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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३३५ किस प्रकार की न्यूनाधिकता होती है इन बातो का ज्ञान उन विद्यार्थियों को कुछ भी नहीं होता है, सिर्फ यही कारण है कि वैद्यक शास्त्र के नियमों का ज्ञान उन्हें न होने से वै स्वय उन नियमों का पालन नहीं करते है तथा दूसरों को नियमों का पालन करते हुए देखकर उन का उलटा उपहास करते हैं, जैसे देखो ! द्वितीया, पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णमासी और अमावस, इन तिथियों में उपवास और व्रत नियम का करना वैद्यक विद्या के आधार से बुद्धिमान् आचार्यों ने धर्म रूप में प्रविष्ट किया है, इस के असली तत्त्व को न समझ कर वे इस का हास्य कर अपनी विशेष अज्ञानता को प्रकट करते हैं, इसी प्रकार भाद्रपद में पित्त के सञ्चित हो चुकने से उस के कोप का समय समीप आता है इस लिये सर्वज्ञ ने पयूषण पर्व को स्थापन किया जिस में तेला उपवासादि करना होता है तथा इस की समाप्ति होने पर पारणे में लोग मीठा रस और दूध आदि पदार्थों को खाते है जिन के खाने से पित्त की बिलकुल शान्ति हो जाती है, देखो । चरक ने दोषों को पकाने के लिये लघन को सर्वोपरि पथ्य लिखा है उस में भी पित्त और कफ के लिये तो कहना ही क्या है, इसी नियम को लेकर आश्विन ( आसोज) सुदि सप्तमी वा अष्टमी से जैन धर्म वाले नौ दिन तक आबिल करते है तथा मन्दिरों में जाकर दीप और धूप आदि सुगन्धित वस्तुओ से खात्र अष्टप्रकारी और नवपदादि पूजा करते हैं जिस से शरद् ऋतु की हवा भी साफ होती है, क्योंकि इस ऋतु की हवा बहुत ही जहरीली होती है, शरीर में जो पित्त से रक्तसम्बधी विकार होता है वह भी आविल के तैप से शान्त हो जाता है, इसी प्रकार वसन्त ऋतु की हवा को शुद्ध करने के लिये भी चैत्र सुदि सप्तमी वा अष्टमी से लेकर नौदिन तक यही ( पूर्वोक्त तप) विधिपूर्वक किया जाता है जिस के पूजासम्बन्धी व्यवहार से हवा साफ होती है तथा उक्त तप से कफ की मी शान्ति होती है, इसी प्रकार से जो २ पर्व बाधे गये है वे सब वैद्यक विद्या के आश्रय से ही धर्मव्यवस्था प्रचारार्थ उस सर्वज्ञ के द्वारा आदिष्ट ( कथित ) है, एव अन्य मतों में भी देखने से वही व्यवस्था प्रतीत होती है जिस का वर्णन अभी कर चुके हैं, देखो । आश्विन के कृष्ण पक्ष में ब्राह्मणों ने जो श्राद्धभोजन चलाया है वह भी वैद्यक विद्या से सम्बध १-तेला उपवास अर्थात् तीन दिन का उपवास ॥ २-उपवास अथवा व्रत नियम के समाप्त होने पर प्रकृत्यनुसार उपयोज्य वस्तु के उपयोग को पारण कहते हैं। ३-अर्थात् पित्त और कफ के पकने के लिये तया उन की शान्ति के लिये तो लघन ही मुख्य उपाय है ॥ ४-आविल तप उसे कहते है जिस में सव रसो का त्याग कर चावल, गेहूँ, चना मूग और उडद इन पाच अन्नो मे से केवल एक अन निमक के विना ही सिजाया हुआ साया जाता है और गर्म कियाहुआ जल पिया जाता है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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