SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९० चैनसम्पदामक्षिक्षा ॥ का सेवन, ऊन भादि का गर्म कपड़ा, अँगीठी (सिगड़ी) से मान को गर्म रखना मादि वायें इस ऋतु में पथ्य है ॥ हेमन्त और शिशिर ऋतु का माम एक सा ही पर्याय है, ये दोनों पातु वीर्य को सुषारने के सिये बहुत मच्छी हैं, क्योंकि इन ऋतुओं में जो बीर्य और शरीर को पोषण दिया जाता है यह बाकी के आठ महीने तक ताकत रखता है अर्थात् वीर्य पुष्ट रहता है। यद्यनि सही ऋतुओं में महार और विहार के नियमों का पावन करने से शरीर का सुधार होता है परन्तु यह सब ही जानते हैं कि वीर्य के सुधार के बिना शरीर का सुभार कुछ भी नहीं हो सकता है, इस सिये वीर्य का सुधार भवश्य करना चाहिये और वीर्य के सुधारने के किये धीव मातु, शीतल मकृति और धीवल देश विशेष अनुकूल होता है देखो ! ठवी वासीर, उडी मौसम और ठंडे देश के बसने वालों का वीर्य अधिक होता है । यद्यपि मह तीनों मकार की अनुकूलता इस देश के निवासियों को पूरे सौर से मात नहीं है, क्योंकि यह देश सम श्रीसोप्प है तथापि प्रकृति और धातु की अनुकूलता तो इस देश के भी निवासियों के भी आधीन ही है, क्योंकि अपनी प्रकृति को ठंडी अर्थात् व्रता और सस्वगुण से युक्त रखना यह बात स्वाधीन ही है, इसी प्रकार बीर्म को सुधारने के लिये तथा गर्भाधान करने के लिये श्रीतकाल को पसन्द करना भी इन के स्वाधीन ही है, इसलिये इस ऋतु में मच्छे वैद्य था डाक्टर की सलाह से पौष्टिक दबा, पार्क भयषा खुराक के स्वाने से बहुत ही फायदा होता है । जायफळ, जावित्री, कॉंग, बादाम की गिरी और केश्वर को मिलाकर गर्म किये हुए खूप का पीना भी बहुत फायदा करता है । बादाम की कतली या वादाम की रोटी का स्थाना चीर्ष पुष्टि के लिये बहुत ही फाय मन्द है । इन ऋतुओं में अपथ्य ---जुखाम का सेना, एक समय भोजन करना, मासी रसोई का खाना, वीसे और तुसे पदार्थों का अभिक सेवन करना, सुखी जगह में सोना, ठ पानी से नहाना और विनमें सोना, ये सब बातें इन ऋतुओं में पथ्य है, इसलिये इन का स्याग करना चाहिये || यह जो ऊपर भी अतुओं का पथ्यापथ्य मिला गया है वह नीरोग मकुतियाको के किये समझना चाहिये, किन्तु रोगी का पथ्यापथ्य तो रोग के अनुसार होता है, वह संक्षेप से भागे मिलेंगे ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy