अब कौन २ सी तिथियाँ किस २ भेदवाली है यह वात नीचे लिखे कोष्ठ से विदित हो सकती है: १-उत्तरापाढा के चौथे भाग से लेकर श्रवण की पहिली चार घडी पर्यन्त अभिजित् नक्षत्र गिना जाता है, इतने समय में जिस का जन्म हुआ हो उस का अभिजित् नक्षत्र में जन्म हुआ समझना चाहिये २-स्मरण रहे कि-एक नक्षत्र के चार चरण (पाद वा पाये) होते हैं तथा चन्द्रमा दो नक्षत्र और एक पाये तक अर्थात् नौ पायों तक एक राशि में रहता है, चन्द्रमा के राशि में स्थित होने का यही क्रम वरावर जानना चाहिये । ९० Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ संख्या । भेव । तिथियाँ । ܐ २ ३ १ नन्दा पड़िया, छठ और एकादशी । भद्रा द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी । ५ पूर्णा भया तृतीया, भष्टमी और तेरस । भाम तिथि । पड़िया और नौमी । तुतीमा और एकादशी । पम्मी मौर प्रमोदधी । चतुर्थी और द्वादशी । सूचना – यदि नन्या विभि को शुक्रवार हो, भद्रा तिथि को बुधबार हो, जमा विभि को मङ्गलबार हो, रिच्य विषि को शनिवार हो तथा पूर्णा तिथि को गुरुवार ( बृहस्पति बार ) हो तो उस दिन सिद्धि योग होता है, यह ( योग ) सब शुभ कामों में अच्छा होता है ॥ संख्या । तरफ । १ अनसम्प्रदामचिचा || दिशाशूल के जानने का कोष्ठ ॥ नाम धार । नाम वार । दिवा में । सोम और धनियार को । पूर्व दिशामें । गुरुवार को । दक्षिण दिशा में । योगिनी के निवास के जानने का कोष्ठ | दुध वा भङ्गम्वार को। रबि तथा शुक्रवार को । दाहिनी तरफ । २ माई सरफ | रात्रि । मेन और सिंह ग्रुप, कन्मा और मकर संख्या । मेद । विभियों । दिवा में । पूर्व दिशा में। श्रमि कोण में । दक्षिण दिशा में । नैऋत्य कोण में । योगिनी फछ । धन की हानि करने वाली । सुख देने बाकी । रिक्का चौथ, नौमी और चोदन पश्चमी, दशमी और पूर्णिमा । विशा में । पूर्व दिशा में । दक्षिण दिशा में 1 नाम तिथि । मठी और चतुर्दशी । । सप्तमी और पूर्णमासी द्वितीया और दचमी । अष्टमी और भमायाम्मा । का फल | संख्या । तरफ फल । ३ पीठ की तरफ । पछिस फल को देने वाली । P सम्मुख होने पर । मरण तथा तीक को देने बाकी । चन्द्रमा के निवास के जानने का कोष्ठ ॥ विश्वा में । उचर दिक्षा में । पश्चिम विश्वा में । राधि । मिथुन, तुल और कुम्भ । वृधिक, कर्क और मीन। विठा में । पश्चिम दिशा में । गामम्य कोण में । उत्तर दिशा में | ईशान कोण में । विश्वा में पश्चिम दिशा में । उत्तर विधा में । Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७१५ चन्द्रमा का फल ॥ संख्या । तरफ। फल। संख्या। तरफ । फल । १. सम्मुख होने पर। अर्थ का लाभ ३ पीठ की तरफ प्राणों का नाश करता है। होने पर। करता है। २ दाहिनी तरफ हो सुख तथा सम्पत्ति ४ बाइ तरफ होने पर। धन का क्षय ने पर। करता है। करता है। कालराह के निवास के जानने का कोष्ठं॥ नाम वार। दिशा में। नाम वार। दिशा में। नाम वार। दिशा में । नाम वार ।दिशा में। शनिवार । पूर्व दिशा में। गुरुवार । दक्षिण दिशा में । मगलवार । पश्चिम दिशा में। रविवार ।उत्तर शुक्रवार । अमिकोण में। बुधवार । नैर्ऋत्य कोण में । सोमवार। वायव्य कोण में। दिशा में। अर्कदग्धा तथा चन्द्रदग्धा तिथियों का वर्णने ॥ अर्कदग्धा तिथियाँ ॥ चन्द्रदग्धा तिथियाँ ॥ सङ्क्रान्ति । तिथि। चन्द्रराशि ।। तिथि। धन तथा मीन की। द्वितीया। वृष और कर्क राशि के चन्द्र में। दशमी। वृष तथा कुम्भ की। चतुर्थी। धन और कुम्भ राशि के चन्द्र में। द्वितीया । मेष तथा कर्क की। पष्ठी। वृश्चिक और कन्या राशि के चन्द्र में। द्वादशी। कन्या तथा मिथुन की। अष्टमी। मीन और मकर राशि के चन्द्र में । अष्टमी । वृश्चिक तथा सिंह की। दशमी। तुल और सिंह राशि के चन्द्र में। पष्ठी। मकर तथा तुल की। द्वादशी। मेष और मिथुन राशि के चन्द्र में। चतुर्थी । इष्ट काल साधन ॥ पहिले कह चुके हैं कि-जन्मकुडली वा जन्मपत्री के बनाने के लिये इष्टकाल का साधन करना अत्यावश्यक होता है, क्योंकि-इस ( इष्टकाल ) के शुद्ध किये विना जन्म १-परदेशादि में गमन करने के समय उक्त सव वातों ( दिशाशूल आदि ) का देखना आवश्यक होता है, इन बातों के ज्ञानार्थ इस दोहे को कण्ठ रखना चाहिये कि-"दिशाशूल ले जावे वाय, राहु योगिनी पूठ ॥ सम्मुख लेवे चन्द्रमा, लावै लक्ष्मी लूट" ॥१॥ इस के सिवाय जन्म के चन्द्रमा में परदेशगमन, तीर्थयात्रा, युद्ध, विवाह, क्षारकर्म अर्थात् मुण्डन तथा नये घर में निवास, ये पाँच कार्य नहीं करने चाहियें ॥ २-अर्कदग्धा तया चन्द्रदग्धा तिथियों में शुभ तया माङ्गलिक कार्य का करना अत्यन्त निषिद्ध है ॥ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ पत्री का फर कभी ठीक नहीं मिल सकता है, इस लिये भर इस विषय का मग से वर्णन किया जाता है - ___ घण्टा पनाने की विधि-एक पटी (घड़ी) के २१ मिनट होते हैं, इस सिले दाई वर्ण ( पड़ी) का एक पण्टा ( अर्थात् ६० मिनट ) होता है, इस रीति से भो रात्र ( रात दिन ) साठ पटी का अर्थात् पोलीस पण्टे का होता है, अब पण्टा मावि मनाने के समय इस बात फा स्पास रखना चाहिये कि-मिसनी पटी और पठ हो उन को २॥ से माग देना चाहिये, क्योकि-इस से पण्टा, मिनट तथा सक्रिय तक मास हो सकते हैं, जैसे-देसो! १५ पटी, २० पल सभा १५ विपठ के पण्टे बनाने १-ये पाँच राम सादे पारह को निकाला तो शेप (बाफी) रहो-११५०१५, मम एक पटी के २५ मिनट हुए तथा ५० पल के-२० राम ५० भर्थात् २० मिनट हुए, इन में के २० मिनट मिलाये तो ११ मिनट हुए तथा १५ विपळ फे-१८ राम १५ भोत् १८ सेक्रिण हुए, इस लिये-१० पटी २० पल तमा १५ विपक के पूरे ५ परे, १५ मिनट तथा १८ सेक्रिम हुए। दूसरी विधि-घटी, पल सभा विपल को विगुण (ना) परके ६० से एम कर ५ का भाग दो, जो सम्म भाये उसे पण्टा समझो, शेप को ६० से गुणा कर तमा पस के मद्दों को मोर कर ५ का माग दो, मो पम्प आये उसे मिनट समझा भोर क्षेप को साठ (२०) से गुणा कर के तमा विपर के भदों को बोड़ कर ५५ माग वो, मो सम्म भावे उसे सेकिण समझो, उवारण-१।२०१५ को नियुप (ना) किया तो २८।१०।९० हुप, इन में से अन्तिम मत ९० में ६० र मात दिया तो सम्म एक माया, इस एक को पड़ में जोड़ा तो २८॥५१॥३० हुए, इन म ५ का माग दिया तो सम्म ५ भाया, ये ही पौष घण्टे हुए, शेष ३ को ६० से गुम्म करके उन में ११ मोरे तो २२१ हुए, इन में ५ का भाग दिया तो सम्म १. हु. हनी को मिनट समझो, शेष एक को ६० से गुणा र उम में ३० ओड़े तो ९० १-मरण ऐ समापे प्रमशाम इस प्रकार से किया भावा-111५ परे म निसान-१३ पापे रोप्र ५ पूरी पति है इस मेस मा दित्सा १५३ ।४५ जानना चाहता ५-पम माम मौर कम्म मावि संशा परी (परी) ही और पर विषय वा निकम्मर मार विपकी सहा है। ३-१४१५ बाकी प में से पहर सवा पहिरो निनों में 10 परिवर पसरे हमपे । पम् ए, इस में योग तो फाइए. स म से परामा तो ५ परे सने 1५Mए इसी प्रवर समगा मामला पाहिये । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए, इन में ५ का भाग बस १४ घड़ी, २० पल सेकिण्ड हुए । पञ्चम अध्याय | ७१७ दिया तो लब्ध १८ हुए, इन्ही को सेकिण्ड समझो, तथा ४५ विपल के ५ घण्टे, ४४ मिनट तथा १८ घटी, पल और सेकिण्ड को ५ गुणा इसी प्रकार यदि घण्टा, मिनट और सेकिण्ड के घटी, पल और विपल बनाने हों तो घण्टा, मिनट और सेकिण्ड को ५ से गुणा कर तथा ६० से चढ़ा कर दो अर्थात् आधा कर दो तो घण्टा मिनट और सेकिण्ड के जावेंगे, जैसे-देखो! इन्हीं ५ घण्टे ; ४४ मिनट तथा १८ किया तो २५।२२०/९० हुए, इन को ६० से चढ़ायां तो २८।४१।३० हुए, इन में दो का भाग दिया ( आघा किया ) तो २४।२०।४५ रहे अर्थात् ५ घुण्टे, ४४ मिनट तथा १८ सेकिण्ड की १४ घटी, २० पल तथा ४५ विपल हुए, यह भी स्मरण रखना चाहिये कि - दो का भाग देने पर जब आघा बचता है तब उस की जगह ३० माना जाता है, जैसे कि -४१ का आधा २०॥ होगा, इस लिये वहॉ आधे के स्थान में ३० समझा जावेगा, इसी प्रकार ढाई गुणा करने में भी उक्त बात का स्मरण रखना चाहिये । इस का एक अति सुलभ उपाय यह भी है कि - घण्टे, मिनट और सेकिण्ड की जब घटी आदि बनाना हो तो घण्टे आदि को दूना कर उस में उसी का आधा जोड़ दो, जैसे - ५।४४।१८ को दूना किया तो १०/८८/३६ हुए, उन में उन्हीं का आधा २ । ५२।९ जोड़े तो १२।१४०/४५ हुए, इन में ६० का भाग दिया तो १४/२०/४० हुए अर्थात् उक्त घण्टे आदि के उक्त दण्ड और पल आदि हो गये ॥ २ का भाग विपल बन से सूर्यास्त काल साधन ॥ पञ्चाङ्ग में लिखे हुए प्रतिदिन के दिनमान के प्रथम ऊपर लिखी हुई क्रिया से घण्टे मिनट और सेकिण्ड बना लेने चाहियें, पीछे उन्हें आधा कर देना चाहिये, ऐसा करने से सूर्यास्तकाल हो जावेगा, उदाहरण –— कल्पना करो कि - दिनमान ३१।३५ है, इन के घण्टे बनाये तो १२ घण्टे तथा ३८ मिनट हुए, इन का आधा किया तो ६।१९ हुए, बस यही सूर्यास्तकाल हुआ अर्थात् सूर्य के अस्त होने का समय ६ बज कर १९ मिनट पर सिद्ध हुआ, इसी प्रकार आवश्यकता हो तो सूर्यास्तकाल के घटे आदि को दूना करके घटी तथा पल बन सकते है अर्थात् दिनमान निकल सकता है | १–पहिले ९० मे ६० का भाग दिया तो लब्ध एक आया, इस एक को २२० मे जोठा तो २२१ हुए, शेष बचे हुए ३० को वैसा ही रहने दिया, अव २२१ मे ६० का भाग दिया तो लब्ध ३ आये, इन ३ को २५ मे जोडा तो २८ हुए, शेष बचे हुए ४१ को वैसा ही रहने दिया, वस २८।४१।३० हो गये ॥ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर पटी और और रात्रिमान का आधा सात नितीन नैनसम्मवासिया॥ सूर्योदय काल के जानने की विधि ॥ १२ में से सूर्यास्तकास के पण्टों और मिनटों को पटा देने से सूदियकाल बन आता है, जैसे-१२ में से ६।१९ को पटामा सो ५।२१ शेप रहे मर्षात् ५ प , ११ मिनट पर सूदिमकाल ठहरा, एवं सूर्यादयकाल के पण्टो भौर मिनटों को दूना पर पटी और पत बनाये तो २८।२५ हुए, मस यही रात्रिमान है, दिनमान का मापा विनार्ष और रात्रिमान का आपा रात्रिमानाप ( राम्य ) होता है तथा दिनमान में रात्रिमानार्म को घोड़ने से रापर्प मर्यात् नितीमसमम होता है, जैसे-१५५१७३० दिना है तथा ११११२३० रात्रिमाना, इस रात्रिमानार्म को (११११२।३० को) दिनमान में बोडारापर्म अर्मात् निधीमा १५१९७२. हुमा । दूसरी क्रिया--१० में से दिनमान को पटा देने से राभिमान बनता है, विन मान में ५ भाग देने से सूर्यास्तकास के पष्टे और मिनट निकमते हैं उभा रातिमान में ५ का भाग देने से सूर्योदयानल मनसा है, जैसे-३११३५ में ५ का भाग रिस तो ६ सम्म हुए, क्षेप बचे हुए एक को ६० से गुमा फर उस में ३५ मोरे तया ५ का माग दिया तो १९ उन्म हुए, बस मही सूर्यास्तकाल हुभा अर्थात् ६।१९ बाख काम सरा, ६० में से दिनमान २१५ को घटामो तो २८।२५ रात्रिमान रहा, त में ५का माग दिया तो ५११ हुप, बस यही सूयिकास बन गया । इष्टकाल विरचन ॥ यदि सूर्यावयकाल से दो पहर के भीतर तक इएकाठ बनाना हो तो सूर्योदयकार को इएसमय के पण्टो भौर मिनटों में से पटा कर दण और पठ कर छो तो मध्यात के भीतर तक का इसफा बन जायेगा, मैसे-पासना करो कि-सोदय फार ६ पर के ७ मिनट तमा १९ सेमिण पर है तो इप्टसमय १० पम के ११ मिनट मा २० सेकिण पर हुमा, क्योंकि भन्सर करने से श१८ घटी भौर पर मादि १०८ १० हुए, बस यही इएका हुमा, इसी प्रकार मध्याह के उपर मिसने घण्टे ध्याद ७५ हो उन की पटी मावि को दिनार्प में मोर देने से दो पहर के ऊपर का एका सूया वय से बन जायेगा। __ सूर्यास्त के पाटे मौर मिनट के उपरान्त तिने पण्टे आदि स्पटीत हुए हो उन का पटी भौर पर मावि को दिनमान में मोर देने से राप्रर्ष तक का फास पन मायेमा । -मरण हे - पपेमबादी म मोरान (नस्तोता . पाने में रीति इस प्रपर आमासमी पाईपे- ५ देखो। मैं पे पाप ये २१ ॥ २५ परमापात ५२ सर मी बर्षात एच में से १५सन सताने २९ से एक नियम मार्फत प्रेमा १८ रक्या वषा सप विषए एक पत्र मा छे . सम ऐ२५ निमम (मयमा ) मे १५पचे पद से॥५ो घमने से १९५० Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७१९ राज्य के उपरान्त जितने घण्टे और मिनट हुए हों उन के दण्ड और पलों को राज्य में जोड देने से सूर्योदय तक का इष्ट बन जावेगा ॥ दूसरी विधि-सूर्योदय के उपरान्त तथा दो प्रहर के भीतर की घटी और पलों को दिनार्ध में घटा देने से इष्ट बन जाता है, अथवा सूर्योदय से लेकर जितना समय व्यतीत हुआ हो उस की घटी और पल बना कर मध्याहोत्तर तथा अर्ध रात्रि के भीतर तक का जितना समय हो उसे दिनार्ध में जोड़ देने से मध्य रात्रि तक का इष्ट बन जावेगा, अथवा सूर्योदय के अनन्तर जितने घण्टे व्यतीत हुए हों उन की घटी और पल बना कर उन्हें ६० में से घटा देने से इष्ट बन जाता है, दिनार्ध के ऊपर के जितने घण्टे व्यतीत हुए हों उन की घटी और पल बना कर उन्हें रानी में घटा देने से राज्य के भीतर का इष्टकाल बन जाता है | लग्न जानने की रीति ॥ जिस समय का लग्न बनाना हो उस समय का प्रथम तो ऊपर लिखी हुई क्रिया से इष्ट बनाओ, फिर-उस दिन की वर्तमान सक्रान्ति के जितने अंश गये हों उन को पञ्चाङ्ग में देख कर लमसारणी में उन्हीं अशों की पति में उस सङ्क्रान्ति वाले कोष्ठ की पति के बराबर ( सामने ) जो कोष्ठ हो उस कोष्ठ के अङ्कों को इष्ट में जोड़ दो और उस सारणी में फिर देखो जहाँ तुम्हारे जोड़े हुए अंक मिले वही लग्न उस समय का जानो, परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि-यदि तुम्हारे जोड़े हुए अङ्क साठ से ऊपर ( अधिक ) हो तो ऊपर के अङ्कों को ( साठ को निकाल कर शेष अङ्कों को ) कायम रक्यो अर्थात् उन अङ्कों में से साठ को निकाल डालो फिर ऊपर के जो अङ्क हों उन को सारणी में देखो, जिस राशि की पति में वे अङ्क मिलें उतने ही अंश पर उसी लग्न को समझो॥ कतिपय महजनों की जन्मकुंडलियाँ अब कतिपय महज्जनों की जन्मकुण्डलियाँ लिखी जाती हैं-जिन की ग्रहविशेषस्थिति को देख कर विद्वज्जन ग्रहविशेषजन्य फल का अनुभव कर सकेंगेःतीर्थकर श्री महावीर स्वामी की जन्मकुण्डली॥ श्री रामचन्द्र जी महाराज की जन्मकुण्डली॥ || १२१. के म60 १ सूबु ७ श (४ रा वृर ७ शनि ४१ सू वु १. म. र १२२ ११ - Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० श्रीकृष्णचन्द्र महाराम की जन्मकुण्डली || " ७. B श्री हुलकर महाराज भी सियाजीरावे बहादुर इन्दोर की जन्मकुण्डली ६११७ ॥ BIC १८. ४. १५. प्यू. बु मैनसम्पदामा || १५ १२ महाराज भी प्रतापसिंह जी बहादुर ईडर की जन्मकुण्डली ॥ १९ १५ ५४ ११म कैसरेहिन्द महारत्नी स्वर्गवासिनी श्री विक्टोरियो की कन्मकुण् मनुस १९ २ के. रा ११गु. स्वर्गवासी महाराज श्री बबन्द्र सिंह जी बहादुर घोषपुर की जन्मकुण्डली ॥ (सू.. क छ. ८८ ५ पु ११ महाराव श्री सिरदारसिंह भी बादर जोधपुर की जन्म कुण्डली ॥ " चे.सू.पु.प्र. १८. १ मं CH. १२५ शुभाशुभ सूचना--बहुत से पुरुषों की जन्मपत्री प्रायः नहीं मिला है बिसका कारण प्रथम लिख चुके हैं कि उन में इसका ठीक रीति से नहीं किया जाता है, इस लिये जिन अन्मपत्रियों का फल न मिता हो उन में taste का गहर समझना नाहिये सभा किसी विद्वान् से उसे ठीक कराना चाहिये, किन्तु ज्योतिःशास १-३४ धाहारी का जन्म के के राजमहल में छन् १४१९ ६ म मात्र की १४८. १५ सेमि हुआ था मेरे संवत् १९१६ मार्तिक कृष्णा १ र ५००५ पर हुआ ३- १८९४ मा ४-१९१५ ३ २१ के समय कम दुआ ५०/५० पर जन्म हुआ १९२६ मत मात्र परि १ शुभवार २११ के समय जन्म हुआ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७२१ पर से श्रद्धा को नही हटाना चाहिये, क्योंकि - ज्योतिःशास्त्र ( निमित्तज्ञान ) कभी मिथ्या नहीं हो सकता है, देखो ! ऊपर जिन प्रसिद्ध महोदयो की जन्मकुण्डलियाँ यहाँ उद्धृत ( दर्ज ) की है उन के लग्नसमय में फर्क का होना कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि इस विद्या के पूर्ण ज्ञाता विद्वानो से इष्टकाल का सशोधन करा के उक्त कुण्डलियाँ बनाबाई गई प्रतीत होती है और यह बात कुण्डलियो के ग्रहो वा उन के फल से ही विदित होती है, देखो! इन कुण्डलियो में जो उच्च ग्रह तथा राज्ययोग आदि पड़े है उन का फल सब के प्रत्यक्ष ही है, बस यह बात ज्योतिप् शास्त्र की सत्यता को स्पष्ट ही बतला रही है । जन्मपत्रिका के फलादेश के देखने की इच्छा रखने वाले जनों को भद्रबाहुसंहिता, जन्माम्भोधि, त्रैलोक्यप्रकाश तथा भुवनप्रदीप आदि ग्रन्थ एवं बृहज्जातक, भावकुतुहल तथा लघुपाराशरी आदि ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थो को देखना चाहिये, क्योकि उक्त ग्रन्थों में सर्व योगो तथा ग्रहों के फल का वर्णन बहुत उत्तम रीति से किया गया है । यहाँ पर विस्तार के भय से ग्रहो के फलादेश आदि का वर्णन नही किया जाता है किन्तु गृहस्थों के लिये लाभदायक इस विद्या का जो अत्यावश्यक विषय था उस का संक्षेप से कथन कर दिया गया है, आशा है कि- गृहस्थ जन उस का अभ्यास कर उस से अवश्य लाभ उठावेंगे ॥ यह पञ्चम अध्याय का ज्योतिर्विषय वर्णन नामक नवाँ प्रकरण समाप्त हुआ || दशवाँ प्रकरण — स्वरोदयवर्णन ॥ OSVEST स्वरोदय विद्या का ज्ञान ॥ विचार कर देखने से विदित होता है कि - खरोदय की विद्या एक बड़ी ही पवित्र तथा आत्मा का कल्याण करने वाली विद्या है, क्योंकि - इसी के अभ्यास से पूर्वकालीन महानुभाव अपने आत्मा का कल्याण कर अविनाशी पद को प्राप्त हो चुके हैं, देखो ! श्री जिनेन्द्र देव और श्री गणधर महाराज इस विद्या के पूर्ण ज्ञाता ( जानने वाले ) थे अर्थात् वे इस विद्या के प्राणायाम आदि सव अङ्गों और उपाङ्गों को भले प्रकार से जानते थे, देखिये ! जैनागम में लिखा है कि-“श्री महावीर अरिहन्त के पश्चात् चौदह पूर्व के पाठी श्री भद्रबाहु स्वामी जब हुए थे तथा उन्हो ने सूक्ष्म प्राणायाम के ध्यान का परावर्त्तन किया था उस समय समस्त सङ्घ ने मिल कर उन को विज्ञप्ति की थी" इत्यादि । १ - भद्रबाहु सहिता आदि ग्रन्थ जैनाचार्यों के बनाये हुए हैं ॥ २-वृहज्जातक आदि ग्रन्थ अन्य ( जैनाचार्यों से भिन्न ) आचार्यों के बनाये हुए हें ॥ ९१ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ चैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ इतिहास के अवसोकन से पिवित होता है कि-बैनापार्य भी हेमचन्द्र सूरि नी सा वादा साहिस भी जिनदत परि जी आदि अनेक चैनाचार्य इस विपा के पूरे बम्बासी मे, इस फे मतिरिक-पोडी घतान्दी के पूर्ष आनन्दपन बी महाराम, विवानन्द (कपूरचन्द ) मी महाराज तथा शानसार ( नारायण जी महारान आदि परे २ अध्यात्म पुरुप हो गये है पिन फे बनाये हुए मन्त्रों देसने से निदिस होता है किमात्मा के फरत्याग कम्येि पूर्व काल में साधु लोग योगाभ्यास का सून पर्चान परते थे, परन्तु मम सो कई कारणों से पा म्यबहार नहीं वेसा माता है, पयोधि-मबम वा अनेक कारणों से शरीर की कि फम हो गई है, पूसरे-धर्म मा अदा घटने कमी है, तीसरे-साधु लोग पुसकादि परिमह के कहे करने में भौर अपनी मानमहिमा में ही साधुस्व ( साघुपन ) समझने को है, पौगे-सोम ने भी कुछ २ उन पर मफ्ना पजा फेला दिया है, कहिये मम सरोदयज्ञान का झगड़ा फिसे अच्छा लगे कि यह कार्य वो लोमरहित सभा भास्मशानियों का है किन्तु यह कह देने में भी भस्थति न होगी कि मुनियों के भास्मकस्माण का मुख्य मार्ग यही है, भन मह दूसरी पाता विरे ( मुनि ) अपने पास्मकल्याण का मार्ग छोड़ कर भज्ञान सांसारिक जनों पर मपन योग के द्वारा ही अपने साधुत्व को प्रकट करें । ___माणायाम योग की वश ममि है, गिन में से पहिली भूमि ( मज) सरोदवसान ही है, इस के अभ्यास के द्वारा बरे २ गुप भेदों' को मनुष्य सुगमतापूर्वक ही बान सकते हैं तथा मास से रोगों की भोपभि भी कर सकते हैं। स्वरोदय पद का सम्वा श्वास का निकाम्ना है, इसी सिमे इस में केजर भास की पहिचान की जाती है और नाकपर हाभ के रखतेपी गुप्त पाने का रास चिप सामने भा यावा हे समा भनेक सिद्धिया उत्पम होती हैं परन्तु या ए निमम हा इस विधा का अभ्यास ठीक रीति से गदसों से नहीं हो सकता है, क्योंकि मबम वा पह विपर भति कठिन है अर्थात् इस में अनेक सापनों की मावश्मकता होती है, पर इस पिपा केमो प्रन्म हैं उन में इस विपय का अवि कठिनता के साथ तमा भवित क्षेप से वर्णन किया गया हैबो सर्व साधारण की समझ में नहीं आ सकता है। वासर इस विपा के ठीक रीति से मानने वाले वमा दूसरों को सुगमता के साम भन्मास । सपने पाले पुरुप पिरछे ही सानों में से माते हैं, फेवल यही कारण कि माम: में इस विधा के मम्यास करने की इच्छा वाले पुरुप उस में मच हो कर गम हान । १-मोमाम्पस प्र विशेष वर्गम रेम्प होतो माग गोम एस वपा बोषवार भान प्रमाको देना चाहिप १-हिमे ए एसों मासानी से ४-वजारका ५-आगामी -स्सर वा म्मा हुमा म Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय | ७२३ बदले अनेक हानियाँ कर बैठते है, अस्तु, - इन्ही सब बातों को विचार कर तथा गृहस्थ जनों को भी इस विद्या का कुछ अभ्यास होना आवश्यक समझ कर उन ( गृहस्थों ) से सिद्धे हो सकने योग्य इस विद्या का कुछ विज्ञान हम इस प्रकरण में लिखते है, आशा है कि- गृहस्थ जन इस के अवलम्बेन से इस विद्या के अभ्यास के द्वारा लाभ उठावेंगे, क्योंकिइस विद्या का अभ्यास इस भव और पर भव के सुख को निःसन्देह प्राप्त करा सकता है ॥ स्वरोदय का स्वरूप तथा आवश्यक नियम ॥ १–नासिका के भीतर से जो श्वास निकलता है उस का नाम खर है, उस को स्थिर चित्त के द्वारा पहिचान कर शुभाशुभ कार्यों का विचार करना चाहिये । २- खर का सम्बन्ध नाड़ियों से है, यद्यपि शरीर में नाडियाँ बहुत है परन्तु उन में से २४ नाड़ियाँ प्रधान हैं तथा उन २४ नाडियों में से नौ नाड़ियाँ अति प्रधान हैं तथा उन नौ नाडियों में भी तीन नाड़ियाँ अतिशय प्रधान मानी गई है, जिन के नामइङ्गला, पिङ्गला और सुषुम्ना ( सुखमना ) है, इन का वर्णन आगे किया जावेगा । ३–स्मरण रखना चाहिये कि - भौओं ( भवारों ) के बीच में जो चक्र है वहॉ से श्वास का प्रकाश होता है और पिछली बक नाल में हो कर नाभि में जा कर ठहरता है । ४ - दक्षिण अर्थात् दाहिने ( जीमणे ) तरफ जो श्वास नाक के द्वारा निकलता है उस को इङ्गला नाडी वा सूर्य स्वर कहते है, वाम अर्थात् बायें ( डावी ) तरफ जो श्वास नाक के द्वारा निकलता है उस को पिङ्गला नाडी वा चन्द्र स्वर कहते हैं तथा दोनों तरफ ( दाहिने और बायें तरफ अर्थात् उक्त दोनों नाडियों ( दोनों खरों ) के बीच में अर्थात् दोनों नाड़ियों के द्वारा जो खैर चलता है उस को सुखमना नाड़ी (खर ) कहते है, इन में से जब बायॉ स्वर चलता हो तब चन्द्र का उदय जानना चाहिये तथा जब दाहिना खर चलता हो तब सूर्य का उदय जानना चाहिये । १ - जरूरी ॥ २- सफल वा पूरा ॥ ३- प्रत्येक मनुष्य जब श्वास लेता है तब उस की नासिका के दोनों छेदों में से किसी एक छेद से प्रचण्डतया ( तेजी के साथ ) श्वास निकलता है तथा दूसरे छेद से मन्दतया ( धीरे २ ) श्वास निकलता है अर्थात् दोनों छेदों में से समान श्वास नहीं निकलता है, इन मे से जिस तरफ का श्वास तेजी के साथ अर्थात् अधिक निकलता हो उसी खर को चलता हुआ खर समझना चाहिये, दाहिने छेद में से जो वेग से श्वास निकले उसे सूर्य स्वर कहते हैं, वायें छेद मे से जो अधिक श्वास निकले उसे चन्द्र खर कहते हैं तथा दोनों छेदों में से जो समान श्वास निकले अथवा कभी एक में से अधिक निकले और कभी दूसरे से अधिक निकले उसे सुखमना स्वर कहते हैं, परन्तु यह ( सुखमना ) स्वर प्राय उस समय में चलता है जव कि खर वदलना चाहता है, अच्छे नीरोग मनुष्य के दिन रात में घण्टे घण्टे भर तक चन्द्र स्वर और सूर्य खर अदल बदल होते हुए चलते रहते हैं परन्तु रोगी मनुष्य के यह नियम नहीं रहता है अर्थात् उस के खर में समय की न्यूनाधिकता ( कमी ज्यादती ) भी हो जाती है ॥ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० चैनसम्मवायशिया ।। ५-चीवन और सिर कार्यों को चन्द्र सर में करना चाहिये, वैसे-नये मन्दिर मनवाना, मन्दिर की मी का खदाना, मूर्वि की प्रतिष्ठा करना, मूग नायक की मति ने सापित करना, मन्दिर पर दण्ड समा कसम का चढ़ाना, उपामय (उपासरा । पसाला, दानशाम, विपाष्ठामा पुस्तकाम्म, पर ( मचम), होट, माण, गा मौर भेट का पनवाना, सच की माला र पहिराना, दान देना, दीक्षा देना, यमोपलीस देना, नगर में प्रवेश करना, नये मकान में प्रवेश करना, कपड़ो मौर माम्पों ( गहनों) फा कराना भयवा मोड मेना, नमे गहने मौर कपड़े का पहरना, अधिकार मन, मोपपि का बनाना, खेती करना, बाग बगीचे का गाना, राजा पादि बरे पुरुषों से मित्रता करना, राज्यसिंहासन पर पेठना वमा योगाभ्यास करना इस्पादि, ताप यह है कि ये सय कार्य पन्द्र सर में करने चाहिये क्योंकि पन्द्र खर में किये हुए उक भर्य फस्पापकारी होते हैं। ६-र मौर पर भर्यों को सूर्य स्तर में करना चाहिये, मेसे-विषा के सीसने म प्रारम्म करना, ध्यान सापना, मम तमा देव की भारापना फरना, राणा या हाकिम को भी देना, पकाळत वा मुस्तस्पारी छेना, वैरी से मुकायम करना, सर्प रे का वमा भूत का उतारना, रोगी को दवा देना, विम का शान्त करना, करी मीभ उपाय करना, हाथी, घोड़ा तमा सवारी (पग्मी रप भादि) सेना, मोबन करना, मान करना, सी को पासवान देना, मई वहीं से मिलना, पापार करना, राजा खम् से मनाई करने को वाना, जहाज मा ममि नोट को दर्याव में बसाना, मेरी मकान में पैर रसना, नदी भादि के बस में वैरमा वमा किसी को रुपये उपर देना मासेमा इत्यादि, तात्पर्य यह है कि ये सब कार्य पूर्य खर में करने चाहिने, पाकि सूर्य स्वर में किये हुए उस कार्य सफल होते हैं। -मिस समय पम्सा २ एक स्वर रुक कर दूसरा सर बदल्ने को होगा रे मार मप चन्द्र खर बदल कर सूर्य सर होने को होता है भगवा सूर्य सर बदल कर पन्द्र सर होने को होता है उस समय पाप सात मिनट तक दोनों सर पम्ने उगते हैं उसी का पुसमना सर करते हैं, इस (सुलमना) स्वर में कोई काम नहीं करना पारस, क्योंकि इस सर में किसी काम करने से बह निष्फल होता है तथा उस से भामा उत्पन होता है। वा है। 