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________________ ५८१ चतुर्थ अध्याय ॥ ७ - असे का रस एक सेर, सफेद चीनी आधसेर, पीपल आठ तोले और घी आठ तोले, इन सब को मन्दाग्नि से पका कर अवलेह ( चटनी ) बना लेना चाहिये, इस के शीतल हो जाने पर ३२ तोले शहद मिलाना चाहिये, इस का सेवन करने से राजयक्ष्मा, खासी, श्वास, पसवाड़े का शूल, हृदय का शूल, रक्तपित्त और ज्वर, ये सब रोग शीघ्र ही मिट जाते हैं । ८ - वकरी का घी चार सेर, बकरी की मेंगनियों का रस चार सेर, बकरी का सूत्र चार सेर, बकरी का दूध चार सेर तथा बकरी का दही चार सेर, इन सब को एकत्र पका मटर के चाहिये, एक वर्ष से लेकर छ वर्ष तक के चालक के लिये छ अगुल के, छ वर्ष से लेकर वारह वर्ष तक के लिये आठ अंगुल के तथा वारह वर्ष से अधिक अवस्था वाले के लिये बारह अगुल के लम्बे वस्ति के नेत्र बनाने चाहियें, छ अगुल की नली में मूग के दाने के समान, आठ अंगुल की नली में समान तथा चारह अगुल की नली में वेर की गुठली के समान छिद्र रक्खे, नली चिकनी तथा गाय की पूँछ के समान ( जड में मोटी और आगे क्रम २ से पतली ) होनी चाहिये, नली मूल में रोगी के अंगूठे के समान मोटी होनी चाहिये और कनिष्ठिका के समान स्थूल होनी चाहिये तथा गोल मुख की होनी चाहिये, नली के तीन भागों को छोड कर चतुर्थ भाग रूप मूल में गाय के कान के समान दो कर्णिकार्ये बनानी चाहियें तथा उन्हीं कर्णिकाओं में चर्म की कोयली (शैली) को दो बन्धनों से खूब मजबूत बाध देना चाहिये, वह वस्ति लाल वा कषैले रंग से रंगी हुई, चिकनी और दृढ होनी चाहिये, यदि घाव में पिचकारी मारनी हो तो उस की नली आठ अगुल की मूग के समान छिद्र वाली और गीध के पाख की नली के समान मोटी होनी चाहिये । वस्ती के गुण-- वस्ति का उत्तम प्रकार से सेवन करने से शरीर की पुष्टि, वर्ण की उत्तमता, बल की वृद्धि, आरोग्यता और वायु की वृद्धि होती है । ऋतु के अनुसार वस्ति - शीत काल और वसन्त ऋतु में दिन में स्नेह वस्ति देना चाहिये तथा ग्रीष्म वर्षा और शरद ऋतु में नेह वस्ति रात्रि में देना चाहिये । वस्ति विधि -- रोगी को बहुत चिकना न हो ऐसा भोजन करा के यह वस्ति देनी चाहिये किन्तु वहुत चिकना भोजन कराके वस्ति नहीं देनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दो प्रकार से (भोजन मे और वस्ति मे ) स्नेह का उपयोग होने से मद और मूर्छा रोग उत्पन्न होते हैं तथा अत्यन्त रूक्ष पदार्थं खिला कर वस्ति के देने से वल और वर्ण का नाश होता है, अत. अल्पस्निग्ध पदार्थों को खिला कर वस्ति करनी चाहिये । वस्ति की मात्रा - यदि वस्ति हीन मात्रा से दी जावे तो यथोचित कार्य को नहीं करती है, यदि अधिक मात्रा से दी जावे तो अफरा, कृमि और अतीसार को उत्पन्न करती है इस लिये वस्ति न्यूनाधिक मात्रा से नहीं देनी चाहिये, अनुवासन वस्ति मे स्नेह की छ पल की मात्रा उत्तम, तीन पल की मध्यम और डेढ पल की मात्रा अधम मानी गई है, स्नेह में जो सोंफ और संधे नमक का चूर्ण डाला जावे उस की मात्रा छ मासे की उत्तम, चार मासे की मध्यम और दो मासे की हीन है । वस्ति का समय - विरेचन देने बाद ७ दिन के पीछे जब देह मे वल आ जावे तव अनुवासन वस्ति देनी चाहिये । वस्ति देने की रीति-- रोगी के खूव तेल की मालिश कराके धीरे २ गर्म जल से बफारा दिला कर तथा भोजन कराके कुछ इधर उधर घुमा कर तथा मल मूत्र और अधोवायु का त्याग करा के स्नेह वस्ति देनी चाहिये, इस की रीति यह है कि रोगी को वायें करवट मुला के बाई
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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