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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ शाक वर्ग ॥ २०९ करनेवाले, इसी लिये नित्य की खुराक के लिये शाक (तरकारी) बहुत कम उपयोगी है, क्योंकि - सब शाक दस्त को रोकनेवाले, पचने में भारी, रूक्ष, अधिक मल को पैदा करनेवाले, पवन को बढ़ानेवाले, शरीर के हाडों के भेदक, आख के तेज को घटानेवाले, शरीर के रग खून तथा कान्ति को घटानेवाले, बुद्धि का क्षय वालो को श्वेत करनेवाले तथा स्मरणशक्ति और गति को कम करनेवाले है, वैद्यकशास्त्रो का सिद्धान्त है कि-सब शाकों में रोग का निवास है और रोग ही शरीर का नाश करता है, इसलिये विवेकी लोगों को उचित है कि - प्रतिदिन खुराक में शाक का भक्षण न केरें, जो २ दोप खट्टे पदार्थों में कह चुके हैं प्रायः उन्ही के समान सब दोष शाको में भी है, यह तो सामान्यतया शास्त्र का अभिप्राय कहा गया है परन्तु पाश्चात्य विद्वानो ने तो यह निश्चय किया है कि-ताजे फल और शाक तरकारी बिलकुल न खाने से स्कर्वी अर्थात् रक्तपित्त का रोग हो जाता है । संसार से विदा होगये ग्रस्त होगये थे, इस यह रोग पहिले फौज में, जेलों में, जहाजों में तथा दूसरे लोगों में भी बहुत बढ गया था, सुना जाता है कि - आतसन नामक एक अग्रेज ने ९०० आदमियों को साथ लेकर जहाज़ पर सवार होकर सब पृथिवी की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ किया था, उस यात्रा में ९०० आदमियों में से ६०० आदमी इसी स्कर्वी के रोग से इस तथा शेष बचे हुए ३०० में से भी आधे ( १५० ) उसी रोग से का कारण यही था कि वनस्पति की खुराक का उपयोग उन में नहीं था, इस के पश्चात् केप्टिन कुके ने पृथ्वी की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ कर उसी में तीन वर्ष के साथ ११८ आदमी थे परन्तु उन में से एक भी स्कर्वी के रोग से केप्टिन को मालूम था कि खुराक में वनस्पति का उपयोग करने से खाने से यह रोग नहीं होता है, आखिरकार धीरे २ यह बात कई होगई और इसके मालूम हो जाने से यह नियम कर दिया गया कि - जितने जहाज़ यात्रा के लिये निकलें उन में मनुष्यों की सख्या के परिमाण से नींबू का रस साथ रखना चाहिये और उस का सेवन प्रतिदिन करना चाहिये, तब से लेकर यही नियम सर्कारी फौज तथा जेलखानों के लिये भी सर्कार के द्वारा कर दिया गया अर्थात् उन लोगों को भी महीने में एक दो वार वनस्पति की खुराक दी जाती है, ऐसा होने से इस स्कर्वी ( रक्तपित्त ) रोग से जो हानि होती थी वह बहुत कम हो गई है । व्यतीत किये, उन नहीं मरा, क्योंकि तथा नीबू का रस विद्वानों को मालूम १- जैसा कि लिखा है कि- "सर्वेषु शाकेषु वसन्ति रोगा" इत्यादि ॥ २ - परन्तु मेरी सम्मति मे उत्तम फलादि का विलकुल त्याग भी नहीं कर देना चाहिये ॥ २७
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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