SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२२ नैनसम्पदापक्षिया ।। ___ उपर मिले हुए इनाओं में से यदि किसी इगब से भी फायदा न ऐ तो उस रोग को असाध्य समझ लेना चाहिये', पीछे उस भसाम्म मरोरे में दस्त पसेला (पानी समान ) आता है, शरीर में नुसार बना रहसा है तमा नाड़ी शीन परवी है। इसके सिवाय यदि इस रोग में पेट का सूसना बराबर बना रहे तो समझ लेना पाहिये कि बातों में ममी चोम (सूचन) है वमा अन्दर जसम है, ऐसी हाम्न में अपना इस से पूर्व ही इस रोग का किसी कुशल वैप से इमय फरमाना पाहिये । संग्रहणी-पहिसे कह चुके है कि पुराने मरोरे को संमहेमी कते हैं, उस ( संभ हणी) का निवान (मूग कारण) अषक शासघरों ने इस प्रघर निसारे कि कोठ में ममि के रहने न चो सान है वही मन को मापनसा है इस सिये उस सान को प्राणी कहते हैं, भर्मात् प्ररणी नामक एक मा हे यो किक बनने प्रहण कर पारप परवी रे तथा पके हुए मन को गुदा के मार्ग से निकाल देती है, इस प्राणी में बो ममि हे वास्तव में यही प्राणी सहमती , जब ममि पिसी पनर दूषित (सराब) होकर मन्य पर बाती है सब उसके रहने त्र स्थान प्रहपी नामक आत भी पित (सराप)ो बाती है । पैपक श्वास में यपपि ग्रहणी भौर सग्रहणी, इन दोनों में भोरा सा भेद विसमाया है मर्थात् यहाँ यह कहा गया है कि मो भामवायु का संग्रह करती है उसे संग्रहमी इत है, यह (समहणी रोग) मामी की अपेक्षा अधिक भयदायक होता है परन्तु हम यहापर दोनों की भिन्नता का परिगणन (विचार) न कर ऐसे इगन सिलेंगे नो कि सामा न्यतया दोनों के लिये उपयोगी है। फारण-जिस कारण से तीक्ष्ण मरोरा होता है उसी कारण से संग्रहपी भी होती. अथवा तीक्ष्ण मरोहा धान्स होने (मिटने) के माद मन्दामिबासे पुरुष के सथा कुपव आहार और निहार फरनेपाते पुरुस फे पुराना मरोड़ा भर्षात् समहणी रोग हो जाता है। लक्षण-पहिसे परे है कि महणी भात काये मन को महण कर धारण करती है तथा पर हुए को गुदा द्वारा पादर निमस्ती है, परन्तु पर उस में किसी प्रकार १-भान रसे पिपिस्तारा भीम मानवाम पारमेना पदये। पारमा पनि रामप्रसाद वध भोम्स ATए भमप्रापर उपभाभी बरेमा प्रमाण तथा परमपावरती" 1- पण्यत्तिपा बामसपा भामाठप भार पसायबर । ४- पिपरीमर रोप में उम्मय मा यस परिय ५-राभर प्रपन पर सपा पुम. -स में प्रसर रोष पित ने भी पर ना मी अपित राम भरवा बाप मरनी भी परमर पापा भी प्या.
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy