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________________ ११६ मैनसम्प्रदायश्चिया ॥ फिला बना कर एक नगर पसा दिया और उसका नाम पीचनेर मखा, राम बीसी माराव का पत्र मुनकर उक्त नगर में ओसवाल मौर महेनरी वैश्म मादिप २ पनाम साकार भा २पर बसने लगे, इस प्रकार उस नगर में राब पीन श्री महाराज के पुष्प प्रमाव से दिनों दिन मावादी मावी गई। __ मन्त्री पगाराम ने भी मीकानेर के पास मच्छासर नामक एक प्राम वसाया, कुछ काल के पथात् मन्त्री यष्टराज ची को घुमय की यात्रा करने का मनोरम उत्सम हुमा, मता उन्हों ने सप निकाल कर क्षेत्रुजय भौर गिरनार मावि तीयों की यात्रा की, मार्य में सापर्मी माइपों को प्रविग्रह में एक मोहर, एक मास और एक मका गपम घोटा तमा संपपति की पदवी प्राप्त की और फिर भानन्द के साथ बीकानेर में पापिस मा गये । बराम मन्त्री के करमसी, परसिंह, रवी मोर भरसिंह नामक चार पुत्र हुए मौर पछाराम के छोटे भाई देवराज चव, देवा मोर मूम नामक तीन पुत्र हुए। राप भी सूपकरण की महाराज ने भारत करम सी को मपना मन्त्री बनाया, मुहते करमसी ने अपने नाम से फरमसीसर नामक प्राम बसाया, फिर बहुत से स्थानों का संप मुठा कर तमा बहुत सा दन्य समें कर सरतरगच्छानार्म भी मिनास त्रि महाराज का पाट महोत्सब किया, एव विकमसंगत् १५७० में बीकानेर नगर में नेमि नाम सामी का एक मा मन्दिर बनवाया दो कि धर्मस्वम्भरूप भभी सफ मौजूद है। इस के सिवाय इन्हों ने तीर्थयात्रा के लिये संप निकासा तया ऐवजय गिरनार और भार भादि तीयों की मात्रा की तमा मार्ग में एक मोहर, एक पास मोर एक पत्र पतिग्रह में सापी माइयों को कारण माय और आनंद के साथ बीमनेर आ गये। राब भी सपारण जी फे-पाटनशीन राप भी जैसी ची हुए, इनों मे मुरते में मसी के छोटे भाई मरसिंह को मपना मत्री नियत किया। नरसिंह के मेपराम, नगराज, भमरसी, भोजराम, गरेसी मोर हरराम नामक छ पुत्र हुए। इन के द्वितीय पुत्र नगराब के संग्रामसिंह नामक पुत्र हुभा और संग्रामसिंह के कर्म पद मामक पुष दुभा बरसिंह के घर पो माप्त होने से राग भी वसी ची ने उनके स्थानपर उनके विसीय पुष नगरान पो नियत किया। -पासष्टी परणार प्रेभोन्सरमा भय बागवत कराये। २-एनीभाना प्रेम परापोपमाये । २-परमारनौसरे मायाव रे साप मुररी पुर में प्रप भामा -मापी भोगापाले मप्रेम उमरामी परम्पपेर ५-एर में ऐण भी लिया है। ममरसीबपुर समापन
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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