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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ विशेष सूचना-इस रोग से युक्त पुरुष को खुराक अच्छी देनी चाहिये, इस रोगी के लिये दूध अथवा दूध डाल कर पकाई हुई चावलों की कांजी उत्तम पथ्य है, रोगी के आसपास स्वच्छता (सफाई ) रखनी चाहिये तथा रोगी का विशेप स्पर्श नहीं करना चाहिये, देखो ! अस्पतालों में इस रोगी को दूसरे रोगी के पास डाक्टर लोग नहीं जाने देते है, उन का यह भी कथन है कि-डाक्टर के द्वारा इस रोग का चेप दूसरे रोगियों के तथा खास कर जखमवाले रोगियों के शरीर में प्रवेश कर जाता है, इस लिये जखमवाले आदमी को इस रोगी के पास कभी नहीं आना चाहिये और न डाक्टर को इस रोगी का स्पर्श कर के जखमवाले रोगी का स्पर्श करना चाहिये ॥ यह चतुर्थअध्यायका ज्वरवर्णन नामक चौदहवा प्रकरण समाप्त हुआ। पन्द्रहवां प्रकरण-प्रकीर्णरोगवर्णन ॥ प्रकीर्णरोगे और उन से शारीरिक सम्बन्ध ॥ यह वात प्रायः सब ही को विदित है कि वर्तमान समय में इस देश में प्रत्येक गृह में कोई न कोई साधारण रोग प्रायः बना ही रहता है किन्तु यह कहना भी अयुक्त न होगा कि प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य प्रक्षिप्त (फुटकर ) रोगों में से किसी न किसी रोग में फंसा ही रहता है, इस का क्या कारण है, इस विषय को हम यहा अन्थ के विस्तार के भय से नहीं दिखलाना चाहते है, क्योकि प्रथम हम इस विषय में संक्षेप से कुछ कथन कर चुके है तथा तत्त्वदर्शी बुद्धिमान् जन वर्तमान में प्रचरित अनेक रोगो के कारणों को जानते भी है क्योकि अनेक बुद्धिमानों ने उक्त रोगो के कारणों को सर्व साधारण को प्रकट कर इन से बचाने का भी उद्योग किया है तथा करते जाते है । हम यहा पर ( इस प्रकरण में) उक्त रोगो में से कतिपय रोगोंके विशेषकारण, लक्षण तथा शास्त्रसम्मत (वैद्यकशास्त्र की सम्मति से युक्त) चिकित्सा को केवल इसी प्रयोजन १-क्योंकि यह रोग भी चेपी (स्पर्शादि के द्वारा लगनेवाला) है ॥ २-ग्रकीर्ण रोग अर्थात् फुटकर रोग ॥ ३-क्योंकि वर्तमान समय में लोगो को आरोग्यता के मुख्य हेतु देश और काल का विचार एवं प्रकृति के अनुकूल आहार विहार आदि का ज्ञान विलकुल ही नहीं है और न इस के विषय में उन की कोई चेष्टा ही है, वस फिर प्रलेक गृह मे रोग के होने में अथवा प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य के रोगी होने में आश्चर्य ही क्या है॥ __कतिपय रोगो के अर्थात् जिन रोगो से गृहस्थी को प्राय पीडित होना पडता है उन रोगों के कारण लक्षण तथा चिकित्सा को लिसते है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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