SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७८ जैनसम्पदामशिक्षा | क्योंकि स्त्री के पास जाना चाहिये, किन्तु ऋतुकाल के विना यारवार नहीं जाना चाहिये, ऋतुकाल के बीत जाने पर अर्थात् ऋतुसाव से १६ दिन वीतने के बाद जैसे दिन के मस्त होने से कमल संकुचित होकर बंद हो जात है उसी प्रकार स्त्री का गर्भाशय सकु चित होकर उस का मुख मंद हो जाता है, इस लिये ऋतुकाल के पीछे गर्भाधान के हेतु से सयोग करना अत्यन्त निरर्थक है, क्योंकि उस समय में गर्भाधान हो ही नहीं सकता है किन्तु भस्म वीर्य ही निष्फल जाता है जो कि ( धीर्य दी ) शरीर में अम्भुत छति है, प्राय यह अनुमान किया गया है कि एक समय के वीर्यपात में २ ॥ वोले बीर्ष के बाहर गिरने का सम्भव होता है, यद्यपि क्षीणवीर्य और विषमी पुरुषों में वीर्य की कमी होने से उन के शरीर में से इसने वीर्य के गिरने का सम्भव नहीं होता है तथापि जो पुरुष वीर्य का ममोचित रक्षण करते हैं और नियमित रीति से ही वीर्य का उपयोग करते हैं उन के शरीर में से एक समय के समागम में २|| तोले बीम बाहर गिरता है, अब यह विचारणीय है कि मह २ ॥ तोले वीर्य कितनी खुराक में से और कितने दिनों में बनता होगा, इस का भी विद्वानों ने हिसाब निकाला है और वह यह है कि ८० रतल खुराक में से २ र समिर बनता है और २ र रुधिर में से २|| तोहा वीर्य बनता है, इस से स्पष्ट है कि वो ! मन खुराक जिसने समय में खाई बावे उसने समय में २॥ रुपये भर नया वीर्य बनता है, इस सर्व परिगणन का सार ( मतसम्म ) यही है कि वो मन स्वाई हुई खुराक का सत्व एक समय के स्त्री समागम में निकल जाता है, जब देखो ! यदि तन्दुरुस्त मनुष्य प्रतिदिन सामान्यतया १ || मा २ रत की स्वराक स्वाये तो ४० दिन में ८ रतक खुराक वा सकता है, इस हिसाब से यह सिद्ध होता है कि यदि ४० दिवस में एक बार वीर्य का व्यय हो तबतक तो हिसाब बराबर रह सकता है परन्तु यदि उक्त समय ( ४० दिवस) से पूर्व अर्थात् गोड़ २ समय में मीर्य का खर्च हो तो अन्त में शरीर का क्षय अर्थात् हानि होने में कोई सन्देह ही नहीं है, परन्तु बड़े ही शोक का स्थान है कि जिस तरह लोग धन्यसम्बंधी हिसाब रखते हैं तथा अत्यन्त कूपजसा (कनूसी) करते हैं और द्रव्य का संग्रह करते है उस मकार शरीर में स्थित बीर्य - रूप सर्वोतम जन्म का कोई ही लोग हिसाव रखते हैं, देखो ! द्रव्यसम्बन्धी स्थिति में तो गृहस्थों में से बहुत ही मोड़े दिवाला निकाते हैं परन्तु बीर्यसम्बधी व्यवहार में तो पुरुषों का विशेष भाग विवासियों का धन्मा करता है अर्थात् आय की अपेक्षा मग विक्षेप करते हैं और अन्त में युवावस्था में ही निर्बल बन कर पुरुषस्व ( पुरुषार्थ ) से दीन हो बैठते हैं । ऊपर जो ऋतुकाल का समय ऋतुसान के दिन से सोलह रात्रि लिख चुके हैं उन में से बितने दिन तक रफखाब होता रहे उतने दिन छोड़ देने चाहियें नर्षात् सतुसाप के
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy