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________________ १५६ मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ २-पदि वाषित उमर कहे हुए कंपन का सेवन करने पर भी बर न उतरे तो सम प्रकार के परमागे को सीन दिन के पाद इस औषधि का सेवन करना चाहिये-देक्वार पो रूपमे मर, पनिया वो रुपये भर, सौंठ दो रुपये भर, राँगणी दो रुपये मर तमा बड़ी श्याम दो रुपये मर, इन सब मोपलों को कट कर इस में से एक रुपये भर भोपप का पता पार भर पानी में पढ़ा कर तथा रे छटॉक पानी के पाकी रहने पर छान कर लेना चाहिये, क्योंकि इस काम से ज्वर पाचन को माप्त होकर (परिपक होकर) उतर जाता है। ३-भाबना बर पाने के सातवें दिन दोप के पाचन के लिये गिलोय, सौंठ और पीपरा मूस, इन तीनों औपपों के काम का सेवन ऊपर सिले भनुसार करना चाहिये, इस से दोष का पाचन होकर ज्वर उतर बाता है। पिचवर का वर्णन ।। कारण-पित्त को बढ़ानेकाने मिथ्या माहार और विहार से बिगड़ा हुमा पिए भामाश्चम (होमरी) में बाफर उस (भामाश्चम) में स्थित रस को पूपित कर मठर भी गर्मी को बाहर निम्ता है तथा मठर में स्थित गायु को भी कुपित परसा है, इस मिले कोप को प्राप्त हुमा बासु भपने समाग के अनुकूल बटर की गर्मी को बाहर निकायो उस से पिवजार उत्पन्न होता है। सक्षण-सों में वाह (मग्न) का होना, मह पिचम्मर र मुस्म मलम है, इस के सिवाय पर का तीक्ष्ण बेग, प्यास का अस्पत लगना, निद्रा बोरी माना, भसीसार भात् पिच के वेग से दस्त का पतग होर्नो, कण्ठ पोष्ठ (मोठ) मुस भौर नासिन 1- मी मरम रखना चाहिये -एक रोप इफ्ति होम मरे रोष में भी अपित या विश्व (विपर बुध) सप्ता -पायु प्रारूप वा समान वायुरोप ( मार पित्त) अनु (रस और रच भाषि) और मागे एक स्पाम से सरे स्पन पर पगावाम्म मातपरी (माती परमे पाम), रये 5 पाम साम (गुर पारीक बर्ष देखने में म मानेगाा) व (रण) पीतम (मा) एप बम बम (एक पपा पर न रामेराम) इस (वायु) के पार मेर-पराप मात्र समान भपान और मान इन में से 3 मैं गाल पर में प्राण नामि में समान गुरा में पान और सम्पूर्ण परीर मे मान पापु गाइन पांगी सामु पुषहरप्रमादिप पा सरे रे मम्मों में रेप नी पारि रहा राम प्रसय मिनार के मन से वम भापक समय पर नई पर । १-धीपार-वषण पेय तुपा भप्रय मिदा मत्सर मविसाप 10 कठ ठ मुस मासा पाके मुण राह विच भ्रम पारे । परसा मकर मुप पापारा । बमवर भाबरम्यारा ॥ पीकपरबार विस रमेन तेजप्रापम पाई। मंत्र मूत्र पुनि मापावा। पिच पर मन मीता ॥५॥ ४-मभर में पिचपरयपतोतारे परम्नुस पतके पचने से बाहर रोमन समय या वादिष।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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