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________________ पञ्चम अध्याय ।। , ६३५ बारहवीं संख्या-राखेचाह, पूगलिया गोत्र ॥ पूगल का राजा भाटी राजपूत सोनपाल था तथा उस का पुत्र केलणदे नामक था, उस के शरीर में कोढ़ का रोग हुआ, राजा सोनपाल ने पुत्र के रोग के मिटाने के लिये अनेक यत्न किये परन्तु वह रोग नहीं मिटा, विक्रमसंवत् ११८७ ( एक हजार एक सौ सतासी) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज विहार करते हुए वहाँ पधार, राजा सोनपाल बहुत से आदमियों को साथ लेकर आचार्य महाराज के पास गया आर नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर बैठ गया तथा गुरु जी से हाथ जोड़ कर बोला कि-"महाराज ! मेरे एक ही पुत्र है और उस के कोढ़ रोग हो गया है, मैं ने उस के मिटने के लिये बहुत से उपाय भी किये परन्तु वह नहीं मिटा, अब मैं आप की शरण में आया हूँ, यदि आप कृपा करें तो अवश्य मेरा पुत्र नीरोग हो सकता है, यह मुझ को दृढ़ विश्वास है" राजा के इस वचन को सुन कर गुरु जी ने कहा कि-"तुम इस भव आर पर भव में कल्याण करने वाले दयामूल धर्म का ग्रहण करो, उस के ग्रहण करने से तुम को सव सुख मिलेंगे" राजा सोनपाल ने गुरु जी के वचन को आदरपूर्वक स्वीकार किया, तब गुरु जी ने कहा कि-"तुम अपने पुत्र को यहाँ ले आओ और गाय का ताजा घी भी लेते आओ" गुरु जी के वचन को सुन कर राजा सोनपाल ने शीघ्र ही गाय का ताजा घी मँगवाया और पुत्र को लाकर हाजिर किया, गुरु महाराज ने वह घृत केलणदे के शरीर पर लगवाया और उस पर दो घटे तक खय दृष्टिपाश किया, इस प्रकार तीन दिन तक ऐसा ही किया, चौथे दिन केलणदे कुमार का शरीर कञ्चन के समान हो गया, राजा सोनपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उस के मन में अत्यन्त भक्ति और श्रद्धा की चाह को देख कर आचार्य महाराज ने वासक्षेप देने के समय उस का माहाजन वंश और राखेचाह गोत्र स्थापित किया । राखेचाह गोत्रवालों में से कुछ लोग पूगल से उठ कर अन्यत्र जाकर वसे तथा उन को लोग पूगलिया कहने लगे, वस तब से ही वे पूगलिया कहलाये ॥ तेरहवीं संख्या-लूणिया गोत्र ॥ सिन्ध देश के मुलतान नगर में मुंधडा जाति का महेश्वरी हाथीशाह राजा का देश दीवान था, हाथीशाह ने राज्य का प्रवध अच्छा किया तथा प्रजा के साथ नीति के अनु. १-एक जगह इस का नाम धींगडमल्ल लिखा हुआ देखने में आया है तथा दो चार वृद्धों से हमने यह भी सुना है कि मुंधडा जाति के महेश्वरी धींगडमल्ल और हाथीशाह दो भाई थे, उन में से हायी. शाह ने पुत्र को सर्प के काटने के समय में श्री जिनदत्त जी सूरि के कथन से दयामूल धर्म का ग्रहण किया था, इत्यादि, इस के सिवाय लुणिया गोत्र की तीन वशावलियाँ भी हमारे देखने में आई जिन में प्राय लेख तुल्य है अर्थात तीनों का लेख परस्पर में ठीक मिलता है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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