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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ (३९३ ६९-आध्मान-इस रोग में वायु के कोप से नाभि के नीचे अफरा हो जाता है । ७०-प्रत्याध्मान-इस रोग में हृदयके नीचे और नाभि के ऊपर अफरा हो जाता है । ७१-शीतता-इस रोग में वायु से शरीर ठढा पड जाता है। ७२-रोमहर्ष-इस रोग में वादी के कोप से शरीर के रोम खड़े हो जाते हैं। ७३-भीरुत्व-इस रोग में वायु के कोप से भय लगता रहता है। ७४-तोद-इस रोग में शरीर में सुई के चुभाने के समान व्यथा प्रतीत होती है। ७५-कण्डू-इस रोग में वादी से शरीर में खाज चला करती है । ७६-रसाज्ञता-इस रोग में रसो का खाद नहीं मालूम होता है । ७७-शब्दाज्ञता-इस रोग में वादी के कोप से कानो से शब्द सुनाई नही देता है। ७८-प्रसुति-इस रोग में वायु के कोप से स्पर्श का ज्ञान नहीं होता है । ७९-गन्धाज्ञता-इस रोग में वायु के कोप से गध का ज्ञान नहीं होता है । ८०-दृष्टिक्षय-इस रोग में दृष्टि में वायु अपना प्रवेश कर देखने की शक्ति को कम कर देती है। सूचना-वायु के कोप से शरीर में ऊपर कहे हुए रोंगो में से एक अथवा अनेक रोगों के लक्षण स्पष्ट दिखलाई देते है, उन ( लक्षणो) से निश्चय हो सकता है कि यह रोग वादी का है, खून और बादी का भी निकट सम्बंध है इस लिये वादी खून में मिल कर बहुत से खून के विकारों को पैदा करती है, अत. ऐसे रोगों में खून की शुद्धि और वायु की शान्ति करने वाला इलाज करना चाहिये ।। पित्त के कोप के कारण ॥ बहुत गर्म, तीखे, खट्टे, रूखे और दाहकारी पदार्थों के खाने पीने से, मद्य आदि नशों के व्यसन से, बहुत उपवास करने से, क्रोध से, अति मैथुन से, बहुत शोक से, बहुत घूप और अग्नि तेज आदि के सेवन से, इत्यादि आहार विहार से पित्त का कोप होता है, जिस से पित्तसम्बन्धी ४० रोग होते हैं, जिन के नाम ये है: १-धूमोद्गार-इस रोग में धुएँ के समान जली हुई डकार आती है। २-विदाह-इस रोग में शरीर में बहुत जलन होती है। ३-उष्णाङ्गत्व-इस रोग में शरीर हरदम गर्म रहता है। ४-मतिभ्रम-इस रोग में शिर ( मगज़ ) सदा घूमा करता है । १-वायु से उत्पन्न होने वाले इन ८० प्रकार के रोगों का यहा पर कथन कर दिया है परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि अनेक आचार्यों ने कई रोगों के नामान्तर (दूसरे नाम ) लिखे हैं तथा उन के लक्षण भी और ही लिखे हैं, परन्तु संख्या में कोई भेद नहीं है अर्थात् रोग सख्या सव ही के मत में ८० ही है, यही विषय पित्त और कफ से उत्पन्न होनेवाले रोगों के विषय मे भी समझना चाहिये ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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