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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३३९ अपना असर कर उसी समय रोग को उत्पन्न कर देते हैं, देखो । पुण्य के योग से बलवान् आदमी के शरीर में रोग के कारणों को रोकनेवाली शातावेदनी कर्म की शक्ति अधिक हो जाती है परन्तु निर्वल आदमी के शरीर में कम होती है इस लिये वलवान् आदमी बहुत ही कम तथा निर्बल आदमी वार २ बीमार होता है। ___ जीव की स्वाभाविक शक्ति ही शरीर में ऐसी है कि उस से रोगोत्पत्ति के पश्चात् उपाय के विना भी रोग दव जाता वा चला जाता है, इस के अनेक उदाहरण शरीर में प्रायः देखे जाते है जैसे-आख में जब कोई तृण आदि चला जाता है तब शीघ्र ही अपने आप पानी झर झर कर वह ( तृण आदि ) वह कर बाहर निकल पड़ता है, यदि कभी रात में वह ( तृण आदि ) आख में पड़ जाता है तो प्रातःकाल स्वयं ही कीचड़ ( आख के मैल) के साथ निकल जाता है और आख विना इलाज किये ही अच्छी हो जाती है, कभी २ जब अधिक भोजन कर लेनेपर पेट में वोझा हो जाता है तथा दर्द होने लगता है तब प्रायः खय ही ( अपने आप ही ) अर्थात् ओषधि के विना ही वमन और दस्त होकर वह ( वोझा और दर्द ) मिट जाता है, यदि कोई इस वमन और दस्त को रोक देवे तो हानि होती है, क्योंकि जीव के साथ सम्बंध रखनेवाली जो शातावेदनी कर्म की शक्ति है वह पेट के भीतरी बोझे और दर्द को मिटाने के लिये वमन और दस्त की क्रिया को पैदा करती है, शरीरपर फोड़े, फफोले और छोटी २ गुमडिया होकर अपने आप ही मिट जाती हैं तथा जुखाम, शर्दी गर्मी और खासी होकर प्रायः इलाज के विना ( अपने आप ही ) मिट जाती है और इन के कारण उत्पन्न हुआ बुखार भी अपने आप ही चला जाता है, तात्पर्य यही है कि अशातावेदनी कर्म तो जीव के साथ प्रदेशवन्ध में रहता है और वह अलग है किन्तु शातावेदनी कर्म जीव के सर्व प्रदेशों में सम्बद्ध है, इस लिये ऊपर लिखी व्यवस्था होती है, जैसे-पक्की दीवारपर सूखे चूने की वा धूल की मुट्ठी के डालने से वह ( सूखा चूना वा धूल ) थोड़ा सा रह जाता है, वाकी गिर जाता है, वाकी रहा वह हवा के झपट्टे से अलग हो जाता है, इसी क्रम से वह रोग भी खतः मिट जाता है, इस से यह सिद्ध हुआ कि जीव के साथ कमी के चार बन्ध है अर्थात् प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवध और प्रदेशवन्ध, इन चारों बन्धों को लड्ड के दृष्टान्त से समझ लेना चाहिये-देखो ! जैसे सोंठ के लड्डु की प्रकृति अर्थात् स्वभाव तीक्ष्ण ( तीखा) होता है, इस को प्रकृतिवन्ध कहते हैं, वह लड्डु महीने भरतक अथवा वीस दिनतक निज स्वभाव से रहता है इस के वाद उस में वह खभाव नहीं रहता है, इस को स्थितिवंध अर्थात् अवधि ( मुद्दत ) बन्ध कहते है, छटाफ भर का, आधपाव का अथवा पाव भर का लड्डु है, इत्यादि परिमाण आदि को अनुभागवध कहते है, जिन २ पदार्थों के परमाणुओं को इकट्ठा कर के वह लड्डु वाघा गया है उस में स्थित जो पदार्थों के प्रदेश
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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