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________________ ४२९ चतुर्थ अध्याय ॥ तथा पानी के समान होता है और उस में शहद के समान गन्ध आती है, इस रोग में रसायनिक रीति से परीक्षा करने से शकर का होना ठीक रीति से जाना जा सकता है, इस की परीक्षा की यह रीति है कि-यदि शकर की शहा हो तो फिर मूत्र को गर्म कर छान लेना चाहिये ऐसा करने से यदि उस में आल्व्युमीन होगा तो अलग हो जावेगा, पीछे मूत्र को काच की नली में लेकर उस में आधा लीकर पोटास अथवा सोडा डालना चाहिये, पीछे नीलेथोये के पानी की थोड़ी सी बूदें डालनी चाहिये परन्तु नीलेथोये की बूंदें बहुत ही होशियारी से ( एक बूंढ के पीछे दूसरी बूंद) डालना चाहिये तथा नली को हिलाते जाना चाहिये, इस तरह करने से वह मूत्र आसमानी रग का तया पारदर्शक ( जिस में आर पार दीखे ऐसा) हो जाता है, पीछे उस को खूब उबालना चाहिये, यदि उस में शकर होगी तो नली के पेंढे में नारगी के रंग के समान लाल पीले पदार्थ का जमाव होकर ठहर जावेगा तथा स्थिर होने के बाद वह कुछ लाल और भूरे रंग का हो जावेगा, यदि ऐसा न हो तो समझ लेना चाहिये कि मूत्र में शक्कर नहीं जाती है। ५-रवार और खटास (एसिड और आल्कली क्षार)--मूत्र में खार का भाग जितना जाना चाहिये उस से अधिक जाने से रोग होता है, खार के अधिक जाने की परीक्षा इस प्रकार होती है कि-हलदी का पानी करके उस में सफेद ब्लाटिंग पेपर ( स्याही चूसनेवाला कागज़ ) भिगाना चाहिये, फिर उस कागज़ को सुखाकर उस में का एक टुकडा लेकर मूत्र में भिगा देना चाहिये, यदि मूत्र में खार का भाग अधिक होगा तो इस पीले कागज़ का रंग बदल कर नारगी अथवा बादामी रग हो जायगा, फिर इस कागज को पीछे किसी खटाई में भिगाने से पूर्व के समान पीला रग हो जावेगी । यह खार की परीक्षा की रीति कह दी गई, अब अधिक खटास जाती हो उस की परीक्षा लिखते है-एक प्रकार का लीटमस पेपर बना हुआ तैयार आता है उसे लेना चाहिये, यदि वह न मिल सके तो व्लाटिंगपेपर को लेकर उसे कोविज के रस में भिगाना चाहिये, फिर उसे सुखा लेना चाहिये, तव उस का आसमानी रग हो जावेगा, उस कागज का टुकडा लेकर मूत्र में भिगाना चाहिये, यदि मूत्र में खटास अधिक होगा तो उस कागज का रग भी अधिक लाल हो जावेगा और यदि खटास कम होगा तो १-डाक्टर लोग हलदी का टिंक्चर लेते हैं। २-इस प्रकार की मूत्रपरीक्षा के लिये वना हुआ भी टरमेरिक पेपर इगलंड से आता है, यदि वह न होवे तो हलदी मे भिगाया हुआ ही पूर्वोक (पहिले कहा हुआ) कागज लेना चाहिये ॥ ३-अधिक खटास के जाने से भी शरीर में अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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