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________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६६५ परमो धर्मः, रूप सदुपदेश के अनुसार यह सत्यतापूर्वक व्यापार कर अगणित द्रव्य की प्राप्त करती थी और अपनी सत्यता के कारण ही इस ने 'शाह, इन दो अक्षरों की अनुपम उपाधि को प्राप्त किया था जो कि अब तक मारवाड तथा राजपूताना आदि प्रान्तों में इस के नाम को देदीप्यमान कर रही है, सच तो यह है कि-या तो शाह या बादशाह, ये दो ही नाम गौरवान्वित मालूम होते है। __ इस के अतिरिक्त-इतिहासों के देखने से विदित होता है कि-राजपूताना आदि के प्रायः सब ही रजवाडो में राजों और महाराजों के समक्ष में इसी जाति के लोग देशदीवान रह चुके हैं और उन्हों ने अनेक धर्म और देशहित के कार्य करके अतुलित यश को प्राप्त किया है, कहाँ तक लिखें-इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि-यह जाति पूर्व समय में सर्वगुणागार, विद्या आदि में नागर तथा द्रव्यादि का भण्डार थी, परन्तु शोक का विषय है कि-वर्तमान में इस जाति में उक्त बातें केवल नाममात्र ही दीख पड़ती हैं, इस का मुख्य कारण यही है कि-इस जाति में अविद्या इस प्रकार घुस गई है कि-जिस के निकृष्ट प्रभाव से यह जाति कृत्य को अकृत्य, शुभ को अशुभ, बुद्धि को निवुद्धि तथा सत्य को असत्य आदि समझने लगी है, इस विषय में यदि विस्तारपूर्वक लिखा जावे तो निस्सदेह एक बड़ा ग्रन्थ बन जावे, इस लिये इस विषय में यहाँ विशेष न लिख कर इतना ही लिखना काफी समझते हैं कि वर्तमान में यह जाति अपने कर्तव्य को सर्वथा भूल गई है इसलिये यह अधोदशा को प्राप्त हो गई है तथा होती जाती है, यद्यपि वर्तमान में भी इस जाति में समयानुसार श्रीमान् जन कुछ कम नहीं है अर्थात् अब भी श्रीमान् जन बहुत है और उन की तारीफ-घोर निद्रा में पड़े हुए सब भायोवत्ते के भार को उठानेवाले भूतपूर्व बड़े लाट श्रीमान् कर्जन खय कर चुके हैं परन्तु केवल द्रव्य के ही होने से क्या हो सकता है जब तक कि उस का बुद्धिपूर्वक सदुपयोग न किया जावे, देखिये! हमारे मारवाड़ी ओसवाल भ्राता अपनी अज्ञानता के कारण अनेक अच्छे २ व्यापारों की तरफ कुछ भी ध्यान न दे कर सट्टे नामक जुए में रात दिन जुटे ( सलग्न ) रहते है और अपने भोलेपन से वा यों कहिये किसाथै में अन्धे हो कर जुए को ही अपना व्यापार समझ रहे हैं, तब कहिये कि इस जाति की उन्नति की क्या आशा हो सकती है ? क्योंकि सब शास्त्रकारों ने जए को सात महाव्यसनों का राजा कहा है तथा पर भव में इस से नरकादि दुःख का प्राप्त होना बतलाया है, अब सोचने की बात है कि-जब यह जुआ पर भव के भी सुख का नाशक है तो इस भव में भी इस से सुख और कीर्ति कैसे प्राप्त हो सकती है, क्योंकि सत्कर्त्तव्य वही माना गया है जो कि उभय लोक के सुख का साधक है। इस दुर्व्यसन में हमारे ओसवाल नाता ही पड़े हैं यह बात नहीं है, किन्तु वर्तमान में
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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