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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३५७ अत्यन्त ही कम मरते ह, इस के पश्चात् बचे हुए चिरस्थायी हो जाते है, इसी प्रकार जन्म से पांच वर्षतक जितने वालक मरते है उतने पाच से दश वर्पतक नहीं मरते है, दश से पन्द्रह वर्षतक उस से भी बहुत कम मरते हैं, इस का हेतु यही है कि वाल्यावस्था में दांतों का निकलना तथा शीतला आदि अनेक रोग प्रकट होकर बालकों के प्राणघातक होते है। ___ समझने की बात है कि-जब किसी पेड की जड मजबूत हो जाती है तो वह वही २ ऑधियों से भी बच जाता है किन्तु निर्बल जडवाले वृक्षों को आधी आदि तूफान समूल उखाड़ डालते है, इसी प्रकार वाल्यावस्था में नाना भाति के रोग उत्पन्न होकर मृत्युकारक हो जाते हैं परन्तु अधिक अवस्था में नहीं होते है, यदि होते भी है तो सौ में पाच को ही होते है। ___ अब इस ऊपर के वर्णन से प्रत्यक्ष प्रकट है कि यदि वाल्यावस्था का विवाह भारत से उठा दिया जावे तो प्राय. बालविधवाओं का यूथ ( समूह ) अवश्य कम हो सकता है तथा ये सव ( ऊपर कहे हुए) उपद्रव मिट सकते है, यद्यपि वर्तमान में इस निकृष्ट प्रथा के रोकने में कुछ दिक्कत अवश्य होगी परन्तु बुद्धिमान् जन यदि इस के हटाने के लिये पूर्ण प्रयत्न करें तो यह धीरे २ अवश्य हट सकती है अर्थात् धीरे २ इस निकृष्ट प्रथा का अवश्य नाश हो सकता है और जव इस निकृष्ट प्रथा का बिलकुल नाश हो जावे गा अर्थात् वाल्यविवाह की प्रथा बिलकुल उठ जावे गी तब निस्सन्देह ऊपर लिखे सब ही उपद्रव शान्त हो जायेंगे और महादुःख का एक मात्र हेतु विधवाओं की संख्या भी अति न्यून हो जावेगी अर्थात् नाममात्र को रह जावेगी (ऐसी दशा में विधवा विवाह वा नियोग विषयक चर्चा के प्रश्नके भी उठने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी कि जिस का नाम सुनकर साधारण जन चकित से रह जाते है) क्योकि देखो ! यह निश्चयपूर्वक माना जा सकता है कि यदि शास्त्रानुसार १६ वर्ष की कन्या के साथ २५ वर्ष के पुरुष का विवाह होने लगे तो सौ स्त्रियों में से शायद पाँच स्त्रियाँ ही मुश्किल से विधवा हो सकती है ( इस का हेतु विस्तारपूर्वक ऊपर लिख ही चुके है कि बाल्यावस्था में रोगों से विशेष मृत्यु होती है किन्तु अधिकावस्था में नहीं इत्यादि ) और उन पाँच विधवाओं में से भी तीन विधवायें योग्य समय में विवाह होने के कारण अवश्य सन्तानवती माननी पड़ेगी अर्थात विवाह होने के बाद दो तीन वर्ष में उन के बालबच्चे हो जावेंगे पीछे वे विधवा होगी ऐसी दशा में उन के लिये वैधव्ययातना अति कष्टदायिनी नहीं हो सकती है, क्योंकि-सन्तान के होने के बाद यदि कुछ समय के पीछे पतिका मरण भी हो जावे तो वे स्त्रियाँ उन बच्चों की भावी आशापर उन के लालन पालन में अपनी आयु को सहज में व्यतीत कर सकती हैं और उन को उक्त दशा में
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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