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________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४५ कि- "जो अपनी भुजा के बल से पृथ्वी को लेकर उस का भोग करे वही ससार में सुपुत्र कहलाता है, किन्तु पिता का राज्य पाकर उस का भोग करने से ससार में पुत्र की कीर्ति नहीं होती है" भरी सभा में कहे हुए पिता के उक्त वचन कुँवर बीका जी के हृदय में सुनते ही अकित हो गये, सत्य है - प्रभावशाली पुरुष किसी की अवहेलना को कभी नही सह सकता है, बस वही दशा कुँवर बीका जी की हुई, बस फिर अपने काका कान्धलजी तथा मन्त्री वच्छेराज आदि कतिपय स्नेही जनों को साथ चलने के लिये तैयार कर और पिता की आज्ञा लेकर वे जोधपुर से रवाना हुए, शाम को मण्डोर में पहुँचे और वहाँ गोरे भैरव जी का दर्शन कर प्रार्थना की कि - "महाराज ! अब आप का दर्शन आप के हुक्म से होगा" इस प्रकार प्रार्थना कर रात भर मण्डोर में रहे और ज्यो ही गज़रदम उठे त्यों ही भैरव जी की मूर्ति बदली में मिली, उस मूर्ति को देखते ही साथवाले बोले कि - "लोगो रे ! जीतो, हम आप के साथ चलेंगे और आप का राज्य बढ़ेगा।” बीका जी भैरव जी की उस मूर्ति को लेकर शीघ्र ही वहाँ से रवाना हुए और कॉउनी ग्राम के भोमियों को वश में कर वहाँ अपनी आन दुहाई फेर दी तथा वहीं एक उत्तम जगह को देख कर तालाब के ऊपर गोरे जी की मूर्ति को स्थापित कर आप भी स्थित हो गये, यही पर राव बीका जी महाराज का राज्याभिषेक हुआ, इसके पीछे अर्थात् सवत् १५४१ (एक हजार पाँच सौ इकतालीस ) में राव बीका जी ने राती घाटी पर १ - राव बीका जी महाराज का जीवनचरित्र मुशी देवीप्रसाद जी कायस्थ मुसिफ जोधपुर ने सवत् १९५० में छपवाया है, उस में उन्हों ने इस बात को इस प्रकार से लिखा है कि- " एक दिन जोधा जी दरवार में बैठे थे, भाई बेटे और सब सरदार हाजिर थे, कुँवर बीका जी भी अदर से आये और मुजरा कर के अपने काका कांधल जी के पास बैठ गये और कानों में उन से कुछ बातें करने लगे, जोधा जी ने यह देस कर कहा कि-आज चचा भतीजे में क्या कानाफूसी हो रही है, क्या कोई नया मुल्क फतेह करने की सलाह है यह सुनते हीं काधल जी ने उठ कर मुजरा किया और कहा कि मेरी शरम तो जब ही रहेगी कि जब कोई नया मुल्क फतह करूंगा--जब बीका जी और कांधल जी ने जाने की तयारी की तो मण्डला जी और वीदा जी वगेरा राव जी के भाई वेठों ने भी राव जी से अरज की कि हम बीकाजी को आप की जगह समझते हे सो हम भी उन के साथ जावेगे, राव जी ने कहा अच्छा और इतने राजवी बीकाजी के साथ हुये - १ - काका काल जी । २ ३ ४ ६ - भाई जोगायत जी । वीदा जी । ७- " ८- साखला नापा जी । ९- परिहार वेला जी । ५ ” नाथूजी । १०- वेद लाला लाखण जी । २- परन्तु मुशी देवीप्रसादजी ने सवत् १५४२ लिखा है 11 "3 " " रुपा जी । माडण जी । मढला जी । ११ - कोठारी चोयमल । १२- वच्छावत वरसिंघ । १३ - प्रोयत वीकमसी । १४- साहूकार राठी साला जी" ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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