SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९९ चतुर्थ अध्याय ।। वकृति पहचानी और मानी जाती है, यह भी स्मरण रहे कि-प्रकृति प्रायः मनुष्यों की पृथक् २ होती है, देखो! यह प्रत्यक्ष ही देखा जाता है कि-एक वस्तु एक प्रकृतिवाले को जो अनुकूल आती है वह दूसरे को अनुकूल नहीं आती है, इस का मुख्य हेतु यही है कि-प्रकृति में भेद होता है, इस उदाहरण से न केवल प्रकृति में ही भेद सिद्ध होता है किन्तु वस्तुओं के खभाव का भी भेद सिद्ध होता है। ____ जब मनुष्य खय अपनी प्रकृति को नहीं जान सकता है तब खान पान की वस्तु प्रकृति की परीक्षा कराने में सहायक हो सकती है, इस का दृष्टान्त यही हो सकता है कि-जिस समय दूसरी किसी रीति से रोग की परीक्षा नहीं हो सकती है तब चतुर वैद्य वा डाक्टर ठढे वा गर्म इलाज के द्वारा रोग का बहुत कुछ निर्णय कर सकते है तथा खान पान के पदार्थों के द्वारा प्रकृति की परीक्षा भी कर लेते हैं, जैसे--जव रोगी को गर्म वस्तु अनुकूल नहीं आती है तो समझ लिया जाता है कि इस की पित्त की प्रकृति है, इसी प्रकार ठंढी वस्तु के अनुकूल न आने से वायु की वा कफ की प्रकृति समझ ली जाती है। ___ प्रकृति के मुख्य चार भेद हैं-वातप्रधान, पित्तप्रधान, कफप्रधान और रक्तप्रधान, इन चारों का परस्पर मेल होकर जब मिश्रित ( मिले हुए ) लक्षण प्रतीत होते है तब उसे मिश्रप्रकृति कहते हैं, अब इन चारों प्रकृतियों का वर्णन कम से करते है:-~ वातप्रधान प्रकृति के मनुष्य-वातप्रधान प्रकृति के मनुष्य के शरीर के अवयव बड़े होते हैं परन्तु विना व्यवस्था के अर्थात् छोटे बड़े और बेडौल होते है, उस का शिर शरीर से छोटा या बड़ा होता है, ललाट मुख से छोटा होता है, शरीर सूखा और रूखा होता है, उस के शरीर का रंग फीका और रक्तहीन (विना खून का ) होता है, आखें काले रंग की होती हैं, बाल मोटे काले और छोटे होते हैं, चमडी तेजरहित तथा रूखी होती है परन्तु स्पर्श का ज्ञान जल्दी कर लेती है, मास के लोचे करड़े होते हैं परन्तु बिखरे हुए होते है, इस प्रकृतिवाले मनुष्य की गति जल्दी चञ्चल और कापती हुई होती है, रुधिर की गति परिमाणरहित होती है इसलिये किसी का यदि शिर गर्म होता है तो हाथ पैर ठढे होते हैं और किसी का यदि शिर ठढा होता है तो हाथ पैर गर्म होते है, मन यद्यपि काम करने में प्रबल होता है परन्तु चञ्चल अर्थात् अस्थिर होता है, यह पुरुष काम और क्रोध आदि वैरियों के जीतने में अशक्त होता है, इस को प्रीति अप्रीति तथा भय जल्दी पैदा होता है, इस की न्याय और अन्याय के विचार करने में सूक्ष्मदृष्टि होती है परन्तु अपने न्याययुक्त विचार को अपने उपयोग में लाना उस को कठिन होता है, यह सब जीवन को अस्थिर अर्थात् चचल वृत्ति से गुजारता है, सब कामों में जल्दी करता है, उस के शरीर में रोग बहुत जल्दी आता है तथा उस (रोग) d
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy