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________________ २७० जेनसम्प्रदायशिक्षा || पुष्ट हो सकते हैं तथा चरवी के बढ़ जाने से स्थूल हुए पुरुष भी पतले हो सकते हैं, अब इस विषय में संक्षेप से कुछ वर्णन किया बाता है - दुर्बल मनुष्यों की पुष्टि के वास्ते उपाय - दुर्बक मनुष्य को अपनी पुष्टि के वास्ते ये उपाय करने चाहिये कि मिश्री मिला कर थोड़ा २ दूप दिन में कई बार पीना चाहिये, माव काल सभा सायंकाल में शक्ति के अनुसार वण्ड बैठक और मुद्गर ( भोगरी ) फेरना आदि कसरत कर पाचन शक्ति के अनुकूल परिमित वूम पीना चाहिये, यदि कसरत का निर्माद न हो सके तो प्रात काल तथा सध्या कोठडे समय में कुछ न कुछ परि श्रम का काम करना चाहिये अथवा स्वच्छ हया में दो चार मील तक घूमना चाहिये कि जिससे कसरत हो कर खूष इमम हो जाये तथा हमारे विवेकलम्भि श्रीलसौमाग्म कार्या लम का शुद्ध वनस्पतियों का बना हुआ पुष्टिकारक चूर्ण दो महीनेतक सेवन करना चाहिये क्योंकि इस के सेवन करने से शरीर में पुष्टि और बहुत शक्ति उत्पन्न होती है, इसके अतिरिक-गेहूं, जौ, मका, चावल और दाल आदि पदार्थों में अधिक पुष्टिकारक तत्व मौजूद है इसलिये ये सन पदार्थ दुर्बक मनुष्य के लिये उपयोगी हैं, एवं भाव, केळा, भाम, सकरकन्द और पनीर, इन सब पुष्टिकारक वस्तुओं का भी सेवन समयानु सार बोड़ा २ करना योग्य है । ऊपर लिखे हुए पुष्टिकारक पदार्थ दुर्बल मनुष्य को यद्यपि बलवान् कर देते हैं परन्तु इन के सेवन के समय इन के पचाने के लिये परिश्रम पवश्य करना चाहिये क्योंकि पुष्टि कारक पदार्थों के सेवन के समय उन के पचाने के लिये यदि परिश्रम अथवा व्यायाम न किया जावे तो भरणी पढ़ कर घरीर स्थूल पड़ जाता है और भक्षक हो जाता है। जब ऊपर किस्से पदार्थों के सेवन से शरीर ढक और पुष्ट हो जाने तब खुराक को धीरे २ व देना चाहिये अर्थात् शरीर की सिर्फ भारोग्मता बनी रहे ऐसी खुराक खाते रहना चाहिये, इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि इतनी पुष्टिकारक खुराक भी नहीं स्थानी पाहिये कि बिस से पाचनशक्ति मन्द पर कर रोग उत्पन्न हो जाने और म इसना परिश्रम ही करना चाहिये कि मिस से शरीर शिविक पर कर रोगों का भाभम मन मागे । यदि श्वरीर में कोई रोग हो तो उस समय में पुष्टिकारक खुराक नहीं खानी चाहिये किन्तु औषध आदि के द्वारा जब रोग मिट जाये सभा मन्यामि भी न रहे तम पुष्टिकारक खुराक स्वानी चाहिये ॥ १स के सेवन की विधि का पत्र इस के साथ में ही भेजा जाता है तथा दो महीनों तक सेवन करमे बोम्पस (पुरक) पूर्ण मूल्य ५) पात्र है
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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