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________________ बैनसम्प्रदामशिक्षा | स्वसवस का तेल-पलकर्ता, वृष्य, मारी, बासकफहरणकर्ता, क्षीतल तथा रस और पाक में स्वादिष्ठ है ॥ f अण्डी का तेल - तीक्ष्ण, उष्ण, दीपन, गिलगिला, भारी, गुप्य, त्वचा को सुधारने थाला, भवस्था का स्थापक, मेधाकारक, कान्तिमद, बर्द्धक, पैसे रसवाला, सूक्ष्म, योनि तथा शुक्र का शोषक, आमगन्धवाला, रस और पाक में खादिछ, हुमा, चरपरा तथा दस्तावर है, विषमज्वर, इयरोग, गुरुम, पृष्ठशूल, गुडशूल, यावी, उवररोग, अफरा, व्यष्ठीळा, कमर का रद्द बाना, वातरक, मलसंमद, मद, सूजन, और निधि को दूर करता है, शरीर रूपी यन में विचरनेवाले मामबाव रूपी गजेन्द्र के लिये तो मह ते सिंहरूप ही है | राख का तेल - बिस्फोटक, पान, फोड, खुबती, कृमि और वातकफज रोगों को दूर करती है ॥ २४४ क्षार वर्ग ॥ सानो या अमीन में पैदा हुए स्वार को छोग सदा खाते हैं, दक्षिण मान्स देश तक के योग जिस नमक को खाते हैं यह समुद्र के स्वारी जब से बनाया जाता है, राजपूताने की सांभर झील में भी कास्बों मन नमक पैदा होता है, उस सीख की मद्द खासीर है किजो वस्तु उस में पड़ जाती है वही नमक वन बासी है, उक क्षीर में क्यारियां जमाई जाती हैं, पंचभवरे में भी नमक उत्पन्न होता है तथा वह दूसरे सब नमक से श्रेष्ठ होता है, बीकानेर की रियासत खूणकरणसर में भी नमक होता है, इस के भतिरिक्त अन्य मी कई स्थान मारवाड़ में हैं जिन में नमक की उत्पति होती है परन्तु सिन्ध आदि देशों में ममीन में नमक की खाने है बिन में से स्वोद कर नमक को निकालते हैं वह सेषा नमक खाता है स्वाद और गुप्त में यह नमक प्रायः सब ही नमकों से उत्तम होता है इसीखिये वैध लोग बीमारों को इसी का सेवन कराते हैं तथा भातु मावि रसों के व्यवहार में भी माम इसी का प्रयोग किया खसा है, इस के गुणों को समझनेवाले बुद्धिमान् कोग सदा स्वानपान के पदार्थों में इसी नमक को स्वावे हैं, इंग्लैंड से लीवर पुछ सॉस्ट नामक यो नमक भाता है उस को डाक्टर लोग बहुत मच्छा बताते हैं, खुराक की चीजों में नमक बड़ा ही मरूरी पदार्थ है इस के डालने से तो बढ़ ही जाता है तथा भोजन पचमी बल्दी जाता है किन्तु इस के नियम हो चुका है कि नमक के बिना स्थाने भावमी का जीवन बहुत समय तक नहीं रह भोजन का स्वाद अतिरिक्त यह भी १ संक्षेप से कुछ देने के गुणों का वर्णन किया गया है, क्षेत्रों के पुत्र उनकी योनि के समान जानने चाहिये भवत् भोक पदार्थ से उत्पन्न होता है उस बैंक में उसी पदार्थ के समान शुभ रहते २, इनका विस्तार से गर्म दूसरे मैच में दखना चाहिये ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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