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________________ ६६८ जैनसम्प्रदामशिक्षा || सो मद्द आप लोगों का भय और कमन पर्थ है, क्योंकि भर्तृहरि जी ने कहा है कि"सर्वे गुणा काश्चनमाश्रयन्ति" अर्थात् सव गुण कश्चन ( सोने ) का आश्रय देते हैं, इसी प्रकार नीतिशास्त्र में भी कहा गया है कि-" न हि वद्विषते किश्चित, मवर्खेन न सिध्यति" अर्थात् संसार में ऐसा कोई काम नहीं है जो कि घन से सिद्ध न हो सकता हो, वास्पर्य यही है कि-धन से प्रत्येक पुरुष सब ही कुछ कर सकता है, देखो ! यदि भाप छोग कर्मों और कारखानों के काम को नहीं मानते हैं वो द्वन्प का म्यग करके अनेक देशों के उत्तमोत्तम कारीगरों को मुका कर तथा उन्हें स्वामीन रख कर भाप कार स्वामों का काम अच्छे प्रकार से चला सकते हैं । अग भन्त में पुन एक वार भाप लोगों से यही कहना है कि हे प्रिय मित्रो ! सब श्रीमही घेतो, अज्ञान निया को छोड़ कर स्वजाति के सद्गुणों की वृद्धि करो और देश के कस्माणरूप श्रेष्ठ व्यापार की उन्नति कर उमय लोक के सुख को प्राप्त करो ॥ यह पथम अध्याय का भोसवाल वसोत्पत्तिवर्णन नामक प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ || द्वितीय प्रकरण - पोरवाल वंशोत्पत्चिवर्णन || पोरवाल वंशोत्पत्ति का इतिहास ॥ पद्मावती नगरी ( जो कि आबू के नीचे बसी भी ) में बैनाचार्य ने प्रतिमोभ वेकर बोगों को चैनधर्मी बना कर उन का पोरवास बंश स्थापित किया था । दो एक सेल हमारे बेखने में ऐसे भी जाये है जिन में पोरबा को प्रतिबोष देनेगाळा जैनाचार्य श्रीहरिमद्र सूरि जी महाराज को किया है, परन्तु यह बात बिलकु १-ये (पोरवाल ) अब दक्षिण मारवा (मोड़वाड़) और गुजरात में अधिक है, इसका ओसवालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध होता है, किन्तु केवळ भोजमव्यवहार होता है इसका एक फिरका षडानामक है, उस में २४ मोत्र है तथा उसमें बैनी और वैष्णव होगा माइक रहवा बहुत करके अम्बक मदी की छाया में रामपुरा मन्दसौर माया तथा इस्कर सिंव के राज्य में है अर्थात् उच्च स्थानों में मैन्बव पोरवारों के करीब तीन हजार पर बसते है, इन के जैनजमेवारी पोरवाड ऑन है ये मेवपुर और उम्बन आदि में निवास करते हैं, फि-दोषड़ा फिस के वारके पोरवालों को १४ प्येत्र है जब १४ मोत्रों के नाम मे ११परी । १-काव्य । ३-जनगड ४-५-पादोन । ६-मयन्यावस्था) ९-भ्रमस्या । १ मा । ११-कविया । १२ १३ १६-१७-१८ या १९ नया १ मेसोस । ११११वा । ११-महा । १४-सरभा शिवाय बाकी के ऊपर का पु १४-१५-प्रभे ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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