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________________ जैनसम्पदामशिक्षा || फा मिटना भी फटिन होता है, पह रोग का सदन भी नहीं कर सकता है, उस का रोग समय में चौगुना फष्ट शिम्बाइ देता दे, दूसरी प्रकृतिबाके का शरीर और मन २ अवस्था आती जाती है त्यो २ शिमिक और मन्द पड़ता जाता है परन्तु वायुप्रभाव विषा का मन अवस्था के बढ़ने पर फरड़ा और मजबूत होता जाता है, इस प्रकृतिया मनुष्य के अजीर्ण, बद्धकोष्ठ ओर अवीसार (दस्त ) आदि पेट के रोग, शिर पर्व, नसफा, मातरछ, फेफसे का बरम, क्षय भोर उन्माद भादि रोगों के होने का अधिक सम्भव होता है, इस मतिनाले मनुष्य की आयु शक्ति और घन भोड़ा होता है, इस प्रकृति के मनुष्य को सीसे चटपेट गमागम तथा सारी पदार्थी पर अधिक प्रीति होती दे तथा खट्टे मीठे और ठंडे पदार्थों पर भमीति ( रुचि ) दासी दे || ४०० शरीर के सब मांस के छा तथा बस्ती प्रकृति के मनुष्य के बन्धान अच्छे तथा षोड़े फरमरे होते हैं पराप्रधान प्रकृति के मनुष्य - पिचप्रमान अंग और उपांग खून सूरत होते है, उस के शरीर के पीछे होते हैं, शरीर का रंग पिक होता है, पारू सफेद हो जाते हैं, शरीर पर थोड़ी २ फुनसियां हुआ करती है, उस को भूख प्यास जल्दी लगती है, उस फे मुख विर और बगल में से दुर्गन्ध आया करती है, इस प्रकृति का मनुष्य बुद्धिमान् और काधी होता है, उस की भांत पेठाम सभा दस्त का रंग पी होता है, वह साहसी उत्साही सभा च करने पर सहने की शक्तिवाला दोवा है, उस की आयु वक्ति नृन्म और ज्ञान मध्यम दात दें, इस मकविषाके को अभी पिस भर दरस आदि रोगों के होने का अधिक सम्भव होता है, उस को मीठे तथा लटेरस पर अधिक प्रीति होती है तथा धीने भर खारी रस पर रभि फम होती है ॥ कफप्रधान प्रकृति के मनुष्य – फफ प्रधानप्रकृति के मनुष्य का शरीर रमणीक भरा हुआ तथा मजबूत होता है, शरीर का सभा सम भवययों का रंग सुन्दर होता दे, चमड़ी फोमक होती है, बाक रमणीफ होते है, रंग स्वच्छ होता है, उस की भि चिसकती ( धमकसी ) हुई सफेद तथा धूसर रंग की होती है, दाँव मैले तथा सफेष होते हैं, उस का स्वभाप गम्भीर होता है, उस में पर अधिक दावा है, उसे नींद अधिक भाती है, वह भद्दार भोड़ा करता है, उस की विचारश्च कि फोमल होती है, पोटने की शक्ति जोड़ी होती है, स्मरणशक्ति और विवेकबुद्धि अधिक होती है, उस के विचार न्यामयुक्त होते हैं तथा म्ममहार अच्छे होते है, उस के शरीर की क्षति से मन की ि अभिफ होती है, उस के शरीर की चार मन्द होती है परन्तु मजबूत होती है, इस मक्कृति का मनुष्य प्रायः साफसभर घनपान और सम्वीउमाळा दोषा दे, उस के सामान्य कारण रा रोग हो जाता है, फफ के राग रस की वृद्धि होती है, उस का शरीर भारी भोर माछा होता है, उसके द्वारा अक्षति बनती है, उस का शरीर बहुत म्धूक होता
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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