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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३९७ विचार कर रोग की परीक्षा करना, शकुन के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से होती है कि जिस समय वैद्य को बुलाने के लिये दूत जावे उसी समय मकान से निकलते ही उस को गर्म शकुन का होना शुभ होता है, सौम्य तथा ठंढा शकुन होवे तो वह अच्छा नहीं होता है इत्यादि, खरोदय के द्वारा रोग की परीक्षा इस प्रकार से होती है कि जब दूत वैद्य के पास पहुंचे तब वैद्य खरोदय देखे, वह भी भरीहुई दिशा में देखे, यदि दूत बैठ कर या खडा रह कर प्रश्न करे तो सजीव दिशा समझे, यदि उस समय वैद्य के अग्नितत्त्व चलता हो तो पित्त वा गर्मी का रोग समझे, रोगी के वायुतत्त्व चलता हो तो वायु का रोग समझे, इत्यादि तत्त्वों का विचार करे, यदि खाली दिशा में बैठ कर प्रश्न हो वा सुषुम्ना नाडी चलती हो तो रोगी मर जाता है, आकाशतत्त्व में वैद्य को यश नहीं मिलता है, यदि वैद्य के चन्द्र स्वर चलता हो पीछे उस में पृथिवी और जलतत्त्व चले तथा उस समय रोगीके घर जावे तो वैद्य को अवश्य यश मिलेगा, दवा देते समय वैद्य के सूर्य खर का होना इसी तरह पुन वैद्य को मकान से निकलते ही ठढे और सौम्यशकुन का होना अच्छा होता है परन्तु गर्म शकुन का होना अच्छा नहीं है, इत्यादि । ___ इस प्रकार से स्वम शकुन और खरोदय के द्वारा परीक्षा करने से वैद्य इस बात को निमित्त शास्त्र के द्वारा अच्छी तरह जान सकता है कि रोगी जियेगा या बहुत दिनोंतक भुगतेगा अथवा आराम हो जायगा इत्यादि । __ यद्यपि इन तीनों विषयों का कुछ यहा पर विशेष वर्णन करना आवश्यक था परन्तु ग्रंथ के बढ़ जाने के भय से यहा विशेष नहीं लिख सकते है किन्तु यहा पर तो अब रोग परीक्षा के जो लोकप्रसिद्ध मुख्य उपाय है उन का विस्तारसहित वर्णन करते हैं: रोगपरीक्षा के लोकप्रसिद्ध मुख्य चार उपाय हैं-प्रकृतिपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, दर्शनपरीक्षा और प्रश्नपरीक्षा, इन में से प्रकृतिपरीक्षा में यह देखा जाता है कि रोगी की प्रकृति वायुप्रधान है, वा पित्तप्रधान है, वा कफप्रधान है, अथवा रक्तप्रधान है, (इस विषय का वर्णन प्रकृति के स्वरूप के निर्णय में किया जावेगा ), स्पर्शपरीक्षा में रोगी के शरीर के भिन्न २ भागों की हाथ के स्पर्श से तथा दूसरे साधनों से जाच की जाती है, इस परीक्षा का भी वर्णन आगे विस्तार से किया जावेगा, यह स्पर्शपरीक्षा हाथ से तथा थर्मामीटर (उष्णतामापक नली ) से और स्टेथोस्कोप ( हृदय तथा श्वास नली की क्रिया के जानने की भुगली) आदि दूसरे भी साधनो से हो सकती है, नाड़ी, हृदय, फेफसा तथा चमड़ी, ये सब स्पर्शपरीक्षा के अंग है, दर्शनपरीक्षा में यह वर्णन है कि-रोगी के शरीर को अथवा उस के जुदे २ अवयवों को केवल दृष्टि के द्वारा देखने मात्र से रोग १-खरोदय का कुछ वर्णन आगे (पञ्चमाध्याय में) किया जायगा, वहा इस विषय को देख लेना चाहिये। २-अष्टान निमित्त के यथार्थ ज्ञान को जो कोई पुरुप झूठा समझते हैं यह उन की मूर्खता है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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