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________________ जैनसम्पदामशिक्षा || लक्षण -बाहर के जैम तथा लीलें मद्यपि प्रत्यक्ष ही दीसत है तथापि चमड़ीपर दोने, फोडे, नसी, सुबकी और गड़गुमड़ का होना उन की सता (विद्यमानता ) क प्रत्यश्न चिह्न दे' | अब म ५२६ २ कारणों से उत्पन्न होनेवाली कमियों के लक्षणों को किसते - १-कफ से उत्पन्न हुछ कमियों में कुछ तो चमड़े की मोटी डारी के समान, कुछ अबसिये के समान, कुछ अम के भकुर के समान, कुछ बारीक और सम्मी तमा कुछ छोटी २ होती है। इन क सिवाय कुछ सफेद भीर ठाक इवाकी मी कृमि होती है, जिन की सात जातियां है इनके शरीर में होने से जीका मचाना, मुँह में से कार का गिरना, भम कान पचना, अरुचि, मूछा, उलटी, बुखार, पेट में अफरा, खांसी, छीक ओर उमदव ई । म २- खून से उत्पन्न होननाकी कृमि छ प्रकार की होती है, और वे इस पर सूक्ष्म होती है कि सूक्ष्मवृक्ष मन्त्र से ही उन को देख सकत दें इन कमियों से कुछ मादि अर्थात् चमड़ी के रोग उत्पन्न होते हैं। ३ - विष्ठा भवात् वा से रपन होनवाली कृमि गोड, मद्दीन, मोटी, सफेद, पीछे, प्र तथा अधिक का रंग की भी होती है, ये कृमि पांच प्रकार की होती है जब *मि दोजरी के सम्मुख जाती है तब दस्त, गांठ, मक का अवरोध ( रुकना ), शरीर में दुबला, गण का फीफापन, रोंगटे खड़े होना, मन्नामि वभा बैठक में सुजली, इत्पादि हि हाते हैं। कृमि विशेषकर वर्षो के उत्पन्न होती है उस दक्षा में उन की भूख मा तो कुछ ही जाती रहती है मा सब दिन मूल ही भूम बनी रहती है। उनकी विद्यमानानि १- पापी) और नया क्योंकोपिदियों स १- गुरुपदी भार मिरका इन नामों का सेवन है तथा कर्मियों सामान में प्रकरपा बरस नेजा है-बारा (मतों को धानेरा) ( का पानवारी) महागृह पुरव (विन्ना) दमा समान) और ४-पेण धर्मात् पैरो करन से प्रती में विचरती है ६-मेरे अधिया दे राय (फट लिस्टीनेशन) ( डाम भान कुछ के भविष्यामीर, उम्बर, भरत भार भातर मुह व्यतिषां रचन कृतियों की मा पनि
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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