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________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा || सोलहवीं सख्या- दुगड, सूगड़ गोत्र ॥ पाली नगर में सोमचन्द्र नामक स्त्रीची राजपूत राज्याधिकारी या, किसी कारण से वा राजा के कोम से वहाँ से भाग कर देश के मध्यवर्ती खांगरू नगर में कटाकर क्स ૨૦ गमा, सोमचन्द्र की ग्यारहवीं पीढ़ी में सूरसिंह नामक एक बज्रा नाभी शूरवीर हु सूरसिंह के दो पुत्र मे बिन में से एक का नाम दूगड़ और दूसरे का नाम सूगर था, इन दोनों भाइयों ने मांग को छोड़ कर मेवाड़ देश में आघाट गाँग को आवाजात महीं रहने लगे, वहाँ तमाम गाँववाले लोगों को नाहरसिंह वीर बड़ी तकलीफ देखा था, उस ( तकलीफ) के दूर करने के लिये प्रामनिवासियों ने धनेक भोपे आदि को मुख्मय तभा उन्हों ने भाकर अपने २ अनेक इम दिखलाये परन्तु कुछ भी उपवन शान्त व हुआ और वे (भोपे नावि) हार २ कर चले गये, विक्रमसंवत् १२१७ ( एक हजार दो सौ सह ) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनवरि जी महाराज के पट्ट मार नरमणिमण्डित मास्क खोरिया क्षेत्रपा सेवित जैनाचार्य श्री जिनचन्त्र सूरिजी महा राज विहार करते हुए वहाँ ( आघाट ग्राम में ) पधारे, उन की महिमा को सुनकर दूसर और सुगर दोनों भाई आचार्य महाराज के पास माये और नमन वन्दन भावि ि धार कर बैठ गये तथा महाराज से अपना सब दुख प्रकट कर उस के मिटाने के लिये अत्यन्त धामह करने लगे, उन के अत्यन्त भामह से कृपाल माचार्य महाराज ने पद्मावती जमा और विजया देमियों के प्रभाव से नारसिंह वीर को वश में कर लिया, ऐसा होने से गाँव का सब उपद्रव शान्त हो गया, महाराज की इस अपूर्व शक्ति को देख कर आचार्य पद पर स्थापित किया था तथा बची (पाठ) मोदक ने किया था ये गोनों (गु माचार्य महाप्रतापी हुए थे जहाँ तक होने के बाद भी एहों ने अनेक विभ्रम मे और वर्तमान में भी मे अपने भार दिखा रहे है, इन महाका प्राय प्रमाण नहीं है कि ऐसा कोई भी प्राचीन मन भी मा गयर नहीं है जिसमें इन के चरणों का स्थान किया क्या हो अर्थात् सब दीनमरों में मन्दिरों और दोषों में इन के परम विराजमान है और दादा भी के नाम से विस्मात रे, पद्म श्रीमजी महाराज का रिफ्री में वर्मा हुआ था तब भावों ने उनकी म को दो में जिये एक्सी थी, उस समय मह चमत्कार हुआ कि वहाँ से पीस चमत्कार को देय कर मादाह ने वहीं पर क्म दे दिया तब भी ने यहीं पर नाम दे दिया पुरानी दि पर अभी तक उन के चरण मौजूद है, यदि दनक सेवा उपभाव भी क्षमा में महान् विशन् हो पर्ने ई सीरी आदि अनेक सम्म सेय में रपे रे ) के माने हुए थे पहने स्पाची पण जो बनाई पर म नामक
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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