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पञ्चम अध्याय ॥ वर्ष तक उत्तर दिशा को न जावे, सूर्यकुण्ड में खान न करे और ब्राह्मणो से द्वेप न करे तो वह साम्राज्य ( चक्रवर्तिराज्य ) का भोग करेगा, अन्यथा ( नहीं तो ) इसी देह से पुनर्जन्म को प्राप्त हो जावेगा" उन के वचन को सुन कर राजा ने उन्हें वचन दिया (प्रतिज्ञा की ) कि-'हे महराज! आप के कथनानुसार वह सोलह वर्ष तक न तो उत्तर दिशा को पैर देगा, न सूर्यकुण्ड में स्नान करेगा और न ब्राह्मणों से द्वेष करेगा" राजा के इस वचन को सुन कर ब्राहाणो ने पुण्याहवाचन को पढ़ कर आशीर्वाद देकर अक्षत ( चावल ) दिया और राजा ने उन्हें द्रव्य तथा पृथ्वी देकर धनपूरित करके विदा किया, ब्राह्मण भी अति तुष्ट होकर वर को देते हुए विदा हुए, उन के विदा के समय राजा ने पुनः प्रार्थना कर कहा कि-'हे महाराज! आप का वर मुझे सिद्ध हो" सर्व भूदेव ( ब्राह्मण ) भी 'तथास्तु' कह कर अपने २ स्थान को गये, राजा के २४ रानिया थी, उन में से चॉपावती रानी के गर्भाधान होकर राजा के पुत्र उत्पन्न हुआ, पुत्र का जन्म सुनते ही चारों तरफ से बधाइयाँ आने लगी, नामस्थापन के समय उस का नाम सुजन कुवर रक्खा गया, बुद्धि के तीक्ष्ण होने से वह बारह वर्ष की अवस्था में ही घोडे की सवारी और शस्त्रविद्या आदि चौदह विद्याओ को पढ़ कर उन में प्रवीण हो गया, हृदय म भक्ति और श्रद्धा के होने से वह ब्राह्मणों और याचकों को नाना प्रकार के दान और मनोवाछित दक्षिणा आदि देने लगा, उस के सद्व्यवहार को देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, किसी समय एक बौद्ध जैन साधु राजकुमार से मिला और उस ने राजकुमार को अहिंसा का उपदेश देकर जैनधर्म का उपदेश दिया इस लिये उस उपदेश के प्रभाव से राजकुमार की बुद्धि शिवमत से हट कर जैन मत में प्रवृत्त हो गई और वह ब्राह्मणों से यज्ञसम्बन्धी हिंसा का वर्णन और उस का खण्डन करने लगा, आखिरकार उस ने अपनी राजधानी की तीनो दिशाओं में फिर कर सब जगह जीवहिंसा को बद कर दिया, केवल एक उत्तर दिशा वाकी रह गई, क्योंकि-उत्तर दिशा में जाने से राजा न पहिले ही से उसे मना कर रक्खा था, जब राजकुमार ने अपनी राजधानी की तीनों दिशाओं में एकदम जीवहिंसा को बंद कर दिया और नरमेध, अश्वमेध तथा गोमेध आदि सव यज्ञ बद किये गये तव ब्राह्मणों और ऋषिजनों ने उत्तर दिशा में जाकर यज्ञ का करना शुरू किया, जब इस बात की चर्चा राजकुमार के कानों तक पहुँची तब वह बड़ा कुद्ध हुआ परन्तु पिता ने उत्तर दिशा में जाने का निषेध कर रक्खा था अतः वह
१-यह वात तो अग्रेजों ने भी इतिहासों में वतला दी है कि-चौद्ध और जैनधर्म एक नहीं है किन्तु अलग २ हे परन्तु अफसोस है कि-इस देश के अन्य मतावलम्वी विद्वान् भी इस बात में भूल खाते हैं अर्थात् वे वौद्ध और जैन धर्म को एक ही मानते है, जव विद्वानों की यह व्यवस्था है तो वेचारे भाट वौद्ध और जैनधर्म को एक लिख इस में आश्चर्य ही क्या है ॥
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