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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६०९ का प्रारम्भ किया, आचार्य महाराज का शिप्य अपने वास्ते आहार लाने के लिये सदा ओसियाँ पट्टन में गोचरी जाता था परन्तु जैन साधुओं के लेने योग्य शुद्ध आहार उसे किसी जगह भी नहीं मिलता था, क्योकि उस नगरी में राजा आदि सब लोग नास्तिक मतानुयायी अर्थात् वाममार्गी (कूड़ा पन्थी) देवी के उपासक तथा चामुण्डा (साचिया देवी) के भक्त थे इस लिये दयाधर्म (जैनधर्म) के अनुसार साधु आदि को आहारादि के देने की विधि को वे लोग नहीं जानते थे। पाटधारी श्री रत्नप्रभसूरि महाराज वीर सवत् ७० (महावीर खामी के निर्वाण से ७० वर्ष पीछे ) अर्थात् विक्रम संवत् ते ४०० (चार सौ ) वर्ष पहिले विहार करते हुए जब ओसियों पधारे थे उस समय यह नगर गड, मठ, वन, धान्य, वन और सर्व प्रकार के पण्य द्रव्यादि (व्यापार करने योग्य वन्तुओ आदि) के व्यापार से परिपूर्ण (भरपूर ) या ॥ १-कपाली, भस लगानेवाले, जोगी, नाथ, कौलिक और ब्राह्म आदि, इन को वाममागा ओर नास्तिक कहते है, इन के नत का नाम नास्तिक मत वा चावांक मत है, ये लोग स्वर्ग, नरक, जीव, पुण्य और पाप आदि कुछ भी नहीं मानते है, किन्तु केवल चानुभौतिक देह मानते है अर्थात् रन का यह मत है कि-वार भूता से ही मद्यशक्ति के समान (जैसे मद्य के प्रत्येक पदार्थ में मादक शक्ति नहीं है परन्तु सव के मिलने से मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है इस प्रकार ) चैतन्य उत्पन्न होता है तथा पानी के बुलबुले के समान शरीर ही जीवल्प है (अर्थात् जैसे पानी में उत्पन्न हुआ वुलवुला पानी से भिन्न नहीं है किन्तु पानीरूप ही है इसी प्रकार शरीर में उत्पन्न हुआ जीव शरीर से भिन्न नहीं है किन्तु गरीररूप ही है ), इस मत के अनुयायी जन मद्य और मास का सेवन करते है तथा नाता वहिन और कन्या आदि अगम्य (न गमन करने योग्य ) भी नियों के साथ गमन करते है, ये नास्तिक वाममार्गी लोग प्रतिवर्ष एक दिन एक नियत स्थान में सव मिल कर इकट्ठे होते है तथा वहाँ त्रियों को नग्न करके उन की योनि की पूजा करते है, इन लोगो के मत मे कामसेवन के सिवाय दूसरा कोई धर्म नहीं है अर्थात् ये लोग कामसेवन को ही परम धर्म मानते हैं, इस मत में तीन चार फिरके हे-यदि किसी को इस मत की उत्पत्ति के वर्णन के देखने की इच्छा हो तो शीलतरङ्गिानामक ग्रन्थ ने देख लेना चाहिये, व्यभिचार प्रधान होने के कारण यह मत संसार में पूर्व समय में वहुत फैल गया था परन्तु विद्या के संसर्ग से वर्तमान में इस मत का पूर्व समय के अनुसार प्रचार नहीं है तथापि राजपूताना, पजाव, वगाल और गुजरात आदि कई देशो में अव भी इस का थोडा वहुत प्रचार है, पाठकगण इस मत की अधमता को इसी से जान सकते हैं किइस मत में सम्मिलित होने के बाद अपने मुख से कोई भी मनुप्य यह नहीं कहता है कि-म वाममार्ग में हूँ, राजपूताने के वीकानेर नगर में भी पच्चीस वर्ष पहिले तक उत्तम जातिवाले भी वहुत से लोग गुप्त रीति से इस मत में सम्मिलित होते थे परन्तु जव से लोगों को कुछ २ शान हुआ है तब से वहाँ इस मत के फन्दे से लोग निकलने लगे, अब भी वहाँ शूद्र वर्गों में इस मत का अधिक प्रचार है परन्तु उत्तम वर्ण के भी योडे वहुत लोग इस में गुप्ततया पसे हुए है, जिन की पोल किसी २ समय उन की गफलत से खुल जाती है, इस का कारण यह है कि मरनेवाले के पीछे यदि उस का पुत्रादि कोई कुटुम्बी उस की गद्दी पर न बैठे तो वह (नृत पुरुप) व्यन्तरपन में अनेक उपद्रव करने लगता है, सवत् १९९४ के माघ
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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