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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४८९ लक्षण~-शरीर में शीतला के विष का प्रवेश होने के पीछे बारह वा चौदह दिन में शीतला का ज्वर साधारण ज्वर के समान आता है अर्थात् साधारण ज्वर के समान इस ज्वर मे भी ठढ का लगना, गर्मी, शिर में दर्द, पीठ में दर्द तथा वमन (उलटी) का होना आदि लक्षण दीख पडते है, हां इस में इतनी विशेषता होती है कि-इस ज्वर में गले में शोथ (सूजन), थूक की अधिकता (ज्यादती), आखो के पलको पर शोथ का होना और श्वास में दुर्गन्धि (बदबू ) का आना आदि लक्षण भी देखे जाते हैं । ___ कभी २ यह भी होता है कि-किशोर अवस्थावाले वालकों को शीतला के ज्वर के प्रारम्भ होते ही तन्द्रा (मीट वा ऊँध ) आती है और छोटे बच्चो के लैचातान (श्वास में रुकावट ) तथा हिचकिया होती है।। ___ ज्वर चढ़ने के पीछे तीसरे दिन पहिले मुंह तथा गर्दन में दाने निकलते हैं, पीछेशिर, कपाल ( मस्तक) और छाती में निकलते है, इस प्रकार क्रम से नीचे को जाकर आखिरकार पैरों पर दिखलाई देते हैं, यद्यपि दानों के दीखने के पहिले यह निश्चय नहीं होता है कि यह ज्वर शीतला का है अथवा सादा ( साधारण) है परन्तु अनुभव तथा त्वचा (चमडी ) का विशेप रग शीघ्र ही इस का निश्चय करा देता है । ___ जब शीतला के दाने बाहर दिखलाई देने लगते है तब ज्वर नरम (मन्द) पड़ जाता है परन्तु जब दाने पक कर भराव खाते है (भरने लगते हैं ) तब फिर भी ज्वर वेग को धारण करता है, अनुमान दशवें दिन दाना फूट जाता है और खरूट जमना शुरू हो जाता है, प्रायः चौदहवें दिन वह कुछ परिपक्क हो जाता है अर्थात् दानों के लाल चढे हो जाते है, पीछे कुछ समय बीतने पर वे भी अदृश्य हो जाते है ( दिखलाई नहीं देते है ) परन्तु जब शीतला का शरीर में अधिक प्रकोप और वेग हो जाता है तब उस के दाने भीतर की परिपक्क (पकी हुई ) चमड़ी में घुस जाते हैं तथा उन दानों के चिह्न मिटते नहीं है अर्थात् खड्डे रह जाते हैं, इस के सिवाय- इस के कठिन उपद्रव में यदि यथोचित चिकित्सा न होवे तो रोगी की आँख और कान इन्द्रिय भी जाती रहती है। चिकित्सा-टीका का लगवा लेना, यह शीतला की सर्वोपरि चिकित्सा है अर्थात् इस के समान वर्तमान में इस की दूसरी चिकित्सा ससार में नहीं है, सत्य तो यह है कि-टीका लगाने की युक्ति को निकालने वाले इगलैंड देश के प्रसिद्ध डाक्टर जेनर साहब के तथा इस देश में उस का प्रचार करने वाली श्रीमती वृटिश गवर्नमेंट के इस परम उपकार से एतद्देशीय जन तथा उन के चालक सदा के लिये आभारी है अर्थात् उन के इस परम उपकार का बदला नहीं दिया जा सकता है', इस बात को प्रायः सब ही १-क्योंकि ससार मे जीवदान के समान कोई दान नहीं है, अत एव इस से वढ कर कोई भी परम उपकार नहीं है। ६२
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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