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चतुर्थ अध्याय ॥
५२५ विशेषसूचना-अतीसार रोग में लिखे अनुसार इस रोग में भी अधिक लान नहीं करना चाहिये, अधिक जल नहीं पीना चाहिये, निग्ध (चिकना) अधिक खान पान नहीं करना चाहिये, जागरण नहीं करना चाहिये, बहुत परिश्रम (मह्नत ) नहीं करना चाहिये तथा खच्छ (साफ) हवा का सेवन करते रहना चाहिये, इस रोग के लिये सामुदिक पवन ( दरियाव की हवा ) अथवा यात्रासम्बधी हवा अधिक फायदेमन्द है'।
कृमि, चूरणिया, गिंडोला (वर्मस) का वर्णन ॥ विवेचन--कृमियों के गिरने से शरीर में जो २ विकार उत्पन्न होते है यद्यपि वे अति भयंकर हैं परन्तु प्रायः मनुप्य इस रोग को साधारण समझते है, सो यह उन की बड़ी भूल है, देखो । देशी वैद्यक शास्त्र में तथा डाक्टरी चिकित्सा में इस रोग का बहुत कुछ निर्णय किया है अर्थात् इस के विषय में वहा बहुत सी सूक्ष्म (वारीक) वातें बतलाई गई है, जिन का जान लेना मनुष्यमात्र को अत्यावश्यक (बहुत जरूरी) है, यद्यपि उन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन करना यहापर हमें भी आवश्यक है परन्तु ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से उन को विस्तारपूर्वक न बतला कर सक्षेप से ही उन का वर्णन करते है ।
भेद-कृमि की मुख्यतया दो जाति है-बाहर की और भीतर की, उन में से बाहर की कृमि ये हैं-जुए, लीख और चर्मर्जुए, इत्यादि, और भीतर की कृमि ताँतू आदि हैं ।
इन कृमियों में से कुछ तो कफ में, कुछ खून में और कुछ मल में उत्पन्न होती है।
कारण-बाहर की कृमि शरीर तथा कपडे के मैलेपन अर्थात् गलीजपन से होती है और भीतर की कृमि अजीर्ण में खानेवाले के, मीठे तथा खट्टे पदार्थों के खानेवाले के, पतले पदार्थों के खानेवाले के, आटा, गुड और मीठा मिले हुए पदार्थ के खानेवाले के, दिन में सोनेवाले के, परस्पर विरुद्ध अन्न पान के खानेवाले के, बहुत वनस्पति की खुराक के खानेवाले के तथा बहुत मेवा आदि के खानेवाले के प्रकट होती है ।
प्रायः ऐसा भी होता है कि-कृमियों के अण्डे खुराक के साथ में पेट में चले जाते हैं तथा आँतों में उन का पोषण होने से उन की वृद्धि होती रहती है।
१-ग्रहणी के आधीन जो रोग है उन की अजीर्ण के समान चिकित्सा करनी चाहिये, इस (ग्रहणी) रोग में लघन करना, दीपनकर्ता औषधों का देना तथा अतीसार रोग में जो चिकित्सायें कही गई हैं उन का प्रयोग करना लाभदायक है, दोपों का आम के सहित होना वा आम से रहित होना जिस प्रकार अतीसार रोग में कह दिया गया है उसी प्रकार दम में भी जान लेना चाहिये, यदि दोप आम के सहित हों तो अतीसार रोग के समान ही आम का पाचन करना चाहिये, पेया आदि हलके अन को खाना चाहिये तथा पञ्चकोल आदि को उपयोग में लाना चाहिये ॥
२-ताँतू कृमि गोल, चपटी तथा २० से ३० फीटतक लम्बी होती हैं। ३-अर्थात् बाहरी कृमि वाहरी मल (पसीना आदि) से उत्पन्न होती है ॥ ४-पतले पदार्थों के अर्थात् कढी, पना और श्रीखण्ड आदि पदार्थों के सानेवाले के ॥ ५-अर्थात् यह भीतरी कृमियों का वाह्य कारण है ॥