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________________ पञ्चम अध्यायः ॥ ६६७ करना ही व्यापार में सफलता का देने वाला है, आगरे के निवासी तीन प्रकार के जुए में लगे हुए है, यह अच्छी बात नहीं है-क्योंकि यह आगरे के व्यापार की उन्नति का वाधक है, इस लिये नाज का जुआ, चाँदी का जुआ और अफीम का सट्टा तुम लोगो को छोड़ना चाहिये, इन जुओ से जितनी जल्दी जितना धन आता है वह उतनी ही जल्दी उन्ही से नष्ट भी हो जाता है, इस लिये इस बुराई को छोड देना चाहिये, यदि एसा न किया जावेगा तो सर्कार को इन के रोकने का कानून बनाना पड़ेगा, इस लिये अच्छा हो कि लोग अपने आप ही अपने भले के लिये इन जुओ को छोड़ दें, स्मरण रहे कि-सार को इन की रोक का कानून बनाना कुछ कठिन है परन्तु असम्भव नहीं है, फ्रीगंज की भविष्यत् उन्नति व्यापारियो को ऐसे दोषो को छोड़ कर सच्चे व्यापार में मन लगाने पर ही निर्भर है" इत्यादि, इस प्रकार अति सुन्दर उपदेश देकर श्रीमान् लाट साहब ने चमचमाती ( चमकती ) हुई कन्नी और वसूली से चूना लगाया और पत्थर रखने की रीति पूरी की गई, अब सेठ साहूकारों और व्यापारियों को इस विषय पर ध्यान देना चाहिये कि-श्रीमान् लाट साहब ने जुआ न खेलने के लिये जो उपदेश किया है वह वास्तव में कितना हितकारी है, सत्य तो यह है कि-यह उपदेश न केवलं व्यापारियों और मारवाडियों के लिये ही हितकारक है बरन सम्पूर्ण भारतवासियों के लिये यह उन्नति का परम मूल है, इस लिये हम भी प्रसगवश अपने जुआ खेलने वाले माइयों से प्रार्थना करते हैं कि-अंग्रेज जातिरत्न श्रीमान् छोटे लाट साहब के उक्त सदुपदेश को अपनी हृदयपटरी पर लिख लो, नहीं तो पीछे अवश्य पछताना पड़ेगा, देखो! लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है कि-"जो न माने बडों की सीख, वह ठिकरा ले मागे भीख' देखो! सब ही को विदित है कि-तुम ने अपने गुरु, शास्त्रों तथा पूर्वजों के उपदेश की ओर से अपना ध्यान पृथक् कर लिया है, इसी लिये तुम्हारी जाति का वत्तेमान में उपहास हो रहा है परन्तु निश्चय रक्खो कि-यदि तुम अब भी न चेतोगे तो तुम्हें राज्यनियम इस विषय से लाचार कर पृथक् करेगा, इस लिये समस्त मारवाड़ी और व्यापारी सज्जनों को उचित है कि इस दुर्व्यसन का त्याग कर सच्चे व्यापार को करें, हे प्यारे मारवाडियो और व्यापारियो! आप लोग व्यापार में उन्नति करना चाहें तो आप लोगों के लिये कुछ भी कठिन बात नहीं है, क्योंकि यह तो आप लोगों का परम्परा का ही व्यवहार है, देखो! यदि आप लोग एक एक हजार का भी शेयर नियत कर आपस में बेंचे ( ले लेवें ) तो आप लोग बात की बात में दो चार करोड रुपये इकट्ठे कर सकते है और इतने वन से एक ऐसा उत्तम कार्यालय ( कारखाना ) खुल सकता है कि जिस से देश के अनेक कष्ट दूर हो सकते है, यदि आप लोग इस वात से डेरे और कहें कि हम लोग कलो और कारखानों के काम को नहीं जानते हैं.
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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