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________________ ५५. चैनसम्प्रवामशिक्षा। पारे का मलम मगाना चाहिये, ऐसा करने से गर्मी मिट बावेगी, महम के अपने श्री रीति यह है कि-पो की पीट पर पारे के मरहम को चुपड़ कर उस पीट को गरे। पैरों पर भषदा पीठ पर बांध देना चाहिये, यह कार्य अब तक उपदंश न मिट जो सब तक करखे रहना पारिये, इस से महुत फायदा होता है मौषि-मरहम के भीतर प पारा शरीर में बाकर उपदंश को मिटासा है, पारे की औपषि से पिस प्रमर पी पासा वाले पुरुष के साम में ही मुस पाक हो जाता है उस प्रश्वर पाठक के नहीं होता है। ___ एक यह मात भी भरश्म ध्यान में रसनी पाहिये कि-उपदंश बाले मचे ओ माता फे दूप के पिठगने के बदले ( एवन में) गाय भावि र दूप पिम कर पाना मच्छा है। पथ्यापथ्य-स रोग में वप, भाव, मिमी, मूंग, गेऔर संपानिमक इत्यादि सापारण सुराक का साना तथा शव (साफ) पापु का सेवन करना पण और गर्म पदार्थ, मप (दाह), बहुत मि, वेन, गुरु, सटाई, धूप में फिरना, पषिक परिभम करना समा मैपुन इत्यादि भपप्प हैं। विशेष सूचना-पर्चमान समय में गर्मी देवी की प्रसादी से अपने पाछे बारे ही पुण्पनान् पुरुष रष्टिगत होते हैं' (देसे नाते हैं), इस के सिवाम प्राय मह भी देख्य जाता है कि-हुत से लोग इस रोग के होने पर इसे छिपाये रसते है तथा बहुत से भाम्पमाना (धनमानों) के गरे माता पिता के निहाम वा रर से भी इस रोम छिपाये रखते हैं परन्तु यह तो निमप ही है कि मोड़े ही दिनों में उन से मेवान में भवश्य माना ही पाया है (रोग को प्रकट करना ही पाता है षायों समझिये कि रोप प्रकट हो ही जाता है) इस लिये इस रोग का कभी छिपाना नहीं पारिये, क्योंकि इस रोग को छिपा कर रसने से महुस हानि पहुँपती है सभा या रोग कभी छिपा भी महा रह सकता है, इस सिमे इस का डिपाना विठकुछ म्पर्भ, भव (इस लिसे) इस रोग के होते ही उस को ध्मिाना नहीं चाहिये किन्तु उसका उपित उपाय करना पारिने । ज्या ही यह रोग उत्पन से स्मों ही सबसे प्रभम विपळे (रस बसा भार बापग) जुगार का सेमा प्रारंभ कर देना चाहिये सपा यह जुलाव तीन दिन सा सेना पाहिमे, जुलाब के दिन में खिचड़ी के सिवाय और कुछ भी नहीं साना पारिन, गपती (पती) हुई सिपड़ी में बोड़ासा पूत (पी) गठ सकते हैं। -न -मूहम प्रेमना दिन में सोग मारी जान पाय तपा पापा ये भीमग्रेन से युपपुरसहभपन मपत् सनियर - राम से परे दुर पुन र मार 1-प्रपा परप प्रपमरवा निमार पप्रमोरसरिरितारोगा भरणारापरे गाया।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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