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________________ २१० चैनसम्प्रदामशिक्षा || ऊपर के लेख को पर कर पाठकों को यह नहीं समझ लेना चाहिये कि इस ( रक्क पित्त ) रोग के कारण को डाक्टरों ने ही खोज कर मतलाया है क्योंकि पूर्व समय के जैन भावक लोग भी इस बात को अच्छी तरह से मानते थे, देखो । उपासकदासूत्र में मानन्द मानक के बारह मतों के ग्रहण करने के अधिकार में यह वर्जन है कि -भानन्य भावक ने एक क्षीरामल फल (स्वीरा ककड़ी) को रखकर और सब वनस्पतियों का त्याग किया, इस वजन से यह सिद्ध होता है कि--आनन्द भावक को इस विद्या की निशता भी, क्योंकि उस ने श्रीरामल फल को मही विचार कर खुला रक्खा था कि यदि एक भी उधम फल को मैं खुला न रक्स्यूगा तो स्कर्वी ( रक्तपित) का रोग हो जायेगा और सरीर मैं रोग के होजाने से धर्मध्यानादि कुछ भी न बन सकेगा । - परन्तु बड़े ही शोक का विषय है कि बत्तमान समय में हमारे बहुत से भोले जैन एकदम मुक्ति में जाने के लिये बिलकुल ही वनस्पति की खुराक का स्याग कर देत है, जिसका फल उन को इसी भव में मिलजाता है कि वे वनस्पति की खुराक का मिल कुछ त्याग करने से अनेक रोगों में फँस जाते हैं तथापि मे जरा भी उन ( रोगों ) के कारणीभोर ध्यान नहीं देते हैं। इस मिया का यथार्थ ज्ञान होने से मनुष्य अपना कस्माण अच्छी तरह से कर सकता है, इस लिये सब जेन बधुओं को इस विधा का ज्ञान कराने के लिये यहां पर संक्षेप से हमने इस को लिखा है, इस बात का निश्धम करने के लिये यदि प्रयम किया जाये वो से प्रत्यक्ष उदाहरण मिल सकते है जिन से यही सिद्ध होता है कि वनस्पति की खुराक का बिलकुल त्याग कर देने से अनक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, देखो ! जिन छार्गो ने एकदम बनस्पति की गुराक को मन्द कर दिया है उनकी गुदा भर मुख से माय सून गिरने लगता है समात् किसी २ क मद्दीन में दो बार बार गिरता हूँ और किसी २ कदाचार यार से भी अधिक गिरता है तथा मुख में छाडे आदि भी हो जाते इत्यादिमा जनों से दीखती है तो उन के लिये दूसरे ममाण की क्या आप यकता है। डाक्टर का कथन है कि उपयोग के लिये धाक भार फल आदि उत्तम होने पाहिये पापा भी मिलें और विपार कर हमने यह बात बिलकुल ठीक भी माम दाती है, क्योंकि भाभी कभार फल आदि हो परन्तु उसमा उन सान होता है भार बाजार में कई दिन तक पड़ रहन र भर ग तु १ अनुसार भरी नाम में भी कहाँ
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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