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________________ ५०० मैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ से मिलते हैं फि-साधारण गृहस्थ जन सामान्य कारणों से उत्पन्न होनेवाले तक रोगों से उन के कारणों को बान कर परे रहें सपा देववध वा भारमदोष से' यदि उक रोमो में से कोई रोग उत्पन हो माने तो लक्षणों के द्वारा उसमा निमय तथा चिकित्सा पर उस (रोग) से मुकि पास, क्योंकि वर्तमान में मह पात प्रायः देसी जाती है कि-एक साधारण रोग के भी उत्पन्न हो जानेपर सर्व साधारण फो वैपके अन्वेपण (रने) भौर विनय द्रव्यन्मया पपने कार्य का स्याग, समय का नाम तमा शेवसहन भावि के द्वारा मविकट उपना परसा है। इस प्रकरण में उन्हीं रोगों का वर्णन किया गया है जो कि वर्चमान में प्राम' प्रपरित हो रहे सपा जिन से प्राणिमों भनेक कर पहुँप हे हैं, वैसे-भवीर्म, ममिमान्य (भमि की मन्दता), शिर का दर्द, अतीसार, संग्रहणी, रुमि, उपवन मोर प्रमेह मादि । इन के वर्णन में यह भी विशेषता की गई है जिनके कारण और स्लमों को मसी मासि समझा कर पिकिस्सा का यह उत्तम कम रक्सा गया है कि-बिसे समाप्त कर एक सापारण पुरुप भी मम उठा सकसा है, इस पर मी मोपपियों के प्रयोग प्राम' ये किसे गये हैं ओ कि रोगोंपर अनेकवार छाभकारी सिद्ध हो चुके हैं। इस के सिवाय ममासस रोगविक्षेप पर भप्रेमी प्रयोग भी दिखा दिये गये यो कि-अनेक विद्वान् राक्टरों के द्वारा मायः मभकारी सिद्ध हो चुके हैं। माशा है कि-सर्वसापारण तमा ग्रास मन इस से भवम्म साम उठावेंगे । अप फारम रूक्षण तथा चिफित्सा के कम से भारश्यक रोगों का वर्णन किया यावा । अजीर्ण (इराइजेधन) का वर्णन ॥ भवीर्ण का रोग यपपि एक बहुत साधारण रोग माना जाता है परन्तु विधार पर देखने से यह भच्छे प्रकार से विदित हो जाता है कि यह रोग कुछ समय के पमात् प्रवरूप को धारण कर लेता है भाव इस रोग से भरीर में भनेक दूसरे रोगों की जा सिस (कायम ) हो पाती है, इस लिये इस रोग को सापारण न समझकर इस पर पूरा पक्ष्म (प्याम ) देना चाहिये, तात्पर्य यह है कि यदि शरीर में मरा भी भजीर्ण माराम पड़े तो उप्त का शीघ्र ही इमा करना चाहिये, देसो! इस पात से प्रायः सन ही समस वैषध भात् पूर्णास मागम फोन से तमा मारमोप से भर्षात पेम से बचानेपाने कारों प्रतिभा पर भी कभी न कभी भूड पामे से । २-पस पाने प्रास होम मेक तौर पे जानते है कि इस प्रमभनुमय से पुभ.. १-यम और मामिमाम पे पे रोग को प्रामापमान में मनुमो प्रेममन्त पाप हे। और विचार कर देखा जाये तो ये हो ऐ रोप सब रोमाने मूकपरम भर्षात् नी दोनों से म रोम स्पन वे ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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