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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३०९ अर्थात् झुक कर नही करना चाहिये, क्योकि झुक कर भोजन करने से पेठ के दबे रहने के कारण पक्काशय की धमनी निर्बल हो जाती है और उस के निर्बल होने मे भोजन ठीक समय पर नही पचता है इस लिये सदा छाती को उठा कर भोजन करना चाहिये । ८ - भोजन करते समय न तो अति विलम्ब और न अति शीघ्रता ही करनी चाहिये अर्थात् अच्छी तरह से धीरे २ चवा २ कर खाना चाहिये, क्योकि अच्छी तरह से धीरे २ चवा २ कर न खाने से भोजन के पचने में देरी लगती है तथा वह हानि भी करता है, भोजन के चबाने के विषय में डाक्टरो का यह सिद्धान्त है कि जितने समय में २५ की गिनती गिनी जा सके उतने समय तक एक ग्रास को चबा कर पीछे निगलना चाहिये । ९- भोजन करने के समय माता, पिता, भाई, पाककर्त्ता, वैद्य, मित्र, पुत्र तथा खजनों ( सम्बन्धियो ) को समीप में रखना उचित है, इन के सिवाय किसी भिन्न पुरुष को भोजन करने के समय समीप में नहीं रहने देना चाहिये, क्योकि किसी २ मनुष्य की दृष्टि महाखराब होती है, भोजन करने के समय में वार्तालाप करना भी अनुचित है, क्योंकि एक इन्द्रिय से एक समय में दो कार्य ठीक रीति से नही हो सकते है, किन्तु दोनों अधूरे ही रह जाते हैं, अतः एक समय में एक इन्द्रिय से एक ही काम लेना योग्य है, हा मित्र आदि लोग भोजन समय में उत्तम प्रसन्न करने वाली तथा प्रीतिकारक बातों को सुनाते जायें तो अच्छी बात है, यह भी स्मरण रहे कि -भोजन करने में जो रस अधिक होता है उसी के तुल्य दूसरे रस भी बन जाते है, भोजन करते समय रोटी और रोट आदि कड़े पदार्थों को प्रथम घी से खाना चाहिये पीछे दाल और शाक आदि के साथ खाना चाहिये, पित्त तथा वायु की प्रकृतिवाले पुरुष को मीठे पदार्थ भोजन के मध्य १- बहुत से लोग इस कहावत पर आरूढ हैं कि- “स्त्री का नहाना और पुरुष का खाना" तथा इस का अर्थ ऐसा करते हैं कि स्त्री जैसे फुर्ती से नहा लेती है वैसे ही पुरुष को फुर्ती के साथ भोजन कर लेना चाहिये, परन्तु वास्तव में इस कहावत का यह अर्थ नहीं है जैसा कि वे समझ रहे हैं, क्योंकि आजकल की मूर्खा स्त्रिया जो ज्ञान करती हैं वह वास्तव मे स्नान ही नहीं है, आजकल की स्त्रियों का तो ज्ञान यह है कि उन्होंने नम होकर शरीर पर पानी डाला और तत्काल घाघरा पहना, वस स्नान हो गया, अब अविद्या देवी के उपासकों ने यह समझ लिया कि स्त्री का नहाना और पुरुष का खाना समान समय में होना चाहिये, परन्तु उन को कुछ तो अक्ल से भी खुदा को पहचानना चाहिये ( कुछ तो बुद्धि से भी सोचना चाहिये) देखो ! प्रथम लिख आये हैं कि - स्नान केवल शरीर के मैल को साफ करने के लिये किया जाता है तो यह स्नान ( कि स्त्री ने शरीर पर पानी डाला और तत्काल घाघरा पहना ) क्या वास्तव में स्नान क्या लाभ है । इस लिये यद्यपि यह कहावत उलटा कर लिया है, इस का असली मतलव कहा जा सकता है ? कभी नहीं, क्योंकि कहिये इस स्नान से तो ठीक है परन्तु अविद्या देवी के उपासकों ने इस का अर्थ यह है कि- जैसे स्त्री एकान्त में बैठकर धीरे २ नहाती है अर्थात् सम्पूर्ण प्रकार से पुरुष भी एकान्त में बैठ कर स्थिरता के साथ अर्थात् खूव चवा शरीर का मैल दूर करती है उसी २ कर भोजन करे ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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