1-स में भी बसवत्त भार पूपिणी वत्त ऐमा भति भो ५-8 पर्षात् एप्रन । २-इस में भी वियवत्व भौर पर पालम ऐन भविभेड Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय || ७२५ ८- कृष्ण पक्ष ( अँधेरे पक्ष ) का खामी ( मालिक ) सूर्य है और शुक्ल पक्ष ( उजेले पक्ष ) का स्वामी चन्द्र है । ९- कृष्ण पक्ष की प्रतिपद् ( पड़िवा ) को यदि प्रातःकाल सूर्य खर चले तो वह पक्ष बहुत आनन्द से बीतता है । १० - शुक्ल पक्ष की प्रतिपद् के दिन यदि प्रातःकाल चन्द्र स्वर चले तो वह पक्ष भी बहुत सुख और आनन्द से बीतता है । ११- यदि चन्द्र की तिथि में ( शुक्ल पक्ष की प्रतिपद् को प्रातःकाल ) सूर्य खर चले तो क्लेश और पीड़ा होती है तथा कुछ द्रव्य की भी हानि होती है । १२- सूर्य की तिथि में ( कृष्ण पक्ष की प्रतिपद् को प्रातः काल ) यदि चन्द्र खर चले तो पीडा, कलह तथा राजा से किसी प्रकार का भय होता है और चित्त में चञ्चलता उत्पन्न होती है । १३–यदि कदाचित् उक्त दोनों पक्षों ( कृष्ण पक्ष दिन प्रातःकाल सुखमना खर चले तो उस मास में हानि ही रहते हैं । और शुक्ल पक्ष ) की पड़िया के और लाभ समान ( बराबर ) १४ - कृष्ण पक्ष की पन्द्रह तिथियों में से क्रम २ से तीन २ तिथियाँ सूर्य और चन्द्र की होती हैं, जैसे- पड़िया, द्वितीया और तृतीया, ये तीन तिथियाँ सूर्य की हैं, चतुर्थी, पञ्चमी और षष्ठी, ये तीन तिथियाँ चन्द्र की है, इसी प्रकार अमावास्या तक शेष तिथियों में भी समझना चाहिये, इन में जब अपनी २ तिथियों में दोनों ( चन्द्र और सूर्य ) खर चलते हैं तब वे कल्याणकारी होते हैं । १५-शुक्ल पक्ष की पन्द्रह तिथियों में से क्रम २ से तीन २ तिथियाँ चन्द्र और सूर्य की होती हैं अर्थात् प्रतिपद्, द्वितीया और तृतीया, ये तीन तिथियाँ चन्द्र की है तथा चतुर्थी, पञ्चमी और षष्ठी, ये तीन तिथियाँ सूर्य की हैं, इसी प्रकार पूर्णमासी तक शेष तिथियों में भी समझना चाहिये इन में भी इन दोनों ( चन्द्र और सूर्य ) खरों का अपनी २ तिथियों में प्रात काल चलना शुभकारी होता है । १६- वृश्चिक, सिंह, वृष और कुम्भ, ये चार राशियाँ चन्द्र खर की हैं तथा ये ( राशियाँ ) स्थिर कार्यों में श्रेष्ठ हैं । १७-कर्क, मकर, तुल और मेष, ये चार राशियाँ सूर्य स्वर की हैं तथा ये ( राशियाँ ) चर कार्यों में श्रेष्ठ है । १८ - मीन, मिथुन, धन और कन्या, ये सुखमना के द्विखभाव लग्न हैं, इन में कार्य के करने से हानि होती है । Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ नसम्प्रदायशिक्षा ॥ १९-उस पारह राशियों से बारह महीने भी जान मेमे चाहि मात् ऊमर मिती मो सट्टान्ति लगे वही सूर्म, पन्द्र और मुसमना के महीने समझने पाहिमें । २०-यदि कोई मनुष्य अपने किसी कार्य के लिये प्रभ करने को बारे मा अपने सामने पायें सरफ अश्या ऊपर ( उचा) ठवर कर प्रभ करे और उस समय भपन पन्द्र खर पसता हो तो कर देना चाहिये कि-तेरा कार्य सिद्ध होगा। २१-मवि मपने नीचे, अपमे पीछे अथवा वाहिने तरफ सगा राकर भई प्रय परे और उस समय अपना सूर्य सर पछता हो सो भी का ऐना पाहिमे कि-तेरा कार सिद्ध होगा। २२-यदि कोई दाहिने तरफ सड़ा होकर प्रम परे और उस समय भपना सूर्य कर चमता हो तमा सम, बार और तिमि का मी सर योग मिल जाये तो कर देना पाहिल फि-वेरा कार्य भवश्य सिद्ध होगा। २३-पवि मम परमे माग दाहिनी तरफ साहो फर वा बैठ कर मम परे भोर उस समय भपना चन्द्र सर पग्ता हो सो सूर्य की विधि मौर वार के बिना पा शून्न (साग) विद्या का प्रभ सिद्ध नहीं हो सकता है। २१-पदि कोई पीछे सरा हो कर प्रम करे भौर उस समय मपना पम्न सर पत्ता हो सो कर देना चाहिये कि-कार्य सिर नहीं होगा। २५-यदि कोइ पाई तरफ सा हो पर प्रभ करे तथा उस समम मपन्न पूर्व सर पस्ता हो तो पन्द्र योग सर के विना पर कार्यसिद्ध नहीं शेगा। २६-इसी प्रकार मदि कोई भपने सामने अपना अपने से उपर (ऊँचा) सहारा कर मभ परे सभा उस समय अपना सूर्य पर पम्ता हो सो पन्द्र लर सब पापा । मिठे विमा मह कार्य कभी सिद्ध नहीं होगा। स्वरों में पाँचों तत्वों की पहिचान ॥ उप दोनों (पन्ध्र भौर सूर्य ) सरों में पाप तस्य भम्ने सबा उन ( तता का रंग, परिमाण, भामर मोर पण मी विक्षेप होता है, इस लिये सरोदमान : इस पिपय का भी बान सेना मस्याश्यक, गोंकि जो पुरुष इन के विधान : भएछे मचार से समझ सा उस फी वही हुइ पात अवश्य मिसती है, इस भप इन विपय में भापमा पर्णन परवे - १-मास पर भी समाप्रपामी मूर्य बरपा होम उप पुर र का मामी बगमारा १-पास गरी । मरमरों Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७२७ १ – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, ये पॉच तत्त्व है, इन में से प्रथम दो का अर्थात् पृथिवी और जल का स्वामी चन्द्र है और शेष तीनों का अर्थात् अग्नि, वायु और आकाश का स्वामी सूर्य है । २ - पीला, सफेद, लाल, हरा और काला, ये पाँच वर्ण ( रंग ) क्रम से पाँचों तत्त्वों के जानने चाहियें अर्थात् पृथिवी तत्त्व का वर्ण पीला, जल तत्त्व का वर्ण सफेद, अनि तत्त्व का वर्ण लाल, वायु तत्त्व का वर्ण हरा और आकाश तत्त्व का वर्ण काला है । ३–पृथिवी तत्त्व सामने चलता है तथा नासिका ( नाक ) से वारेह अङ्गुल तक दूर जाता है और उस के खर के साथ समचौरस आकार होता है । ४ - जल तत्त्व नीचे की तरफ चलता है तथा नासिका से सोलह अङ्गुल तक दूर जाता है और उस का चन्द्रमा के समान गोल आकार है । ५- अग्नि तत्त्व ऊपर की तरफ चलता है तथा नासिका से चार अङ्गुल तक दूर जाता है और उस का त्रिकोण आकार है । ६ - वायु तत्त्व टेढ़ा ( तिरछा ) चलता है तथा नासिका से आठ अङ्गुल तक दूर जाता है और उस का ध्वजा के समान आकार है । ७-आकाश तत्त्व नासिका के भीतर ही चलता है अर्थात् दोनों खरों में ( सुखमना ) खर में ) चलता है तथा इस का आकार कोई नहीं है ' । २ ८-एक एक ( प्रत्येक ) खर ढाई घड़ी तक अर्थात् एक घण्टे तक चला करता है और उस में उक्त पाँचों तत्त्व इस रीति से रात दिन चलते है कि - पृथिवी तत्त्व पचास पल, जल तत्त्व चालीस पल, अग्नि तत्त्व तीस पल, वायु तत्त्व बीस पल और आकाश तत्त्व दश पलै, इस प्रकार से तीनो नाड़ियाँ ( तीनो खर ) उक्त पाँचो तत्त्वों के साथ दिन रात ( सदा ) प्रकाशमन रहती हैं ॥ पाँचों तत्वों के ज्ञान की सहज रीतियाँ ॥ १- पाच रंगो की पाँच गोलियाँ तथा एक गोली विचित्र रंग की वना कर इन छवो गोलियों को अपने पास रख लेना चाहिये और जब बुद्धि में किसी तत्त्व का विचार १ - नाक पर अगुलि के रखने से यदि श्वास तत्त्व समझना चाहिये, इसी प्रकार शेष तत्वों के २–क्योंकि आकाश शून्य पदार्थ है ॥ ३--सब मिला कर १५० पल हुए, सो ही ढाई घडी वा एक घण्टे के १५० पल होते है | ४- 'प्रकाशमान' अर्थात् प्रकाशित ॥ बारह अगुल तक दूर जाता हुआ ज्ञात हो तो पृथिवी परिमाण के विषय में समझना चाहिये ॥ ५-पॉच रंग वे ही समझने चाहिये जो कि पहिले पृथिवी आदि के लिख चुके हैं अर्थात् पीला, सफेद, लाल, हरा और काला ॥ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ बैनसम्प्रदायशिक्षा फरना हो उस समय उन छपों गोसियों में से किसी एक गोगी को मात्र मीपर रख लेना पाहिये, यदि बुद्रि में विचारा हुमा वमा गोली का रंग एक मिन बार व धान सेना पाहिये कि-उत्त्व मिझने लगा है। २-भवा-किसी दूसरे पुरुष से कहना चाहिये कि-तुम किसी रग का विचार हो, चन या पुरुष अपने मन में किसी रंग का विचार कर के उस समय अपने माफ सर में तत्व को देखना चाहिये तमामपने उत्त्व को विरार पर उस पुरुष के विचार हुए रंग को मतगना पाहिये कि सुमने अमुफ फलाने ) रंग का विचार पिया मा, भाव उस पुरुप का विचारा हुभा रंग ठीक मिठ बावे तो भान ना पाहिमे कि-तत्व मिम्वा है। ३-मयमा काम अर्थात् वर्पम को अपने ओप्पो (होठों ) के पास उगा कर उस के उपर बलपूर्वक नाक का भासरना चाहिये, ऐसा करने से उस पंप पर बेस भाार पपिए हो गाये उसी भाभर को पहिसे पिसे हुए तत्तों के मानर से मिमना पाहिये, निस प्रत्व के भाकार से यह भाकार मिल मावे उस समय वही तत्त्व समप्रना चाहिये। १-भयना-दोनों माटों से दोनों कानों को, दोनों तर्जनी अहरियों से दोनों माता को भौर दोनों मप्पमा मारियों से नासिका के दोनों सियों को बन्द कर के लोर दाना भमामि तमा दोनों कनिष्ठिा मारियों से (पारो पालियों से) भोमे को मर मी से सूब वापसे, यह कार्य करके पाम पिस से गुरु की पनाई हुई रीति समा को अकुटी में हे पाये, उस जगा पैसा और मिस रंग का बिन्दु मासूम पर पा सत्त्व मानना चाहिये। ५-ऊपर भी ई रीतियों से मनुष्य को कुछ दिन व तत्वों न सापन करा पाहिये, क्योंकि इस दिन के सम्मास से मनुष्य ने पत्तों का ज्ञान हाने म्गता. पौर सलों का शान होने से वा पुरुष प्रार्य मौर शुमाशुम भावि होने या भाषा को धीम ही मान सकता है। स्वरों में उदित हुए तत्वों के द्वारा वर्षफल जानने की रीति ।। ममी कह चुके हैं कि-पौधों तलों का धान हो जाने से मनुष्य होने वार शुभाशुभ आदि समकायों को जान सकता है, इसी नियम अनुसार बह उछ पाँचौ उता के द्वारा वर्ष में होने वाले शुभाशुम फर को भी मान सकता है, उसके मानने से निमगिसिस रीतियों - १-जिस समय मे की संक्रान्सि सगे उस समय भास को टकरा कर लर में कम पाने सस्त को देखना चाहिये, यदि पन्द्र स्वर में प्रयिमी वम पन्ना हो तो बान Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७२९ लेना चाहिये कि-ज़माना बहुत ही श्रेष्ठ होगा अर्थात् राजा और प्रजाजन सुखी रहेंगे पशुओं के लिये घास आदि बहुत उत्पन्न होगी तथा रोग और भय आदि की शान्ति रहेगी, इत्यादि । २- यदि उस समय ( चन्द्र स्वर में ) जल तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि बर्सात बहुत होगी, पृथिवी पर अपरिमित अन्न होगा, प्रजा सुखी होगी, राजा और प्रजा धर्म के मार्ग पर चलेंगे, पुण्य, दान और धर्म की वृद्धि होगी तथा सब प्रकार से सुख और सम्पत्ति बढ़ेगी, इत्यादि । ३ - यदि उस समय सूर्य स्वर में पृथिवी तत्त्व और जल तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि कुछ कम फल होगा । ४- यदि उक्त समय में दोनो खरों में से चाहे जिस स्वर में अग्नि तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि - बर्सात कम होगी, रोगपीड़ा अधिक होगी, दुर्भिक्ष होगा, देश उजाड़ होगा तथा प्रजा दुःखी होगी, इत्यादि । ५ - यदि उक्त समय में चाहे जिस खर में वायु तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि-राज्य में कुछ विग्रह होगा, बर्सात थोड़ी होगी, जमाना साधारण होगा तथा पशुओं के लिये घास और चारा भी थोड़ा होगा, इत्यादि । ६- यदि उक्त समय में आकाश तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि - बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ेगा तथा पशुओं के लिये घास आदि भी कुछ नहीं होगा, इत्यादि । वर्षफल के जानने की अन्य रीति ॥ १- यदि चैत्र सुदि पड़िवा के दिन प्रातःकाल चन्द्र खर में पृथिवी तत्त्व चलता हो तो यह फल समझना चाहिये कि - वर्षा बहुत होगी, जमाना श्रेष्ठ होगा, राजा और प्रजा में सुख का सञ्चार होगा तथा किसी प्रकार का इस वर्ष में भय और उत्पात नही होगा, इत्यादि । २- यदि उस दिन प्रातःकाल चन्द्र खर में जल तत्त्व चलता हो तो यह फल समझना चाहिये कि यह वर्ष अति श्रेष्ठ है अर्थात् इस वर्ष में बर्सात, अन्न और धर्म की अतिशय वृद्धि होगी तथा सब प्रकार से आनन्द रहेगा, इत्यादि । ३–यदि उस दिन प्रातःकाल सूर्य खर में पृथिवी अथवा जल तत्त्व चलता हो तो मध्यम अर्थात् साधारण फल समझना चाहिये । ४–यदि उस दिन प्रातःकाल चन्द्र खर में वा सूर्य स्वर में शेष ( अग्नि, वायु और आकाश ) तीन तत्त्व चलते हों तो उन का वही फल समझना चाहिये जो कि पूर्व मेष सङ्क्रान्ति के विषय मे लिख चुके है, जैसे- देखो ! यदि सूर्य खर में अग्नि तत्त्व चलता हो ९२ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० जैनसम्प्रदामशिक्षा || तो जानना चाहिये कि - प्रवा में रोग और चोक होगा, दुर्भिक्ष चिप में चैन नहीं रहेगा इत्यादि, यदि सूर्य खर में वायु तत्व चाहिये कि राज्य में कुछ विग्रह होगा और वृष्ठि योगी होगी सुखमना पढता हो तो जानना चाहिये कि मपनी ही मृत्यु होगी और छत्रम होगा तथा कहीं २ गोड़े मन व पास मावि की उत्पत्ति होगी और कहीं २ बिलकुल नहीं होगी, इस्मादि ॥ पड़ेगा तथा राजा के क्या हो तो समन्य तथा यदि सूर्य स्वर में वर्षफल जानने की तीसरी रीति ॥ १--यदि मान सुवि सप्तमी को भगवा अक्षयतृतीया को मातःकाल चन्द्र स्वर में पृथिवी तत्स्व या वस्त्र तत्व भलता हो सो पूर्व कहे अनुसार श्रेष्ठ फल जानना चाहिये । २ यदि उक्त दिन प्राप्ता यमि आदि सीन तत्त्व धरूसे हों तो पूर्व कहे अनुसार निकृष्ट फल समझना चाहिये । ३-यदि उक्त दिन मातःकाळ सूर्य स्वर में पृथिवी तत्त्व और वह तस्य चकता हो यो मध्यम फळ मर्यात् साधारण फल जानना चाहिये । ४–यदि उक्त दिन प्रातःकाल शेष तीन तत्व भरते हो वो उन का फल भी पूर्व कहे अनुसार मान लेना चाहिये || अपने शरीर, कुटुम्ब और घन आदि के विचार की रीति ॥ १ यदि चैत्र सुवि पड़िया के दिन माव काल चन्द्र तर न चता हो तो जानना चाहिये कि-सीन महीने में इवन में बहुत चिन्ता और केस उत्पन्न होगा । सेना २-वि चैत्र सवि द्वितीया के दिन मास कास चन्द्र स्वर न पता हो सो मान चाहिये कि -परदेश में जाना पड़ेगा और वहाँ अधिक दुख भोगना पड़ेगा । १- यदि चैत्र सुदि सीमा के दिन माताका चन्द्र स्वर न चष्म्या हो तो जानना चाहिये कि शरीर में गर्मी पिचन्नर तथा रक्तविकार भादि का रोग होगा । ४-यदि चैत्र सुदितुर्थी के दिन प्रातःकाळ चन्द्र स्वर न बसा हो तो जानना चाहिये कि मौ महीने में मृत्यु होगी । ५- पवि चैत्र सुदिपश्चमी के दिन मास का चन्द्र स्तर न पता हो तो जानना चाहिये कि राज्य से किसी मकार की तकलीफ तथा दण्ड की प्राप्ति होगी । ६-यदि चैत्र सुदिपष्ठी (छठ) के दिन मास का पन्द्र खर न पता हो तो जानना चाहिये कि इस वर्ष के अन्दर ही माई की मृत्यु होगी । ७ – यदि चैत्र सुदि सप्तमी के दिन प्रात काम चन्द्र र म जस्ता हो तो जानना चाहिये कि इस वर्ष में अपनी भी मर जावेगी । Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय ।। ७१३ ८-यदि चैत्र सुदि अष्टमी के दिन प्रातःकाल चन्द्र स्वर न चलता हो तो जानना चाहिये कि-इस वर्ष में कष्ट तथा पीड़ा अधिक होगी अर्थात् भाग्ययोग से ही सुख की प्राप्ति हो सकती है, इत्यादि। ९-इन के सिवाय-यदि उक्त दिनों में प्रातःकाल चन्द्र स्वर में पृथिवी तत्त्व और जल तत्त्व आदि शुभ तत्त्व चलते हों तो और भी श्रेष्ठ फल जानना चाहिये ॥ , पाँच तत्वों में प्रश्न का विचार ॥ १-यदि चन्द्र स्वर में पृथिवी तत्त्व वा जल तत्त्व चलता हो और उस समय कोई किसी कार्य के लिये प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-अवश्य कार्य सिद्ध होगा। २-यदि चन्द्र खर में अग्नि तत्त्व वा वायु तत्व चलता हो अथवा आकाश तत्त्व हो और उस समय कोई किसी कार्य के लिये प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-कार्य किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होगा। ___३-स्मरण रखना चाहिये कि-चन्द्र खर में जल तत्त्व और पृथिवी तत्व स्थिर कार्य के लिये अच्छे होते हैं परन्तु चर कार्य के लिये अच्छे नहीं होते हैं और वायु तत्त्व; अमि तत्त्व और आकाश तत्त्व, ये तीनों चर कार्य के लिये अच्छे होते हैं, परन्तु ये भी सूर्य खर में अच्छे होते है किन्तु चन्द्र खर में नहीं। ___४-यदि कोई पुरुष रोगिविषयक प्रश्न को आकर पूछे तथा उस समय चन्द्र खर में पृथिवी तत्त्व वा जल तत्त्व चलता हो और प्रश्न करने वाला भी उसी चन्द्र खर की तरफ ही (बाई तरफ ही ) बैठा हो तो कह देना चाहिये कि-रोगी नहीं मरेगा। ५-यदि चन्द्र स्खर बन्द हो अर्थात् सूर्य खर चलता हो और प्रश्न करने वाला बाई तरफ बैठा हो तो कह देना चाहिये कि-रोगी किसी प्रकार भी नहीं जी सकता है। ६-यदि कोई पुरुष खाली दिशौ में आ कर प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-रोगी नहीं बचेगा, परन्तु यदि खाली दिशा से आ कर भरी दिशा में बैठ कर ( जिधर का स्वर चलता हो उधर बैठ कर ) प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-रोगी अच्छा हो जावेगा। ७-यदि प्रश्न करते समय चन्द्र खर में जल तत्त्व वा पृथिवी तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि रोगी के शरीर में एक ही रोग है तथा यदि प्रश्न करने के समय चन्द्र स्वर में अग्नि तत्त्व आदि कोई तत्त्व चलता हो तो जान लेना चाहिये कि-रोगी के शरीर में कई रोग मिश्रित ( मिले हुए ) है । १-चर और स्थिर कार्यों का वर्णन सक्षेप से पहिले कर चुके हैं। २-रोगी के विषय में॥ ३-जिघर का खर चलता हो उस दिशा को छोड कर सर्व दिशाय खाली मानी गई है। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ जैनसम्प्रवानशिक्षा || ८-यदि मभ करते समय सूर्य स्वर में अभिः मायु अथवा माकाश तत्त्म चक्ता हो वो जान लेना चाहिये कि रोगी के शेरीर में एक ही रोग है परन्तु यदि प्रभ करते समय सूर्य खर में पृथिनी तत्त्व वा जल तत्त्व छता हो तो मान खेना चाहिये कि रोगी के शरीर में कई मिश्रित ( मिले हुए) रोग हैं। ९ - स्मरण रखना चाहिये कि वायु और पिच का स्वामी सूर्य है, कफ का खामी त्र है तथा समिपात का स्वामी सुखमना है I १० यदि कोई पुरुष बसे हुए स्वर की तरफ से या कर उसी ( चलते हुए ) तर की तरफ खड़ा हो कर वा बैठ कर प्रभ करे तो कह देना चाहिये कि तुम्हारा काम भ्रमम सिद्धं होगा । ११- मंदि काई पुरुष स्वासी स्वर की तरफ से आकर उसी (स्वाती) खर की तरफ खड़ा हो कर वा बैठ कर प्रभ करे तो कह देना चाहिये कि तुम्हारा कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होगा । १२ – यदि कोई पुरुष खाली स्वर की तरफ से भा कर चखते स्वर की तरफ सड़ा हो कर ना बैठ कर मन करे तो कह देना चाहिये कि तुम्हारा कार्य निस्सन्देह सिद्ध होगा । ११- यदि कोई पुरुष चमते हुए खर की तरफ से आ कर स्वामी स्वर की तरफ खड़ा हो कर या बैठ कर मन करे तो कह देना चाहिये कि तुम्हारा कार्य सिद्ध नहीं होगा । १४- यदि गुरुवार को वायु तत्व, घनिवार को भाकाल तस्य, बुधवार को पृथिवी तत्व सोमवार को भस तत्त्व सभा शुक्रवार को यमितत्त्व मातः काल में भछे सो बान ना चाहिये कि घरीर में जो कोई पहिले का रोग है वह अवश्य मिट जावेगा ॥ १६ शरीर में उदान प्राण व्याप सम्मान और पान नामक पाँचमा है, मेधा विपरीत काम पाण ऊपरी कुपथ्य तय विपरीत व्यवहार से कुपित होकर अनेक रोगों को उत्पन्न करते है (जिनका दर्षन पोधे ममान में कर चुके है शरीर में पाचक, भाजक रक्षक आमेषक और सामक गायक याच पिच है, वे पिस चरपरे टीके कई मिर्च भावि धर्म चीजों के सेक खूप काम कर मैथुन आणि विपरीत व्यवहार से कुपित हो कर फीस प्रकार के रोकों को पत्र करते हैं, एवं करीर में भगम्यम से रसम सेहन और पण नामक पाँच कफ है, वे मीठे बहुत चित्र बासेन के सम भाले के खान पान से दिन में सरेमा परिभ्रम न करता ता सेय और मैयों पर बैठे रहना नाविपरीत महार से कुपित होकर बीस प्रकार के रोगों को उत्तर करते हैं, परन्तु जब विरूद्ध बार और बिहार से ये दोनों क्षेष कुपित हो जाते है वन सचिव रोग होकर मामियों की मृत्यु से बहु २- पूर्ण सफल ४- बृहस्पतिवार ॥ है 1-ना सम्देह के मा Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ स्वरों के द्वारा परदेशगमेन का विचार || १ - जो पुरुष चन्द्र खर में दक्षिण और पश्चिम दिशा में परदेश को जावेगा वह परदेश से आ कर अपने घर में सुख का भोग करेगा । २ - सूर्य खर में पूर्व और उत्तर की तरफ परदेश को जाना शुभकारी है । ३ - चन्द्र खर में पूर्व और उत्तर की तरफ परदेश को जाना अच्छा नही है । ४ - सूर्य स्वर में दक्षिण और पश्चिम की तरफ परदेश के जाना अच्छा नही है । ५-ऊर्ध्व ( ऊँची ) दिशा चन्द्र खर की है इस लिये चन्द्र खर में पर्वत आदि ऊर्ध्व दिशा में जाना अच्छा है । ६- पृथिवी के तल भाग का स्वामी सूर्य है, इस भाग में ( नीचे की तरफ ) जाना अच्छा है, परन्तु भाग में जाना अच्छा नही है | ७३३ परदेश में स्थित मनुष्य के विषय में प्रश्नविचार ॥ लिये सूर्य स्वर में पृथिवी के तल सुखमना खर में पृथिवी के तल कह १ - प्रश्न करने के समय यदि खैर में जल तत्त्व चलता हो तो प्रश्नकर्त्ता से कह देना चाहिये कि-सब कामों को सिद्ध कर के वह ( परदेशी ) शीघ्र ही आ जावेगा । २- यदि प्रश्न करने के समय खर में पृथिवी तत्त्व चलता हो तो प्रश्नकर्त्ता से देना चाहिये कि वह पुरुष ठिकाने पर बैठा है और उसे किसी बात की तकलीफ नहीं है । ३-यदि प्रश्न करने के समय स्वर में वायु तत्त्व चलता हो तो प्रश्नकर्त्ता से कह देना चाहिये कि वह पुरुष उस स्थान से दूसरे स्थान को गया है तथा उस के हृदय में चिन्ता उत्पन्न हो रही है | ४–यदि प्रश्न करने के समय स्वर में अग्नि तत्त्व चलता हो तो प्रश्नकर्त्ता से कह देना चाहिये कि -- -उस के शरीर में रोग है । ५–यदि प्रश्न करने के समय खर में आकाश तत्त्व चलता हो तो प्रश्नकर्ता से कह देना चाहिये कि वह पुरुष मर गया ॥ अन्य आवश्यक विषयों का विचार || १- दूसरे देश में जाना ॥ चाहे जिस स्वर मे ॥ १-कहीं जाने के समय अथवा नींद से उठ कर ( जाग कर ) विछौने से नीचे पैर रखने के समय यदि चन्द्र खर चलता हो तथा चन्द्रमा का ही वार हो तो पहिले चार पैर ( कदम ) बायें पैर से चलना चाहिये । २ - कल्याणकारी ॥ ३-ठहरे हुए ॥ - "खर में, अर्थात् Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ जैनसम्मवामक्षिक्षा ॥ २- यदि सूर्य का वार हो तभा सूप स्वर चलता हो तो चलते समय पहिले तीन पैर ( कदम ) दाहिने पैर से चखना चाहिये । ३ - जो मनुष्य तत्त्व को पहिचान कर अपने सब कामों को करेगा उस के सफ अवश्य सिद्ध होगे । ४–पश्चिम विद्या व तत्त्वरूप है, दक्षिण दिशा पृथिवी तत्त्वरूप है, उत्तर विषा ममि समरूप है, पूर्व दिशा वायु तत्त्व रूप है तथा भकाल की स्थिर विधा है। ५ – बम, तुष्टि, पुष्टि, रवि, स्पेस्रकूद और हास्य, ये छ ममस्थायें चन्द्र तर की है। ६ - ज्वर, निद्रा, परिश्रम और कम्पन, ये चार अवस्थायें जब चन्द्र स्वर में बायु तत्व तथा भमि तत्त्व ठसा हो उस समय शरीर में होती हैं। ७–बब चन्द्र खर में आकाश तस्य भसता है तब मायुका श्रम तथा मृत्यु होती है। ८-पाँचों पों के मिलने से चन्द्र खर की उक्त बारह अवस्थायें होती हैं। ९-मदि पूनिमी तत्त्व अस्सा हो तो जान लेना चाहिये कि पूछने वाले के मन में मूल की भिन्या है। १० - यदि मल सत्त्व और वायु वस्त्र चलते हो तो जान लेना चाहिये कि पूछने वाले के मन में बीसम्बन्धी चिन्ता है । ११- भमि तत्त्व में धातु की चिन्ता जाननी चाहिये । १२ - माका तत्व में शुभ कार्य की चिन्ता माननी चाहिये । १३ मिमी तत्व में बहुत पैर बालों की चिन्ता माननी चाहिये । १४ - मल और वायु तत्व में दो पैर वासों की चिन्ता जाननी चाहिये । १५ - मिस्व में चार पैर वालों (चौपायों) की चिन्ता माननी चाहिये। १६ - भाका तस्य में बिना पैर के पदार्थ की चिन्ता जाननी चाहिये | १७ - रवि, राहु, मङ्गल और शनि, भे चार सूर्य स्वर के पाँचों तत्वों के स्वामी है। १८- न्द्र स्वर में पृथिवी तत्त्व का स्वामी बुम, वछ तत्व का लाभी चन्द्र, अमि सत्त्व का स्वामी शुक्र और ig वस्त्र का स्वामी गुरु है, इस लिये अपने २ सत्त्वों ने ये मह भवमा बार शुभफलदायक होते हैं । चार १९-टमिमी आदि नारों वत्त्वों के क्रम से मीठा, कपैम्म, सारा और खड्डा, रस हैं, इस छिपे जिस समय बिस रस के खाने की इच्छा हो उस समय उसी तत्त्व नासमझ लेना चाहिये । २० - अभितप्त्व में कोष, वायु सस्य में इच्छा तथा मल और पृथिवी तत्त्व में क्षमा और नम्रता भादि यतिधर्मरूप वष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं । Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७३५ २१-श्रवण, धनिष्ठा, रोहिणी, उत्तरापाढ़ा, अभिजित् , ज्येष्ठा और अनुरावा, ये सात नक्षत्र पृथिवी तत्त्व के हैं तथा शुभफलदायी है। २२-मूल, उत्तराभाद्रपद, रेवती, आर्द्रा, पूर्वापाड़ा, शतभिषा और आश्लेपा, ये सात नक्षत्र जल तत्त्व के है। २३-ये ( उक्त ) चौदह नक्षत्र स्थिर कार्यों में अपने २ तत्त्वों के चलने के समय में जानने चाहिये। __ २४-मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, खाती, कृत्तिका, भरणी और पुप्य, ये सात नक्षत्र अग्नि के है। २५-हस्त, विशाखा, मृगशिर, पुनर्वसु, चित्रा, उत्तराफाल्गुनी और अश्विनी, ये सात नक्षत्र वायु के है। २६-पहिले आकाश, उस के पीछे वायु, उस के पीछे अग्नि, उस के पीछे पानी और उस के पीछे पृथिवी, इस क्रम से एक एक तत्त्व एक एक के पीछे चलता है। २७-पृथिवी तत्त्व का आधार गुदा, जल तत्त्व का आधार लिङ्ग, अग्नि तत्त्व का __ आधार नेत्र, वायु तत्त्व का आधार नासिका (नाक) तथा आकाश तत्त्व का आधार कर्ण ( कान ) है। .२८-यदि सूर्य खर में भोजन करे तथा चन्द्र खर में जल पीवे और बाई करवट सोवे तो उस के शरीर में रोग कभी नहीं होगा। .२९-यदि चन्द्र स्वर में भोजन करे तथा सूर्य स्वर में जल पीवे तो उस के शरीर में रोग अवश्य होगा। ३०-चन्द्र खर में शौच के लिये ( दिशा मैदान के लिये ) जाना चाहिये, सूर्यस्वर में मूत्रोत्सर्ग (पेशाब ) करना चाहिये तथा शयन करना चाहिये । ३१-यदि कोई पुरुष खरों का ऐसा अभ्यास रक्खे कि-उस के चन्द्र स्वर में दिन का उदय हो ( दिन निकले ) तथा सूर्य स्वर में रात्रि का उदय हो तो वह पूरी अवस्था को प्राप्त होगा, परन्तु यदि इस से विपरीते हो तो जानना चाहिये कि-मौत समीप ही है। ३२-ढाई २ घड़ी तक दोनो ( सूर्य और चन्द्र ) वर चलते है और तेरह श्वास तक सुखमना खर चलता है । ___३३-यदि अष्ट प्रहर तक (२४ घण्टे अर्थात् रात दिन ) सूर्य स्वर में वायु तत्त्व ही चलता रहे तो तीन वर्ष की आयु जाननी चाहिये । १-यदि कोई पुरुप पाँच सात दिन तक वरावर इस व्यवहार को करे तो वह अवश्य रुग्ण ( रोगी) हो जावेगा, यदि किसी को इस विषय में सशय (शक) हो तो यह इस का वर्ताव कर के निश्चय कर ले। २-'विपरीत हो, अर्थात् सूर्य खर मे दिन का उदय हो तथा चन्द्र खर में रात्रि का उदय हो॥ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ चैनसम्प्रदानशिक्षा || २४ - मदि सोलह प्रहर तक सूर्य स्वर ही चलता रहे ( चन्द्र स्वर आगे ही नहीं तो दो वर्ष में मृत्यु बाननी चाहिये । ३५ - यदि जाननी चाहिये । तीन दिन तक एक सा सूर्य स्वर ही चलता रहे तो एक वर्ष में ३६--यदि सोलह दिन तक बराबर सूर्यवर ही चलता रहे तो एक महीने में मृत्यु जाननी चाहिये । ३७- यदि एक महीने तक सूर्य स्वर निरन्तर भक्ता रहे तो वो दिन की भायु जाननी चाहिये । ३८ - मवि सूर्य, चन्द्र और सुखमना, ये तीनों ही खर न घले भर्षात् मुख से श्वास बेना पड़े तो घार घड़ी में मृत्यु माननी चाहिये । ३९-यदि दिन में ( सब दिन ) मन्त्र स्वर के तथा रात में ( रात भर ) सूबे पर से तो बड़ी मायु जाननी चाहिये । सूर्य स्वर और रात में ( रास मर ) बराबर चन्द्र जाननी चाहिये । ४१ - यदि चार मठ, बारह, सोलह अथवा बीस दिन रात बराबर चन्द्र सर चलता रहे तो बड़ी आयु बाननी चाहिये । 0 ४० - यदि दिन में (चिन भर ) स्वर चलता रहे वो छा महीने की आयु ४२ - यदि सीन रात दिन तक सुखमना स्वर चलता रहे तो एक वर्ष की आयु जाननी पाहिये । ४३ - पवि चार दिन तक बराबर सुखमना स्वर चलवा रहे तो छः महीने की बाउ जाननी चाहिये | स्वरों के द्वारा गर्नसम्बन्धी प्रश्न - विचार ॥ १–यदि चन्द्र स्वर ला हो तथा उधर से ही भा कर कोई प्रभ करे कि - गर्भगळी स्त्री के पुत्र होगा या पुत्री, तो फड़ देना चाहिये कि पुत्री होगी । २- यदि सूर्य र चता हो तथा उपर से ही भा कर कोई प्रश्न करे फि गर्भवती स्त्री के पुत्र होगा या पुत्री, सो कह देना चाहिये कि पुत्र होगा । ३-पदि सुखमना सर के चलते समय कोई मा फर मन करे कि गर्भवती स्त्री के पुत्र होगा या पुत्री, तो कह देना चाहिये कि नपुंसक होगा । 8- यदि अपना सूर्य स्वर भन्या हो तथा उधर से ही भा कर कोई गर्भविषयक प्रभ १ इन छ धिक्ानयिक अमान के अनुसार तथा अनुभवधिद्ध कुछ बारों कीये अध्यान में किया शुकदे Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७३७ पञ्चम अध्याय ॥ करे परन्तु प्रश्नकर्ता ( पूछने वाले ) का चन्द्र खर चलता हो तो कह देना चाहिये कि-- पुत्र उत्पन्न होगा परन्तु वह जीवेगा नहीं । __५-यदि दोनों का ( अपना तथा पूछने वाले का ) सूर्य खर चलता हो तो कह देना चाहिये कि-पुत्र होगा तथा वह चिरञ्जीवी होगा। ६-यदि अपना चन्द्र स्वर चलता हो तथा पूछने वाले का सूर्य स्वर चलता हो तो कह देना चाहिये कि-पुत्री होगी परन्तु वह जीवेगी नहीं । __७-यदि दोनों का ( अपना और पूछने वाले का ) चन्द्र स्वर चलता हो तो कह देना चाहिये कि-पुत्री होगी तथा वह दीर्घायु होगी। ८-यदि सूर्य खर में पृथिवी तत्त्व में तथा उसी दिन के लिये किसी का गर्भसम्बन्धी प्रन हो तो कह देना चाहिये कि-पुत्र होगा तथा वह रूपवान, राज्यवान् और सुखी होगा। ९-यदि सूर्य स्वर में जल तत्त्व चलता हो और उस में कोई गर्भसम्बन्धी प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-पुत्र होगा तथा वह सुखी, धनवान् और छः रसो का भोगी होगा। १०-यदि गर्भसम्बन्धी प्रश्न करते समय चन्द्र खर मे उक्त दोनों तत्त्व (पृथिवी तत्त्व और जल तत्त्व ) चलते हो तो कह देना चाहिये कि-पुत्री होगी तथा वह ऊपर लिखे अनुसार लक्षणों वाली होगी। . ११-यदि गर्भसम्बन्धी प्रश्न करते समय उक्त खर में अग्नि तत्त्व चलता हो तो कह देना चाहिये कि-गर्भ गिर जावेगा तथा यदि सन्तति भी होगी तो वह जीवेगी नहीं। १२-यदि गर्भसम्बन्धी प्रश्न करते समय उक्त स्वर में वायु तत्त्व चलता हो तो कहा देना चाहिये कि या तो छोड़ ( पिण्डाकृति ) बंधेगी वा गर्भ गल जावेगा । १३-यदि गर्भसम्बन्धी प्रश्न करते समय सूर्य खर में आकाश तत्त्व चलता हो तो नपुसक की तथा चन्द्र स्वर में आकाश तत्त्व चलता हो तो बाँझ लडकी की उत्पत्ति कह देनी चाहिये। १४-यदि कोई सुखमना स्वर में गर्भ का प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-दो लडकियाँ होंगी। १५-यदि कोई दोनों खरों के चलने के समय में गर्मविषयक प्रश्न करे तथा उस समय यदि चन्द्र खर तेज़ चलता हो तो कह देना चाहिये कि-दो कन्यायें होंगी तथा यदि सूर्य खर तेज चलता हो तो कह देना चाहिये कि-दो पुत्र होंगे। गृहस्थों के लिये आवश्यक विज्ञप्ति । खरोदय ज्ञान की जो २ वाते गृहस्थो के लिये उपयोगी थी उन का हम ने ऊपर कथन कर दिया है, इन सब बातों को अभ्यस्त ( अभ्यास में ) रखने से गृहस्थों को Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ चैनसम्प्रदायशिक्षा | अवश्य आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि स्वरोदय के ज्ञान में मन और इन्द्रियों का रोकना आवश्यक होता है । यद्यपि प्रथम अभ्यास करने में गृहस्यों को कुछ कठिनता पवश्य मालूम होगी परन्तु जोड़ा बहुत अभ्यास हो जाने पर वह कठिनता आप ही मिट जावेगी, इस लिये भारम्भ में उस की कठिनता से भय नहीं करना चाहिये किन्तु उस का अभ्यास भगइन करना दी चाहिये, क्योंकि यह विद्या यति छामकारिणी है, देखो ! वर्तमान समय में इस देश के निवासी श्रीमान् तथा दूसरे लोग अन्यदेशवासी जनों की बनाई हुई जागरण घटिका ( जगाने की पड़ी ) भवि वस्तुओं को निद्रा से बगाने भावि कार्य के मम्म का व्यय कर के लेते हैं तथा रात्रि में जिसने बजे पर उठना हो उसी समय की जगाने की 'चाबी लगा कर घड़ी को रख देते हैं और ठीक समय पर घड़ी की आगाज़ को सुनकर उठ बैठते हैं, परन्तु हमारे प्राचीन आर्यावर्धनिवासी जन अपनी योगादि विद्या के ब से उछ जागरण आदि का सब काम लेते थे, बिस में उन की एक पाई भी खर्च नहीं होवी भी । ( प्रश्न) आप इस बात को क्या हमें मत्यक्ष कर बता सकते हैं कि आर्या निवासी प्राचीन मम अपनी योगादि विद्या के पत्र से उक्त जागरण भाषिका सब काम खेते मे' (उत्तर) हाँ, इम अवश्य बतला सकते है, क्योंकि गृहों के लिये हिसकारी इस प्रकार की बातों का प्रकट करना हम अत्यावश्यक समझते हैं, मि बहुत से मोगों का यह मन्वष्य होता है कि इस प्रकार की गोप्य बातों को प्रकट नहीं करना चाहिये परन्तु हम ऐसे विचार को बहुत तुच्छ तथा सङ्कीर्णमता का चिह्न समझते हैं, देखो ! इसी विचार से वो इस पवित्र देश की सब विद्यायें नष्ट हो गई। पाठकवृन्द ! तुम को रात्रि में जिसने बसे पर उठने की आवश्यकता हो उस के लिये पेसा करो कि सोने के समय प्रथम दो चार मिनट तक चित्त को स्थिर करो, विछौने पर सेट कर तीन या सात बार ईश्वर का माम को अर्थात् नमस्कारमन को पढ़ो, फिर फिर अपना नाम ले कर मुख से यह हो कि हम को इतने बच्चे पर ( जितने बजे पर तुम्हारी उठने की इच्छा हो ) उठा देना ऐसा कह कर सो बाभो, यदि तुम को उक कार्य के बाद दक्ष पाँच मिनट तक निवा न धाबे यो पुन नमस्कारमा को निजा आने तक मन में ही ( होठों को न हिला कर ) पड़त रहो', ऐसा करने से तुम रात्रि में अभीष्ट समय पर भाग कर उठ सकते हो, इस में सन्देह नहीं है ' ॥ १ कि मन में म पड़ने पर्य यह है कि-ईश्वरनमस्कार के पीछे सब को अनेक बायों में नहीं जाना चाहिये अर्थात् अन्य किसी बात का धारण नहीं करना चाहिने ॥ १- हायकाल के किये आरसी की क्या मावश्यकता है भवात् इस बात की जो परीक्षा करन्या मर Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७३९ योगसम्बन्धिनी मेस्मेरिजम विद्या का संक्षिप्त वर्णन ॥ वर्तमान समय में इस विद्या की चर्चा भी चारो ओर अधिक फैल रही है अर्थात् __ अग्रेजी शिक्षा पाये हुए मनुष्य इस विद्या पर तन मन से मोहित हो रहे है, इस का यहाँ तक प्रचार बढ़ रहा है कि-पाठशालाओं (स्कूलों) के सब विद्यार्थी भी इस का नाम जानते है तथा इस पर यहॉ तक श्रद्धा बढ़ रही है कि हमारे जैन्टिलमैन भाई भी (जो कि सब बातों को व्यर्थ बतलाया करते है ) इस विद्या का सच्चे भाव से खीकार कर रहे है, इस का कारण केवल यही है कि-इस पर श्रद्धा रखने वाले जनो को बालकपन से ही इस प्रकार की शिक्षा मिली है और इस में सन्देह भी नहीं है कि-यह विद्या बहुत सच्ची और अत्यन्त लाभदायक है, परन्तु बात केवल इतनी है कि-यदि इस विद्या में सिद्धता को प्राप्त कर उसे यथोचित रीति से काम में लाया जावे तो वह बहुत लाभदायक हो सकती है। . इस विद्या का विशेष वर्णन हम यहां पर ग्रन्थ के विस्तार के भय से नहीं कर सकते है किन्तु केवल इस का स्वरूपमात्र पाठक जनों के ज्ञान के लिये लिखते है। __ निस्सन्देह यह विद्या बहुत प्राचीन है तथा योगाभ्यास की एक शाखा है, पूर्व समय में भारतवर्षीय सम्पूर्ण आचार्य और मुनि महात्मा जन योगाभ्यासी हुआ करते थे जिस का वृत्तान्त प्राचीन ग्रन्थो से तथा इतिहासों से विदित हो सकता है । __ आवश्यक सूचना-ससार में यह एक साधारण नियम देखा जाता है कि जब कभी कोई पुरुष किन्ही नूतन ( नये ) विचारों को सर्व साधारण के समक्ष में प्रचरित करने का प्रारम्भ करता है तब लोग पहिले उस का उपहास किया करते हैं, तात्पर्य यह है कि-जब कोई पुरुष ( चाहे वह कैसा ही विद्वान् क्यों न हो) किन्हीं नये विचारों को (संसार के लिये लाभदायक होने पर भी ) प्रकट करता है तब एक वार लोग उस का उपहास अवश्य ही करते है तथा उस के उन विचारो को बाललीला समझते है. परन्त विचारप्रकटकर्ता ( विचारो को प्रकट करने वाला ) गम्भीर पुरुप जव लोगो के उपहास का कुछ भी विचार न कर अपने कर्तव्य में सोद्योग ( उद्योगयुक्त ) ही रहता है तब उस का परिणाम यह होता है कि उन विचारो में जो कुछ सत्यता विद्यमान होती है वह शनै. २ ( धीरे २ ) कालान्तर में ( कुछ काल के पश्चात् ) प्रचार को प्राप्त होती है अर्थात् उन विचारों की सत्यता और असलियत को लोग समझ कर मानने लगते है, १-यह विद्या भी खरोदयविद्या से विपयसाम्य से सम्बध रखती है, अत यहाँ पर थोडा सा इस का भी खरूप दिखलाया जाता है ॥ २-इतने ही आवश्यक विषयों के वर्णन से ग्रन्थ अव तक बढ़ चुका है तथा आगे भी कुछ आवश्यक विपय का वर्णन करना अवशिष्ट है, अत इस (मेस्मेरिजम) विद्या के खरूपमात्र का वर्णन किया है ॥ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म नाम सेवादी (सा ७१० बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ विचार करने पर पाठकों को इस के अनेक प्राचीन उदाहरण मिल सकते हैं भव हम उन (पापीन उदाहरणों) न कुछ मी उठेस करमा नहीं चाहते हैं किन्तु इस विष पथिमीय विद्वानों के वो एक उदाहरण पाठों की सेवा में अवश्य उपसित रते है, देखिये अठारही शताम्दी (सदी) में मेमरे "एनीमल मेगनेतीबम" (मिस ने अपने ही नाम से अपने भाविष्कार का नाम "मेस्मेरिनम" रक्खा तमा निस ३ भपने आविष्कार की सहायता से अनेक रोगियों को मच्छा पिया) अपने नगन विपार के प्रकट करने के मारम्म में कैसा उपहास हो पुकारे, महाँ सुक किनबहान सस्वरों तभा दसरे छोगों ने भी उस के विचारों को ईसी में उड़ा दिया और इस विष को प्रकट करमे पाठे ढाक्सर मेसर को लोग ठग बससाने ठो, परन्तु "सत्यमेव विवरत" इस पाप के भनुसार ठस ने अपनी सस्पता पर न निधय रस्सा, जिस का परिणाम या हुमा कि-उस की उस विपा की तरफ 5छ लोगों प्यान हुबा तथा उसे, भान्दोग्न होने लगा, कुछ काम पमा भमेरिका बासों ने इस विधा में विशेष पन्ना किया निस से इस विपा की सारता प्रकट हो गई, फिर क्या था इस क्पिा प खूब । मचार होने म्गा और पियासोफिकल सुसाइटी के द्वारा या विपा समस्त देशों में अपर हो गई तथा दो २ मोफेसर विद्वान बन इस का सम्पास करने लगे। दूसरा उदाहरण देखिये-सी सन् १८२८ में सब से प्रथम बब सात पुस्लो न मय (वारू बावराव) के न पीने का नियम ग्रहण कर मप का प्रचार छोगों में कम करना प्रया करना प्रारम किया था उस समय उन का पानी उपहास हुमा बा, विशेषता या किस उपहास में विना विचारेपो २ मुयोग्य मोर नामी शाह मी सम्मीमित (पान हो गये थे, परन्त इवना उपहास होने पर भी उफ ( मप न पीने का नियम बन या ठोगा ने अपने नियम नही छोड़ा तथा उसके लिये घेरा करते ही गये, परिणाम दुमा कि-दूसरे भी मने मन उनके भनुगामी हो गये, माज उसी का यह मा फर प्रत्यको कि-नगर में ( यपपि वहाँ मप भ भप भी बहुत कुछ सर हे तपापि ) मपपान विरुद्ध सेको मामियों सापित हो चुकी हैं या इस समय र प्रिटन में साठ मस मनुप्य मप से पिटकुल परहेज करते हैं इस से पनुमान । जा सकता है कि वैसे गत सताम्दी में उपरे हुए मुस्तमें में गुगमी म सागर छिया चा पुची उसी सम्पर वर्तमान प्रताम्दी भन्त ठरु मप का व्यापार भाग त्पन्त बन्द र दिसा माना मापर्यजनक मरी है। इसी मनर तीसरा सवारण देखिये-पूराप में मनस्पति श्री राम समबन र मसी पुराफा मसमर्थन करने वाली मछी सन् १८१. में मेनार में भाग परु ने मिरज सापिठ भी उस समय भी उसी मण्डसी)के समारम्वा Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय ॥ ७४१ उपहास किया गया था परन्तु उक्त खुराक के समर्थन में सत्यता विद्यमान थी इस कारण आज इंग्लेंड, यूरोप तथा अमेरिका में वनस्पति की खुराक के समर्थन में अनेक मण्ड. लियां स्थापित हो गई है तथा उन में हज़ारों विद्वान्, यूनीवर्सिटी की बड़ी २ डिग्रियों को प्राप्त करने वाले, डाक्टर, वकील और बड़े २ इजीनियर आदि अनेक उच्चाधिकारी जन सभासद्रूप में प्रविष्ट हुए है, तात्पर्य यह है कि-चाहें नये विचार वा आविष्कार हो, चाहं प्राचीन हो यदि वे सत्यता से युक्त होते है तथा उन में नेकनियती और इमानदारी से सदुद्यम किया जाता है तो उस का फल अवश्य मिलता है तथा सदुद्यम वाले का ही अन्त में विजय होता है ॥ यह पञ्चम अध्याय का खरोदयवर्णन नामक दशवॉ प्रकरण समाप्त हुआ। ग्यारहवाँ प्रकरण-शकुनावलिवर्णन ॥ शकुनविद्या का स्वरूप ॥ इस विद्या के अति उपयोगी होने के कारण पूर्व समय में इस का बहुत ही प्रचार था अर्थात् पूर्व जन इस विद्या के द्वारा कार्य सिद्धि का ( कार्य के पूर्ण होने का ) शकुन ( सगुन ) ले कर प्रत्येक ( हर एक ) कार्य का प्रारम्भ करते थे, केवल यही कारण था कि-उन के सब कार्य प्रायः सफल और शुभकारी होते थे, परन्तु अन्य विद्याओं के समान धीरे २ इस विद्या का भी प्रचार घटता गया तथा कम बुद्धि वाले पुरुष इसे बच्चों का खेल समझने लगे और विशेष कर अंग्रेज़ी पढ़े हुए लोगो का तो विश्वास इस पर नाममात्र को भी नहीं रहा, सत्य है कि-"न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तस्य निन्दा सतत करोति' अर्थात् जो जिस के गुण को नहीं जानता है वह उस की निरन्तर निन्दा किया करता है, अस्तु-इस के विषय में किसी का विचार चाहे कैसा ही क्यो न हो परन्तु पूर्वीय सिद्धान्त से यह तो मुक्त कण्ठ से कहा जा सकता है कि यह विद्या प्रा. चीन समय में अति आदर पा चुकी है तथा पूर्वीय विद्वानों ने इस विद्या का अपने बनाये हुए ग्रन्थों में बहुत कुछ उल्लेख किया है । पूर्व काल में इस विद्या का प्रचार यद्यपि प्रायः सब ही देशों में था तथापि मारवाड देश में तो यह विद्या अति उत्कृष्ट रूप से प्रचलित थी, देखो! मारवाड़ देश में पर्व समय में (थोड़े ही समय पहिले ) परदेश आदि को गमन करने वालो के सहायक ( चोर आदि से रक्षा करने वाले ) बन कर भाटी आदि राजपूत जाया करते थे वे लोग जानवरों की भाषा आदि के शुभाशुभ शकुनों को भली भाँति जानते थे, हड़बूकी नामक Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ बैनसम्पदामशिक्षा || सलिला राजपूत हुए हैं, जिन्हों ने प्रवेश्चगमनादि के शुभाशुभ सैकड़ों दोहे बनाये है, वर्तमान में रेल आदि के द्वारा मात्रा करने इस कारण उक्त ( मारबाड़ ) देश में भी शकुनों का प्रचार घट चला जाता है । शकुनों के विषय में का मचार हो गया है गया है और पटवा हमारे देशवासी बहुत से जन यह भी नहीं जानते हैं कि - शुभ शकुन कौन से होते है तथा शुभ शकुन कौन से होते हैं, यह बहुत ही लज्जास्पद विषय है, क्योंकि शुभाशुभ शकुनों का मानना और मात्रा के समय उन का देखना अत्यावश्यक है, देखो ! शकुन ही आगामी शुभाशुभ के ( मळे या बुरे के ) भगवा यो समझो कि धर्म की सिद्धि वा मसिद्धि तथा सुख या दुस्ख के सूचक होते हैं। कुन दो मकार से लिये (देखे) जाते है-एक तो रमक के द्वारा या पाचा भावि के द्वारा कार्य के विषय में किये (देखे) माते हैं और दूसरे प्रवेशादि को गमन करने के समय शुभाशुभ फल के विषय में किये (देखे) जाते हैं, इन्हीं दोनों प्रकार के छकुनों के विषय में संक्षेप से इस प्रकरण में खिलेंगे, इन में से प्रथम वर्ष के शकुन के विषय में गर्गाचार्य मुनि की संस्कृत में बनाई हुई पालकुनाम का भाषा में अनुवाद कर वर्णन करेंगे, उस के पश्चात् प्रदेशादिगमनविषयक शुभाशुभ शकुनों का संक्षेप से वर्णन करेंगे, आशा है कि गृहस्य बन शकुनों का विज्ञान कर इस से लाभ उठावेंगे। फिर जो कुछ कार्य करना हो उस का प्रथम स्थिर मन से विचार करना चाहिये, ओड़े गछ, एक सुपारी और दुमी मा चाँदी की अंगूठी आदि को पुस्तक पर भेंट रूप रख कर पोसे को हाथ में ले कर इस निम्नलिखित मत्र को सात बारा चाहिये, फिर सीन बार पासे का डालना चाहिये तथा तीनों बार के मिलने अह हो उन का १नों के भी गर्गाचार्य महात्मा में पासा के राजा अग्रसेन के सामने प्रा विस्मरणी साकी) का वर्णन संत मद्य में किया था उसी का भाषानुवाद करके र दम ने किया है। जो १४ सम्बरण का जो इच्छा हो जाने कोव में सम्मा बना गोम्न क्षेता है इस दधाम्बरों में रहत है उन को जति है कि-श्रम भय से सुी पा कर अवकाश के समय में गप्प मार कर समय को न समाये किन्तु अपने गये में से को पुरुष कुछ पक्षित हो उस के यहाँ व बोम्म अॅप छात अच्छे १ प्रयों को मैंबा कर रखें और उन को सुना करें तथा भी करे और जो उस से उपयोग से किया करें तथा उपयोगी साप्ताहिक और मानिक पत्र भी दो बार मगाव ९६, ऐसा करने से मनुष्य को बहुत लाभ सेवा है कपासे मानवता का भी पास होना चाहिये जिस में एक ३ सीन भार पार व बैंक होने चाहि Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७४३ फल देख लेना चाहिये, ( इस शकुनावलि का फल ठीक २ मिलता है ) परन्तु यह स्मरण रखना चाहिये कि-एक वार शकुन के लेनेपर ( उस का फल चाहे बुरा आवे चाहे अच्छा आवे ) फिर दूसरी वार शकुन नहीं लेना चाहिये । __ मन्त्र-ओ नमो भगवति कृप्माडनि सर्वकार्यप्रसाधिनि सर्वनिमित्तप्रकाशिनि एह्येहि २ वरं देहि २ हलि २ मातहिनि सत्य बेहि २ स्वाहा । इस मन्त्र को सात वार पढ़ कर "सत्य भापे असत्य का परिहार करे" इस प्रकार मुख स कह कर पासे को डालना चाहिये, यदि पासा उपस्थित न हो तो नीचे जो पासावलि का यन्त्र लिखा है उस पर तीन वार अहुलि को फेर कर चाहे जिस कोठे पर रख दे तथा आगे जो उस का फल लिखा है उसे देख ले ।। पासावलिका यन्त्र ॥ १११ ११२ ११३ ११४ १२१ १२२ १२३ १२४ १३१ १३२ १३३ १३४ १४१ १४२ १४३ १४४ २११ २१२ २१३ २१४ २२१ २२२ २२३ २२४ २३१ २३२ २३३ २३४ २४१ २४२ २४३ २४४ ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३४१ ३४२ ३४३ ३४४ ४११ ४१२ ११३ ४१४ ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४३१ ४३२ ४३३ ४३४ ४४१ ४४२ ४४३ ४४४ पासावलिका का क्रमानुसार फल ॥ १११-हे पूछने वाले! यह पासा बहुत शुभ है, तेरे दिन अच्छे है, तू ने विलक्षण वात विचार रक्खी है, वह सब सिद्ध होगी, व्यापार में लाभ होगा और युद्ध में जीत होगी। ११२-हे पासा लेने वाले । तेरा काम सिद्ध नहीं होगा, इस लिये विचारे हुए काम को छोड़ कर दूसरा काम कर तथा देवाधिदेव का ध्यान रख, इस शकुन का यह प्रमाण ( पुरावा ) है कि-तू रात को स्वप्न में काक (कौआ), घुग्घू , गीध, मक्खियाँ, मच्छर, मानो अपने शरीर में तेल लगाया हो अथवा काला साँप देखा हो, ऐसा देखेगा। ११३-हे पूछने वाले ! तू ने जो विचार किया है उस का फल सुन, तू किसी स्थान . (ठिकाने ) को वा धन के लाभ को अथवा किसी सजन की मुलाकात को चाहता है.. यह सब तुझे मिलेगा, तेरे क्लेश और चिन्ता के दिन बहुत से बीत गये, अब तेरे अच्छे दिन आ गये है, इस बात की सत्यता ( सचाई ) का प्रमाण यह है कि-तेरी कोख पर तिल वा मसा अथवा 'कोई घाव का चिह्न है । Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनसम्प्रदामशिक्षा। १११-हे पूण्ने पाले ! मह पासा महुस पस्यामकारी है, इह की वृद्धि होगी, ममीन का गम होगा, पन का गम होगा, पुत्र का मी ठाम दीसता है और प्यारे मित्र का वर्शन होगा, किसी से सम्बंप होगा तपा तीन महीने के भीतर विचारे हुए श्रमम लाम होगा, गुरु की भक्ति और इसदेवी का पूजन कर, इस मास की सस्पता च प्राव यह है कि तेरे शरीर के उपर दोनों तरफ मसा; विस मा पाप का चिो । १२१-हे पूछने पाठे! तूने ठिकाने न शाम वा सजन की मुलाकात विमारी , पात, धन, सम्पधि और भाई मधु की पदि सबा पहिले असे सम्मान का मिम्ना वि चारा है, मह सब यास निर्षित (गिमा फिसी विम) तेरे सिप सुसवामी होगी, इस का निम्मम तुझे इस प्रकार हो सकता है कि-सू सम में भपने पो गेगों को देखा। १२२-ने पूछने पाछे ! तुझे वित (पन ) भौर यसका गम होगा, ठिकाना और सम्मान मिलेगा तमा तेरी मनोऽभीष्ठ ( मनचाही) पस्त मिलेगी, इस में बड़ा मठकर, भप वेरा पाप और दुख क्षीण हो गया, इस लिये सझे कस्माष की प्राप्ति होगी, इस का पुरामा यह है कि तू राव को स्वम में अपना प्रत्यक्ष में लड़ाई कम करना देखेमा । १२१-रे पूछने पाले ! तेरे कार्य और मन की सिद्धि होगी, सेरे विचारे हुए सब मामले सिव होंगे, कुटुम्न की पदिसी का मम सवा सबन की मुन्नत होगी, वेरे मन में जो पहुत दिनों से निधार है यह मन बस्दी पूर्ण होगा, इस बात का या पुरावा शि-तेरे घर में हाई सभा सीसम्बंधी चिन्ता भाव से पाँच दिन के मीवर हुए होगा। १२१२ पूछने वा! मेरी भाइयों से वस्दी मुलाकात होगी, वेरा सन्त सम्छा प्रहका बर भी मच्छा है, इस लिये तेरे सम काम हो जायेंगे, तू अपनी कुम्देवी पूजन र १३१-हे पूछने बासे! तुझे ठिाने का गम, भन का छाम तमा पिच में पेन होगा, जो कुछ काम मेरा निगा गया है पद भी सुपर मायेगा या नो ए चीन चोरी में गई है का भी मिल जावेगी, इस मात का यह पुराना है कि-तू ने सम में पक्ष में देसा भपका देखेगा। १२ पूछने पाठे! यो काम तू मे विपारावर सपो चायेगा, इस बात पर यह पुराना है कि-तेरी स्त्री के साप मेरी यहुस प्रीति है। - - पुण्ने बाटे। इस चकन स पर धन के नाम का त मरीर में रोग होने रे किसी प्रकार का पन्धन, वान के पोसे का सतरा है, तू ने मारी काम पिपारा पर पड़ी वालीफ से पूरा होगा। सोला! Hझे रामकान की तरफ की सर्जरी १२५ने पूछने वामे! मुझे रामकान की सरफ की अपवा लेखचिन्ता है, न मिमी युसमन से बीसना पाहता, यह मा सोना पाँदी की भोर परदेश मन्तिान Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७४५ सब बात धीरे २ तुझे प्राप्त होगी, जैसी कि तू ने विचारी है, अब हानि नहीं होगी, तेरे पाप कट गये, तू वीतराग देव का ध्यान घर, तेरे सब कार्य सिद्ध होगे । १४१ - हे पूछने वाले ! तेरा विचार किसी व्यापार का है तथा तुझे दूसरी भी कोई चिन्ता है, इस सब कष्ट से छूट कर तेरा मङ्गल होगा, आज के सातवें दिन या तो तुझे कुछ लाभ होगा वा अच्छी बुद्धि उत्पन्न होगी । १४२ - हे पूछने वाले ! तेरे मन में धन और धान्य की अथवा घर के विषय की चिन्ता है, वह सब चिन्ता दूर होगी, तेरे कुटुम्न की वृद्धि होगी, कल्याण होगा, सज्जनों से मुलाकात होगी तथा गई हुई वस्तु भी मिलेगी, इस बात का यह पुरावा है कि - तेरे घर मैं अथवा बाहर लडाई हुई है वा होगी । १४३ - हे पूछने वाले ! तेरे विचारे हुए सब काम सिद्ध होगे, कल्याण होगा तथा लड़की का लाभ होगा, इस बात का यह पुरावा है कि- तू स्वप्न में किसी ग्राम में जाना देखेगा । • १४४ - हे पूछने वाले ! तेरे सब कामो की सिद्धि होगी और तुझे सम्पत्ति मिलेगी इस बात का यह पुरावा है कि- तू अपने विचारे हुए काम को स्वप्न में देखेगा वा देवमन्दिर को वा मूर्ति को अथवा चन्द्रमा को देखेगा । २११-दे पूछने वाले ! तू ने अपने मन में एक बड़ा कार्य विचारा है तथा तुझे धनविषयक चिन्ता है, सो तेरे लिये सब अच्छा होगा तथा प्यारे भाइयों की मुलाकात होगी, इस बात की सत्यता का प्रमाण यह है कि- तू ने स्वप्न में ऊँचे पर चढ़ना देखा है अथवा देखेगा । मकान पर पहाड़ २१२–हे पूछने वाले ! तेरे सब बातों की वृद्धि होगी, मित्रों से मुलाकात होगी, ससार से लाभ होगा, विवाह करने पर कुल की वृद्धि होगी तथा सोना चाँदी आदि सब सम्पत्ति होगी, इस बात का यह पुरावा है कि तू ने खम में गाय वा बैल को देखा है अथवा देखेगा, तू परदेश में भी जाने का विचार करता है, तू कुलदेवी को मना, तेरे लिये अच्छा होगा | २१३ - पूछने वाले ! तेरे मन में द्विपद अर्थात् दो पैर वाले की चिन्ता है और तू ने अच्छा काम विचारा है उस का लाभ तुझे एक महीने में होगा, भाई तथा सज्जन मिलेंगे, शरीर में प्रसन्नता होगी और तेरे मनोऽभीष्ट ( मनचाहे ) कार्य होंगे परन्तु जो तेरा गोत्रदेव है उस की आराधना तथा सम्मान कर, तू माता, पिता, भाई और पुत्र आदि से जो कुछ प्रयोजन चाहता है वह तेरा मनोरथ सिद्ध होगा, इस बात का यह पुरावा है कि-तू ने रात्रि में प्रत्यक्ष में अथवा खम में स्त्री से समागम किया है । ९४ 4 Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ भैनसम्प्रदावरिया ॥ २११-दे पूछने पाठे! वो कुछ तेरा काम बिगड़ गया है अर्थात् वो कुछ नुक्समावि हुआ है अथवा किसी से जो कुछ तुझे सेना है पा जिस किसी ने तुझ से दया पानी की है उस को तू मूग बा, यहाँ से कुछ दूर जाने से तुझे गम होगा, भाव तू ने स्वम में देव को वा देवी को वा कुछ के बड़े पनों को वा नदी भादि ने वेसा है, असा सजनों से तेरी मुलाकात हुई है। २२१-हे पूछने पाले! इसमे दिनों तक जो कुछ कार्य तू ने किया उस में उसे बराबर केश हुमा भर्यास् तू ने सुस नहीं पाया, अब तू अपने मन में कुछ परमान चाहता है तथा पन की इच्छा रखता है, मुझे गरे स्वान (ठिकाने) की चिन्ता हे या तेरा पिप पषसो सो अब तेरे दुस का नाश हुमा मौर कल्याण की प्राप्ति हुई समझ मे, इस मात्र की सस्यता का यह प्रमाण है-कि तू स्वम में पक्ष ने देखेगा। ___२२२-२ पूछने वारे ! तेरा सजनों के साम विरोप है मौर वेरी कुमित्र से मित्रता है, वो तेरे मन में चिन्ता है तथा मिस बड़े काम को तू ने उग्र रक्खा है उस काम की सिद्रि महुत दिनों में होगी तमा तेरा कुछ पाप बाकी है सो उस का नाश हो जाने से तुझे स्थान (ठिकाने ) का गम होगा। २२३-२ पूछने पासे । इस समय त ने दुरे काम का मनोरम पिया है या तू दूसरे के धन के सहारे से व्यापार कर भपना मसम्म निकालना चाहता है, सो उस सम्पति मिन्ना कठिन है, तू व्यापार कर, तसे ठाम होगा, परन्तु त ने यो मन में मुरा विचार किया है उस को छोड़ कर दूसरे प्रयोजन को विचार, इस बात की सस्पता का सा प्रमाण है कि सूखम में अपने सोटे दिन देखेगा। २२१-२ पख्ने बारे! तेरे मन में परमी की चिन्ता है, तू बहुत दिनों से तक को देस रहा है, त इपर उपर मटक रहातमा हेरे साग पा पर भड़ाई याद १० दिनों से पा रही है, यह सब विरोष शान्त हो जायेगा, मम री तकलीफ गई, कलाव ऐगा सपा पाप मौर दुस सब मिट गये, सू गुरुदेव की मफि कर सबा कमर । पूना कर, ऐसा करने से सेरे मन के विचारे हुए सम काम ठीक हो जायेंगे । २११ने पूछने पासे! तो दोषों के विना विपारे ही पन का लाभ होगा, ५ महीने में तेरा विपारा हुमा मनोरव सिद्ध होगा मौर उसे बड़ा फळ मिळेगा, इस की सस्पतामही प्रमाण कि तू ने नियों की रूपा की। मपवा तू सम में । को, सूने घरों को मनवा सूने देश को या सूखे सागप को देखेगा। २३२-ने पूछने बार! तू ने बहुत कठिन काम विचारा, मुझे फायदा नही सेरा काम सिद्ध नहीं होगा तथा वसे मुस मिम्ना कठिन इस पास की सत्यता - यह प्रमाण है कि तू सम में मैंस को देखेगा। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥" ৩৪৩ २३३-हे पूछने वाले! तेरे मन में अचानक (एकाएक ) काम उत्पन्न हो गया है, तू दूसरे के काम के लिये चिन्ता करता है, तेरे मन में विलक्षण तथा कठिन चिन्ता है, तू ने अनर्थ करना विचारा है, इस लिये कार्य की चिन्ता को छोड़ कर तू दूसरा काम कर तथा गोत्रदेवी की आराधना कर, उस से तेरा भला होगा, इस बात की सत्यता का प्रमाण यह है कि-तेरे घर में कलह है, अथवा त बाहर फिरता है ऐसा देखेगा, अथवा तुझे खम्म में देवतों का दर्शन होगा। २३४-हे पूछने वाले ! तेरे काम बहुत है, तुझे धन का लाभ होगा, तू कुटुम्ब की चिन्ता में वार २ मुर्शाता है, तुझे ठिकाने और जमीन जगह की भी चिन्ता है, तेरे मन म पाप नहीं है, इस लिये जल्दी तेरी चिन्ता मिटेगी, तू स्वप्न में गाय को, भैस को तथा जल में तैरने को देखेगा, तेरे दुःख का अन्त आ गया, तेरी बुद्धि अच्छी है इस लिये शुद्ध भक्ति से तू कुलदेवता का ध्यान कर । __ २४१-हे पूछने वाले ! तुझे विवाहसम्बन्धी चिन्ता है तथा तू कहीं लाभ के लिये जाना चाहता है, तेरा विचारा हुआ कार्य जल्दी सिद्ध होगा तथा तेरे पद की वृद्धि होगी, इस बात का यह पुरविा है कि-मैथुन के लिये तू ने बात की है। - २४२-हे पूछने वाले ! तुझे बहुत दिनों से परदेश में गये हुए मनुष्य की चिन्ता है, तू उस को बुलाना चाहता है तथा तू ने जो काम विचारा है वह अच्छा है, परन्तु भावी बलवान् है इस लिये यह बात इस समय सिद्ध होती नही मालूम देती है। " २४३-हे पूछने वाले । तेरा रोग और दुःख मिट गया, तेरे सुख के दिन आ गये, तुझे मनोवाञ्छित ( मनचाहा ) फल मिलेगा, तेरे सब उपद्रव मिट गये तथा इस समय जाने से तुझे लाभ होगा। __ २४४-हे पूछने वाले ! तेरे चित्त में जो चिन्ता है वह सब मिट जावेगी, कल्याण होगा तथा तेरा सब काम सिद्ध होगा, इस बात का पुरावा यह है कि-तेरे गुप्त अङ्ग पर तिल है। । । । ३११-हे पूछने वाले ! तू इस बात को विचारता है कि मै देशान्तर (दूसरे देश) को जाऊँ मुझे ठिकाना मिलेगा वा नहीं, सो तू कुलदेवी को वा गुरुदेव को याद कर, तेरे सब विघ्न मिट जावेंगे तथा तुझे अच्छा लाभ होगा और कार्य में सिद्धि होगी. इस बात की सत्यता में यह प्रमाण है कि-तू खप्न में पहाड़ वा किसी ऊँचे स्थल को देखेगा। ____३१२-हे पूछने वाले ! तेरे मनोरथ पूर्ण होवेंगे, तेरे लिये धन का लाभ दीखता है, तेरे कुटुम्ब की वृद्धि तथा शरीर में सुख धीरे २ होगा, देवतों की तथा ग्रहों की जो पर्व की पीड़ा है उस की शान्ति के लिये देवता की आराधना कर, ऐसा करने से तू जिस Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ मैनसम्प्रदायशिमा ॥ काम प्रारम्भ करेगा वह सम सिद्ध होगा, इस बात की सस्यता सम प्रमावरे -ितू सम में गाय, षोड़ा और हाथी भादि को देखेगा। - ३१३-ने पूछने वाले! तेरे मन में धन की चिन्ता है और सू कुछ विछा नरम है, तेरे दुश्मन ने मुझे दमा रस्सा, मेरा मित्र भी तेरी सहायता नहीं करता है, तू सत्र नता को महुत रससा है, इस लिये तेरा धन लोग खाते हैं, सो कुछ ठहर कर परिणाम में वेरा मा होगा भवात् वेरा सब दुस मिट जायेगा, इस नाव का यह पुरावा है कि पर में माई हुई है या होगी। ३१४- पूछने पाछे । यह कुन फस्याम तमा गुण से मरा हुआ है, तू निमि न्वता (येफिकी) के साप चावी ही सब कामों का सिद्ध होना चाहता है। सो सम काम पीरे २ सिद्ध होंगे, इस बात की सस्यता का यह प्रमाण है -िसू सम में परिभ होना, सम्पति, तालाब, वा महली, इन में से किसी बस में देखेगा।। ३२१-हे पूछने मते ! यह अकुन भच्म नहीं है, यह काम यो तू ने विचारा निरर्थक है, एक महीने तक तेरे पाप का उदयो इस लिये इसकी भाशा में और स दूसरा काम कर, क्योंकि यह काम भभी नहीं होगा, इस माव की सत्वता पर प्रमाण है कि-तू सम में प्रोस वा गया लोगों को अपना मगर को देखेगा, सकर सुले तालीफ होगी इस निये यहाँ से भोर सानो चग गा बि-बिस से सुस सप्लीफ न होगी। ३२२-२ पुग्ने बासे! एक महीना हुमा है तब से पम के सिमे मेरे पित में उद्रेम हो रहा है परतु भव तरे त्रु भी मित्र हो मागे, सस सम्पति की वृद्धि होगी, पन का लाभ अपस्म रोगा भौर सर्जर से भी मुझे कुछ सम्मान मिलेगा, इस बात । या पुरावा है फि-तू ने मैथुन की मात पीत की है। २२३- पूछने पासे । मपपि मरे माम्प का मोड़ा उदय है परन्तु उकसीफ तोता पीनरी, भच्छे प्रकार से राने के लिये ठिकाना मिलेगा. धन का काम हात प्यमे मजन की मुठामत होगी तथा सब तु सों का नाम होगा, तू मन में चिन्ता मन कर, इस पात का यद पुराया है हि-तू सम में पारों से मुलानत को इसेगा। । १२१-८ पूरुमे गाते ! तर मन मोर जमीन की नदि होगी, सन्मापार में सम्मान ने पायेगा तमा वो तू ने मन में पिपार रियायपपि पह सम सिद्ध हो हो बा परन्तु तेरे मन में कई सरल तथा पिता है, इस गाव श्री सत्पता का ना प्रमाण हिवेर शिर में उसम का निशान दे, अथवा तू राय को सदर सोया होगा। २३१-ह पूरने वाठे | नू नपने पित्त म पाम, म्य, पर, सम्पति और धन ध्र Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७४९ वृद्धि, प्रजा से लाभ तथा वस्त्रलाभ आदि का विचार करता है; सो तू कुलदेव तथा गुरु का भाक्क कर, ऐसा करने से तुझ को अच्छा लाभ होगा, इस बात का यह पुरावा है कि-तू खम्म में गाय को देखेगा। __३३२-हे पूछने वाले ! तुझ को तकलीफ है, तेरे भाई और मित्र भी तुझ से बदल कर चल रहे है तथा जो तू अपने मन में विचार करता है उस तरफ से तुझे लाभ का होना नहीं दीखता है, इस लिये तू देशान्तर (दूसरे देश) को चला जा, वहाँ तुझे लाम होगा, तू आम वात में पराये धन से वर्ताव करता है, इस बात की सत्यता का यह प्रमाण है कि- तू स्वप्न में भाई तथा मित्रों को देखेगा । ३३३-हे पूछने वाले ! तू अपने मन के विचारे हुए फल को पावेगा, तुझे व्यवहार की तथा भाई और मित्रो की चिन्ता है, सो ये सब तेरे विचारे हुए काम सिद्ध होगे। ____३३४-हे पूछने वाले । तू चिन्ता को मत कर, तेरी अच्छे आदमी से मुलाकात होगी, अब तेरे सब दुःख का नाश हुआ, तेरे विचारे हुए सब काम सफल होंगे। .३४१ हे पूछने वाले । तेरे मन में किसी पराये आदमी से प्रीति करने की इच्छा है सो तेरे लिये अच्छा होगा, तू घबड़ा मत, तुझे सुख होगा, धन का लाभ होगा तथा अच्छे आदमी से मुलाकात होगी । ___३४२-हे पूछने वाले ! तेरे मन में पराये आदमी से मुलाकात करने की चिन्ता है, तेरे ठिकान की वृद्धि होगी, कल्याण होगा, प्रजा की वृद्धि तथा आरोग्यता होगी, इस बात का यह पुरावा है कि-तू खप्न में वृक्ष को देखेगा। ___३४३-हे पूछने वाले ! तुझे वैरी की अथवा जिस किसी ने तेरे साथ विश्वासघात (दगाबाजी) किया है उस की चिन्ता है, सो इस शकुन से ऐसा मालूम होता है कितेरे बहुत दिन क्लेश में बीतेंगे और तेरी जो चीज़ चली गई है वह पीछे नहीं आवेगी परन्तु कुछ दिन पीछे तेरा कल्याण होगा। ___३४४-हे पूछने वाले ! तेरे सब काम अच्छे है, तुझे शीघ्र ही मनोवाञ्छित (मन चाहा) फल मिलेगा, तुझे जो व्यापार की तथा भाई वन्धुओ की चिन्ता है वह सब मिट जावंगी, इस बात का यह पुरावा है कि-तेरे शिर में घाव का चिह्न है, त उद्यम कर अवश्य लाभ होगा। ४११-हे पूछने वाले ! तेरे धन की हानि, शरीर में रोग और चित्त की चञ्चलता. ये वात सात वर्ष से हो रही हैं, जो काम तू ने अब तक किया है उस में नुकसान होता रहा है परन्तु अब तु खुश हो, क्योंकि अब तेरी तकलीफ चली गई, तु अब चिन्ता मत करः क्योंकि-अब कल्याण होगा, वन धान्य की जामद होगी तथा सुख होगा। Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० चैनसम्प्रदायशिक्षा || ४१२ - पूछने वाले ! तेरे मन में स्त्रीविषयक चिन्ता है, तेरी कुछ रकम भी छोगों में फँस रही है और अब तू माँगता है तब फेयल हो, नाँ होती है, धन के विषय में तकरार होने पर भी तुझे लाभ होता नहीं दीखता है, यद्यपि तू अपने मन में शुभ समय (सुवस्वी) समझ रहा है परन्तु उस में कुछ दिनों की ठीक है मर्यात् कुछ दिन पीछे वेरा मतलब सिद्ध होगा । ४१३ - हे पूछने वाले ! तेरे मन में धनलाम की चिन्ता है और तू किसी प्यारे मित्र की मुलाकात को चाहता है, सो तेरी जीत होगी, अचल ठिकाना मिलेगा, पुत्र का काम होगा, परदेश जाने पर कुछ क्षेम रहेगा तथा कुछ दिनों के बाद तेरी बहुत वृद्धि होगी, इस बात की सत्यता का यह प्रमाण है कि तू स्वम में काच ( वर्पण ) को देखेगा । ४१४ - हे पूछने वाले । यह बहुत अच्छा शकुन है, तुझे द्विपद अर्थात् किसी मामी की चिन्ता है, सो महीने भर में मिट जावेगी, धन का लाभ होगा, मित्र से मुख्यत होगी तथा मन के विचारे हुए सब काम श्रीम ही सिद्ध होंगे । ४२१ - पूछने वाले ! तू घन को चाहता है, तेरी संसार में प्रतिष्ठा होगी, परदेश में जाने से मनोवाञ्छित (मनचाहा ) लाम होगा तथा सज्जन की मुलाकात होगी, तने स्वम में पन को देखा है, या स्त्री की बात की है, इस अनुमान से सब कुछ षच्छा होगा, तू मासा की चरण में खा; ऐसा करने से कोई भी विन नहीं होगा । ४२२-हे पूछने वाले ! तेरे मन में ठकुराई की चिन्ता है; परन्तु मेरे पीछे तो वरि ब्रसा पढ़ रही है, तू पराये ( दूसरे के ) काम में लगा रहा है, मन में बड़ी तकलीफ पा रहा है तथा सीन वर्ष से तुझे केस हो रहा है अर्थात् सुख नहीं है, इस लिये तू अपने मन के बिचारे हुए काम को छोड़ कर दूसरे काम को कर, वह सफल होगा, तू कठिन स्वम को देखता है तथा उस का तुझे ज्ञान नहीं होता है, इस किये जो तेरा कुलधर्म है उसे कर, गुरु की सेवा कर तथा कुलदेव का ध्यान कर, ऐसा करने से सिद्धि होंगी " । ४२३-हे पूछने वाले ! तेरा विजय होगा, छत्रु का क्षय होगा, धन सम्पतिका सभ होगा, सखनों से मीति होगी, कुल क्षेम होगा तथा औषधि करने भावि से समभ होगा, भय तेरे पाप क्षम नाच ) को प्राप्त हुए, इस किये जिस काम को तू विधारता है मह सब सिद्ध होगा, इस बात का यह पुरावा है कि तू स्वम में वृक्ष को वेस्लेगा । ४२४–हे पूछने वाले ! तेरे मन में बड़ी भारी चिन्ता है, तुझे अर्थ का नाम होगा, तेरी जीत होगी, सज्जन की मुलाकात होगी, सब काम सफल होंगे तथा चि में भानन्य होगा । P ४११-३ पूछने वाले | यह शकुन दीर्घायुकारक (बड़ी उम्र का करने वाला) है, तुझे दूसरे ठिकाने की जिन्सा है, तू भाई बन्धुओं के आगमन को भाता है, तू अपने मन में Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७५१ जिस काम को विचारता है वह सब सिद्ध होगा, अब तेरे दुःख का नाश हो गया है परन्तु तुझे देशान्तर ( दूसरे देश ) में जाने से बन का लाभ होगा और कुशल क्षेम से आना होगा, इस बात का यह पुरावा है कि - तू स्वप्न में पहाड़ पर चढना तथा मकान आदि को देखेगा, अथवा तेरे पैर पर पचफोड़े का चिह्न ( निशान ) है । ४३२ - हे पूछने वाले । अब तेरे सब दुःख समाप्त हुए तथा तुझे कल्याण प्राप्त हुआ - तुझे ठिकाने की चिन्ता है तथा तू किसी की मुलाकत को चाहता है सो जो कुछ काम तू ने विचारा है वह सब होगा, देशान्तर ( दूसरे देश ) में जाने से धन की प्राप्ति होगी तथा वहॉ से कुशल क्षेम से तू आवेगा । ४३३ - हे पूछने वाले ! जब तेरे पास पहिले धन था तब तो मित्र पुत्र और भाई आदि सब लोग तेरा हुक्म मानते थे, परन्तु खोटे कर्म के प्रभाव से अब वह सब धन नष्ट हो गया है, खैर ! तू चिन्ता मत कर, फिर तेरे पास धन होगा, मन खुश होगा तथा मन में विचारे हुए सब काम सिद्ध होंगे । ४३४ – हे पूछने वाले ! जिस का तू मरना विचारता है वह अभी नहीं होगा ( वह अभी नहीं मरेगा) और तू ने जो यह विचार किया है कि - यह मेरा काम कब होगा, सो वह तेरा काम कुछ दिनों के बाद होगा । ! के ४४१ - हे पूछने वाले ! तेरे भाई का नाश हुआ है तथा तेरे क्लेश, पीडा और कष्ट बहुत दिन बीत गये हैं, अब तेरे ग्रह की पीड़ा केवल पाँच पक्ष वा पाच दिन की है, जिस काम को तू विचारता है उस में तुझे फायदा नहीं है, इस लिये दूसरे काम को विचार, उस में तुझे कुछ फल मिलेगा । ४४२-हे पूछने वाले ! जिस काम का तू प्रारम्भ करता है वह काम यज्ञ करने पर भी सिद्ध होता हुआ नहीं दीखता है, अर्थात् इस शकुन से इस काम का सिद्ध होना प्रतीत नहीं होता है इस लिये तू दूसरा काम कर । ४४३-हे पूछने वाले | जिस काम का तू प्रारम्भ करता है वह काम सिद्ध नहीं होगा, तू पराये वास्ते (दूसरे के लिये ) जो अपने प्राण देता है वह सब तेरा उपाय व्यर्थ है इस लिये तू दूसरी बात का विचार कर, उस में सिद्धि होगी । ४४४-हे पूछने वाले ! जिस काम का तू वारवार विचार करता है वह तुझे शीघ्र ही प्राप्त होगा अर्थात् पुत्र का लाभ, ठिकाने का लाभ, गई हुई वस्तु का लाभ तथा धन का लाभ, ये सब कार्य बहुत शीघ्र होंगे || प्रदेशगमनादिविषयक शकुन विचार ॥ १- यदि ग्राम को जाते समय कुमारी कन्या, सधवा ( पतिवाली ) स्त्री, गाय, भरा Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ म मा विलाप जावे, या यदि सामने वाला होने से मनश्यप सुनाई दे की हुना पड़ा, दही, मेरी,सा, उत्तम फठ, पुप्पमाग, विना पूम की ममि, मोड़ा, हाथी, रस, पेस, रामा, मिट्टी, वर, सुपारी, छत्र (छाता), सिद (तैयार किये हुए) मोबन से मरा हुमा थाल, वेश्या, चोरों का समूह, गहुआ, आरसी, सिकोरा, दोना, मांस, मप, मध्य पोग (यानविशेप), मधुसहित प्रत, गोरोचन, चाप, रस, बीपा, कमछ, सिंहासन, सम्पूर्ण इधियार, मृदा मादि सम्पूर्ण माजे, गीत की नि, पुत्र के सहित सी, क्छो सहित गाप, पोये हुए पनों को लिये हुये पोनी, मोषा और मुँहपची के सदिस साप, विठक के सहित ग्रामण, मचाने का नगारा तथा मापताका इत्यादि शुम पयारे सामन दीस पो भगवा गमन करने के समय-'बामो लामो' 'निकलो' 'छोर दो' 'बर पाममा 'सिदि फरो' 'वान्छित फल को मात करो' इस प्रकार के शुम श्वव्य सुनाई देवं गे पर की सिदि समझनी चाहिये अर्थात् इन मुफुनों के होने से मपश्य कार्य सिद्ध होता है। २-माम को बाते समय यदि सामने वा वाहिनी तरफ छीक होये, कौटे से गए कर बाये या तरुण यावे, वाटा सग बाये, या कराने का शब्द मनाई पर, अपना सार फा या विलाप का दर्शन हो तो गमन नहीं करना चाहिये । ३-भठते समय यदि नीलचास, मोर, भारताव मौर मेरला रष्टिगत हो सो उपमहा १-पम्ते समय भट (मुर्ग) माई वरफ गोल्ना उत्तम होता है। ५-पससे समय बाई ठरफ रामा का दर्शन होने से सम कष्ट दूर होता है। ६-पख्ते समय पाई सरफ़ गपे के मिस्ने से मनोवाम्गित कार्य सिद्ध होता है। ७-चस्ते समय दाहिनी तरफ नाहर के मिटने से उचम ऋदि सिदि होती है। ८-चन्ते समम सम्पूर्ण नसायुषो का बाई तरफ मिलना सभा पुसवे समय वाहना तरफ मिलना मासकारी होता है। ९-यम्से समय गधे का पाई तरफ मिग्ना सपा पुसते समय वाहिनी तरफ मिलना उत्तम होता है। १०-पीछे तथा सामने जब गपा पोसता हो उस समय गमन करना बाहिय । ११-पटके समय यदि गपा मेथुन सेवन करता हुआ मिठे पन मा मभ तमा कार्य श्री सिदि जानी जाती है। १२ पस्ते समय यदि गमा पाई तरफ सिभ में दिखाया हुमा दीसे वो मुन्नत प सूरा होता है। १२-यदि मुमा (तोवा) माई तरफ पाठ सो भय वादिनी तरफ नाते वो महा नाम.ममी हसली पर रेटा हुभा माठ तो भय वा सम्मुम मोठे तो मन । 1- परम पारामा सममा Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ॥ ७५३ १४- यदि मैना सामने बोले तो कलह, दाहिनी तरफ बोले तो लाभ और सुख, बाई तरफ बोले तो अशुभ तथा पीठ पीछे बोले तो मित्रसमागम होता है । १५ - ग्राम को चलते समय यदि बगुला बायें पैर को ऊँचा ( ऊपर को ) उठाये हुए तथा दाहिने पैर के सहारे खड़ा हुआ दीख पडे तो लक्ष्मी का लाभ होता है । १६ - यदि प्रसन्न हुआ बगुला बोलता हुआ दीखे, अथवा ऊँचा ( ऊपर को ) उडता हुआ दीखे तो कन्या और द्रव्य का लाभ तथा सन्तोप होता है और यदि वह भयभीत होकर उडता हुआ दीखे तो भय उत्पन्न होता है । १७- ग्राम को जाते समय यदि बहुत से चकवे मिले हुए बैठे दीखें तो बड़ा लाभ और सन्तोप होता है तथा यदि भयभीत हो कर उड़ते हुए दीखें तो भय उत्पन्न होता है । १८- यदि सारस बाईं तरफ दीखे तो महासुख, लाभ और सन्तोष होता है, यदि एक एक बैठा हुआ दीखे तो मित्रसमागम होता है, यदि सामने बोलता हुआ दीखे तो राजा की कृपा होती है तथा यदि जोड़े के सहित बोलता हुआ दीखे तो स्त्री का लाभ होता है परन्तु दाहिनी तरफ सारस का मिलना निषिद्ध होता है । १९ - ग्राम को जाते समय यदि टिट्टिभी ( टिंटोड़ी ) सामने बोले तो कार्य की सिद्धि होती है तथा यदि बाईं तरफ बोले तो निकृष्ट फल होता है । २०-जाते समय यदि जलकुक्कुटी ( जलमुर्गाबी ) जल में बोलती हो तो उत्तम फल होता है तथा यदि जल के बाहर बोलती हो तो निकृष्ट फल होता है । २१- ग्राम को चलते समय यदि मोर एक शब्द बोले तो लाभ, दो वार बोले तो स्त्री का लाभ, तीन वार वोले तो द्रव्य का लाभ, चार वार बोले तो राजा की कृपा तथा पाँच वार बोले तो कल्याण होता है, यदि नाचता हुआ मोर दीखे तो उत्साह उत्पन्न होता है नथा यह मंगलकारी और अधिक लाभदायक होता है । २२-गमन के समय यदि समली आहार के सहित वृक्ष के ऊपर बड़ा लाभ होता है, यदि आहार के विना बैठी हो तो गमन निष्फल तरफ बोलती हो तो उत्तम फल होता है तथा यदि दाहिनी तरफ फल नही होता है । २३–ग्राम को चलते समय यदि घुग्घू वांई तरफ बोलता हो तो उत्तम फल होता है, यदि दाहिनी तरफ बोलता हो तो भय उत्पन्न होता है, यदि पीठ पीछे बोलता हो तो वैरी वश में होता है, यदि सामने बोलता हो तो भय उत्पन्न होता है, यदि अधिक शब्द बैठी हुई दीखे तो होता है, यदि बाई बोलती हो तो उत्तम १- बुरा अर्थात् फल का सूचक । २ - 'एक शब्द,' अर्थात् एक वार । ९५ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 751 चैनसम्प्रदायशिक्षा करता हो तो अधिक धैरी उत्पन्न होते हैं, मवि घर के ऊपर मोठे सो मी की मृत्यु होती है अथवा अन्य किसी गृहमन फी मृत्यु होती है तथा यदि तीन दिन तक योग्ता तो चोरी का सूचक होता है। २१-मस्ते समय मबूतर का दाहिनी तरफ होना गमकारी होता है, पाई तरफ हम से भाई भीर परिबन फो फष्ट उत्पन्न होता है तथा पीछे पुगता हुभा होने से उत्तम फल होता है। २५-यदि मुर्गा सिरता के साथ पाई वरफ शम्न करता हो तो छाम और मुख हेला देवा यदि मय से प्रान्त होकर पाई घरफ मोसा हो वो मम और केस उत्पन होता है। २२-यदि नीकण्ठ पक्षी सामने वा वाहिनी तरफ धीर वृक्ष के उपर बैठा हुमा बोरे तो मुस पोर छाम होता है, यदि वा वाहिनी तरफ होकर सोरण पर पाप ता मत्यन्त ठाम और कार्य की सिद्धि होती है, यदि यह पाई तरफ भौर सिर विच स मोख्ता हुमा दीसे तो उत्तम फल होता है या यदि चुप मैठा हूमा पीसे तो उघम पर नहीं होता है। २७-नीमण्ठ भौर नीमिया पक्षी का दर्शन भी शुमारी होता है, क्योंकि पम्स समय इन का दर्शन होने से सर्व सम्पति की प्राप्ति होती है। २८-प्राम को पम्से समम भगवा किसी गुम कार्य के परते समय यदि भोरा पार ठरफ फूल पर भेटा हुमा दीसे मोहर्प भौर पस्माण का करने पाग होता पार सामने पन के उपर पेठा हुभा दीसे वो भी गुमकारक होता है तथा यदि गते हुए भारे शरीर पर मा गिरें तो मशुम होता है, इस रिमे ऐसी दशा में बसों के सहित चार फरना पारिसे मोर असे पदार्थ का दान करना पाहिये, ऐसा करने से सर्व दोष नि हो जाता है। २९-ग्राम को पन्दे समय यदि मफडी माई तरफ से दाहिनी तरफ को उतर उस दिन नहीं पसना पारिये, पदि माई तरफ जामो सस्ती हुई दीस पाता की सिदि, ठाम नौर फुसल होता है, यदि दाहिनी तरफ से माई तरफ को उतरे वा, शुभ होता है, मदि पैर की मरफ से उपर नॉप पर पोठा पोरे की प्राधि हाता यदि मठ साप मा पम मोर मामूपण की माप्ति होती है. यदि मन्त्रक पन्त मा राजमान प्राप्त होता है सभा यदि शरीर पर पड़े तो नमकी प्राधि होती 6 मा प्प उपर को पाना गुमघरी पोर नीचे को उतरना भशुभघरी होता है। ३०-माम को पस्ने समय अनसनरेनमा तरफ से उतरमा शुभ होता हम हिनी तरफ सरना एरं मस्तक भोर घरीर पर परमा मुरा सेता है। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय / / 755 को खोदता हु लाख तो सर्व कार्यों लाख पडे तो ३१-ग्राम को चलते समय यदि हाथी दाहिने दात के ऊपर सूंड़ को रक्खे हुए अथवा सूड़ को उछालता हुआ सामने आता दीख पड़े तो सुख, लाभ और सन्तोष होता है तथा वाई तरफ वा अन्य किसी तरफ सूंड को किये हुए दीखे तो सामान्य फल होता है, इस के अतिरिक्त हाथी का सामने मिलना अच्छा होता है। ३२-यदि घोडा अगले दाहिने पैर से पृथिवी को खोदता हुआ वा दाँत से दाहिने अंग को खुजलाता हुआ दीखे तो सर्व कार्यों की सिद्धि होती है, यदि वायें पैर को पसारे हुए दीख पडे तो क्लेश होता है तथा यदि सामने मिल जावे तो शुभकारी होता है / . ३३-ऊँट का वाई तरफ बोलना अच्छा होता है, दाहिनी तरफ बोलना केशकारी होता है, यदि सॉडनी सामने मिले तो शुभ होती है। .३४-यदि चलते समय बैल बायें सीग से वा वायें पैर से धरती को खोदता हुआ दीख पड़े तो अच्छा होता है अर्थात् इस से सुख और लाभ होता है, यदि दाहिने अंग से पृथिवी को खोदता हुआ दीख पड़े तो बुरा होता है, यदि बैल और भैसा इकटे खड़े हुए देखि पड़े तो अशुभ होता है, ऐसी दशा में ग्राम को नहीं जाना चाहिये, यदि जावेगा तो प्राणों का सन्देह होगा, यदि डकराता (दडूकता ) हुआ साँड़ सामने दीख पड़े तो अच्छा होता है। .35 यदि गाय बाई तरफ शब्द करती हुई अथवा बछड़े को दूध पिलाती हुई दीख पड़े तो लाभ, सुख और सन्तोष होता है तथा यदि पिछली रात को गाय बोले तो केश उत्पन्न होता है। ३६-यदि गघा बाई तरफ को जावे तो सुख और सन्तोष होता है, पीछे की तरफ वा दाहिनी तरफ को जावे तो क्लेश होता है, यदि दो गधे परस्पर में कन्धे को खुजलावें, वा दाँतों को दिखावें, वा इन्द्रिय को तेज करें, वा बाई तरफ को जावे तो बहुत लाभ और सुख होता है, यदि गधा शिर को धुने वा राख में लोटे अथवा परस्पर में लड़ता हुआ दीख पड़े तो अशुभ और क्लेशकारी होता है तथा यदि चलते समय गधा बाई तरफ बोले और घुसते समय दाहिनी तरफ बोले तो शुभकारी होता है। ३७-ग्राम को चलते समय बन्दर का दाहिनी तरफ मिलना अच्छा होता है तथा मध्याह के पश्चात् बाईं तरफ मिलना अच्छा होता है। ३८-यदि कुत्ता दाहिनी कोख को चाटता हुआ दीख पड़े अथवा मुख में किसी भक्ष्य पदार्थ को लिये हुए सामने मिले तो सुख, कार्य की सिद्धि और बहुत लाभ होता है, * फले और फूले हुए वृक्ष के नीचे बाड़ी में, नीली क्यारियों में, नीले तिनकों परः द्वार की ईंट पर तथा धान्य की राशि पर यदि कुत्ता पेशाब करता हुआ दीख पड़े तो बड़ा लाभ और सुख होता है, यदि बाई तरफ को उतरे वा जाँघ, पेट और हृदय को दाहिने पिछले Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 759 चैनसम्प्रदायशिक्षा / / पेर से चाटता हुमा अथषा सुजगता हुआ वील परे तो बड़ा गम होता है, यदि सूत्र पर उसी की वाहिनी तरफ, श्मशान में, वा परमर पर मूसता हुमा दील पड़े तो बड़ा कृप्ट उत्पन होता है, ऐसे फन फो देख कर माम को नहीं जाना चाहिये, प्रामप्र पठसे समय यदि कुता ऊँग भेठा हुभा कान मस्तक और हदय को सुजलाता हुआ पाटसा हुमा दीख पड़े ममपा दो कुछ खेलते हुए वीस परें वो कार्य की सिद्धि होता। तया यदि कुत्ता भूमि पर छोटता हुमा वा खामी से गर किया जाता हुआ साट पर पेठा वीले तो तो पड़ा केश उस्पाम होता है। ३९-यदि प्राम को गाते समय मुख में भक्ष्य पदार्थ को लिमे हुए पिटी सामने पास पड़े तो गाम मोर कुश्वास होता है, यदि दो विष्ठियाँ मसी हो या पुर 2 शम्बरा हो योभशुभ होता है तथा यदि मिट्टी मार्ग को काट मावे तो प्राम को नहीं माना जाता १०-माम को बाते समम मसर का नाई तरफ होना उत्तम होता है तथा वाइन तरफ होना बुरा होता है। ११-माम को जाते समय यदि मात कास हरिण वाहिनी तरफ वा सो षम पर हे परन्तु यदि हरिण सींग को ठोके, चिर को हिसावे, मन करे, मन करे या " वाहिनी तरफ मी मघा नहीं होता है। १२-माम को बाते समय श्रृंगार का पाई सरफ मोना तथा पुसते समय वाहिनी सरफ पोम्ना उत्तम होता है। यह पचम भध्याय का चकनापरिवर्णन नामक ग्यारहना प्रकरण समाप्त हुआ। इति भी पैनशेताम्बर-धर्मोपदेश-विमाणाचार्य-बिरेफरम्भिशिष्य धीम्सौमाम्मनिर्मिता जैनसम्प्रदायशियाया। पचमोऽध्यायः // . EN ENIMALAIMURTITUNAM +Thurer प्रय समाप्त // प्रप Page #791 -------------------------------------------------------------------------- _