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________________ ५२५ जैनसम्प्रदायरिया ॥ वही में चौमा हिस्सा पानी सठ कर रिगेई हुई होनी चाहिये, मशात् दही में चौगाई हिस्से से भपिफ पानी सरकार नहीं विडोना पाहिय', स्पोंकि गादी छाउ इस रोम में उत्तम खुराफ है, मात् अपिक फायदा करती है, संग्रहणीपा रोगी के लिये अनी मछ ही पर लिसे भनुसार उपम खुराक है, क्योंकि यह पोपप कर मठरामि ने प्रमक प्रती है। इस रोग से युक मनुप्प को चाहिये कि किसी पूर्ण निदान् वैष श्री सम्मति से सब काय करे, किन्तु मूल पैप के फन्दे में न पड़े। __ छाछ के कुछ समयत सेवन करने के पीछे मात मादि हमकी सुराका सेना मारंम करना चाहिये तथा इतकी खुराफ के लेने के समय में भी छाछ के सेएन ने नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि मृत्यु के मुल में पड़े हुए तमा अस्ति (ग) मात्र शेप हुए मी संग्रहणी के रोगी को विद्वानों की सम्मति से भी हुइ छाउ ममृतरूप होपर जीवन घान देती है, परन्तु यह स्मरण रहे कि-धीरज रसकर का महीनासक मोठी अण ही मने पीकर रोगी को सना चाहिये, सत्म तो यह है कि-इस के सिवाय दूसरा सापन इस रोग के मिटाने के लिये किसी अन्य में नहीं देखा गया है।। इस रोग से युछ पुरुष के म्मेि उसेवन का गुणानुवाद जैनाचार्यरचित योगभिन्तामणि नामक पक मन्म में बहुत कुछ म्सिा है तथा इसके विपस में हमारा प्रत्यक्ष अनुमन भी है अर्मात् इस को हमने पथ्य और दया के रूप में ठीक रीति से पाया है। ३-मूंग की ठास घ पानी, पनियां, जीरा, संपा निमफ भोर सोंठ राज कर छाछ प्रे पीना पाहिये। ____-दाई मासे पेट की गिरी को छमाह में मिग र पीना चाहिये समा चल पाक की ही सराफ रसनी पाहिये। ५-दुग्मयटी-शुद्ध पस्सनाग पार पाठ मर, भफीम पार पास भर, यस्म पाप रची मर तवा अनक एक मासे मर, इन सपने दूप में पीस कर दो दो रची की गोमियां बनानी पाहिमें समा उन का शफिके मनुसार सेवन करना चाहिये, या संग्रहपी वमा सूजन की सर्वाधम ओपमि है, परन्तु स्मरण रहे कि अब तक इस दुग्पवटी का सेवन पिया जाये तम फ दूप सिवाय दूसरी सुराक नहीं सानी चाहिये । -मस्तामषित पानी गार फर्मवी कर बनी अहिले ।। १-क्या पूर्व सिनन् पम्मति से मुखार सबपर मारे फमे में पंस गये से पह रोपाप्रा प्रभावीपर्माद प्रापपरमेिरक्षा: २-तय भम्प प्रन्यो में मी समय में पाक का प्रयासर्वात इस AT में पर तकमा मया सपमेयरकामों के लिये मुसरी मस्ती उसी प्रपर इस घर में मठ के समान मुख्य भाव में परी माठ एक रिमेषखा परीके सेवन से मार दोष पिर मरम्व (रमन)
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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