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________________ ५१० चैनसम्प्रदायशिक्षा n २-न पचनेवासी भगवा अधिक काल में पचनेवासी वस्तमों का स्याग करना पाहिये, जैसे-सरपरी, सब प्रकार की वा, मेवा, अधिक घी, मक्खन, मिठाई सम्म खटाई भादि । ३-दूम, ख्यिा, समीर फी अममा माटे में मषिक मोयन (मोवन) देकर गर्म पानी से उसन फर बनाई हुई पतछी २ भोड़ी रोटी, महुत नरम भौर गोड़ी भीम, काफी, वार समा मूंग का मोसामण भावि खुराक बहुत दिनों तक खानी चाहिये। -भोवन करने का समय नियत कर लेना चाहिये मर्यात् समय और इसमय में नहीं साना चाहिये, न वारंवार समम को बदम्ना चाहिये और न बहुत देर करके खाना पाहिल, रात को नहीं खाना चाहिये, क्योंकि रात्रि में भोजन करने से सनदुरुस्ती निगरती है। _बहुत से मशान लोग रात्रि में मोवन करते हैं तथा इस विषय में भयो व उदार रण देते हैं पर्यात् ये करते हैं कि-"प्रेष गेग रात्रि में सदा साते हैं और ये सदा नीरोग रहते हैं, यदि रात्रि में भोजन करना हानिकारक (नुकसान करनेवाम) है तो उन के रोग क्यों नहीं होता।" इस्पादि, सो मह उन की मनानता है तथा उन नपा ना कि-"ममेमों को रोग क्यों नहीं होता है।" निस्कुस मर्ष है क्योंकि रात्रि में भोमन करने से उन को भी रोग तो अवश्य होता है परन्तु यह रोग भोग होता हे पार गोरेही समयटक ठारता है, क्योंकि प्रभम तो उन लोगों के रहने के मन ही ऐसे होते हैं कि भन्न चीन प्रपम तो उनके मकानों में प्रमेश ही नही र सकते हैं, दूसरे में योग नियत समय पर पहुत बोरा २ खाते हैं तथा साने के पश्चात् विकार न करनेवाले यि हाममा करनेवाले पदार्थों का सेवन करते हैं कि जिस से उन को भजीर्ण भी नही होता है, वीसरे-या मी उन पो रोग होता है सर सीप ही में मिद्वान् राक्टरों से उस की पिटिसा करा छेते हैं कि जिस से रोग उनके शरीर में सान नहीं करने प्रता है, चौथे-ये नियमानुसार शारीरिक (शरीर का) और मानसिक (मनका) परिभम करते है कि जिस से उन परीर रोग के योम्प की नहीं होता है, पाप-नियमानुसार सर्व कामों के करने तमा निरुप्प (मुरे) कायों से पचने से उन को मामि (मानसिक रोग) 1-बहुत से मेप स (अ )रोप में दम कम पप्पात रपटे र परम्नु पण प्रपरा मह पठारे व शिप रोम भार से पम्मा दे दो समय पभ्मपूर्वक पम्मे परपहोवा परिपप्प परे ऐसा समपम पम और पप भाषि परोपाप्र उपयोगसमे सपठे, सो पा सी मूबी बोनस रोब में पारदरिया तक पपपूर्वक पने में भी प्रया गऐ सम्बी मिस्तु एस बता (पुर रियो तर) पभपूर्वक पन्ना पीयेप प्रपरा माधम व पोल पम्पपपचाप र फिर प्रेगनेमे तो रम्येभोर भी हामि स्वीगो पर धीर भाम्पस बिया प्यार उससे मरे भी भने रोप उत्पन्न पे गाव
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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