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________________ चतुर्थ अध्याय || ३८३ ९ - व्यसन - व्यसनों के सेवन से अनेक महाकष्टकारी रोग उत्पन्न हो जाते है, जिन का कुछ वर्णन तो पहिले कर चुके है तथा कुछ यहा भी करते है -- मद्य, ताडी, अफीम, भाग, तमाखू, तवाखीर, चाय और काफी आदि व्यसनो की बहुत सी चीजें हैं, यद्यपि इन चीजों में से कई एक चीजें रोगपर दवा के तरीके से योग्य रीति से वर्तने से फायदा करती है परन्तु ये सब ही चीजें यदि थोड़े दिनोतक लगातार उपयोग में लाई जावे तो इन का व्यसन पड जाता है और जब ये तरीके से नित्य ही प्रयोग में लाई जाती है तब इन से पृथक् २ उत्पन्न हो जाते है, जैसे- - मद्य के व्यसन से रसविकार, वदहजमी, वमन (उलटी ), दस्त की कब्जी, खट्टापन, मन्दाग्नि और मगज की खराबी होती है, आलस्य, दीर्घसूत्रता ( टिल्लडपन ), असा - हस ( हिम्मत हारना ), भीरुता ( डरपोकपन ) और निर्बुद्धिता ( बुद्धि का नाश ) आदि मद्य पीनेवाले के खास लक्षण है, मद्य से फेफसे की भयकर बीमारी, यकृत् अर्थात् लीवर का सकोच, यकृत् का पकना, क्षय, मधुप्रमेह और गुर्दे का विकार आदि अनेक बड़े २ भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं, मद्य का पीना शरीर में विषपान के समान असर करता है तथा बुद्धि को बिगाड़ता है । चीजें व्यसन के प्रकार के रोग अनेक ताडी के व्यसन से पेशाब के गुर्दे का रोग, मन्दाग्नि, अफरा और दस्त आदि रोग होते है तथा ताड़ी का पीना बुद्धि को भ्रष्ट करता है । अफीम के व्यसन से आलस्य, बुद्धि की न्यूनता और क्षिप्तचित्तता (पागलपन) आदि उत्पन्न होते है, विशेष क्या लिखें इस व्यसन से शरीर बिलकुल नष्ट भ्रष्ट ( वरवाद ) हो जाती है । भाग के व्यसन से बुद्धि तथा चतुराई का नाश होता है, मनुप्यत्व ( आदमियत ) का नाश होकर पशुत्व (पशुपन अर्थात् हैवानी ) प्राप्त होता है, स्मरणशक्ति घट जाती है, विचारशक्ति का नामतक नही रहता है, चक्कर आता है, मन खराव होता है तथा आयु घट जाती है । तमाखू के व्यसन से अर्थात् तमाखू के चावने से - पाचन शक्ति मन्द पडती है, वदहजमी रहती है, इस के खाने से पहिले तो कुछ चेतनता सी होती है परन्तु पीछे सुस्ती आती है, हाथ पैर ढीले हो जाते हैं, मन की चञ्चलता तथा चेतनता कम हो जाती है तथा विचारशक्ति भी कम हो जाती है, इस के अधिक खाने से विप के समान असर होता है अर्थात् जीवन को जोखम में गिरना पडता है 1 तमाखू के पीने से छाती में दाह, श्वास तथा कफ का रोग उत्पन्न होता है । १- हा एक दून इस का मित्र है, यदि शरीर के अनुकूल हो तो तैयार कर देता है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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