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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३०७ जो भोजन स्वच्छ और शास्त्रीय नियम से बना हुआ हो, बल बुद्धि आरोग्यता और आयु का बढ़ानेवाला तथा सात्त्विकी (सतो गुण से युक्त) हो, वही भोजन करना चाहिये, जो लोग ऐसा करते है वे इस जन्म और पर जन्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप मनुष्य जन्म के चारों फलो को प्राप्त कर लेते है और वास्तव में जो पदार्थ उक्तगुणो से युक्त है उन्ही पदार्थों को भक्ष्य भी कहा गया है, परन्तु जिस भोजन से मन बुद्धि शरीर और धातुओं में विषमता हो उस को अभक्ष्य कहते है, इसी कारण अभक्ष्य भोजन की आज्ञा शास्त्रकारो ने नहीं दी है। भोजन मुख्यतया तीन प्रकार का होता है जिस का वर्णन इस प्रकार है: १-जो भोजन अवस्था, चित्त की स्थिरता, वीर्य, उत्साह, वल, आरोग्यता और उपशमात्मक (शान्तिखरूप) सुख का बढाने वाला, रसयुक्त, कोमल और तर हो, जिस का रस चिरकालतक ठहरनेवाला हो तथा जिस के देखने से मन प्रसन्न हो, उस भोजन को सात्त्विक भोजन कहते है अर्थात् इस प्रकार के भोजन के खाने से सात्त्विक भाव उत्पन्न होता है । २-जो भोजन अति चर्परा, खट्टा, खारी, गर्म, तीक्ष्ण, रूक्ष और दाहकारी है, उस को राजसी भोजन कहते है अर्थात् इस प्रकार के भोजन के खाने से राजसी भाव उत्पन्न होता है। ३-जो भोजन बहुत काल का बना हुआ हो, अतिठढा, रूखा, दुर्गन्धि युक्त, वासा तथा जूठा हो, उस भोजन को तामसी भोजन कहा है अर्थात् इस प्रकार के भोजन के खाने से तमोगुणी भाव उत्पन्न होता है, इस प्रकार के भोजन को शास्त्रों में अभक्ष्य कहा है, इस प्रकार के निषिद्ध भोजन के सेवन से विपूचिका आदि रोग भी हो जाते है । भोजन के नियम ॥ १-भोजन बनाने का स्थान (रसोईघर ) हमेशा साफ रहना चाहिये तथा यह स्थान अन्य स्थानों से अलग होना चाहिये अर्थात् भोजन बनाने की जगह, भोजन करने की जगह, आटा दाल आदि सामान रखने की जगह, पानी रखने की जगह, सोने की जगह, बैठने की जगह, धर्मध्यान करने की जगह तथा स्नान करने की जगह, ये सब स्थान अलग २ होने चाहिये तथा इन स्थानों में चादनी भी बाधना चाहिये कि जिस से मकड़ी और गिलहरी आदि जहरीले जानवरों की लार और मल मूत्र आदि के गिरने से पैदा होनेवाले अनेक रोगों से रक्षा रहे ।। २-रसोई बनाने के सब वर्तन साफ रहने चाहिये, पीतल और ताबे आदि धातु के बासन में खटाई की चीज विलकुल नहीं बनानी चाहिये और न रखनी चाहिये, मिट्टी का बासन सब से उत्तम होता है, क्योंकि इस में खटाई आदि किसी प्रकार की कोई वस्तु कभी नहीं बिगड़ती है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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