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________________ जैनसम्प्रदानशिका | ३४२ ये है — आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक, इन में से आध्यात्मिक कारण उन्हें कहते हैं कि यो कारण स्वत पाप कर्म के योग से माता पिता के रब नीर्म के विकार से तथा अपने आहार विहार के अमोम्म वर्षाव से उत्पन्न धोकर रोगों के कारण होते हैं, इस प्रकार के कारणों में ऊपर कहे हुए निश्चय और व्यवहार, इन दोनों नर्सों को सर्वत्र जान छेना चाहिये, वस्त्र का जखम और महरीके बल से उत्पन्न हुआ जखम भावि भनेक विध रोगोत्पादक ( रोगों को उत्पन्न करनेवाले) कारणों को तमा आगन्तुक कारणों को भाधिभौतिक कारण कहते हैं, इन सब में निःश्वमनय में यो पूर्व बद्ध कर्मोयम तथा व्यक हारनय में आगन्तुक कारण मानने चाहियें, हवा, बल, गर्मी, ठंड और ऋतुपरिवर्तन आदि जो रोगों के स्वाभाविक कारण है उन्हें आधिदैनिक कारण कहते हैं, इन कारणों में भी पूर्वोक दोनों ही नम समझने चाहियें । इन्हीं त्रिविध कारणों को पुनः दूसरे प्रकार से तीन प्रकार का बतलाया है जिन का वर्णन इस प्रकार है - Edinia स्वकृत - बहुत से रोग प्रत्येक मनुष्य के शरीर में अपनी ही मूठों से होते हैं, इस प्रकार के रोगों के कारणों को सकृत कहते हैं । २- परकृत-बहुत से रोग अपने पड़ोसी की, अपनी जाति की, अपने सम्बंधी की reer अन्य किसी दूसरे मनुष्य की मूल से अपने शरीर में होत है, इस प्रकार के रोगों के कारणों को परकृत कहते हैं । ३ – देवकृत वा स्वभाषजन्य - बहुत से रोग स्वाभाविक प्रकृति के परिवर्धन से शरीर में होते हैं, जैसे- ऋतु के परिवर्तन से हवा और मनुष्यों की प्रकृति में विकार होकर रोगों का उत्पन्न होना आदि, इस प्रकार के रोगों के कारणों को देस भगवा स्वभावजन्म कहते हैं । यद्यपि रोग के कारणों के ये तीन भेद ऊपर कहे गये हैं परन्तु वास्तव में वो मनुष्य कृत और वैवकृत, ये वादी मेद हो सकते हैं, क्योंकि रोगों के सब ही कारण इन दोनों भेवो में मन्तर्गत हो सकते है, इन दोनों प्रकार के कारणों में से मनुष्यकस कारण उन्हें कहते हैं जो कारण प्रत्येक आदमी भभवा आदमियों के समुदाय के द्वारा मिल कर भ हुए म्यवहारों से उत्पन्न होते है, इन मनुष्यकृत कारणों के भेद संक्षेप से इस प्रकार हो सकते १-क्योंकि मां बाप राज का विकार पर्भावस्था में गर्मियो की निरुद्ध वन भर जम्म ना कराना बारि कारण और के पूर्व दोन पीछ माया आदि पाउद कर और हार पैदा करते है
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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