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जैनसम्प्रदायश्चिक्षा ||
११ - पक्षाघात -- इस रोग में आधे शरीर की नसों का शोषण हो कर गति की
रुकावट हो जाती है।
१४- क्रोटुशीर्षक- इस रोग में गोड़ों में बादी खून को पकड़ कर कठिन सुमन को पैदा करती है।
- इस रोग में गर्दन की नसों में वायु कफ को पकड़ कर सर्वन
१५- मन्यास्तम्भ
को जकड़ देती है ।
१६ - प कर देती है ।
इस रोग में कमर तथा जांघों में पादी घुस कर दोनों पैरों को निकम्मा
१७ – कलायस्थ – इस रोग में चलते समय शरीर में कम्पन होता है सभा पैर टेने पड़ जाते है।
१८ - सूनी - इस रोग में पकाश्चम में चिनग पैदा होकर गुदा और उपस्म (पेक्षान की इन्द्रिय) में जाती है।
१९ - प्रतितनी - इस रोग में तूनी की पीड़ा नीचे को उतर कर पीछे नाभि की सरफ जाती है ।
२० --म्पस – इस रोग में पगु ( पांगळे) के समान सम लक्षण होते हैं, परन्तु विशे पता केवल यही है कि यह रोग केवल एक पैर में होता है, इस किये इस रोगनाले को गड़ा कहते हैं । २१ - पादक हो जाता है।
- इस रोग में पैर में केवल सनसनाहट होती है तथा पेर शून्म जैसा
२२ - गुसी - इस रोग में कटि ( कमर ) के नीचे का भाग (जांब) और पेर मादि ) ड़ जाता है ।
२३ - विश्वाची - इस रोग में हमेकी तथा अंगुलियां जकड़ जाती है और हाथ से काम नहीं होता है ।
२४ - अपयाहुक - इस रोग में हाथों की नाड़ी जकड़ कर हाथ तूमते (वर्ष करते रहते है ।
२५- अपतानक- इस रोग में बादी इदम में जाकर दृष्टि को स्तम्भ ( रुकी हुई ) फरती है, ज्ञान और संज्ञा ( मेघनता ) का नाश करती है और कण्ट से एक विलक्षण ( अजीब) सरह की आबाब निफक्ती है, जग यद वायु हृदय से अलग इटली देवम रोगी का सक्षा प्राप्त होती है (होश भाता है), इस रोग में हिष्टीरिया (उन्माद ) के समान चिह्न वार २ होते तथा मिट जाते हैं ।
१६ सूजन पान के सिर के समान होती है इसी साल का घिर) कहते हैं। भई घर प्रत्नी भी
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