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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५४३ युक्त (फैलती हुई ) मालूम होती है उस रोगी के पीछे से गर्मी के चिह्न भी वेग के साथ में उठते है । (प्रश्न ) जिस आदमी के एक वार उपदंश का रोग हो जाता है वह रोग पीछे समूल (मूल के साथ ) जाता है अथवा नहीं जाता है' ? (उत्तर) निस्सन्देह यह एक महत्व (दीर्घदर्शिता) का प्रश्न है, इस का उत्तर केवल यही है कि यदि मूल (मुख्य ) टांकी साधारण वर्ग की हुई हों तथा उस का उपाय अच्छे प्रकार से और शीघ्र ही किया जावे तथा आदमी भी दृढ़ शरीर का हो तो इस रोग के समूल नष्ट हो जाने का सम्भव होता है, परन्तु बहुत से लोगों का तो यह रोग अन्तसमय तक भी पीछा नहीं छोडता है, इस का कारण केवल-रोग का कठिन होना, शीघ्र और योग्य उपाय का न होना तथा शरीर की दुर्वलता ही समझना चाहिये, यद्यपि औषध, उपाय तथा परहेज़ से रहने से यह रोग कम हो जाता है तथा कुछ कालतक दीख भी नहीं पड़ता है तथापि जिस प्रकार बिल्ली चूहे की ताक (घात) लगाये हुए बैठी रहती है उसी प्रकार एक वार हो जाने के पीछे यह रोग भी आदमी के शरीरपर घात लगाये ही रहता है अर्थात् इस का कोई न कोई लक्षण अनेक समयों में दिखाई दिया करता है और जब किसी कारण से शरीर में निर्बलता बढ़ जाती है त्यों ही यह रोग अपना जोर दिखलता है । (प्रश्न) आप पहिले यह कह चुके हैं कि यह रोग चेप से होता है तथा वारसा में जाता है, परन्तु इस में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस रोगवाले आदमी को स्त्रीसंग करना चाहिये वा नहीं करना चाहिये । (उत्तर) जबतक टाकी हो तबतक तो कदापि स्त्रीसंग नहीं करना चाहिये, किन्तु जब यह रोग योग्य उपचारों ( उपायों) के द्वारा शान्त हो जावे तब ( रोग की शान्ति के पीछे ) स्त्रीसंग करने में हानि नहीं है, इस के सिवाय इस बात का भी स्मरण रखना चाहिये कि-बहुधा ऐसा भी होता है कि स्त्री अथवा पुरुष को जब यह रोग होता है और उन के संयोग से गर्भ रहता है तब वह गर्भ पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं होता है किन्तु चार वा पाच महीने में उस का पात ( पतन ) हो जाता है, इस लिये १-क्योंकि बहुतों के मुख से यह सुना है कि यह रोग मूलसहित कभी नहीं जाता है परन्तु वहुत से मनुष्यों को रोग हो चुकने के बाद भी बिलकुल नीरोग के समान देखा है अत यह प्रश्न उत्पन्न होता है, क्योंकि इस विपय मे सन्देह है। २-क्योंकि यदि वह पुरुप कारणविशेष के विना ऋतुकाल मे भी खस्त्रीसग न करे तो उसे दोप लगता है (देखो मनु आदि ग्रन्थों को) और यदि स्त्रीसग करे तो चेप के द्वारा स्त्री के भी इस रोग के हो जाने की सम्भावना है, क्योंकि आप भी प्रथम कह चुके है कि यह रोग समूल तो किसी ही का जाता है। ३-तात्पर्य यह है कि रोगदशा में स्त्रीसग कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से दोनों को ही हानि पहुँचती है किन्तु जव योग्य चिकित्सा आदि उपायो से रोग विलकुल शान्त हो जावे अर्थात् चॉदी आदि कुछ मी विकार न रहे उस समय स्त्रीसग करना चाहिये, ऐसी दशा में स्त्री के इस रोग के सक्रमण की सम्भावना प्राय नहीं रहती है, क्योंकि रसी निकलने आदि की दशा मे उस का चेप लगने से इस रोग की उत्पत्ति का पूरा निश्चय होता है अन्यथा नहीं ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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