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________________ 49 स्वैनसम्भवामशिक्षा || रहते थे, इसी से इन को सब लोग टेलड़िया बोहरा कहने लगे थे, इन में सोनपास नामक एक बोहरा बड़ा आदमी था, उस को वैववत्र सर्प ने काट खागा था तथा एक बसी (मति ) ने उसे अच्छा किया था इसी लिये उस ने दयामूल जैन धर्म का महण किया था, उस के बहुत काल के पीछे उस ने अजय की मात्रा करने के लिये अपने स्वर्ग से सघ निकाला था तथा मात्रा में ही उस के पुत्र उत्पन्न हुआ था, संघ मे मिल कर उसे सनी ( संपपति) का पद दिया था भतः उस की मौचाववाले लोग सिंमी कलमैये, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि संघवी का अपभ्रंस सिंगी हो गया है, इन ( सिंगियों) के भी मद्देवावत, गडावत, भीमरामोस और मूलमन्दोष नावि कई फिरके हैं । ओसवाल जाति का गौरव ॥ मिम पाठकगण ! इस जाति के विषय में भाप से विशेष क्या करें | यह वही यावि है जो कि कुछ समय पूर्व अपने धर्म, विद्या, एकता और परस्पर मीर्तिमान आदि सद गुणों के बल से उन्नति के शिखर पर विराजमान भी, इस जाति का विशेष मोसनीय गुण यह था कि वैसे यह धर्मकामों में कटिबद्ध भी वैसे ही सांसारिक धनोपार्जन धाि कामों में भी कटिवद्ध थी, सात्पर्य यह है कि जिस प्रकार यह पारमार्थिक कामों में बम भी उसी मकार सौकिक कार्यो में भी कुछ कम न भी अर्थात् भपने- 'भा 1-ड़िया अडी के निवासी १-गुजरात और कच्छ पानि देशों में संगको गोत्र अन्य प्रकार से भी अनेकनिप ( कई तरह का ) मांना पाचा t ● ३-सिपी (संघ) जोधपुर आदि मारवाड़ वाजे समझने चाहि ॥ ४-प्रीति के तीन भेद है-मचि भाबर और इस में से किसे कहते है कि पुरुष अप अपेक्षा पर में श्रेष्ठ हो के द्वारा मान्य हो और दिया तथा जाति में बडा हो उस की सेवा की चाहिने वा उस पर सामान रखना चाहिये क्योंकि वही मति का पात्र है, वो गह पण गुणों से उत्कृत है, क्योंकि वही सप गुणों की प्राप्ति का मूल धरण है अर्थात् इसके से मनुष्य को क्षण गुण प्राप्त हो सकते है, इसकी पतिगामिनी है प्रीति का दूसरा र बाबर है-समर हैरुष अवस्था हव्य पिया भरें जयति भादि पुमा में अपने समान उथ के उसे पूर्व करना चाहिये इस (आवर) श्रीमति समताहिक व प्रीति का रा -उसे-म्य विद्या और बुद्धिसम्म में अपने स उत हित को विचार कर बस की वृद्धि का उपाय करना चाहिये इस (मेह) का प्रवाह अबस्य के समान अोमामी है बस प्रीति के में प्रीति नहीं हो ध्यान रखना भागस्यक देव है, क्योंकी बातों के हक पाखा रूप को जान कर गायोग इन के का सदनों
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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